अब द्रव्य और सूतक की शुद्धि का कुछ विचार किया जाता है। इस आशौचप्रकरण में पहली प्रेतशुद्धि अर्थात् किसी के मरने पर जो अशुद्धि मानी जाती है, वह आशौच शोक से होता है। जहां अपने किसी प्रिय वा इष्टमित्रादि का मरणरूप वियोग होता है, वहां प्रीति और मित्रतादि के न्यूनाधिक होने से सबको शोक भी न्यूनाधिक होता है। जब किसी कारण से मन और शरीर की आकृति को ग्लानि प्राप्त होती है, उसको अशुद्धि का सामान्य लक्षण जानो। किसी पिता आदि अपने सम्बन्धी के मरने पर मनुष्य के चित्त में स्वयमेव ग्लानि और शोक उत्पन्न हो जाता है, और मन, वाणी तथा शरीर के मलिन, शोकातुर होने पर शुद्ध, पवित्र वा प्रसन्न मन, वाणी और शरीरों से सेवने योग्य शुभ कर्म ठीक सिद्ध नहीं हो सकते। उनका अनध्याय रखने के लिये और सर्वसाधारण को अपनी शोकदशा जताने के लिये कि हम ऐसी दशा में हैं। हमसे सब कोई ऐसा व्यवहार न करें जैसा प्रसन्न दशा में करना योग्य है, इत्यादि विचार से शोक के दिनों की अवधि और उन दिनों में अपनी विशेष दशा [कुशादि के आसन पर, पृथिवी पर बैठे रहना, खटिया पर न सोना, न लेटना, स्त्री के पास न जाना, सुगन्धि आदि न लगाना आदि] रखनी चाहिये। पहले हुए विचारशील ऋषि-महर्षि लोगों ने विचारपूर्वक अनुमान किया कि इतने काल में शोक की निवृत्ति हो सकेगी, उतना काल अशुद्धि का बताया गया। यदि यह अवधि अर्थात् शोक रखने की सीमा न की जाती तो साधारण लौकिक मनुष्य निश्चय न कर पाते कि कितने काल में शोक-निवृत्ति करनी चाहिये। अथवा शोक के बने रहते ही स्वस्थबुद्धि से होने योग्य कामों का आरम्भ करते हुए कार्यसिद्धि को प्राप्त हों यह सम्भव नहीं है। इस कारण शोकरूप अशुद्धि के समय का निर्णय करने के लिये सामान्य कर ब्राह्मणादि वर्णों के पृथक्-पृथक् बांधे। सो मानवधर्मशास्त्र के इसी प्रकरण में कहा है कि- ‘ब्राह्मण दश दिन, क्षत्रिय बारह दिन, वैश्य पन्द्रह दिन और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है।’१ ज्ञान के न्यूनाधिक होने से ब्राह्मणादि में न्यूनाधिक दिनों तक शुद्धि की अवधि रखी है। ब्राह्मण वर्ण के सबसे अधिक ज्ञानवान् होने से उसका शोक शीघ्र निवृत्त हो सकता है, इसी कारण उसके लिये सबसे कम दश दिन अशुद्धि रखी। और अन्य तीनों वर्णों की अपेक्षा शूद्र अधिक अज्ञानी होता, इस कारण उसको एक महीने भर अशुद्धि मानने को कहा गया [आजकल प्रायः प्रान्तों में चारों वर्णों में दश ही दिन की अशुद्धि मानी जाती है, यह प्रचार वर्णव्यवस्था के ठीक न रहने से बिगड़ा है अर्थात् शास्त्र से विपरीत चल गया है, सो ठीक नहीं है।] शोकनिवृत्ति के अन्तिम दिन में घर, शरीर और वस्त्रादि की विशेष शुद्धि करनी चाहिये। उससे भी मन की प्रसन्नता होने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। उसी समय कुटुम्बी लोग एकत्र होकर भोजनादि करें तथा अन्य सुपात्र ब्राह्मणों को भी उस समय यथाशक्ति दान-दक्षिणा देवें। इससे द्वितीय अच्छे धर्मसम्बन्धी कार्य में लगने से शोक की निवृत्ति होना सम्भव है। और दानादिक भी धर्मयुक्त शुभकर्म है। भविष्यत् में उससे अच्छा फल होगा, इस कारण अवश्य सेवने योग्य है। यह दश आदि दिनों में सामान्य कर उत्सर्ग रूप शुद्धि दिखायी है। अन्य वचन इसी के अपवाद वा बाधक माने जावेंगे। जैसे कहा कि- ‘सात पीढ़ी वालों को मरणान्तर दश दिन अशुद्धि माननी चाहिये तथा कहीं कभी चार, तीन और एक दिन में भी शुद्ध हो सकते हैं।’१ यहां ये सब विकल्प इसलिये दिखाये गये हैं कि विशेष दशाओं में शीघ्र शुद्धि कर लेने के लिये हैं अर्थात् जहां जैसी आवश्यकता पड़े, वहां वैसी शुद्धि कर लेनी चाहिये। कहीं ज्ञान के अतिप्रबल होने से शीघ्र ही शोकनिवृत्ति हो सकती है, उसको शोक नहीं करना चाहिये। कहीं मरा हुआ प्राणी ही विशेष शोक करने योग्य नहीं, वहां भी शीघ्र ही शोक की निवृत्ति हो सकती है। कहीं शीघ्र शुद्धि न करने में विशेष हानि देखकर शीघ्र शुद्धि और शोक की निवृत्ति करनी चाहिये जैसे किसी के विवाह का समय आ गया और सब अन्नपानादि पदार्थ भी जोड़ लिये गये कि जिनका व्यय होगा, ऐसे समय में किसी का मरण हो जावे और पूरी अशुद्धि मानने में विवाह का नियत समय निकल जावे तो सब भोज्य वस्तु बिगड़ जाना सम्भव है अथवा समय टल जाने से वह विवाहादि कार्य ही किसी कारण पीछे न हो सके तो ऐसी दशा में शीघ्र ही शुद्धि करके वह विवाहादि कार्य भी करना चाहिये। कहीं तत्काल के उत्पन्न हुए बालक के मर जाने पर उसमें विशेष प्रीति के न हो पाने से शोक भी न्यून होगा ऐसे समयों में शीघ्र शुद्धि करनी चाहिये। तथा इसी ग्रन्थ मनुस्मृति में न्यायाधीश राजा के लिये आज्ञा है कि वह उसी समय शुद्ध हो जावे, न्याय कभी बन्द न हो। युद्ध में अशुद्धि नहीं लगती इस प्रकार से लोक के व्यवहार की सिद्धि के लिये मृतक अशुद्धि का निर्णय किया गया है किन्तु मृतक को जन्मान्तर में फल पहुंचाने के उद्देश्य से कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है। इसका विशेष विचार श्राद्धसम्बन्धी विचार के प्रकरण में दिखा चुके हैं। समीप रहने वाले भाई-बन्धुओं को मृतक का जितना शोक होता है, उतना विदेशस्थों को नहीं होता। विदेश में रहने वाले बन्धु मरने वाले के प्राणत्याग को और उसके जलाने आदि को अपनी आंखों से नहीं देखते। इसी कारण उन विदेशस्थों को मृतक का संसर्ग न होने और शोक के कम होने से अशुद्धि भी उसके लिये कम कही गयी है। समीपी सगे और सात पीढ़ी वालों की अपेक्षा अन्य कुटुम्बियों को भी शोक कम होता है, इसलिये उनको भी कम शौच बताया गया है। और जो अशुद्धि के दिन रखे गये हैं, उन दिनों में जैसे-जैसे नियम सेवने वा जो-जो बर्त्ताव करना चाहिये, वे ‘खार-लवणादि न खावें’१ इत्यादि प्रकार इसी प्रकरण में कहे हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।
यह मरण के पश्चात् हुई अशुद्धि कही गयी। आगे सूतकविषय में कुछ कहते हैं। सूतकशब्द उत्पत्ति में होने वाली अशुद्धि का वाचक है क्योंकि सूतक शब्द उत्पत्ति अर्थ वाले सूधातु२ से बना है, इसी प्रकरण में लिखा है कि- ‘मरणसम्बन्ध की अशुद्धि सब कुटुम्बियों को लगती है परन्तु जनने की अशुद्धि केवल माता- पिता को ही लगती है। उसमें भी माता विशेषकर अशुद्ध रहती है, पिता तो जातकर्म किये पश्चात् स्नान करके शुद्ध हो जाता है।’३ नव महीनों का जुड़ा हुआ मैल योनि द्वारा निकलता है, इस कारण विशेष कर दश दिन माता की ही अशुद्धि कही गयी है, तो भी सूतिका और उसके पास के वस्त्रादि को जो-जो स्त्री-पुत्रादि छूते हैं, वे ही सग् के दोष से किसी प्रकार अशुद्ध होते हैं। इसी से सामान्य से उन सब को शुद्धि करनी चाहिये। मृतक अशुद्धि और सूतक में बहुत भेद है। मृतक दशा में विशेष कर अशुद्धि का कारण शोक है, परन्तु यहां सूतक में मलिनता और आनन्द दोनों अशुद्धि के कारण हैं। अर्थात् सन्तान की उत्पत्ति का एक बड़ा आनन्द होता है और अधिक आनन्द की प्राप्ति में मनुष्य का चित्त ठीक स्वस्थ और व्यवस्थित नहीं रहता, इससे विशेष कार्य ठीक-ठीक नहीं हो सकते। इस कारण अनेक कार्यों का अनध्यायरूप अशुद्धि मानी है। परन्तु जनने की अशुद्धि छोटी है।
इस ग्रन्थ में द्रव्यशुद्धि से पहले शरीर की शुद्धि पर कुछ कहा गया है। द्रव्यों में अनेक प्रकार के सामान्य-विशेष वस्तुओं की शुद्धि कही गयी है। परन्तु इस प्रकरण में किसी जाति वा समुदाय विशेष के स्पर्शमात्र से अशुद्धि नहीं दिखायी गयी और किसी को छू लेने से चौका आदि की अशुद्धि भी नहीं कही। इससे लोक में प्रचरित ऐसी अशुद्धि धर्मशास्त्र के अनुकूल नहीं है। परन्तु घृणित मनुष्य वा वस्तु के छूने से अशुद्धि अवश्य होती है, इसी से चाण्डाल का स्पर्श करना लोक में निषिद्ध है। जिससे मन में ग्लानि और बुद्धि की अप्रसन्नता हो, वह अशुद्ध है। घर, वस्त्र और शरीरादि की सबको सब समय शुद्धि रखनी चाहिये, परन्तु इस शुद्धि से मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता। लिखा है कि- ‘जो भीतर मन से शुद्ध है वही शुद्ध है किन्तु मिट्टी-जल से शुद्ध हुआ शुद्ध नहीं।’१ यहां मन-शुद्धि की मुख्यता दिखायी है, किन्तु मिट्टी-जल से शुद्धि करने के निषेध में अभिप्राय नहीं। लेन-देन आदि सब व्यवहार जिसका छलकपटादि रहित है वा जो किसी का विश्वासघात नहीं करता वा अर्थ नाम धनादि के व्यवहार में शुद्ध कहा जाता है। जल आदि बाहरी शुद्धि के हेतुओं से मन और जीवात्मा की शुद्धि नहीं हो सकती, इस कारण उनकी शुद्धि के लिये अन्य ही यत्न दिखाया गया है। ज्ञान, तप, अग्नि और आहार आदि बारह शुद्धि के कारण दिखाये हैं। विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।