पञ्चमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पांचवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। यहां प्रारम्भ में चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं और व्यूलर साहब ने भी पञ्चमाध्याय के प्रारम्भ में पहले चार श्लोक प्रक्षिप्त माने हैं। इस पुस्तक के बनने में भृगु उपदेशक और मरीच्यादि ऋषि श्रोता हैं तो ये चार श्लोक उन दोनों शिष्य-शिक्षकों की ओर से नहीं बन सकते। क्योंकि उनमें लिखा है कि ‘उक्त प्रकार मरीच्यादि ऋषियों ने भृगु से स्नातक के धर्मों को सुनकर महात्मा भृगु से यह प्रश्न किया’१ और ‘भृगु ने उन ऋषियों को ऐसा उत्तर दिया।’२ इत्यादि कथन अन्य किसी की ओर से स्पष्ट प्रतीत होता है। तथा प्रश्नोत्तर भी युक्तिपूर्वक ठीक नहीं हैं। जब पूछा गया कि ‘वेद शास्त्र के जानने और अपने धर्म का सेवन करने वाले ब्राह्मणों की मृत्यु कैसे होती है३ ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? कि ‘वेदों का अभ्यास न करने और अच्छे आचरण के छोड़ देने तथा आलस्य और अभक्ष्यभक्षण से ब्राह्मणों को मृत्यु मार डालना चाहता है।’४ जब पूछने वाला तो कहता है कि विद्वानों की मृत्यु कैसे होती है तो उत्तर देने वाला कहे कि विद्या का अभ्यास न करने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है। यहां विचार का स्थल है कि जब वे विद्वान् और धर्मात्मा हैं तो वेद का अभ्यास और अच्छे आचरण तो अवश्य होंगे और न होंगे तो वे विद्वान् और धर्मात्मा नहीं हो सकते। क्योंकि श्रेष्ठ आचरण भी मुख्यकर धर्म का लक्षण है। इस कारण ये प्रश्नोत्तर अपने कहे को आप ही काटने वा कुछ पूछने पर कुछ उत्तर देने के तुल्य हैं। तथा एक बात यह भी विचारने योग्य है कि जो-जो प्राणी संसार में उत्पन्न हुए हैं, वे मरेंगे भी, जिसका जन्म है उसका मरण भी अवश्य होगा क्योंकि ‘उत्पन्न होने वाले सभी घट-पटादि पदार्थ भी अनित्य हैं’५ यह न्याय का सिद्धान्त है। इसके अनुसार जब विद्वान्, अविद्वान्, धनी, निर्धन सबका मरण अवश्य है तो प्रश्नोत्तर कैसे ठीक हो सकते हैं ? यदि कोई कहे कि अल्पमृत्यु क्यों होता है ? यह पूछने का अभिप्राय है तो प्रश्नोत्तरसम्बन्धी वाक्यों में वैसे शब्द वा अक्षर नहीं पढ़े गये, जिनसे वह आशय निकलता। मनुष्यों की पूर्ण अवस्था क्यों नहीं होती, बीच में क्यों मर जाते हैं ? ऐसा प्रश्न ठीक होता, परन्तु उसका उत्तर केवल भक्ष्याऽभक्ष्य का विचारमात्र नहीं हो सकता, किन्तु ऐसे प्रश्न का उत्तररूप ही यह सब धर्मशास्त्र है। लहसुनादि और मांसादि पदार्थ ही न्यून अवस्था होने के कारण नहीं हैं क्योंकि उनके खाने वाले थोड़ी अवस्था में मर जावें, ऐसा नियम नहीं दीखता लशुनमांसादि में जो-जो दोष हैं वे अन्य ही हैं। जैसे लशुनमांसादि के खाने वाले मरते हैं, वैसे अन्य भी दुराचारी अल्पज्ञ और शरीर की रक्षा के उपायों को नहीं जानने वाले थोड़ी अवस्था में मरते हैं। इस कारण इस अध्याय के आरम्भ में चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं।

सोलहवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। जब यज्ञ में अधर्म का हेतु होने से सब मांस मात्र दुष्ट वा त्याज्य है, यह बात प्रमाणों और युक्ति से सिद्ध हो चुकी फिर पाठीन और रोहितनामक मच्छियों का यज्ञ और श्राद्ध में लेने का उपदेश प्रामादिक तथा स्वार्थी लोगों का घुसेड़ा है। ‘राजीवादि मच्छियों को’१ इत्यादि इस श्लोक का उत्तरार्द्ध असम्बन्ध भी है क्योंकि उसके पदों का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं दीखता। यदि किसी प्रकार सम्बन्ध लग भी जावे कि राजीवादि को खाना चाहिये तो भी जब मांस, होमने योग्य वस्तु किसी प्रकार नहीं ठहर सकता और यज्ञ के बहाने बिना खाना बनेगा नहीं, इसलिये वह पूर्वोक्त इस अध्याय का सोलहवां श्लोक प्रक्षिप्त है।

आगे उन्नीसवें श्लोक से तेईसवें श्लोकपर्यन्त पांच श्लोक प्रक्षिप्त हैं। उनमें से पहले तीन को तो व्यूलर साहब ने भी प्रक्षिप्त माना है। पहले में लहसुन आदि को पुनर्वार अभक्ष्य कहा है सो छठे श्लोक में कह चुकने से पुनरुक्त हो गया, इससे प्रक्षिप्त है। अगले दो पद्यों में प्रायश्चित्त कहा है सो प्रकरण से विरुद्ध और पुनरुक्त है। किन्तु ग्यारहवें अध्याय में प्रायश्चित्त का प्रकरण है, वहां अभक्ष्यभक्षण का सामान्य-विशेष प्रायश्चित्त कहा है फिर यहां प्रायश्चित्त कहना पुनरुक्त है। आगे बाईसवां, तेईसवां और सत्ताईसवां श्लोक यज्ञ में पशु मारने के लिये होने से प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। यज्ञ के बहाने से मांसभक्षण करना बहुत बुरा काम है, यह पहले प्रमाण और युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं। आगे तीसवें श्लोक से बयालीसवें श्लोकपर्यन्त तेरह श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परमेश्वर ने भक्ष्य और भक्षक दोनों प्रकार के प्राणी बनाये हैं, इस कारण यदि मांस खाने में दोष नहीं तो पाप-पुण्य भी सब ईश्वर ने रचा है, फिर पाप करने में दोष भी नहीं मानना चाहिये। यदि ऐसा हो कि पाप करने में भी दोष नहीं तो कर्त्तव्याऽकर्त्तव्य का जिनमें उपदेश है ऐसे विधिनिषेधपरक धर्मशास्त्रों के सब वाक्य व्यर्थ हो जावेंगे। इसलिये वह श्लोक प्रामादिक होने से प्रक्षिप्त है।

आगे इकत्तीसवें श्लोक से लेके यज्ञ के लिये मांस की प्रवृत्ति दिखायी है। उसकी बुराई लिख ही चुके हैं, विशेष भाष्य में देखना चाहिये। इससे आगे छप्पनवां श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। इस पर किन्हीं लोगों का कथन है कि सामान्य कर यह सिद्धानुवाद दिखाया गया है, किन्तु मांस खाने की आज्ञा देने के लिये यह श्लोक१ नहीं है। और यह धर्मशास्त्र ब्राह्मणादि द्विजों के धर्मयुक्त कर्मों का प्रतिपादन करने के लिये है। ‘अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, पवित्रता और इन्द्रियों को वश में करना यह संक्षेप से चारों वर्णों को सेवने योग्य सामान्य धर्म मनु जी ने विशेष कर कहा है।’२ इस प्रमाण के अनुसार मनुष्यमात्र को हिंसा नहीं करनी चाहिये। और ‘हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न होता नहीं, ऐसा होने पर मनुष्यमात्र को मांसभक्षण नहीं करना चाहिये।’३ द्विजों को मद्य नहीं पीना चाहिये, इस प्रकार ग्यारहवें अध्याय में निषेध किया है। और विवाहविचारप्रकरण के साथ तृतीयाध्याय में अयुक्त वा निकृष्ट नीच के साथ मैथुन का निषेध ब्राह्मणादि के लिये किया है। अब शेष रहे शूद्र और पश्वादि, उनका स्वभाव जताने के लिये यह श्लोक है कि सिंहादि वा बिल्ली आदि का स्वभाव मांस खाने का है, उनके लिये कोई दोष नहीं दिखाया गया। नीच, अन्त्यज, शूद्रादि का स्वभाव है कि वे मद्य पीते हैं और मैथुन भी सबमें स्वाभाविक है, परन्तु उन मांसभक्षणादि कर्मों से बचना वा निवृत्त होना, उन शूद्रादि के लिये भी विशेष फलदायक है। इस प्रकार कोई लोग इसका समाधान करते हैं। सो यह समाधान किसी अंश में सम्भव है, सर्वथा नहीं क्योंकि इस विषय में जो-जो दोष आते हैं उन सबका समाधान उक्त प्रकार परिश्रम करने से भी नहीं हो सकता। यद्यपि सिंहव्याघ्रादि का मांस खाना स्वाभाविक काम है। तो भी पश्वादि का काम मद्य पीना नहीं है, और शूद्रादि का भी स्वाभाविक काम मद्य पीना नहीं दीखता। जैसे प्राणीमात्र अन्न का भोजन सदा करते हैं। किसी प्रकार का आहार किये बिना मनुष्यादि के प्राणों की रक्षा कदापि नहीं हो सकती, इसी कारण आहार स्वाभाविक है, परन्तु मद्य से किसी के प्राण की रक्षा बिना अन्य आहार के नहीं हो सकती तथा जैसे प्रायः सब मनुष्य अन्न खाते वैसे मद्य पीने वाले प्रायः सब प्राणी नहीं हैं, और जो लोग मद्य पीते भी हैं उनका भी मद्यपान का निषेध करके धर्मशास्त्रकारों को उद्धार करना चाहिये। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी उन्नति और सुख के साधन चाहता है तो धर्मशास्त्र का काम होगा कि वह सबको कल्याण का मार्ग बतावे और जिसमें किसी समुदाय के लिये दुःख का मार्ग बतलाया जावे उसको विचारवान् विद्वान् लोग कदापि धर्मशास्त्र नहीं कह सकते। इससे सिद्ध हुआ कि मद्यपानादि सबके लिये बुरा काम है। इसी कारण यह श्लोक धर्मशास्त्र की योग्यता से बाहर होने से प्रक्षिप्त है। जो लोग आप ही स्वाभाविक प्रीति से मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में प्रवृत्त हैं, जिससे उनकी मानस, वाचिक और कायिक उन्नति में बड़ी बाधा पड़ चुकी वा पड़ रही है, उनके लिये ऐसा उपदेश सुना देना कि [मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में दोष नहीं१] विशेषकर गड्ढे में गिराने वाला होगा। अर्थात् उनको ऐसा आश्रय मिल जाने से मांसमद्यादि को और भी अधिक सेवेंगे, जिससे उनका बहुत शीघ्र नाश होगा। इसलिये धर्मशास्त्रों में उनके कल्याणार्थ ऐसे वचन हों कि मांसभक्षण वा मद्यपान करने में बड़ा दोष है, किसी को नहीं करना चाहिये। इत्यादि प्रकार कहना उनके लिये कुछ उपकारी होगा। इससे यह श्लोक१ अवश्य निस्सन्देह प्रक्षिप्त है।

इस श्लोक में कोई-कोई सर्वज्ञनारायणादि भाष्यकार दोषशब्द से पूर्व लुप्त अकार की सन्धि मानते हैं कि मांसभक्षण में अदोष नहीं किन्तु अवश्य दोष है इसी प्रकार मद्यमैथुनादि में भी जानो। सो यह उन लोगों की कल्पना और एकदेशी कथन है अर्थात् यह बात सर्वसम्मत नहीं। तथा यह एक प्रकार का वाक्छल है। यद्यपि जो लोग मांसमद्यादि के सेवन करने की इच्छा से इस श्लोक को प्रमाणरूप ढाल बनाना चाहते हैं उनको उत्तर देने के लिये ऐसा अर्थ कर लेना उपयोगी है क्योंकि वे लोग इसको प्रक्षिप्त कदापि नहीं मानेंगे, परन्तु यह धर्मात्माओं की शैली से प्रतिकूल है। और मांसभक्षण में अदोष नहीं किन्तु दोष ही है, ऐसा अर्थ करने पर अर्थापत्ति से सिद्ध हो गया कि मांसादि के छोड़ देने में अवश्य पुण्य है, क्योंकि जिसके करने में दोष माना जाता है, उसके त्याग में पुण्य फल होता ही है। इस कारण इस अकार की सन्धि निकालनेरूप पक्ष में निवृत्ति से महाफल दिखाना भी व्यर्थ है। किन्हीं-किन्हीं मेधातिथि आदि भाष्यकारों की सम्मति है कि जिन-जिन मांसभक्षणादि का विधान है कि यज्ञ में मांस खाना, सौत्रामणी यज्ञ में मद्य पीना और ऋतुकाल में अपनी स्त्री से गमन करना चाहिये। ऐसे मांस, मद्य और मैथुन के सेवन में दोष नहीं परन्तु उससे भी बच सके तो बहुत उत्तम है। सो यह भी उन लोगों का विचार ठीक नहीं, क्योंकि वेदादि श्रेष्ठ पुस्तकों में मांस, मद्य का विधान नहीं है। सौत्रामणी यज्ञ में मद्य पीने का विधान प्रामादिक है। जैसे आपत्काल में कहीं कभी प्राणरक्षा के लिये मांसभक्षण की अपेक्षा रखी है वैसे आपत्काल में भी मद्य से प्राण की रक्षा नहीं हो सकती। इस कारण मद्य, मांस का विधान ही जब नहीं है फिर उसमें दोष का निषेध करना भी असग्त है। यदि मांसादि का विधान भी होता तो उसके विधानमात्र से ही दोष न होना सिद्ध हो जाता है क्योंकि निर्दोष को ही कर्त्तव्य कह सकते हैं। फिर पुनरुक्त होने से यह श्लोक (न मांस०) प्रक्षिप्त है।

आगे छियानवें, सत्तानवें दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन श्लोकों में कहा अर्थवाद ठीक नहीं है किन्तु प्रजा का विवाद मेट वा निर्णय (फैसला) कर रक्षा करने के लिये राजा को नित्य न्यायासन (राजगद्दी) पर बैठना चाहिये, इस कारण उसमें अशुद्धि नहीं लगती, यह चौरानवें श्लोक में कहा अर्थवाद ठीक है। और चन्द्रमा, अग्नि आदि के अंशों से तो सब प्राणियों के शरीर बनते ही हैं, इस कारण से यदि राजा को अशुद्धि का निषेध हो तो सबको अशुद्धि न माननी चाहिये। इस कारण उक्त दोनों श्लोक प्रक्षिप्त हैं। आगे एक सौ पच्चीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। यदि गीले दाल, शाक, खीर वा शीरादि में से कुछ भाग पक्षी, मक्खी, बाल वा कीड़ा आदि से दूषित हो तो उस दाल आदि में थोड़ी मिट्टी डाल देने से उसकी शुद्धि नहीं हो सकती, किन्तु पहले की अपेक्षा और भी बिगड़ जायेगा। क्योंकि मिट्टी मिली हुई दाल आदि को कोई नहीं खा सकता। यदि किसी सूखे वस्तु को पखेरू आदि ने झूठा कर डाला हो तो बिगड़े हुए भाग को निकाल देने से शुद्धि हो सकती है किन्तु मिट्टी डाल देने से वह भी शुद्ध न होगा। और मिट्टी डाल देने मात्र से ऐसे दोष की कोई शुद्धि नहीं मान सकता। आगे एक सौ इकत्तीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है क्योंकि उससे पूर्व श्लोक में लिखा है कि किसी मृग के पकड़ने में कुत्ता का मुख शुद्ध है। यह उपलक्षणमात्र माना जावे कि कुत्ता आदि अशुद्ध प्राणियों का मुख भी शिकार पकड़ने में शुद्ध है, इससे सामान्य कर अन्य भी आ सकते हैं, फिर पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त है। ‘यह मनु ने कहा’ ऐसी आड़ लेना मनु के वाक्य होने में सन्देह कराता है। जब सभी पुस्तक मनु का कहा है तब इस कथन में कुछ विशेषता की सिद्धि नहीं है। अर्थात् जहां धर्मसम्बन्धी कोई विशेष लक्षण होगा, वहां मनु का नाम उसके साथ बल देने के लिये उपयोगी होगा कि इसको विशेष बल के साथ मनु का कथन जानो। परन्तु यहां यह बात नहीं। किन्तु शिकार में कुत्ते का मुख शुद्ध कहने से यह न समझना कि यहां शिकार और मांस खाने की आज्ञा दी जाती हो किन्तु यहां एक प्रकार का सिद्धानुवाद है कि जो लोग मांस खाने में प्रवृत्त हैं, वे कुत्ते आदि मृगयाकारी (शिकारी) अशुद्ध के पकड़े जन्तुओं को भी अशुद्ध नहीं मानते। और यह तो सिद्ध कर दिया है कि जीवों का मारना और मांस खाना पाप का हेतु है। आगे एक सौ सैंतीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्योंकि अन्य आश्रमियों की अपेक्षा स्त्री के साथ में सम्बन्ध होने से गृहस्थ    अधिक अशुद्ध होता है, वैसे ब्रह्मचारी आदि अशुद्ध नहीं होते, इस कारण गृहस्थ से भी ब्रह्मचारी आदि को अधिक अशुद्धि दिखानी चाहिये। परन्तु यह विपरीत लिखना अनुचित है कि गृहस्थ से द्विगुण ब्रह्मचारी को, उससे दूनी वानप्रस्थ को और वानप्रस्थ से दूनी संन्यासी को शुद्धि करनी चाहिये। तथा सबके मलमूत्रादि में गन्ध और मलिनता एकसी होगी। इसलिये कोई उचित कारण ऐसा नहीं मिलता, जिससे ब्रह्मचर्यादि आश्रमस्थों को अधिक-अधिक अशुद्धि कही जावे। इस कारण किसी ने प्रमाद से यह श्लोक मिलाया जान पड़ता है। इस प्रकार इस पांचवें अध्याय के एक सौ उनहत्तर (१६९) श्लोकों में से तीस श्लोक प्रक्षिप्त हैं, शेष रहे एक सौ उनतालीस (१३९) श्लोक अच्छे निर्विवाद माननीय हैं।

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