स्तुता मया वरदा वेदमाता-35
उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुनः।
मनुष्य ही है जो पाप कर सकता है। मनुष्य सदा श्रेष्ठता की परिस्थिति में नहीं रहता। उसका मन बहुत चञ्चल है, उसका वेग भी अधिक है। जैसे वायु वेग से चलती है तो उसके विपरीत चलना या उसे रोक पाना अत्यन्त कठिन होता है, इसी कारण गीता में इसके लिये वायोरिव दुष्करं कहा गया है। इस गतिशीलता के कारण उसे रोकना या स्थिर करना अत्यन्त कठिन होता है। जैसे तुला में सन्तुलन बनाना कठिन होता है, वह बहुत थोड़े हवा के झोंके से ही ऊपर नीचे होने लगती है, उसी प्रकार मन की स्थिति है। यह भी विचारों के अनुसार इधर-उधर होता रहता है, ऊपर-नीचे आता-जाता है।
मन को ऊपर की ओर ले जाने का यत्न करना पड़ता है। मन स्वयं तो भौतिक है, जड़ भी है, परन्तु सूक्ष्म तथा आत्मा के सन्निकट और सहायक होने के कारण उसे आत्मा के चैतन्य का सामर्थ्य प्राप्त है। जब आत्मा उसे निर्देशित नहीं कर रही होती तो वह भौतिक पदार्थों की ओर प्रवृत्त होता है। वास्तव में तो भौतिक पदार्थों से सपर्क करने के लिये और उन्हें जानने के लिये ही उसे बनाया गया है, इस कारण वह भौतिक पदार्थों की ओर आकृष्ट हो, यह स्वाभाविक है। भौतिक पदार्थों के जितने प्रकार हैं, उन्हें शरीर की पाँच इन्द्रियों से ही जाना जाता है। इन्द्रियाँ जहाँ आत्मा के लिये काम करती हैं, वहीं आत्मा के माध्यम से शरीर के लिये भी काम करती हैं। कब उन्हें आत्मा के लिये काम करना है और कब शरीर के लिये- इसका निर्णय मन नहीं करता, उसे आत्मा करती है और इस कार्य में वह बुद्धि की सहायता लेती है। यही वह अवसर है, जब मन को एक कार्य से हटाकर दूसरे कार्य की ओर प्रवृत्त करना होता है। जब आत्मा इस कार्य को नहीं कर रही होती है, तो हम कहते हैं- मन ऐसा कर रहा है। मन तो ठीक ही कर रहा है, वह अपना कार्य कर रहा है। आत्मा का कार्य है- उसे अनावश्यक से हटाकर आवश्यक और अपेक्षित की ओर लाये।
जब ऐसा नहीं हो पाता, तब हम उस कार्य को करने लगते हैं। जब वह कार्य शरीर या मन के स्तर पर हमारे लिये हानिकारक होता है, तब वह हानि ही पाप कहलाती है। इस हानि को हम सावधान होकर ही रोक सकते हैं। इस प्रयत्न को करने के लिए आत्मा को जागना होता है, मन को रोकना होता है। जो क्षति हो गई है, उस की पूर्ति करने का प्रयास करना होता है। यह परिस्थिति हमारे श्रेष्ठ विचारों के द्वारा ही समभव है। ये विचार कभी हमारे अन्दर से आते हैं, कभी बाहर से उन्हें लाने का, जगाने का प्रयास किया जाता है। बाहर के इन प्रयासों में सहायक लोग देव हैं, जो हमारे अन्दर के दिव्य सामर्थ्य को जाग्रत करते हैं, नीचे की ओर, पाप की ओर जाते हुए मन को उच्चता की ओर प्रेरित करते हैं। हम मन के द्वारा ही नीचे की ओर जाते हैं। नीचे जाने का कारण मन ही है, अतः उसे ही मोड़ना होगा। यह सामर्थ्य दिव्य विचारों में है, उन देवताओं में है, जो हमें ऐसे विचार दे सकते हैं।
यहाँ पर हमें एक तथ्य समझ लेना चाहिये कि हम सदा नीचे गिरने के लिये मन को दोषी मानते हैं। जब मन भौतिक है तो उसके जड़ होने की अनिवार्यता है। जड़ वस्तु कितनी भी बड़ी और शक्तिशाली क्यों न हो, उसमें विवेक, निर्णय या विचार का सामर्थ्य नहीं होता, फिर मन में निर्णय का सामर्थ्य कैसे आ सकता है? मन शक्तिशाली है, पर क्या वह आत्मा से अधिक सामर्थ्यवान है? चाहे संसार के सारे पदार्थ भी एक ओर हो जायें तो वे चेतना की बराबरी नहीं कर सकते, फिर मन का क्या सामर्थ्य है कि वह अपनी इच्छा से आत्मा को चलाये? जो आत्मा जड़ मन को भी चैतन्य का भान करा सकती है, वह स्वयं जड़ मन के साथ जड़ कैसे बन सकती है? अतः गलती, अपराध, पाप आदि मन के कारण नहीं, आत्मा के कारण ही होते हैं। आत्मा विवेक का उपयोग नहीं करती, अपितु अनुचित की इच्छा करती है, उसे अच्छा मानती है, तभी तो पाप में प्रवृत्त होती है। जब आत्मा पाप को अनुभव करती है, उसे पाप के रूप में पहचानती है, तब उसे वह कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती। जो मनुष्य एक बार आग से जल चुका हो, वह जान-बूझकर आग में हाथ डालेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। अतः मन ऐसा करता है- यह कथन शरीर या मन के स्तर पर हमारी आत्मिक दुर्बलता को ही प्रकट करता है। वस्तुतः ऐसा कहना मिथ्या ही है।
यदि मन अपने-आप कार्य करने में स्वतन्त्र होता तो उसके लौटने की समभावना ही समाप्त हो जाती। वह जो चाहता है, उसे छोड़कर विपरीत दिशा में क्यों जाता? मन का भौतिक विषयों की ओर जाना इस कारण स्वाभाविक है कि वह भौतिक तत्त्वों से बना है। वह आत्मा का साधन है, उसे जो भी सामर्थ्य प्राप्त है, आत्मा के कारण ही प्राप्त है। जब जड़ शरीर आत्मा के कारण चेतन बना हुआ है और आत्मा से पृथक् होते ही जड़ दिखाई देने लगता है, तब जड़ मन के चेतन प्रतीत होने में क्या बाधा है? यह शरीर भी तभी तक चेतन लगता है, जब तक चैतन्य से संयुक्त होता है। इस कार्य के समाप्त होने पर आत्मा इसको त्याग देती है, उसी प्रकार जड़ मन भी जब तक आत्मा के लिये उपयोगी होता है, जब तक चेतन बना रहता है। उसका उपयोग आत्मा प्रलय तक अथवा मुक्ति तक करती है, तब तक वह आत्मा के अनुसार चलता है फिर नष्ट हो जाता है। यही सामर्थ्य इस मन्त्र भाग में वर्णित है। हम दिव्य विचारों से पाप को छोड़कर, मृत्यु से बचकर जीवन को प्राप्त कर सकते हैं।