स्तुता मया वरदा वेदमाता-३२
इदं तदक्रिदेवा असपत्ना किलाभुवम्
हम शत्रुता करने को अपना स्वभाव समझते हैं। शत्रुता हमारे जीवन की बाधा है, रुकावट है। शत्रु तो रोकता है, परन्तु शत्रुता का भाव मनुष्य के आन्तरिक गुणों में ह्रास उत्पन्न करता है। इसे दूर करने के लिये मनुष्य को शत्रुता के भाव को भी पराजित करना पड़ता है। इसके लिये व्यक्ति को अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने पड़ते हैं, दिव्य भाव के बिना मनुष्य शत्रुता के भावों को दूर नहीं कर पाता। इस मन्त्र के शब्द कह रहे हैं- असपत्ना किला भुवम्। मैं शत्रु मठों से रहित हो गई हूँ। इन शत्रुओं से रहित होने के क्रम में मैंने अपने अन्दर की शत्रुता भी समाप्त कर दी है, शत्रु का समाप्त करना, क्रिया का बाहरी प्रभाव है, परन्तु शत्रुता समाप्त करना अन्दर की विजय का परिणाम है।
मनुष्य बाहर के शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते समय वह केवल बाहर ही युद्ध नहीं कर रहा होता है, अपितु उसे अपने अन्दर शत्रु के लिये क्रोध उत्पन्न करना पड़ता है, वीरता का भाव उत्पन्न करना पड़ता है, सामने शत्रु को देखकर उसे भयभीत करने के लिये उसे काल के समान साक्षात् विकराल बनना पड़ता है। बाहर के शत्रु को तो हम पराजित कर लेते हैं, परन्तु शत्रुता के भाव को पराजित करना, उसे निकालना, देवों की सहायता के बिना नहीं होता। जब हम देवों की सहायता लेते हैं, अपने अन्दर दिव्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ होते हैं, तब हमारे अन्दर से शत्रुता का भाव समाप्त होता है।
परमेश्वर सभी शत्रुओं को समाप्त कर देता है, परन्तु उसके अन्दर कभी शत्रुता का भाव नहीं आता, इसका कारण है- उसका भाव क्रोध का भाव नहीं है, उसका भाव मन्यु का भाव है। मन्यु क्रोध से भिन्न जैसे माता अपने शिशु पर अपने बालक पर क्रोध करती है, परन्तु वह क्रोध द्वेष मूलक नहीं होता, द्वेष मूलक क्रोध में शत्रुता का भाव होता है, जब की मन्यु माता का गुरु का क्रोध है। इसीलिये हम उसे सहनशील कहते हैं, सहोदगीन कहते हैं, सहनशीलता में विरोध को, शत्रुता को सहन करना आता है। सहनशीलता शत्रुता में जो अन्तर है, वह सामर्थ्य का अन्तर है। सहन करने वाले या विरोध या शत्रुता करने वाले के सामर्थ्य को कम देखता है, उसकी परवाह करने योग्य भी नहीं समझता। उसे कभी अनुकूल करने योग्य मानता है। जबकि विरोध शत्रु को सीमा का उल्लंघन करने से रोकने का प्रयास है। उसके सामर्थ्य को अधिक बढ़ने से रोकना चाहता है। मनुष्य को अधिक सामर्थ्य के लिये परमेश्वर की सहायता की आवश्यकता होती है। शत्रु पर विजय पाकर शत्रुता के भाव को भी हृदय से निकालने के लिये देवों की दिव्यशक्ति की आवश्यकता होती है। अन्यथा शत्रुओं पर विजय का अहंकार मन से शत्रुता के भाव को निकलने नहीं देता। केनोपनिषद् में कथा आती है- देवताओं ने देवासुर संग्राम में अपनी विजय को अपना सामर्थ्य और अपनी महत्ता समझ लिया। ईश्वर ने समझाया- यह देवत्व से दूर होने का मार्ग है। देवत्व का मार्ग तो उस परमेश्वर की शक्ति को स्वीकार करना है, हमें उस सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहिये। संसार की शक्तियाँ उसी दिव्य शक्ति से कार्य करती है। देवताओं ने अपरीचित यक्ष को जानने के लिये अग्नि देवता को यक्ष के पास भेजा था, यक्ष ने पूछा- तुम कौन हो? अग्नि ने कहा- मैं अग्नि और जातवेदा हूँ। मेरे में संसार की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्म करने की शक्ति है। यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रखकर कहा- इसको जला दो। अग्नि अपने पूरे सामर्थ्य से भी जला न सका। देवताओं ने वायु को कहा, वायु यक्ष के पास पहुँचा। यक्ष ने पूछा- तुम्हारा क्या सामर्थ्य है? वायु ने कहा- जो कुछ इस संसार में है, मैं उसे उड़ा सकता हूँ। यक्ष ने तिनका उसके सामने रखा, उस तिनके को वायु पूरे सामर्थ्य से भी नहीं उड़ा सका। तब आत्मा ने यक्ष को जानने-समझाने का प्रयास किया। बुद्धि से समझ में आया- संसार के सारे सामर्थ्य उस परमेश्वर के हैं, उसके बिना संसार का सामर्थ्य कुछ काम नहीं आता। अतः इस मन्त्र में कहा गया है- देवताओं ने यह सामर्थ्य मुझे दिया है कि मेरे शत्रु और मेरे अन्दर की शत्रुता समाप्त हो गई।