श्राद्ध में पूज्य देव और पितर कौन हैं ? श्राद्ध नित्य कर्म है वा नैमित्तिक ?
अब पितर वा पितृ किसको कहते हैं ? इस बात का विचार किया जाता है। नीति में लिखा है कि- ‘उत्पादक, यज्ञोपवीत कराने वाला, विद्यादाता, अन्नदाता और भय से बचाने वाला, ये पांच पिता माने गये हैं।’१ इस प्रकार पितृ शब्द योगरूढ़ है और अपने उत्पादक पिता में रूढ़ि भी है। लौकिक लोग पिता शब्द कहने से उत्पादक से भिन्न को नहीं जानते। अन्य लौकिक व्यवहार में पिता शब्द से प्रकरणानुसार जनक, यज्ञोपवीत कराने, अन्न देने वा भय से बचाने वाले का ग्रहण होता है। परन्तु श्राद्ध कर्म में विशेष कर पितृ शब्द से विद्यादाता का ग्रहण होता है, और अपने-अपने उत्पादक पिता की सेवा-शुश्रूषा तो सबको सदैव करनी ही चाहिये। क्योंकि जो ऐसा नहीं करता, वह कृतघ्न अवश्य है। और ज्ञान वा विद्या देने वाले ज्ञानी पिता का भी भोजनादि से प्रतिदिन सत्कार करना चाहिये, वही श्राद्ध है। अपने जनक और अन्य यज्ञोपवीत कराने वाले आदि की जो सेवा है, उसको सामान्य प्रकार से तर्पण कहते हैं। श्राद्ध कर्म में पूजने योग्य दो ही हैं- पितृ और देव। जो पुरुष वाणी के कर्म में प्रवीण हैं, पढ़ाने और उपदेश करने में सदा प्रवृत्त अर्थात् पढ़ाने और उपदेशादि वाणी के कर्म द्वारा विद्या का प्रचार करके जगत् का उपकार करने के लिये प्रतिक्षण प्रवृत्त हों, वे देवता कहाते हैं। इसी प्रसग् पर यह भी कहना अनुचित नहीं कि वाक्, वाणी, सरस्वती, विद्या ये शब्द एकार्थक हैं, तो प्रशस्त विद्यावान् लोगों को देव मानना ठीक सिद्धान्त है। और जो मानसकर्म ज्ञान में सदा रमण करते, अपने मन ही मन में शुद्ध आनन्द की लहरियों का अनुभव करते हैं। सदा अच्छे-बुरे का विवेक करते हैं। बहुत कम नियम से बोलते वा वाणी को वश में करके मौन रहते हैं। जिस-जिस विषय पर सम्यक् अनुभव कर लेते हैं कि जिसके प्रचार से जगत् का ठीक-ठीक उपकार हो सकता है। उसी विषय को पुस्तकादि द्वारा सरल कर प्रचलित करते हैं, वे पितर हैं ‘वेदविद्या का दान देने से आचार्य- गुरु को पिता कहते हैं। अज्ञानी को बालक और ज्ञानी को पिता कहते हैं।’२ इत्यादि मनु जी के प्रमाणों से पूर्व का कथन सिद्ध होता है। शतपथ ब्राह्मण में भी स्पष्ट लिखा है३ कि- ‘जिनमें वाणी के कठोर, मिथ्याभाषण, चुगली और असम्बद्ध बोलनारूप चार दोष न हों, किन्तु सत्यबोलना, हितकारी वाक्य बोलने, प्रियवाणी बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना इन्हीं चार प्रसगें में वाणी का व्यय करना, किन्तु क्रोधादि पूर्वक नहीं बोलना ये गुण जिनमें हो वे देव हैं। और मानस विचार में तत्पर रहें अर्थात् मन के तीन [अन्य के वस्तु को लेने की तृष्णा, दूसरों का अनिष्ट विचार, और व्यर्थ असम्भव विचार ये] दोष जिनमें न हों तथा मानस तीन गुण- सब प्राणियों पर दया, निरपेक्षा वा सन्तोष और शुभकर्मों वा परमात्मा की उपासनादि में श्रद्धाभक्ति जिनमें विशेष कर हों वे पितर कहाते हैं।’ सारांश यह है कि वाचिक पापों से रहित और वाचिक पुण्य करने में विशेष कर प्रवृत्त देव, और मानस पापों से रहित, मानस पुण्य करने में अधिक कर प्रवृत्त पितृ कहाते हैं। जिनकी वाणी सब प्रकार शुद्ध है, वे देव और जिनका मन सब प्रकार शुद्ध है, वे पितृ लोग कहाते हैं। मानस विचार की रक्षा वाणी से होती है, इसी अभिप्राय से पितृ कार्य का रक्षक देवकार्य को माना है। तथा देव को ऋषि और पितृ को मुनि भी उक्त विचारानुसार कह सकते हैं। जहां देव, ऋषि, पितृ, सब आते हैं, वहां ऋषि पद वाच्य ब्रह्मचर्याश्रमस्थ वेदाध्येता तपस्वी अन्तेवासी शिष्य लिये जावेंगे इत्यादि। इसी विचार को पुष्ट करने के लिये तृतीयाध्याय के श्राद्धप्रकरण में मनु जी ने स्वयमेव कहा है कि- ‘जिनमें सत्त्वगुण की प्रधानता होने से बुद्धिवर्द्धक तथा खाने योग्य हों, वे कव्यपदार्थ प्रयत्न के साथ ज्ञानियों को खवाने चाहियें। और होमने योग्य वस्तु चारों प्रकार के विद्वानों को खवाने चाहियें।’१ इसी कारण उपनिषदों में भी ‘आत्मज्ञानी की पूजा करें’२ ऐसा लिखा है। इससे भी ज्ञानी लोगों का ही सत्कार आता है। सत्य-असत्य का विवेक करने वाले ज्ञानी जनों की जो लोग सम्यक् श्रद्धा, भक्ति से सेवा करते हैं, वे उन सेवकों पर प्रसन्न होकर कल्याण करने के लिये मन लगाते हैं। और श्रेष्ठमार्ग का उपदेश करते वा संकेतमात्र से जता देते हैं कि यह काम ऐसे करना चाहिये और यह न करना चाहिये। इसी कारण ज्ञाननिष्ठ पितृजनों के सेवक भी कल्याणभागी होते हैं। इसी से ज्ञानयुक्त पितृजनों की अन्नादि दान से श्रद्धापूर्वक सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये। सब सत्कारों में भोजनार्थ अन्न से सत्कार करना ही सबमें मुख्य है। क्योंकि वेद का सिद्धान्त है कि ‘प्राणियों का प्राण अन्न के ही आश्रय है।’३ और भोजन से ही इस शरीर की उत्पत्ति, स्थिति और नाश हो सकता है। सात्त्विक- सत्त्वगुण का बढ़ाने वाला आहार मिलने पर शरीर नीरोग और सत्त्वगुण वाली प्रबल बुद्धि होती है, इसी से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि है। वस्त्र और भूषण आदि सुख के साधनों के न मिलने पर भी केवल अन्न और जल के आश्रय से शरीर ठहर सकता है, परन्तु अन्न-जल न मिलने पर लाखों रुपये वा सब पृथिवी का राज्य मिल जाने पर भी शरीर की स्थिति नहीं रह सकती। इससे तर्पण और श्राद्ध में अन्न-जलों से सत्कार करना मुख्य है। पूर्वकाल से श्रेष्ठ लोगों की भी यही परिपाटी चली आती है [अब थोड़े दिनों से कुछ परम्परा बिगड़ी है कि मरे हुओं के नाम से पिण्ड देने लगे और इस अंश को प्रायः आर्षपुस्तकों में भी मिला दिया] इसलिये भोजन से मुख्य कर सबको ज्ञानी पितृ लोगों का श्राद्ध करना अत्यन्त उचित है।
अब यह विचार किया जाता है कि श्राद्ध भी नित्यकर्म है वा नैमित्तिक ? इसका उत्तर यह है कि दोनों प्रकार का हो सकता है। जैसे मनुष्य को नित्य श्राद्ध करना चाहिये, यह विधि- आज्ञा है। सो मनुस्मृति में ही लिखा है कि- ‘नित्य अन्न, जल, दूध वा खीर, फल और कन्द मूलों से पितृ- नाम ज्ञानी पुरुषों का प्रीतिपूर्वक श्रद्धा से सत्कार करे।’१ (यहां नित्यकर्म श्राद्ध के विधान में भोजन के पदार्थ गिनाये हैं। इनमें मांस अभक्ष्य होने से नहीं रखा गया। इसी से अन्यत्र जहां-जहां मांस का प्रयोग श्राद्ध में लिखा है, वहां-वहां सर्वत्र प्रक्षिप्त जानो) तथा पञ्च महायज्ञ सामान्य कर नित्यकर्म हैं, उनके अन्तर्गत होने से भी श्राद्ध नित्यकर्म सिद्ध होता है, यह सब कथन उत्सर्गरूप से है।
और अपवादरूप से श्राद्ध नैमित्तिक भी है। अर्थात् जो कोई प्रतिदिन भोजनादि सत्कार के साधनों के न मिल सकने से श्राद्ध नहीं कर सकता। अथवा जिसको सत्कार के योग्य पितृजन नित्य-नित्य नहीं प्राप्त होते, उसको साधनों के मिलने और पूज्य पितृजनों की प्राप्ति होने पर श्राद्ध करना चाहिये [पूजा के योग्य पितृ कहने से किन्हीं अवस्था में बड़ों का ग्रहण नहीं समझना क्योंकि- “अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः”२ इस कथन से सिद्ध है कि ज्ञानवृद्ध का नाम पिता है, किन्तु अवस्थावृद्ध का नाम नहीं]। नैमित्तिक श्राद्ध के लिये कोई समय भी नियत करना चाहिये। इसीलिये हमारे पूर्वजों ने नैमित्तिक श्राद्ध के लिये समय नियत किया था, ऐसा अनुमान होता है। इसी कारण “श्राद्धे शरदः“३ इस पाणिनीय सूत्र की व्यवस्था ठीक लग जाती है। इस सूत्र का आशय यह है कि ऋतुवाचक शरद् शब्द से श्राद्ध अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। यद्यपि शरद् ऋतु में अनेक सामान्य वा विशेष कार्य होते हैं, तथापि शरद् ऋतु में हुए वा होने वाले श्राद्ध का ही नाम शारदिक पड़ेगा, शरद् ऋतु के अन्य कामों को शारद कहेंगे। परन्तु इस कथन से यह तात्पर्य नहीं है कि शरद् ऋतु में ही श्राद्ध किया जाये अन्य में न किया जाय वा अन्य ऋतु में श्राद्ध नहीं होता। किन्तु अभिप्राय केवल यह है कि अन्य ऋतु वाचक शब्दों से ठञ् न हो, किन्तु अण् ही हो तिससे “शैशिरं श्राद्धम्” ऐसा भी कह सकते हैं। और किसी अपवाद सूत्र से किसी प्रयोजन से विशेष कर प्रत्यय का विधान करना उस वस्तु, कर्म वा भाव का किसी विशेष समय में अधिक प्रचार होना सूचित करता है। जैसे शरद् ऋतु में रोग और सूर्य के तेज की विशेषता होती है। इसी कारण शरद् शब्द से “विभाषा रोगातपयोः”१ इस पाणिनीय सूत्र द्वारा विशेष प्रत्यय का विधान किया जाता है। वैसे ही यहां भी शरद् ऋतु में नैमित्तिक श्राद्ध की विशेषता अनुमान से जाननी चाहिये। साधनों के ठीक-ठीक न मिलने आदि पर श्राद्ध का नैमित्तिक करना कहा गया है। वे भोजन करने योग्य वस्तु सर्वोपरि उत्तम पदार्थ दूध से बनते अर्थात् खोया के पेड़ा, बरफी और रबड़ी, खीर आदि अनेक प्रकार के मीठे वा दही, मठा, शिखरन आदि वस्तु सब दूध से बनते हैं। और वर्षा ऋतु के होने से गौ आदि पशुओं के भोजन घासादि मुख्य कर उसी समय वा उससे कुछ पहले अवश्य उत्पन्न होते और पशुओं के भक्ष्य घासादि की अधिकता से दूध अधिकतर उत्पन्न होता है इस कारण खीर आदि वस्तु सुगमता से प्राप्त हो सकते हैं और श्राद्ध में खीर आदि पुष्ट वस्तुओं का प्रायः विधान किया है। और अन्नों के बीच उत्तम चावल मुख्य माने गये हैं, वे भी वर्षा की अधिकता से शरद् ऋतु में ही उत्पन्न होते हैं। इसी कारण क्वार के महीने में पूर्वकाल से नैमित्तिक श्राद्ध की परिपाटी चलाई गई थी। और वह सत्य परम्परा अब नष्ट हो गयी अर्थात् वह श्राद्ध जिस उद्देश से पहले चलाया गया था, वैसा उद्देश अब नहीं रहा। अब कोई वैसे ज्ञानी लोगों को श्राद्ध के लिये न खोजता और न परीक्षा करता और न उसके मुख्य प्रयोजन को समझ कर श्राद्ध करता, किन्तु अब विपरीत अधिक कर होता है। परन्तु सत्पुरुष आर्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को उचित है कि पूर्वोक्त प्रकार से फिर सत्य परम्परा का प्रचार करें। जो लोग उक्त कारण से नित्य श्राद्ध नहीं कर सकते, उनके लिये नैमित्तिक श्राद्ध का समय विशेष नियत करना चाहिये, यह कह चुके हैं। सो इसकी अत्यन्त आवश्यकता इसलिये भी है कि अन्य भी जिन-जिन कार्यों का समय नियत किया जाता है, वे ही काम यथार्थरूप से वा जिस किसी प्रकार अवश्य होते हैं। अर्थात् मनुष्य में प्रायः कुछ गुण ऐसे लगे हैं कि वह अधर्म की ओर तो शीघ्र झुक जाता वा ऐसे कामों में शीघ्र लग जाता है, जिनसे उसको प्रत्यक्ष कुछ स्वार्थसिद्धि दीखती है। ऐसे काम अधिकांश में मुख्य धर्मसम्बन्धी नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि ऐसे कामों का समय नियत न किया जाय, तब भी वह प्रायः कर सकता है। परन्तु जो मुख्य धर्म- सम्बन्धी काम हैं वा जिनका स्वार्थ प्रत्यक्ष नहीं दीखता वा जिन कार्यों के सिद्ध होने में अत्यन्त परिश्रम की अपेक्षा है, उन कार्यों के करने से प्रायः बचता रहता है। और बहुत से कार्यों की मरण पर्यन्त इच्छा ही करता रहता है, पर कुछ भी नहीं कर पाता, इसलिये मुख्य वा सर्वोत्तम धर्मसम्बन्धी कार्यों के करने का यदि समय नियत हो तो लोकलज्जादि से तो भी कुछ करने पड़ता है। और नियत समय पर प्रायः आलस्य स्वयं दूर हो जाता है। यह बात लोक में दीख भी पड़ती है कि अनेक मनुष्य लोकलज्जादि के कारण अनेक दुष्कर्मों से बच जाते और जिन शुभ कामों का समय नियत है, ऐसे अनेक काम लोकलज्जा वा देखा-देखी अवश्य करने पड़ते हैं। परन्तु जिन कर्त्तव्य शुभकामों का कोई समय ही नियत नहीं है, उनको प्रायः लोग आलस्यादि के वश होने से नहीं कर पाते। आजकल में अमुक कार्य करेंगे, इस प्रकार कहते-कहते ही काल आकर घेर लेता है। उस समय शोकरूप समुद्र में गोता लगाते हैं। इसलिये यदि पूर्वज लोगों के नियत किये नैमित्तिक श्राद्ध के शरद्ऋतु वा अमावास्यादि समय किसी प्रकार दोषयुक्त ठहरें [अर्थात् जिस कार्य की परिपाटी मुख्य उद्देश्य को छोड़कर अन्यथा हो जाती है, वे कार्य वा उनके समय शिष्ट लोगों में प्रायः दूषित समझे जाते हैं, क्योंकि उन समयों में प्रायः उसी परिपाटी वालों में समझे जाने सम्भव हैं। जैसे विष्णु के भक्त वैष्णव वा ब्रह्म के उपासक ब्राह्म इत्यादि शब्द अच्छे हैं, पर वे एक-एक मत विशेष के साथ प्रचरित हो जाने से दूषित हो गये, इसी कारण आर्य लोग अपने को ब्राह्म, वैष्णव वा शैवादि नामों से न लिख सकते और न कहकर प्रसिद्ध कर सकते हैं, इसी प्रकार यदि अशिष्ट वा अन्धपरम्परा ग्रस्त लोगों से परिगृहीत होने से समय दूषित समझा जावे] तो आर्य लोगों को अन्य कोई समय नियत करना चाहिये कि अमुक-अमुक समय में हम लोगों को नैमित्तिक श्राद्ध कर्त्तव्य है। उस नियत समय पर पूर्व से ही पूज्य पितृजनों का बुलाना और भोजन की सामग्री का जोड़ना उचित है और इसी प्रकार अनेक लोग करते भी हैं, तो भी आर्य लोगों को विशेष कर शुभकर्म का प्रचार करने के लिये [कि जो कर्म अज्ञान से विपरीत भाव को प्राप्त हो गये हैं, उनसे हानि ही होती है उन] श्राद्धादि कर्मों को नियत-नियत समय पर सत्य उद्देश्य के साथ विशेष कर प्रवृत्त करना चाहिये, यही सर्वसाधारण के सुधार का उदाहरण हो जायेगा। ऐसा करने से ही विपरीत कर्मों की निवृत्ति हो सकती है। किन्तु विरुद्ध चाल के खण्डन मात्र से निवृत्ति होना दुस्तर है। इसलिये साधन और समय के अनुसार अन्नादि सामग्री से श्रद्धा भक्ति पूर्वक विवेकी लोगों का सेवनरूप श्राद्ध आस्तिक सज्जन लोगों को अवश्य करना चाहिये, यही मुख्य सिद्धान्त है।