जिज्ञासा- निम्नलिखित जिज्ञासाओं का समाधान करने का कष्ट करेंः-
१. हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव बनने का प्रयास करना चाहिए?
मनुष्य बनेंगे तो ‘‘शतपथ’’ वाली बात बाधा डालती है, जिन्हें यज्ञ करने तक का अधिकार नहीं है। जब महर्षि दयानन्द द्वारा अनेक स्थलों पर दी गई ‘‘मनुष्य’’ की परिभाषा में सभी श्रेष्ठ गुण आ जाते हैं, तो फिर देव बनने की क्या आवश्यकता रह जाएगी और इस तरह मन्त्र में ‘‘मनुर्भव’’ वाली बात का औचित्य भी सिद्ध हो जाएगा।
समाधान-(क) वेद व ऋषियों के तात्पर्य को समझने के लिये वेद व ऋषियों की शैली को ही अपनाना पड़ता है। इस आर्ष शैली को अपनाकर जब हम वेद और ऋषि वाक्यों को देखते हैं, तब वे वाक्य हमें स्पष्ट समझ में आते चले जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने वक्ता अथवा लेखक का भाव, उद्देश्य समझने के लिए सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में चार बातें-आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य को जानने के लिए कहा है। प्रायः जब हम भाषा-शैली वा भाषा-विज्ञान को नहीं जान रहे होते, तब हम किसी बात के अर्थ को ठीक से नहीं जान पाते।
महर्षि दयानन्द ने मनुष्य की परिभाषा अनेक स्थानों पर दी है। वे परिभाषाएँ अपने-अपने स्थान पर उचित हैं। महर्षि मनुष्य के अन्दर जो मनुष्यता के भाव होने चाहिए उनको लेकर परिभाषित कर रहे हैं, जैसे स्वात्मवत्, सुख-दुःख में वर्तना, विचार पूर्वक कार्य करना आदि। यह मनुष्य बनने की प्रेरणा वेद भी ‘मनुर्भव’ वाक्य से कर रहा है। इसको देखकर आप तो शतपथ के वाक्य को देख रहे हैं और उसमें विरोधाभास दिख रहा है, सो है नहीं। यहाँ जो ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कहा है, वह एक सामान्य कथन है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य सदा झूठ ही बोलता है, सत्य बोलता ही नहीं। हाँ, इसका यह तात्पर्य तो अवश्य है कि मनुष्य अपने अज्ञान आदि के कारण झूठ बोल देता है, जबकि यह भाव देवताओं में नहीं होता, क्योंकि विद्वानों, ज्ञानियों को देवता कहा गया है, ‘‘विद्वांसो वै देवाः’’। विद्वान् ज्ञानी लोगों में अज्ञान स्वार्थ आदि के न होने के कारण वे सत्य बोलते हैं, सत्य का आचरण करते हैं। इसका यह भी तात्पर्य नहीं है कि कभी झूठ बोल ही नहीं सकते, नहीं बोलते। हाँ, देव और मनुष्य कोई अलग नहीं हैं। दोनों में एक ही अन्तर है कि देवों से त्रुटियाँ नहीं होती अथवा यूँ कहें कि अत्यल्प होती हैं। जो होती हैं, वे जीव की अल्पज्ञता के कारण होती हैं और इनसे इतर जो हैं, वे मनुष्य हैं। मनुष्यों से त्रुटियाँ अधिक हो सकती हैं, होने की सम्भावना अधिक रहती हैं।
‘‘अनृतं मनुष्याः’’ इस सामान्य कथन को लेकर ‘‘मनुर्भव’’ से विरोध देखना उचित नहीं हैं। ‘‘मनुर्भव’’ मनुष्यता से युक्त मनुष्य बनने की बात कह रहा है और ‘‘अनृतं मनुष्याः’’ कह रहा है कि मनुष्य से अज्ञान के कारण त्रुटि हो सकती है। इन दोनों में कोई विरोध नहीं है, दोनों वाक्य अपने-अपने स्थान पर अपनी बात कह रहे हैं।
हमें मनुष्य बनना चाहिए या देव? तो हमें श्रेष्ठता की ओर बढ़ना चाहिए। मनुष्य बनना कोई हीन बात नहीं है। वेद ने मनुष्य बनने के लिए कहा है और इससे आगे अपने अन्दर देवत्व पैदा करने की बात कही, अर्थात् मनुष्य से आगे हम देव बनें।
आप शतपथ की इस बात को लेकर कह रहे हैं कि ‘‘इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य को यज्ञ करने का अधिकार नहीं है।’’
शतपथ के इस पूरे प्रसंग से कहीं भी ऐसी बात प्रतीत नहीं हो रही कि मनुष्य को यज्ञ से दूर रखा जा रहा हो और देवताओं के लिए यज्ञ करने का विघान हो। यहाँ तो केवल सामान्य परिभाषा की जा रही है कि जो असत्य बोल देता है (किन्हीं कारणों से) वह मनुष्य और जो सत्य बोलता है, देवता होता है। यहाँ मनुष्यों के यज्ञ न करने की बात कहाँ से आ गई? अपितु शास्त्र में यह कथन तो मिलता है- ‘‘मनुष्याणां वारम्भसामर्थ्यात्।।’’ का. श्रौ. पू. १.४ अर्थात् यज्ञ-याग आदि कर्म करने का अधिकर मनुष्यों का है, मनुष्य इस कार्य के लिए समर्थ हैं। इस शास्त्र वचन में मनुष्य ही यज्ञ का अधिकारी है और आप इसके विपरीत देख रहे हैं जो कि है ही नहीं।
अभी हमने पीछे कहा कि मनुष्य बनना कोई हीन काम नहीं है,मनुष्य बनना एक श्रेष्ठ स्थिति है। जिस स्थिति को महर्षि दयानन्द परिभाषित करते हैं, वहाँ यहाँ वाली स्थिति नहीं है। महर्षि की मनुष्य वाली परिभाषा में धर्म का बाहुल्य है, विचार का बाहुल्य है। किन्तु देव मनुष्यों से आगे धर्म और विचार का बाहुल्य रखते हुए विवेक विद्या का बाहुल्य भी रखते हैं, वे राग-द्वेष से ऊपर उठे हुए होते हैं। यह सब होते हुए देव बनने की आवश्यकता है, इसलिए वेद ने कहा ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।’ इस आधार पर मनुष्य और देव दोनों बनने का औचित्य है।