पापों से छुटकारा और महर्षि दयानन्द

पापों से छुटकारा और महर्षि दयानन्द

– पं. महामुनि शास्त्री विद्याभास्कर

[यह लेख आर्य मर्यादा साप्ताहिक के 28 फरवरी 1971 के अंक में प्रकाशित हुआ था। सैद्धान्तिक दृष्टि से लेख की उपयोगिता को देखते हुए, पाठकों के लाभार्थ हमने प्रस्तुत किया है।  – समपादक]

[27 सितबर 1970 के ‘आर्य मित्र’ में श्री पं. मदन मोहन जी विद्यासागर महर्षि दयानन्द मार्ग हैदराबाद के ‘पापों को क्षमा कर’ नामक लेख के उत्तर में]

स्वाध्यायशील आर्य जनों को सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों के पठन-पाठन से महर्षि दयानन्द जी का निमनलिखित मन्तव्य सूर्य प्रकाशवत् विदित है- ‘जो मनुष्य जैसा शुभ-अशुभ कर्म करता है, वह उसके तदनुरूप फल को अवश्य प्राप्त करता है। कोई भी कृतकर्म निष्फल नहीं जाता। किया हुआ शुभाशुभ कर्म का फल यथाकाल समय पर कर्ता को भोगना ही पड़ता है।

कर्मफल स्वयमेव नहीं मिलता, उसको देने वाला परमेश्वर है। वह किसी के साथ पक्षपात (रियायत व ज्यादती) नहीं करता। कर्मानुसार यथोचित व्यवहार करता है। इत्यादि।

परन्तु कहीं-कहीं ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना के प्रकरण में श्रद्धालु विचारशील साधकों को ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामी जी महाराज भी अपने पूर्वोक्त सिद्धान्त के विपरीत अन्य पन्थाइयों के समान कह रहे हैं। इसका समाधान होना चाहिये।

इसलिये ‘पाप को क्षमा कर’ नामक लेख में प्रदर्शित स्थलों के सबन्ध में भी समाधान प्रस्तुत किये जाते हैं।

प्रथम विचारशील जनों को यह बात हृदयङ्गम कर लेनी (समझ लेनी) चाहिये कि भाषा की रचना विद्वान् जन प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही किया करते हैं। प्रत्येक विषय का अपना-अपना उद्देश्य होता है, वह उद्देश्य सतत् (उस-उस) विषय की भाषा से पूर्ण होना चाहिये, इसी में वक्ता की सफलता समझी जाती है।

महर्षि दयानन्द जी का बनाया हुआ ‘आर्याभिविनय’ नामक ग्रन्थ ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना रूप विषय का प्रतिपादक है।

स्तुति कहते हैं- गुण-कीर्तन (गुणवर्णन) को, प्रार्थना=माँगना याचना, उपासना= समीपस्थिति (समीप होना) अर्थात् ईश्वर के स्वरूप में मग्न होना। स्तुति से ईश्वर के प्रति प्रेमभाव की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। प्रार्थना से निरभिमानिता, सामर्थ्य और सहायता की प्राप्ति होती है। उपासना से तल्लीनता (ईश्वर के स्वरूप में मग्न हो जाना) और ईश्वरीय गुणों की प्राप्ति होती है।

दूसरी बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिविनय (ईश्वर के प्रति नम्रता प्रदर्शन वा ईश्वर को सर्वव्यापक समझ कर आत्म समर्पण आदि) में भाषा के भावों को सिद्धान्तानुसार ढ़ालना (निकालना) चाहिये। अभिविनय के शदों से किन्हीं सिद्धान्त विशेषों का निर्माण करना (निकालना) अनुचित होगा। अर्थात् जहाँ-जहाँ सिद्धान्त की भाषा में और अभिविनय की भाषा में विरोधाभास (विरोध प्रतीत) हो, वहाँ विरोधपरिहारार्थ (विरोध दूर करने के लिए) अभिविनय की भाषा के भावों को ही सिद्धान्तानुसार ढ़ालना (निकालना) होगा, क्योंकि अभिविनय (स्तुति प्रार्थना) की भाषा काव्यमयी (चमत्कारपूर्ण) लचक वाली हुवा करती है तथा सिद्धान्त की भाषा सदा कठोर (दृढ़) और अपरिवर्तनशील होती है।

मान्यवर विद्वान् पं. विद्यासागर जी ने आर्याभिविनय के चारस्थल शंकनीय समझकर विचारार्थ प्रस्तुत किये हैं। अब उन पर क्रमशः विचार किया जाता है।

  1. 1. आर्याभिविनय की द्वितीय प्रकाश के प्रथम मन्त्र की व्याखया में लिखा है- ‘[मनसा वाचा कर्मणा अज्ञानेन प्रमादेन वा सद् यत् पापे कृतं मया, तत्तत् सर्वं कृपया क्षमस्य। ज्ञानपूर्वकपापकरणान्निवर्त्तय माम्। मन से, वाणी से और कर्म से अज्ञान वा प्रमाद से जो-जो पाप किया हो, किंवा करने का हो, उस-उस मेरे पाप को क्षमा कर (और) ज्ञानपूर्वक पाप करने से भी मुझे रोक दे।] जिससे शुद्ध होके मैं आपकी सेवा में स्थित होऊँ।’

समाधान पूर्वोक्त सन्दर्भ में शंकराऽस्पद (शंका का विषय) पद ‘क्षमस्व’ (क्षमा कर) है। महाभाष्यकार आचार्य पतञ्जलि जी का वचन है- ‘अनेकार्था अपि धातवो भवन्ति।’ अर्थात् ‘धातूनामनेकार्थाः’। इसका भाव यह है कि धातु पाठ में जो धात्वर्थ (धातुओं के अर्थ) आचार्य पाणिनि जी ने लिखे हैं केवल वही अर्थ उन धातुओं के नहीं है अपितु उन अर्थों से भिन्न भी अनेक अर्थ उन धातुओं के होते हैं। वे प्रकरणानुसार विद्वानों को समझ लेने चाहिये। धातुपाठ के वादिगण में ‘क्षमूष् सहने’ ऐसा पढ़ा है तथा सह् धातु का अर्थ- ‘षहमर्षणे’ ऐसा पढ़ा है। मर्षण शबद के अनेक अर्थों में एक अर्थ पृथक्करण= दूर करना परे हटाना (जुदा करना) भी है। जैसे सन्ध्या के ‘अघमर्षण’ मन्त्रों का अर्थ करते हुए ‘मर्षण’ पद का यही पूर्वोक्त अर्थ (दूर करना) स्वामी जी महाराज ने किया है।

पाप का दूरीकरण वा छुड़ाना क्या है? अकृत पाप को अपने पास अर्थात् मन में भी न आने देना, तथा कृत पाप का पुनः (दो बार तीन बार आदि) न होने देना ही पाप का दूरी करण है।

‘क्षमस्व’ इस क्रिया पद से पूर्व ‘कृपया’ पद भी पठित है जिसका अर्थ है ‘सामर्थ्य के द्वारा’ ईश्वर की सामर्थ्य क्या है? प्राकृतिक नियम ही ईश्वर की सामर्थ्य है। इस विषय में (सुख-दुःख प्राप्ति के सबन्ध में प्राकृतिक (ईश्वरीय) नियम है- ‘धर्मात् सुखम् अधर्माद् दुःखम्’ अर्थात् धर्माचरण से सुख प्राप्ति और अधर्माचरण से दुःख प्राप्ति होना। नियम तोड़ना वा नियम विरुद्ध करना ईश्वर की सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ‘क्षमस्व’ पद का अर्थ कृत (किये हुए) पाप कर्म के फल को ‘माफ कर दो= न दो- नष्ट कर दो’ ऐसा समझना भूल है। क्योंकि पूर्वोक्त अर्थ का स्पष्टीकरण (खुलासा) स्वामी जी महाराज ने स्वयमेव इसी वाक्य के अन्तिम पद ‘निवारयतु’ से कर दिया है। अर्थात् ‘क्षमस्व’ और ‘निवारण’ दोनों पद यहाँ पर्यायवाची (एकार्थक) हैं। हिन्दी भाषार्थ में जो ‘क्षमस्व’ का ‘क्षमा कर’ किया है, यहाँ भी क्षमा का अर्थ निवारण (दूर करना) ही उपयुक्त (ठीक) है, क्योंकि भाषार्थ में एक वाक्यांश है- ‘किंवा करने का हो’। जो पाप कर्म अभी तक कर्मणा वाचा मनसा (कर्म वाणी व मन से) किया ही नहीं है, उसको क्षमा कर अर्थात् उसका फल न दो, माफ कर दो, नष्ट कर दो, यह करने का क्या अर्थ? क्षमा का निवारण अर्थ स्वीकार करने पर तो अर्थ की संगति बैठ जाती है, उसका निवारण यही है कि- वह हमारे पास कभी न आने पावे, उसकी मन से भी किञ्चित् इच्छा भी न हो।

अन्यच्च- यहाँ (इस प्रकरण में) ‘क्षमस्व’ (क्षमा) का अर्थ निवारण न मानकर ‘फल न देना’ मानने पर अग्रिम (अगला) वाक्य ‘जिससे शुद्ध होके…’ इत्यादि असंगत हो जावेगा, क्योंकि आत्मा की शुद्धि (निर्मलता) ज्ञानपूर्वक पाप कर्म के त्याग करने से ही हो सकती है। पाप करने और उसका फल न मिलने से तो पापाचरण अधिक होकर आत्मा की मलिनता घटने की अपेक्षा अधिक बढ़ेगी। दुःखित होने पर ही मनुष्य दुःख के कारण को दूर करने का प्रयत्न करत है, अन्यथा नहीं।

इसलिये यहाँ पर क्षमा का अर्थ ‘दूर करना’ अर्थात् निवारण ही वक्ता को अभिप्रेत है। ऐसा समझना चाहिये। क्षमा के निवारण अर्थमें वेद का भी प्रमाण है। तद्यथा-

ओम् शं च नो मयश्च नो मा चनः किञ्चनाममत्।

क्षमारपो विश्वं नो अस्तु भेषजं सर्वं नो अस्तु भेषजम्।।

– अथर्व. काण्ड 6, सूक्त 57, मन्त्र 3

इस मन्त्र में पठित ‘क्षमा’ पद का अर्थ ‘क्षम्’ धातु का अर्थ निवारण (उपशमन) अर्थ ही संगत बैठता है। ऐसा ही अर्थ सायणाचार्य और पं. क्षेमकरण दास जी आदि भाष्यकारों ने भी किया है।

मनुस्मृति का प्रमाण-

क्षान्त्या शुध्यन्ति विद्वासो दानेनानिसृकारिणः।

प्रच्छन्नपापा जप्पेन तपसा वेदवित्तमाः।

– मनु. अ. 5, श्लोक 107।

संस्कारविधि गृहाश्रम प्रकरण।

‘विद्वान् लोग क्षमा से शुद्ध होते हैं।’ यहाँ भी क्षमा का अर्थ कुकाम, कुक्रोध, कुलोभ आदि मानसिक विकारों का उपशमन अर्थात् मन से पृथक्करण (दूर हटाना) अर्थ ही अभिप्रेत है।

  1. द्वितीय शंका स्थल- ‘आप जिसको चाहो उसकी ऐश्वर्य देओ’। आ.द्वि.प्र.मं. 11 इस पर अन्य टिप्पणी मान्यवर पण्डित जी ने नहीं लिखी (की)। मेरे विचार में इस वाक्य को इसलिए शंकित समझा गया है कि इससे यह ध्वनित होता है कि कर्मफल देना, न देना, न्यूनाधिक देना तथा कर्म किये बिना भी अच्छा-बुरा फल दे देना ईश्वराधीन है। जैसे ईसाई, मुसलमान आदि मतवादी मानते हैं कि ईश्वर स्वतन्त्र है, वह अपनी इच्छा से सब कुछ कर सकता है। इत्यादि।

समाधान ‘आप जिसको चाहो, उसको ऐश्वर्य देओ।’ इस वाक्य से पूर्व (प्रथम) और ऊपर (पश्चात्) वाक्य इस प्रकार है-

‘आप के ही स्वाधीन सकल ऐश्वर्य है। अन्य किसी के नहीं। आप जिसको चाहो, उसको ऐश्वर्य देओ। सो आप कृपा से हम लोगों का दारिद्रय छेदन करके हमको परमैश्वर्य वाले करे, क्योंकि ऐश्वर्य के प्रेरक आप ही हैं।’ यहाँ प्रथम वाक्य में- ‘आप के ही स्वाधीन सकल ऐश्वर्य है’ इस वाक्य में ‘आप के ही आधीन…. है’ ऐसा कथन न करके ‘स्व’ शबद जो अधिक सन्निवेश किया है, उसका यह अर्थ (अभिप्राय) है- आपका जो ‘स्व= प्राकृतिक (ईश्वरीय) नियम, उसके आधीन सकल ऐश्वर्य है तथा ‘सो आप कृपा से इत्यादि वाक्य में कृपा से’ (कृपया) पद भी पूर्वोक्त नियम का ही बोधक है। किसी को ऐश्वर्य देने और न देने के विषय में ईश्वरीय नियम क्या है? इस विषय में आर्ष वचन है।

  1. ‘न ऋते श्रान्तस्य सयाय देवाः’।
  2. ‘इन्द्र इच्चरतः सखा।’ इत्यादि।
  3. अर्थ- जब तक मनुष्य किसी प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये पूर्ण (शक्तिभर) परिश्रम करके सर्वथा श्रान्त (थका हुआ) नहीं हो जाता, तब तक परमदेव परमात्मा उसकी मित्रता के लिए अभिमुख नहीं होता अर्थात् उसको मनोवाञ्चित फल नहीं देता।
  4. इन्द्र= ऐश्वर्य का दाता परमेश्वर परिश्रम करने वाले का ही मित्र है, आलसी, प्रमादी का नहीं। इत्यादि आर्ष वचनों को जानता हुआ ही ज्ञानी भक्त ज्ञानूर्वक परिश्रम (उद्योग) करता है। उसको दृढ़ विश्वास है कि मेरा भगवान् न्यायकारी है, मेरे परिश्रम का फल अवश्य देगा।

किंवा वस्तुतः चाहना (इच्छा करना) ईश्वर में घटता ही नहीं, क्योंकि ईश्वर तो सर्वज्ञ, सर्वव्यापक होने से आप्तकाम है। इच्छा करने वाला (अपूर्णमनोरथ) तो एक देशी (परिछिन्न) अल्पज्ञ अल्प शक्ति जीव है। उसी का गुण इच्छा है। ईश्वर में इच्छा गुण नहीं घट सकता। अतः ‘जिसको चाहो’ का अर्थ (अभिप्राय) होगा- ‘जिसको आप अधिकारी समझो’ उसको ऐश्वर्य दीजिये।

  1. तृतीय शंका स्थल-जैसी आपकी इच्छा हो वैसा हमारे लिए आप कीजिये ‘आ. द्वितीय प्रकाश’ मन्त्र 13.

समाधान स्वकीय आयु प्राण इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आत्मा आदि सर्वस्व का समर्पण करने के पश्चात् ही ये पूर्वोक्त शबद ज्ञानी भक्त ने कहे हैं। यहाँ तो स्पष्ट रूप से इच्छा शबद का अर्थ (भाव) न्याय (नियम) ही है, इन शबदों से भक्त का भगवान् के न्याय के प्रति पूर्ण विश्वास ही प्रकट होता है।

  1. चतुर्थ शंका स्थल- आ.द्वि.प्र. 17वें मन्त्र में पठित ‘अङ् घारि’ और ‘मार्जालीयः’ इन पदों के अर्थ हैं यथा-

‘अङ्घारिः’= स्व भक्तों का जो अघ (पाप) उसके अरि (शत्रु) हो। उस समस्त पाप के नाशक हो।

मार्जालीय= पापों का मार्जन (निवारण) करने वाले आप ही हो। अन्य कोई नहीं।

समाधान जिस प्रकार बीज से वृक्ष पैदा होता है और वृक्ष से पुनः उसका उत्पादक बीज बन जाता है। उसी प्रकार कुसंस्कार से कदाचार (कुकर्म) होता है तथा उस कदाचार से पुनः तत्सदृश कुसंस्कार बन जाता है, उस कुसंस्कार से पुनरपि कदाचार होगा।

यहाँ उसी कुसंस्कार आदि पाप को अंहस् (वा अघ) शबद से कहा गया है। उस कुसंस्कार आदि पाप का शत्रु= शातयिता छिन्न-भिन्न करने वाला अर्थात् नाशक परमात्मा ही है, क्योंकि परमेश्वर की उपासना के बिना कुसंस्कार आदि पापों का सर्वथा नाश नहीं हो सकता। उसकी उपासना से ही पापकर्म मूल सहित छिन्न-भिन्न वा भस्मीभूत हो सकता है। इसीलिये स्वामी जी महाराज ने मन्त्रार्थ में- ‘उस (कारण कार्य रूप सूक्ष्म स्थूल) समस्त पाप के नाशक हो।’ ऐसा कहा है।

मार्जालीयः= पापों का मार्जन, शोधन, निवारण वा पृथक् करण का भाव यही है कि जो दुष्ट कर्म हम से हो जाते हैं, जिनको हम अपने लिए हानिकारक  (अनिष्टकर) समझते हैं, परन्तु अज्ञान, प्रमाद आदि दोषों (कमजोरियों) के कारण हमसे बार-बार हो जाते ळैं, उनको हमसे छुड़ाने वाले अर्थात् वे पाप कर्म हमसे फिर कभी न हो, ऐसा हम परमात्मा की सहायता (ज्ञान व शक्ति की प्राप्ति) से ही कर सकते हैं। यह भाव है। जो परमात्मा के न्याय पर पूर्ण विश्वास करके उसकी वेदोक्त आज्ञाओं का पालन करने वाला है, वही वास्तव में परमात्मा का भक्त है (उसको ही परमात्मा का भक्त कहना चाहिये) ऐसा भक्त यह कभी नहीं सोच सकता कि वेद (ईश्वरीय नियम) विरुद्ध आचरण तो करता रहूँ, परन्तु उसका कुफल मुझे न मिले अथवा उस कुफल को ईश्वर नष्ट कर देवे वा ईश्वर उसको नष्ट कर सकता है।

  1. पच्चम शंका स्थल- ‘हम सब मनुष्यों के भी पाप दूर करने वाले एक आप ही दयामय पिता हो, हे महा अनन्त विद्य! जो-जो मैंने विद्वान् वा अविद्वान् होके (अर्थात् जाने-अनजाने) पाप किया हो, उन सब पापों का छोड़ने वाला आपके बिना कोई भी इस संसार में हमारा कारण नहीं।’ (आ.2, यप्र.मं. 18) इन वाक्यों में भी वही पाप क्षमा की बात कही गई है।

समाधान इस पूर्वोक्त (ऊपर लिखे) आर्य मित्र में छपे पाठ में तथा आर्याभिविनय ग्रन्थ के पाठ में कुछ अन्तर (मिलता) है। तद्यथा- ‘और हम सब मनुष्यों को भी पाप से दूर रखने वाले एक आप ही दयामय पिता हो, हे महाऽनन्तविद्य! जो-जो मैंने विद्वान् वा अविद्वान् होके पाप किया हो, उन सब पापों का छुड़ाने वाला आपके बिना कोई भी इस संसार में हमारा शरण नहीं है। इस हमारे अविद्या आदि सब पाप छुड़ा के शीघ्र हमको शुद्ध करो।’ (आ. 2 यप्र. मं. 19वाँ) मनुष्यों के पाप दूर करने में और मनुष्यों को पाप से दूर रखने में किञ्चित अन्तर (मिलता) है।

प्रथम में तो चोरी, जारी, शराब से खोरी, मिथ्या व्यवहार आदि बुरी आदतें- (कर्म) जिनमें मनुष्य ग्रस्त है, उनका छुड़ाना अभिप्रेत है।

द्वितीय में जो बुरे कर्म (बुरी आदत) मनुष्य से अभी तक समबद्ध नहीं है, जिनमें फंसना समभव है, उनसे मनुष्य बचा रहे, कभी लिप्त न हो। यह भाव है। दोनों कार्य शुभ (अच्छे) हैं। दोनों के उपाय भी भिन्न-भिन्न हैं। आगामिनी (आने वाली) बुराई (पापकर्म) के कुफल (बुरा परिणाम) समझा कर अत्यन्त प्रत्यक्ष दिखाकर (उदाहरण द्वारा पुष्ट करके) पापकर्म से मनुष्य को दूर रक्खा जा सकता है तथा उस पापकर्म से विपरीत शुभ कर्म के अच्छे परिणाम उदाहरण आदि द्वारा समझाकर शुभ कर्म में प्रेरित करके भी पापकर्म से मनुष्य को पृथक् रखा जा सकता है।

इसी प्रकार मनुष्य से समबन्ध पापकर्म को छोड़ने के भी अनेक उपाय हैं। कुछ मनुष्य प्रेमपूर्वक समझाने मात्र से ही बुराई करना छोड़ देते हैं और अच्छे कर्म करने लग जाते हैं। कुछ मनुष्य पापकर्म के कठोर भाषा में भयङ्कर परिमाण दिखाने से बुरा कर्म त्याग देते हैं। कुछ मनुष्य ताड़ना आदि कठोर उपायों का अवलमबन (आश्रय) करने से बुरा कर्म छोड़ जाते हैं। पूर्वोक्त सभी उपाय पाप छुड़ाने वाले ही कहे जाते हैं। इसी प्रकार परमात्मा भी अनेक उपायों से यथायोग्य रीति से मनुष्यों को पापों से दूर रखता है और अनेक पापों को छुड़ाता है।

आशा है मेरे पूर्वोक्त समाधानों से विचारशील स्वाध्यायशील श्री मान्यवर पं. मदनमोहन जी विद्यासागर आदि सज्जन महाशयों की कुछ सन्तुष्टि हुई होगी। आशा है इसी रीति से, इसी प्रकार के अन्य सन्देहास्पद स्थलों का भी समाधान विद्वान् जन कर लेवेंगे। इति।

 

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