महाराष्ट्र प्रान्तीय विदर्भ अंचल के वाशिम जनपद में स्थित कारंजा (लाड़) के ठाकुर रामसिंह जी आर्य के सौजन्य से आर्यसमाज कारंजा का प्राचीन ग्रन्थालय देखने का सौभाग्य 10 जून 2001 को प्राप्त हुआ। ग्रन्थालय में आर्यसमाज की अनेक दुर्लभ प्रतियाँ सँजोकर रखी हुई थीं। इन्हीं अंकों में जुलाई-अगस्त 1951 के सार्वदेशिक मासिक के अंक भी शामिल थे, जिसमें कानपुर के वैदिक गवेषक श्री शिवपूजनसिंह का डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादिविषयक विचारों की समीक्षा में लिखा हुआ ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक लेख भी था। यह लेख 54 उद्धरणों से समृद्ध, बौद्धिक और विचारात्मक था, अतः उसे यात्रा में तत्काल न पढ़कर यथावकाश पढ़ने का विचार कर सुरक्षित रख दिया।
हमारी ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ विषयक पुस्तिका इससे पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी। अब 2008 में जब इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित करने की चर्चा चली तो मुझे श्री शिवपूजन सिंह कुशवाह के उपरोक्त लेख का स्मरण हो आया। कागजों के अम्बार में ’खोई हुई वस्तु की खोज‘ में लगा तो अनथक प्रयास से चर्चित लेख हाथ लग पाया और दिनांक 26 अप्रैल 2008 को उसे प्रथम बार पढ़ने के उपरान्त मन गद्गद् हो गया।
अन्तर्मन को प्रसन्न करनेवाला इस लेख का वह स्थल था जहाँ लेखक ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है कि विद्वद्वर्य पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति सिद्धान्तालंकार सम्पादक सार्वदेशिक से डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के अग्रिम अंग्रेजी संस्करण से उस भाग को हटवा देंगे, जो उन्हें आक्षेपार्ह प्रतीत होता है। इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवादक पं0 सोहनलालजी शास्त्री महोदय को भी डॉ0 अम्बेडकर महोदय ने कहा था कि ’हिन्दी संस्करण से भी वह आक्षेपार्ह अंश निकाल दिया जाए।‘
यहाँ अंग्रेजी-हिन्दी संस्करण से जिस भाग या अंश को हटा देने की बात चल रही है, उसे हमने ’आर्यसमाज और डॉ0 अम्बेडकर‘ के प्रथम संस्करण की पादटिप्पणियों में 12वें क्रमांक पर उद्धृत किया था। इस अंश की ओर हमारा विशेष ध्यान मनुस्मृति के भाष्यकार प्रा0 डॉ0 सुरेन्द्रकुमारजी (हरियाणा) तथा डॉ0 ब्रह्ममुनिजी वानप्रस्थ (महाराष्ट्र) ने भी दिलाया था। ‘शूद्रों की खोज’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रकाशित वह अंश इस प्रकार है-
”यह पुस्तक आर्यसमाज मत के विरुद्ध है। यह विरोध दो आवश्यक बातों में है। 1. आर्यसमाजियों का यह विश्वास है कि आर्यों में चार वर्ण आदि से कायम हैं। लेकिन प्राचीन ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि पहले भारतीय आर्यों में सिर्फ तीन ही वर्ण थे। 2. आर्यसमाजियों का विश्वास है कि वेद अनादि और ईश्वरकृत हैं, परन्तु इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेदों का पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए पीछे से जोड़ा है। ये दोनों बातें आर्यसमाजी सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। मुझे आर्यसमाजियों का इसलिए विरोध करने में हिचक नहीं है, क्योंकि उन्होंने हिन्दू समाज में भ्रान्ति का प्रचार किया है। उनका यह प्रचार कि वेद अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, अतः वेदों के आधार पर जो सामाजिक संस्थाएँ, वर्णव्यवस्था आदि बनी हैं, वे भी अनादि, अनन्त और अभ्रान्त हैं, ऐसे विश्वास को फैलाना समाज का सबसे बड़ा अनहित है। जब तक यह सिद्धान्त कायम है, हिन्दू समाज कभी सुधार की ओर नहीं जा सकता।“
पं0 शिवपूजनसिंह के अनुसार डॉ0 अम्बेडकरजी के ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ से उपरोक्त अंश को निकालने के निर्देशों का प्रकाशकों ने उल्लंघन कर दिया जो अत्यंत निन्दनीय बात है।
यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि अपनी बात से टस से मस न होनेवाले, अपने लेख से अल्पविराम को भी कम न करने वाले डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुहृद व्यक्ति क्या अपनी बात को कभी पीछे ले सकते हैं ? हम उन्हें यही कहना चाहते हैं कि- डॉ0 अम्बेडकरजी प्रकाण्ड विद्वान् थे और अपने से प्रतिकूल सिद्धान्त से सहमत होने पर वे उसे स्वीकार कर लेते थे। जान-बूझकर खारे जल का पानी पीना उन्हें पसन्द नहीं था। स्वामी वेदानन्द तीर्थ लिखित ’राष्ट्र-रक्षा के वैदिक साधन‘ की प्रस्तावना में डॉ0 अम्बेडकरजी ने यह स्वीकार किया है कि-’मैं यह तो नहीं कह सकता कि यह पुस्तक भारत का धर्मग्रन्थ बन जाएगी, किन्तु यह मैं अवश्य कहता हूँ कि यह पुस्तक पुरातन आर्यों के धर्मग्रन्थों से संकलित उद्धरणों का केवल अद्भुत संग्रह ही नहीं है, प्रत्युत यह चमत्कारिक रीति से उस विचारधारा तथा आचार शक्ति को प्रकट करती है, जो पुरातन आर्यों को अनुप्राणित करती थीं। पुस्तक प्रधानतया यह प्रतिपादित करती है कि पुरातन आर्यों में उस निराशावाद (दुःखवाद) का लवलेश भी नहीं था, जो वर्तमान हिन्दुओं में प्रबलरूप से छाया हुआ है। इस समय हमारे ज्ञान में यह कोई अल्प (नगण्य) वृद्धि नहीं है कि मायावाद (संसार को माया मानना) नवीन कल्पना है। इस दृष्टि से मैं इस पुस्तक का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ।‘
डॉ0 अम्बेडकरजी और पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार में आपस में जो सैद्धान्तिक चर्चा हुई उसे पाठक ’बौद्धमत और वैदिकधर्म का तुलनात्मक अनुशीलन‘ ग्रन्थ में विस्तार से पढ़ सकते हैं। यहाँ मैं केवल उस बात को प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो मुझे महाराष्ट्र के वयोवृद्ध उपदेशक पं0 उत्तममुनिजी वानप्रस्थी ने कही थी। वह यह कि-’एक बार पं0 धर्मदेवजी ने हमसे कहा था कि-’माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी ने हमारा कथन सम्पन्न होने के उपरान्त यह कहा कि-’एक माँ अपने बच्चे को जैसे समझाती है, उस वात्सल्यभाव से आपने मुझे वैदिकधर्म समझाने का प्रयास किया है, पर मैं क्या करूँ, इन हिन्दुओं की मानसिकता मुझे बदलती हुई प्रतीत नहीं होती। उनका स्वभाव कठमुल्लाओं की तरह प्रतिगामी हो गया है।‘ प्रा0 डॉ0 महेन्द्रदास ठाकुर के अनुसार डॉ0 अम्बेडकर स्वयं आर्यसमाज में दलितों के साथ प्रवेश करने का मन बना चुके थे, लेकिन हिन्दु महासभा तथा आर्यसमाज की निकटता को देख वे बुद्ध दीक्षा की ओर मुड़े। (लेख-वह तूफान साथ लिए चलता था ”वैदिक गर्जना“-पं0 नरेन्द्र स्मृति विशेषांक मार्च-अप्रैल 2008, पृष्ठ 53)। स्मरण रहे सैद्धान्तिक स्तर पर डॉ0 अम्बेडकर वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते थे, फिर भी उन्होंने यह स्वीकार किया था कि-’महात्मागाँधी की जन्मना वर्णव्यवस्था की तुलना में स्वामी दयानन्द सरस्वती की कर्मणा वर्णव्यवस्था बुद्धिगम्य और निरुपद्रवी है।‘
माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी पं0 धर्मदेवजी सिद्धान्तालंकार के प्रति अत्यन्त ही सम्मानभाव रखते थे। इस तथ्य का पता इस बात से चलता है कि उन्होंने अपने विधि मन्त्री के काल में भारत सरकार के विधि मन्त्रालय की ओर से ’हिन्दू कोड बिल तथा उसका उद्देश्य‘ नामक 204 पृष्ठों का एक ग्रन्थ प्रकाशित किया था, जिसमें पं0 धर्मदेवजी द्वारा लिखित दस लेखों की एक लेखमाला पृष्ठ 56 से 113 तक उद्धृत करते हुए डॉ0 अम्बेडकरजी ने लिखा था-’वेदों के सुप्रसिद्ध विद्वान् पं0 धर्मदेव विद्यावाचस्पति उन थोड़े से व्यक्तियों में हैं, जिनके जीवन का अधिकांश समय वेदों एवं आर्यों के अन्यान्य प्राचीन धर्मग्रन्थों के अनुशीलन और अनुसन्धान में बीता है। पिछले दिनों उनकी एक लेखमाला दिल्ली के सुप्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ’वीर अर्जुन‘ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने प्राचीन स्मृतियों, वेदों तथा शास्त्रों के प्रमाण एवं उद्धरण देकर हिन्दू बिल के विविध विधानों का सारगर्भित विवेचन किया है। विचारशील पाठकों के लिए ’वीर अर्जुन‘ की स्वीकृति से यह लेखमाला यहाँ पुनः प्रकाशित की जा रही है। (पृष्ठ 56)
इस प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत है, श्री शिवपूजनसिंह लिखित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख का सार-संक्षेप, जिसमें डॉ0 अम्बेडकरजी के वेदादि-विषयक विचारों की समालोचना की गई है। पूर्वपक्ष के रूप में डॉ0 अम्बेडकरजी का वेदादि-विषयक आक्षेप पक्ष पहले और वैदिक विद्वानों के चिन्तन पर आधारित श्री शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष बाद में साररूप में विवेकशील पाठकों के हितार्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।
पं0 शिवपूजनसिंह कुशवाहा गवेषणापूर्ण तथा उद्धरण प्रधान शैली के सुप्रसिद्ध लेखक के रूप में ˗ प्रख्यात थे। आपने अम्बेडकर लिखित ’अछूत कौन और कैसे‘ तथा ’शूद्रों की खोज‘ नामक ग्रन्थों में माननीय डॉ0 महोदय ने वैदिक विचारधारा पर जो आक्षेप किए हैं, उसका ’भ्रान्ति निवारण‘ शीर्षक से ’सार्वदेशिक‘ मासिक (जुलाई-अगस्त 1951) के अंकों में समीक्षा की है। ’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ के आठ मुद्दों और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ के तीन मुद्दों को आपने समालोचना का विषय बनाया है। स्वाध्यायशील श्री शिवपूजनसिंह ने अपनी एक पुस्तक भी ’अथर्ववेद की प्राचीनता‘ भी पं0 धर्मदेवजी विद्यावाचस्पति के द्वारा डॉ0 अम्बेडकरजी की सेवा में भेजी थी। इस ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख के अन्त में लेखक ने लिखा है-’आशा है आप मेरे प्रमाणों पर पूर्णरूप से विचारकर तदनुकूल अपने ग्रन्थ में संशोधन करेंगे।‘ इस निवेदन के साथ उन्होंने अपने समीक्षात्मक लेख को पूर्णविराम दिया है।
’अछूत कौन और कैसे‘ ग्रन्थ में माननीय डॉ0 अम्बेडकर द्वारा प्रस्तुत पूर्वपक्ष या आक्षेपों का श्री शिवपूजनसिंह ने ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख में उत्तर पक्ष या समाधान पक्ष के रूप में जो निराकरण किया है, वह विवेकशील पाठकों के विचारार्थ संवादरूप में प्रस्तुत है-
डॉ0 अम्बेडकर-आर्य लोग निर्विवादरूप से दो हिस्सों और दो संस्कृतियों में विभक्त थे, जिनमें से एक ऋग्वेदीय आर्य तथा दूसरे यजुर्वेदीय आर्य थे, जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी। ऋग्वेदीय आर्य यज्ञों में विश्वास करते थे, अथर्ववेदीय जादू-टोने में।
पं0 शिवपूजनसिंह-दो प्रकार के आर्यों की कल्पना केवल आपके और आप-जैसे कुछ मस्तिष्कों की उपज है। यह केवल कपोल-कल्पना या कल्पना विलास है। इसके पीछे कोई ऐसा ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। कोई ऐतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नहीं करता। अथर्ववेद में किसी प्रकार का जादू-टोना नहीं है।
डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद में आर्यदेवता इन्द्र का सामना उसके शत्रु अहि-वृत्र (साँप-देवता) से होता है, जो कालान्तर में नागदेवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पं0 शिवपूजनसिंह-वैदिक और लौकिक संस्कृत में आकाश-पाताल का अन्तर है। यहाँ इन्द्र का अर्थ सूर्य और वृत्र का अर्थ मेघ है। यह संघर्ष आर्यदेवता और नागदेवता का न होकर सूर्य और मेघ के बीच में होनेवाला संघर्ष है। वैदिक शब्दों के विषय में नैरुक्तों का ही मत मान्य होता है। वैदिक निरुक्त प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको भ्रम हुआ है।
डॉ0 अम्बेडकर-महामहोपाध्याय डॉ0 काणे का मत है कि-गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसनेयी संहिता में गोमांस भक्षण की व्यवस्था दी गई है।
पं0 शिवपूजनसिंह-श्री काणेजी ने वाजसनेयी संहिता का कोई प्रमाण और सन्दर्भ नहीं दिया है और न ही आपने यजुर्वेद पढ़ने का कष्ट उठाया है। आप जब यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तब आपको स्पष्ट गोवध निषेध के प्रमाण मिलेंगे।
डॉ0 अम्बेडकर-ऋग्वेद से ही यह स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गोहत्या करते थे और गोमांस खाते थे।
पं0 शिवपूजनसिंह-कुछ प्राच्य और पाश्चात्य विद्वान् आर्यों पर गोमांस भक्षण का दोषारोपण करते हैं, किन्तु बहुत से प्राच्य विद्वानों ने इस मत का खण्डन किया है। वेद में गोमांस भक्षण का विरोध करने वाले 22 विद्वानों के स-सन्दर्भ मेरे पास प्रमाण हैं। ऋग्वेद से गोहत्या और गोमांस भक्षण का आप जो विधान कह रहे हैं, वह वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के अन्तर से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे हैं। जैसे वेद में ’उक्ष‘ बलवर्धक औषधि का नाम है, जबकि लौकिक संस्कृत में भले ही उसका अर्थ ’बैल‘ क्यों न हो।
डॉ0 अम्बेडकर-बिना मांस के मधुपर्क नहीं हो सकता। मधुपर्क में मांस और विशेषरूप से गोमांस का एक आवश्यक अंश होता है।
पं0 शिवपूजनसिंह-आपका यह विधान वेदों पर नहीं, अपितु गृह्मसूत्रों पर आधारित है। गृह्मसूत्रों के वचन वेदविरुद्ध होने से माननीय नहीं हैं। वेद को स्वतः प्रमाण मानने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुसार ‘दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है। उसका परिमाण 12 तोले दही में चार तोले शहद या चार तोले घी का मिलाना है।‘
डॉ0 अम्बेडकर-अतिथि के लिए गोहत्या की बात इतनी सामान्य हो गई थी कि अतिथि का ही नाम ’गोघ्न‘, अर्थात् गौ की हत्या करने वाला पड़ गया था।
पं0 शिवपूजनसिंह-’गोघ्न‘ का अर्थ गौ की हत्या करनेवाला नहीं है। यह शब्द ’गौ‘ और ’हन्‘ के योग से बना है। गौ के अनेक अर्थ हैं-यथा-वाणी, जल, सुखविशेष, नेत्र आदि। धातुपाठ में महर्षि पाणिनि ’हन्‘ का अर्थ ’गति‘ और ’हिंसा‘ बतलाते हैं। गति के अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। प्रायः सभी सभ्य देशों में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए गृहपति घर से बाहर आते हुए कुछ गति करता है, चलता है, उससे मधुर वाणी में बोलता है, फिर जल से उसका सत्कार करता है और यथासम्भव उसके सुख के लिए अन्यान्य सामग्रियों को प्रस्तुत करता है और यह जानने के लिए कि प्रिय अतिथि इन सत्कारों से प्रसन्न होता है वा नहीं, गृहपति की आँखें भी उसी ओर टकटकी लगाए रहती हैं। ’गोघ्न‘ का अर्थ हुआ- ’गौः प्राप्यते दीयते यस्मै स गोघ्नः‘ त्र जिसके लिए गौदान की जाती है, वह अतिथि ’गोघ्न‘ कहलाता है।
डॉ0 अम्बेडकर-हिन्दू चाहे ब्राह्मण हों या अब्राह्मण, न केवल मांसाहारी थे, किन्तु गोमांसाहारी थे।
पं0 शिवपूजनसिंह-आपका कथन भ्रमपूर्ण है, वेद में गोमांस भक्षण की बात तो जाने दीजिए मांस भक्षण का भी विधान नहीं है।
डॉ0 अम्बेडकर-मनु ने भी गोहत्या के विरोध में कोई कानून नहीं बनाया, उसने तो विशेष अवसरों पर ’गो-मांसाहार‘ अनिवार्य ठहराया है।
पं0 शिवपूजनसिंह-मनुस्मृति में कहीं भी मांस-भक्षण का वर्णन नहीं है, जो है वह प्रक्षिप्त है। आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिया। मनुजी ने कहाँ पर गो-मांस अनिवार्य ठहराया है। मनु (5/51) के अनुसार तो हत्या की अनुमति देनेवाला, अंगों को काटनेवाला, मारने वाला, क्रय और विक्रय करनेवाला, पकानेवाला, परोसनेवाला और खानेवाला इस सबको घातक कहा गया है।
’अछूत कौन और कैसे‘ के अतिरिक्त माननीय डॉ0 अम्बेडकर जी का दूसरा ग्रन्थ है-’शूद्रों की खोज‘। इसमें भी उन्होंने वैदिक विचारधारा पर कुछ आक्षेप किए हैं। यहाँ भी पूर्ववत् संवाद शैली में डॉ0 अम्बेडकरजी का आक्षेप पक्ष और शिवपूजनसिंह का समाधान पक्ष प्रस्तुत है-
डॉ0 अम्बेडकर-पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है। कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छन्द तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न हैं। अन्य भी अनेक विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना हुआ है।
पं0 शिवपूजनसिंह-आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है, वह आपकी वेद अनभिज्ञता को प्रकट करता है। आधिभौतिक दृष्टि से चारों वर्णों के पुरुषों का समुदाय-’संगठित समुदाय‘-’एक-पुरुष‘ रूप है। इस समुदाय पुरुष या राष्ट्र-पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र ’ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्….‘ (यजुर्वेद 31/11) पर विचार करना चाहिए।
उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र पैर। केवल मुख, केवल भुजाएँ, केवल जंघाएँ या केवल पैर पुरुष नहीं, अपितु मुख, भुजाएँ, जंघाएँ और पैर, ’इनका समुदाय‘ पुरुष अवश्य है। वह समुदाय भी यदि असंगठित और कर्मरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नहीं कहेंगे। उस समुदाय को पुरुष तभी कहेंगे जबकि वह समुदाय एक विशेष प्रकार के क्रम में हो और एक विशेष प्रकार से संगठित हो।
राष्ट्र में मुख के स्थानापन्न ब्राह्मण हैं, भुजाओं के स्थानापन्न क्षत्रिय, जंघाओं के स्थानापन्न वैश्य और पैरों के स्थानापन्न शूद्र हैं। राष्ट्र में ये चारों वर्ण, जब शरीर के मुख आदि अवयवों की तरह सुव्यवस्थित हो जाते हैं, तभी इनकी पुरुष संज्ञा होती है। अव्यवस्थित या छिन्न-भिन्न अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को वैदिक परिभाषा में पुरुष शब्द से नहीं पुकार सकते। आधिभौतिक दृष्टि से ’यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान, क्षात्र, व्यापार-व्यवसाय, परिश्रम-मजदूरी इनका निदर्शक जनसमुदाय ही ’एक पुरुष‘ रूप है।
चर्चित मन्त्र का महर्षि दयानन्द इस प्रकार अर्थ करते हैं-”इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्यभाषण और सत्योपदेश आदि श्रेष्ठ कर्मों से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है। इन मुख्य गुण और कर्मों के सहित होने से वह मनुष्यों में उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रम आदि पूर्वोक्त गुणों से युक्त क्षत्रिय वर्ण को उत्पन्न किया है। इस पुरुष के उपदेश से खेती, व्यापार और सब देशों की भाषाओं को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है, जैसे पग सबसे नीचे का अंग है, वैसे मूर्खता आदि निम्न गुणों से शूद्र वर्ण सिद्ध होता है।“
आपका लिखना कि पुरुष सूक्त बहुत समय बाद ऋग्वेद में जोड़ दिया गया, सर्वथा भ्रमपूर्ण है। चारों वेद ईश्वरीय ज्ञान हैं, पुरुष सूक्त बाद का नहीं है। मैंने अपनी पुस्तक ”ऋग्वेद के दशम मण्डल पर पाश्चात्य विद्वानों का कुठाराघात“ में सम्पूर्ण पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों के इस मत का खण्डन किया है कि ऋग्वेद का दशम मण्डल, जिसमें पुरुष सूक्त भी विद्यमान है, बाद का बना हुआ है।
डॉ0 अम्बेडकर-शूद्र क्षत्रियों के वंशज होने से क्षत्रिय है। ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, तृप्सु, भरत आदि आदि शूद्रों के नाम आये हैं।
पं0 शिवपूजनसिंह-वेदों के सभी शब्द यौगिक हैं, रूढ़ि नहीं। आपने ऋग्वेद से जिन नामों को प्रदर्शित किया है। वे ऐतिहासिक नाम नहीं हैं। वेद में इतिहास नहीं है, क्योंकि वेद सृष्टि के आदि में दिया ज्ञान है।
डॉ0 अम्बेडकर-छत्रपति शिवाजी शूद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान हैं। (शूद्रों की खोज, दसवाँ अध्याय, पृष्ठ 77 से 96)
पं0 शिवपूजनसिंह-शिवाजी शूद्र नहीं, वरन् क्षत्रिय थे, इसके लिए अनेकों प्रमाण इतिहासों में भरे पड़े हैं। राजस्थान के प्रख्यात इतिहासज्ञ, महामहोपाध्याय डॉ0 गौरीशंकर हीराचन्द ओझा डी0 लिट् लिखते हैं-’मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहनेवाली है। उसके प्रसिद्ध राजा छत्रपति शिवाजी के वंश का मूल-पुरुष मेवाड़ के सीसोदिया राजवंश से ही था।‘ कविराज श्यामलदासजी लिखते हैं-‘शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे।‘ यही सिद्धान्त डॉ0 बालकृष्ण जी एम0ए0डी0 लिट्, एफ0आर0एस0एस0 का भी है।
इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नहीं, किन्तु शुद्ध क्षत्रिय हैं। श्री चिन्तामणि विनायक वैद्य एम0 ए0, श्री ई0बी0 कावेल, श्री शेरिंग, श्री व्हीलर, श्री हंटर, श्री क्रूक, पं0 नगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम0एम0डी0एल0 आदि विद्वान् राजपूतों को शूद्र क्षत्रिय मानते थे। प्रिवी कौंसिल ने भी निर्णय किया है, अर्थात् जो क्षत्रिय भारत में रहते हैं और राजपूत एक ही श्रेणी के हैं।
6 दिसम्बर 1956 को माननीय डॉ0 अम्बेडकरजी का देहावसान हुआ। शिवपूजनसिंह का यह चर्चित ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख ’सार्वदेशिक‘ मासिक में उनके देहावसान से लगभग पाँच साल तीन महीने पूर्व प्रकाशित हुआ था। ’सार्वदेशिक‘ से डॉ0 अम्बेडकरजी सुपरिचित थे तथा चर्चित अंक भी उनकी सेवा में यथासमय भिजवा दिया गया था। भारत रत्न डॉ0 अम्बेडकरजी के ’अछूत कौन और कैसे‘ और ’शूद्रों की खोज‘ ग्रन्थ तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखित ’ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका‘ एवं रिसर्च स्कासॉलर शिवपूजनसिंह कुशवाह का ’भ्रान्ति निवारण‘ नामक 16 पृष्ठीय आलेख मूलरूप में ही पढ़कर आशा है विचारशील पाठक सत्यासत्य का निर्णय लेंगे। मूलतः ’भ्रान्ति निवारण‘ लेख संवाद शैली में नहीं है, अपितु शंका-समाधान शैली में है। हमने स्वाध्यायशील पाठकों की सुविधा और सरलता हेतु संवाद शैली में रूपान्तरित किया है।