तैः सार्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं संधिविग्रहम् । स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च ।

. इससे सभापति को उचित है कि नित्यप्रति उन राज्यकर्मों में कुशल विद्वान् मन्त्रियों के साथ सामान्य करके किसी से सन्धि – मित्रता, किसी से विग्रह – विरोध, स्थित समय को देखकर के चुपचाप रहना, अपने राज्य की रक्षा करके बैठे रहना जब अपना उदय अर्थात् वृद्धि हो तब दुष्ट शत्रु पर चढ़ाई करना मूल राज, सेना, कोश आदि की रक्षा जो – जो देश प्राप्त हों उस- उस में शान्ति – स्थापना, उपद्रवरहित करना इन छः गुणों का विचार नित्यप्रति किया करे ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

‘‘महाराजा को उचित है कि मन्त्रियों समेत छः बातों पर विचार करें – १. मित्र, और २. शत्रु में चतुरता, ३. अपनी उन्नति, ४. अपना स्थान, ५. शत्रु के आक्रमण से देश की रक्षा, ६. विजय किये हुए देशों की रक्षा, स्वास्थ्य आदि प्रत्येक विषय पर विचार करके यथार्थ निर्णय से जो कुछ अपनी और दूसरों की भलाई की बात विदित हो उसे करना ।’’

(पू० प्र० १११)

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