शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत् । गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः

. जो भीतर से शत्रु से मिला हो और अपने साथ भी ऊपर से मित्रता रखे, गुप्तता से शत्रु को भेद देवे उसके आने जाने में, उससे बात करने में अत्यन्त सावधानी रखे क्यों कि भीतर शत्रु ऊपर मित्र को बड़ा शत्रु समझना चाहिए ।

(स० प्र० षष्ठ समु०)

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