स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः । दाता नित्यं अनादाता सर्वभूतानुकम्पकः

स्वाध्याय अर्थात् पढ़ने – पढ़ाने में नियुक्त जितात्मा सब का मित्र इन्द्रियों का दमनशील विद्या आदि का दान देने हारा सब पर दयालु किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे इस प्रकार सदा वर्तमान रहे ।

(स० प्र० पंच्चम समु०)

‘‘वहां जंगल में वेदादि शास्त्रों को पढ़ने – पढ़ाने में नित्ययुक्त मन और इन्द्रियों को जीतकर यदि स्व – स्त्री भी समीप हो तथापि उससे सेवा के सिवाय विषय सेवन अर्थात् प्रसंग कभी न करे, सब से मित्र भाव, सावधान, नित्य देने हारा और किसी से कुछ भी न लेवे, सब प्राणीमात्र पर अनुकंपा – कृपा रखने हारा होवे ।’’

(सं० वि० वानप्रस्थाश्रम सं०)

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