सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्ये च दक्षया । सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया

स्त्री को योग्य है कि अतिप्रसन्नता से घर के कामों में चतुराई युक्त सब पदार्थों के उत्तम संस्कार, घर की शुद्धि और व्यय में अत्यन्त उदार रहे । अर्थात् सब चीजें पवित्र और पाक इस प्रकार बनावे जो औषधरूप होकर शरीर वा आत्मा में रोग को न आने देवे । जो – जो व्यय हो उसका हिसाब यथावत् रख के पति आदि को सुना दिया करे । घर के नौकर – चाकरों से यथायोग्य काम लेवे, घर के किसी काम को बिगड़ने न देवे ।

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

‘‘स्त्री को योग्य है कि सदा आनन्दित होके चतुरता से गृहकार्यों में वर्तमान रहे तथा अन्नादि के उत्तम संस्कार, पात्र, वस्त्र, गृह आदि के संस्कार और घर के भोजनादि में जितना नित्य धन आदि लगे उस के यथायोग्य करने में सदा प्रसन्न रहे ।’’

(स० वि० गृहाश्रम प्र०)

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