यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति । तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते

 

. मनुष्य जैसे – जैसे शास्त्र का विचार कर उसके यथार्थ भाव को प्राप्त होता है वैसे अधिक जानता जाता है और इसकी प्रीति विज्ञान ही में होती जाती है ।

(सं० वि० गृहाश्रम वि०)

‘‘क्यों कि जैसे – जैसे मनुष्य शास्त्रों को यथावत् जानता है वैसे – वैसे उस विद्या का विज्ञान बढ़ता जाता, उसी में रूचि बढ़ती रहती है ।’’

(स० प्र० ४ स०)

 

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