स्वाध्यायेनार्चयेत र्षीन्होमैर्देवान्यथाविधि । पितॄञ् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा

स्वाध्याय से ऋषिपूजन यथाविधि होम से देवपूजन श्राद्धों से पितृपूजन अन्नों से मनुष्यपूजन और वैश्वदेव से प्राणी मात्र का सत्कार करना चाहिए ।

(द० ल० ग्र० २३)

‘‘इन श्लोकों से क्या आया कि होम जो है, सो ही देवपूजा है, अन्य कोई नहीं । और होमस्थान जितने हैं, वे ही देवालयादिक शब्दों से लिए जाते हैं ।

पूजा नाम सत्कार । क्यों कि ‘अतिथिपूजनम्’ ‘होमैर्देवानर्चयेत्’ – अतिथियों का पूजन नाम सत्कार करना, तथा देव परमेश्वर और मन्त्र इन्हीं का सत्कार, इसका नाम है पूजा, अन्य का नहीं ।’’

(द० शा० ५४)

‘‘इस कथन से अर्वाचीन देवालय अर्थात् मन्दिरों को कोई न समझे, देवालय का अर्थ तो यज्ञशाला ही है ।’’

(पू० प्र० ६७)

श्राद्ध का अर्थ है – श्रद्धा से किया गया कार्य, जैसे श्रद्धा पूर्वक माता – पिता की सेवा – सुश्रूषा करना, भोजन देना आदि । यही पितरों का तर्पण या पितृयज्ञ है ।

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