तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः । स्रग्विणं तल्प आसीनं अर्हयेत्प्रथमं गवा ।

जो स्वधर्म अर्थात् यथावत् आचार्य और शिष्य का धर्म है उससे युक्त पिता – जनक वा अध्यापक से ब्रह्मदाय अर्थात् विद्यारूप भाग का ग्रहण और माला का धारण करने वाले अपने पलंग में बैठे हुए आचार्य को प्रथम गोदान से सत्कार करे । वैसे लक्षणयुक्त विद्यार्थी को भी कन्या का पिता गोदान से सत्कृत करे ।

(स० प्र० चतुर्थ समु०)

विवाह – विषय

(३।४ से ३।६६ तक)

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