देवानृषीन्मनुष्यांश्च पितॄन्गृह्याश्च देवताः । पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थः शेषभुग्भवेत् ।

विद्वानों का मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों का तथा परमात्मा का (ब्रह्मयज्ञ – वेद के स्वाध्याय तथा सन्ध्योपासना से) अतिथियों का जीवित माता – पिता आदि का (पितृयज्ञ से) और गृहस्थ के भरण – पोषण की अपेक्षा रखने वाले असहाय, अनाथ, कुष्ठी भृत्यादि का (बलिवैश्वदेवयज्ञ से) सत्कार करके गृहस्थ पुरूष उसके बाद पंच्चमहायज्ञों से बचे भोजन को खाने वाला बने ।

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