यदि गृहस्थ होके पराये घर में भोजनादि की इच्छा करते हैं तो वे बुद्धिहीन गृहस्थ अन्य से प्रतिग्रह रूप पाप करके जन्मान्तर में अन्नादि के दाताओं के पशु बनते हैं क्यों कि अन्य से अन्न आदि का ग्रहण करना अतिथियों का काम है, गृहस्थों का नहीं ।
(सं० वि० गृहाश्रम प्र०)
‘‘ब्राह्मणों का काम अध्यापन है, उसी तरह उनकी जीविका अध्यापन, योजनादि कार्यों की दक्षिणा से होती है । व्यर्थ प्रतिग्रह लेना अप्रशस्त ही है ।’’
(पू० प्र० ९२)