. (एकादशं मनः) ग्यारहवां मन है स्वगुणेन उभयात्मकम् वह अपने स्तुति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है जिस मन के जीतने में एतौ ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों जितौ जीत लिये जाते हैं ।
(सं० वि० वेदारम्भ संस्कार)
. (एकादशं मनः) ग्यारहवां मन है स्वगुणेन उभयात्मकम् वह अपने स्तुति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है जिस मन के जीतने में एतौ ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों जितौ जीत लिये जाते हैं ।
(सं० वि० वेदारम्भ संस्कार)