इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषं ऋच्छत्यसंशयम् । संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं निगच्छति

इन्द्रिय – संयम से सिद्धि –

इन्द्रियाणां प्रसगेन जीवात्मा इन्द्रियों के साथ मन लगाने से असंशयम् निःसंदेह दोषम् ऋच्छति दोषी हो जाता है तु तानि सन्नियम्य एव और उन पूर्वोक्त (२।६५-६७) दश इन्द्रियों को वश में करके ही ततः पश्चात् सिद्धि नियच्छति सिद्धि को प्राप्त होता है ।

‘‘जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े – बड़े दोषों को प्राप्त होता है और जब इन्द्रियों को अपने वश करता है तभी सिद्धि को प्राप्त होता है ।’’

(स० प्र० तृतीय समु०)

‘‘जो इन्द्रिय के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करने हारे अविद्वान् हैं, वे मनुष्यों में नीच जन्म बुरे – बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं ।’’

(स० प्र० नवम समु०)

‘‘इन्द्रियों को विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चित दोष को प्राप्त होता है और जब इनको जीतकर धर्म में चलाता है तभी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है ।’’

(स० प्र० दशम समु०)

 

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