यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्तमः । आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान्

श्रेष्ठ द्विज उसके लिए विहित यज्ञ आदि कर्मों को (संन्यासी अवस्था में) छोड़कर(6/34, 43) भी परमात्म-ज्ञान, इन्द्रियसंयम (2/68-75) और वेदाभ्यास में प्रयत्नशील अवश्य रहे अर्थात् इनको किसी भी अवस्था में न छोड़े ।

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