ख्यापनेनानुतापेन तपसाध्ययनेन च । पापकृन्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि ।

अपनी त्रुटि और उसके लिये दुःख अनुभव करते हुए सर्व-साधारण के सामने किये हुए अपने दोष को कहने से (11/228) पश्चाताप करने से (11/229-232) व्रतों (11/220-222,233) की साधना से, वेदाभ्यास से(11/245-246) पाप करने वाला पाप-भावना से रहित हो जाता है और आपद्ग्रस्त व्याधि, जरा आदि से पीड़ित अवस्था में अपराध होने पर परोपकारार्थ दान देने से भी पापभावना समाप्त होकर निष्पापता आती है ।

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