तथा सृष्टि में विचारशील पुरुषों को दो ही भेद निश्चित जानने चाहियें। एक मानवी या मानसी सृष्टि अथवा ऐश्वरी सृष्टि और दूसरी मैथुनी अथवा मानुषी सृष्टि कहाती है। इनमें पहली मानवी सृष्टि कल्प के आरम्भ में ही होती है तथा दूसरे प्रकार की सृष्टि उत्पत्ति होने के पश्चात् जगत् की स्थिति दशा रहने पर्यन्त सदा प्रतिदिन व प्रतिक्षण होती है। उनमें स्थूल कारण की अपेक्षा को छोड़कर प्रलय के पश्चात् सृष्टि के आरम्भ में विचार व मनन शक्ति का आश्रय लेकर मनु नामक परमेश्वर ने उत्पन्न की, इससे मानवी सृष्टि कहाती है। मन नाम विचार के आश्रय से ही सूक्ष्म कारण से की गयी किन्तु स्थूल शरीरादि का आश्रय रखने वाले कर्म से नहीं, इसीलिये प्रारम्भ की सृष्टि मानसी भी कही जाती है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही उस सृष्टि को कर सकता है किन्तु कोई साधारण पुरुष नहीं, इसलिये उसको ऐश्वरी सृष्टि भी कहते हैं, और वह सृष्टि स्थूल स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही उत्पन्न होती है, उस समय उन प्राणियों का माता-पिता वही एक परमेश्वर है। परम सूक्ष्म कारण से पृथिव्यादि स्थूल भूतों की और स्थूल बीज के बिना वृक्ष, ओषधि और वनस्पति आदि की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार की जिसको कोई देहधारी मनुष्य नहीं बना सकता, वही ऐश्वरी सृष्टि है। और जब उसने स्त्री-पुरुष, बीज, वृक्ष आदि एक बार प्रारम्भ में उत्पन्न कर पीछे इस प्रकार सबको सृष्टि की परम्परा चलानी चाहिये ऐसा वेद द्वारा उपदेश किया, तब से लेकर मनुष्य लोग वैसे ही अपने-अपने योग्य सृष्टि बनाते आते हैं। पुत्रादि का उत्पन्न करना, वृक्षादि का लगाना और घड़ा, वस्त्र या मकान आदि का बनाना इत्यादि सृष्टि मनुष्यों की ओर से प्रतिदिन होती है, यही सब मानुषी अथवा मैथुनी सृष्टि है। उन सब स्थावर वृक्षादि और जग्म मनुष्यादि चेतन प्राणियों की उत्पत्ति में चार ही मुख्य कारण हैं, जैसे- सुश्रुत में लिखा है कि- ऋतुसमय, क्षेत्र- खेत, जल और बीज इन चार प्रकार की सामग्रियों के संयोग से जैसे वृक्ष आदि का अङ्कुर उत्पन्न होता है, वैसे यही चार प्रकार की सामग्री संयुक्त होकर मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इनमें स्थावर की उत्पत्ति मनुष्य की इच्छानुसार तथा स्वतन्त्र अकस्मात् भी होती है, पर जहां स्वतन्त्र होती है वहां भी मैथुन रूप कारण अवश्य मानना पड़ता है, और मनुष्यादि की उत्पत्ति बिना इच्छापूर्वक मैथुन संयोग के नहीं होती, यह विषय सुश्रुत के शारीरस्थान में लिखा है। पूर्वोक्त समय आदि का एकत्र संयुक्त होना ही मैथुन कर्म है, उससे उत्पन्न हुई सृष्टि मैथुनी कहाती है। केवल स्त्री-पुरुषों के संयोगमात्र का नाम मैथुन नहीं है, किन्तु किसी प्रकार स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति का संयोग होना मैथुन कहाता है। सो इस प्रकार का मैथुन सब वस्तुओं की उत्पत्ति में होता ही है, इसी से पीछे उत्पन्न होने वाली सब सृष्टि मैथुनी होती है। इससे जूँ, मक्खी, खटमल आदि और वृक्ष, ओषधि, वनस्पति आदि की भी मैथुन पूर्वक ही सृष्टि होती है, यह सिद्धान्त ठहरता है। बीज पुरुष और पृथिवी स्त्री उन दोनों का संयोग होना मैथुन कर्म और इस मैथुन से उत्पन्न होने वाले वृक्षादि मैथुनी सृष्टि में कहाते हैं। जूँ, मक्खी, खटमल आदि की सूक्ष्म शरीरधारी सूक्ष्म जीवों से उत्पत्ति होती है। अर्थात् देहधारियों के मुख्यकर दो भेद हैं- एक- स्थूल और द्वितीय- सूक्ष्म। जो इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष होते हैं वे स्थूल मशक- मच्छर पर्यन्त हैं। इनसे भिन्न अतीन्द्रिय- इन्द्रियों से न दीख पड़ने वाले सूक्ष्म कहाते हैं। यद्यपि मच्छर आदि को किन्हीं की अपेक्षा से सूक्ष्म कह सकते हैं तो भी सूक्ष्मता वा स्थूलता की अवधि करनी चाहिये, ऐसा मानकर इन्द्रियों से न दीख पड़ने वालों को ही मुख्यकर सूक्ष्म मानना चाहिये। सूक्ष्म कारण और स्थूल कार्य होता या माना जाता है, यह भी न्याय से सिद्ध और सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जिन गोबर आदि में उत्पन्न हुए वृश्चिक आदि स्थूल प्राणियों को संयोग से उत्पन्न करने वाले स्थूल शरीरधारी कारणरूप नहीं दीखते वहां गोबर आदि में रहने वाले विषरूप सूक्ष्म अतीन्द्रिय शरीरधारी कारणस्वरूप जन्तु अर्थात् चेतनायुक्त जड़ कारण से उन वृश्चिक आदि की उत्पत्ति होती है यह अनुमान से ही निश्चित होता है। जड़ कारणमात्र से चेतन की उत्पत्ति हो सकती हो यह नहीं मान सकते। इसी प्रकार ‘कारण का गुण कार्य में आता है अर्थात् जो गुण कार्य में दीख पड़े उस का होना कारण में अवश्य मानना पड़ता है’१ यह वैशेषिकशास्त्र का सिद्धान्त है सो भी ठीक घट जाता है। तथा ‘कार्य-कारण की एकरूपता होती वा माननी चाहिये’ यह न्यायशास्त्र का सिद्धान्त भी पूर्वोक्त प्रकार मानने से ठीक बन सकता है।
यद्यपि मनुष्यादि प्राणियों के शरीर पृथिवी के वा किन्हीं के मतानुसार पञ्चभूतों से बनते हैं, इसलिये उन शरीरों का पृथिव्यादि जड़ ही उपादान कारण हैं। तो भी चेतनता-विशिष्ट शरीरों से ही प्राणियों के शरीरों की उत्पत्ति होती है, इससे कार्य-कारण के साधर्म्य में कोई दोष नहीं आ सकता। इस गोबर आदि जड़ कारण मात्र से यदि वृश्चिक (बिच्छू) आदि जन्तुओं की उत्पत्ति मानी जावे तो बिच्छू आदि भी जड़ होने चाहियें। क्योंकि जड़ दूध के विकृत होने पर पदार्थान्तर दही चेतन नहीं बनता, अथवा प्रशस्त मिट्टी से चेतन घड़ा आदि नहीं उत्पन्न होते, किन्तु दूध से दही तथा मिट्टी से घट आदि जड़ से जड़ ही उत्पन्न होते हैं। वैसे यहां भी विचारना चाहिये कि जहाँ प्रत्यक्षता से कारण में वैसा गुण नहीं दीखता और कार्य में दीखे तो वहां कारण में उस गुण का सूक्ष्म वा अतीन्द्रिय होना अनुमान से जानना चाहिये। इससे चेतन सूक्ष्म शरीरधारी वैसे ही जन्तुओं से डांश, मच्छर और बिच्छू आदि की उत्पत्ति होती है, यह सिद्ध हो गया।
ये डांश, मच्छर आदि स्वेदज या उष्णज अर्थात् गर्मी से उत्पन्न होने वाले हैं ऐसा जो शास्त्रज्ञ लोग कहते हैं सो वह स्वेदज होना रूप गुण व धर्म उन जीवों में अण्डज वा जरायुज होने आदि के तुल्य है ऐसा जानना चाहिये। जैसे अण्डज और जरायुज कोई प्राणी चेतनता युक्त स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना केवल अण्डा वा जरायुमात्र से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु जिसके भीतर वीर्य और स्त्री के आर्त्तव रुधिर के संयोग से गर्भ शरीराकार बनता है, वह सूक्ष्म पतले चर्म के तुल्य जरायु कहाता है, उस जरायु अर्थात् जरायु के फट जाने से प्रसिद्ध अवयवों वाला सन्तान दृष्टि के सामने आता है तथा अण्डाकार के बीच उन्हीं रज-वीर्य के संयोग से गर्भ होकर पूर्ण अगें वाला हुआ, अण्डे के फूट जाने से उत्पन्न हुआ जन्तु अण्डज कहाता है (प्रायः जरायुज मनुष्यादि का जरायु बाहर निकलने से पहले फट जाता है तब बाहर निकले बच्चे के हाथ, पग आदि अग् स्पष्ट दीख पड़ते हैं। कभी-कभी कोई बालक जरायु में लिपटे हुए उत्पन्न हो जाते हैं उनके हाथ, पग आदि अग् बाहर निकल आने पर भी स्पष्ट पृथक्-पृथक् नहीं दीखते, वैसे ही गोलाकार जान पड़ते हैं और जब तक चाकू आदि से (उझय्या) नहीं फाड़ी जाती तब तक वे बच्चे रोते भी नहीं ऐसी दशा में रात्रि के समय कभी-कभी स्त्रियों को भ्रम हो जाता है कि यह क्या उत्पन्न हुआ ? जब अण्डज प्राणियों का मैथुन संयोग होता है तब गर्भाशय में रज-वीर्य के संयोग से अण्डा बनता है, वह कुछ दिन गर्भाशय में रहकर बच्चों के समान बाहर निकलता है। अण्डा वाले प्राणी पक्षिणी आदि उनकी बाहर भी रक्षा रखते हैं, पीछे जब अण्डा पक जाता है तब उसमें से सर्वाग् पूर्ण बच्चा निकलता है) किन्तु स्त्री-पुरुष के संयोग हुए बिना उत्पन्न हुए प्राणी अण्डज वा जरायुज नहीं कहाते। इसी प्रकार यहां भी स्वेदज प्राणी उष्णविशेष के कारण से शीघ्र प्रकट हो जाते हैं। उष्ण- गरमी की अधिकता ही स्त्री-पुरुषरूप दो शक्तियों के संयुक्त होने में भी कारण है। दोनों प्रकार की शक्तियों वाले सूक्ष्म देहधारी जन्तुओं का संयोग हुए पीछे गर्मी की अधिकता से अतिशीघ्र वृद्धि को प्राप्त हुए प्राणी दीखते हैं, इसलिए वे स्वेदज वा उष्णज कहाते हैं (उष्णता की अधिकता से प्राणियों के शरीरों की बहुत शीघ्र वृद्धि होती है, सो यह पदार्थ-विद्या से भी प्रसिद्ध है। जब आम के बीज में अधिक गर्मी किसी प्रकार पहुँचाते हैं तभी थोड़ी गीली मिट्टी और जल में गोठली धरके तत्काल वृक्ष की उत्पत्ति और पत्ते भी लग जाते और वृक्ष सूख जाता है। तथा उष्णता जिन प्रान्तों में अधिक है वहाँ स्त्रियों में कामासक्ति के चिह्न स्तन आदि शीघ्र निकलते उनकी युवावस्था भी शीघ्र आ जाती है, और शीत प्रदेशों में इसकी अपेक्षा पीछे आती है इसी प्रकार उष्ण की अधिकता से क्षुद्र जन्तुओं के शरीर शीघ्र दृष्टिगोचर होते हैं इसलिए उनको स्वेदज वा उष्णज कहते हैं)। तथा सूक्ष्म शरीरधारी स्थूल नहीं हो जाते किन्तु स्थूलों से सूक्ष्म उत्पन्न होते हैं। यदि कोई कहे कि जैसे प्राणियों के शरीर से कोई उत्पन्न होता है वह वैसा ही सूक्ष्म वा स्थूल होता वा बड़ा-छोटा होता है। किन्तु मच्छर के शरीर से उससे बड़े-बड़े प्राणी नहीं उत्पन्न होते, न शृगाल से हाथी ही। इसका उत्तर यह है कि जैसे स्थूल प्राणियों के मैथुन संयोग से शुक्र और शोणित एक होकर गर्भ में प्राणी उत्पन्न होते हैं, वैसे सूक्ष्म प्राणियों के मैथुन संयोग से वीर्यादिक कहीं नहीं निकलता। किन्तु जो स्वेदज प्राणियों के शरीरों का सूक्ष्म उपादान कारण है, उसमें स्त्री और पुरुष की दोनों शक्ति रहती है और वह शक्ति चेतनता से युक्त होती है, उसी शक्ति के संयोग से और उष्णता के बढ़ने से उन स्वेदज प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु वह उपादान कारण रूप दो प्रकार की शक्ति चेतनता युक्त होने से चेतन कहाती है, इसी कारण केवल जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं मानी जाती और उस चेतन शक्ति को सूक्ष्म जीव भी कह सकते हैं। इसी से कार्य-कारण की अनुकूलता वा एकरूपता बनती है। अब इस कथन से सिद्ध हो गया कि स्वेदज और उद्भिज्ज जीव भी मैथुनी सृष्टि के अन्तर्गत हैं।