प्रत्युत्तर-अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याख्यास्याम की माप तौल

प्रत्युत्तर-अथ-सृष्टि उत्पत्ति व्याख्यास्याम की माप तौल

– आचार्य दार्शनेय लोकेश

परोपकारी पत्रिका के अगस्त द्वितीय अंक में प्रकाशित श्री शिवनारायण उपाध्याय के लेख ‘अथ सृष्टि उत्पत्ति व्याख्यास्याम की माप तौल का उत्तर’ पर केन्द्रित मेरा यह लेख लेखक के विचार और तर्कों से असहमति ही नहीं, असहमति के  आधार तथ्यों का खुलासा भी है।

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-वेदोत्पत्ति विषय (प्रकाशक-आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, पेज १६) में ‘ते चैकस्मिन् ब्राह्मदिने १४ चतुर्दशभुक्ता भोगा भविन्त’ जो लिखा है तो उसका अर्थ ये नहीं है और न हो सकता है कि एक ब्राह्मदिन में १४ मन्वन्तर का काल ही भोगकाल होता है। वस्तुतः ऐसा कहने से स्वामी जी का तात्पर्य है कि ६ पूरे और व्यतीत भाग के साथ ७ वें वर्तमान तक बीत चुके हैं  (भुक्त ना कि भुक्ता जैसा कि उपाध्यायजी ने लिखा है) तथा वर्तमान वैवस्व मन्वन्तर का शेष और सावर्णि आदि ७ जो आगे भोगने बाकी हैं अर्थात् भोग्य कुल १४ ही मन्वन्तर होते हैं। इससे कम या इससे अधिक महर्षि के कथन का कुछ भी अन्यथा अर्थ नहीं है।

श्री शिवनारायण उपाध्याय का ये लिखना गलत है कि ‘‘अर्थात् भोगकाल १४ × ७१ = ९९४ चतुर्युगी ही हैं। स्वामी जी ने सृष्टि-उत्पत्तिकाल की गणना उस समय से की है जब मनुष्य उत्पन्न हुआ।’’ यही नहीं, पूर्णतया विरोधाभास के साथ आगे लिख रहे हैं, ‘‘मनुष्य के उत्पन्न होने के साथ ही चार ऋषियों के द्वारा परमात्मा ने वेद ज्ञान दिया। परन्तु सृष्टि-उत्पत्ति प्रारम्भ होने से लेकर मनुष्य की उपत्ति होने तक का व्यतीतकाल को उन्होंने गणना में नहीं लिया।’’ अगर यह बात है और सृष्टिकाल के कुछ भाग को गणना में नहीं लिया गया है तो महर्षि की दी हुयी गणना १९६……को सही कैसे कहा जा सकता है? काल गणना के आवश्यक किसी भाग को छोड देना अर्थात् गणना का गलत होना। लेकिन ऐसा है नहीं। मेरे अनुसार महर्षि ने एक भी बात सिद्धान्त  से हट कर नहीं कही है। मेरे देखने में वे सिद्धान्ततया शत प्रतिशत सही हैं और अगर ऐसा है तो १९६….. की गणना में एक टंकण या लेखन-त्रुटि स्पष्ट है।

अब एक  और सन्दर्भ की बात- परोपकारिणी महासभा के सत्प्रयासों से जून २०१७ में अजमेर में एक विद्वत्सभा बुलाई जा रही है। सभा में हम गणितीय तौर पर सिद्ध करके दिखाएँगे कि किस तरह १९६…..गलत है और १९७……ही सही है। एक बात सभी को समझनी होगी कि सूर्य सिद्धान्त के प्रथम अध्याय के आधे भाग मात्र को पढ़कर ही कोई किसी गणना विषयक चीज को लागू नहीं कर सकता है। जो भी सृष्टि संवत् दिया जाएगा उसे पूरे सूर्य सिद्धान्त पर आधारित और सूर्य सिद्धान्त से ही सिद्ध या प्रमाणित होना होगा। इसके अभाव में सृष्टि संवत् को कभी भी सही नहीं किया जा सके गा।

इस सन्दर्भ में वेदवाणी (वर्ष ४३ अंक ८, पृष्ठ १५-१७) में प्रकाशित वैदिक विद्वान् श्री आदित्यपाल सिंह आर्य का लेख एक सार्थक प्रयास है। सूर्य सिद्धान्त के अध्याय १ श्लोक २४ के जिस श्लोक की संगति न लगा सकने की चर्चा उपाध्याय जी कर रहे हैं, उस श्लोक का काल गणना की सिद्धि में व्यवहार अपेक्षित ही नहीं आवश्यक भी है और ऐसा ही श्री आदित्यपाल सिंह आर्य ने किया है।

सूर्य सिद्धान्त के इसी श्लोक १/२४ में सृष्टि निर्माण में लगे कुल समय (४७४०० दिव्य वर्ष या ४७४०० × ३६० अर्थात् १७०६४००० कुल मानव वर्ष) का ज्ञान दिया हुआ है। ऐसे में हम सृष्टि निर्माण का काल कुछ और कै से ले सकते हैं?

एक तरफ तो स्वामी जी विधिवत् संकल्प मन्त्र के माध्यम से कह रहे हैं (क्षणमारभ्य कल्पकल्पान्तस्य गणित विद्यया स्पष्टं परिगणितं कृतमद्यपर्यन्तमपि क्रियते……ज्ञायते चातः…..) कि कल्प आरम्भ के क्षण से लेकर गणित विद्या से स्पष्ट गणित किये हुए आज पर्यन्त के प्रत्येक दिन का उच्चारण किया जाता है, और उनकी अद्यतन गणना का ज्ञान किया जाता है और दूसरी तरफ ये महोदय कह रहे हैं कि सृष्टि उत्पत्ति से लेकर मनुष्य उत्पत्ति तक के समय को स्वामी जी ने गणना में नहीं लिया है। मुझे तो ये भी समझ नहीं आ रहा है कि ये बात कहना स्वामीजी पर दोष आरोपित करना है या कि उनकी प्रशंसा करना है?

श्रीमान् उपाध्याय जी से यह जानना जरुरी है कि वेद मनुष्य की शत वर्षीय अगर आयु बताता है तो क्या ये मानना होगा कि गर्भ काल के २८० दिन काटने के बाद बचे ९९ वर्ष २ माह २० दिन ही (भोग काल अर्थात् वास्तविक जीवंतता का समय) ‘शतायुर्भव’ का तात्पर्य है? नहीं ऐसा कदापि नहीं है। सूर्य सिद्धान्त और मनुस्मृति का सच ये है कि ब्रह्मा की आयु १००० चतुर्युगी है तो ये ब्रह्मा की जीवंतता का अर्थात् क्रियाशीलता का अर्थात् भोग का काल ही है।

हम ‘भोग काल’ के श्री उपाध्याय वाले आशय में कहीं से कहीं तक औचित्य नहीं देख रहे हैं। ये श्रीमान् जबरदस्ती अपनी बात सिद्ध करना चाहते हैं। जब स्वामी जी स्पष्ट लिख रहे हैं कि एक ब्राह्म दिन की कल्प संज्ञा होती है और १००० चतुर्युगी के बराबर है तो फिर ९९४ ही चतुर्युगी के काल को ही ब्राह्म दिन अर्थात् कल्प के भोग काल के रूप में कैसे कह सकते हैं? अस्तु, स्पष्ट हुआ कि कल्प का भोगकाल १००० चतुर्युगी बिना पूरा हुए नहीं कहा जा सकता है।

ऋग्वेद १-१५-८ के माध्यम से श्री उपाध्याय कहना चाहते हैं कि प्रत्येक कार्य स्वरूप के उत्पन्न होकर नष्ट होने में समय तो लगता ही है। ये तो सभी मानेंगे इसमें तर्क की बात ही क्या है? किन्तु किसी कार्य में लगे काल को गणित में न लिया जाये ये कहाँ की काल गणना हुयी श्रीमान्?

हम इस लेख के माध्यम से समस्त आर्य जगत् के सभी विद्वानों से निवेदन करते हैं कि वे स्वयं भी निम्नलिखित दो बातों को अधिकार और प्रमाणपूर्वक स्पष्ट करें-

१. कि महर्षि ने सृष्ट्यादि गणना मानवोत्पत्ति से शुरु की है और ‘‘सृष्टि उत्पत्ति प्रारम्भ होने से लेकर मनुष्य की उपत्ति होने तक के व्यतीतकाल को उन्होंने गणना में नहीं लिया है।’’

२. कि एक ब्राह्म दिन १००० चतुर्युगी का है, किन्तु उसका वास्तविक भोग काल केवल ९९४ चतुर्युगी ही है।

हम पहले ही अपनी मान्यता और जानकारी स्पष्ट कर चुके हैं कि महर्षि के अनुसार सृष्टि, वेद और मानव उत्पत्ति एक ही साथ हैं, अलग-अलग नहीं। ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका ‘अथ वेदोत्पत्ति विषय’ में स्वामी जी, ‘‘इति सूर्य सिद्धान्तादिषु संख्यायते। अनया रीत्या वर्षादि गणना कार्येति’’ लिखते हैं। अस्तु, उन्होंने सूर्य-सिद्धान्त आदि ग्रन्थों के अनुसार ही सृष्ट्यादिकाल गणित किया है और स्वाभाविक है कि सूर्य सिद्धान्त में दी हुयी १५ संधियों के कुल योग से बनी ६ चतुर्युगी के गणित को कैसे भुलाया जा सकता है? विद्वज्जन इस पर गंभीरता से विचार करें।

आर्य जनों में कल्पादि / सृष्टियादि गणना ही नहीं, कुछ अन्य बातों की भी गम्भीर विसंगति चल रही है। इन सभी का अन्तिम तौर पर निराकरण कर लेना आवश्यक है। इन विसंगतियों को हम अलग से लेख द्वारा स्पष्ट करना चाहेंगे।

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