ओ३म्
‘क्या इस सृष्टि को बनाने वाला कोई ईश्वर है?’
–मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
क्या वस्तुतः ईश्वर है? यह प्रश्न वेद और वैदिक साहित्य से अपरिचित प्रायः सभी मनुष्यों के मन व मस्तिष्क में यदा कदा अवश्य उत्पन्न हुआ होगा। संसार में अपौरुषेय कार्यों, सूर्य सहित समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, उसके संचालन, मनुष्य आदि प्राणियों की उत्पत्ति सहित कर्मफल व्यवस्था व सुख-दुःख आदि को देखकर ईश्वर का ज्ञान होता है। इसके साथ ही संसार में अधर्म करते हुए लोगों व उनकी सुख-सुविधाओं, ठाठ-बाट आदि को देखकर ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशय भी हो जाता है। परीक्षा की घड़ियों अर्थात् दुःख व विपरीत परिस्थितियों में बहुत से लोगों का ईश्वर के प्रति विश्वास प्रायः डोल जाता है। इसका कारण यह होता है कि उनके ईश्वर सम्बन्धी विचारों का आधार परम्परागत मान्यतायें हुआ करती हैं। संशय को प्राप्त मनुष्य की ईश्वर में आस्था व विश्वास का कोई ठोस, तार्किक व ऊहापोह युक्त आधार नहीं होता। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि मनुष्य जब पूर्ण स्वस्थ व सुखी हो तब उसे अपनी व अन्य मनुष्यों की विपरीत परिस्थितियों के कारणों पर विचार करना चाहिये और उसमें ईश्वर की क्या भूमिका हो सकती है, उनका अनुमान कर उन परिस्थितियों को अपने जीवन से दूर करने का हर संभव प्रयास करना चाहिये। इससे भावी समय में जीवन में विपरीत परिस्थितियों के आने पर उसे उसके पीछे के कारणों का ज्ञान हो जायेगा और वह साधारण व अज्ञानी मनुष्यों के समान ईश्वर को कोसने के स्थान पर विपरीत परिस्थितियों को सुधारने का प्रयास करेगा और साथ ही ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना कर उसकी सहायता भी प्राप्त कर सकेगा।
हम सामान्य जनों को यह भी विचार करना चाहिये कि यदि ईश्वर अन्य भौतिक पदार्थों के समान एक स्थूल पदार्थ होता अथवा वह अन्य शरीरधारियों के समान कोई शरीरधारी होता तो वह हमें आंखों से अवश्य दिखाई देता, ठीक वैसे ही जैसा कि हम संसार की अन्य वस्तुओं को देखकर उनका विश्वास कर लेते हैं। आंखों से दिखाई देने वाली वस्तुओं के प्रति हमें कोई संशय नहीं होता। संसार में कोई मनुष्य यह दावा नहीं करता कि उसने अपनी आंखों से ईश्वर को देखा है? न किसी ने पूर्व में कभी किया, न वर्तमान में करता है और न भविष्य में ही करेगा। इसमें सभी योगी, वेदाचार्य, सभी मताचार्य, ज्ञानी व वैज्ञानिक आदि भी सम्मिलित हैं। ईश्ववर के दिखाई न देने से सिद्ध होता है कि ईश्वर हमारी तरह से शरीरधारी कोई सत्ता नहीं है। अतः ईश्वर शरीरधारी नहीं, यह हमने जान लिया। अब यह देखना है कि ऐसे कौन कौन सी पदार्थ हैं जिनका अस्तित्व है परन्तु वह दिखाई नहीं देते। ऐसे पदार्थों में आकाश आता है। आकाश खाली स्थान होता है, परन्न्तु वह दिखाई नहीं देता। अब क्या यह मान सकते हैं कि आकाश है ही नहीं? ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि यदि ऐसा मानेंगे तो भी खाली स्थान तो रहेगा ही। उसी मे तो हम व संसार की सभी वस्तुएं विद्यमान है। आकाश के सन्दर्भ में उसका होकर भी दिखाई न देने का एक कारण उसका न होना ही होता है।
वायु पर भी चर्चा कर लेते हैं। हम वायु को आंखों से नहीं देख पाते। सर्दी व गर्मी का अनुभव हमें वायु की उपस्थिति का ज्ञान कराता है। विज्ञान भी वायु को मानता है। जब वायु तेजी से आंधी के रूप में चलता है तो वृक्षों के पत्तों व उसकी शाखाओं को वायु की गति के कारण तेजी से हिलते-डुलते हुए पातें है जो वायु होने व उसकी तेज गति का प्रमाण है। हम आंखों से देखने का कार्य लेते हैं। जिस ओर हमारा मुख होगा, उसी ओर की वस्तुएं हम देख पाते हैं। विपरीत दिशाओं की वस्तुएं मुख्यतः पीछे की वस्तुएं होकर भी हम नहीं देख पातें। इससे यह भी ज्ञात होता है कि आंखों का वस्तु की ओर होना आवश्यक है तभी वह वस्तु देखी जा सकेगी। यह तो भौतिक वस्तुओं के विषय की बातें हैं। अब हम अपने बारे में विचार करते हैं। हम और हमारा अस्तित्व असंदिग्ध है। हम क्या हैं? क्या यह शरीर ही हम हैं? क्या शरीर ही देखता, बोलता, सुनता, स्पर्श करता है या इससे भिन्न शरीर के अन्दर किसी अन्य पदार्थ की सत्ता विद्यमान है। मैं मनमोहन हूं, क्या यह मेरा शरीर व उसमें मुंह नामक इन्द्रिय अपने आप बोलता है या कोई उसे बोलने के लिए प्रेरित करता है। यदि अपने आप नहीं बोलता तो मुंह जो कुछ बोलता है, वह उसे कौन बोलने के लिए कहता है। यदि शरीर से भिन्न बोलने, सुनने, देखने, सूंघने व स्पर्श करने वाली पृथक सत्ता न होती तो सब एक जैसी बातें करते, एक जैसा देखते, एक कहता यह अच्छा है तो सभी वही बातें स्वीकार करते, परस्पर मत भिन्नता न होती क्योंकि जड़ पदार्थों में जो गुण होते हैं वह सर्वत्र एक समान व एक जैसे ही होते हैं। अग्नि, वायु, जल, पृथिवी व आकाश का गुण सर्वत्र एक जैसा है। अतः यह सिद्ध होता है कि सभी के शरीर में एक जीवात्मा नाम का चेतन तत्व व पदार्थ है जो सबमें भिन्न भिन्न है। वही मन के द्वारा मुंह को प्रेरणा कर इच्छित बातें बुलवाता है। इसी प्रकार जीवात्मा ही मन के द्वारा अन्य अन्य इन्द्रियों से अपनी इच्छानुसार कार्य कराता है व उनसे उनके विषय यथा, आंख से रूप, कान से शब्द, नाक से गन्ध व जिह्वा से रस व त्वचा से स्पर्श का ग्रहण करता है और इनके अनुभवों से सुखी व दुःखी होता है।
इस चिन्तन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि शरीर व इसकी इन्द्रियां साधन है शरीरस्थ एक चेतन सत्ता के जो इसे अपनी क्रियाओं से सुख व दुःख की अनुभूति कराते हैं। उसी की प्रेरणा से शरीर व उसके अंग, इन्द्रियां आदि किसी विषय से संयुक्त होकर उसका ज्ञान जीवात्मा को कराते हैं। यह जीवात्मा हमारे व अन्यों के शरीर में होता है तो शरीर क्रियाशील रहते हुए अपने कार्यों को करता है। इसके न रहने पर शरीर क्रियाशून्य हो जाता है जिसे मृत्यु कहते हैं और तब यह शरीर किसी काम का न रहने पर इसका दाह संस्कार व अन्त्येष्टि कर दी जाती है। शरीर से पृथक होने वाली आत्मा का मृतक के साथ रहने वालों को पता ही नहीं चलता कि वह इससे पृथक होकर कहां गया? उसकी बाहर निकलने व बाहर निकल कर अन्यत्र जाने के पीछे किसकी प्रेरणा, शक्ति व बल कार्य कर रहा है? यह ज्ञान बहुत कम को होता है। यह विचार व चिन्तन का विषय है और इसका उत्तर मिलता है कि प्राणों का बन्द होना व जीवात्मा व प्राणों का शरीर से निकलना तथा शरीर का चेतना शून्य होना एक अदृश्य सत्तावान ईश्वर के कारण ही होता है। यदि ईश्वर न होता तो फिर न यह जीवात्मा जन्म के समय व उससे कुछ काल पूर्व शरीर से संयुक्त होती और न कभी इसकी मृत्यु अर्थात् शरीर से पृथक होने की स्थिति आती। यह कार्य ही ईश्वर करता है अतः ईश्वर सदा, सर्वत्र अपने स्वरुप व सत्ता के साथ विद्यमान रहता है।
मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः इसे अपनी ज्ञान वृद्धि हेतु चिन्तन मनन करने के साथ ईश्वर से संबंधित ज्ञानी व अनुभवी विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। इसमें हमारे वेद प्रथम स्थान पर आते हैं जो ईश्वर प्रदत्त हैं। वेदों के पढ़ने वा जानने के इस लिए इसके संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं के भाष्य उपलब्ध है। इनके साथ दर्शन, उपनिषदें, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का अध्ययन भी करना चाहिये। योगदर्शन का अपना अलग ही महत्व है। यह ईश्वर के पास जाने व उसका प्रत्यक्ष करने का क्रियात्मक ज्ञान है। योगदर्शन में ईश्वर प्राप्ति के साधनों की जानकारी सहित प्रत्येक छोटी से छोटी बात पर भी गहन व सारगर्भित समाधान अध्येता को प्राप्त होते हैं। यदि ईश्वर का जिज्ञासु इन सभी ग्रन्थों को पढ़़ लेगा तो उसकी सभी शंकायें दूर हो सकती हैं। वह कभी नास्तिकता के विचारों को अपने मन व हृदय में स्थान नहीं देगा। उसे अपने कर्तव्य का बोध भी हो जायेगा और योगदर्शन वर्णित साधनों का उपयोग कर कालान्तर में आध्यात्मिक साधना में प्रगति प्राप्त कर सकता है।
एक प्यासे मनुष्य को अपनी पिपासा दूर करने के लिए जल चाहिये। कुआं खोदना उसे अभीष्ट नही होता। महर्षि दयानन्द ने इस तथ्य को सामने रखकर चार वेद, दशर्न, उपनिषद, स्मृति आदि ग्रन्थों का मन्थन कर ईश्वर विषयक ज्ञान वा ईश्वर के गुणों का आर्यसमाज के नियमों व अपनी मान्यताओं ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ में उल्लेख किया है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। सत्यार्थप्रकाश के स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश प्रकरण में वह लिखते हैं कि ‘ईश्वर कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम है, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।’ योगदर्शन के अनुसार ईश्वर वह है जो क्लेश, कर्म व उसके कर्मफल से रहित पुरूष विशेष है। वेदों में आता है कि ईश्वर हमें हमारे प्राणों से भी प्रिय, दुःखों से रहित व दुःख दूर करने वाला, सुखस्वरूप व जीवों को उनके कर्मानुसार सुख-दुःख देने वाला, सर्वतोमहान, सबका उत्पादक, संसार की उत्पत्ति स्थिति व प्रलयकर्त्ता, सत्यस्वरूप, ज्ञानस्वरूप व प्रकाशस्वरूप है। सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन कर ईश्वर के अनन्त गुणों में से अन्य अनेक आवश्यक गुणों को जाना जा सकता है और इनके द्वारा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर जीवन को दुःखों से रहित बनाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर किया जा सकता है। ईश्वर स्तुति, प्रार्थना व उपासना की विधि जानने व उसका सफल क्रियात्मक अभ्यास कर जीवन को सफल करने हेतु ऋषि दयानन्द की पंच-महायज्ञ विधि सर्वोत्तम पुस्तक है।
हम आशा करते हैं कि पाठक जान गये होंगे कि ईश्वर नाम की सच्ची सत्ता है और उसके गुण, कर्म व स्वभाव सभी शुद्ध व पवित्र हैं जिनके स्मरण करने व अपना आचरण सुधारने से दुःखों की निवृत्ति कर सुखी हुआ जा सकता है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121
NAMASTE…..
YEK CHHOTI SANKAA UTPANNA HUI HAI KRIPAYAA SAMAADHAAN KI APEKSHAA KARTAA HOON: –
YEH BAAT TO SAHI HAI KI JO ‘HUM’ HAI OH HI ‘CHETAN AATMAA’ HI HAI, JAD SHARIRAADI AVAYAVA NAHIN, FIR KYUN SATYARTH PRAKASH-SAMULLAS-3/2 ME ‘GURU MANTRA VYAAKHYAA’ ME MAHARSHI DEV DAYANAND NE YEK JAGAH LIKHTE HAI: – ” ……………….WAH PARMESHWAR HAMAARE AATMAA AUR BUDDHIYON KAA ANTARYAAMISWARUP HUMKO DUSHTAACHAAR, ADHARMMAYUKTA MAARGA SE HATAA KE SHRESHTHAACHAAR, SATYA MAARGA MEN CHALAAVE” UPAR “HAMARE AATMAA” SE TO YAHI SIDDHA HITI HAI KI ‘HUM’ AUR ‘AATMAA’ ALAG ALAG HAI..!
ओ३म्
मेरी शंका है कि क्या देवी देवता जल वायु अग्नि पृथ्वी आकाश को छोड़कर दूसरे जो अनेकों नाम प्रचलित हैं वो हैं थे या सब मिथ्या है। इसका समाधान कीजिए।
धन्यवाद
satyarth prakash pratham samullas dekhen
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