अब संक्षेप से कर्मफलों का विचार किया जाता है। धर्म वा अधर्म का संचय कराने वाले शास्त्रों में कर्त्तव्य बुद्धि से विधान किये वा छोड़ने के लिये निषिद्ध किये शुभ-अशुभ अच्छे-बुरे दो प्रकार के कर्म हैं। उनके फल भी वैसे ही शुभ-अशुभरूप होते हैं। वे कर्म मन, वाणी और शरीर में उत्पन्न होने से तीन प्रकार के हैं। मानस कर्मों का फल मन से, वाचिकों का वाणी से और शरीर से होने वाले कर्मों का फल शरीर से ही इस जन्म में वा जन्मान्तर में मनुष्य भोगता है। इन्द्रियादि साधन और भोग के आधार शरीर के साथ रहने पर ही जीवात्मा का कर्त्ता-भोक्ता होना विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं और इसी से केवल आत्मा के भोक्ता होने का निषेध भी करते हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य में लिखा है कि- ‘शरीररहित आत्मा को कुछ भोग नहीं होता’१ और केवल शरीरादि भी सुख-दुःखादि के साधन नहीं हो सकते अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। जब धर्म का अधिक सेवन करता है तो सर्वोत्तम स्वर्गनामक सुख को प्राप्त होता और अधर्म के अधिक सेवन से नरकनामक विशेष दुःख पाता है। कर्मों से ही प्राणियों के शरीरों में प्रधान सत्त्वादि गुण और उनके अवयवरूप अवान्तर भेद प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘ज्ञानरूप सत्त्वगुण अज्ञानस्वरूप तमोगुण और रागद्वेषरूप रजोगुण माना है। अर्थात् इस शरीर में कर्मभेद से न्यूनाधिकभाव को प्राप्त हुए सत्त्वादिगुण व्याप्त रहते हैं।’२ कर्म के भेद से ही ऊंच-नीच अधिकारों और ऊंच-नीच योनियों में लिग्शरीर के सहित जीवात्मा प्रतिक्षण भ्रमते रहते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘इस जीवात्मा की अपने कर्म से ही अनेक प्रकार की दशा संसार में देख तथा धर्म और अधर्म के मेल को छोड़कर केवल धर्म में मन को धारण करे।’३ जिन-जिन शुभ वा अशुभ कर्मों का सेवन मनुष्य वर्त्तमान जन्म में करता है, उन कर्मों का यदि उसी शरीर में फलभोग नहीं होता तो उसको जाति कि कैसे कुल में जन्म होना, अवस्था कितनी और कैसा भोग हो यह तीन प्रकार का फल जन्मान्तर में होता है। इन्हीं फलरूप जाति आदि का विशेष विस्तार मनु आदि महर्षियों ने अपने अनुभव से किया है कि ऐसा-ऐसा कर्म करने से जन्मान्तर में अमुक-अमुक जाति वा योनि में जन्म होता है। सो यह बुद्धि के पार पहुंचे ज्ञान से देखने वाले लोकोत्तर पण्डित लोगों को वर्त्तमान प्रत्यक्ष शरीरों में किन्हीं लक्षण वा चिह्नों को देखकर भूतपूर्व उनके कारणों का यथार्थ अनुमान कर लेना कुछ आश्चर्य नहीं है कि- यह जीवात्मा इससे पूर्वजन्म में अमुक योनि वा जाति में रहकर अमुक कर्म करता रहा उस कर्म का यह जाति आदि रूप इस समय फल प्राप्त हुआ है। ऐसे परोक्ष विषयों का ठीक-ठीक अनुभव योगी लोग ही कर सकते हैं। कोई सन्ध्या वा पढ़ाने आदि ब्राह्मणादि के नित्य कर्म हैं और कोई गर्भाधानादि नैमित्तिक हैं। भोजन से नित्य क्षुधा की निवृत्ति के समान नित्यकर्म का फल भी नित्य-नित्य ही प्राप्त होता जाता है और नैमित्तिक गर्भाधानादि कर्मों का पुत्रोत्पत्ति आदि नैमित्तिक ही फल होता है। उत्तम, मध्यम, निकृष्ट इन तीन प्रकार के कर्मों का फल भी वैसा ही त्रिविध होता है। उत्तम कोटि के कर्मों का फल स्वर्गनामक, निकृष्ट का नरक और मध्यम का सुख-दुःख मिला हुआ रजोगुणसम्बन्धी फल होता है। तमोगुण में पड़ने वाले कृमि- कीटादि नीच कर्मों के नरक फल गामी होते और सत्त्वगुणी प्राणियों को प्रायः स्वर्गसुख के भागी वा निवासी जानना चाहिये।
कोई लोग संसारी प्रत्यक्षदशा से विलक्षण अदृश्य और परोक्ष नरक-स्वर्ग हैं अर्थात् किसी निज स्थान का नाम नरक और स्वर्ग है, ऐसा मानते हैं। हम लोग उन नरक-स्वर्गों के परोक्ष होने का खण्डन न करके प्रत्यक्ष भी नरक-स्वर्गों का ग्रहण करते हैं। वैसे बहुत लोक और उनके विशेष स्थान परोक्ष हैं वहां सुखविशेष के हेतु स्वर्गस्थान और दुःखविशेष के हेतु नरकस्थान भी हैं कि जैसे पृथिवी पर स्वर्गनाम सुखविशेष के हेतु और नरकनाम दुःखविशेष के भोगस्थान प्रत्यक्ष दीखते हैं। इसी प्रकार अन्य सब परोक्ष लोक-लोकान्तरों में भी स्वर्ग-नरक होना बन सकता है परन्तु यह नहीं हो सकता कि स्वर्ग-नरक किसी एक ही स्थल में हों और सर्वत्र न हों। जैसे सम्प्रति प्रत्येक नगर वा जिलों में बन्धागार (जेलखाना) बनाये जाते हैं वैसे ही सुख-दुःख की सामग्री सर्वत्र जानो। सब सुखों के भोगों की सामग्री जहां विद्यमान है ऐसे स्थानों में बसते स्वर्गरूप सुख का अनुभव करने वाले विद्याबुद्धिसम्पन्न पुरुष देव कहाते हैं। इसी से कहा है कि- ‘यज्ञ करने वा वेद पढ़ने वाले ज्ञानी लोग जो कि सत्त्वगुण की मध्यावस्था में रहते हैं वे ही देवता हैं। मुक्ति भी कर्मों से ही सिद्ध होती है।’१ इससे मुक्ति पाने के लिये भी मनुष्य को फलभोग की आशा छोड़कर धर्म का ही सेवन करना चाहिये। फलप्राप्ति की इच्छा छोड़कर सेवन किये कर्मों से उत्पन्न होने पर भी मुक्ति कर्मफल से पृथक् नहीं रह सकती क्योंकि अकस्मात् भी कर्मों का फल मिलता है। चाहना का बन्धन मानें तो बुरे कर्म के दुःखफल की चाहना कोई नहीं रखता। यद्यपि मुक्ति में दुःख के विरोधी किसी सुख का भोग नहीं है तो भी दुःख के अभाव का नाम सुख होने से मुक्त को अत्यन्त सुख होना कह सकते हैं। जैसे प्रक्षालन- धोने आदि कर्म से वस्त्रादि के मल की निवृत्ति और निर्मलता की प्राप्ति कर्म का ही फल है, ऐसा शिष्ट लोग मानते हैं। वैसे ही अन्तःकरण में रहने वाली पाप की वासना और उनसे होने वाले दुःख की विशेष निवृत्ति भी मनु आदि धर्मशास्त्र में कहे वर्णाश्रम धर्म का बहाना और कामना को छोड़कर सेवन करने से हो सकती है। इसी सर्वोत्तम मनुष्य की दशा को विचारशील मुक्ति कहते हैं। सो इसी धर्मशास्त्र के बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदोक्त कर्म दो प्रकार का है- संसार में वा जन्मान्तर में जिसके फल की इच्छा हो जिससे देवाधिकार प्राप्त हो सके वह प्रवृत्त कर्म और द्वितीय केवल निष्काम ज्ञानपूर्वक ईश्वर की उपासनादि कर्म निवृत्त कहाता है, इसी का फल मुक्ति है।’१ ऐसा होने पर जो लोग मुक्ति को कर्म का फल नहीं मानते उनका उत्तर आ जाता है। वेद का अभ्यास करने में यत्न करता रहे इस कथन से उस संन्यासदशा के उपयोगी कर्मों के करने का विधान और अतिवृद्ध होने वा गृहादि के न होने से अग्निहोत्रादि कर्मों का त्याग सूचित किया है। यहां कर्मफलों का विवेचन संक्षेप से किया गया और विद्वानों को थोड़ा कथन ही बहुत होता है।
जो विषय हमने उपोद्घात के आरम्भ में उद्देशमात्र गिनाये हैं उन सबका क्रमानुसार संक्षेप से विचार किया। अब उपोद्घात समाप्त किया जाता है। बारहवें अध्याय में प्रक्षिप्त श्लोक कोई नहीं दीखता। अब आगे प्रतिज्ञा के अनुसार मानव धर्मशास्त्र के