मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-

भार्गवीया नारदीया च बार्हस्पत्याडिग्रस्यपि।

स्वायंभुवस्य शास्त्रस्य चतस्त्रः संहिता मताः।।

अर्थात् मनुस्मृति की चार संहितायें प्रसिद्ध थीं। एक भृगु- संहिता, दूसरी नारद्संहिता, तीसरी बृहस्पतिसंहिता और चौथी आंगिरस-संहिता। पता नहीं कि यह कौनसी संहितायें हैं क्या यही भृगुसंहिता हमारी वर्तमान मनुस्मृति है जैसा कि प्रसिद्ध है? इसके विरूद्ध काणे महोदय ने चार सन्देहोत्पादक बातें कहीं हैंः-

(1) विश्वरूप् ने या याज्ञवल्क्य 2। 73,74,83,85 पर भाष्य करते हुए वर्तमान मनुस्मृति के 8। 68,70,71,105,106,340, श्लोक उद्धृत किये हैं, वे स्वयंभू-कृत बनाये गये है।

(2) परन्तु याज्ञवल्क्य 1। 187,252 के भाष्य में जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत हैं वे  आजलक मनु में पायें नहीं जाते।

(3) अपसर्क ने जो श्लोक भृगु के नाम से उद्घृत किये हैं उनका मनुस्मृति में पता तक नहीं ।

(4) इन्हीं अपरार्क ने भृगु के नाम से यह श्लोक दिया है जिसमें मनु का नाम हैंः-

येषु पापेषु दिव्यानि प्रतिशुद्धानि यत्नतः।

करयेत्सज्जनैस्तानि नाभिशस्तं त्यजेन् मनुः।।

ठसमे पाया जाता है कि संभव है, कोई और भृगुसंहिता भी रही हो जिसमें से विश्वरूप् और अपरार्क ने अपने श्लोक लिये हों।

चहे इस मनुस्मृति को भृगुसंहिता कहा जाय या न, मनु स्मृति के प्राचिनत्व तथा गौरव में इससे कुछ भेद नहीं आता। हम माने लेते हैं कि यह भृगुसंहिता है। यद्यपि केवल मनुसंहिता कहना अधिक उपयुक्त हैं।

अब प्रश्न यह है, कि मानव-धर्म-सूत्र क्या चीज थे और कया उन्हीं का श्लोकरूप् वर्तमान मनुस्मृति है ? इसके लिये दो कल्पनाये की गई हैंः-

(1) पहले तो मान लिया गया है कि पहले ग्रन्थ सूत्र रूप् में हुए। फिर श्लोक रूप में।

(2) दूसरे मनुस्मृति जिस अनुष्ट्भ् छनद में है वह नया छन्द है।

हम तो इन दोनों युत्कियों में विशेष सार नहीं देखते । यह मान लेना कि सूत्र-युग से पहले श्लोक नहीं थे अत्यन्त कठिन है। योगेन्द्रचन्द्र घोष ने अपने Principles of Hindu Low Vol. I मे लिखा है:-

The old Dharm Shastras were composed in a form which was capable of being sung and were committed to memory……………………..in the form of Gathas, for we find such gathas mentioned in the Manu Sanhita and quoted in other Dharm Shastras.

अर्थात पुराना धर्मशात्र इस प्रकार बनाया गया था कि गाया जा सके और रटा जा सके।अर्थात् गाथा के रूप  में क्योंकि मनुसंहिता तथा अन्य धर्मशात्रों में इन गाथाओं का उल्लेख है।

हमको यह बात अधिक ठीक जॅंचती है। जिन विचारों को दर्शनकार तथा व्याकरणकारों ने सूत्रों में लिखा वह अवश्य ही सूत्र से पूर्व दूसरे रूप  में रहें होगे। सूत्र-युग वैदिक साहित्य का सबसे प्रथम युग नहीं है और न यह कहा जा सकता है कि सूत्र- युग एक निश्चित युग है जिसमें सिवाय सूत्र के कुछ नही लिखा गया या अन्य युगों में सूत्र नही लिख गये। आय्य जाति जैसी प्राचीन जाति के जीवन में अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। साहित्य की अनेक शैलियाॅ मरती और पुनर्जीवित होती रही हैं। आधुनिक यूरोपियन विद्वान् पहले तो कुछ ऐतिहासिक कल्पनायें बना लेते हैं और उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर वैदिक ग्रन्थों के पौर्वापय पर विचार करते हैं। इससे अनेक भ्रम उत्पन्न हों जाते है। जिन मानव-धर्मसूत्रों को मनुस्मृति का आधार माना जाता हैं । उनकी प्रति भी तो हमारे समक्ष नहीं है जिनसे मिलान करके हम किसी निश्चय पर पहुॅच सकें । वाशिष्ठ-धर्मसुत्रों में उसके कुछ उद्धरण मिलते हैं जो गद्य-पद्य दोनो में मिले जुले है। मानव-गृहय-सूत्र इस समय भी प्राप्त है। इसका एक हिन्दी अनुवाद पं0 भीमसेन शर्मा ने इटावा से निकाला था। उसमें और मनुस्मृति में तो कोई समानता है नहीं। इसलिये उससे तो कुछ सहायता मिल नहीं सकती।

रही अनुष्टुभ् छन्द की बात । यह भी एक अटकल है।  अनुष्टुभ् छन्द की  उत्पत्ति वाल्मीकि से मानी जाती है। कहा जाता है कि सब से पहले वाल्मीकि ने यह श्लोक बनाया था ।

मा निषाद प्रतिष्ठाः त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत् क्रौन्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

इसलिये उनको आदि कवि कहते है, परन्तु इसके लिये कोई अकाट्य प्रमाण नहीं है। अनुष्टुप् छन्द वेदों में अनेक स्थान पर आया है और यजुर्वेद अध्याय 40 का तीसरा मंत्र तो लौकिक अनुष्ट्भ् से कुछ भी भिन्न नहीं है। मैक्समूलर की कल्पना है कि लौकिक अनूष्टुभ् छन्द में बडे ग्रन्थ लिखने की प्रथा बहुत पीछे से चली। रामायण, महाभारत, मनुस्मृति तथा अन्य कई स्मृतियाॅ इसी छन्द में लिखी गई हैं। परन्तु इससे मनुस्मृति के युग का पता लगाना अटकल ही है। मैक्समूलर की कल्पना भी कल्पना-मात्र है। वह मान लेते है कि रामायण-महाभारत

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता।

तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।

श्लोके पष्ठं गुरू ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम्।

द्विचतुः पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।

तथा मनुस्मृति आदि सबएक युग के है कालिदास ने रघुवंश का आरम्भ अनुष्टुभ् से किया है। संभव है, आजकल कोई कवि अनुष्टुप् में कि मनुस्मृति रामायण, महाभारत, या रघुवंश से पीछे की चीज है। सम्भव है कि जो निषाद सम्बन्धी लोकोक्ति वाल्मीकि के विषय में प्रचलित है उसी के आधार पर मैक्समूलर ने यह कल्पना करली हो और अन्य संस्कृतज्ञों ने उसका अनुकरण किया हो।

अब हम ऐतिहासिक भक्तमेलों को विद्वान् अनुसन्धान- कर्ताओं के लिये छोडते हैं। यहाॅ हम केवल अपनी धारणा प्रकट करते है। वह यह है कि:-

(1) मनु ने उपदेश पहले किसी गाथा रूप  में थे।

(2) फिर मानव-धर्म-सूत्रों के रूप में आये।

(3) फिर वर्तमान मनुस्मृति के रूप  में परिवर्तन हो गये ।

(4) यह मनुस्मृति भी बहुत ही प्राचीन है।

(5) पीछे से इस मनुस्मृति में बहुत से क्षेपक बढा दिये गये।

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