इन्हीं दिनों एक लोकप्रिय हिन्दी दैनिक में एक विचारक का इस विषय पर लेख प्रकाशित हुआ। विनीत केवल शीर्षक ही पढ़ सका। लेख कहीं रखकर खो बैठा। उस लेखक के लेख के शीर्षक का तो भाव यह था कि सृष्टि में मनुष्य को ही कर्म करने या निर्णय लेने की स्वतन्त्रता है। देखा जाये तो यह कथन एक आंशिक सत्य है। वर्षों पूर्व लेखक ने मनोविज्ञान की पुस्तकों में पढ़ा था, आप घोड़े को जल के पास तो ले जा सकते हैं, परन्तु उसे धक्के से पानी नहीं पिला सकते। प्यास होगी तो वह अपनी इच्छा से जल पियेगा। इससे सिद्ध हुआ कि जीव मात्र को निर्णय लेने की-कर्म करने की स्वतन्त्रता है।
एक समय था, जब आर्यसमाजी विद्वानों को इस विषय पर शास्त्रार्थ करने पड़ते थे। मत-पंथों के ग्रन्थों में तो सब कुछ ईश्वरेच्छा अथवा अल्लाह की मर्जी का सिद्धान्त मिलता है। रही सही कमी शैतान द्वारा पाप करवाने की मान्यता से पूरी हो जाती है।
महर्षि दयानन्द ने धार्मिक जगत् में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता का सिद्धान्त रखकर इस विषय में कई शास्त्रार्थ किये। इससे पूरे विश्व में हलचल मच गई। उसी युग में ‘विकासवाद’ का भौतिक दर्शन पूरे विश्व में चर्चित हुआ। इस मत नेाी परोक्ष रूप में जीव की कर्म करने की स्वतन्त्रता को स्वीकार किया। प्राकृतिक निर्वाचन का नियम विकासवाद का एक आधारभूत सिद्धान्त है। चुनाव करना कर्त्ता की स्वतन्त्रता को मानना है। जड़ प्रकृति तो विचार शून्य, इच्छा शून्य व क्रिया शून्य है। चेतन सत्ता ही चुनाव कर सकती है।
विश्व प्रसिद्ध लेखक श्री अनवर शेख ने यजदान (भगवान्) व शैतान के संवाद को काव्य में अत्युत्तम शैली में प्रस्तुत करते हुए महर्षि दयानन्द के एतद्विषयक दर्शन का डंका बजाया है। परोपकारी में इससे पहले भी लिखा जा चुका है कि पूरे विश्व की न्यायपालिका महर्षि के घोष ‘स्वतन्त्र कर्त्ता’ को स्वीकार कर रही है। अब शैतान व भगवान् को पाप (शर) व पुण्य (खैर) के लिये उत्तरदायी नहीं माना जाता। वैदिक दर्शन के विश्वव्यापी प्रभाव को समझकर आर्य समाज वेद प्रचार में पूरे दल बल से लगेगा तो यश मिलेगा। यह कार्य स्कूलों के बस का नहीं है। स्कूलों-कॅालेजों में वैदिक दर्शन को कौन जानता-मानता है?