श्रीमद्भगवद्गाीता का भारतवर्ष के पौराणिक विद्वानों में बहुत मान्य है। भारत के प्रसिद्ध विद्वानों एवं सम्प्रदाय आचार्यो (द्वैत अद्वैत षुद्धाद्वैत विषिष्टाद्वैत ) ने अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार अनेक प्रकार के भाष्य गीता पर किये हैं। सभी पौराणिक टीकाकार जो गीता के समर्थक रहे हैं उनको गीता के कृष्ण ईष्वर के अवतार के रूप में मान रहे हैं। अतः उन्हें गीता के अन्दर कुछ भी प्रक्षिप्त या अस्वाभाविक दृष्टिगोचर नही हुआ। क्योंकि गीता उनके लिए वस्तुतः ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ (श्रीमान भगवान विष्णु यानी उनके अवतार कृष्ण के द्वारा गाई गयी – कही गई ही थी ) इस विषय में एक कथा भी प्रचलित है कि महाभारत का युद्ध आरम्भ होने से पहले अर्जुन अपने बन्धु-बान्धव के मोह मे फंसकर युद्ध से विमुख हो गया था। उसे समझाने के लिए ही कृष्ण ने जो उपदेष दिया वही गीता के रूप में प्रसिद्ध हुआ है। इसी आधार पर गीता को वेदादि षास्त्रों से अधिक मान्यता दी जाती है।
गीता के महत्त्व विषयक निम्न ष्लोक प्रसिद्ध भी हैः-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै षास्त्र विस्तरै।
या स्वयं पदमानाभस्य मुखपदमाह विनिःसृता।
अर्थ- गीता की ठीक से चर्चा करनी चाहिए, अन्य षास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन। गीता स्वयं विष्णु (कृष्ण)के मुख से निकली है।
इस ष्लोक का पद्मनाभ षब्द गीता को वेदो से उत्तम बताने का प्रयत्न करता है। विष्णु के नाभि से कमल निकला कमल से ब्रम्हा उत्पन्न हुए और ब्रम्हा के मुख से वेदो का जन्म हुआ। इस प्रकार वेदों का ब्रम्हा से परम्परा सम्बन्ध है जबकि गीता स्वयं उन्हीं के मुख से उच्चारित है। इस बात को इसी रूप मे मान लिया जाये तो गीता का रचना काल द्वापर सिद्ध होता है। आधुनिक विद्वान की भाषा मे कहा जाये तो गीता का रचना आज से पांच हजार वर्ष पहले हुई ।परन्तु यदि बुद्धि का थोड़ा सा प्रयोग करते हुए ध्यानपूर्वक महाभारत का अध्ययन किया जाये तो कोई भी इस निष्कर्ष मे पहुचे विना नही रहेगा कि गीता का न तो श्रीकृष्ण से कोई संबंध है, न ही व्यास मुनि महाभारत से , बल्कि यह सर्वथा काल्पनिक है- इसके कई कारण है।
गीता और श्री कृष्ण
(अ) ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाये तो किसी भी समय पद्यबद्ध बातचीत का चलन इतिहास मे सिद्ध नही होता। अतः गीता स्वयं पद्मनाभ विष्णु के मुख से निकली यह तो किसी प्रकार कहा ही नही जा सकता। हां यह हो सकता है कि किसी अन्य ने कृष्णार्जुन संवाद ही गीता का वर्तमान रूप दिया हो।
(आ) यदि यह भी मान लिया जाये कि गीतोक्त कृष्णार्जुन संवाद पद्यबद्ध न होकर गद्य मे ही हुआ था, बाद मे किसी अन्य ने गद्य मे व्यक्त भावों को पद्यबद्ध रूप दे दिया तो यह भी नही माना जा सकता क्योंकि युद्धभूमि मे इतना समय कहां था कि 700ष्लोको का वार्तालाप चलता रहता जिसमे कि कम से कम चार घण्टे यानी कि लगभग सवा प्रहर से कम का समय नही लग सकता था।
(इ) गीता का कथानक प्रारम्भ होता है महाभारत युद्ध के पूर्व से। अब यदि युद्ध के पहले दिन की घटनाओं पर ध्यान दे तो मालुम होता है कि गीता के इतने लम्बे और उबाऊ उपदेष के लिए समय बिल्कुल नही था क्योंकि दोनो सेनाओं ने संध्या हवन करके व्यूह रचना की। कौरव सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। अर्जुन ने उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकरषान्त किया। फिर अर्जुन व्यतमोह और गीता का लम्बा उपदेष चला । अर्जुन के तैयार हो जाने के बाद युधिष्ठिर युद्ध की अनुमति लेने के लिए पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य तथा षल्य नरेष के पास गये। बाद मे दोनो सेनाओ ने दो प्रहर तक युद्ध किया।
यहां ध्यान रखने योग्य तथ यह है कि महाभारत का युद्ध अगहन-पूष मे हुआ था जबकि दिन बहुत ही छोटा होता है- लगभग सवा तीन प्रहर का । इसमे से युद्ध के दो प्रहर निकाल दिए जाये तो सवा प्रहर ही बचता है। जो संध्या हवन जैसे आवष्यक कर्म करने, अपनी अपनी सेना के व्युह रचना करने , कौरवो की व्यूह रचना देखने युधिष्ठिर के घबरा जाने, अर्जुन द्वारा उन्हें भांति भांति के आष्वासन देकर उन्हें समझाने व षान्त करने पितामह भीष्म व अन्य आचार्य जनों के पास युद्ध के लिए अनुमति लेने हेतु जाने वहां से लौटकर आने आदि कर्मों के बाद षेष समय तो गीता जैसे लम्बे उपदेष के लिउ कतई पर्याप्त नहीं।
गीता और महर्षि व्यास
परन्तु निम्न तर्क और प्रमाण महर्षि व्यास को भी गीता का रचयिता नही मानने देते ।
(अ) गीता को गहराई से देखने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि गीता महर्षि व्यास की रचना नही है। क्योंकि जिस महर्षि व्यास के महाभारत का गीता नवनीत बतीई जाती है वह एैतिहासिक महाकाव्य है। जिसने कौरव पाण्डवों और उनके पूर्वजों, बन्धु-बान्धवों, इष्ट मित्रों, सम्बन्धियों आदि सभी के जीवन मरण यष अपयष, उत्थान पतन, कुषल अकुषल अच्छे बुरे सभी कामों का विसद वर्णन है, परन्तु गीता के 18 अध्यायों में प्रथम अध्याय के कुछ ष्लोकों को छोडकर सेष सम्पूर्ण गीता ऐतिहासिक घटनाक्रम से रहित दार्षनिक उहापोह से भरी पड़ी है जैसे आत्मा की अमरता, ज्ञानयोग, कर्म संन्यासयोग, योनियों की परिभाषा, यज्ञों का वर्णन, सकाम-निष्काम कर्मों का विवेचन, ध्यान योग प्रकार,योगभ्रष्ट लोगों की गति, देवता उपासना, देवी व आसुरी सम्प्रदाय वालों की विवेचन ,षुक्ल व कृष्ण मार्ग, जगत की उतपत्ति का वर्णन, सकाम निष्काम, उपासना का विष्लेपण, निष्काम कर्म की प्रषंसा, विष्वरूप दर्षन, साकार उपासना की प्रषंसा, प्रकृती पुरुष की व्याख्या, जीवात्मा की विवेचना, संसार वृक्ष का कथन, सत्त्व रज तम का विवेचन, श्री कृष्ण ही परमेष्वर है, वह ओमवाची हैं, यज्ञों से भी केवल वही प्राप्तव्य हैं, वेदों में भी उन्हीं की प्रषंसा है, वर्ण धर्मो का कथन, योग्याभ्यास करने का प्रकार, ब्रम्हाज्ञानी को अक्षय सुख की प्राप्ती, मुक्त जीवों का भिन्न भिन्न लोको से लौटना केवल कृष्ण लोक से न लौटना, कर्मफल त्याग की प्रषंसा, चार प्रकार के भक्तों का वर्णन, अन्य अन्य देवो की उपासना की निन्दा, क्षेत्र क्षेत्रिज्ञ के स्वरूप का कथन परमात्मा की एकता निरुपण, परमेष्वर का सगुण निर्गुण स्वरूप कथन, आत्मा को अकर्ता और गुणहीन जानने से भगवत् प्राप्ती आदि पचासों विषयों का उपदेष श्रीकृष्ण अर्जुन के वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका कि इतिहासिकता से दूर का भी संबंध नहीं है।
जहां तक दार्षनिकता का प्रष्न है भरतीय वैदिक परम्परा में 6 दर्षन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। सांख्य, योग, वैषेसिक, पूर्वमीमांसा एवं उत्तरमीमांसा (जिसे ब्रह्मसूत्र या वेदांन्त दर्षन भी कहते है) इस वेदांत दर्षन के रचयिता भी महर्षि व्यास ही हैं। इसके साथ साथ योग दर्षन के भाष्यकार भी महर्षि व्यास ही हैं इतनी उच्च कोठि का विद्वान ऋषि ऋषि ही नही महर्षि गीता जैसी निम्न स्तर की पुस्तक की रचना करे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति मानने को तैयार न होगा। गीता के अधिकांष दार्षनिक विचार वेद विरोधी है। जबकि वेदांत दर्षन सर्वथा वेदानुकूल है।
वेदों मं जिस परमेष्वर की व्याख्या की गई है। गीताकार उसके विपरीत भी श्रीकृअण को ईष्वर माना है। जीवात्मा भी विवेचना भी वेद विरुद्ध है, ईष्वरावतार की कल्पना भी गीता की सर्वथा अवैदिक तर्क एवं बुद्धि के विरुद्ध है, देवतावाद एवं स्वर्ग नर्क की मान्यता एवं मोक्ष के सिद्धान्त पर भी गीता का पक्ष वेद विरुद्ध है। वेदों के स्वरूप पर भी गीताकार का पक्ष प्रत्यक्ष के विरुद्ध है। गीताकार वेदों को ईष्वर एवं अध्यात्म विषय से रहित केवल भोतिक जगत की व्याख्या करने वाला स्वीकार करते हैं। गीता सब धर्म अधर्म के बखेड़ो को त्यागकर केवल श्रीकृष्ण जी की षरण मे जाने मात्र से पाप नाष व मोक्ष दिलाने की बात कहती है जो सर्वथा मिथ्या है। गीता को पढ़ने या सुनने मात्र से पाप नाष होना व सदगति गारण्टी देना गीता की मिथ्या प्रलोभन मात्र है जैसे की रामायण, भागवत, हनुमान चालीसा व गंगा आदि के महात्म्य लेखको ने अपने अपने ग्रन्थों के प्रचार के लिए लिखे हैं। ।
इस प्रकार गीता दर्षनकार व्यास की रचना न होकर किसी पौराणिक कालीन संस्कृति कवि की रचना प्रतीत होती है। जिसमें उस युग के सभी अंध विष्वास प्रविष्ट हैं। जैसे अवतारवाद, जातीवाद, साकारोपासना, बहुदेवतावाद, भाग्यवाद, आदि आदि। यहां तक कि गीता के कृष्ण अपने आप को जुआ बनाने मे भी नही लजाते।
(इ) इतिहास को ध्यान में रखकर विचार करें तो महर्षि व्यास महाभारतकालीन महापुरुष हैं जिसे आज लगभग 5000 से कुछ अधिक समय हो चुका है। जबकि गीता का रचनाकाल आठवी षताब्दी से पहले का नही ठहरता। गीता की प्राप्त टिकाओं में सबसे प्राचीन टीका श्री षंकराचार्य जी की है। श्री षंकराचार्य जी का काल भी विद्वानों द्वारा आठवी षताब्दी ही मान्य है। गीता की प्राप्त प्रतियों में भी कोई प्रति आठवीं षताब्दी से पूर्व प्राप्त नही होती इस प्रकार से गीता को महर्षि व्यास की रचना बताना यह सरासर उनके साथ अन्यान हां यह पौराणिक काल की रचना तो हो सकती है जैसा कि उपर दर्षाया जा चुका है और सह भी सम्भव हो सकता है कि इस प्रचारित करने की दृष्टि से उसके लेखक ने महर्षि व्यास के नाम का सहारा लिया हो जिससे कि खोटा सिक्का चलन में आ जाये
(ई) यदि दुर्जनतोष न्याय से मान भी लिया जाये कि गीता महर्षि व्यास की ही रचना है।तो प्रष्न उपस्थित होता कि आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व के जिन बौद्ध विद्वानों ने नाम ले लेकर ब्राम्हण धर्म के ग्रन्थों का खण्डन किया है उनमे से किसी मे भी गीता का नाम नही लिया इससे ज्ञात होता है। कि उस समय या तो गीता थी नही और यदी थी तो उसे कोई मान्यता प्राप्त नही थी ।
केवल बौद्ध साहित्य ही नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचतंत्र जिसमें कि सभी प्रसिद्ध एवं प्रचलित अच्छी अच्छी पुस्तकों के ष्लोक उद्धूत किये गये हैं।
उसमें भी गीता का एक भी ष्लोक नही है। आजकल जो पंचतंत्र प्रचलित है उसे पांचवी षताब्दी में संग्रहित किया गया है।
इससे सिद्ध होता है कि गीता कोई प्राचीन रचना न होकर आर्वाचीन रचना है। तथा महर्षि व्यास से इसका कोई संबंध नही है
गीता और महाभारत
अब हम यह देखने का प्रयास करेगे कि गीता महाभरत का भी अंग है या नही । आगे कुछ भी लिखने से पूर्व में अपने पाठको से निवेदन करना चाहूगां कि अब तक के तर्क और प्रमाणों के लिए तो महाराज श्रीकृष्ण और महर्षि व्यास को सक्षात् उपस्थित करना मेरे बष की बात न थी लेकिन अब बात महाभारत की है जो कि बाजार मे उपलब्ध होता है। गीता का सबसे बड़ा्र प्रचारक गीता प्रेस गोरखपुर है जिस गीता को महाभारत का नवनीत बताया जाता है वह महाभारत भी 6 खंड़ो में यही से प्रकाषित होता है। इसका तृतीय खण्ड हाथ में लेकर देखने का कष्ट करें कि इसमे दिये भीष्म पर्व को इस प्रतिज्ञा के साथ ‘ सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने मे सदा उद्यत रहेगे’ तो स्वयं पता लग जायेगा कि गीता की सही स्थिति क्या है।
अ. महाभारत के भीष्मवर्प के अध्याय 25 से लेकर अध्याय 42 तक वाला भाग गीता कहलाता है। 23 वे अध्याय दुर्गा स्त्रोत है। 24वे में संजय धृतराष्ट संवाद है।43 वे अध्याय के प्रथम 6 ष्लोको में गीता का महात्म्य है। अब यदि इन सबको निकालकर 22 वें अध्याय के साथ 43वे अध्याय के सातवें ष्लोक का पढ़ा जाये तो कथानक में कोई अन्तर नही आता । न कथानक का सूत्र टूटा हुआ लगता हैः- देखिए (भीष्मपर्व अ. 22 ष्लोक 14 से 16 तक ) उस समय सेना के मध्य में खढे हुए निद्राविजय राजकुमार दुर्जयवीर अर्जुन से कृष्ण ने कहा
ये जो अपनी सेना के मध्य में स्थित रोष से तप रहे हैं तथा हमारी सेना कि ओर सिंह की भांति देख रहे हैं जिन्होने 300 अष्वमेघ यज्ञ किये है। ये कौरव सेना महानुभाव भीष्म को इस प्रकार ढके हुए हैं जिस ्रपकार बादल सूर्य को ढक लेते हैं। हे नरवीर अर्जुन ! तुम इन सेनाओं को मारकर भीष्म के साथ युद्ध की अभिलाषा करो। (भीष्मपर्व अध्याय 43ष्लोक 6-7)
अर्जुन को धनुष बाण धारण किये देखकर पाण्डव महारथियों सैनिको तथा उनके अनुगामी सैनिको ने सिंहनाद किया, सभी वीरों ने प्रसन्नतापूर्वक षंख वजाये ।
यहां विचारणीय तथ्य यह है कि क्या किसी ऐतिहासिक लेखक की रचना में से एैसा होना संभव है कि उसके 20 अध्याय हटाने पर भी कथानक पर कोई प्रभाव न पड़े। मैं समझता हूं कि डा.सा.भी. ऐसा कोई उदाहरण न कर पायेगे जनसाधारण की तो बात ही क्या है। इसका सीधा अर्थ है कि गीता की रचना न तो श्रीकृष्ण ने की, न महर्षि व्यास ने बल्कि किसी अन्य ने इसे रचकर बाद में महाभारत घुसेड़ दिया है।
(आ) महाभारत के भीष्म पर्व मे गीता के कुल ष्लोक संख्या संबंधी निम्न ष्लोक प्राप्त होता है। :-
षट्षतानि सविंषानि ष्लोकानि प्राह केषवः
अजर्ुूनः सप्त पंचाषत सप्तषष्टिस्तु संजयः
धृतराष्टःष्लोकमेकं गीतायाः मानमुच्यते।
जिसके अनुसार 620ष्लोक कृष्ण ने कहे 57 अर्जृन ने कहे 67 संजय ने कहे और 1 धृतराष्ट ने कहा इस प्रकार गीता के ष्लोक की संख्या 745 बैठती है। जबकि वर्तमान मे प्राप्त गीता मे 700ष्लोक ही पाये जाते हैं जिनका विभाजन इस प्रकार है। कृष्ण ने 574 अर्जुन ने 86 संजय ने 39 और धृतराष्ट ने 1 ही कहा है।
इससे स्पष्ट है कि आजकल प्रचलित गीता महर्षि व्यास कृत नही है न महाभारत का अंग है क्योंकि इसमें पात्रो के बोलने के मात्रा मे भी परिवर्तन दिखाई देता है। यवगीता वास्तव मे इतना महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होता तो इसकी मौलिकता सुरक्षित रखने के लिए अर्थात घटा बढी रोकने के लिए कढ़े कदम उठाये जाते। जैसे की वेदो की सुरक्षा के लिए स्वर ,पद , क्रम, घन, जटा, माला, आदि अनेक प्रकार के पाठ चलाये गये थे ।
(इ) जिस प्रकार गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन व्यामोह का वर्णन है उसी प्रकार महाभारत में अर्जुन से बहुत पहले युधिष्ठिर व्यामोह का वर्णन है जिसमे अर्जुन ने युधिष्ठिर को अनेक प्रकार से समझाया, तब कहीं वह षांत हुए। यदि गीता के रचयिता महर्षि व्यास ही होते या गीता महाभारत का ही अंग होती तो वह अर्जुन को समझाते समय कृष्ण द्वारा यह बात अवष्य कहलाते कि ” भले मानुष ! अभी तो तू अपने भाई को समझा रहा था अब स्वयं बहक गया। पर गीता मे इसका कोई संकेत नही है। इससे भी संकेत मिलता है कि गीता महाभारत का अंग नही है। न दोनों काले एक है।
(ई) अर्जुन ने युद्ध न करने के जो कारण बताए उनमे से एक यह भी है कि :7
हे मधुसूदन! मैं युद्ध मे भीष्म और द्रोण को बाणो से कैसे मारूंगा ये दोनो तो मेरे पूज्य हैं।
यदि गीता महाभारतकार महर्षि व्यास की ही रतचा होती तो वह पहले के उस युद्ध को न भूल जाते जहां विराट की गायें छिनने के प्रसंग मे अर्जुन ने इन्हीं पूज्योुं को मार मारकर बेहाल कर दिया था परन्तु गीता मे अर्जुन को समझाने के लिए ऐसा कोई संकेत इधर नही किया गया है। वस्तुतः अर्जुन को तों स्वयं ही यह बात करनी नही चाहिए था कि क्या उस दिन ये लोग पूज्य नही थे। पर दोनो ही इतनी बड़ी घटना भूले रहे जो सिद्ध करता है कि गीता महाभारत का अंष नही अन्यथा इसे पूर्व मे हुए युद्ध का ध्यान अवष्य रहा होता।
(उ) गीता के 11 वे अध्याय मे इस बात का वर्णन आता है कि जब श्रीकृष्ण ही बात नही मानी तो उन्होने अपना विराट रूप् दिखाया और बाद में श्रीकृष्ण ने अहसान जतातु हुए कहा कि ” हे अर्जुन! मैने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है। मेरा यह आदि अन्त सीमा से रहित तेजोन्मय रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है।
अब विचारनीय बात यह है कि यहि गीता और महाभारत एक ही व्यक्ति की रचनाये होती तो वह उस प्रसंग को कैसे भूल जाता जब श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप् दिखाकर दुर्योधन को अभिभूत किया थौ इसका सीधा अर्थ यह है कि गीता महाभारत का अंग नही है। यदि गीता श्रीकृष्ण का उपरोक्त कथन कैसे संगत हो सकता है।
(ऊ) महाभारत मे छोटी बड़ी दर्जनों गीताय भरी पड़ी है।जिन्हे किसी न किसी बहाने घुसेड़ा गया है हम यहां केवल अनुगीता कीी बात करेंगे जो इस बात का प्रइल प्रमाण है कि महाभारत मे इस प्रकार की गीताओं को घुसेरने के लिए किस प्रकार से बयानवाजी से काम किया गया है। और ये गीताये महाभारत का अंग नही है।
महाभारत के अष्वमेघ पर्व मे (अ. 16ष्लोक 57 ) मे श्रीकृष्ण जब द्वारका चलने लगे तो उनसे अर्जुन ने कहा ”हे देवतीनन्दन महाबाहु ! महाभारत युद्ध के समय मुझे आपके महात्मय और ईष्वरीय रूप का ज्ञान हुआ था। आपने मित्रतावष जो भी ज्ञान मुझे उस समय दिया वह मै भूल गया उसको दोबारा सुनना चाहता हूं आपषीर्घ ही द्वारका जाने वाले हैं एक बार गीता का वह उपदेष फिर से सुनाते जाइये।
यह सुनकर पहले तो श्रीकृष्ण अर्जुन पर बहुत बिगड़े फिर असमर्थता जताते हुए बोले तो उसे तो मै भी भूल गया, वह ज्ञान तो तुम्हे योगयुक्त होकर तुम्हे सुनाया था। अब उसे फिर से दोहराना संभव नही लो तुम्हारा काम चलाने के लिए दूसरा इतिहास बताता हूं।
इसके बाद जो उपदेष हुआ उसका नाम अनुगीता है। वक्ता और श्रोता दोनो एक नम्बर के भुलक्कड़ निकले।
इस प्रकरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि अनुगीता के महाभारत मे मिलाने के लिए अर्जुन और श्रीकृष्ण के भुलक्कड़पन का बहाना करने वाला विद्वान यह भूल ही गया कि जब अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनो ही गीता को भूल गये थे तो बाद में इसका प्रचार कैसे हुआ क्योकि अर्जुन और श्रीकृष्ण की बात के समय कोई भी उपस्थित नही था, संजय की दिव्य दृष्टी भी वहां सहायता नही कर सकती थी। क्योकि दृष्टि से सुनने का काम नही लिया जा सकता । महाभारत के अनुसार दिव्यदृष्टि वाली बात गलत है क्योंकि उसमे संजय द्वारा धृतराष्ट को प्रत्यक्ष देखी बात का उल्लेख है।(देखिए भीष्म पर्व अ. 13ष्लोक 1-2) इससे सिद्ध होता है कि महाभारत का गीता से कोई संबंध है।
एक ओर भी बात विचारणीय है – और वह यह की महाभारत और गीता की पुष्पिकाओं मे भी अन्तर है। यदि गीता महाभारत की ही भाग होती तो इसकी पुष्पिकाये भी महाभारत की भांति होनी चाहिए। परन्तु ऐसा नही है महाभारत के अध्यायों के अन्त मे जो पुष्पिकाये दी गई हैं वे गीता के अध्यायों के अन्तवाली पुष्पिकाओ से भिन्न है। महाभारत में नाम केवल पर्वों के है – अध्यायों के नही जबकि गीता के प्रत्येक अध्याय का नाम अलग अलग दिया गया है। गीता के पुष्पिकाओं मे उसे स्पष्ट रूप् से उपनिषद या ब्रम्हाविद्या स्वीकार किया गया हैं इस प्रकार भी गीता महाभारत का अंग नही ठहरती एक नमूना देखिए :-
ठति श्रीमद्भगवदगीतासूपनिषत्सु ब्रम्हाविद्या योगषास्त्रं कृष्णार्जुन संवादे कर्मसंन्यासयोगानम् पंचमोध्यायः
अन्त में एक प्रमुख बात विचारणीय यह है कि कोई भी लेखक या कवि पुस्तक की समाप्ति पर ही प्रायः उसका महात्म्य लिखता है कि कोई भी पढ़ने या सुनने मा़त्र से अमुख अमुख लाभ है ऐसा नही है कि किसी एक भाग या प्रसंग की समाप्ति पर उसका महात्म्य अलग से लिखता फिरे । गीता के अन्त में उसका महात्म्य लिखा हुआ है जो उसको एक स्वतंत्र पुस्तक या रचना सिद्ध करता है और यह भी सिद्ध करता है कि यह महाभारत के लेखक महर्षि व्यास की रचना नही क्योंकि कोई भी लेखक या कवि यह नही भूल जाता कि यह मेरी दूसरी पुस्तक है या इसी का भाग है। गीता के 18 अध्यायों के बाद इसका महात्म्य इस प्रकार बताया गया हैः-
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैःषास्त्र संग्रहैः
या स्वयं पद्मनामस्य मुखपदमाद विनिसृतः
सर्वषास्त्रमयीगीता सर्वषास्त्रमयी हरिः
सर्वतीर्थमयी गंगा च गायत्राी गोविन्दोती हृदिस्थिते।।
चतुर्मकार संयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ।
महाभारत सर्वस्यं गीताया मथितस्य च।
सारमुदधृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम्।।
इस प्रकार प्रमाण तर्क और ऐतिहासिक विवेचन के पष्चात यह अधिक विष्वास से कहा जा सकता है कि गीता का न तो कृष्ण से कोई संबंध है न महर्षि व्यास से न महाभारत से । इस रचना को बहुत बाद में महाभारत के चोखटे मे फिर कर दिया है
लेखकः श्री बी.के. श्रीवास्तव
सम्भागीय लेखाधिकारी (से.नि.)
रायपुर भारत