अब चौथे अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। २७,२८ सत्ताईस और अट्ठाईस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। और छब्बीसवां श्लोक पच्चीसवें श्लोक में दी आज्ञा की पूर्त्ति करने वाला है। और विधिवाक्य का शेषविधि करके ही माना जाता है। इससे छब्बीसवां श्लोक भी विधिवाक्य ही है। उस छब्बीसवें पद्य में पशुशब्द करके गौ आदि से होने वाले मुख्य घृतादि से होम करे, यह विधान किया गया है। यदि कोई कहे कि पशु के मांस से होम करने की कल्पना निकालेंगे तो पशु से उत्पन्न हुआ वस्तु वा उसका विकार अर्थ लेना दोनों पक्ष में तुल्य है। वहां पशु से हुआ मांस और यहां पशु के ही शरीर से निकला घृतादि है। तो इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है कि जो पशु से होने वाला मांस ही पशुशब्द से लिया जावे और दुग्ध घृतादि न लिया जावे। और पशु के प्राण निकालनेरूप हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और हिंसा करने में पाप अवश्य है। क्योंकि यदि गौ आदि पशु बना रहे तो उससे होने वाले घृतादि से फिर भी यज्ञ कर सकते हैं और यदि मारकर उसके मांस का होम कर दिया जायेगा तो पशु उसी समय समाप्त हो जायेगा फिर आगे होने वाली दुग्धादि के लाभ की भी हानि ही होगी। और मांस के जलाने से दुर्गन्धि अवश्य निकलेगी और घृतादि के होम से सुगन्धि होगी। इस कारण छब्बीसवें श्लोक में पशु शब्द से उसका घृतादि पदार्थ लेना चाहिये। यदि कोई ऐसा लाक्षणिक अर्थ न करे तो ‘पशु से होम करना चाहिये’१ यह वाक्य ही नहीं बनेगा। क्योंकि जीते हुए समूचे पशु का होम अग्नि में कोई नहीं कर सकता। और जैसे दुग्ध-घृतादि का नाम पशु नहीं वैसे मांस का नाम भी पशु नहीं है। इससे पशु शब्द करके दुग्ध-घृतादि ही लेना चाहिये और मांसादि लेने में पूर्वोक्त अनेक दोष हैं।
सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें श्लोक में अर्थवाद है, सो वह अर्थवाद शास्त्र की मर्यादा के अनुकूल ठीक नहीं है। जब वेद में स्पष्ट लिखा है कि ‘यज्ञ करने वाले पुरुष के पशुओं की रक्षा कर’२ अर्थात् यज्ञ करने वालों के पशुओं को कभी न मारना चाहिये, किन्तु उन पशुओं की ठीक-ठीक रक्षा से घृतादि निकाल कर यज्ञादि का प्रचार बढ़ाना चाहिये, जो यज्ञ करने वालों के गौ आदि पशु नष्ट हो जायेंगे तो दूध-घृत आदि के न होने से यज्ञ की ही हानि होगी। ऐसा स्पष्ट प्रमाण मिलने पर जो मांसादि से होम करना चाहते हैं वे वेदविरोधी हैं। और इसी के अनुसार उक्त दोनों २७,२८ श्लोक भी वेदविरुद्ध हैं। इससे विचारशीलों को नहीं मानने चाहियें। अट्ठाईसवें श्लोक पर रामचन्द्र का भाष्य उपलब्ध नहीं है इस कारण से भी इसके प्रक्षिप्त होने का अनुमान किया जाता है। अर्थात् जिस पुस्तक के आधार पर रामचन्द्र ने भाष्य रचा उस पुस्तक में यह श्लोक नहीं था।
आगे छियासीवें श्लोक से लेकर एकानवें पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। ये भी छह श्लोक असम्भव अर्थवादरूप हैं। यद्यपि पिच्यासीवें श्लोक में जो अर्थवाद है उसमें भी किसी प्रकार अत्युक्ति प्रतीत होती है तथापि उसका भयानक होना अनुमान कर सकते हैं। इन छह श्लोकों में शास्त्रविरुद्ध चलने वाले नास्तिक राजा वा क्षत्रिय भिन्न नीच वर्णसटरादि राजा से विद्वान् को दान न लेना चाहिये। उस दान का लेना पिच्यासीवें श्लोक के कहे अनुसार दूषित है, यही कहना ठीक है। और क्षत्रिय भिन्न वा अधर्मी से दान लेने वाला क्रम से इक्कीस नरकों को प्राप्त हो, यह सर्वथा असम्भव है। ग्यारहवें अध्याय के प्रायश्चित्त प्रसग् में चार महापातक और कई उपपातक भी गिनाये गये हैं, उनमें ब्रह्महत्यादि महापातकों का ही नरक प्राप्ति फल कहा है। जैसे- ‘महापातकी लोग अनेक दुःसह दुःखों से युक्त नरकरूप स्थानों को अनेकों वर्ष तक पाकर संसारी कुत्ते आदि की योनि को प्राप्त होते हैं।’१ और सब पापों में महापातक ही बड़े पाप हैं, मुख्यकर उन्हीं का दुःखरूप नरकप्राप्ति फल होना चाहिये। यदि दुष्ट दान लेने का नरक फल हो तो महापातकों का उससे बहुत बड़ा दुःख फल क्या होगा ? अर्थात् कुछ नहीं। जब राजा छोटे-छोटे अपराधों पर प्राणदण्ड [फांसी] वा जन्मभर बन्धन [उम्रकैद] कर देवे तो बड़े अपराधों के लिये और बड़े दण्ड कहां से आवें ? इसी कारण निन्दित दान लेने का नरकप्राप्ति फल कहना असग्त है। और निन्दित प्रतिग्रह उपपातकों में भी नहीं गिनाया गया, किन्तु ‘निन्दित लोगों से धनादि का दान लेना, निषिद्ध वस्तुओं का बेचना, शूद्र की सेवा करना और मिथ्या बोलना ये अपात्रीकरण अर्थात् मनुष्य को नीच बनाने वाले काम हैं।’२ इस का दण्ड, फल वा प्रायश्चित्त भी वहां स्वयमेव दिखाया है कि- ‘ऐसे कामों का प्रायश्चित्त वा दण्डरूप दुःख फल भोगकर चान्द्रायण व्रत करे।३ इस प्रकार जब ग्यारहवें अध्याय में निन्दितों से दान लेने का फल चान्द्रायण प्रायश्चित्त कहा फिर यहां चौथे अध्याय में इसी का फल इक्कीस नरकों की प्राप्ति कहना परस्पर विरुद्ध है। ग्यारहवें अध्याय का कथन ठीक प्रतीत होता है और यहां चौथे अध्याय के उक्त छह श्लोक प्रक्षिप्त हैं, यह निस्सन्देह विचार है। नरक- सम्बन्धी विचार कर्मफल विचार प्रकरण में होगा।
आगे एक सौ दश, एक सौ ग्यारह (११०,१११) और एक सौ चौदह (११४) ये तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। एकोद्दिष्ट श्राद्ध का निमन्त्रण मानकर वेदपाठ करना क्यों निषिद्ध है ? क्या उदरम्भर बनकर पेट भरने के ही विचार में लगा रहे ? और पढ़ना-लिखना छोड़ देवे ? वेद पढ़ने वाले विद्यार्थियों का जब कोई निमन्त्रण करता है, तब भोजन बनाने में जो समय लगता वह भी पढ़ने के लिये मिल जायेगा, इस कारण उस समय तो पहले से भी अधिक पढ़ना हो सकता है। परन्तु श्राद्ध भोजन किये पश्चात् थोड़े काल तक दो-चार घड़ी नहीं पढ़ना क्योंकि शरीर के भारी होने से तथा अजीर्ण के भय से कि अजीर्ण न हो जावे। सो ऐसा निषेध पूर्व श्लोक से ही कर दिया है। और सूतकशब्द का सन्तानोत्पत्ति कालरूप योगरूढार्थ स्वीकार किया जाता है, तो राजा के पुत्रोत्सव में प्रसन्नता के साथ वेद का पाठ अवश्य करना चाहिये। और प्रायः लोग ऐसा करते भी हैं कि मन की प्रसन्नता विशेष होने से राजा का उत्सव मानें। और यदि सूतकशब्द से राजादि के मरने पश्चात् शोक काल लेवो तो उस समय वेद नहीं पढ़ना चाहिये, क्योंकि प्रजा के मनुष्यों को भी राजा का शोक माननीय है। परन्तु इसके लिये यहां अनध्यायप्रसग् में कुछ कहना आवश्यक नहीं क्योंकि पञ्चमाध्याय की सूतकशुद्धि में इसका विचार होगा। राहु एक ग्रह वा लोक है उसके घर में स्त्री-पुत्रादि वा उसी का मरण वा जन्म दोनों ही असम्भव हैं, ऐसा मानने से राहु का सूतक ही नहीं हो सकता, किन्तु सूर्यचन्द्रमा के ऊपर लोकान्तर की छायारूप ग्रहण, पढ़ने का विघ्नकारी नहीं हो सकता, ऐसा मानकर ग्रहण समय में पढ़ने का निषेध करना व्यर्थ है। तथा अगला अर्थवाद भी व्यर्थ है। प्रतिदिन खाये हुए वा एकोद्दिष्ट श्राद्ध में खाये हुए अन्न का गन्ध और लेप शरीर में अवश्य रहेगा किन्तु दो-एक दिन वा मास-दोमास में नष्ट नहीं हो सकता जैसे गगदि नदियों का जल समुद्र में मिल जाने से उसका अभाव नहीं होता, वैसे खाया-पिया आहाररस रुधिरादि धातुओं के रूप से शरीर में व्याप्त हो जायेगा। फिर क्या एकानुदिष्ट श्राद्ध में खाने वाले को जन्मभर के लिये वेद का पढ़ना छोड़ देना चाहिये ? अर्थात् यह सम्भव नहीं, इसलिये यह प्रक्षिप्त है। और अमावास्या में पढ़ाने से गुरु को पठन क्रिया मारती है इत्यादि अर्थवाद भी ठीक वा युक्त नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से ही यह विरुद्ध है। अमावास्या में पढ़ाने से अध्यापक प्रत्यक्ष में मरे नहीं दीखते। यदि कोई कहे कि फिर अमावास्यादि में पठन का निषेध क्यों किया ? तो इसका उत्तर हम पूर्व अनध्याय विचार में लिख चुके हैं।
आगे एक सौ छब्बीसवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। क्योंकि पशु वा मेंढक आदि के बीच से निकल जाने में पढ़ने-पढ़ाने वालों की कुछ हानि कोई विद्वान् नहीं मान सकता। ऐसे वाक्यों से धर्मशास्त्र की तुच्छता भी आती है। वेद का पढ़ना ऐसा बड़ा काम है कि उसके चलने में तुच्छ वा क्षुद्र मेंढक आदि जीव विघ्नकारी हों, यह असम्भव है। और विघ्नकारक हेतु जिस कार्य में विघ्न करता है उससे प्रबल होता है तभी विघ्न हो सकता वा कर सकता है कि जैसे कुपथ्य अधिक बढ़ जावे तो रोग दबा लेता और ओषधि का बल बढ़ने से रोग दब जाता है।
आगे एक सौ पैंसठवां और एक सौ छियासठवां श्लोक प्रक्षिप्त हैं। यहां पहले श्लोक में घुर्राने का सौ वर्ष तक अन्धकाररूप नरक में गिरना फल कहा है। और ग्यारहवें अध्याय में घुर्राने का दण्ड वा प्रायश्चित्त एक कृच्छ्रव्रत कहा है, इससे ये दोनों बातें विरुद्ध हैं, किन्तु दोनों सत्य नहीं हो सकते। घुर्रानेरूप पाप का फल वा दण्ड एक कृच्छ्रव्रत करना भी अधिक है, किन्तु सौ वर्ष नरक में गिरना रूप फल तो सर्वथा असम्भव ही है। कोई भी विद्वान् ऐसे छोटे अपराध के ऐसे बड़े फल को न्याययुक्त कभी न मानेगा। इस चौथे अध्याय में ब्राह्मण को ताड़ना देने का फल इक्कीस जन्मों तक पापयोनियों में गिरना लिखा है। तथा ग्यारहवें अध्याय में दण्डवत् प्रणाम करके प्रसन्न करे यह प्रायश्चित्त कहा है, सो इसमें भी परस्पर विरोध है। यहां भी पूर्व के तुल्य अति छोटे अपराध का ऐसा बड़ा दुःख फल मिलना असम्भव और अन्याय है। एक सौ अड़सठवां श्लोक भी प्रक्षिप्त है। ग्यारहवें अध्याय में लकड़ी आदि के मारने से ब्राह्मण के शरीर में रुधिर निकल आनेरूप अपराध पर कृच्छ्र और अतिकृच्छ्ररूप प्रायश्चित्त लिखे हैं, इतना ही इस अपराध का दण्ड मिलना उचित वा न्याययुक्त है। और यहां चौथे अध्याय में दिखाया पाप फल असम्भव और न्यायविरुद्ध है। इस प्रकार यहां तीन श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं।
आगे एक सौ इक्यासीवें (१८१) श्लोक के उत्तरार्द्ध से लेकर एक सौ चौरासीवें के पूर्वार्द्ध पर्यन्त तीन श्लोक प्रक्षिप्त हैं। ऋत्विग्, पुरोहित, गुरु, आचार्य आदि मान्यपुरुषों के साथ विवाद नहीं करना चाहिये, यह सब शिष्ट लोग मानते हैं। इसमें अर्थवादरूप कारण वाद की कुछ भी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि विवाद होने से उन सज्जनों की मानहानि होना दोष है, यह कारण भी स्पष्ट है। तथा सब विधियों में अर्थवाद का होना भी आवश्यक नहीं। तथा पूर्व कहा अर्थवाद असम्भव है कि जो ब्रह्मलोक का स्वामी आचार्य हो। जिस ब्रह्म का वह लोक है, वही उसका स्वामी होगा। यदि आचार्य स्वामी हो तो ब्रह्म का लोक नहीं कह सकते। जिसका वह वस्तु होता है, वही उसका स्वामी भी माना जाता है, यह सबके अनुकूल सिद्ध है। ऐसे ही पिता आदि के स्वामी बनाने के अर्थवाद को भी गड़बड़ जानो। इसलिये ये तीन श्लोक बुद्धिमानों को प्रक्षिप्त मानने योग्य हैं।
आगे एक सौ नवासीवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इससे पूर्व अठासीवें श्लोक में मूर्ख को दान देने के निषेध का अर्थवाद कहा है वह सम्भव भी है और यह कथन प्रत्यक्ष से ही विरुद्ध है कि अविद्वान् लोग दान लेने से मर जावें वा उनके नेत्रादि फूट जावें। आजकल अधिकांश मूर्ख लोग ही दान लेते और उन्हीं को दिया जाता है। परन्तु उनका मरण आदि होते नहीं दीख पड़ता, किन्तु पराया धन बिना परिश्रम का खा-खाकर सहस्रों लोग अच्छे मोटे हो रहे हैं। घोड़े का दान लेने वाले के नेत्र फूट जावें, यह भी कहीं नहीं दीख पड़ता।
आगे दो सौ सत्रहवें से लेकर दो सौ इक्कीसवें पर्यन्त (२१७-२२१) चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इनमें भी असम्भव वा परस्पर विरुद्ध अर्थवाद ही कहा गया है, किन्तु ये विधिवाक्य नहीं हैं। अधर्मी, अन्यायी वा क्षत्रिय से भिन्न राजा का अन्न विद्वानों को नहीं खाना चाहिये, इस पूर्व किये निषेध की अर्थापत्ति यह है कि धर्मात्मा राजाओं का अन्न अवश्य खाना चाहिये और ऐसा ही पूर्वज ऋषि लोगों ने भी किया है और इतिहासादि ग्रन्थों से भी सिद्ध है। और अधर्मी अन्यायी राजा का धान्य विद्वान् को लेना पूर्व ही निषेध कर चुके हैं। तथा अन्य शूद्रादि जिन-जिन का अन्न निषिद्ध है, उनका भी अधर्मी हों तो अन्न त्याज्य है। धर्मात्माओं का तो सदा ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। असम्भव घृणित तुच्छता दिखाने वाला और प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध यह अर्थवाद है, ऐसा मानकर प्रक्षिप्त कोटि में उक्त श्लोक छोड़ देने चाहियें। तथा जिन-जिन के अन्न का लेना निषिद्ध है, उसका अर्थवाद सामान्य कर दो सौ बाईसवें (२२२) श्लोक में दिखा दिया है, वही ठीक है, किन्तु यह ठीक नहीं है।
आगे दो सौ अड़तालीसवां और दो सौ उञ्चासवां ये दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। पहले में अर्थवाद मिथ्या और असम्भव है। इस विषय में विशेष अर्थवाद का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। जिसमें किसी प्रकार का दोष वा विरोध न हो तथा बिना मांगे स्वयं प्राप्त हो जावे ऐसी भिक्षा वा दान का सामान्य कर ग्रहण करना चाहिये, यह विधान किया है। इसी कारण बिना मांगे प्राप्त हुई खट्वा आदि के त्याग न करने का कथन द्वितीय पद्य में पुनरुक्त है। मछली और मांस तो कैसा ही हो न लेना चाहिये, क्योंकि उसका मूल हिंसा वा हत्या करना अधर्म है। यदि खट्वादि का विशेष कर विधान मानो तो सामान्य कथन विरुद्ध है, क्योंकि यहां उत्सर्गापवाद की रीति नहीं घटित होती। सो परस्पर विरुद्ध होने से “शय्याम्०” यह श्लोक प्रक्षिप्त है। इस उक्त प्रकार से इस चौथे अध्याय में के दो सौ साठ (२६०) श्लोकों में से पच्चीस (२५) श्लोक प्रक्षिप्त हैं और शेष दो सौ पैंतीस (२३५) श्लोक शुद्ध हैं। बुद्धिमान् लोगों को विचार पूर्वक अनुसन्धान करना चाहिये।