अब सामान्य धर्म शब्द पर कुछ विचार करना आवश्यक इसलिये समझा गया कि हमको धर्मशास्त्र की मीमांसा करना है तो प्रथम जान लेना चाहिए कि धर्म किस वस्तु का नाम है ? वस्तु शब्द से यहाँ वाच्यमात्र का विचार है किन्तु द्रव्य का पर्यायवाचक वस्तु शब्द नहीं लेना है। प्रयोजन यह है कि धर्मशब्द का शाब्दिक वा लाक्षणिक अर्थ क्या है ? अर्थात् व्याकरण के नियमानुसार मनुष्य जिसको धारण करें, वह धर्म है। ऐसा होने पर वेदादि शास्त्रों में जिसका निषेध किया गया, ऐसे चोरी आदि दुष्कर्म को भी कोई धारण करता वा कर सकता है तो क्या उसको भी धर्म कहना ठीक हो सकता है ? ऐसा विरुद्ध निश्चय वा सन्देह हो सकने से इसका यह समाधान कहा जाता है- धृञ् धारणे1 इस धातु से कर्म कारक वा भाव में उणादि मन् प्रत्यय2 हुआ है। सामान्य वा विशेष मनुष्य अथवा चराचर सब वस्तुमात्र जिसको धारण करते, जिसके आधार होते अथवा मनुष्य वा प्राणी-अप्राणियों से जो धारण किया जाता अर्थात् उनको धारण करने पड़ता है, वह धर्म कहाता है। यह धर्म का शाब्दिक अर्थ है। कदाचित् किसी प्रकार अन्य कारकों में भी मन् प्रत्यय हो सके, परन्तु प्रधानता से भाव और कर्म का ही अर्थ मिल सकता है। भाव अर्थ में प्रत्यय करने से धृति- धैर्य, क्षमा आदि धारणरूप हैं। इस कारण इनका भी नाम धर्म हो सकेगा।
और कर्म का अर्थ आगे स्वयमेव लिखा गया है। सब शास्त्रों में जातिशब्द, गुणशब्द और क्रियाशब्द ये तीन ही प्रकार के शब्द माने गये हैं। नैयायिक लोग इन्हीं को द्रव्य, गुण, कर्म शब्दों से व्यवहार में लाते हैं। इसमें धर्मशब्द द्रव्य, गुण और कर्म तीनों का नाम जिस किसी प्रकार व्यवहार में आया दीख पड़ता है। परन्तु प्रधानता से धर्मशब्द गुण और कर्म का वाचक है, अधिक कर इसी दो प्रकार का व्यवहार आता है। इसी कारण व्याकरण अष्टाध्यायी के अर्द्धर्चादिगण3 में धर्मशब्द का पाठ करने से विद्वान् लोग पुंस्, नपुंसक दोनों लिग् होना मानते हैं। और जहाँ कर्म का वाचक धर्मशब्द है, वहीं प्रायः इसका नपुंसकपन प्रतीत होता है। जैसे यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में ‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्॰’ यहाँ धर्मशब्द कर्म का पर्याय वाचक है। नपुंसकलिग् में धर्मशब्द का प्रयोग बहुत न्यून आता है, किन्तु प्रायः पुल्ँिलग् में ही लोक-वेद में प्रयोग किया वा लिखा जाता है, वह गुणवाचक वा स्वभाववाचक धर्मशब्द है। सब प्रकार का धर्मशब्द सुखहेतु गुण, कर्म वा द्रव्य का वाचक अभीष्ट है, किन्तु दुःखहेतु गुणादि का वाचक नहीं। जहाँ दुःख का हेतु धर्मशब्द आता है, वहाँ उसमें नञ् अव्यय संयुक्त करके अधर्म कहते हैं। वहाँ सुख से विरुद्ध दुःख का हेतु गुण, स्वभाव, द्रव्य वा कर्म अधर्मशब्द का वाच्यार्थ यथासम्भव जानना चाहिये। और जहाँ पर्युदासार्थ वाचक नञ् अव्यय होता है, वहाँ धर्म से भिन्न धर्म के तुल्य वस्तु का वाचक अधर्मशब्द जानना चाहिये। उसी को विचारशील लोग धर्माभास भी कहते हैं कि जो ऊपर से धर्म के तुल्य प्रतीत हो, परन्तु वास्तव में धर्म न हो।
संसार में मनुष्य से लेकर चींटी पर्यन्त सब प्राणी सुख की ही इच्छा रखते हैं। कोई कदापि दुःख को नहीं चाहता। इसी कारण शास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध दुष्ट कर्म का धारण कोई नहीं करता, क्योंकि स्वभाव से ही इसका विरोध है। इसलिये धर्म वही है जिसका धारण, स्वीकार वा स्वभाव से मिलाप हो जावे। जैसे प्रकृति के अनुकूल सुख देने वाले वस्तु का भोजन किया जाय तो वह उदर में जाकर ठहरता वा धारण किया जाता और वहां के धातु उस आहार को अपने तुल्य बनाने का यत्न करते हैं, अर्थात् ठहराते हैं। जैसे मित्र को मित्र प्राप्त होकर प्रसन्नता का कारण होता है, वैसे ही अपने प्रिय सुखप्रद को पाकर धर्मात्मा सुखी वा आनन्दित होता है। यही धारण का लक्षण है। और जैसे भोजनादि के साथ वा अकस्मात् प्रमादादि से पेट में मक्खी आदि विरुद्ध वस्तु चला जाये तो नहीं धारण होता- नहीं ठहरता वा पचता किन्तु वमन का कारण हो जाता है, क्योंकि पक्वाशय उसका धारण नहीं करता। यदि उसका धारण हो और वमनादिक न हो वा चित्त न बिगड़े, ग्लानि न हो अर्थात् कदाचिद् विरुद्ध खाया मक्खी आदि वमन का हेतु न हो और किसी प्रकार पच भी जावे, तो दुःख के हेतु रोगादि विकारों को अवश्य उत्पन्न करता है। कदाचित् अज्ञान से खाया मक्खी आदि किसी विशेष रोग का कारण न हो तो भी ग्लानि अवश्य उत्पन्न होती है। प्रयोजन यह है कि अनुकूल हितकारी भोजन के तुल्य मक्खी आदि पेट में कदापि न ठहरेगा। तथा जैसे मनुष्य अपने अनुकूल भार को अपनी इच्छा से उठाता है, वह उसको छोड़ता नहीं भले ही उसमें क्लेश हो और जिस भार का उठाना भार नहीं जान पड़ता वही धारण करना है और जहां भार वा दुःख जान पड़े और किसी की लज्जा, शटा, भय वा लोभादि के कारण उठाना पड़े, वह धारण न होने से धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। और अन्तरात्मा सदा सत्य को धारण करता है, किन्तु बनावटी मिथ्या को वाणी द्वारा कहते हुए संकुचित होता वा लज्जा, शटा करता है, इस कारण जहां ऐसा होता है, वह धर्म नहीं और सत्य ही धर्म है। इसी प्रकार निषिद्ध चोरी, व्याभिचारादि दुष्ट कर्म को कोई पुरुष धारण नहीं करता, किन्तु सुख के हेतु अनुकूल को प्रसन्नता से धारण करता है। निषिद्ध कर्म का सेवन काम, क्रोधाादि के वशीभूत होकर किया जाता है, किन्तु विरुद्ध दुष्ट कर्म बुद्धि से कोई नहीं सेवता अर्थात् चोरी आदि पाप का करने वाला भी उसको पुण्य नहीं मान सकता। चोर निर्भय होकर चोरी आदि कदापि नहीं करता। यदि चोर किसी प्रकार परोपकार में लगे धर्मात्मा के तुल्य चोरी करने में लज्जा-शटा-भयों को छोड़कर प्रवृत्त हो तो विरुद्ध कर्म का भी धारण हो सकने से धर्म कहना प्राप्त हो, सो तो कदापि सम्भव नहीं। तिस से धर्म है धारण किया वा कराया जाता है और जो धारण किया जाता है वही धर्म है इससे व्याकरणानुकूल अर्थ करना ही ठीक है।
इससे यह सिद्ध हुआ कि अनुकूल हितकारी का ही धारण होता है किन्तु प्रतिकूल का नहीं। इस कारण हितकारी गुण-कर्मों को ही धर्म कहना वा मानना सिद्धान्त है। क्योंकि अपने-अपने हितकारी को ही सब लोग स्वीकार करते हैं, किन्तु अपने विरोधी दुःखदायी को कोई नहीं चाहता। और स्वभाव का नाम भी धर्म है। सो अपनी-अपनी सत्ता को सब चराचर वस्तु धारण करते ही हैं। इस सत्ता को ही भाव भी बोलते हैं कि जिस भाव अर्थ के बोधक व्याकरण में त्व-तल् प्रत्यय१ नियत किये जाते हैं। जैसे ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व वा मनुष्यत्व, पशुत्व, पक्षित्व, एकता इत्यादि शब्दों में ब्राह्मणादि के मुख्य धर्म में त्व आदि प्रत्यय हुआ है। इस अंश में महाभाष्यकार पतञ्जलि ऋषि ने लिखा है कि- ‘यस्य गुणस्य भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने, तस्मिन् गुणे वक्तव्ये प्रत्ययेन भवितव्यम्।’2 अर्थात् ब्राह्मणपदवाच्य व्यक्ति वा जाति में जिस प्रधान गुण की विद्यमानता होने से ब्राह्मणादि पद का प्रयोग वा व्यवहार किया जाता है, उस गुण वा शक्ति का नाम धर्म समझना चाहिये। जिन-जिन शास्त्रों में अर्थात् छह दर्शनों में धर्म-धर्मी के प्रसग् का वर्णन आता है, उन-उन में शक्ति-शक्तिमान् वा गुण-गुणी का व्याख्यान समझा जाता है। और योगशास्त्र के विभूति पाद में भी लिखा है कि- शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी।।14।। भाष्यम्- योग्यतावच्छिन्ना धर्मिणः शक्तिरेव धर्मः।। इत्यादि।। इस योगसूत्र का अभिप्राय यह है कि भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान धर्म वा गुणों के साथ रहने वाला धर्मी वा शक्तिमान् वा गुणी कहाता है। धर्म तीन प्रकार के कालभेद से माने जाते हैं। जो अपनी तरुणावस्था को व्यतीत कर शान्त, तिरोभूत, अप्रकट वा नष्ट हो गया वह भूतधर्म शान्त कहाता है। तथा विरोधी के तिरोहित (दब) जाने वा नष्ट हो जाने से और अपने उत्तेजक हेतुओं से उत्तेजित हुआ धर्म वा गुण वर्त्तमान उदित धर्म कहाता है। तथा भविष्य काल में प्रकट होने वाला गुण अव्यपदेश्य है क्योंकि उसका अनुभव किये बिना वर्णन नहीं किया जा सकता कि इस वर्त्तमान अवस्था के लौटने पर ऐसा होगा। इसीलिये उसका नाम अव्यपदेश्य माना गया है। प्रत्येक वस्तु में इसी तीन प्रकार की दशा के साथ गुण वा धर्म ठहरता है। अपनी योग्यता के साथ अन्य गुण वा धर्मों से पृथक् हुई धर्मी पदार्थ की शक्ति का ही नाम धर्म है, यह व्यासभाष्य का तात्पर्य है। सब वस्तु में सब प्रकार की योग्यता नहीं रहती, इसलिये योग्यता ही सब धर्म वा शक्तियों की अवच्छेदक- भेदक मानी जाती है। और जिसका जिसके साथ मेल होना वा करना उपयोगी है, उसके साथ उसकी योग्यता समझी जाती है यही योग्यता शब्द का अर्थ है। ऊपर लिखे महाभाष्य और योगसूत्र का एक ही आशय धर्मशब्द पर है, जैसा कि पूर्व से लिखा गया।
पूर्व जो तीन काल के भेद से गुण, धर्म वा शक्ति के तीन भेद कहे गये हैं, उनको लौकिक वा शास्त्रसम्बधी व्यवहार में फैलाकर देखा जाय तो ठीक-ठीक ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे जो पहले से मित्र रहा वह शत्रु और जिसके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं रहा वह पुरुष वा स्त्री मित्र बन जाती है। यह धर्मों का परिणाम सदा होता रहता है। अर्थात् सब पदार्थ, सब देश, काल और अवस्थाओं में सबके सर्वथा अनुकूल वा सर्वथा प्रतिकूल नहीं रहते किन्तु जो किसी देश, काल वा वस्तु, अवस्था के सम्बन्ध से अनुकूल हो गया, वही देशादि के लौट-फेर से प्रतिकूल हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल हुआ वस्तु कभी अनुकूल भी हो जाता है, यह सब धर्मों का परिणाम है। अभिप्राय यह है कि जिसका परिणाम लौट-पौट होता रहता है, उस गुण का नाम धर्म है। इस पर एक शटा यह रह सकती है कि यदि लौटता रहता है तो उसका नाम स्वभाव क्यों रखा गया, अर्थात् स्वभाव उसी को मानते हैं जिसमें भेद न पड़े। और सनातन धर्म क्या माना जावेगा कि जब धर्मों का सदा परिणाम होता रहता है तो सनातन धर्म कोई क्यों ठहर सकता है ? यद्यपि ये दोनों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर कितना ही लिखा जाय पार मिलना दुस्तर है तथापि अतिसूक्ष्मता से इनका समाधान लिखा जाता है-
स्वभाव शब्द का अर्थ यह है कि अपना भाव अर्थात् अपना कारण। अपने कारण से जो गुण कार्य में यथार्थ रूप से चला आता है उसको स्वाभाविक कहते हैं। जैसे दूध का श्वेत गुण दही, मट्ठा आदि सब में यथावत् बना रहता है वा जैसे कपास की श्वेतता रूई, सूत, वस्त्र आदि सब उत्तर-उत्तर कार्य में चली आती है। तो यहां श्वेतता गुण स्वाभाविक माना जाता है, परन्तु दूध, दही, मठा आदि में कोई काला वा अन्य ऐसा रंग डाल सकते हैं कि जिससे उसकी श्वेतता मिट जाय वा जैसे कपड़े को नील आदि से रंग देना, इससे स्वाभाविक को भी कोई लोग अनित्य मानते हैं, परन्तु यह पक्ष इसलिये ठीक नहीं कि वह स्वाभाविक रंग नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोभूत (दब) हो जाता है। इसका दृष्टान्त धोबी है कि यदि शिल्पक्रिया प्रवीण धोबी हो तो बनावटी- ऊपर से चढाये पक्के रंग को भी छुड़ा कर ह्लि र उसी श्वेत स्वाभाविक गुण को निकाल देता है। इससे अनुमान होता है कि स्वाभाविक गुण नष्ट नहीं होता, किन्तु तिरोहित (दब) हो जाता है और धोबी के दृष्टान्त को धर्मसम्बन्ध में भी ठीक लगा सकते हैं कि यदि अच्छा धर्मात्मा उपदेशक गुरु मिल जावे जो सब प्रकार से शुद्ध और प्रवीण हो वह काम- क्रोधादि से लगे दुर्गुणों को छुड़ाकर चेतन आत्मा के स्वाभाविक शुद्ध भावों को प्रकाशित कर देता है। और कदाचित् शिल्पकुशल धोबी न मिले कि जो वस्त्र पर हुए नीलादि रंग को छुड़ा सके तो भी स्वाभाविक को अनित्य न मानना चाहिए। क्योंकि सूर्य का तेज वा प्रकाश स्वाभाविक है, उसके आवरक अन्तरिक्षस्थ मेघ वा धूलि को हम नहीं हटा सकते, तो भी वह अनित्य नहीं। इसी प्रकार यहां भी जानो कि मनुष्यादि में कारण के सम्बन्ध से जो गुण आता है, वही स्वाभाविक है, और उसके कभी तिरोभूत हो जाने वा अन्तर्धान हो जाने वा किसी अज्ञानी के अनित्य मान लेने पर भी वह अनित्य नहीं होता। पर नित्य-अनित्य का विचार लोक में सापेक्ष चलता है। किसी की अपेक्षा कोई नित्य माना जाता है, जिसके स्वरूप में कभी भेद न पड़े किन्तु अनादि, अनन्त काल तक एकरस रहे, ऐसा तो एक परमेश्वर है। और नित्य सन्ध्या वा अग्निहोत्र करता है, ऐसा कहना सापेक्ष अर्थात् जो एक-दो दिन करके छोड़ दे, उसकी अपेक्षा यहां नित्य शब्द का प्रयोग है। किन्तु यह तो सभी जानते हैं कि अति बाल्यावस्था में काई भी सन्ध्याग्निहोत्रादि नहीं करता उत्पत्ति से पहले भी नहीं करता था मरने के पश्चात् भी न करेगा। बीच-बीच में भी कभी-कभी छोड़ने पड़ता है, तो वैसा नित्य अर्थ नहीं तो भी नित्य माना वा कहा जाता है। इसी प्रकार सापेक्ष नित्य वस्तुओं में एक साथ अनित्यता-नित्यता दोनों रहती हैं। परन्तु ठीक नित्य मानने में प्रवाह से किन्हीं को नित्य ठहरा सकते हैं। इसलिये स्वभाव का लौट जाना- तिरोभूत हो जाना मात्र है। और जिसका वस्तुतः लौट जाना होता है, वह स्वभाव नहीं है। किन्तु संयोगी गुण है।
अब रहा सनातन धर्म, सो उसमें भी यही विचार है। उसके तिरोहित हो जाने वा अन्य विरोधी के प्रबल हो जाने से उसका सनातनपन नहीं बिगड़ता। वह सदा कर्त्तव्य उपयोगी ह्ल ल दाता है, इसलिये सनातन कहाता है। यद्यपि अपवाद विषय में उत्सर्ग का प्रवेश नहीं होता१, तो भी वह बहुव्यापी होने से उत्सर्ग वा सामान्य ही कहाता है। जैसे भारतवर्ष का एक राजा हो वह दस-पांच ग्राम का सब अधिकार किसी को दे देवे, तो भारतवर्ष का राजा कहाना उसका बिगड़ नहीं सकता। इसी प्रकार आपत्काल में सनातन धर्म के किसी अंश का पूरा उपयोग न रहे तो उसका सनातन होना खण्डित नहीं हो सकता। इस अंश का विशेष विचार उत्तम-मध्यम धर्मों में किया जायगा।
यह सब लेख स्वभाव वा गुण को धर्म मानने पर लिखा गया यद्यपि संस्कृत में ऐसा विचार नहीं है तो भी भाषा में समझने वाले अधिक जानकर बढ़ाया गया।
अब प्रकृत यह है कि जब कहा जावे कि यह सज्जन मनुष्य धर्मात्मा है, वहां जिसके चेतनतायुक्त अन्तःकरण में दया कोमलता, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रियों का वश में करना आदि रूप से धर्म कर्त्तव्य वृत्ति के साथ अवस्थित हैं ऐसा अर्थ करना चाहिये। अथवा शास्त्रों में कहे शुभ कर्र्मों के अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाले पुण्यरूप संचित शुभ संस्कार जिसके मन में अवस्थित हैं, वह धर्मात्मा कहाता है। ‘श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानव॰’2 [श्रुति-स्मृति में कहा धर्म…..] ऐसे प्रसग् में श्रौत, स्मार्त्त कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं केवल सत्य का ही नाम धर्म है ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’3 इस मीमांसासूत्र के अनुसार वेदस्थ परमेश्वर की आज्ञा ही धर्म है अर्थात् वेद में जो विधिवाक्य हैं, वे साक्षात् धर्म के बोधक हैं।४ अर्थवाद और अनुवाद वाक्यों की विधिवाक्य के साथ एकवाक्यता होने से सार्थक होते हैं। अतः ये सहकारी कारण हैं। ‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’5 इस वैशेषिक सूत्र में विधि-आज्ञा रूप वेदोक्त धर्म का ही ग्रहण है। इस उक्त प्रकार से पूर्वमीमांसादि षट्शास्त्रों वा षड्दर्शनों में धर्म की शिक्षा वा उपदेश प्रत्यक्ष है। इस कारण उनको धर्मशास्त्र मानना वा कहना सार्थक हुआ।
कहीं लिखा है कि ‘विहितक्रियया साध्यो धर्मः’ अर्थात् विधान किये कर्म के सेवन से सिद्ध होने वाला धर्म है, इत्यादि स्थल में आत्मा भी धर्मशब्द का अर्थ हो सकता है। क्योंकि आत्मा भी विहितानुकूल कर्म करने से ही प्राप्त हो सकता है। मरने पर ‘धर्मस्तमनुगच्छति, धर्मं शनैः सञ्चिनुयात्’ अर्थात् धर्म ही उसके साथ जाता है, धर्म का धीरे-धीरे संचय करें, इत्यादि स्थलों में शुभ कर्मों के सेवन से उपार्जन किया वासनारूप में बंधा पुण्यरूप संचित शुभ कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं ‘ज्ञेयस्य ज्ञानं ध्येयस्य ध्यानम्’ अर्थात् ज्ञेय वस्तु का ज्ञान और ध्येय वस्तु का ध्यान करना भी धर्म ही कहाता है। यह उक्त सब धर्म दो प्रकार का है एक संसारी और द्वितीय परमार्थसम्बन्धी। जगत् में सुखभोग के अर्थ जिसका सेवन किया जाता है ऐसा शुभ आचरणरूप वेदोक्त कर्म लौकिक धर्म है। और ह्ल लभोग की अपेक्षा छोड़कर उदासीन वृत्ति से सर्वशक्तिमान् सबके उपास्य ईश्वर की आज्ञा का पालनमात्र अपना कर्त्तव्य वा प्रयोजन मानकर सेवन किया ज्ञान, ध्यानादि परमार्थसम्बन्धी धर्म कहाता है। यह दोनों प्रकार का धर्म श्रौत, स्मार्त्त भेद से और दो प्रकार का होता है। अर्थात् लौकिक श्रौत, स्मार्त्त और वैदिक श्रौत, स्मार्त्त। यद्यपि सब शास्त्रों का धर्म ही मुख्य कर विषय है, क्योंकि जहां कहीं अधर्म को हटाने के उपाय कहे हैं, वह भी धर्म के प्रचार में उपयोगी होने से धर्म है। तथा जो कुछ कर्त्तव्य मानकर उपदेश किया गया वह सब धर्म है, क्योंकि जो सदा कर्त्तव्य वा ग्राह्य हो अर्थात् सुख का कारण हो वह धर्म और जो त्यागने योग्य दुःख का कारण निषिद्ध है उसका त्याग भी धर्म है। इस प्रकार वेद, उपवेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, छह वेदाग्, छह शास्त्र और स्मृति आदि सब सत् शास्त्रों में कर्त्तव्य का विधान और निषिद्ध का त्याग ही मुख्य कर दिखाया गया है। तो भी इस मानवधर्मशास्त्र का मुख्य कर यही विषय है। इससे सामान्य कर उक्त लक्षण वाला धर्म ही इस मानवधर्मशास्त्र में कहा गया है, यह सिद्ध हुआ। इस धर्म विषय का इतना लेख बहुत सूक्ष्म है, सो कुछ तो आगे शेष होगा और कुछ उपयागी समझ कर लिखा गया, वैसे इस महान् विषय का समाप्त होना दुस्तर था।