इस भूमण्डल पर प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। हर कोई साधु-संन्यासी, बड़े-बड़े महन्त पूर्ण दावे के साथ सुख प्राप्त करा देने की बात करते हैं। ये बात कितनी ठीक है? ये तो नहीं जानता परन्तु निश्चित रूप से कह सकता हूॅं कि यदि कोई व्यक्ति चाहे और प्रयास करने लग जाये, तो सुख का सोपान अलभ्य तो बिल्कुल नहीं है। प्रयत्न काल से ही सुख की वृष्टि प्रारम्भ हो जाती है।
सुख कैसे प्राप्त हो ? इस प्रश्न का समाधान वैदिक वाङ्मय से सहजतया प्राप्त होता है कि सुखस्य मूलं धर्मः अर्थात् सुख का मूल धर्म है। जी हाॅं, ये तो बहुत आश्चर्य का विषय है कि धर्म सुख का मूल कैसे हो सकता है? ये धर्म ही तो आज दुःख के कारण बने हुए हैं। जहाॅं देखो वहीं धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं। यहाॅं कोई हिन्दु धर्म को मानने वाला है तो कोई मुस्लिम, कोई सिख तो कोई ईसाइ आदि। ये जो परस्पर द्रोह करते रहते हैं। दुःख पहूॅंचाने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं। अगर मैं इन धर्मों को मानूॅंगा तो मैं भी इन के ही समान हो जाऊॅंगा तो ये धर्म सुख का साधन कैसे हो सकता है?
यह सर्वमान्य सत्य है कि आज के समाज में धर्म के नाम पर पाखण्ड़ पनप रहा है। धर्माधिकारी धर्म का यथार्थ स्वरूप न बताकर मतान्ध बना रहे हैं। एक दूसरे से लड़ना सिखा रहे है।ं चाहे कोई हिन्दू हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई, पारसी हो या बहाई, जैनी हो या बौध्द, कोई भी क्यों न हो, प्रत्येक एक-दूसरे को मारने-काटने को सदैव उद्यत रहते हैं।
हम अपनी सारी शक्ति लड़ने-झगड़ने में समाप्त कर देते हैं। हम अपने बारे में ही सोचते हैं। हम अपने से आगे किसी को देखना पसन्द नहीं करते। अगर कोई परिश्रम करके आगे निकल भी जाता है तो उसको पीछे करने के लिए परिश्रम नहीं करते। बल्कि दूसरे मनुष्य के पैर पकड़ कर नीचे खींच देते हैं।
धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, तोड़ता नहीं। जो एक-दूसरे के बीच में दरारें पैदा करता है, एक-दूसरे को तोडता है, झगड़े कराता है, वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म तो एकता का पाठ पढ़ाता है, वैर-विरोध का नहीं। धर्म तो आपस में भाई-चारे का पाठ सिखाता है, पे्रम का पाठ पढ़ाता है, सुख और शान्ति की सुगन्ध फैलाता है।
धर्म शब्द ‘धृ धारणपोषणयोः ’ इस धातु से औणादिक मन् प्रत्यय करने से सिध्द होता है। सुख प्राप्ति के लिए जिसको धारण किया जाये या जिसका सेवन किया जाये, उसे धर्म कहते हैं। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसको धारण किया जाये? वह क्या हैं? इसका उत्तर देते हुए मनुमहाराज कहते हैं कि धर्म के दश लक्षण हैं, जो इस प्रकार हैं-
धृतिक्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।
धृति: धृति अर्थात् धैर्य को धारण करना। बड़ी से बड़ी आपत्ति आने पर, अपने आप में धैर्य को बनाये रखना चाहिए।
क्षमा: क्षमा करने के सामथ्र्य को धारण करना। जैसे कोई जीव निर्बल है, उससे कोई गलती होने पर उसे माफ (क्षमा) कर देना ही क्षमा है।
दम: दमन करना अर्थात् रोकना। इन्द्रियाॅं अपने विषयों में बार-बार चली जाती है। आॅंख अच्छा रूप देखना चाहती है परन्तु विषय वस्तुओं में लिप्त हो जाती हैं। इनको रोकना ही दम है।
अस्तेय: चोरी न करना ही अस्तेय है। कोई भी तुच्छ से तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी की आज्ञा से हाथ न लगाना अस्तेय कहाता है।
शौच: शुचिता अर्थात् पवित्रता एवं स्वच्छतापूर्वक रहने को शौच कहते है। शुचि रहने से मनुष्य परम शान्ति का अनुभव करता है।
इन्द्रियनिग्रह: इन्द्रियनिग्रह का तात्पर्य यह है कि अपनी इन्द्रियों को अपने नियन्त्रण में रखना। हम कोई भी आकर्षक चीज देखते हैं तो उसे प्राप्त करने के लिए हम अपनी इन्द्रियों के अधीन हो जाते हैं। इसी आकर्षण से बचने का नाम ही इन्द्रियनिग्रह है।
धी: अच्छी मति (बुध्दि) को धी कहते हैं। हमारे शरीर का मुख्य भाग बुध्दि है। वह बुध्दि अच्छी हो, पापाचार से अयुक्त हो तो सम्पूर्ण कार्य अच्छे होते हैं। इसलिए गायत्री मन्त्र में परमपिता परमेश्वर से ‘‘धियो योः न प्रचोदयात्’’ की प्रार्थना करते है।
विद्या: विद्या अर्थात् सत्य ज्ञान को पाकर, मानव अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त होता है। विद्या के वास्तविक स्वरूप को दर्शाते हुए कहा गया है कि ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ विद्या वही जो अमृतत्व को प्राप्त कराये।
सत्य: वास्तविकता को सत्य कहते हैं। अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही मानना, कहना, जानना और उसके अनुरूप कार्य करना ही सत्य है। किसी ने कह दिया और उसे हम सत्य मान ले, तो यह न्यायोचित नहीं है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी लिखते है कि जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों से युक्त और पाॅंच प्रकार की परीक्षाओं की कसौटी पर तुला हुआ हो, वही सत्य है।
अक्रोध: ‘‘क्रोधो अमर्षा’’ अर्थात् सहन न करने को क्रोध कहते है। किसी ने कुछ अपशब्द कह दिये तो उसे सहन न करना ही क्रोध है। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जब हम क्रोध में वशी भूत होकर धर्माधर्म में अन्तर नहीं समझते तब अधर्मयुक्त कुकृत्यों को कर बैठतें है।
ऋषिवर देव दयानन्द जी महाराज धर्म के स्वरूप को दर्शाते हुए आर्योदेश्य रत्नमाला में लिखते हैं कि-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन पक्षपात रहित न्याय व सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए एक और मानने योग्य है, उसे धर्म कहते हैं।
न लिंगधर्मकारणम्-संसार में विभिन्न मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना रखे हैं। जैसे कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए है, कोई्र केश व दाढ़ी दोनों बढ़ाये हुए है, कोई पांच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूंछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है और कोई चन्दन का तिलक लगा रहा है, कोई माथे को अनेक रेखाओं से अंकित किये हुए है और हाथों पर भी चिह्न बनाये हुए है, किन्तु ये सभी धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते हैं। अत एव बाह्यचिह्नों को धर्म नहीं माना गया हैं।
धर्म को धारण करने से ही लौकिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। हमें जानना चाहिए कि सुख-दुःख क्या हैं? सुख और दुःख संस्कृत भाषा के शब्द हैं- ‘सु=शोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः’ अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा लगे उसे सुख कहते हैं। और दूर्=दुष्ठु=अशोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा न लगे उसे दुःख कहते हैं।
आत्मा भोक्ता है, उसके भोग का आधार शरीर है, भोग के साधन नेत्रादि इन्द्रियाँ है। इन्द्रियों के अर्थ ही भोक्तव्य हैं, बुध्दि ही भोग है, और फल तथा दुःख का स्वरूप समझाते हुए लिखा हैं-ससाधनं सुखदुःखोपभोगः फलम्। जन्म……सुखसाधनस्य दुःखानुषंगगात् विविधबधनायोगाद् दुःखम्।।
अर्थात् सुख-दुःख के साधनों का बुध्दिविषयत्वापन्न भोग ही फल है। सुख के साधनों का दुःख से सम्पर्क होना ही दुःख हैं। इसी बात को इस प्रकार कह सकते हैं कि-
अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।।
अर्थात् आत्मा के अनुकूलता का ही नाम सुख है और प्रतिकूलता दुःख है। महर्षि मनु ने सुख दुःख की व्याख्या इस प्रकार की है-
सर्वं परवश्ंा दुःखम्, सर्वमात्मवशं सुखम्।।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
सुख दुःख का संक्षेप में यही लक्षण जानना चाहिये अर्थात् दूसरों के अधीन होना ही दुःख है और अपने अधीन रहना ही सुख है।
सुख दुःख का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें कैसे होता है। इसकी प्रक्रिया समझाते हुए, न्यायदर्शन में वात्स्यायन भाष्य में लिखा है कि ‘‘आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम्।’’ आत्मादि तथा सुखादि का प्रत्यक्ष कैसे होता है उसका प्रकार समझाते है- जीवात्मा प्रथम मन से सम्पर्क करता है, मन इन्द्रियों से तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सम्बध्द होकर प्रत्यक्ष कराती है।
वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं – ‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयस् बुध्दि: स धर्मः’’ इसलिए धर्म करने से ही मनुष्य का जीवन सार्थक है परन्तु आज सम्पूर्ण विश्व में लोगों को यह नहीं पता कि धर्म क्या होता है? मुस्लिम, इसाई, बौध्द, जैन आदि मत-मतान्तरों को कुछ लोग धर्म मान लेते है और उस पर चलना प्रारम्भ कर देते है वे नहीं जानते कि धर्म क्या है अथवा किसे कहते है? मुस्लिम विचार करता है कि मुस्लिमत्व ही मेरा धर्म है, ईसाई विचार करता है कि कृश्चीयन मेरा धर्म है, हिन्दु विचार करता है कि हिन्दुत्व ही मेरा धर्म है परन्तु ये यह नहीं जानते कि जिसका ये धर्म मानकर अनुष्ठान कर रहे है, वे धर्म नहीं मत-सम्प्रदाय है। वास्तव में जब धर्म का स्वरूप ही भ्रान्त हो जाएगा तो, धर्म का अनुष्ठान सर्वथा व्यर्थ है।
व्यक्ति के अवनति व विनाश के साधनों को जुटाने में जो ऊर्जा शक्ति का अपव्यय होता है, उससे आत्मिक बल और जीवनीय शक्ति का भी क्षय होता हैं। भय और हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगती हे और निश्चित रूप से विवेक में न्यूनता आती है। उस व्यक्ति में स्वार्थ, लिप्सा और मिथ्याहंकार ज्ञान-चक्षुओं के पट खुलने नहीं देते। इसके दुष्परिणाम तत्काल या कालान्तर में उस व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को भुगतने पड़ते हैं। इसलिए जीवन में उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को विवेक का विकास निरन्तर करते रहना चाहिए। यही यथार्थ में जीवन का पथ हैंै।
आचार्य चाणक्य ने लिखा है –‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल है-इन्द्रियों को संयम में रखना। संसार में प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता है। इसीलिए वर्तमान में तथाकथित जो धर्म है, उसे स्वीकार न कर सर्वहितार्थ जो धर्म का स्वरूप यहाॅं बताया है, उसे ही धारण करना चाहिए। इसी से दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकेगी। धर्म को धारण करने से सुख ही नहीं प्राप्त होगा अपितु भावी जन्म में भी सहायक होगा।
संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-
‘धर्म एकोऽनुगच्छति’ अर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। नीतिकार भी कहते है-
धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।
देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीवः एकः।।
अर्थात् भौतिक समस्त धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही बन्धे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते है एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात् धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।
यतो धर्मस्ततो जयः गीता के इस श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म सदैव विजयी होता है। चाहे अधर्मी कितना ही बलवान् हो उसकी हार अवश्य होती है लोक में भी यह देखा जाता है कि अधर्मी की हार का कारण अधर्म ही बन जाता है। मनुस्मृति में भी सत्य ही कहा गया है-
अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।
ततो सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति।।
अर्थात् अधर्माचरण करने से व्यक्ति धन-सम्पदा बढ़ने से बढ़ता हुआ दिखाई देता है, तत्पश्चात् भद्र भी देखता है अर्थात् भौतिक साधनों की समृध्दि होने से बड़े-बड़े महल, कोठियाँ बना लेता हे, अपने विरोधियों पर येन-केन विजय प्राप्त कर लेता है। किन्तु अन्त में उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए हमें इस शाश्वत सत्य पर अवश्य दृढ़ विश्वास करना चाहिये-
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद् धर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता हैं धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए अधर्म से प्राप्त लक्ष्मी कभी भी घर में न आने देवंे। अन्यथा ऐसा धन तीसरी पीढ़ी में अवश्य दुष्परिणाम दिखा देता है। लोक में ऐसे उदाहरण अधिकांशतया प्राप्त हो जाते हैं।
निष्कर्ष रूप में धर्म का ज्ञान तथा उसका आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है। यही हम सब का आधार है। हम सब के परमलक्ष्य का परम सहायक भी यही धर्म है। आओ! हम सब मिलकर धर्म के यथार्थ स्वरूप को जाने तथा धारण कर सुख-सम्पन्नता के मार्ग को प्राप्त हो, मोक्षपथानुगामी हों।