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ईश्वर को प्राप्त करने की सरल विधि क्या है’ -मनमोहन कुमार आर्य

प्रत्येक व्यक्ति सरलतम रूप में ईश्वर को जानना व  उसे प्राप्त करना चाहता है। हिन्दू समाज में अनेकों को मूर्ति पूजा सरलतम लगती है क्योंकि यहां स्वाध्याय, ज्ञान व जटिल अनुष्ठानों आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्य मतों की भी कुछ कुछ यही स्थिति है। अनेक मत वालों ने तो यहां तक कह दिया कि बस आप हमारे मत पर विश्वास ले आओ, तो आपको ईश्वर व अन्य सब कुछ प्राप्त हो जायेगा। बहुत से भोले-भाले लोग ऐसे मायाजाल में फंस जाते हैं परन्तु विवेकी पुरूष जानते हैं कि यह सब मृगमरीचिका के समान है। जब रेगिस्तान की भूमि में जल है ही नहीं तो वह वहां प्राप्त नहीं हो सकता। अतः धार्मिक लोगों द्वारा अपने भोले-भाले अनुयायियों को बहकाना एक धार्मिक अपराध ही कहा जा सकता है। दोष केवल बहकाने वाले का ही नहीं, अपितु बहकने वाले का भी है क्योंकि वह संसार की सर्वोत्तम वस्तु ईश्वर की प्राप्ति के लिए कुछ भी प्रयास करना नहीं चाहते और सोचते हैं कि कोई उसके स्थान पर तप व परिश्रम करे और उसे उसका पूरा व अधिकतम लाभ मिल जाये। ऐसा पहले कभी न हुआ है और न भविष्य में कभी होगा। यदि किसी को ईश्वर को प्राप्त करना है तो पहले उसे उसको उसके यथार्थ रूप में जानना होगा। उस ईश्वर  व जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानकर या फिर किसी सच्चे विद्वान अनुभवी वेदज्ञ गुरू का शिष्य बनकर उससे ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि जानी जा सकती है। इस कार्य में हम आपकी कुछ सहायता कर सकते हैं।

 

ईश्वर व जीवात्मा को जानने व ईश्वर को प्राप्त करने की सरलतम विधि कौन सी है और उसकी उपलब्घि किस प्रकार होगी? इसका प्रथम उत्तर है कि इसके लिए आपको महर्षि दयानन्द व आर्यसमाज की शरण में आना होगा। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर अपने ग्रन्थों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप का वर्णन किया है जिसे स्वयं पढ़कर जानना व समझना है। यदि यह करने पर जिज्ञासु को कहीं किंचित भ्रान्ति होती है तब उसे किसी विद्वान से उसे जानना व समझना है। उपासक को महर्षि दयानन्द की उपासना विषयक मान्यताओं व निर्देशों को अच्छी तरह से समझ कर पढ़ना व अध्ययन करना चाहिये। इस कार्य में महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, पंच महायज्ञ विधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु आदि पुस्तकें सहायक हो सकती हैं। आईये, इसी क्रम में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयास करते हैं।

 

जीवात्मा को ईश्वर के उपकारों से उऋण होने तथा जन्म मरण से मुक्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है अतः इन दोनों सत्ताओं के सत्य स्वरूप उपासक को विदित होने चाहिये नहीं तो भ्रान्तियों में पड़कर उपासक सत्य मार्ग का चयन नहीं कर सकता। पहले ईश्वर का वेद वर्णित स्वरूप जान लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के स्वमन्तव्यअमन्तव्य प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के स्वरूप वा गुण, कर्म व स्वभाव को संक्षेप में बताते हुए लिखा है कि जिसके ब्रह्म परमात्मा आदि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। ईश्वर के इस स्वरूप का उपासक को बार बार विचार करना चाहिये और एक एक गुण, कर्म, स्वभाव व लक्षण को तर्क वितर्क कर अपने मन व मस्तिष्क में अच्छी तरह से स्थिर कर देना चाहिये। जब इन गुणों का बार बार विचार, चिन्तन व ध्यान करते हैं तो इसी को उपासना कहा जाता है। उपासना की योग निर्दिष्ट विधि के लिए महर्षि पंतजलि का योग दर्शन भी पूर्ण सावधानी, तल्लीनता व ध्यान से पढ़ना चाहिये जिससे उसमें वर्णित सभी विषय व बातें बुद्धि में स्थित हो जायें। ऐसा होने पर उपासना व उपासना की विधि दोनों का ज्ञान हो जाता है। ईश्वर के स्वरूप व उपासना विधि के ज्ञान सहित जीवात्मा को अपने स्वरूप के बारे में भी भली प्रकार से ज्ञान होना चाहिये। जीव का स्वरूप कैसा है? आईये इसे ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर निश्चित कर लेते हैं। ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप है तो जीव भी सत्य व चेतन स्वरूप वाला है। ईश्वर में सदैव आनन्द का होना उसका नित्य, शाश्वत् व अनादि गुण है परन्तु जीव में आनन्द नहीं है। यह आनन्द जीव को ईश्वर की उपासना, ध्यान व चिन्तन से ही उपलब्ध होता है। उपासना का प्रयोजन भी यही सिद्ध होता है कि ईश्वरीय आनन्द की प्राप्ति व उसकी उपलब्धि करना। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं परन्तु जीव को ज्ञान के लिए माता-पिता व आचार्य के साथ वैदिक साहित्य के अध्ययन की आवश्यकता होती है, तब यह कुछ कुछ पवित्र बनता है। वह मनुष्य भाग्यवान है कि जिसके माता-पिता व आचार्य धार्मिक हों व वैदिक विद्या से अलंकृत हों। धार्मिक माता-पिता व आचार्य के सान्निध्य व उनसे शिक्षा ग्रहण कर ही कोई मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन सकता है, अन्यथा नहीं। हमारा आजकल का समाज इसका उदाहरण है जिसमें माता-पिता व आचार्य धार्मिक व वैदिक विद्वान नहीं है, और इसी कारण समाज में भ्रष्टाचार, अनाचार व दुराचार आदि देखें जाते हैं। आजकल के माता-पिता व आचार्य स्वयं सत्य व आध्यात्मिक ज्ञान से हीन है, अतः उनकी सन्तानों व शिष्यों में भी सत्य वैदिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं आ पा रहा है। इसका हमें एक ही उपाय व साधन अनुभव होता है और वह महर्षि दयानन्द व वेद सहित प्राचीन ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों एवं वेदांगों, उपांगों अर्थात् 6 दर्शन तथा 11 उपनिषदों सहित प्रक्षेप रहित मनुस्मृति आदि का अध्ययन है। इन्हें पढ़कर मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा व संसार से संबंधित सत्य ज्ञान को प्राप्त हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर को वेद के आधार पर सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया है। इस पर विचार करने से जीवात्मा अल्पज्ञ, सूक्ष्म एकदेशी बिन्दूवत आकार वाला, सर्वव्यापक ईश्वर से व्याप्य, अनुत्पन्न, अल्पशक्तिमान, दया-न्याय गुणों से युक्त व मुक्त दोनों प्रकार के स्वभाव वाला, ईश्वरकृत सृष्टि का भोक्ता और ज्ञान व विज्ञान से युक्त होकर अपनी सामर्थ्य से सृष्टि के पदार्थों से नाना प्रकार के उपयोगी पदार्थों की रचना करने वाला, कर्म करने में स्वतन्त्र परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था के अधीन आदि लक्षणों वाला जीवात्मा है। इस प्रकार से विचार करते हुए हम जीवात्मा के अन्य गुणों को भी जान सकते हैं क्योंकि हमारे सामने कसौटी वेद, आप्त वचन व ईश्वर का स्वरूप आदि हैं तथा विचार व चिन्तन करने की वैदिक चिन्तन पद्धति है। सृष्टि में तीसरा महत्वपूर्ण पदार्थ प्रकृति है जो कारणावस्था में अत्यन्त सूक्ष्म तथा सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है। ईश्वर इसी प्रकृति को अपनी सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता से पूर्व कल्पों की भांति रचकर स्थूलाकार सृष्टि करता है जिसमें सभी सूर्य, ग्रह व पृथिवी तथा पृथिवीस्थ सभी भौतिक पदार्थ सम्मिलित हैं।

 

अब ईश्वर को प्राप्त करने की विधि पर विचार करते हैं। ईश्वर को प्राप्त करने के लिए जीवात्मा को स्तुति, प्रार्थना सहित सन्ध्या-उपासना कर्मों व साधनों को करना है। महर्षि दयानन्द ने दो सन्ध्या कालों, रात्रि व दिन तथा दिन व रात्रि की सन्धि के कालों में सन्ध्या-उपासना को करने के लिए सन्ध्यायेपासना की विधि भी लिखी है जिसको जानकर सन्ध्या करने से लाभ होता है। इस पुस्तक की उन्होंने संक्षिप्त भूमिका दी है। सन्ध्या के मन्त्र व उनके अर्थ देकर उन्होंने जो सन्ध्या करने का विधान लिखा है, उसे सभी मनुष्यों को नियतकाल में यथावत करना चाहिये। सन्ध्या अन्य नित्य कर्मों, दैनिक अग्निहोत्र, पितृ यज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ को करने का फल यह है कि ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि का होना। इससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं। इनको प्राप्त होकर मनुष्यों का सुखी होना उचित है। सन्ध्या के समापन से पूर्व समर्पण का विधान करते हुए उपासक को ईश्वर को सम्बोधित कर सच्चे हृदय से कहना होता है कि हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। इसका अर्थ कर वह कहते हैं कि सन्ध्या के मन्त्रों व उनके अर्थों से  परमेश्वर की सम्यक् उपासना करके आगे समर्पण करें कि हे ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जो जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वह सब आपके समर्पण हैं। हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म अर्थात् सत्य व न्याय का आचरण, अर्थ अर्थात् धर्म से पदार्थों की प्राप्ति, काम अर्थात् धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन तथा मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना, इन चार पदार्थों की सिद्धि हमको शीध्र प्राप्त हो। मोक्ष जन्म व मरण के चक्र से छूटने को कहते हैं। मोक्ष की पहली शर्त है कि उपासना व सत्कर्मों को करके ईश्वर का साक्षात्कार करना व जीवनमुक्त जीवन व्यतीत करना। बिना ईश्वर का साक्षात्कार किये मोक्ष वा जन्म मरण से मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अतः गौण रूप से समर्पण में यह भी कहा गया है कि ईश्वर हमें अपना दर्शन वा साक्षात्कार कराये और हम जन्म-मरण से मुक्त भी हों। ईश्वर का साक्षात्कार होने पर मनुष्य जीवनमुक्त का जीवन व्यतीत करता है और मृत्यु आने पर जन्म-मरण से छूट जाता है।

 

वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया था। ईश्वरीय ज्ञान वेद के हम 3 मन्त्र पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। यह तीनों मन्त्र ऋग्वेद के दसवें मण्डल के हैं। मन्त्र हैं- अहम्भुवं वसु नः पूव्र्यस्पतिरहं धनानि संजयामि शश्वतः। मां हवन्ते पितरं जन्तवोऽहं दाशुषे विभजामि भोजनम्।1, दूसरा मन्त्रअहमिन्द्रो पराजिग्य इद्धनं मृत्यवेऽवतस्थे कदाचन। सोममिन्मा सुन्वन्तो याचता वसु मे पूरवः सख्ये रिषाथन।2 तीसरा मन्त्रअहं दां गृणते पूव्र्य वरवहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम्। अहं भुवं यामानस्य चोदितायज्वनः साक्षि विश्वरिमन्भरे।3 इन तीनों मन्त्रों के अर्थ हैं प्रथम मन्त्र- ईश्वर सब को उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव, जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नानाप्रकार के भोजनों का विभाग पालन क लिये करता हूं।1। मैं परमैश्वर्यवान् सूर्य के सदृश सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले मुझ ही को जानो। हे जीवो ! ऐश्वर्य प्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से पृथक मत होओ।2। हे मनुष्यों ! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझको वह वेद यथावत् कहता, उससे सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता, मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करने हारे को फल प्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है, उस सब कार्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ कर किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।3 इन मन्त्रों को प्रस्तुत करने का हमारा अभिप्रायः पाठको को कुछ वेद मन्त्रों व उनके अर्थों से परिचित कराना है। सृष्टि की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु ईश्वरीय ज्ञान वेद का सभी को प्रतिज्ञापूर्वक नित्य प्रति स्वाध्याय करना चाहिये।

 

मनुष्य जब ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व ध्यान-उपासना करते हुए ईश्वर में मग्न हो जाता है तो समाधि के निकट होता है। कालान्तर में ईश्वर की कृपा होती है और जीवात्मा को ईश्वर का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार होता है। इसका वर्णन करते हुए उपनिषद में कहा गया है कि जिस पुरुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, जिसने आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त को लगाया है, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। उपासना शब्द का अर्थ समीस्थ होना है। अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उस को सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो जो काम करना होता है, वह वह करना चाहिये। यहां हम पुनः दोहराना चाहते हैं कि उपासना में सफलता के लिए महर्षि दयानन्द के सभी ग्रन्थों में स्तुति-प्रार्थना-ध्यान-उपासना के सभी प्रसंगों को ध्यान से देखकर उसे अपनी स्मृति में स्थापित करना चाहिये और तदवत् आचरण करना चाहिये।

 

उपासक वा योगियों को ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उपासना करते समय कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर से ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाशरूप एक स्थान है और इसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर भीतर एकरस होकर भर रहा है, यह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है। यह शब्द महर्षि दयानन्द ने स्वानुभूति के आधार पर लिखे हैं। तर्क से भी यह सत्य सिद्ध हैं। अतः उपासक को इस प्रकार से उपासना करनी चाहिये जिसका परिणाम शुभ होगा और सफलता भी अवश्य मिलेगी।

 

यह भी विचारणीय है कि सभी मत मतान्तरों के अनुयायी भिन्न भिन्न प्रकार से उपासना व पूजा आदि करते हैं। क्या उन्हें उन्हें ईश्वर की प्राप्ति होती है वा नहीं? विचार करने पर हमें लगता है कि उससे लाभ नहीं होता, जो लाभ होता है वह उनके पुरूषार्थ तथा प्रारब्घ से होता है। ईश्वर के यथार्थ ज्ञान तथा योग दर्शन की विधि से उपासना किये बिना किसी को ईश्वर की प्राप्ति व धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि प्राप्त नहीं होती, यह स्वाध्याय व चिन्तन से स्पष्ट होता है। अतः ईश्वर की प्राप्ति के लिए सभी को वैदिक धर्म व वैदिक उपासना पद्धति का ही आश्रय लेना उचित है। यही ईश्वर प्राप्ती की एकमात्र सरल विधि है। अन्य प्रकार से उपासना से ईश्वर प्राप्ति सम्भव नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः09412985121

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यों की आयुः- – राजेन्द्र जिज्ञासु

आदि सृष्टि का वैदिक सिद्धान्त सर्वविदित है। परोपकारी के गत अंकों में बताया जा चुका है कि एक समय था कि हमारी इस मान्यता का (अमैथुनी सृष्टि) का कभी उपहास उड़ाया जाता था परन्तु अब चुपचाप करके अवैदिक मत पंथों को ऋषि दयानन्द की यह देन स्वीकार्य है। परोपकारी में बाइबिल के प्रमाण देकर इस वैदिक सिद्धान्त की दिग्विजय की चर्चा की जा चुकी है। हमारे इस सिद्धान्त के तीन पहलू हैंः-

  1. आदि सृष्टि के मनुष्य बिना माता-पिता के भूमि के गर्भ से उत्पन्न हुए।
  2. वे सब युवा अवस्था में उत्पन्न हुए।
  3. उनका भोजन फल, शाक, वनस्पतियाँ और अन्न दूध आदि थे।

इस सिद्धान्त की खिल्ली उड़ाने वाले आज यह कहने का साहस नहीं करते कि आदि सृष्टि के मनुष्य शिशु के रूप में जन्मे थे। इसके विपरीत बाइबिल में स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा भ्रमण करते हुए उद्यान में आदम उसकी पत्नी हव्वा की खोज कर रहा था। उनको आवाजें दी जा रही थी कि अरे तुम कहाँ हो? स्पष्ट है कि पैदा हुये शिशु आवाज सुनकर, समझ ही नहीं सकते। वे उत्तर क्या देंगे? उन्होंने लज्जावश अपनी नग्नता को पत्तों से, छाल से ढ़का। लज्जा शिशुओं को नहीं, जवानों को आती है।

निर्णायक उत्तरःबाइबिल से यह भी प्रमाणित हो गया है कि अब ईसाई भाई एक जोड़े की नहीं, अनेक स्त्री-पुरुषों की उत्पत्ति मान रहे हैं। अब वैदिक मान्यता पर उठाई जाने वाली आपत्तियों का निर्णायक उत्तर हम पूज्य पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय के शदों में आगे देते हैं सृष्टि के आदि के मनुष्यों का, ‘‘आमाशय बच्चों के समान होता तो उनके जीवन-निर्वाह के लिए केवल माता का दूध ही आवश्यक था क्योंकि बच्चों के आमाशय अधिक गरिष्ठ (पौष्टिक) भोजन को पचा नहीं सकते परन्तु यह बात असभव है कारण? उनकी कोई माता नहीं थी जो उन्हें दूध पिलाती परन्तु यदि उनके आमाशय अन्न को पचा सकते थे तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उनके आमाशय युवकों के समान स्वस्थ व सशक्त थे। युवा आमाशय केवल युवा शरीर में ही रह सकते हैं। यह असभव है कि आमाशय तो युवा हो और अन्य अंग शैशव अवस्था में हों।’’

आर्य दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने अपने अनूठे, सरल, सबोध तर्क से विरोधियों के आक्षेप का उत्तर देकर आर्ष सिद्धान्त सबको हृदयङ्गम करवा दिया।

स्तुता मया वरदा वेदमाता-18

मन्त्र के प्रथम पद में घर में रहने वाले सदस्यों के मध्य भोजन अन्नपान आदि की व्यवस्था सन्तोषजनक होने की बात की है। घर के सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकता, वय, परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। घर में भोजन के शिष्टाचार में बच्चे, बूढ़े, रोगी और महिलाओं के बाद पुरुषों का अधिकार आता है। असुविधा दो कारणों से उत्पन्न हो सकती है- प्रथम आलस्य, प्रमाद, पक्षपात से तथा दूसरी ओर अभाव से। इसके लिये उत्पादन से वितरण तक अन्न की प्रचुरता का शास्त्र उपदेश करता है।

वेद में अन्न को सब धनों से बड़ा धन बताया है। विवाह संस्कार के समय अयातान होम की आहुतियाँ देते हुए मन्त्र पढ़ा जाता है- अन्नं साम्राज्यानां अधिपति- संसार में, जीवन में किसी वस्तु का सबसे अधिक महत्त्व है तो वह अन्न है। वेद ने अन्न को साम्राज्यानां अधिपति कहा है। अन्न संसार में राजा से भी बड़ा है। यदि राज्य में अकालादि के कारण अन्न का अभाव हो जाये तो राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अन्न नहीं तो मनुष्य नहीं, मनुष्य नहीं तो समाज नहीं फिर देश और राष्ट्र की बात ही कहाँ से आती? इसलिये प्राण को बचाने का आधार होने से अन्न को ही प्राण कहा गया है- अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः।

अन्न की मात्रा की चर्चा करते हुए हर प्रकार से सभी प्रकार के अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करने का विधान किया गया है। शास्त्र कहता है- अन्नं बहु कुर्वीत– अन्न को बहुत उत्पन्न करना चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न अन्न जंगली प्राणी, तपस्वी साधकों के लिये होते हैं। नगर, ग्रामवासियों को तो अन्न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करना पड़ता है। अन्न उत्पन्न करने की पद्धति वेद से प्रतिपादित है। अन्न को उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि कहा गया है। अन्न एवं उससे सबन्धित सामग्री का उत्पादक कृषिवलः या कृषक होता है। वेद समस्त मनुष्यों को उपदेश देता है- कृषिमित् कृषस्व, हे मनुष्य तू खेती कर, इसी में पशुओं की प्राप्ति है। इसी से धन की प्राप्ति है। जब वर्षा न होने से अन्नादि की उत्पति न्यून होती है, तब संसार के सारे व्यवसाय स्वयं नीचे आ जाते हैं। समस्त साधनों, सुख-सुविधाओं का मूल खेती है, अतः जो देश समाज सुखी होना चाहते हैं, उन्हें अपनी खेती को गुणकारी और समुन्नत बनाना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कृषि के महत्त्व को देखकर लिखा है कि किसान राजाओं का राजा है। संसार के जीवन का आधार अन्न है और अन्न का आधार किसान है।

संसार में मनुष्य को जीवनयापन के साधनों का संग्रह करना पड़ता है, साधनों के लिए धन प्राप्ति हेतु नाना व्यवसाय करने होते हैं। संसार में हजारों व्यवसाय हैं, परन्तु सभी व्यवसाय गौण हैं। समाज में दो ही व्यवसाय मुय हैं– एक खेती और दूसरा है शिक्षा। एक से शरीर जीवित रहता है, बलवान बनता है, दूसरे से आत्मा सुसंस्कृत होती है। अन्य सभी व्यवसाय तो इन दो से जुड़े हुए हैं।

अन्न को उत्पन्न करने के साथ उसे नष्ट न करने या उसका दुरुपयोग रोकने के लिये भी कहा गया है। कभी अन्न की निन्दा न करने के लिये कहा है, इसीलिये भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता कहा गया है। अन्न को जूठा छोड़ने या बर्बाद करने को पाप कहा गया है। हम भोजन कराने वाले को अन्नदाता कहते हैं। अन्न को बुरी दृष्टि से न देखें। अन्न के उत्पादन, सुरक्षा एवं सदुपयोग को मनुष्य के जीवन का अङ्ग बताया गया है। इस प्रवृत्ति के रहते ही मनुष्य अन्न का इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में उपभोग कर सकता है। किसी के प्रेम को प्राप्त करने के उपाय के रूप में प्रेम से भोजन कराने का निर्देश है। स्वामी दयानन्द ने कहा है- भोजन प्राणिमात्र का अधिकार है। हर भूखा प्राणी भोजन का अधिकार रखता है।

ईश्वर न्यायकारी व दयालु अवश्य है परन्तु वह कभी किसी का कोई पाप क्षमा नहीं करता’ -मनमोहन कुमार आर्य

ईश्वर कैसा है? इसका सरलतम् व तथ्यपूर्ण उत्तर वेदों व वैदिक शास्त्रों सहित धर्म के यथार्थ रूप के द्रष्टा व प्रचारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों में प्रस्तुत किया है जहां उनके द्वारा प्रस्तुत ईश्वर विषयक गुण, विशेषण व सभी नाम तथ्यपूर्ण एवं परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। सत्यार्थ प्रकाश के अन्त में अपने स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में ईश्वर के विषय में वह लिखते हैं कि ईश्वर वह है जिसके ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिस के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं। यहां ईश्वर के लिए न्यायकारी गुण वा नाम का प्रयोग हुआ है तथा उसे सब जीवों को सत्य न्याय से कर्मों का फलदाता आदि लक्षणयुक्त बताया गया है। महर्षि दयानन्द ने ईश्वर के जिस स्वरूप का वर्णन किया है वह वेदों के आधार पर है तथा उसे वेदों से सत्य सिद्ध किया जा सकता है। यदि सृष्टि पर दृष्टि डाले तो यह ईश्वर का स्वरूप सृष्टि में विद्यमान नियमों के अनुसार भी सत्य सिद्ध होता है। यदि हम सच्चिदानन्द शब्द पर ही विचार करें तो यह शब्द सत्य, चित्त तथा आनन्द से मिलकर बना है। यह तीनों गुण ईश्वर में विद्यमान है, यह सच्चिदानन्द शब्द से व्यक्त होता है। सत्य का अर्थ है कि ईश्वर की सत्ता है। ईश्वर का अस्तित्व व सत्ता है, यह कथन बन्ध्या स्त्री के पुत्र के समान कल्पित व असम्भव बात नहीं है। सत्तावान पदार्थ दो प्रकार के होते हैं एक दृश्यमान व दूसरे अदृश्यमान। यह ससार तथा इसमें मनुष्य व प्राणियों के देहादि को हम देखते हैं, यह दृश्य सत्तावान पदार्थ है। आकाश, ईश्वर, जीवात्मा, मूल प्रकृति, वायु में विद्यमान आक्सीजन आदि अनेकानेक गैसें, बहुत दूर और बहुत पास की अनेक वस्तुएं हमें दिखाई नहीं देतीं। यह अदृश्यमान पदार्थ हैं परन्तु इनका अस्तित्व शास्त्र के प्रमाणों तथा युक्ति व तर्क आदि से सिद्ध है।

 

अतः ईश्वर के अदृश्य होने पर भी उसकी सत्ता सत्य है एवं स्वयंसिद्ध है जिसे सृष्टि में होने वाले अपौरुषेय कार्यों के सम्पादन वा लक्षणों से भी जाना जा सकता है। सच्चिदानन्द में दूसरी बात यह है कि ईश्वर चेतन पदार्थ है। इसका अर्थ है कि वह जड़ व निर्जीव पदार्थ नहीं है। जड़ व निर्जीव पदार्थ चेतन जीवों व ईश्वर के प्रयोग व उपयोग के लिए होते हैं। जड़ व निर्जीव पदार्थ सृष्टि में प्रकृति व इसके विकार के रूप में यह दृष्टि जगत व इस पर उपलब्ध पृथिवी, अग्नि, जल, वायु आदि हैं। चेतन पदार्थों के दो मुख्य गुण, ज्ञान व कर्म होते हैं। ईश्वर के चेतन तत्व होने के सहित उसमें अन्य असंख्य गुणों में सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमान का गुण भी सम्मिलित है। इन दोनों गुणों के कारण ही उसने यह संसार रचा, इसका पालन करता है व जीवों को उनके शुभाशुभ कर्मानुसार यथावत् सुख व दुःख रूपी कर्म फलों को देता है। इन कार्यों को करने से ईश्वर का स्वरूप चेतन सत्य सिद्ध होता है। ईश्वर का तीसरा गुण उसका आनन्द स्वरुप होना है। ईश्वर आनन्द स्वरूप है, इसका कारण यह है कि ईश्वर सृष्टि का रचयिता, पालक व संहारक है। जिस चेतन पदार्थ में आनन्द व सुख-शान्ति का गुण नहीं होगा वह परहित का कुछ अच्छा कार्य भली प्रकार से नहीं कर सकता। दुःखी व्यक्ति तो दया का अधिकारी होता है। उससे सर्वज्ञता व सर्वशक्तिमत्ता के कार्यों की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हम संसार में प्रत्येक क्षण ईश्वर की सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता के दर्शन करते हैं। वह सूर्य को बना कर धारण किये हुए है। इसी प्रकार से ब्रह्माण्ड में अन्यान्य असंख्य ग्रह, उपग्रह व अन्य पिण्ड आदि की रचना कर उसका धारण व पोषण कर रहा है और यह सब भी उसकी व्यवस्था का पालन कर रहे हैं या वह पालन करा रहा है। इससे ईश्वर का सृष्टि में सर्वत्र, सर्वव्यापक व आनन्दमय होना सिद्ध होता है। यदि वह आनन्दमय न होता तो सृष्टि की रचना व संचालन न कर सकता। यजुर्वेद के 40/1 मन्त्र में कहा गया है कि ईशा वास्यमिदं सर्वम् अर्थात् परमैश्वर्यवान् परमात्मा चराचर जगत में व्यापक है। इससे ईश्वर के अस्तित्व व सत्ता सहित उसका चेतन व आनन्दयुक्त होना ज्ञात होता है। परमैश्वर्यववान चेतन सत्ता ही होती है न कि जड़ सत्ता। और ऐश्वर्य उसी का होता है जो आनन्दमय या आनन्द से युक्त हो। दुःखी व्यक्ति तो दरिद्र ही होता है। इस विवेचन को प्रस्तुत करने का तात्पर्य यह था कि महर्षि दयानन्द वर्णित ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव आदि सत्य हैं। अब ईश्वर के न्यायकारी स्वरूप पर विचार करते हैं।

 

यजुर्वेंद के 40/8 मन्त्र में ईश्वर को पापविद्धम् कहा गया है। इसका अर्थ है कि ईश्वर पापाचरण से रहित है। न्याय न करना वा सत्य व न्याय के विरुद्ध आचरण करना पापाचरण होता है और न्याय व इसका आचरण करना धर्माचरण कहा जाता है। ईश्वर सदा सर्वदा तीनों कालों में धर्माचरण करने से न्यायकारी सिद्ध होता है। न्याय क्या है? सत्य का पालन और असत्य का त्याग ही न्याय व धर्म है। सत्याचरण अर्थात् धर्म का आचरण व पालन करने वालों को प्रसन्नता व आनन्द प्रदान करना व पापाचरण वा अधर्माचरण करने वालों दण्डित, कष्ट व दुःख देना न्याय कहलाता है। न्यायालय में क्या होता है? जो व्यक्ति सत्य व सदाचार का पालन करता है, उसे विजयी किया जाता है और जो व्यक्ति असत्य पक्ष का होता है उसकी बात स्वीकार न कर उसे दण्डित किया जाता है। पूरा पूरा न्याय कौन कर सकता है? न्याय वह कर सकता है कि जो सब मनुष्य आदि प्राणियों के सब कार्यों को, भले ही वह रात्रि के अन्धकार में छिप पर कोई करे व दिन के प्रकाश में, उन सब कार्यों का प्रत्यक्षदर्शी वा साक्षी हो। दूसरा जिनका न्याय करता है, उनसे अधिक बलवान व बुद्धिमान हो अर्थात् सर्वज्ञानमय हो। तीसरा न्यायकर्त्ता किंचित पक्षपात करने वाला न हो। पक्षपात करना सत्य को दबाना और असत्य को अनदेखा करना है। जो चेतन सत्ता, मुनष्य वा ईश्वर, सत्य में स्थित होती है वह न तो पक्षपात करती है और किसी के प्रति अन्याय। वह तो सत्य पक्ष को भी न्याय प्रदान करती है और असत्य को दण्ड देकर भी न्याय ही करती है। सत्य को सम्मानित करना और असत्य को अपमानित व दण्डित करना ही न्याय की मांग है। यदि सत्य को अपमानित होना पड़े और असत्य को महिमा से युक्त किया जाए तो यह घोर अन्याय ही होता है और इसे करने वाला दुष्ट ही कहा जा सकता है। न्याय करने वाली सत्ता का निडर, भयरहित व साहसी होना भी आवश्यक है। यह सभी गुण कुछ कुछ मनुष्यों में मिलते हैं परन्तु ईश्वर में इन गुणों की पराकाष्ठा है। अतः ईश्वर पूर्णतया न्यायकारी हो सकता है व वस्तुतः पूर्ण न्यायकारी है भी, इसमें किंचित सन्देह नहीं है। यदि वह न्याय न करे तो यह संसार चल नहीं सकता। इसमें सर्वत्र अव्यवस्था फैल जायेगी और विश्व में सुख व शान्ति कहीं भी देखने को नहीं मिलेगी। विश्व में यत्र तत्र सर्वत्र सुख व शान्ति का होना इस बात का प्रमाण है कि विश्व में सत्य व न्याय विद्यमान है।

 

अब प्रश्न होता है कि क्या ईश्वर पापों को क्षमा करता है। वैदिक धर्म से इतर संसार के प्रायः सभी मतों में यह माना जाता है कि ईश्वर पापों को क्षमा करता है। हमारे सामने ऐसा कोई मत व सम्प्रदाय नहीं है जो यह न मानता तो कि ईश्वर पापों को क्षमा नहीं करता? तर्क यह दिया जाता है कि क्योंकि ईश्वर दयालु है, इसलिये वह मनुष्यों व प्राणियों को अपनी उदारता के कारण क्षमा कर देता है। ऐसा होना असम्भव है। दया निर्दोषों के प्रति की जाती है, दोषी प्राणियों के प्रति नहीं। दोषियों को तो दण्ड देना ही दया है। यदि दोषियों पर दया कर उन्हें क्षमा कर दिया जाये तो यह पीडि़तों के प्रति अन्याय हो जायेगा। अतः दोषियों व पापियों को क्षमादान करने को न्याय नहीं कह सकते। यदि ईश्वर ऐसा करेगा तो वह न्यायकारी नहीं अपितु पापियों व अधर्म करने वालों का संरक्षक ही कहा जायेगा। इससे धार्मिक लोग भी पाप करना आरम्भ कर देंगे, इसलिए करेंगे कि उन्हें यह विश्वास होगा कि पाप करके सुख भोगेंगे और क्षमा मांग कर उस पाप के दण्ड से मुक्त हो जायेंगे। यदि ऐसा होता तो सम्भवतः संसार के सभी मनुष्य जमकर पाप करते। सर्वत्र हत्या, चोरी, लूट, असत्य, मारपीट, छीना-झपटी का ही आलम होता। ऐसा नहीं है, इसीलिए पाप करते समय मनुष्य के हृदय में ईश्वर की ओर से भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है और धर्म व परोपकार के कार्य करने में मन व आत्मा में उत्साह, आनन्द और प्रसन्नता होती है जो कि अन्तर्यामी ईश्वर की ओर से होती है, स्वतः नहीं हो सकता और न ही अन्य कोई बाहरी सत्ता ऐसा कर सकती है। इससे सिद्ध है कि ईश्वर धर्म व सत्य का व्यवहार करने वालों को प्रसन्नता देता है और अधर्म व असत्य का व्यवहार करने वालों को डराता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में प्रश्न किया है कि क्या ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? इसका स्वयं उत्तर देते हुए महर्षि लिखते हैं कि नहीं, ईश्वर किसी के पाप क्षमा नहीं करता। क्योंकि जो ईश्वर पाप क्षमा करे तो उस का न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जायें। इसलिए कि क्षमा की बात सुन कर ही पाप करने वालों को पाप करने में निभर्यता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा यदि अपराधियों के अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साहपूर्वक अधिक अधिक बड़े-बड़े पाप करें। क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उन को भी भरोसा हो जायेगा कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने में न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जायेंगे। इसलिए सब कर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।

 

ईश्वर पाप क्षमा नहीं करता इसका उदाहरण प्रकृति में घट रही एक घटना से मिलता है। हर व्यक्ति चाहता है कि वह अधिकतम सुखी हो व उसे कोई दुःख न हो। विचार करने में पता चलता है कि अधिकतम सुख बलवान व स्वस्थ शरीर तथा धन ऐश्वर्य सम्पन्न मनुष्यों को ही मिलता है। अतः यदि ईश्वर पाप क्षमा करता तो सब जीवों को मनुष्यों की श्रेष्ठ योनियां ही मिलनी चाहियें थी। जो मत पाप क्षमा व स्वर्ग आदि को मानते हैं वह सब स्वर्ग में होते, उनको मृत्यु लोक में मनुष्य आदि जन्म लेने की आवश्यकता ही नहीं थी। पाप क्षमा होने पर पशु, पक्षी, कीट व पतंग आदि प्राणी के रूप में तो किसी का जन्म ही न होता क्योंकि यह तो पापों का दण्ड हैं। पाप क्षमा होने पर किसी को कोई रोग व शोक तो कदापि न होता क्योंकि यह सब हमारे बुरे कर्मों के कारण होते हैं। यदि वह बुरे कर्म क्षमा कर दिये जाते तो फिर दुःख व क्लेश का प्रश्न ही पैदा नही होता। क्योंकि मनुष्य व अन्य प्राणियों के रूप में जीवात्मायें विगत लगभग 2 अरबों से जन्म लेती आ रही हैं और दुःख व सुख दोनों भोग रही हैं, अतः सिद्ध है कि किसी व्यक्ति का कोई पाप क्षमा नहीं हुआ व होता है। अतः ईश्वर को न्यायकारी मानकर हमने जो विवेचन किया है, वह सृष्टि में स्पष्ट व मूर्त रूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। लेख को और अधिक विस्तार न देकर हम इसे समाप्त करते हुए कहना चाहते है कि ईश्वर न्यायकारी है, वह किसी भी मनुष्य के किसी भी अशुभ व पाप कर्म को क्षमा नहीं करता। अशुभ व पाप कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल तो सब जीवात्माओं को अवश्य ही भोगने हांेगेण् कहा है कि अवश्मेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। कर्मों का फल भोगे बिना कोई बच नहीं सकेगा। अतः यदि दुःखों से बचना है तो कभी कोई अशुभ कर्म न करें अन्यथा जन्म जन्मान्तरों में भटकना व दुःख अवश्यमेव भोगने होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता-17 समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः समानेयोक्त्रे सह वो युनज्मि। सयञ्चोऽग्निं सपर्यतारा नाभिमिवाभितः।।

वेद में, परिवार में सुख से रहने और अन्य सदस्यों को सुखी रखने का उपाय बताया है, इस मन्त्र में बहुत सारी छोटी-छोटी प्रतिदिन उपयोग में आने वाली बातों की चर्चा है। मन्त्र के प्रथम भाग में परिवार के अन्दर खानपान कैसा हो, इसकी चर्चा है। भोजनपान में सभी सदस्यों में समानता का भाव रहना चाहिए। पक्षपात का प्रारभ घरों में भोजन और काम के विभाजन से होता है। मनुष्य का स्वभाव है वह कम से कम करना चाहता है और अधिक से अधिक पाना चाहता है। मनुष्य समूह में होता है तो उसकी इच्छा अधिक और अच्छा पाने की रहती है। सभी ऐसा चाहेंगे तो समाधान नहीं होगा, मन में चोरी का भाव आयेगा, छुपकर पाने की और छुपकर खाने की इच्छा होगी। इस प्रकार जो अकेला खाना चाहता है वह पाप करता है, इसी कारण वेद ने कहा है-

केवलाघो भवति केवलादी।

जो मनुष्य अपने आप अकेला खाता है, वह पाप ही खाता है। गीता में भी उपदेश दिया गया है-

भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचनयत्म कारणात्।

जो लोग अपना ही पकाकर स्वयं अकेले ही खाना चाहते हैं, उनके लिए गीता में कहा गया है- ऐसे व्यक्ति पाप ही पकाते हैं और पाप ही खाते हैं।

वैदिक संस्कृति में भोजन के सबन्ध में बहुत सारे निर्देश मिलते हैं। एक गृहस्थ को भी भोजन अपने लिए नहीं, यज्ञ के लिये बनाने का विधान है। मनु महाराज कहते हैं- गृहस्थ को भोजन पाने की दो स्थितियाँ हैं। एक तो वह भुक्त शेष खा सकता है, दूसरा वह हुत शेष खा सकता है। दोनों ही परिस्थितियों में गृहस्थ का भोजन अपने लिये नहीं है। वह शेष भोजी है। शेष तो मुय के उपयोग करने के पश्चात् जो बचता है उसे शेष कहते हैं। ये दोनों बन्धन आजकल के व्यक्ति को बाधक लगते हैं, उसे अपने साथ बड़ा अन्याय लगता है। यथार्थ में विचार करने पर इसमें बड़ा रहस्य ज्ञात होता है। पहली बात मनुष्य अपने लिये पकाता है तो कुछ भी, कैसा भी बना कर खा लेता है, उसे बहुत चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं होती। विशेष रूप से परिवार में जब महिला अकेली रह जाती है, अन्य सदस्य घर पर नहीं होते तो उसे भोजन बनाना व्यर्थ लगता है, वैसे ही कुछ भी बनाकर कुछ भी खाकर काम चलाने की भावना रहती है। पति और बच्चों के रहने पर भोजन यथावत् अच्छा बनाने का प्रयास रहता है। इसी प्रकार घर में अतिथि आ जाये तो भोजन कुछ विशेष  बनता है, विशेष अतिथि के आने पर भोजन की विशेषता बढ़ जाती है। इसी प्रकार जब भगवान के लिए, मन्दिर के लिये यज्ञ के लिए कुछ बनेगा तो अच्छा बनेगा, विशेष बनेगा आपके घर में सदा विशेष और अच्छा भोजन ही बने इस कारण गृहस्थ के भोजन पर नियम बना दिया गृहस्थ को हुत शेष खाना चाहिये या भुक्त शेष।

मनुष्य के मन में खिलाने की भावना आ जाती है तो फिर उसके अन्दर से पक्षपात या चोरी का भाव निकल जाता है। मनुष्य जब अकेला खाता है तब छिपकर खाता है परन्तु जब खिलाने की इच्छा रखता है तो उसे सबके साथ खाने में आनन्द आता है। तब एक जैसा खाना होता है। भोजन को बांटकर खाता है। भोजन सबके साथ खाना और बांटकर खाना परस्पर प्रीति का कारण होता है परन्तु मुसलमानों की भांति जूठा एक ही पात्र में खाना स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं होता। प्रेम का आधार पक्षपात रहित होना है, भोजन का एक स्थान पर होना नहीं है। भोजन सौहार्द और प्रीति का प्रतीक होता है, श्रीकृष्ण जी महाराज जब सन्धि का प्रस्ताव लेकर गये थे, तब दुर्योधन ने कृष्ण की बात तो नहीं मानी परन्तु अतिथि के नाते उन्हें भोजन का प्रस्ताव अवश्य दिया, तब श्री कृष्ण ने दुर्योधन से कहा था- दुर्योधन दूसरे के यहाँ भोजन दो परिस्थितियों में किया जाता है या तो उससे अत्यन्त प्रीति हो या स्वयं विपदाग्रस्त हो। हमारे मध्य इन दोनों में से कुछ भी नहीं, अतः मैं तुहारा भोजन अस्वीकार करता हूँ।

सप्रीति भोज्यान्नानि, आपद् भोज्यानि वा पुनः।

न त्वं सप्रियसे राजन न चैवापद गता वयम्।

सभी चार आश्रमों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ गृहस्थाश्रम’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वैदिक जीवन चार आश्रम और चार वर्णों पर केन्द्रित व्यवस्था व प्रणाली है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं और शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण यह चार  वर्ण कहलाते हैं। जन्म के समय सभी बच्चे शूद्र पैदा होते हैं। गुरूकुल व विद्यालय में अध्ययन कर उनके जैसे गुण-कर्म-स्वभाव व योग्यता होती है उसके अनुसार ही उन्हें वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण आचार्यों व शासन व्यवस्था द्वारा दिये जाने का विधान वैदिक काल में था जो महाभारत काल के बाद जन्म के आधार पर अनेक जातियों में परिवर्तित हो गया। वेदानुसार चार वर्ण मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित हैं तो चार आश्रम मनुष्य की औसत वायु लगभग 100 वर्ष के पच्चीस पच्चीस वर्ष के क्रमशः चार सोपान व भाग हैं। प्रथम भाग जन्म से आरम्भ होकर लगभग 25 वर्षों तक का होता है जिसे आयु का ब्रह्मचर्यकाल कहते हैं। जीवन के ब्रह्मचर्यकाल में सन्तान व व्यक्ति को माता-पिता-आचार्य के सहयोग से पूर्ण ब्रह्मचर्य अर्थात् सभी इन्द्रियों के संयम, तप व पुरुषार्थ को करते हुए अधिक से अधिक विद्याओं जिनमें वेदाध्ययन प्रमुख है, का अर्जन करना होता है। कन्याओं के लिए यह आयु 16 वर्ष या कुछ अधिक होती है क्योंकि वैदिक व्यवस्था में युवक द्वारा न्यूनतम पच्चीस वर्ष और कन्या की आयु 16 वर्ष की हो जाने पर उन्हें विवाह करने की अनुमति है। विवाह का होना गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है। विवाह के बाद जो मुख्य कार्य करने होते हैं उसमें ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए आजीविका का चयन और उसका निर्वाह करने के साथ धर्म पूर्वक अर्थात् शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए श्रेष्ठ सन्तानों को उत्पन्न करना, उनका पालन करना व उनके अध्ययन आदि की व्यवस्था करना होता है। गृहस्थ आश्रमी व्यक्ति को इसके साथ नियत समय पर प्रातः सायं योग दर्शन पद्धति व महर्षि दयानन्द निर्दिष्ट वेद विधि से प्रातःसायं ईश्वरोपासना, दैनिक यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ भी यथासमय व यथाशक्ति करने होते हैं। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सभी स्त्री पुरुषों को सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने के साथ देश व समाज सेवा के श्रेष्ठ कार्यों यथा वेद विद्या के अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ व परोपकार आदि कार्यों में यथाशक्ति दान व सहयोग भी करना होता है। 50 वर्ष की आयु तक गृहस्थ जीवन में रहकर जब पुत्र पुत्रियों के विवाह हो जाये और सिर के बाल श्वेत होने लगे तब गृहस्थ जीवन का त्याग कर वन में जाकर स्वाध्याय व शास्त्रों का अध्ययन करते हुए ईश्वर प्राप्ति की साधना में समय व्यतीत करना होता है। 25 वर्षों तक इन कार्यों का अभ्यास कर संन्यास लेने का विधान है जिसमें सभी उत्तरदायित्वों से पृथक, निवृत वा उनका त्याग कर देश व समाज के कल्याण की भावना से सद्ज्ञान वेदों की शिक्षाओं का गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है। इस संन्यास आश्रम की स्थिति में भी अधिक ध्यान ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना में लगाना होता है क्योंकि ईश्वर साक्षात्कार कर अपना परलोक सुधार करना भी मनुष्य व जीवात्मा का प्रमुख कर्तव्य है। इस प्रकार से वेदों से पुष्ट चार आश्रमों का विधान वैदिक आश्रम व्यवस्था कहलाता है जो समूचे मानव समाज में सर्वत्र किंचित भिन्न भिन्न रूपों में आज भी विद्यमान दृष्टिगोचर होता है और यही सर्वाधिक श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था है।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में देशवासी अन्धविश्वासों व विदेशियों की दासता से ग्रसित थे और आश्रम  व्यवस्था का महत्व भूल चुके थे। जो व्यक्ति जिस अवस्था में होता था उसी को श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानता था। ब्रह्चारी स्वयं को चारों आश्रमों में ज्येष्ठ व श्रेष्ठ तथा वानप्रस्थी व संन्यासी अपने अपने को ज्येष्ठ व श्रेष्ठ मानते थे। गृहस्थी क्योंकि प्रायः युवा होते थे अतः वह अपने से अधिक आयु वाले वानप्रस्थियों व संन्यासियों को इस बारे में कुछ कह नहीं सकते थे और इस विषयक शास्त्रीय व प्रमाणित सोच व विचार भी उनमें नहीं था। हमारे शास्त्रों में गुरूकुल में अध्ययनरत ब्रह्मारियों को विशेष महत्व दिया गया है। शास्त्र कहते हैं कि यदि ब्रह्मचारी किसी रथ में कहीं जा रहा है और सामने राजा व अन्य लोग मार्ग में किसी चैराहे पर आ जाये तो उस अवस्था में पहले जाने का अधिकार ब्रह्मचारी का होता है। इसका कारण विद्या को महत्व दिया जाना है। यह एक प्रकार से हमारे देश में वेद विद्या को महत्व प्रदान करने के कारण व्यवस्था दी गई थी जो युक्ति व तर्क संगत है। इन सब परिस्थितियों को जानते समझते हुए जब महर्षि दयानन्द ने सन् 1874 व 1883 में आदिम सत्यार्थ प्रकाश व उसके संशोधित संस्करण तैयार किये तो उन्होंने भी चार आश्रमों में ज्येष्ठ आश्रम कौन सा है? इस पर भी विचार किया। उनके विचार तर्क व युक्ति संगत एवं स्थिति का नीर क्षीर व सारगर्भित विश्लेषण करते हैं। पाठकों के लाभार्थ उनके विचार प्रस्तुत हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का चौथा समुल्लास समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम पर महर्षि दयानन्द का वैदिक मान्यताओं पर उपदेश है। इस समुल्लास के अन्त में उन्होंने गृहस्थाश्रम पर प्रश्न  करते हुए कहा कि गृहाश्रम सब से छोटा वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब बड़े हैं। परन्तु यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।। यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।। यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धारयन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही।।3।। संधारय्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।। (यह चारों मनुस्मृति के श्लोक हैं)

 

मनुस्मृति के इन चार श्लोकों का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही  के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता है।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।।3।। इसलिये जो (अक्षय) मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के योग्य नहीं है उसको (भीरु व निर्बल लोगों से इतर स्त्री पुरुष) अच्छे प्रकार धारण करे।।4।। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य (सभी इन्द्रियों इच्छाओं का संयम उन पर नियंत्रण) और पूर्वोक्त स्वयंवर (आजकल प्रचलित नाम लव मैरिज) विवाह है।

 

गृहस्थाश्रम की ज्येष्ठता के विषय में महर्षि दयानन्द के समय में जो भ्रान्ति थी उसको उन्होंने सदा सदा के लिए दूर  कर दिया। महर्षि दयानन्द के इन विचारों को भारतीय वा हिन्दू मत ने पूर्णतः स्वीकार किया है, यह अच्छी प्रशंसनीय बात है। यदि हमारा हिन्दू समाज मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलितज्योतिष, मृतक श्राद्ध को छोड़कर वैदिक मान्यताओं को अपना ले तथा विवाह में जन्मपत्री को महत्व न देकर युवक व युवती के गुणकर्मस्वभाव को महत्व दें और जन्मना जाति प्रथा को समाप्त कर दें, तो देश व समाज को बहुत लाभ हो सकता है क्योंकि पौराणिक मान्यताओं का आधार सत्य पर नहीं है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने समय में शास्त्रीय प्रमाणों के साथ युक्ति व तर्क से भी सिद्ध किया है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्यों को लोभी व स्वार्थी न होकर दानी व परोपकारी होना चाहिये, यही प्रत्येक व्यक्ति के निजी व समाज के हित में होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि गृहस्थ में रहते हुए सभी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये जिससे सभी निरोगी होकर दीघार्य हों। आज रोगों व अल्पायुष्य का कारण हमारा दूषित खान-पान, अनियमित दिनचर्या, बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाओं संबंधी तनाव एवं वैदिक जीवन मूल्यों से दूर जाना है। वैदिक मूल्य वा वैदिक जीवन पद्धति ही आज की समस्त समस्याओं का एकमात्र निदान है। आईये, वेद की शरण लेकर जीवन को सुखी व जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ें व उसे प्राप्त करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

सन्ध्याः- सच्चा स्थाई बीमा – श्री पं. चमूपति एम.ए.

3म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त्ँ शरीरम्।

3म् क्रतो स्मर क्लिबेस्मर कृतँ्स्मर।।

-यजु. अ. 40 ।। मं. 15।।

प्राण जीवन की कला है। इसके चलने से शरीर चलता है, इसके रुकने से शरीर रुक जाता है। परमात्मा ने प्राणों की गति में कुछ ऐसा अनुपात रक्खा है, कि एक श्वास-प्रश्वास की मात्रा बिगड़ी नहीं और यह अद्भूत यन्त्र विकृत हुआ नहीं। इसी गति के बिगाड़ का फल रोग और उसी का फल अन्त को मृत्यु है। जब यह बोलता चलता पार्थिव पुतला अचानक मौन साध बैठा, अर्थात् जीव ने शरीर से प्रस्थान किया, तो इसे ज्वाला की भेंट चढ़ायेंगे। उसका सारा सौन्दर्य तथा बल मुट्ठी भर भस्म होगा। फिर तो प्राण-वायु, वायु-तत्व में जा मिलेगा। मृत शरीर में भी वायु का प्रवाह तो होगा, परन्तु प्राण रूप में नहीं। तब उस शरीर से जीव का क्या सबन्ध?

उस समय जीव की अवस्था उस धनाढ्य की सी होगी, जिसने सारी आयु संसार में घूम-घूमकर वैभव इकट्ठा किया, एड़ी चोटी का बल लगाकर पूँजी कमाई, सारे घर को धन-धान्य से भर दिया, अकस्मात् एक दिन लकड़ी के ढेर में चिनगारी सुलगती रहने से भवन में आग लग गई। ईश्वर ने इतनी ही कृपा की कि कार्यवश गृह-स्वामी कुटुब सहित घर से बाहर था। लो। उन कपड़ों को आग लग रही है जो देश-विदेश के कारखानों से आये थे, कुसियाँ और मेजें ज्वाला के मुख में है। जिन दीवारों की सफेदी बिगड़ने के भय से माघ के शीत में आग न जलाते थे, आज ईंधन ने उन पर काला रोगन कर दिया। पुस्तकों का तो नाम ही न रहा। उनके पत्र तथा अक्षर सबने मसि का चोला स्वीकार किया है।

कड़। कड़।। कड़।।। शहतीर तथा कड़ियाँ गिर रही हैं जो सामग्री जलने की न थी, वह उनके दबाव में टूट गई। अब तो न बर्तन रहे, न भूषण, न कोई और नित्य निर्वाह की सामग्री। लाा का घर राख हो जाता है। पानी की गाड़ी आती है और गगनचुबी ज्वालाओं को बुझाती है। पर जो पदार्थ नष्ट हुए, उनको फिर कौन लौटा लाएगा?

नगर का एक प्रसिद्ध धनाढ्य पिस गया। आओ । हम भी आर्थिक सहायता न सही, मौखिक सहानुभूति तो प्रकट कर दें। हम मुख को कुछ शोकावृत-सा बना लेते हैं कि सहानुभूति हार्दिक प्रतीत हो। पर सेठजी की मुख कली वैसे ही प्रफुल्लित है, जैसी आग की आपत्ति से पूर्व थी। कहते हैं- ‘‘यह कोई मेरा बड़ा गोदाम न था। मेरा धन किसी विशेष स्थान में अथवा सामग्री के रूप में स्थित नहीं, किन्तु सारा व्यवसायों में लगा है। कपनियों में हिस्से हैं, अपने कार्यालय हैं, जिनसे स्थाई आय आती है। जो भवन जल गया, इसका भी बीमा करा दिया था। सो चिट्ठी भेजी है, रुपया आ जाएगा, फिर नया भवन बनवा लेंगे।’’

शरीर रूपी भवन को भस्म होते देखने वाले जीव। क्या मन की यही अवस्था है जो उक्त सेठ की थी? क्या तेरी शारीरिक सपत्ति भी व्यवसायगत है? क्या इससे तुझे स्थाई आय है? अर्थात् तेरी शारीरिक शक्तियों का प्रयोग ऐसा है, जिससे आत्मिक बल सदैव बढ़े? क्या इस शरीर के छूटने पर इससे अच्छा शरीर मिलेगा? या मरे पीछे तू मुक्तिधाम को प्राप्त हो जाएगा? यदि अब तक यह यत्न नहीं किया तो आ, अब करें।

आत्मिक बही की पड़ताल

किसी प्रकार की भी उन्नति करने से पूर्व आवश्यक है कि अपनी वर्तमान अवस्था का पूरा ज्ञान प्राप्त किया जाए।

व्यापारी दूसरे दिन की बिक्र ी उसी समय करता है, जब पहले दिन की बही मिला चुके अर्थात् आय व्यय की तुलना करके देख ले कि कितना बचा है? जिसको अपनी पूँजी का पता नहीं वह उसकी वृद्धि के उपाय क्यों कर करेगा?

प्रिय मुमुक्षु। तू पहले अपनी आत्मिक अवस्था पर दृष्टि डाल। वेद कहता है ‘‘कृतं स्मर’’ अर्थात् अपने किए की याद कर। क्या कहीं शिथिलता है? त्रुटियाँ हैं? आलस्य उनकी निवृत्ति में बाधक है। समाज का भय उठने नहीं देता? लज्जा के कारण निर्बल है? ले, इसका भी एक अचूक उपाय है। ‘‘क्लिबे स्मर’’ अर्थात् बल के  लिए स्मरण कर। किसका? अर्थात् उस पवित्र पतितपावन,बल के पुञ्ज सर्वशक्ति के आधार, धर्मस्वरूप, तेज के स्रोत प्राु परमात्मा का। बस यही तीन कार्य हैं,  जो तुझे प्रतिदिन करने हैं। (1) अपने आचरण पर ध्यान देना, (2) उसमें आई त्रुटियों को विचार गोचर रखना, और (3) सब बलों के भण्डार सर्वशक्तिमान् का स्मरण करना।

लोगों ने मृत्यु को भयानक समझा है। वास्तव में मृत्यु एक परिवर्तन है। मरते हुए पं. गुरुदत्त से लोगों ने पूछा- ‘‘आप प्रसन्न क्यों है?’’ कहा- ‘‘इस देह में दयानन्द न हो सके थे, इससे उत्तम देह पायँगे तो दयानन्द बनेंगे।’’ जो परिवर्तन उन्नति का द्वार हो उसका स्वागत खुले दिल से किया जाता है। जिससे पतन की सभावना हो उससे डरते हैं। मृत्यु शत्रु है तो उसे जीत। घबराने से और भीरु होगा।

शक्तिमान् के स्मरण से शक्ति

शंका हो सकती है कि परमात्मा के स्मरण-मात्र से ही शक्ति क्यों कर आएगी? यह बात जितनी गूढ़ है, उतनी आनन्दप्रद भी है। बच्चा नंगे सिर किसी गली में ोलता है। अपने विचारानुसार जिस बालक को अपने से अच्छा समझता है, उसका अनुकरण करने लगता है। वह लाल रंग का कुर्ता पहने है, तो इसे भी लाल रंग का कुरता चाहिए। बड़ा हुआ, पाठशाला गया। अपने सहपाठियों में से किसी को आदर्श विद्यार्थी जानकर उसका अनुकरण करता है। छोटी श्रेणियों के लिए बड़ी श्रेणियों के विद्यार्थी आचार व्यवहार में नेता हैं। बड़ों के लिए उनका अध्यापक। यह अवस्था मनुष्य के सपूर्ण जीवन में बनी रहती है। कहते हैं, मरते समय भी जैसे संकल्प होते हैं वैसी ही योनि आगे मिलती है। कथन का सार यह है कि मनुष्य बिना मानसिक आदर्श के नहीं रह सकता। कौन कह सकता है कि खयाली नेताओं के नित्यप्रति चिन्तन से बालक तथा मनुष्य की आत्मा को क्या लाभ अथवा हानि पहुँची? यह लोकोक्ति अक्षरशः सत्य है-

As a man thinketh, so he becometh अर्थात् जैसा मनुष्य सोचता है वैसा वह बन जाता है।

गर्भिणी माता के हृदय में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, वह गर्भ स्थित बच्चे के मानसिक जीवन का आधार बनते हैं। यदि मनन-शक्ति इतनी प्रभावशालिनी है, तो उस परमेश्वर के गुणों के स्मरण का लाभ जिसे नित्य, शुद्ध, बुद्ध, सर्वशक्तिमान् इत्यादि विशेषणों से युक्त कहा है, क्या-क्या चमत्कार न दिखाएगा? एडीसन की माता एडीसन को पेट में रखती हुई निरन्तर वैज्ञानिक यन्त्रों का ध्यान करती रही तो एडीसन संसारभर का बड़ा विज्ञानवेत्ता हुआ, और मंगलादि नक्षत्रों से विद्युत द्वारा वार्त्तालाप का सबन्ध स्थिर करने लगा। उपासक भी अपने हृदय-गर्भ में सर्व-शक्तिमान् का ध्यान धारण करे तो अवश्य उसका आत्मा अपूर्व-शक्ति को प्राप्त होगा। बलवान् का स्मरण करना वास्तव में बल के लिए अपनी आत्मा के किवाड़ खोलना है।

तो फिर आ। उन्नति के पिपासु। एक तो अपने नित्य-कृत्यों की पड़ताल किया कर। दूसरे, उस दुःखों के मोचनहार मुक्त स्वभाव को सदैव दृष्टिगोचर रख, जिसका स्मरण सर्वतः कल्याणप्रद है। उस मिट्टी के पौधे की भाँति जो नारंगी के साथ जोड़ा जाकर स्वयं नारंगी का वृक्ष बन जाता है, और ‘‘सग्ङतरे’’ के नाम से स्पष्टतया जताता है, कि मैं उत्तम सग्ङ तरे से तर गया हूँ, तू भी उस प्रियतम को अपनी दृष्टि का तारा बना और उसकी ज्योति में ज्योतिर्मय बन जा। फिर देख अन्धकार निकट भी फटकता है? हाँ,हाँ उस निस्संग के उत्तम संग से तर।

 

महर्षि दयानन्द का भारत के यथार्थ इतिहास पर महत्वपूर्ण उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) का सारा जीवन ईश्वर की खोज, मृत्यु पर विजय, योग, अध्ययन-अध्यापन, उपदेश, वेद-धर्म प्रचार, शास्त्रार्थ, समाज सुधार व अनुमानतः सन् 1857 के देश की आजादी के लिए संग्राम में गुप्त रूप से कार्य करने में व्यतीत हुआ था। महर्षि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे। वह जन्म से ही प्रतिभाशाली, सुदृण व स्वस्थ शरीर, गौर वर्ण, आकर्षक व्यक्तित्व वाले व सत्य के प्रति दृण आस्थावान थे। महर्षि दयानन्द जी की मातृभाषा गुजराती थी। उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया था और इस भाषा के वार्तालाप, प्रवचन-उपदेश करने व लेखन करने में उन्हें पूरा अधिकार व सिद्धहस्ताता प्राप्त थी। महाभारत काल के बाद देश के वेदों के वह शीर्षस्थ विद्वान थे। उनकी तुलना का वेदों का विद्वान महाभारत काल व उनसे पूर्व व अद्यावधि भी इतिहास के पन्नों पर अंकित नहीं है। वेद ही उनके जीवन का आधार था। उनके सभी कार्य वेदों से प्रेरित व संचालित थे। उन्होंने मध्याकालीन व बाद के ब्राह्मणों ने वेदों के जो मिथ्यार्थ कर उसे कलंकित किया था, उस कलंक को पूरी तरह धोकर शुद्ध व निर्मल स्वरूप प्रदान किया। आज स्थिति यह है कि वेदों की अन्तःसाक्षी के आधार पर कहा जा सकता है कि वेदों के समान कोई भी धर्म-मत-सम्प्रदाय का ग्रन्थ इस पृथिवी पर नहीं है। वेद सर्वोपरि हैं एवं सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना ही एकमात्र परम पुनीत मानव मात्र का यथार्थ धर्म है। वह जहां भी जाते थे, शुद्ध व सरल संस्कृत ही बोला करते थे। यद्यपि सभी विद्वान संस्कृत समझते थे परन्तु जब वह साधारण जनता में संस्कृत में उपदेश करते थे तो उन्हें संस्कृत से हिन्दी के अनुवादक की आवश्यकता होती थी। इस कार्य के लिए वह पौराणिक विद्वानों की सेवायें लेते थे जो स्वामी जी के कहे गये शब्दों को ही अनुवाद न कर उनके विचारों को अपनी मान्यताओं के अनुरूप तोड़ते मरोड़ते थे। अतः ब्रह्म समाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन के परामर्श पर उन्होंने आर्यभाषा हिन्दी का प्रयोग करना आरम्भ किया। इसके कुछ काल बाद उन्होंने अपना मुख्य दिव्य ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित कराया। यह ग्रन्थ उनके द्वारा पण्डितों को बोलकर लिखाया गया था। लेखन के लिए उनके पास ब्राह्मण लेखक थे जिन्होंने यत्र तत्र उनके बोले गये अभिप्राय के विरूद्ध अपनी मान्यताओं के वाक्यों को प्रविष्ट कर दिया। स्वामी जी के पास अवकाश न होने के कारण न तो वह इस ग्रन्थ को लिखवाने के बाद उन लेखकों से सुन पाये और न हि छपने से पूर्व प्रूफ देख पाये थे। इस कारण प्रकाशित होने के पश्चात पाठकों ने उन्हें कुछ अशुद्धियां अवगत कराई थी। इस मुख्य व अन्य कुछ कारणों से उन्होंने कुछ समय बाद इस ग्रन्थ का दूसरा शुद्ध संशोधित संस्करध्स भी तैयार कर प्रकाशित कराया जो आजकल सर्वत्र उपलब्ध होता है। प्रथम संस्करण को आदिम सत्यार्थ प्रकाश भी कहा जाता है। इसी प्रथम संस्करण से हम आज उनका एकादश समुल्लास में प्रस्तुत देश के प्राचीन यथार्थ इतिहास पर एक धर्मोदेश प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे पाठक इतिहास विषयक कुछ नये तथ्यों से न केवल परिचित हो सकें अपितु महर्षि के इतिहास विषयक ज्ञान व उनकी भाषा से भी कुछ कुछ परिचित हो सकें। इस लेख के शेष भाग आगे के लेखों में जारी रखेंगे।

 

उनका धर्मोपदेश प्रस्तुत है-सरस्वतीदृषद्वत्योदेवनद्योर्यदन्तरम्। तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते। (मनुस्मृति 2/17) सरस्वती जो कि गुजरात और पंजाब के पश्चिम भाग में नदी है, उससे लेके नैपाल के पूर्वभाग की नदी से लेके समुद्र तक इन दोनों के बीच में जो देश है, सो आर्यावर्त्त देश है और वे देवनदी कहाती है। अर्थात् दिव्य देश के प्रान्त भाग में होने से देव नदी इनका नाम है। सो देश देव निर्मित है अर्थात् दिव्य गुणों से रचित है, क्योंकि भूगोल के बीच में ऐसा श्रेष्ठ देश कोई नहीं है, जिस देश में सब श्रेष्ठ पदार्थ होते हैं और छः ऋतु यथावत् वर्तमान होते हैं और केवल सुवर्ण रत्न पैदा होते हैं। इस देश में जिसका राज्य होता है, वह दरिद्र होय तो भी धन से पूर्ण हो जाता हैै। इसी हेतु इसका नाम आर्यावर्त्त है, आर्य नाम श्रेष्ठ मनुष्य और श्रेष्ठ पदार्थ इनसे युक्त अर्थात् आर्यावर्त्त है। इस हेतु इस देश का नाम आर्यावर्त कहते हैं।

 

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

                        स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।। (मनुस्मृति 2/20)

 

इस देश में अग्रजन्मा नाम सब श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न जो पुरुष उत्पन्न होवें (उनका है), उससे सब भूगोल की पृथिवी के मनुष्य शिक्षा अर्थात् विद्या तथा संसार के सब व्यवहारों का यथावत् विज्ञान (प्राप्त) करें। इससे क्या जाना जाता है कि प्रथम इस (देश) में मनुष्यों की सृष्टि भई (हुई) थी। पीछे सब द्वीप-द्वीपान्तर में सब मनुष्य फैल गए, क्योंकि पृथिवी में जितने मनुष्य हैं, वे इस देश वालों से विद्यादिक शिक्षा ग्रहण करें और सब देश भाषाओं का मूल जो संस्कृत (है) सो आर्यावर्त्त ही में सदा से चला आता है। आजकाल भी कुछ-कुछ देखने में आता है, परन्तु फिर भी सब देशों में संस्कृत का प्रचार अधिक है। जर्मनी और विलायत आदिक देशों में संस्कृत के पुस्तक इतने नहीं मिलते जितने कि आर्यावत्र्त देश में मिलते हैं और जो किसी देश में संस्कृत के बहुत पुस्तक होंगे सो आर्यावर्त्त ही से लिए होंगे, इसमें कुछ सन्देह नहीं। सो इस देश से मिश्र देश वालों ने पहिले विद्या ग्रहण की थी। उससे यूनान देश, उससे रूम, फिर रूम से फिरंग (अंगे्रज) स्थान आदि में विद्या फैली है। परन्तु संस्कृत के बिगड़ने से गिरीश (ग्रीस), लाटीन, अंगरेज और अरब देश वालों की भाषा बन गई हैं। सो इनमें अधिक लिखना कुछ आवश्यक नहीं क्योंकि इतिहासों के पढ़ने वाले सब जानते हैं और पता भी ऐसा ही मिलता है। एक गोल्ड्स्टकर साहेब ने पहिले ऐसा ही निश्चय किया है कि जितनी विद्या वा मत फैले हैं, भूगोल में, वे सब आर्यावर्त्त ही से लिए हैं। और काशी में वालेण्टेन् साहेब ने यही निश्चय किया है कि संस्कृत सब भाषाओं की माता है। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यह निश्चय किया है कि जो विद्या है सो संस्कृत ही है क्योंकि मैंने सब देशों की भाषाओं का पुस्तक देखा तो भी मुझको बहुत सन्देह रह गए, परन्तु जब मैंने संस्कृत देखा तब मेरे सब सन्देह निवृत्त हो गए और अत्यन्त प्रसन्नता मुझको भई। और काशी में मान मन्दिर जो रचा है, उसमें महाराज सवाई मानसिंह जी ने खगोल के कला और यन्त्र ऐसे रचे थे कि जिस में खगोल का सब हाल देख पड़ता था। परन्तु आजकाल उसकी मरम्मत न होने से बहुत कला यन्त्र बिगड़ गए हैं तो भी कुछ-कुछ देख पड़ता है। फिर आजकाल महाराज सवाई रामसिंह जी ने कुछ मरम्मत स्थान की कराई है जो उस यन्त्र की भी करावेंगे तो कुछ रोज (काली तक) बना रहेगा, अन्यथा नहीं।

 

जबसे महाभारत युद्ध भया (हुआ) है उस दिन से आर्यावर्त्त को बुरी दशा आई है सो नित्य-नित्य बुरी ही दशा होती जाती है। क्योंकि उस युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वान् राजा और ब्राह्मण लोग प्रायः मारे गए। फिर कोई राजा पूर्ण विद्या वाला इस देश में नहीं भया। जब राजा, विद्वान् और धर्मात्मा नहीं भया, तब विद्या का प्रचार भी नष्ट होता चला (गया)। फिर कुछ दिन के पीछे आपस में लड़ने लगे, क्योंकि जब विद्या नहीं होती तब ऐसे ही बहुत प्रमाद होते हैं। जो कोई प्रबल भया, उसने निर्बल का राज छीन के उसको मारा। फिर प्रजा में भी गदर होने लगा कि जहां जिसने जितना पाया, उसका वह राजा वा जमींदार बन बैठा। फिर ब्राह्मण लोगों ने भी विद्या का परिश्रम छोड़ दिया। पढ़ना पढ़ाना भी नष्ट होता चला। जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन होते चले, तब क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी विद्याहीन होते चले, केवल दम्भ, कपट और छल ही से व्यवहार करने लगे। फिर जितने अच्छे काम होते थे वे सब बन्ध (बन्द) होते चले। वेदादिक विद्या का प्रचार भी बहुत थोड़ा होता चला गया।

 

फिर ब्राह्मण लोगों ने विचार किया कि आजीविका की रीति निकालनी चातिहए, सो सम्मति करके यही विचार किया कि ब्राह्मण वर्ण में जो उत्पन्न होता है सोई (वही) देव है, सबका पूज्य है, क्योंकि पूर्ण विद्या से ब्राह्मण वर्ण होता है। यह वर्णाश्रम की सनातनी रीति है, सोई ऋषि मुनियों के पुस्तकों में भी लिखी है। सो विद्यादिक गुणों से तो वर्ण व्यवस्था नहीं रक्खी, किन्तु कुल में जन्म होने से वर्ण व्यवस्था प्रसिद्ध कर दी है। फिर जन्म ही से ब्राह्मणादिक वर्णों का अभिमान करने लगे। फिर विद्यादिक गुणों में पुरुषार्थ सबका छूटा, उसके छूटने से प्रायः राजा और प्रजा में मूर्खता अधिक-अधिक होने लगी। फिर उन्हीं से ब्राह्मण लोग अपने चरण और शरीर की पूजा कराने लगे। जब पूजा होने लगी तब अत्यन्त अभिमान उनमें होने लगा। उन विद्याहीन राजाओं को और प्रजास्थ पुरुषों को (अपने) वशीभूत ब्राह्मणों ने कर लिए। यहां तक कि सोना, उठना और कोस दो कोस तक जाना, वह भी ब्राह्मणों की आज्ञा के विना नहीं करना और जो कोई करेगा सो पापी हो जायगा। फिर शनैश्चरादिक ग्रह और नाना प्रकार के भूत प्रेतादिकों का जाल उनके ऊपर फैलाने लगे और वे मूर्खता के होने से मानने भी लगे। फिर राजा लोगों को ऐसा निश्चय सब लोगों ने मिल के कराया कि ब्राह्मण लोग कुछ भी करें, परन्तु इनको दण्ड न देना चाहिए। जब दण्ड नहीं होने लगा, तब ब्राह्मण लेाग अत्यन्त प्रमाद करने लगे और क्षत्रियादिक भी। फिर बड़े-बड़े ऋषि मुनि और ब्रह्मादिक के नामों से श्लोक और ग्रन्थ रचने लगे, उनमें प्रायः यही बात लिखी कि ब्राह्मण सब का पूज्य और सदा अदण्ड्य है। फिर अत्यन्त प्रमाद और विषयासक्ति से विद्या, बल, बुद्धि पराक्रम और शूरवीरता नष्ट हो गई और परस्पर ईर्ष्या (में वृद्धि) अत्यन्त हो गई। किसी को कोई (सहानुभूतिपूर्वक) देख न सके और कोई कोई के (अन्य किसी के) सहायकारी न रहे, परस्पर लड़ने लगे। यह बात चीन आदिक देशों में रहने वाले जैनों ने सुनी और व्यापारादिक करने के हेतु (जो) इस देश में आते थे सो (उन्होंने) प्रत्यक्ष भी देखी। फिर जैनों ने विचार किया कि इस समय आर्यावर्त्त देश में राज्य सुगमता से हो सकता है फिर वे (चीन से?) आए और राज्य भी आर्यावत्र्त में करने लगे। फिर धीरे-धीरे बोधगया में राज्य जमाके और (उसे) देश-देशान्तर में फैलाने लगे। सो वेदादिक संस्कृत पुस्तकों की निन्दा करने लगे और अपने पुस्तकों के पठन पाठन का प्रचार तथा अपने मत का उपदेश भी करने लगे। सो इस देश में विद्या के नहीं होने से बहुत मनुष्यों ने उनके मत को स्वीकार कर लिया। परन्तु कन्नौज, काशी, पर्वत, दक्षिण और पश्चिम देश के पुरुषों ने स्वीकार नहीं किया था, परन्तु वे बहुत थोड़े ही थे। फिर इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था और वेदोक्त, कर्मों को मिथ्या-मिथ्या दोष लगा के अश्रद्धा और अप्रवृति बहुत करा दी। फिर यज्ञोपवीतादिक कर्म भी प्रायः नष्ट हो गया और जो-जो वेदादिकों का पुस्तक पाया और पूर्व के इतिहासों का, उनका प्रायः नाश कर दिया। जिससे कि इनको पूर्व अवस्था का स्मरण भी न रहे।

 

फिर जैनों का राज्य इस देश में अत्यन्त जम गया। तब जैन भी बड़े अभिमान में हो गए और कुकर्म, अन्याय भी करने लगे, क्योंकि सब राजा और प्रजा उनके मत में ही हो गए, फिर उनको डर वा शंका किसी की न रही। अपने मतवालों को अच्छे-अच्छे अधिकार और प्रतिष्ठा करने लगे और वेदादिकों को पढ़े तथा उनमें कहे कर्मों को करें, उनकी अप्रतिष्ठा करने लगे। अन्याय से भी उनके ऊपर जाल (मिथ्या आरोप) स्थापन करने लगे। अपने मत के पण्डित वा साधु की बड़ी प्रतिष्ठा करने लगे, सो आज तक भी ऐसा करते हैं। और बहुत स्थान-स्थान में बड़े-बड़े मन्दिर रच लिए और उनमें अपने आचार्यों की मूर्ति स्थापन कर दी तथा उनकी पूजा भी अत्यन्त करने लगे। सो जैनों के राज्य ही से मूर्ति पूजन चला, इसके आगे (पूर्व) न था। क्योंकि जितने ऋषि मुनियों के किए प्राचीन ग्रन्थ हैं, महाभारत युद्ध के पहिले जो कि रचे गए हैं, उनमें मूर्तिपूजन का लेशमात्र भी कथन नहीं है। इससे दृढ़ निश्चय से जाना जाता है इस आर्यावर्त्त देश में (इनसे पूर्व) मर्तिपूजन नहीं था, किन्तु जैनों के राज्य से ही चला (मूर्तिपूजा की प्रवृत्ति हुई) है।

 

आज के इस लेख में महर्षि दयानन्द ने इतिहास के अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है जो अन्यत्र असुलभ है। मातृ भाषा गुजराती व संस्कृत के विद्वान होने तथा सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम संस्करण लिखने तक हिन्दी भाषा का अभ्यास न होने के कारण भाषा वर्तमान की अपेक्षा कुछ असहज है। पाठक इसे पढ़कर इतिहास के तथ्यों से परिचित होंगे। इसी प्रकार के अनेक तथ्यों से हम कल के लेख में परिचय करायेंगे। आशा है पाठकों का इससे ज्ञानवर्धन होगा और वह इसे सत्य व उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘मैं और मेरा धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य।

मैं कौन हूं और मेरा धर्म क्या है? इस विषय पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मैं एक मुनष्य हूं और मनुष्यता ही मेरा धर्म है। मनुष्य और मनुष्यता पर विचार करें तो हम, मैं कौन हूं व मेरे धर्म मनुष्यता का परिचय  जान सकते हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं। मनुष्य मननशील होने स्वात्मवत दूसरों के सुखदुःख हानि लाभ को समझने के कारण ही मनुष्य कहलाता है। यदि हम मनुष्य होकर मनन न करें तो हम मनुष्य नहीं अपितु पशु समान ही होंगे क्योंकि पशुओं के पास मनन करने वाली बुद्धि नहीं है। वह कुछ भी कर लें किन्तु मनन, विचार, चिन्तन, सत्य व असत्य का विश्लेषण आदि नहीं कर सकते। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि मनन किससे होता है और मनन की प्रेरणा कौन करता है? इसका उत्तर यह है कि हमारे शरीर में मस्तिष्कान्तर्गत बुद्धि तत्व, इन्द्रिय नहीं अपितु इनसे मिलता जुलता एक अलग उपकरण वा अवयव है, जो सत्य व असत्य, उचित व अनुचित का चिन्तन व विचार करता है, इसी को मनन करना कहते हैं। बुद्धि नामक यह उपकरण जड़ सूक्ष्म प्रकृति तत्व की विकृति है। यह मैं व हम से भिन्न सत्ता है। मैं व हम एक चेतन, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अल्प-परिणाम, अनादि, अजन्मा, अमर, नित्य, अजर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि से जलता नहीं, जल से भीगता नहीं, वायु से सूखता नहीं, कर्म-फल चक्र में बन्धा हुआ, सुख-दुःखों का भोगता, जन्म-मरणधर्मा व वैदिक कर्मों को कर मोक्ष को प्राप्त करने वाली सत्ता हैं। मुझे यह जन्म इस संसार में व्यापक, जिसे सर्वव्यापक कहते हैं तथा जो सच्चिदानन्दस्वरूप है, उसके द्वारा मेरा जन्म अर्थात् मुझे इस मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई है। यह शरीर मुझसे भिन्न मेरा अपना है और मेरे नियन्त्रण में होता है। मुझे कर्म करने की स्वतन्त्रता है परन्तु उनके जो फल हैं, उन्हें भोगने में मैं परतन्त्र हूं। मेरे शरीर की सभी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेंन्द्रियां, मन, बुद्धि आदि अवयव व तत्व मेरे अपने हैं व मेरे अधीन अथवा नियन्त्रण में है। मेरी अर्थात् आत्मा की प्रेरणा पर हमारी बुद्धि विचार, चिन्तन व मनन करती है। यदि हम कोई भी निर्णय बिना सत्य व असत्य को विचार कर करते हैं और उसमें बुद्धि का प्रयोग नहीं करते तो यह कहा जाता है कि यह मनुष्य नहीं गधे के समान है। गधा भी विचार किये बिना अपनी प्रकृति व ईश्वर प्रदत्त बुद्धि जो चिन्तन मनन नहीं कर सकती, कार्य करता है। जब हम बुद्धि की सहायता से मनन करके कार्य करते हैं तो सफलता मिलने पर हमें प्रसन्नता होती है और यह हमारे लिए सुखद अनुभव होता है। इसी प्रकार से जब मनन करने पर भी हमारा अच्छा प्रयोजन सिद्ध न हो तो हमें अपने मनन में कहीं त्रुटि वा कमी अनुभव होती है। पश्चात और अधिक चिन्तन व मनन करके हम अपनी कमी का सुधार करते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। सफलता मिलने में हमारे प्रारब्ध की भी भूमिका होती है परन्तु इसका ज्ञान परमात्मा को ही होता है। हम तो केवल आचार्यों से अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त कर अपनी बुद्धि की क्षमता को बढ़ा सकते हैं और उसका प्रयोग कर सत्यासत्य का विचार व सही निर्णय कर सकते हैं।

 

जन्म के बाद जब हम 5 से 8 वर्ष की अवस्था में होते हैं तो माता-पिता हमें आचार्यों के पास विद्या प्राप्ति के लिये भेजते हैं। आचार्य का कार्य हमारे बुरे संस्कारों को हटा कर श्रेष्ठ व उत्तम संस्कारों व गुणों का हमारी आत्मा में स्थापित करना होता है। आचार्य के साथ हमें स्वयं भी वेदाध्ययन व अन्य सत्साहित्य का अध्ययन कर व अपने विचार मन्थन से श्रेष्ठ गुणों को जानकर उसे अपने जीवन का अंग बनाना होता है। श्रेष्ठ गुणों को जानना, उसे अपने जीवन में मन, वचन कर्म सहित धारण करना और आचरण में केवल श्रेष्ठ गुणों का ही आचरण व्यवहार करना धर्म कहलता है। धर्म को सरल शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सत्य का आचरण ही धर्म है। सत्य का आचरण करने से पूर्व हमें सत्य की पहचान करने के साथ सत्य के महत्व को जानकर लोभ व काम-क्रोध को अपने वश में भी करना होता है। आजकल देखा जा रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अपने हित, स्वार्थ व अविद्या के कारण लोभ व स्वार्थों के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार, दुराचार, अनाचार, कदाचार, दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार जैसे अनुचित व अधर्म के कार्य कर लेते हैं। यह श्रेष्ठ गुणों के विपरीत होने के कारण अधर्म की श्रेणी में आता है। कोई किसी भी मत को मानता है परन्तु प्रायः सभी मतों के लोग इस लोभ के प्रति वशीभूत होकर, अनेक धर्माचार्य भी, अमानवीय व उत्तम गुणों के विपरीत कार्यों को कर अधर्मी व पापी बन जाते हैं। यह कार्य हमारा व किसी का भी धर्म नहीं हो सकता। मत और धर्म में अन्तर यही है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म तो एक ही है और वह सदगुणों को धारण करना व उनका आचरण करना ही है। इसमें ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना, प्राण वायु-स्वात्मा की शुद्धि व परोपकार के लिए अग्निहोत्र यज्ञ नियमित करना, माता-पिता-आचार्यों व विद्वान अतिथियों का सेवा सत्कार तथा सभी पशु-पक्षियों व प्राणियों के प्रति अंहिसा व दया का भाव रखना ही श्रेष्ठ गुणों के अन्तर्गत आने से मननशील मनुष्य का धर्म सिद्ध होता है। यह सभी कार्य सभी मनुष्यों के लिए करणीय होने से धर्म हैं। आजकल जो मत-मतान्तर चल रहे हैं वह धर्म नहीं है। उनमें धर्म का आभास मात्र होता है परन्तु वह मनुष्यता के लिए न्यूनाधिक हानिकर हैं। यह लोग अपने-अपने मत के स्वार्थ के लिए नाना प्रकार की अमानवीय योजनायें बनाते व उन्हें गुप्त रूप से क्रियान्वित करते हैं जिससे समाज में वैमनस्य उत्पन्न होता है। मनुष्य मत-मतान्तरों में बंट कर एक दूसरे के विरोघी बनते हैं जैसा कि आजकल देखने को मिलता है। इसके साथ सभी मतों के अनुयायी भी ईश्वर की सच्ची उपासना, वेद प्रवर्तित ज्ञानयुक्त कार्यों को न करने और श्रेष्ठ गुणों को धारण कर उनका आचरण न करने से जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष से वंचित हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने मत-मतान्तरों में निहित अमानवीय व अधर्म विषयक प्रवृत्तियों का संकेत किया था परन्तु अज्ञान, स्वार्थ व अहंकारवश लोगों ने उनकी विश्व का कल्याण करने वाली मान्यताओं की उपेक्षा की जिसका परिणाम यह हुआ कि हम लोग श्रेष्ठ गुणों को धारण कर जीवन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लक्ष्य से दूर हैं और विश्व की लगभग 7 अरब की जनसंख्या में से शायद कोई एक भी उसे कोई पूरा करता होगा?

 

हम लेख का अधिक विस्तार न कर संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि हम सब मनुष्य व प्राणी एक जीवात्मा हैं और ईश्वर हमारे पूर्व कर्मानुसार हमारा अर्थात् हमारे शरीरों का जन्म दाता है। मनुष्य जन्म मिलने पर सभी को श्रेष्ठ व उत्तम सत्य गुणों को धारण करना चाहिये। इनका आचरण ही धर्म होता हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा सत्य मनुष्य धर्म व सभी विद्याओं का पुस्तक है। वेदाध्ययन करना और उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना ही मनुष्य धर्म वा वैदिक धर्म है। वेद संस्कृत में हैं अतः संस्कृत न जानने वाले लोगों को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द व अन्य वैदिक विद्वानों के वेदभाष्यों व ऋषि मुनियों के अन्य ग्रन्थों शुद्ध मनुस्मृति, ज्योतिष, दर्शन व उपनिषदों का आत्मा की ज्ञानवृद्धि के लिए अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हमें, मैं व स्व का परिचय प्राप्त होने के साथ अपने कर्तव्य व धर्म का निर्धारण करने में सहायता मिलेगी। मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य भ्रान्तियों से ग्रसित होता है अथवा ऐसा मनुष्य बनता है जिसमें आत्मा व बुद्धि होने पर भी वह सर्वथा इनसे अपरिचित होता हुंआ मत-मतान्तरों की सत्यासत्य मान्यताओं में फंसा रहता है। ऐसा मनुष्य लगता है कि केवल खाने-पीने व सुख सुविधायें भोगने के लिए ही जन्मा है। खाना पीना व सुविधायें भोगना मनुष्य जीवन नहीं अपितु इससे ऊपर उठकर सद्ज्ञान प्राप्त कर उससे अपना व दूसरे लोगों का कल्याण करना ही मानव धर्म है। हम आशा करते हैं कि इससे मैं व यथार्थ धर्म का कुछ परिचय पाठकों को प्राप्त होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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