स्तुता मया वरदा वेदमाता-18

मन्त्र के प्रथम पद में घर में रहने वाले सदस्यों के मध्य भोजन अन्नपान आदि की व्यवस्था सन्तोषजनक होने की बात की है। घर के सभी सदस्यों को उनकी आवश्यकता, वय, परिस्थिति के अनुसार पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। घर में भोजन के शिष्टाचार में बच्चे, बूढ़े, रोगी और महिलाओं के बाद पुरुषों का अधिकार आता है। असुविधा दो कारणों से उत्पन्न हो सकती है- प्रथम आलस्य, प्रमाद, पक्षपात से तथा दूसरी ओर अभाव से। इसके लिये उत्पादन से वितरण तक अन्न की प्रचुरता का शास्त्र उपदेश करता है।

वेद में अन्न को सब धनों से बड़ा धन बताया है। विवाह संस्कार के समय अयातान होम की आहुतियाँ देते हुए मन्त्र पढ़ा जाता है- अन्नं साम्राज्यानां अधिपति- संसार में, जीवन में किसी वस्तु का सबसे अधिक महत्त्व है तो वह अन्न है। वेद ने अन्न को साम्राज्यानां अधिपति कहा है। अन्न संसार में राजा से भी बड़ा है। यदि राज्य में अकालादि के कारण अन्न का अभाव हो जाये तो राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। अन्न नहीं तो मनुष्य नहीं, मनुष्य नहीं तो समाज नहीं फिर देश और राष्ट्र की बात ही कहाँ से आती? इसलिये प्राण को बचाने का आधार होने से अन्न को ही प्राण कहा गया है- अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः।

अन्न की मात्रा की चर्चा करते हुए हर प्रकार से सभी प्रकार के अन्नों को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करने का विधान किया गया है। शास्त्र कहता है- अन्नं बहु कुर्वीत– अन्न को बहुत उत्पन्न करना चाहिए। प्राकृतिक रूप से स्वयं उत्पन्न अन्न जंगली प्राणी, तपस्वी साधकों के लिये होते हैं। नगर, ग्रामवासियों को तो अन्न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करना पड़ता है। अन्न उत्पन्न करने की पद्धति वेद से प्रतिपादित है। अन्न को उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि कहा गया है। अन्न एवं उससे सबन्धित सामग्री का उत्पादक कृषिवलः या कृषक होता है। वेद समस्त मनुष्यों को उपदेश देता है- कृषिमित् कृषस्व, हे मनुष्य तू खेती कर, इसी में पशुओं की प्राप्ति है। इसी से धन की प्राप्ति है। जब वर्षा न होने से अन्नादि की उत्पति न्यून होती है, तब संसार के सारे व्यवसाय स्वयं नीचे आ जाते हैं। समस्त साधनों, सुख-सुविधाओं का मूल खेती है, अतः जो देश समाज सुखी होना चाहते हैं, उन्हें अपनी खेती को गुणकारी और समुन्नत बनाना चाहिए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कृषि के महत्त्व को देखकर लिखा है कि किसान राजाओं का राजा है। संसार के जीवन का आधार अन्न है और अन्न का आधार किसान है।

संसार में मनुष्य को जीवनयापन के साधनों का संग्रह करना पड़ता है, साधनों के लिए धन प्राप्ति हेतु नाना व्यवसाय करने होते हैं। संसार में हजारों व्यवसाय हैं, परन्तु सभी व्यवसाय गौण हैं। समाज में दो ही व्यवसाय मुय हैं– एक खेती और दूसरा है शिक्षा। एक से शरीर जीवित रहता है, बलवान बनता है, दूसरे से आत्मा सुसंस्कृत होती है। अन्य सभी व्यवसाय तो इन दो से जुड़े हुए हैं।

अन्न को उत्पन्न करने के साथ उसे नष्ट न करने या उसका दुरुपयोग रोकने के लिये भी कहा गया है। कभी अन्न की निन्दा न करने के लिये कहा है, इसीलिये भारतीय संस्कृति में अन्न को देवता कहा गया है। अन्न को जूठा छोड़ने या बर्बाद करने को पाप कहा गया है। हम भोजन कराने वाले को अन्नदाता कहते हैं। अन्न को बुरी दृष्टि से न देखें। अन्न के उत्पादन, सुरक्षा एवं सदुपयोग को मनुष्य के जीवन का अङ्ग बताया गया है। इस प्रवृत्ति के रहते ही मनुष्य अन्न का इच्छानुसार पर्याप्त मात्रा में उपभोग कर सकता है। किसी के प्रेम को प्राप्त करने के उपाय के रूप में प्रेम से भोजन कराने का निर्देश है। स्वामी दयानन्द ने कहा है- भोजन प्राणिमात्र का अधिकार है। हर भूखा प्राणी भोजन का अधिकार रखता है।

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