ओउम
चिंत, मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |
डा. अशोक आर्य
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देवता पुरुषार्थी के सहायक
ओउम
देवता पुरुषार्थी के सहायक .. अथर्वेद २०.१८.३
डा.अशोक आर्य
विशव का प्रत्येक प्राणी आनंदमय रहना चाहता है , सुखी रहना चाहता है | प्रत्येक व्यक्ति विशव में ख्याति चाहता है | यह सब पाने के लिए अत्यधिक मेहनत कि आवश्यकता होती है , पुरुषार्थ कि आवश्यकता होती है,जिससे बच्जाने का वह प्रयास करता है |इलाता उसे ही है जो मेहनत करता है | बिना प्रयास किये कुछ किस्से मिल सकता है | इस तथ्य को अथर्ववेद में इस प्रकार बताया गया है : –
इच्छन्ति देवा: सुन्वनतम न स्वप्राया न स्प्रिहंती |
यन्ति प्रमादामातान्द्रा: || अथर्ववेद २०.१८.३ ||
देवता यज्ञकर्ता या कर्मठ को चाहते हैं , आलसी को नहीं चाहते हैं | पुरुषार्थी व्यक्ति ही श्रेष्ठ आनंद को प्राप्त करते हैं | :-
पुरुषार्थ मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है | जो पुरुषार्थी है , उसकी सहायता परमात्मा करता है | देवता भी पुरुशारथी को ही चाहते हैं | संसार भी पुरुषार्थी को ही चाहता है | जिस पुरुषार्थी को सब चाहते हैं, वह पुरुषार्थ वास्तव में है क्या ? जब तक हम पुरुषार्थ शब्द को नहीं जान लेते तब तक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं कह सकते | अत: आओ पहले हम जानें की वास्तव में पुरुषार्थ से क्या अभीप्राय है :=
पुरुषार्थ से अभिप्राय से :-
पुरुषार्थ से अभिप्राय है मेहनत | जो व्यक्ति चिंतन करता है , मनन करता है, एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करता है , प्रयास करता है , वह व्यक्ति पुरुषार्थी होता है | इससे स्पष्ट होता है कि मेहनत करने वाला पुरुषार्थी है | जो किसी विषय पर मनन, चिंतन कर उसे भली प्रकार समझ कर उसे पाने का यत्न करता है वह पुरुषार्थी है | अत: हम कह सकते हैं की पुरुषार्थ से भाव मेहनत करने से है, यत्न करने से है , एक निर्शारित उद्देश्य को पाने के लिए जो भी यत्न किया जाता है , उसे पुरुषार्थ कहते हैं |
पुरुषार्थ के इस इतने उच्चकोटि के भाव से पुरुषार्थ का महत्व भी स्पष्ट हो जाता है | मेहनती व्यक्ति को पुरुषार्थी कहा गया है | जो अपाने लक्ष्य को पान्ने के लिए न्हारपुर यत्न करता है , उसे पुरुषार्थी कहा गया है | उसका उद्देश्य चाहे धन प्राप्ति का हो ,छह शारीर के गठन का, शिक्षा प्राप्ति का हो चाहे प्रभु प्राप्ति का | किसी भी क्षेत्र में वह उपलब्धियां पाना चाहता हो तथा इन उपलब्धियों को पाने के लिए जब वह सच्चे मन से यत्न करता है तो उसे पुरुषार्थी कहते हैं , मेहनती कहते हैं, लहं शील कहते हैं |
इस प्रकार का मेहनती व्यक्ति जब अपनी मेहनत के फलसवरूप कुछ उ[अलाब्धियाँ पा लेता है तो उसका अपना मन तो प्रफुल्लित होता ही है साथ में उसक्द परिजनों को भी अपार ख़ुशी प्राप्त होती है | ऐसे क्यक्ति को देवता ही नहीं प्रभु भी पसंद करते हैं | जिस व्यक्ति को परमात्मा का आशीर्वाद मिला जाता है, उस कि ख्याति समग्र संसार में फ़ैल जाती है | सब और उसकी चर्चा होने लगाती है, जिस से उसका ही नहीं उसके परिवार कि यश व कीर्ति भी दूर दूर तक चली जाती है | इस प्रकार वह अपने परिवार का नाम उंचा करने का कारण बनाता है |
जो पुरुषार्थ नहीं करता. उसे निष्क्रिय कहते हैं , उसे कर्महीन कहते हैं ,उसे आलसी कहते हैं, उसे अकर्मण्य कहते हैं | जो कुछ काम ही नहीं करता, उसे उपलब्धियां कहाँ से मिलेंगी ? , उसे ख्याति कहाँ से मिलेंगी , उसे यश कहाँ से मिलेगा ? उसकी कीर्ति कैसे फ़ैल सकती है ? उसकी कहीं भी पहचान कैसे बन सकती है ? अर्थात निष्क्रिय व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता | न तो इस संसार में तथा न ही देवताओं में और न ही ईश्वरीय शक्तियों में उसे कोई पसंद करता है | वह पशुओं कि भाँती इस संसार में आता है , खाता है तथा कीड़े मकोड़ों कि भाँती इस संसार से चला जाता है | न तो जीवन काल में ही उसे कोई चाहने वाला होता है तथा न ही जीवन के पश्चात भी |
अत: आलसी व कर्म हिन् व्यक्ति को कहीं भी भी सन्मान नहीं मिलता | वह अपने लिए भी भार है और परिवार के लिए भी | जिसे परिजन ही पसंद नहीं करेंगे , उसे अन्य क्या चाहेंगे | इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि देवता पुरुशरथी को ही चाहते हैं | संस्कृत के एक सुभाषित में भी इस तथ्य का ही अनुमोदन करते हुए इस प्रकार कहा है :-
” उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: |
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवा : सहायकृत ||
अर्थात उद्यम ,साहस, धैर्य , बुद्धि, शक्ति और पुरुषार्थ से गुण जहाँ रहते हैं , वहां परमात्मा भी सहायता करता है | पुरुषार्थी ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं | वे संसार का कल्याण करते हैं और संसार उनका गुणगान करता है | पुरुषार्थ , आलस्य का त्याग तथा निरंतर अपने कर्तव्य में तत्पर रहना समृद्धि का मूल है , सफलता का रहस्य है | पुरुषार्थ और स्वावलंबन का महत्त्व बताते हुए अंग्रेजी में कहा गया है :-
” GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES. ”
परमात्मा उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं | जो अपने सामने पड़ी थाली में परोसे भोजन को स्वयं अपने हाथ से उठा कर अपने ही मुंह में नहीं डालते तो उन्हें भोजन कारने कौन आवेगा ? उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अत: प्रभु का आशीर्वाद पाने के लिए हमें अपनी सहायता स्वयं करनी होगी | स्पष्ट है कि यहाँ भी पुरुषार्थ करने कि ही प्रेरणा कि गयी है |
मन्त्र के आरम्भ में ही इस सत्य को कहा गया है कि देवता पुरुषार्थी को ही चाहते हैं, मेहनत करने वालों को ही चाहते हैं, जिनका जीवन यज्ञमय होता है, उसे ही चाहते हैं अकर्मण्य अथवा आलसी को नहीं | अत: हे मानव ! यदि तुन देवताओं को प्रसन्न रखते हुए प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहता हे , धनधान्य का स्वामी बन यश व कीर्ति को पाना चाहता है तो पुरुशारती बन |
डा.अशोक आर्य
हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों
ओउम
हमारे सैनिक सब से श्रेष्ठ हों
डा. अशोक आर्य
विशव में वही विजयी होते हैं ,जिनके पास अपार मनोबल हो ,जिससे वह असाध्य कार्य को भी बड़ी सरलता से कर सकें | विशव में वही सेनायें विजयी होती हैं , जिनके पासा अत्याधुनिक शस्त्र हों तथा विश्व में वही लोगविजयी होते हैं , वही देश विजयी होते हैं, वही सेनायें विजयी होती हैं, जिनके पास देवीय कृपा हो , देवताओं का आशीर्वाद हो | जिन देशों, जिन सेनाओं का मनोबल गिरा हुआ है , मायूस से हैं , उनको कभी विजय नहीं मिल सकती , जिस देश की सेनाओं के पास अत्याधुनिक तकनीक के शास्त्र नहीं हैं ,वह सेनायें भी युद्ध क्षेत्र में सदा भयभीत सी रहती हैं , उनका मनोबल गिरा सा होता है, इस कारण ऐसी सेनायें तो निराश सी, हताश सी हो कर युद्ध क्षेत्र में उतरती हैं , ऐसी सेनायें विजेता नहीं हो सकतीं तथा कर्म हीन सेनाओं के साथ देवता भी नहीं होते, इस कारण उन्हें देवताओं का आशीर्वाद भी नहीं होता, अत: वह भी विजयी नहीं होती | वेदों में ऐसे अनेक मन्त्र दिए हैं , जो हमें विजयी होने के साधन बताते हैं | जिन मन्त्रों के बताये मार्ग पर चलने से विजय निश्चित होती है | इस लिए विजयी होने के इच्छुक सैनिकों को वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए तथा वेद में बताये विजय के उपायों को अवश्य ही अपनाना चाहिए | ऋग्वेद मन्त्र संख्या १०.१०३.११, अथर्व वेद मन्त्र संख्या १९.१३.११ यजुर्वेद मन्त्र संख्या १७.३ में विजय प्राप्त करने के बड़े सुन्दर साधन बताये गए हैं | मन्त्र इस प्रकार है : –
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्तु –
अस्मां उ देवा अवता हवेषु अस्माकं इंद्र; सम्रितेशु ध्वजेशु –
अस्माकं या इश्वस्ता | जयन्तु || ऋग.१०.१०३.११,अथर्व.१९.१३.११ ,यजु. १७.४३ ||
शब्दार्थ : –
(द्वजेषु) शत्रु सेनाओं के ध्वजों के (सम्रितेशु) एकत्र होने पर (इंद ) परमात्मा (अस्माकं रक्षिता भवतु) हमारा रक्षक हो (अस्माकं ) हमारे (या) जो (इशवा) बाण हैं ( ता:) वे (जयन्तु) विजयी हों (अस्माकं) हमारे (वीरा) वीर (उत्तरे) विजयी (भवन्तु) हों (उ) और (हे देवा:) हे देवो ! (हवेषु) आह्वान पर अथवा संग्रामों मैं (आस्मां) हमे (आवत:) रक्षा करो |
भावार्थ : –
शत्रु सेनाओं के ध्वजों के उद्यत होने पर परमात्मा हमारा रक्षक हो | हमारे बाण विजयी हों | हमारी सेनायें (वीर) सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों | हे देवो ! हमारी पुकार पर तुम युद्धों में हमारी रक्षा करो |
इस मन्त्र में युद्ध सम्बन्धी तीन बातों की और ध्यान आकृष्ट किया गया है | ये तीन वातें हैं :-
(१)हमारी सेना के बाण ( शस्त्र ) शक्तिशाली, आधुनिक प्राद्योगिकी से भरपूर तथा विजेता हों :-
मन्त्र हमारा मार्ग दर्शन करते हुए बताता है कि हमारी सेनायें उच्चकोटि के शस्त्रों से सुसज्जित हो | आज शस्त्र प्रणाली विश्व में अति उत्तम, अति विकसित हो गयी है | वह समय गया, जब हम तीर, तलवार, गदा, लाठी, भाले या मुक्कों से युद्ध करते थे | युद्ध करते करते महीनों ही नहीं वर्षों बिताने पर भी कोई परिणाम सामने नहीं आता था | आज विज्ञान ने प्रत्येक क्षेत्र में क्रान्ति ला दी है | यही कारण है कि विश्व में अत्याधूनिक तकनीक के स्वामी अमरीका जैसे देश नहीं चाहते कि विश्व का कोई देश उनके समकक्ष बनकर उसे चुनौती दे , इसलिए उन्होंने युद्ध सामग्री की नवीनतम तकनीक पर एकाधिकार स्थापित रखने के लिए एक संगठन बना रखा है तथा एसा प्रयास करते रहते हैं कि कोई भी देश इस प्रकार के कार्य को अपने हाथ में न ले, यदि कोई इस पर कार्य करता है तो उसे परेशान करते हैं, ताकि वह इस कार्य से अपना हाथ हटा ले | इस बात को ही इस मन्त्र ने स्पष्ट किया है कि हमारी सेनाओं के पास उच्च तकनीक के नवीनतम शस्त्र हों | जिस सेना के पास जितने उच्च तकनीक के अत्याधुनिक शस्त्र होंगे ,वह उतनी ही सरलता से शत्रु को विजय करने का सामर्थ्य रखती है | अत: उच्च तकनीक से युक्त शस्त्रों से सुसज्जित सेनायें शत्रु पर शीघ्र ही विजयी होंगी | इस के लिए न केवल उच्चकोटि के शस्त्र ही चाहियें अपितु उन शस्त्रों को प्रयोग करने की तकनीक का भी महीन ज्ञान हमारे सैनिकों को होना आवश्यक है | अन्यथा उत्तम शस्त्र होने के पश्चात भी विजय हाथ नहीं लगेगी | कोई व्यक्ति हाथ में बन्दूक लिए है किन्तु उसे चलाना नहीं जानता तो वह उस बन्दुक का क्या करेगा ? जब कोई गुंडा उसे परेशान करेगा तो वह कैसे उसका प्रतिशोध लेगा | हो सकता है कि सामने का निहत्था व्यक्ति उसकी ही बन्दुक छीन कर उस पर उसी से ही गोली दाग दे | इससे स्पष्ट होता है कि विजय पाने के लिए अच्छे शस्त्रों के साथ ही साथ उनके प्रयोक्ता भी अच्छे ही होने चाहियें | विजय इन दोनों बातों पर ही निर्भर कराती है |
(२)युद्ध में हमारे वीर ( सैनिक सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हों : –
जिस देश के पास सैनिक सर्वोत्तम हैं , युद्ध भूमि में विजय उस देश को ही मिलती है | इन पंक्तियों से वेद मन्त्र ने हमारे वीर सैनिकों के लिए यह शिक्षा दी है कि वह युद्धभूमि में सर्वश्रेष्ठ हों | अब हम विचार करते हैं कि सर्वश्रेष्ठ कौन हो सकता | सेना में वह सेना ही सर्वश्रेष्ठ होती है , जिस की सैन्य शिक्षा अति उत्तम हो | अनुशासन भी सेना कीविजय का मुख्य आधार है | अनुशासन ही सेना की योग्यता का आधार है | यही सैनिक की योग्यता की कसौटी है | विश्व इस बात का साक्षी है कि जिस सेना में अनुशासन है वह सेना ही विजयी होती है | यदि सेना में अनुशासन नहीं है, अपने नेता का अनुगमन नहीं करती, सब सैनिक अपना अपना राग अलाप रहे हैं तो शत्रु के लिए विजय का मार्ग स्वयमेव ही प्रशस्त हो जाता है | अत: अनुशासन रहित सेना उत्तम शास्त्र रखते हुए भी विजय नहीं प्राप्त कर सकती | अत: विजय की कामना की पूर्ति के लिए सेना की सर्वश्रेष्ठता के लिए उस का उत्तम प्रशिक्षण तथा उसका अनुशासन बद्ध होना भी आवश्यक है |
(३)हमारे ऊपर देवों की ( प्रभु की) कृपा हो :-
परमपिता परमात्मा सदा उसके ही साथ रहता है , जो सत्य व न्याय के लिए कार्य करता है| जब एक सैनिक निष्पक्ष हो कर सत्य व न्याय का ध्यान रखते हुए युद्ध क्षेत्र में उतरता है तो परमपिता परमात्मा उसकेकरी में उसका सहायक होता है | उसके कार्य को सम्पन्न करने में उसका सहयोगी होता है | अन्यायी व असत्य पथ पर चलने वाले की परमात्मा भी कभी सहायक नहीं होता | तभी तो योगिराज क्रिशन ने कहा था की जहाँ धर्म है, में उसका ही साथ दूंगा क्योंकि जिधर धर्म होता है, विजय उधर ही होती है | इस तथ्य का आधार भी यह वेद मन्त्र ही है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह भी आवश्यक है की वह न्याय का साथ कभी न छोड़े तथा धर्म का आचरण करे | एसा करने पर वह निश्चय ही अपने आश्रयदाता को विजय दिलवाने में सफल होगा | विदुरनीति में भी इस तथ्य पर ही प्रकाश किया है | विदुर जी लिखते हैं कि : –
यतो धर्मस्ततो जय: | विदुरनीति ७.९
अर्थात जहाँ धर्म है , वहां विजय है | अत: विजय के अभिलाषी सैनिक के लिए यह आवश्यक है कि उसके पास अत्याधुनिक सहस्त्र हों, इन शास्त्रों का पोअर्चालन भी वह ठीक से जानता हो | उसकी सैन्य शिक्षा भी उत्त्तम हो तथा अनुसासन में रहे | सदा सत्य व न्याय का पक्ष ले तो इसी सेना विश्व कि महानतम सेना होगी तथा इसी सेना ही विजय श्री का आलिंगन करेगी | अत: एसा गुण सेना को धारण करना चाहिए |
डॉ. अशोक आर्य
संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है
संयमीव्यक्ति मृत्यु पर सदा विजयी होता है
डा. अशोक आर्य
इस सृष्टी का प्रत्येक व्यक्ति ही नहीं अपितु प्रत्येक जीव दीर्घ आयु की कामना करता है
| वह चाहता है कि कभी उसकी मृत्यु हो ही नहीं | विगत लेख में ऋग्वेद के मन्त्र संख्या १०.१८.२ तथा
अथर्व वेद के मन्त्र संख्या १२.२.३० के माध्यम से हमने बताया था कि मृत्यु पर विजय पाने के लिए
आवश्यक है कि म्रत्यु से भय न हो , यज्ञ आदि कर्मों से दीर्घ आयु के साधन जुटावें, धन धन्य से भरपूर
हों अर्थात समृद्ध हों तथा पवित्र हों | इन साधनों से संपन्न होने पर मृत्यु का भय चला जाता है तथा व्यक्ति प्रोपकारमय जीवन अपनाते हुए व प्रसन्नचित रहते हुए लम्बी आयु प्राप्त करता है | अथर्ववेद में भी म्रत्यु से निर्भय होने की प्रेरणा देते हुए इस प्रकार कहा है : –
मृत्योरहं ब्रह्मचारी यदास्मी
निर्याचन भूतात पुरुषं यमाय |
तमहं ब्रह्मणा तपसा श्रमेण –
अनायेनं मेखालाया सिनामी || अथर्ववेद ९.१३३.३ ||
मै म्रत्यु के लिए समर्पित ब्रह्मचारी हूँ , इस नाते मैं उपस्थित लोगों में से एक व्यक्ति को यम अर्थात संयम के लिए मांगता हूँ | मैं उसे ज्ञान , तप व परिश्रम के लिए, पुरुषार्थ के लिए इस मेखला से बांधता हूँ |
मेखला बंधन का ब्रह्मचारी के लिए विशेष महत्त्व होता है | इस मन्त्र में इस मेखला के बंधन के महत्त्व का वर्णन किया गया है | यह मेखला एक पतली सी रस्सी होती है , जो करधनी , तगड़ी अथवा धागे आदि से बनी होती है | जिस समय गुरुकुल के ब्रह्मचारी की अथवा गृह पर ही ब्रह्मचारी बालक को यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है , उस समय ही यह मेखला भी कटी स्थल पर पहनाई जाती है | यह कटिबद्धता का प्रतीक है | इस का भाव है कि आज से बालक ने जो वेद अध्ययन
का , शिक्षा प्राप्ति का जो संकल्प लिया है, उसकी पूर्णता के लिए वह बालक कटिबद्ध हो कर जुटा रहेगा
,तब तक जुटा रहेगा, जब तक कि वह पूर्ण निपुणता प्राप्त नहीं कर लेता | इससे स्पष्ट होता है कि यह एक संकल्प है , जिसे पूरा करने की स्मृति यह मेखला प्रत्येक क्षण उस ब्रह्मचारी को करवाती रहती
है| जिस के भी यह मेखला पहनी हुयी दिखाई देती है , आगंतुक तत्काल समझ जाता है कि यह बालक ब्रह्मचारी है , इस ने ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करने का संकल्प लिया है , इस निमित यह कटिबद्ध है, कृत संकल्प है |
इस मन्त्र में इस मेखला को बांधने के चार लाभ बताये गए हैं | यथा : –
१. मृत्यु पर विजय : –
२. ज्ञान प्राप्त
३. साधना का अथवा ताप का अभ्यास
४. कठोर परिश्रम की आदत डालना
मृत्यु पर प्रत्येक व्यक्ति विजय पाने की आकांक्षा अपने ह्रदय में रखता है किन्तु वह जानता नहीं की इस पर विजय कैसे पाई जावे ? वह प्रतिदिन इस विजय को पाने के लिए अनेक उपाय करता है किन्तु वह ज्यों ज्यों प्रयास करता है त्यों त्यों ही एक मकड़जाल में फंसता ही चला जाता है , क्योंकि वह जो मृत्यु पर विजय पाने के उपाय करता है, वह उपाय वास्तव में मृत्यु को बस में करने के नहीं होते अपितु मृत्यु की और धकेलने वाले होते हैं | मन्त्र बताता है की मृत्यु पर विजय पाने के लिए संयम का होना आवश्यक है | जो संयमी नहीं , वह मृत्यु पर विजय नहीं पा सकता | तभी तो मन्त्र कहता है की ” मैं संयमी व्यक्ति हूँ | मुझे मृत्यु से लड़ना है | मुझे अपने प्राणों की चिंता नहीं | मुझे समाज में से ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है , जो इस निमित अपने प्राण दे सकें | ”
इस प्रकार मन्त्र कहता है कि संयमी व्यक्ति ही मृत्यु विजयी हो सकता है | समाज को चाहिए कि ऐसे संयमी व्यक्तियों की खोज करे , ऐसे संयमी व्यक्तियों का निर्माण करे , जो म्रत्यु से भय- भीत न हों अपितु मृत्यु के भय से रहित होकर सदा पुरुषार्थ में लगे रहें , ज्ञान उपार्जन में लगे रहें | प्रयास करेंगे , परिश्रम करेंगे तो सफलता तो मलेगी ही क्योंकि सफलता सदा उस का ही वर्ण करती है, जो पुरुषार्थ करता है | अत: जो व्यक्ति संयम के द्वारा अथवा संयम के दूसरे नाम ब्रह्मचर्य के द्वारा समर्पण की भावना से लगा रहता है , नियमों का पालन करता रहता है , तो ऐसे पुरुषार्थी के ह्रदय में कभी मृत्यु आदि दु:खों का भय नहीं रहता | उस में निर्भीकता की भावना अत्यंत बलवती हो जाती है |
वेद में प्रत्येक संकल्प के लिए अनेक प्रतीक बनाए हुए हैं , हमें सदा हमारे संकल्प का स्मरण कराते रहते हैं | ऐसे प्रतीकों में से मेखला भी एक प्रतीक है , एक चिन्ह है , जो हमें प्रतिक्षण स्मरण दिलाती है कि हम ने ज्ञानार्जन करना है | ज्ञानार्जन के लिए अपने जीवन को एक साधना में , एक
नियम में बांधना है तथा उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम करना है | यह मेखला इस सबके प्रतीक स्वरूप ही कटी – स्थान पर धारण की जाती है | मृत्यु पर विजय पाने के लिए यह आवश्यक है कि हम ज्ञान में पूर्ण दक्ष हों , हमारा जीवन तप से भरपूर हो , हम निरंतर अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ध्येय – पथ पर तत्पर रहे | एसा करने से ही मानव मृत्यु पर विजयी होता है तथा एसा विजेता ही प्रगति के पथ पर , सफलता के पथ पर अग्रसर रहता है | यदि यह गुण नहीं हैं तो वह मार्ग में ही
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कहीं भटक जाता है , म्रत्यु को प्राप्त हो जाता है | अत: मृत्यु पर विजय पाने के अभिलाषी को ब्रह्मचर्य की मेखला धारण कर कटिबद्ध हो दृढ संकल्पी हो ज्ञान प्राप्ति में जुटना होगा | यही एकमेव उसकी सफलता का मार्ग है, यही एकमेव मृत्यु विजयी होने का मार्ग है , अन्य कोई मार्ग नहीं |
डा. अशोक आर्य
हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों
ओउम
हमारी सेनायें शत्रु परविजयी हों
डा अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
आज विश्व का प्रत्येक देश अपनी सेनाओं की विजय की कामना करता है | विश्व विजेता होने का गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करना प्रत्येक की लालसा है | किन्तु यह सब कैसे संभव है ? इस स्वप्न को साकार करने के लिए प्रत्ये सैनिक का शूरवीर होना आवश्यक है | आज का युग तो है ही विशेषग्य का | जिस के पास युद्ध कला की विशेष योग्यता होगी, वह ही विजयी हो सकता है | विश्व तो क्या एक छोटेसे क्षेत्र को विजयी बनाने के लिए भी योग्यता की आवश्यकता है | अथर्ववेद राजनीति का वेड है | हम किस प्रकार की निति अपनावें, किस प्रकार का अभ्यास करें कि हमें अन्यों पर विजय मिल सके | इस का अथर्ववेद में विस्तार से विचार किया गया है | विश्व विजय का स्वप्न देखने वाले के लिए अथार्व्वेद का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए | आज कि राजनीति ही विजय व पराजय का मार्ग बतलाती है | इस मार्ग को जानने के लिए इसे अवश्य पढ़ें | योद्धा विजय प्राप्त करें, यह कामना अथार्व्वेद के मन्त्र १९.१३.२ मैं इस प्रकार कि गयी है : –
आशु : शिशानो वृषभो न भीमो ,
घनाघन: क्शोभानाश्चर्श्निनाम |
स्न्क्रन्दनो$निमिष एकवीर :,
शतं सेना अजयत साक्मिन्द्र: || अथर्ववेद १९.१३.२||
शब्दार्थ : –
आशु:) तीव्रगति (शिशान: )तीक्षण शस्त्रधारी, तेज बुद्धि ( वृषभ : न) सांड कि भाँती (घनाघन:) भयंकर शत्रुओं का नाशक (चर्श्निनाम)शत्रुओं को (क्षोभन:) भयभीत करने वाला (स्नक्र्न्दन:) शत्रुओं को युद्ध के निमित ललकारने वाला (अनिमिष:)अत्यंत
सावधान दृष्टि (एकवीर:) अद्वितीय वीर (इंद्र) इंद्र ने (शतं सेना) शत्रु कि असीमित या सैंकड़ों सेनाओं को (साकम) एक बार में ही (अजायत) जीतता है |
भावार्थ : –
तेज गति से तीक्षण अस्त्रों को धारण कर शत्रु का विनाश व् शत्रु पर भयानक बनाकर युद्ध में ललकारने वाले अत्यंत सावधान अद्वितीय वीर इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ ही जीत लिया |
इस मन्त्र में एक महान योद्धा का बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्रण किया गया है | योद्धा को किस प्रकार से कार्य करना चाहिए , किस प्रकार के साधनों का युद्धक्षेत्र में प्रयोग करे तथा किस प्रकार से सफलता का वरण करे , इस सब की चर्चा इस मन्त्र का विषय है | इस निमित देवसेना के नायक इंद्र के शौर्य व वीरता का उल्लेख करते हुए कहा है कि इंद्र ने शत्रुओं कि सैंकड़ों सेनाओं पर एक साथ विजय प्राप्त की |
इंद्र ने शत्रुओं की सैंकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया | इंद्र की इस सफलता का रहस्य क्या है, जिसे हम भी अपना कर विश्व विजय के स्वप्न को साकार कर सकें ? मन्त्र विजय के इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देता है की इंद्र आत्मबल, निर्भीकता तथा साधन सम्पन्नता थी | यह तिन ऐसे तत्व है, जो ल्किसी भी सफलता के लिए आवश्यक होते हैं | बिना आत्मबल के विजय तो क्या किसी के ऊपर आक्रमण करने की सोचा भी नहीं जा सकता | एक व्यक्ति के पास आत्मबल तो है किन्तु न तो वह निर्भय है तथा न ही उसके पास साधन ही हैं की वह किसी पर आक्रमण कर सके , एसा व्यक्ति भी युद्ध मैं विजय श्री को नहीं पा सकता | अत: किसी भी प्रकार के युद्ध में सफलता के लिए इन तीनों तत्वों का स्वामी होना आवश्यक है | यह तिन तत्व ही विजय का मुख्या आधार हैं | इन के अतिरिक्त योद्धा मैं कुछ अन्य गुणों का होना भी आवश्यक है | यह गुण है : – : –
(१) तीव्रगति हो : –
युद्ध क्षेत्र में सदा तीव्रता से ही विजय प्राप्त की जा सकती है | जिसकी स्वयं की गति तीव्र है, जिस के घोड़े उत्तम कोटि के तेज गति वाले है, जिसके वाहन तेज चलते हैं , जिसके पास उच्चकोटि की प्रद्योगिकी से युक्त विमान आदि हैं की शत्रु को संभालने से पूर्व ही उसे दबोच ले, एसा योद्धा ही युद्ध क्षेत्र में सफलता पा सकता है |
(२) उत्तम शस्त्रों से संपन्न हो : –
योद्धा के पास केवल गति तीव्र होने से कुछ नहीं होने वाला | तीव्र गति से यदि आप ने शत्रु में घुस कर उसे चुनोती दे दी किन्तु आप शस्त्र विहीन हैं या उत्तम शस्त्रों से रहित है , शत्रु के मुकाबले अच्छे शस्त्र नहीं हैं तो विजयी नहीं होंगे अपितु शत्रु दल में घिर जाने से मारे जाओगे | आज वही विजेता होता है , जिसके पास न केवल तीव्र गति वाले साधन हों साथ ही उसके पास अत्याधुनिक व शत्रु से कहीं उत्तम शस्त्र हों |
(३) युद्ध विद्या मैं निपुण हो : –
गति तीव्र है , शस्त्र भी उत्तम हैं किन्तु युद्ध कला में निपुण नहीं हैं तो भी विजय संभव नहीं क्योंकि जो उत्तम शस्त्र हम लेकर तीव्र गति से शत्रु सेना में घुसेंगे, शस्त्र चलाने की कला में प्रवीण न होने के कारण हम शत्रु सेना पर प्रहार करने से पहले ही पकड़ लिए जावेंगे या मार दिए जावेंगे | अत: शत्रु पर विजय प्राप्त करने की अभिलाषा तब ही पूर्ण होगी जब हम उत्तम शस्त्र प्रयोग करने की विधा को भी अच्छे से जानते होंगे |
(४) निर्भीक हो : –
सैनिक में निर्भीकता का गुण होना भी अति आवश्यक है | वह चाहे कितना ही तीव्रगामी हो , कितने ही उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित हो तथा कितना ही उत्तम ढंग से शस्त्रों का परिचालन कर सकता हो, किन्तु तब तक वह विजयी नहीं हो सकता , जब तक वह निर्भय होकर रणभूमि में नहीं खड़ा होता | यदि यह सब उत्तम सामग्री व इस के प्रयोग में प्रवीण होकर युद्ध क्षेत्र में पहुंच तो गया किन्तु युद्धभूमि में भयभीत सा हो कांपते
कांपते शत्रु से मुंह छुपाने का प्रयास कर रहा हो तो वह शत्रु का सामना नहीं कर पाता तथा या तो युद्ध भूमि से भाग खड़ा होता है या पकड़ा जाता है | एसा व्यक्ति कभी योद्धा होने के लायक नहीं तथा निश्चित ही पराजित होता है | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के लिय तीव्रगामी,उत्तम शास्त्रों से सुसज्जित तथा युद्ध कला में प्रवीण होने के साथ ही साथ निर्भीक होना भी आवश्यक है | एक निर्भीक योद्धा युद्ध कला में कुछ कम प्रवीण होते हुए भी अपनी सेनाओं को विजय दिलवा सकता है | अत: विजयी होने के लिए योद्धा के पास निर्भीकता का होना अति आवश्यक है |
(५) असाधारण शक्ति रखता हो : –
युद्ध तो खेल ही शक्ति का है | विजय उसको ही मिलती है जो असाधारण शक्ति का स्वामी हो | असाधारण शक्ति के लिए तीव्र गति से आक्रमण करने की क्षमता, उत्तम शस्त्रों का स्वामी व उनका परिचालन करने की जानकारी, निर्भीकता व aatmvisva से युक्त असाधारण शक्ति का स्वामी होने से शत्रु की सेनायें उस वीर का मुकाबला नहीं कर सकें गी | शत्रु सेनायें या तो भयभीत हो कर भाग जावेंगी, या मारी जावेंगी या फिर आत्म समर्पण कर देंगी | यह आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम था की १९७१ के भारत पाक युद्ध में हमारे से अच्छे शस्त्र व अच्छे सहयोगी होते हुए भी पाकिस्तान की एक लाख से अधिक सेना ने हमारी सेनाओं के सामने आत्म समर्पण कर दिया था | इससे स्पष्ट है की युद्ध क्षेत्र में योद्धा के पास असाधारण शक्ति का भी होना आवश्यक है |
(६) एकाग्रचित हो : –
ऊपर वर्णित सब गुणों के अतिरिक्त एक उत्तम योद्धा, जो विजय की कामना रखता है , युद्ध काल में उसका एकाग्रचित होना भी आवश्यक है | जो युद्ध भूमिं में शत्रु पर गोला फैंकते समय अपने परिजनों की समस्याओं में उलझा है अथवा किसी सुंदर द्रश्य का सपना ले रहा है या किसी अन्य विपति को स्मरण कर रहा है तो उसका ध्यान शत्रु की स्थिति पर न होने से उसका वार तो खाली जावे गा ही अपितु शत्रु का कोई गोला उसकी जान ही ले लेगा | जिस प्रकार अर्जुन को केवल चिड़िया की आँख ही दिखाई देती थी , ठीक उस प्रकार योधा को युद्ध भूमि में शत्रु का मर्म स्थल ही दिखाई देना चाहिए , तभी वह उसे समाप्त कर विजेता बन सकेगा | अत: विजय के अभिलाषी योद्धा के पास एकाग्रचितता का गुण होना भी आवश्यक है |
(७) अपने कार्य को सर्वतोभावेन की भावना से करने वाला हो : –
योद्धा केवल व्यक्तिगत सुख या अहं की पूर्ति के लिए युद्ध न करे | ऐसे योद्धा के साथ कभी भी जनता नहीं होती | जनता के विरोध के कारण उसे विजय की प्राप्ति संभव नहीं हो पाती | यदि वह सर्व जन के सुख को सम्मुख रख रणभूमि में खड़ा है तो जन सहयोग सदा उसके साथ होगा | जनसहयोग साथ होने से उसकी शक्ति बढ़ जावेगी तथा विजय दौड़ते हुए उसके पास आवेगी | इस भावना का युद्ध भूमि मे महत्वपूर्ण स्थान है |
इस सब चर्चा को समझने के लिए इंद्र का अभिप्राय: भी समझना आवश्यक है इंद्र कहते हैं विशेषज्ञ को | जो अपने विषय में पूरी प्रकार से पारंगत हो दुसरे शब्दों में जो अपने विषय का .एच.डी अथवा डी लिट हो , सर्वोच्च ज्ञान पा लिया हो, वह ही अपने विषय का इंद्र होता है | जो योद्धा युद्ध सम्बन्द्धि सब विद्याओं में प्रवीण होता है , उसे रणभूमि का इंद्र कहा जा सकता है | एसा योद्धा एक साथ अनेक सेनाओं का सामना करने और उन्हें पराजित करने की क्षमता रखता है | जब हमारे सैनिक युद्ध कला में इंद्र बन जावेंगे तो निश्चित ही हम सदा विजयी होंगे | मन्त्र में इस लिए ही कहा गया है की इंद्र ने एक साथ अनेक सेनाओं को पराजित कर दिया |
मनुष्य का जीवन भी एक रणभूमि है, जिसमें प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य को पाने के लिए अनेक युद्धों में उलझा रहता है | वह बड़ी सफलता के साथ रणभूमि में विजेता होकर संसार सागर को पार करना चाहता है , किन्तु माया , मोह, छल , कपट, अहंकार आदि उसे कुछ भी कर पाने में बाधक होते हैं | जो इन बाधाओं की और देखे बिना केवल अपने लक्ष्य पर ही अपनी दृष्टि गडाए रहता है , वह अपने विषय का इंद्र बन सफल होता है, शेष सब पराजित होते हैं | अत: इस संसार सागर के संग्राम मैं हम अपने विषय का इंद्र बन इसे विजय करने का प्रयास करें तो निश्चय ही सफलता मिलेगी |
डा. अशोक आर्य
व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
ओउम
व्रती व्यक्ति सदा निरोग व प्रसन्न रहता है
डा. अशोक आर्य
अग्नि को तेज का प्रतीक माना गया है | विश्व का प्रत्येक व्यक्ति तेज पाने की आकाक्षा रखता है | इस आकांक्षा की पूर्ति के लिए वह सतत प्रयास भी करता है | यदि उस का यह प्रयास सही दिशा में है तो मन वांछित फल उसे मिलता है और यदि वह भटका हुआ है, उसे सही दिशा का ज्ञान नहीं तो उस के लिए सफलता भी संदिग्ध ही है | कहा भी है कि चल गया तो तीर नहीं तो तुक्का | प्रत्येक सफलता के लिए मानव को कई प्रकार के व्रत करने होते है | व्रत की सफलता से व्यक्ति को प्रसन्नता मिलती हैं तथा प्रसन्न व्यक्ति ही निरोग होता है | अथर्ववेद के मन्त्र ७.७४.४ में इस तथ्य पर ही प्रकाश डाला गया है | मन्त्र का अवलोकन करें : –
मन्त्र पाठ : –
व्रतें तवं व्रतपते समक्तो
विश्वाहा सुमना दीदिहिह |
तं त्वा वयं जातवेदा
प्रजावंत उप सदेम सर्वे || अथर्व .७.७४.४||
: समिद्धन
भावार्थ : –
हे व्रतों के स्वामी , हे व्रतों के पालक अग्नि देव ! तुम व्रत से सुसंस्कृत होने से यहाँ सदा प्रसन्नचित्त हो कर प्रकाशित होना ! हे अग्नि ! हम सब अपनी संतानों के साथ प्रदीप्त हो तेरे समीप बैठें |
व्रतों से हमें अनेक लाभ होते हैं | इन लाभों का वर्णन ही इस मन्त्र का मुख्य विषय है | व्रतों से मिलाने वाले लाभ इस प्रकार हैं : –
१) शुद्धता
२) निरोगता
३) पवित्रता
४) प्रसन्नचित्तत़ा
इस मन्त्र के अनुसार अग्नि ही व्रतपति है | व्रत से शुद्ध, पवित्र तथा तेजस्वी भी अग्नि ही है | स्पष्ट है कि यहाँ व्रत के उदहारण अग्नि को रखा गया है | जिस प्रकार अग्नि में डाला गया प्रत्येक पदार्थ या सामग्री जल कर नष्ट हो जाते हैं किन्तु जलते जलते भी यह तत्व अग्नि को तेजस्विता प्रदान करते हैं | अग्नि का धर्म है जलना | यदि ज्वाला नहीं तो हम उसे अग्नि कैसे कह सकते हैं ? तो भी अग्नि को जलने के लिए कुछ पदार्थों की , कुछ तत्वों की आवश्यकता होती है | बिना किसी वास्तु के तो अग्नि भी जल नहीं सकती | ज्वलन्शिलता अग्नि का गुण तो है किन्तु यह गुण तब ही गतिशील होता है , जब किसी पदार्थ के संपर्क में आता है | किसी पदार्थ के संपर्क के बिना अग्नि जल ही नहीं सकती तथा जों भी पदार्थ इस अग्नि के संपर्क में आता है , उसे भी यह अग्नि जला कर राख कर देती है | अग्नि के जलने से उस के आस पास जितने भी दूषित तत्व होते हैं , उन sab को भी जला कर अग्नि नष्ट कर देती है | इस प्रकार अग्नि के जलने मात्र से वायु मंडल शुद्ध हो जाता है , वातावरण में शुद्धता आ जाती है , पर्यावरण स्वच्छ हो जाता है | निर्दोषता का सर्वत्र साम्राज्य स्थापित हो जाता है |
जहाँ तक व्रत अथवा उपवास का सम्बन्ध है यह भी हमारे शरीर में अग्नि के समान ही कार्य करता है | जिस प्रकार अग्नि अपने आस पास व पड़ोस के दुर्गुणों को जला कर नष्ट कर देती है , उस प्रकार ही व्रत अथवा उपवास भी शरीर के अंदर विद्यमान सब प्रकार के दूषित तत्वों को नष्ट कर देते हैं | दूषित तत्वों के नष्ट होने से शरीर में शुद्धता आती है | शरीर के निर्दोष होने से शरीर चुस्त व दुरुस्त हो जाता है | निर्दोष, चुस्त व शुद्ध शरीर ही निरोगता की कुंजी है | अत: शरीर जितना शुद्ध व निर्दोष रहेगा , उतना ही शरीर निरोगी होगा | शरीर की इस निरोगता को पाने के लिए ही हम व्रत करते हैं | इस से स्पष्ट होता है की व्रत स्वस्थ व शुद्ध शरीर स्थापित करने का साधन होने से निरोगता की कुंजी होते हैं | यह ही निरोगता का साधन हैं |
व्रत को ही मानवीय प्रसंन्नचितता का आधार माना गया है | यह मन्त्र का दूसरा लाभ है | जो सदा प्रसन्न रहता है मन्त्र ने उसे विश्वाहा सुमना: कहा है | इस का भाव भी प्रसन्नचितता ही है | प्रसन्न कौन होता है ? इसका उत्तर मन्त्र ने ऊपर इस प्रकार दिया है कि जो शुद्ध, पवित्र, तेजस्वी है, वह प्रसन्नचित्त होता है | अत: ऊपर के उपाय करने के पश्चात जीव स्वयमेव ही प्रसन्न चित्त हो जाता है | व्रतों द्वारा शरीर के शुद्धि करण से शरीर सब प्रकार से स्वच्छ हो जाता है | दूषित शरीर में जो रोग , शोक , आलस्य, निद्रा, तन्द्रा प्रमाद आदि दुर्गुण थे , वह सब इन व्रतों से धुल कर स्वच्छ हो गए | इन सब दुर्गुणों के , दोषों के नाश से मन प्रसन्नता से प्रफुलित हो उठता है , उस में एक विचित्र सी उमंग ठाठें मारने लगती है | इस उमंग को ही प्रसन्नता कहते हैं | अत: दोष निवारण से मन पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | अब मानवीय मन सदैव प्रसन्न रहता है | स्वास्थ्य के लिए वरदान प्रसन्नचितता के लिए योगीराज श्री कृषण जी ने गीता में भी बड़ी सुन्दर चर्चा की है | इस सम्बन्ध में गीता का श्लोक २-६५ दर्शनीय है | जो इस प्रकार है : –
प्रसादे सर्वदु:खानां , हानिरस्योपजायते |
प्रसन्नचेततो ह्याशु: ,बुद्धि: प्र्यवातिष्ठते || गीता २-६५ ||
प्रसन्नता दु:खों का विनाश करती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित्त होता है उसके सब दु:खों का नाश स्वयमेव ही हो जाता है | जिस प्रकार जल से भरे गिलास में वायु नहीं रह सकती , उस प्रकार ही प्रसन्न बदन में दु:ख , शोक , क्लेश इत्यादि दुर्गुण नहीं रह सकते | जब शरीर दु:ख रहित है तो मन शांत हो जाता है | शांत मन के साथ बुद्धि कभी आक्रोशित नहीं हो सकती , इस कारण उसकी बुद्धि भी शांत हो जाती है | शांत बुद्धि मानवीय शरीर की सुव्यवस्था का साधन है | अत: व्रती व्यक्ति का शरीर भी सुव्यवस्थित रहता है | सुव्यवस्थित शरीर में किसी भी प्रकार का शल्य प्रवेश नहीं कर सकता | जब मन प्रसन्न है , बुद्धि शांत है तथा पूरा शरीर सुव्यवस्थित कार्य कर रहा है तो इस के सदुपयोग से परिवार ऊपर उठता है | परिवार के उन्नत होने से समाज , देश व विश्व की भी उन्नति होती है | सब प्रकार से कल्याण का साम्राज्य छा जाता है | जब एक व्रत से ही विश्व का कल्याण संभव है तो हमें व्रती बनने से परहेज करने की क्या आवश्यकता है ? विश्व कल्याण के लिए हम व्रती बनें अपना भी कल्याण करें , समाज का भी उत्थान करें तथा विश्व का भी कल्याण करें |
डा. अशोक आर्य
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी (गाजियाबाद)
चल्वार्ता ०९७१८५२८०६८, 01202773400
हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
ओउम
हे प्रभु हमें स्वस्थ्य व बलकारक भोजन दो
डा. अशोक आर्य
भोजन मानव की ही नहीं प्रत्येक प्राणी की एक एसी आवश्यकता है , जिसके बिना जीवन ही sambhav नहीं | इस लिए प्रत्येक प्राणी का प्रयास होता है कि उसे उतम भोजन प्राप्त हो | एसा भोजन वह उपभोग में लावे कि जिससे उस की न केवल क्षुधा की ही पूर्ति हो अपितु उसका स्वास्थ्य भी उतम हो तथा शरीर में बल भी आवे | अत्यंत स्वादिष्ट ही नहीं अत्यंत पौष्टिक भोजन करने की अभिलाषा प्रत्येक प्राणी अपने में संजोये रहता है | इस समबन्ध में वेद ने भी हमें बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेरणा दी है | यजुर्वेद के अध्याय ११ के मन्त्र संख्या ८३ में इस प्रकार परमपिता परमात्मा ने हमें उपदेश किया है : –
ओउम अन्नपते$न्नस्य नो देह्यमीवस्य shushmin: |
प्रप्रं दातारं तारिष उर्ज्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे || यजुर्वेद ११.८३ ||
इस मन्त्र में चार बातों की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट किया गया है | यह चार बातें इस प्रकार हैं : –
(१) अन्न अर्थात समस्त भोग्य पदार्थों का स्वामी परमपिता परमात्मा है –
हम जो अन्न का उपभोग करते हैं , उस अन्न का अधिपति , उस अन्न का स्वामी, उस अन्न का maalik हमारा वह परम पिता, सब से बड़ा पिता, जो हम सब का जन्मदाता तथा हम सब का पालक है , उस परमपिता की अपार कृपा से ही हमें यह अन्न मिलता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है कि हम इसे परमपिता की अपार कृपा मानते हुए स्वीकार करें तथा इसे ख़राब न होने दें , इसमें न्यूनता न आने दें तथा अपनी थाली में उतना ही लें, जिताना हम ने खाना हो, जूठन कभी मत छोडें | यह प्रभु का प्रसाद होता है , इसे जूठन के स्वरूप छोड़ना महापाप होता है | प्रभु की दी हुयी वस्तु का तिरस्कार होता है तथा जो अन्न संसार के दूसरे प्राणी के ग्रहण के योग्य होता है, उसे जूठन स्वरूप छोड़ देना भी एक महाव्याधि ही तो है |
(२) वही अन्न सेवन में लावें जो svasth रखते हुए बल प्रदान करे : –
संसार का प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि वह सदा svasth रहे | उसे जीवन में कभी कोई रोग न आवे | वह सदा निरोग रहे | svasth जीवन में ही मानव प्रसन्न रह सकता है | प्रसन्नता मानव जीवन की प्रथम आवश्यकता होती है | प्रसन्न व प्रफुल्लित व्यक्ति ही न केवल जीवन व्यापार को अच्छे से कर सकता है अपितु उसे ठीक से संपन्न कर धन एश्वर्य को भी प्राप्त कर सकता है | संसार में कौन सा प्राणी एसा मिलेगा, जो धन की अभिलाषा न रखता हो ? अर्थात सब प्राणी मनुष्य धन प्राप्ति की इच्छा , कामना करते हैं | इस के लिए उनका खान पान , आहार विहार एसा होना आवश्यक है, जिस से उसे अच्छा स्वास्थ्य मिल सके तथा वह तीव्र गति से प्रभु प्रार्थना के साथ ही साथ अधिकतम धन अर्जन कर सके |
मानव की यह भी अभिलाषा रहती है कि परमपिता परमात्मा की महती अनुकम्पा उस पर बनी रहे ताकि वह आजीवन svasth रहने के साथ ही साथ बलवान भी रहे | svasth तो है किन्तु शरीर इतना सशक्त नहीं है कि वह अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए खुले रूप से यत्न कर सके तो एसे स्वस्थ्य शरीर का भी कोई विशेष लाभ नहीं होता | इसलिए मन्त्र में यह कहा गया है कि svasth शरीर के साथ ही साथ हमारा यह शरीर बलिष्ठ भी हो, ताकि हम अपनी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण करने में सक्षम हों | svasth शरीर में ही जीवन की खुशियाँ छुपी रहती हैं , svasth शरीर ही सब प्रकार की प्रसन्नताओं को दिलाने वाला होता है | जब शरीर svasth नहीं , बलिष्ठ नहीं तो मन बुझा बुझा सा रहता है | बुझे मन से जीवन का कोई भी कार्य अच्छे से संपन्न नहीं होता | जब कार्य ही अच्छे से नहीं हो रहा तो हम धन अर्जन कैसे कर सकते हैं ? अत: अधिकतम धन की प्राप्ति के लिए, एशवर्य की प्राप्ति के लिए, सुखों की प्राप्ति के लिए हम परमपिता से उतमस्वास्थ्य की प्रार्थना करते हुए एसा भोजन करते है कि जिससे हम न केवल svasth ही रहे अपितु बलवान भी बनें |
(३) जिस साधन से हम अन्न प्राप्त करते है , उसका kratgya हों : –
मानव स्वार्थी होता है | वह साम,दाम, दंड, भेद से धन एशवर्य तो प्राप्त करने का यत्न करता है किन्तु यह सब प्राप्त करने के पश्चात उस प्रभु का धन्यवाद करना भूल जाता है , उस प्रभु का शुक्रिया करने में प्रमाद कर जाता है , जिसकी महती कृपा से यह सब सुख , साधन, धन,एश्वर्य प्राप्त किया होता है | इस लिए मन्त्र कहता है कि हम सब सुखों को पाने की न केवल इच्छा ही करें अपितु यह सब पाने के पश्चात, यह सब कुछ उपलब्ध कराने वाले उस परमपिता परमात्मा को हम भूलें मत अपितु उस दाता को स्मरण रखें , उसका धन्यवाद करें | वह हम सब का दाता है | जीवन में अनेक बार हम ने उस से कुछ न कुछ माँगते ही रहना है | यदि हम उसका धन्यवाद ही न करेंगे तो भविष्य में हम उससे कुछ ओर मांगना चाहेगे तो कैसे मांगेंगे ? अत: उस दाता का धन्यवाद करना कभी न भूलें |
(4) प्रभु से प्रार्थना करें कि हमारे परिजनों व पशुओं को भी बलकारक भोजन मिले : –
मानव अपने स्वार्थ के कारण स्वयं तो उतामोतम भोग्य प्राप्त करना चाहता है किन्तु दूसरों के सुखों की ओर ध्यान ही नहीं देता | यह तो इतना स्वार्थी है कि मन में यहाँ तक सोचता है कि मेरी तृप्ति ही नहीं होनी चाहिए अपितु मेरे पास अतिरिक्त धन भी इतना होना चाहिए कि मेरे कोष के उपर से छलकता हुआ दिखाई दे , इस के लिए चाहे दूसरे के सुखों का अंत ही kyon न करना pade , यहाँ तक कि दूसरों का बढ ही kyon न करना pade | जब हम अपनी संपत्ति को badhane के लिए दूसरों के नाश तक की kamana करेंगे , प्रभु के बनाए अन्य praniyon के जीवन को भी नष्ट करने पर भय नहीं खायेंगे तो वह प्रभु निश्चित रूप से ही हमसे rusht होकर हमें दण्डित करेगा | इससे हमारी सुख सुविधा में baadha आवेगी | इस लिए मन्त्र कहता है की हे प्राणी ! प्रभु की अपार कृपा से tujhe यह atyadhik धन sampati mili है , इसे tu जितना अपने लिए उपयोगी , अपने लिए आवश्यक समझता है , अपने उपभोग के लिए रख तथा शेष धन से न केवल अपनेपरिजनों को बाँट कर उनकी तृप्ति कर अपितु एसे praniyon ko , पशु pakshiyon को भी बाँट दे जिन को abhi भोजन नहीं मिला | इस प्रकार in शब्दों में मन्त्र मानव को दान करने की , दूसरों का सहयोग करने की , sah astitv की भी प्रेरणा देता है | जब मनुष्य दान करेगा , दूसरों की आवश्यकताओं की पूर्ति में लगेगा तो उसे sammaan मिलेगा, yash मिलेगा, kirti milegi | यह सब उस प्रभु की महती कृपा का ही फल है |
अत: मन्त्र हमें यह उपदेश दे रहा है कि हम उस अन्न को ग्रहण करें जो हमें svasth रखे तथा बलवान बनावे, जिस समाज के sahyog से यह अन्न प्राप्त करो उस समाज का धन्यवाद अवश्य करें तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही साथ अन्य praniyon की सहायता इस अन्न से करें | इस सब के साथ ही साथ यह भी मत भूलें कि यह जी कुछ भी मिला है , वह उस परमात्मा की महती कृपा का ही परिणाम है तथा वह परमात्मा ही इस सब का स्वामी है | इस लिए सदा उस प्रभु को याद रखें |
हमारा जीवन जिस अन्न के कारण बना हुआ है , उस अन्न की सुरक्षा का भी हम सदा ध्यान रखें | आज कल हमारे परिवारों में जिस प्रकार अन्न का तिरस्कार हो रहा है, नाश हो रहा है , वह पहले कभी न होता था | अन्न भंडार में अन्न को जीव नष्ट कर रहे हैं, साफ़ करते समय बहुत सा अन्न कूड़े में डाल देते हैं , पैरों में फैंक देते है | भोजन बनाते समय बहुत सा अन्न नष्ट कर देते हैं तथा खाते समय भी हम एक भाग जूठन के रूप में ही फैंक देते हैं | इतने अन्न से , जो हमने नष्ट कर दिया , अन्य कितने लोग तृप्त हो जाते | इसलिए मन्त्र अन्न की सुरक्षा व बचत के उपाय करने के लिए भी प्रेरित करता है |
उपनिषदों में भी अन्न निंदा को रोकने के लिए इस प्रकार उपदेश किया है :-
अन्नं न निन्द्यात तद वरतम |
अन्न का तिरस्कार न करने का, निंदा न करने का अथवा नष्ट न करने का प्रत्येक मनुष्य को व्रत लेना चाहिए , प्रतिज्ञा करना चाहिए |
पारस्कर सूत्र में भी इस प्रकार कहा गया ही :-
अन्नं साम्राज्यनामअधिपति: | पारस्कर ग्र्ह्यसुत्र १.५.१० |
जिस राजा के राज्य में प्रजा अन्न के अभाव से दुखी नहीं होती , वह राज्य ही स्थिर होता है | अन्न के अभाव में भूखे लोग दुखी हो कर ,शोषण करने वाले बड़े बड़े राज्यों को भो नष्ट करने का कारण बनते हैं | जब व्यक्ति भूखा होता है तो वह किसी भी ढंग से अपने उदर की तृप्ति के साधन धुन्धता है | इस के लिए चोरी , डाका, क़त्ल आदि उसके मार्ग में बाधा नहीं होता | इस प्रकार राज्य में वह अराजकता पैदा कर देता है तथा उस राज्य के नष्ट का कारण बनता है | इस लिए राजा का भी करे यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने राज्य को स्थिर बनाए रखने के लिए प्रजा की प्रसन्नता का तथा उसकी तृप्ति का भी भर पूर प्रयास करो |
upanishad तो यहाँ तक कहता है कि अन्न को ही ब्रह्म samajho | अन्न का यथावश्यक प्रयोग करो , उसका दुरुपयोग कभी मत करो | जो भोजनार्थ अन्न तुम्हारी थाली में परोसा गया है , यदि वह दोषपूर्ण नहीं है तो उसे बिना किसी त्रुटी निकाले प्रसन्नता पूर्वक उपभोग करें | अन्न को ब्रह्म कहने का तथा उसकी उपासना करने का यह ही अभिप्राय है | भाहूत से लोग एसे भी hote हैं जो अन्न में dosh निकलते रहते हैं | इस में मिर्च कम है या अधिक है, यह स्वादिष्ट नहीं है आदि अनेक प्रकार से उसका तिरस्कार करते रहते हैं तथा मन मारकर भोजन करते हैं , एसे व्यक्ति को अन्न का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, मात्र पेट भरने का कार्य वह अन्न कर पाता है | ठीक से पौषण नहीं कर पाता | अत: अन्न का तिरस्कार मत करो तथा जो मिला है, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो तो वह ठीक से पौषण करेगा |
मन्त्र हमें यह ही उपदेश करता है कि हम svaasthyprad व पौष्टिक भोजन करें | जिस samaj के sahyog से मिला है, उनका धन्यवाद करें, बाँट कर खावें , जो मिला है, उसे प्रभु का उपहार मानकर प्रसन्नता पूर्वक खावें ,उसमें न्युन्तातायें न निकालें तो यह अन्न हमारे लिए शक्तिवर्धक व स्वास्थ्य को बढ़ानेवाला होगा |
डा. अशोक आर्य
हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन
ओउम
हे जीव!तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन
डा. अशोक आर्य
इस सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा दो एसी शक्तियां हैं, जो कभी किसी से भयभीत नहीं
होतीं | सदैव निर्भय हो कर अपने कर्तव्य की पूर्ति में लगी रहती हैं | यह सूर्य और चन्द्र निर्बाध रूप से निरंतर.अपने कर्तव्य पथ पर गतिशील रहते हुए समग्र संसार को प्रकाशित करते हैं | इतना ही नहीं ब्राह्मन व क्षत्रिय ने भी कभी किसी के आगे पराजित होना स्वीकार नहीं किया | विजय प्राप्त करने के लिए वह सदा संघर्षशील रहे हैं | जिस प्रकार यह सब कभी पराजित नहीं होते उस प्रकार ही हे प्राणी ! तूं भी निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ कभी स्वप्न में भी पराजय का वर्ण मत कर | इस तथ्य को अथर्ववेद के मन्त्र संख्या २.१५.३,४ में इस प्रकार कहा है : –
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च , न विभीतो न रिष्यत: |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.३ ||
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च , न विभीतो न रिच्यत |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.४ ||
यह मन्त्र मानव मात्र को निर्भय रहने की प्रेरणा देता है | मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तूं सदा असकता है पने जीवन में निर्भय हो कर रह | किसी भी परिस्थिति में कभी भयभीत न हो | मन्त्र एतदर्थ udaharn देते हुए कहता है कि जिस प्रकार कभी किसी से न डरने के कारण ही सूर्य और चन्द्र कभी नष्ट नहीं होते , जिस प्रकार ब्रह्म शक्ति तथा क्षात्र शक्ति भी कभी किसी से न डरने के कारण ही कभी नष्ट नहीं होती | जब यह निर्भय होने से कभी नष्ट नहीं होते तो तूं भी निर्भय रहते हुए नष्ट होने से बच |
हम डरते हैं डर क्या है ? भयभीत होते हैं , भय क्या है ? जब हम मानसिक रूप से किसी समय शंकित हो कर कार्य करते हैं इसे ही भय कहते हैं | स्पष्ट है कि मनोशक्ति का ह्रास ही भय है | किसी प्रकार की निर्बलता , किसी प्रकार की शंका ही भय का कारण होती है , जो हमें कर्तव्य पथ से च्युत कर भयभीत कर देती है | इससे मनोबल का पतन हो जाता है तथा भयभीत मानव पराजय की और अग्रसर होता है | मनोबल क्यों गिरता है — इस के गिरने का कारण होता है पाप , इसके गिरने का कारण होता है अनाचार , इस के गिरने का कारण होता है मानसिक दुर्बलता | जो प्राणी मानसिक रूप से दुर्बला है , वह ही लोभ में फंस कर अनाचार करता है , पाप करता है , अपराध करता है , अपनी ही दृष्टि में गिर जाता है , संसार मैं सम्मानित कैसे होगा ? कभी नहीं हो सकता |
मेरे अपने जीवन में एक अवसर आया | मेरे पाँव में चोट लगी थी | इस अवस्था में भी मै अपने निवास के ऊँचे दरवाजे पर प्रतिदिन अपना स्कूटर लेकर चढ़ जाता था | चढ़ने का मार्ग अच्छा नहीं था | एक दिन स्कूटर चढाते समय मन में आया कि आज में न चढ़ पाउँगा, गिर जाउंगा | अत: शंकित मन ऊपर जाने का साहस न कर पाया तथा मार्ग से ही लौट आया | पुन: प्रयास किया किन्तु भयभीत मन ने फिर न बढ़ने दिया , तीसरी बार प्रयास कर आगे बढ़ा तो गिर गया | इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि जब भी कोई कार्य भ्रमित अवस्था में किया जाता है तो सफलता नहीं मिलती | इसलिए प्रत्येक कार्य निर्भय मन से करना चाहिए सफलता निश्चय ही मिलेगी | प्रत्येक सफलता का आधार निर्भय ही होता है |
हम जानते हैं की मनोबल गिरने का कारण दुर्विचार अथवा पापाचरण ही होते हैं | जब हमारे ह्रदय में पापयुक्त विचार पैदा होते हैं , तब ही तो हम भयभीत होते हैं | जब हम किसी का बुरा करते हैं तब ही तो हमें भय सताने लगता है कि कहीं उसे पता चल गया तो हमारा क्या होगा ? इससे स्पष्ट होता है कि छल पाप तथा दोष पूर्ण व्यवहार से मनोबल गिरता है , जिससे भय की उत्पति होती है तथा यह भय ही है जो हमारी पराजय का कारण बनता है | जब हम निष्कलंक हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार का भय नहीं सता सकता | जब हम निष्पाप हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रहती | जब हम निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार नहीं करते तो हम किस से भयभीत हों ? जब हम किसी का बुरा चाहते ही नहीं तो हम इस बात से भयभीत क्यों हों की कहीं कोई हमारा बुरा न कर दे , अहित न कर दे | यह सब तो वह व्यक्ति सोच सकता है , जिसने कभी किसी का अच्छा किया ही नहीं , सदा दूसरों के धन पर , दूसारों की सम्पति पर अधिकार करता रहता है | भला व्यक्ति न तो एसा सोच सकता हो तथा न ही भयभीत हो सकता है |
इसलिए ही मन्त्र में सूर्य तथा चंद्रमा का udaharn दिया है | यह दोनों सर्वदा निर्दोष हैं | इस कारण सूर्य व चंद्रमा को कभी कोई भय नहीं होता | वह यथाव्स्त अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं , उन्हें कभी कोई बाधा नहीं आती | इस से यह तथ्य सामने आता है कि निर्दोषता ही निर्भयता का मार्ग है , निर्भयता की चाबी है , कुंजी है | अत: यदि हम चाहते हैं कि हम जीवन पर्यंत निर्भय रहे तो यह आवश्यक है कि हम अपने पापों व अपने दुर्गुणों का त्याग करें | पापों , दुर्गुणों को त्यागने पर ही हमें यह संसार तथा यहाँ के लोग मित्र के समान दिखाई देंगे | जब हमारे मन ही मालिन्य से दूषित होंगे तो भय का वातावरण हमें हमारे मित्रों को भी शत्रु बना देता है , क्योंकि हमें शंका बनी रहती है कि कहीं वह हमारी हानि न कर दें | इस लिए हमें निर्भय बनने के लिए पाप का मार्ग त्यागना होगा, छल का मार्ग त्यागना होगा तथा सत्य पथ को अपनाना होगा | यही सत्य है , यही निर्भय होने का मूल मन्त्र है , जिस की और मन्त्र हमें ले जाने का प्रयास कर रहा है |
वेद कहता है कि मित्र व शत्रु , परिचित व अपरिचित , ज्ञात व अज्ञात , प्रत्यक्ष व परोक्ष , सब से हम निर्भय रहे | इतना ही नहीं सब दिशाओं से भी निर्भय रहे | जब सब और से हम निर्भय होंगे तो सारा संसार हमारे लिए मित्र के सामान होगा | अत: संसार को मित्र बनाने के लिए आवश्यक है कि हम सब प्रकार के पापों का आचरण त्यागें तथा सब को मित्र भाव से देखें तो संसार भी हमें मित्र समझने लगेगा | जब संसार के सब लोग हमारे मित्र होंगे तो हमें भय किससे होगा , अर्थात हम निर्भय हो जावेंगे | इस निमित वेदादेश का पालन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य
तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
ओउमˎ
तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
डा. अशोक आर्य
यह एक ध्रुव सत्य है कि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने का अभिलाषी है | इस अभिलाषा के अनुरूप लम्बी आयु तो चाहता है किन्तु इस लम्बी आयु को पाने के लिए उसे कठिन पुरुषार्थ करना होता है | वास्तव में मानव बड़ी बड़ी अभिलाषाएं तो रखता है किन्तु तदनुरूप पुरुषार्थ नहीं करता | फिर इन विशाल अभिलाषाओं का क्या प्रयोजन ? कैसे पूर्ण हों ये अभिलाषाएं ? आज का मानव सब प्रकार से निरोग व हृष्ट पुष्ट रहते हुए ज्ञान का स्वामी बनने के लिए इच्छाओं का सागर तो ढोता है किन्तु इस सागर में से एक बूंद भी पाने के लिए , उस का उपभोग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , जब कि सब प्रकार की उपलब्धियां पुरुषार्थ से ही पायी जा सकती हैं | पुरुषार्थ ही इस जीवन का आधार है | इस लिए वेदादि महान ग्रन्थ पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देते हैं | ज्ञान व आयु बढाने के लिए तपोमय जीवन बनाने की प्रेरणा अथर्ववेद के मन्त्र ७.६१.२ मैं इस प्रकार दी गयी है | :-
अग्ने तपस्तप्यामहे , उप तप्यामहे ताप: |
श्रु तानी श्रन्वंतो वयं, आयुष्मंत: सुमेधस: || अथर्व. ७.६१.२ ||
यदि इस मन्त्र का संक्षेप में भाव जानने का प्रयास करते हैं तो हम पाते हैं कि मन्त्र हमें उपदेश दे रहा है कि हे मनुष्य तूं मानसिक व शारीरिक तप कर | इस प्रकार तप द्वारा वेदादि का ज्ञान प्राप्त करते हुए मेधावी व दीर्घ आयु को प्राप्त कर |
भाव से स्पष्ट है कि यह मन्त्र दो प्रकार के तापों का उल्लेख कर रहा है | इन दो प्रकार के तापों का नामकरण इस प्रकार कर सकते हैं : –
१. तप
२. उपतप
मन्त्र कहता है कि इन दो प्रकार के तपों के निरंतर अभ्यास से बुद्धि शुद्ध होती है , निर्मल होती है ,तेजस्वी होती है तथा इस प्रकार के तप से मानव ज्ञान का स्वामी बन जाता है व दीर्घायु को प्राप्त होता है |
यह जो दो प्रकार के तपों का वर्णन इस मन्त्र में आया है इन में से तप को हम मानस तप तथा उपतप को शारीरिक तप का नाम दे सकते हैं | मानस तप उस तप को कहते हैं , जिस के द्वारा शरीर व मन शुद्ध होता है | इस के लिए शरीर को विशेष कष्ट नहीं करना होता | इसे पाने के लिए अधिक परिश्रम अधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती | दूसरी प्रकार के तप का नाम उपतप के रूप
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में जो दिया है इस प्रकार के तप को पाने के लिए आसन व प्राणायाम करना होता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आसन व प्राणायाम को उपतप के नाम से जाना गया है | आसन व प्राणायाम के लिए मनुष्य को प्रयास करना होता है , मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है | इस प्रकार शरीर को कुछ कष्ट दे कर इस की शुद्धिकरण का प्रयास आसन व प्राणायाम द्वारा किया जाता है तो इसे उपतप के नाम से जाना गया है | गीता में उपदेश देते हुए श्लोक संख्या १७.१४ तथा श्लोक संख्या १७.१६ के माध्यम से योगी राज श्री कृष्ण जी इस प्रकार उपदेश करते हैं : –
देव्द्विजगुरुप्राग्यपूजनं शौचमार्जवम |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || गीता १७.१४ ||
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत तपो मानसमुच्यते || गीता १७.१६ ||
श्रीमद्भागवद्गीता के उपर्वर्णित श्लोको के अनुसार मानस तप का अति सुन्दर वर्णन किया है | श्लोक हमें उपदेश कर रहा है कि मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मनोनिग्रह, भावशुद्धि तथा जितेन्द्रियता आदि को मानस तप जानों | ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शरीर की शुद्धि , सरलता आदि शारीरिक तप हैं | इस प्रकार गीता भी वेदोपदेश का ही अनुसरण कर रही है | इतना ही नहीं योगदर्शन भी इसी चर्चा को ही आगे बढ़ा रहा है | योग दर्शन के अनुसार : –
अहिन्सासत्यास्तेय – ब्रह्म्चर्याप्रिग्रहा यमा: || योग. २.३० ||
शौचासंतोश -ताप – स्वाध्यामेश्वर्प्रनिधानानी नियमा: || योग २.३२.||
इस प्रकार योग दर्शन ने यम को मुख्य ताप तथा नियम को गौण या उपताप बताया है | इस के अनुसार यम पांच प्रकार के होते हैं : –
(१.) अहिंसा
(२.) सत्य
(३.) अस्तेय (चोरी न करना
( ४.) ब्रह्मचर्य का पालन
( ५). विषयों से विकृति अर्थात अपरिग्रह
योग – दर्शन कहता है कि सुखों के अभिलाषी को इन पांच यम पर चलना आवश्यक है | इस के बिना वह सुखी नहीं रह सकता | इस के साथ ही योग – दर्शन नियम पालन को भी इस मार्ग का आवश्यक अंग मानता है | इस के अनुसार नियम भी पांच ही होते हैं : _
(१) स्वच्छता , जिसे शौच कहा है
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(२) संतोष
(३) तप
(४) स्वाध्याय
(५) ईश्वर चिंतन जिसे ईश्वर प्रणिधान का नाम दिया गया है
योग दर्शन ने जहाँ पांच तप माने हैं ,वहां तप को नियम का भी भाग माना है तथा पांच नियमों में एक स्थान तप को भी दिया गया है | इस से ही स्पष्ट है की तप अर्थात पुरुषार्थ का महत्व इस में सर्वाधिक है | फिर पुरुषार्थ के बिना तो कोई भी यम अथवा नियम का पालन नहीं किया जा सकता |
अंत में हम कह सकते हैं कि अग्निरूप परमात्मा के आदेश से जब हम मानसिक व शारीरिक तप करते हैं तथा वेदादि सत्य ग्रंथों का स्वाध्याय कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें अतीव प्रसन्नता मिलती है, अतीव आनंद मिलता है | आनंदित व्यक्ति की सब मनोका – मनाएं पूर्ण होती हैं | जिसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता | प्रसन्न व्यक्ति को कभी कोई कष्ट या रोग नहीं होता, वह सदा निरोग रहता है | जो नोरोगी है उसकी आयु में कभी ह्रास नहीं होता , उसकी आयु दीर्घ होती है | अत: वेदादेश को मानते हुए वेद मन्त्र में बताये उपाय करने चाहियें , जिससे हम सुदीर्घ आयु पा सकें |
डा. अशोक आर्य
मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो
ओ३म
मेरे शरीर व मन पुष्ट हों,मुझे प्रकाश दो
डा. अशोक आर्य ,
ईश्वर सुखों का भंडार है | मानव को मिलने वाले सब सुख उस प्रभु की कृपा का ही परिणाम है | ईश्वर राजा को रंक बना सकता है तथा रंक को राजा | ईश्वर का आदेश है कि हे मनुष्य ! तुकर्म कर , उसका फल तुझे मैं दूंगा | इस से स्पष्ट है कि ईश्वर यूँ ही राजा को रंक नहीं बनाता और न यूँ ही किसी को रंक से राजा बनाता है जो मानव कर्म करता है , पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है, उसे ईश्वर निश्चित ही उपर उठता है | हम भी प्रति क्षण ईश्वरसे हमारे सुखद भविष्य कि प्रार्थना करते हैं | हम सदा चाहते हैं कि हे ईश्वर ! मुझे सदा स्वस्थ रखें, पुष्ट रखें , सुखी रखें , प्रकाशित रखें | इस के लिए हमें तदनुरूप पुरुषार्थ करना होगा ईश्वर पुरुषार्थी का ही रक्षक होता है | यजुर्वेद के अध्याय १४ मन्त्र १७ में इसे ही दर्शाया गया | मन्त्र इस प्रकार है : –
आयुर्मे पाहि , प्राण में पाह्यपान्म में पाहि |
व्यान्म में पाही ,च्क्शुर्मे पाहि , श्रोत्रं में पाहि ,
वाचन में पिन्व ,मनो मे जिन्वात्मान्म में पाःही ,
ज्योतिर्मे यच्छ || यजुर्वेद १४-17 ||
शब्दार्थ : –
(में) मेरी (आयु:) आयु की (पाहि) रक्षा करो (में प्राणं पाहि) मेरे प्राणवायु की रक्षा करो (में अपानं पाहि) मेरी अपां वायु की रक्षा करो(में व्यानाम पाहि( में व्यान वायु की
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रक्षा करो (में चक्षु: पाहि) मेरी आँखों की रक्षा करो(में श्रोत्रं पाहि) मेरे कानो की रक्षा करो (में वाचं पिन्व)मेरी वाणी को पुष्ट करो (में मन: जिन्व ) मेरे मन को प्रसन्न व तृप्त करो(में आत्मानं पाहि) मेरी आत्मा की रक्षा करो (में ज्योति: यच्छ ) मुझे प्रकाश दो |
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भावार्थ : –
हे परमपिता परमात्मन , मेरी आयु की रक्षा करो | हे प्रभु , मेरे प्राण, अपान, व्यान आदि सब वायुओं की रक्षा करो | हे पिता, मेरी आँखों व कानों की रक्षा करो | हे परमेश्वर, मेरी वाणी को पुष्ट करो व मन को तृप्त करो | हे सर्व रक्षक , मेरी आत्मा की रक्षा करो तथा मुझे प्रकाश दो |
ऊपर हमने यजुर्वेद का मूल मन्त्र देकर उसका शब्दार्थ व भावार्थ भी दे दिया है ताकि हम इस मन्त्र की विषद व्याख्या करने तथा समझने मैं समर्थ हो सकें | अत: आओ हम मन्त्र की विवेचनात्मक व्याख्या द्वारा मन्त्र के भाव को समझने का प्रयास करें तथा दूसरों को भी समझाने के लायक बनें |
मन्त्र में कुछ व्यक्तिगत प्रार्थनाओं के द्वारा हम ने प्रभु से हमारे विभिन्न अवयवो की रक्षा, पुष्टि व प्रकाश देने की प्रार्थना की है | परमपिता परमात्मा हमारा पिता होने के कारण हम उस प्रभु से जो कुछ भी माँगते हैं वह हमें देता ही चला जाता है | प्रभु देता तो है किन्तु देता उसे ही है जो लेने के लिए सुपात्र हो | कुपात्रों को वह प्रभु कुछ भी नहीं देता | कहा भी है की जैसा बोवोगे , वैसा ही काटोगे | यदि हम गेहूं का बीज अपने खेत में डालेंगे तो प्रभु उसका फल गेहूं के पौधे के रूप में ही देता है खरबूजा कभी नहीं लगाता, खरबूजे के पौधे पर सदा खरबूजा ही लगाता है , आम कभी नहीं लगाता | इस प्रकार प्रभु का कार्य व न्याय सत्य है | इसे कोई कितना भी प्रयास करे बदल नहीं सकता | प्रभु सहायता उसकी ही करता है जो पुरुषार्थ, परिश्रम से अपनी सहायता करता है | इस आलोक में मन्त्र का अर्थ हम इस प्रकार करते हैं :-
मन्त्र में परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए मांग की गयी है की वह प्रभु हमारी आयु,प्राण.अपान.व्यान आदि सब प्रकार की वायुओं की रक्षा करो | प्रभु हम सब का रक्षक है, देवों का देव है | इस नाते हम जो कुछ भी उस प्रभु से माँगते है, वह हमें देता है किन्तु कुछ भी देने से पहले प्रभु एक शर्त लगाता है तथा हमें उपदेश देते हुए कहता है कि मैं यह सब तभी दूंगा, जब तुम अपने आप को कुछ लेने का अधिकारी बनोगे | कुछ लेने का अधिकारी बनने के लिए मेहनत करनी होगी , पुरुषार्थ करना होगा | जब मांग के अनुरूप पुरुषार्थ करोगे तब ही कुछ मिलेगा , यदि यह समझो की जो मांगेंगे,वह मिल तो जाना ही है, तो मेहनत की क्या आवश्यकता है ,तो ऐसे व्यक्ति को प्रभु भी कुछ देने वाला नहीं | हम
\ने प्रभु से शरीर की रक्षा करना तो माँग लिया किन्तु शरीर की रक्षा के विरुद्ध शरीर को नस्ट करने का
काम कर रहे हैं तो प्रभु हमारी प्रार्थना कैसे स्वीकार करेगा ? अत: जो हम माँगते हैं वह हमें हमारे पुरुषार्थ करने पर ही प्रभु देता है | इस मन्त्र में हमने प्रभु से हमारे शारीर की विभिन्न प्रकार की वायुओं की रक्षा की मांग की है | वायुओं की रक्षा के लिए प्राणायाम करना होता है | यह प्राणायाम ही है , जिससे हमारी
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सब प्रकार की वायुओं में पुष्टि आती है ,उनमें शक्ति आती है तथा शरीर भी निरोग बनाता है | हम प्राणायाम नहीं करते तो यह शक्तियां हम प्राप्त नहीं कर सकते | अत: प्रभु की प्रार्थना के साथ ही साथ पुरुषार्थ भी आवश्यक है | हमारे शरीर में पांच प्रकार की प्राण आदि वायुओं का निवास है | इन पाँचों वायुओं के स्थान व कार्य भी निश्चित हैं जो एक श्लोक में इस प्रकार बताये गए हैं : –
हृदि प्राणों, गुदे$पान: , सामानों नाभिमंदाले |
उदान: कंठदेशस्थो , व्यान: सर्वशरीरग: ||
हमारे शारीर में जो प्राणवायु चल रहा है, उसे ही प्राण शक्तिभि कहते है | यह दो नहीं हैं ,एक के ही दो नाम हैं | जिस प्रकार किसी रामलाल व्यक्ति को कोई तो रामलाल कहता है तो कोई पिता, मामा ,चाचा, ताया या किसी एनी नाम से संबोधन करता है || इस प्रकार शरीरस्थ वायु भी एक ही है किन्तु कार्य भेद से पांच नाम दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं : –
१. प्राण वायु :-
यह वायु ह्रदय की शुद्धि तथा रक्त को निर्धारित स्थान पर पहुँचाने का कार्य करती है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते है की यह वायु शरीर की व्यवस्था का मुख्य भार अपने पास रखती है | शरीर का संचालन रक्त से ही होता है | रक्त को शरीर के सब भागों में पहुँचाने का कार्य यह वायु करती है | इस कारण इसे शरीर की संचालक वायु भी हम कह सकते हैं | सब जानते हैं की शरीर का संचालन ह्रदय से ही होता है | अत: हम कह सकते हैं कि इस वायु का मुख्य कार्य एक रसोईये के समान है,जो बनाता भी है तथा सब को बांटने का कार्य भी करता है | अत: हम कह सकते हैं की इस वायु का निवास ह्रदय में ही होता है | ह्रदय ही शरीर का केंद्र होने के कारण यहाँ से सब अवयवों का संचालन सरल हो जाता है | इस लिए यह वायु यहीं पर ही अपना निवास बनाती है |
२. अपान वायु : –
शरीर में एकत्र हो रहे मल – मूत्र आदि शल्य पदार्थों को बाहर निकाल कर शारीर को शुद्ध रखना होता है | यह मल शुद्धि के माध्यम से शरीर की गन्दगी को शरीर से साफ़ कर बाहर निकालने का कार्य करती है | शरीर की मल्शुधि का मुख्य कार्य गुदा मार्ग से ही होता है
, इस कारण इस का निवास स्थान गुदा को अर्थात नाभि के नीच के स्थान को ही माना गया है | यदि हमारे शरीर का शोधन न हो तो हमारे शरीर में रोग के कीटाणुओं की संख्या तेजी
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से बढ़ेगी ,जिससे हम किसी भी भयंकर रोग का ग्रास बन जावेंगे | इस लिए इस वायु का भी हमारे शरीर को स्वस्थ रखने में महत्वपूर्ण योगदान है |
३. समान वायु : –
इस वायु को कन्द्रीय वायु भी कहते हैं | जो भोजन हम करते हैं , यदि वह पचे नहीं तो हमारे शरीर को घोर कष्टों का सामना करना पड़ता है | यह वायु हमारे खाए भोजन को पचाने का कर्तव्य पूर्ण करने के साथ ही साथ इस भोजन से रक्त बना कर उस रक्त को शरीर के विभिन्न अवयवों को बांटने का कार्य करती है | इस का निवास शरीर के केंद्र में होने के कारण ,यह सदा नाभि में निवास करती है |
४. उदान वायु : –
यह वायु मनुष्य को उर्ध्वारेता बनाने का कार्य करती है | यह ही वह वायु है जो ह्रदय तथा मस्तिष्क में सम्बन्ध बनाती है | यह वायु हमारे कंठ को भी शुद्ध करती है तथा मस्तिष्क को शक्ति अर्थात पुष्ट करने का कार्य भी करती है | इस वायु का मुख्य कार्य कंठ से होने के कारण इस का निवास भी कंठ ही होता है |
५. व्यान वायु : –
यह वायु उपर्वर्णित चारों प्रकार की वायुओं में समन्वय बैठाने काम करती है | इस के साथ ही साथ शरीर के प्रत्येक अंग में प्राण का संचार करती है | इस वायु के बिना शरीर में चेतना नहीं आ सकती | सारे शरीर से सम्बन्ध होने के कारण यह वायु पूरे शरीर में व्याप्त रहती है , इस कारण इस का निवास भी पूरे शरीर में होता है|
मन्त्र अंत मैं प्रार्थानाके माध्यम से कहता है की मेरी आत्मा की रक्षा करते हुए ज्योति देने की भी मांग करता है | अब हम देखें की आत्मा की रक्षा कैसे होती है ? जो मनुष्य अच्छे कार्य करताहै , शुभ कर्म करता है, दुसारों की सहायता करता है , उसकी आत्मा को जो ख़ुशी प्राप्त होती है , उसका वर्णन कलम से तो संभव नहीं है | बस ऐसे कार्य करने से ही आत्मा की रक्षा होती है | ऐसे कार्य करने वाले की ख्याति ही उसकी रक्षक बनती है | अत: प्रभु से प्रार्थना के साथ ही साथ अच्छे कार्य भी करते रहना चाहिए ताकि आत्मा भी तृप्त हो तथा उसकी रक्षा भी हो |
यहाँ ज्योति देने या प्रकाश देने की भी मांग की गयी है| जब कोई मनुष्य शुभ काम करता है तो उसकी ख्याति तो दूर दूर तक जाती ही है साथ ही साथ उसके अन्दर एक सुखदायक प्रकाश भी उसे दिखाई देता है | यह ज्योति या प्रकाश ही तो हम प्रभु से माँगते हैं |
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यह ज्योति ही वास्तव में मानव के जीवन को पवित्र, सुखप्रद , प्रशास्तिपूर्ण व उन्नत बनाती है | इस ज्योति को पाने के किये मनुष्य जीवन पर्यंत भटकता रहता है जब कि इसे पाने का साधन उसके अपने ही हाथ में होता है |
इस प्रकार मन्त्र में शरीर के विभिन्न अवयवों को पुष्ट करने व उनकी रक्षा का उपाय वायुओं को बताया है तथा इन वायुओं की रक्षा स्वरूप प्राणायाम को अपनाने की प्रेरणा दी है | साथ ही आत्मा की रक्षा के लिए अच्छे काम कर एक विचित्र प्रकाश देने की प्रार्थना की गयी है , जिससे मानव का जीवन सफल बनता है |
डा. अशोक आर्य ,मंडी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमैंट ,कोशाम्बी ,गाजियाबाद चलभाष :०९७१८५२८०६८, ०९३५४८४५४२६