Category Archives: वेद मंत्र

प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं

प्रभु हमारे पालक हैं तथा हमें सब कुछ देते हैं
(सम्पूर्ण सूक्त)
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सप्तम सूक्त में बताया गया है कि सूर्य तथा मेघादि उस पिता की ही विभूतियां हैं । पिता ही हमें विजय़ी करते हैं , वेद ज्ञान का ओढना देता हैं, अनन्त दान करते हैं,हम प्रभु की ( उस गोपाल की ) गोएं हैं , जो हमारा पालन करने वाले हैं तथा हमें आवश्यक धन प्राप्त करते हैं ।
प्रभु गुणगान से मन शान्त,बुद्धि तीव्र व यज्ञात्मक
कर्म से शक्ति मिलती है
डा. अशोक आर्य
प्रभु के गुणगान करने वाले मानव का मन शान्त होता है । उसकी बुद्धि दीप्त हो जाती है , तेज हो जाती है। उसके हाथ यज्ञ जैसे उत्तम कर्म करते हैं , जिससे उसके अन्दर शक्ति का उदय होता है । इस मन्त्र में यह बात इस प्रकार प्रकट की गई है : –
इन्द्रमिद्गाथिनोबृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः।
इन्द्रंवाणीरनूषत॥ ऋ01.7.1
इस मन्त्र में तीन बातों पर बल देते हुए बताया गया है कि :-
१. साम गायन से शांति कि प्राप्ति
उत्तम स्वर में गाए जाने योग्य जो वेद है , उसका नाम साम वेद है । एसे वेद के मन्त्रों से , जो गायन करने के योग्य है , के मन्त्रों को गायन करते हुए उस पिता के उदगाता , उस प्रभु के भक्त , उस पिता के गुणों का गायन करने वाले लोग, निश्चित रुप से ही शत्रुओं को नष्ट करने वाले , उनका विदारण करने वाले , उन्हें क्लेष देने वाले , शत्रुओं को रुलाने वाले ,सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी होने के कारण सब प्रकार के एश्वर्यों से सम्पन्न उस परम पिता परमात्मा का भरपूरर स्तवन करते हैं , उसका अत्यधिक मन से कीर्तन करते हैं तथा उसके गुणों का , उसके यश का गुणगान करते हैं ।
यह भक्त उस पिता का गुण गान सामवेद के मन्त्रों से गायन ही हुए करते हैं अथवा साम गायन करते हैं , क्योंकि साम कहते हैं शान्ति को । इसलिए साम के मन्त्रों का गायन करने से वह भी साम से युक्त हो जाते हैं अर्थात शान्ति से युक्त हो जाते हैं । उन के सब क्लेष दूर होने से उन का मन सब प्रकार के क्लेषों से छूट कर शान्त हो जाता है । साम गायन वास्तव में शान्त करने वाला ही होता है ।
२. ऋग्वेद ऋग = विज्ञान का साधक
इतना ही नहीं हम ऋग्वेद के मन्त्रों से भी उस पिता के गुणों का गायन करते हैं । हमारा वह प्रभु ऋग्वेद के मन्त्रों में भी बसा हुआ है । इस कारण उसे ऋग्वेद रुप भी कहा जाता है । एसे ऋग्वेद रुप मन्त्रों से अर्थात ऋग्वेद के मन्त्रों से युक्त प्रभु के भक्त , प्रभु के होता, प्रभु के यश का गायन करने वाले , उसका स्तवन , उसका कीर्तन करने वाले , ऋग्वेद के ही मन्त्रों से उस ज्ञान रुप , उस ज्ञान के भण्डार तथा परम एश्वर्यों के स्वामी उस इन्द्र का , उस पिता का , उस पूज्य प्रभु का अत्यधिक स्तवन करते हैं , उसके निकट जाकर उसका गायन करते हैं ।
जब यह भक्तगण ऋग्वेद की इन ऋचाओं के द्वारा परम पिता का स्तवन करते हैं , प्रभु के गुणों का गायन करते हैं तो इन ऋचाओं का भाव भी उन के अन्दर आ जाता है । इन ऋचाओं का भाव क्या है ? इन ऋचाओं के मन्त्रों में ऋक का विज्ञान भरा रहता है । इस कारण प्रभु के एसे भक्त के मस्तिष्क में भी ऋग – विज्ञान भरने वाले यह मन्त्र बनते हैं । भाव यह कि इन के गायन से ऋग – विज्ञान इन के मस्तिष्क में आकर इन्हें प्रकशित करता है तथा यह लोग इस ज्ञान से प्रकाशित हो जाते हैं ।
३. यजुर्वेद के स्वाध्याय से सबल
उन्नति की ओर उठने वालों को , उपर उठने वालों को अर्ध्व्यु कहा जाता है । एसे अर्ध्व्यु लोग , सब प्रकार से बल से युक्त कर्मों को करने वाले , वह सब कर्म जो बल से होते हैं , उन्हें करने के प्रणेता प्रभु की ही त्रितीय अर्थ की वाणी अर्थात यजुर्वेद के मन्त्रों से उस पिता की स्तुति करते हैं , उसकी निकटता प्राप्त करते हैं , उसके गुणों का गायन करते हैं ।
यजुर्वेद के मन्त्रों रुपि वाणियों से , यजुर्वेद के मन्त्रों के गायन से उस पिता का गुणगान ,यशोगान , कीर्तन , भजन व स्तवन करते हुए पिता के यह भक्तजन अधर्वु , उपर उठने वाले लोग , उन्नति पथ पर बढने वाले लोग अपने हाथों से यज्ञ आदि , परोपकार से युक्त उत्तम कर्म करते हैं । यह सदा ही एसे उत्तम कर्म करते है , जिससे दूसरों का भी हित हो । इस प्रकार के कर्म इन भक्तों को सबल करते हैं , सब प्रकार के बलों से युक्त कर , इन्हें बलवान बनाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण

प्रभु भक्त का शरीर दृढ,बुद्धि उज्ज्वल तथा ह्रदय प्रेम से पूर्ण
डा. अशोक आर्य
जो लोग ईश्वर के भक्त होते हैं , उनका शरीर मजबूत होता है , उनका मस्तिष्क ज्ञान से उज्ज्वल होता है तथा उनका ह्रदय प्रेम की स्निग्ध भावना के कारण पूर्णतया परिपूर्ण होता है । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।:-
इतोवासातिमीमहेदिवोवापार्थिवादधि।
इन्द्रंमहोवारजसः॥ ऋ01.6.10
इस मन्त्र में तीन बातों की ओर संकेत किया गया है :-
१ धन एश्वर्य का स्वामी
प्रभु भक्त तीनों लोकों में अपने उस पिता का निवास अनुभव करता है , उसे देखता है , सर्वत्र उसे प्रभु की महिमा दिखाई देती है । । इसे देखते हुए वह कह उठता है कि हमारा वह प्रभु परम एश्वर्यशाली है । वह दाता है , वह महादेव है । वह प्रभु ही देने वाला है । उससे ही हम याचना करते हैं , प्रार्थना करते हैं , धनेश्वर्य मांगते हैं । क्यों ? क्योंकि वह प्रभु ही धन आदि देने में सक्षम है । वह सक्षम कैसे है ? क्योंकि वह धन आदि का स्वामी है ।
स्पष्ट है कि मांगा उस से जाता है जिस के पास कुछ हो । जिसके पास स्वयं के पास ही कुछ नहीं है , वह दूसरों को क्या दे सकता है ? अर्थात कुछ भी नहीं । जब उसके पास कुछ है ही नहीं , वह स्वयं ही अपनी आवश्यकताएं पूर्ण करने के लिए दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाए हुए है तो एसे याचक के आगे अपना हाथ फ़ैला कर कौन याचना करेगा । हम जानते हैं कि प्रभु के पास सब की याचना पूर्ण करने की शक्ति है , साधन है , इसलिए ही इस पार्थिव जगत मे अपने हितों की पूर्ति के लिए सब लोग याचक बन कर उसके आगे हाथ फ़ैलाते हैं ताकि वह हमें धन आदि देकर उपकृत करे । वह पिता ही इस पार्थिव जगत में धन आदि देने वाले हैं ।
पार्थिव जगत या पार्थिव लोक वास्तव में पृथ्वी ही है । जब तक पृथ्वी सुदृढ नहीं होगी तब तक इस पर न तो कुछ वनस्पतियां ही पैदा होती हैं तथा न ही इस पर कोई जीव ही रह सकता है । अत: इस धन आदि का स्वामी पृथ्वी का सुदृढ होना आवश्यक होता है । उपर हम ने जो सुदृढता के लिए याचना की है , वह वास्तव में इस पृथ्वी के लिए ही की है । हमारा शरीर भी तो पृथ्वी रूप ही है , इसका निर्माण भी तो पंचतत्वों का ही परिणाम है । इसलिए ही हम अपने शरीर को पृथ्वी के समान दृढ , मजबूत देखना चाहते हैं । इस लिए ही हम अपने उपर प्रभु कृपा चाहते हैं , आशीर्वादों से भरा उस पिता का हाथ अपने सर पर देखना चाहते हैं ताकि वह हमारे शरीर को वज्र के समान कठोर अथवा मजबूत बना दे । यह शरीर पत्थर के समान दृढ हो जावे तथा हम निरन्तर आसन , व्यायाम ,प्राणायाम करते हुए अपने इस शरीर को वज्र के समान बनाएं । यह ही हमारी प्रभु से कामना है , याचना है ।
२ प्रभु दीप्ती दो ,प्रकाश दो
हम सदा धनवान व साधन सम्पन्न बनना चाहते हैं । हम चाहते हैं कि हमारे पास इतना धन हो कि हम अपनी आवश्यकताएं स्वयं पूर्ण करने में सक्षम हों , किसी के आगे हाथ न फ़ैलाना पडे । इस लिए हम उस पिता से वह धन मांगते हैं जो देवलोक में होता है । हम उससे द्युलोक का एश्वर्य मांगते हैं । अब प्रश्न उठता है कि द्युलोक का धन कौन सा होता है ? मन्त्र कहता है कि द्युलोक का धन होता है दीप्ति , तेज , प्रकाश । हम उस पिता से दीप्ति मांगते है , ज्ञान का प्रकाश मांगते हैं , तेज मांगते हैं । जिस प्रकार द्युलोक में सूर्य चमकता है , उसका प्रकाश समग्र विश्व में फ़ैल जाता है , सब दिशाएं प्रकाशित हो जाती हैं । एसा ही ज्ञान रुपी प्रकाश हम अपने अन्दर देने की कामना उस पिता से करते हैं । ताकि हम भी सब दिशाओं को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर पाने में सशक्त हो सकें ।
३ शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हों
हमारा यह द्युलोक , हमारा यह अन्तरिक्षलोक महान है । इस महान अन्तरिक्ष से हम एसा धन , एसा एश्वर्य मांगते हैं , जो चन्द्र की शीतल , ठंडी किरणों के कारण शीतल ज्योत्स्ना से परिपूर्ण हो ज्योत्स्नामय ही हो रहा है । हम चाहते हैं कि चन्द्र की शीतल चांदनी के ही समान हमारा ह्रदय रुपि अन्तरिक्ष (जो अब तक रिक्त पडा है , खाली पडा है ) भी प्रेम से भरपूर , स्निगधता की भावना से अत्यंत शीतलता को, ठण्डक को प्रभावित करने वाला हो । यह सब में शीतलता भरने में , बांटने में सश्क्त हो , सक्षम हो ।
डा. अशोक आर्य

हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें

हम प्रभु स्तवन करते हुए अपने जीवन को गुणों से अलंकृत करें
डा.अशोक आर्य
प्रभु सर्व व्यापक है । उसकी महिमा को हम प्रत्येक लोक में देखें । हम सदा स्वयं को प्रभु में ही स्थित रखते हुए उस प्रभु का स्तवन करें, गुणगान करें । इस प्रकार हम अपने जीवन को गुणों रुपी अलंकारों से अलंकृत करते हैं । इस बात को ही मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है । :-
अतःपरिज्मन्नागहिदिवोवारोचनादधि।
समस्मिन्नृञ्जतेगिरः॥ ऋ01.6.9
१. प्रभु के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त कर
उस परमपिता परमात्मा का भक्त उस की आराधना करते हुए उस से प्रार्थना करता है कि हे चारों दिशाओं में सर्वव्यापक प्रभो ! आप हमें प्राप्त होइये । मानव जन्म में प्रभु को पाने की अभिलाषा रखता है । इस अभिलाषा की पूर्ति ही इस मानव का लक्ष्य है । इसलिए वह पिता से प्रार्थना करता है की हे पिता ! आप मुझे शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त होइये, मिलिए, दर्शन दीजिए । आप हमें पृथ्वी लोक से , प्राप्त होवें चाहे आप हमें द्युलोक से प्राप्त होवें अथवा अन्तरिक्ष लोक से ( जो केन्द्र व विद्युत् की दीप्ती वाला है, जो केन्द्र व बिजली के प्रकाश से चमकने वाला है ) हमें प्राप्त होवें ।
पृथ्वी में जो अग्नि आदि देव हैं , जो आपके तेज को और भी तेजस्वी करने वाले देव हैं , मैं उन सब देवों का चिन्तन करता हुआ, स्मरण करता हुआ , उन सब देवों में आपसे स्थापित किये गए देवता का दर्शन करूं, उस देवता का दर्शन करुं, जिसे आपने अपने में स्थान दे दिया है । इतना ही नहीं मैं अंतरिक्ष लोक में भी, अंतरिक्ष के देवों के माध्यम से सदा आप ही की महिमा को देखूं , आप ही के दर्शन करुं । द्युलोक को प्रकाशित लोक कहते हैं, इस लोक में भी मैं सदा आप ही के प्रकाश को पाऊं, आप ही के प्रकाश को देखूं ।, आप ही का प्रकाश मुझे मिले । इस प्रकार तीनों लोकों में सर्वत्र मुझे आप ही के प्रकाश के दर्शन हों , आप ही का प्रकाश मुझे दिखाई दे तथा आप ही के प्रकाश की ज्योति को प्राप्त करुं ।
हे प्रभु मैं सर्वत्र आप ही की महिमा के दर्शन करुं । पृथिवी लोक हो चाहे अन्तरिक्ष लोक हो अथवा द्युलोक हो , जहां भी जाऊं सर्वत्र अपनी महिमा के द्वारा आप ही आप दिखाई दें , आप ही की महिमा सर्वत्र कार्यरत ,सर्वत्र गतिमान , सर्वत्र कर्मशील दिखाई दे तथा उस महिमा को देख कर , उस महिमा के दर्शन कर मैं अपने आप को उज्जवल करुं , धन्य करुं ।
२. परमात्मा में जीवन सुभाषित
इस प्रकार जो लोग सब स्थानों पर उस पिता की महिमा को देखते हैं , इस प्रभु स्मरण करने वाले लोग , प्रभु स्तवन करने वाले लोग, प्रभु का कीर्तन करने वाले लोग , प्रभु की निकटता पाने वाले प्रभु भक्त लोग इस परमात्मा में ही अपने जीवन को सुभाषित करते हैं , सजा लेते हैं । इस प्रकार इसे प्रभु की स्तुति करते हुए , इस प्रभु की आराधना करे हुए , इसे प्रभु का कीर्तन करते हुए , इसे प्रभु की समीपता पाने का यत्न करते हुए , यह प्रभु भक्त अपने जीवन को प्रभु के अनुरुप बनाने का यत्न करते हैं , जो गुण प्रभु में हैं , वैसे गुण स्वयं में धारण करने का निर्णय करते हैं । यह लोग स्वयं को भी उस पिता के सामान बनाने का निर्णय लेकर वैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । जब यह लोग एसा यत्न ,प्रयास करते हैं तो उनके जीवन में सुन्दरता निरंतर बढ़ने लगती है तथा वह निरंतर सुन्दर तथा और सुन्दर बनते चले जाते हैं ।
डा. अशोक आर्य

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-४१

सप्तमर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामेकामिदभ्यंहुरो गात्।

आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ।।

– ऋ. १०/५/६

परमेश्वर ने मनुष्य के अन्दर दो सत्ताओं को समाविष्ट कर रखा है। देखने में प्रत्येक प्राणी के पास एक शरीर है, जो उसकी पहचान है। पहचान नष्ट हो जाये तो कोई शरीरधारी उसे खोजकर नहीं ला सकता। जो इस शरीर से पहचाना जाता है, वह जीवात्मा है। आत्मा अपनी इस पहचान से ही जाना जाता है कि वह अपनी संसार यात्रा से कहाँ तक पहुँचा है।

शरीर तो सभी प्राणियों के पास है, एक-एक प्रकार के शरीर धारण किये भी बहुत सारे प्राणी होते हैं और फिर प्राणियों  के प्रकार, नस्ल भी बहुत हैं। ये दो बातें संकेत करने के लिये पर्याप्त हैं कि सभी प्राणी यात्री हैं और प्रत्येक की यात्रा की पहुँच भिन्न-भिन्न चरणों में चल रही है। हमारे लिये इस यात्रा के कारण कोई प्राणी ऊँचा या नीचा हो सकता है, परन्तु परमेश्वर की दृष्टि में तो सभी उस तक पहुँचने के इच्छुक यात्री हैं, कोई उससे बहुत दूर है तो कोई उसके निकट है।

संसार को देखने से दो बाते समझ में आती हैं- जीव बहुत प्रकार के हैं, उसी प्रकार संसार में सबकी अनिवार्यता और उपयोगिता भी है। जैसे भवन के निर्माण में एक व्यक्ति भवन की आवश्यकता वाला है, वह अपने को उसका स्वामी समझता है। वह अपने को निर्माण करने वाला कहता है। स्वयं को स्वामी भले ही कहे, परन्तु वह उसका निर्माण नहीं कर सकता। भवन का निर्माण करने के लिये कुछ व्यक्ति उसके विचार को क्रियान्वित करने का स्वरूप बताते हैं। हम उन्हें वास्तुकार कहते हैं। वे उसे उसकी इच्छा के अनुकूल भवन का चित्र बनाकर देते हैं। कुछ लोग लोहा, मिट्टी, लकड़ी, पत्थर से उस स्वरूप को आकार देते हैं। दूसरे लोग उसे उपयोगी बनाते हैं, तीसरे उसकी सुन्दरता को चित्रित करते हैं, वैसे ही संसार में समस्त प्राणियों की भूमिका बनती है। जैसे हम आशा करते हैं कि सरकार-राज्य इस देश के नागरिकों को कार्य दे और उनके पुरुषार्थ तथा बुद्धि का सदुपयोग ले और उसे सार्थक से करे। उसी प्रकार परमात्मा ने भी संसार में जितने कार्य हैं, उतने प्रकार के प्राणियों की रचना की है। कोई भी प्राणी अनुपयोगी नहीं है, यदि अनुपयोगी होता तो न तो उसको उसके कर्मों का फल मिलता, न संसार के वे विशेष कार्य दूसरा कर सकता।

इन प्राणियों में परमेश्वर ने अपने कार्यों के प्रति कुछ को उत्तरदायी बनाया है, कुछ को उत्तरदायी नहीं बनाया। सांसारिक व्यवस्था में कुछ लोग निर्णय करने वाले होते हैं, कुछ लोग अनुपालना करने वाले। उत्तरदायी निर्णय करने वाले माने जाते हैं। कार्य के अच्छे-बुरे, हानि-लाभ के लिये अनुपालना करने वालों को उत्तरदायी नहीं माना जाता। जो उत्तरदायी है, उसे ही पुरस्कार और दण्ड मिलता है। अनुपालना करने वाले को केवल उसके जीवन यापन के साधन मिलते हैं, जिसे हम मजदूरी कहते हैं।

इसी प्रकार संसार में भोग-योनि के प्राणी अनुपालना करने वाले हैं। परमेश्वर ने उन्हें संसार में जिस कार्य के योग्य बनाया है, वह स्वयं उनके जीवन से पूर्ण होता है और उनके जीवित रहने के उपाय परमेश्वर ने उन्हें दिये हैं। उनके कार्य में बाधा पहुँचाना, उनके जीवन को मध्य में समाप्त करना, उन्हें कष्ट देना- ये कार्य मनुष्य अपने विवेक से करता है, इसके लिये मनुष्य ही इसके परिणाम का उत्तरदायी बनता है। संसार में मनुष्य से भिन्न सारे प्राणी इसी श्रेणी में आते हैं। अतः इनको भोग-योनि कहा जाता है। इनके कार्य का निर्णय परमेश्वर ने इनके जीवन के साथ किया है। अतः वही उत्तरदायी है।

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-40

हस्तायां दशशाखायां जिह्वा वाचः पुरोगवी।

अनामयित्नुयां त्वा तायां त्वोप स्पृशामसि।।

– ऋग्. 10/137/7

संस्कृत भाषा में वैद्य को पीयूष-पाणि कहा जाता है। पीयूष का अर्थ है-अमृत और पाणि का अर्थ होता है-हाथ। जिसके हाथ में अमृत हैं, ऐसे वैद्य की चर्चा इस मन्त्र में की गई है, वैद्य के दोनों हाथ ही नहीं, हाथ के पोर-पोर में, अंगुलियों में अमृत भरा है। वह हाथ जिस भी रोगी का स्पर्श करते हैं, उसे निरोग करते हैं। वैसे सभी लोग जो भी कार्य करते हैं, हाथ से ही करते हैं, सारे कला-कौशल के कार्य हाथ से ही किये जाते हैं। लेखन, निर्माण, कृषि सभी कुछ तो हाथों से ही होता है। इन सभी में जो उत्कर्ष आता है, वह हाथों से ही आता है।

वैद्य का हाथ दो प्रकार से उत्कर्ष को देने वाला होता है। रोगी की नाड़ी देखकर, त्वचा का स्पर्श देखकर रोगी की चिकित्सा की जाती है तथा हस्ताभिमर्श चिकित्सा में रोगी के शरीर में जहाँ-जहाँ पीड़ा होती है, वहाँ हाथ का स्पर्श कर अथवा रोगयुक्त अंग के पास ले जाकर हाथ से रोग दूर किया जाता है।

वेद में अन्यत्र भी हस्ताभिमर्श चिकित्सा का वर्णन आया है। वहाँ मनुष्य द्वारा अपने हाथ के सामर्थ्य का वर्णन करते हुये कहा गया है, मेरा हाथ भगवान् है, ऐश्वर्यवान् है, ऐश्वर्य से महत् है। यह मेरा हाथ विश्व-भेषज है। वहाँ ‘अयं मे विश्व भेषजः’ कहा है। हाथ में समस्त समस्याओं के समाधान करने का सामर्थ्य है। इसलिये यहाँ ‘भेषज’ शबद का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में ‘भिषक’ वैद्य के लिये है। परमेश्वर को ‘भिषकतम’ कहकर पुकारा गया है। वह परमेश्वर सब वैद्यों से भी बड़ा वैद्य है। ‘भिषकतमं त्वा भिषजां शृणोमि’-मैं भली प्रकार जानता हूँ, तु संसार के समस्त रोगों की दवा है। मनुष्य भी अपने हाथ को कहता है- यह हाथ विश्व-भेषज है। यह हाथ अभिमर्श चिकित्सा का सूत्र है, यह हाथ समस्त कल्याण को देने वाला और अकल्याण को दूर करने वाला है। हम यदि वाणी से न भी बोलें, तो भी हमारे शरीर के अंगों के स्पर्श से हमारे भाव दूसरे तक पहुँचते हैं, दूसरे को प्रभावित करते हैं। भारतीय शिष्टाचार में आशीर्वाद के रूप में अपने से छोटे के सिर पर हाथ रखा जाता है। बड़ा व्यक्ति प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर ही प्रणाम के उत्तर में आशीर्वचन कहता है। माता-पिता, गुरुजन सिर पर हाथ रखते हैं। देवता भी सिर पर हाथ रखकर वरदान या अभय दान देते हैं। इसीलिये लोक में भी किसी व्यक्ति के निर्भय होने पर उसके बड़े का या परमेश्वर का हाथ उसके सिर पर होने की बात की जाती है। बालकों की पीठ पर हाथ रखकर उसका उत्साह बढ़ाया जाता है। किसी सफलता पर शाबासी दी जाती है। साथी के पीठ पर हाथ रखकर समर्थन जताया जाता है। तुम आगे बढ़ो, तुमहारी पीठ पर हमारा हाथ है।

इस मन्त्र में हाथ की विशेषता बताते हुए कहा गया है- ‘हस्तायां दश शाखायां’ दश शाखाओं वाले दोनों हाथों से। हाथ की योग्यता में आगे कहा है- ‘अनामयित्नुयां’ आमय रोग को कहा जाता है। ये हाथ रोग को दूर करने का सामर्थ्य लिये हुये हैं। इन रोगों को दूर करने वाले हाथों से मैं तेरा स्पर्श करता हूँ। मेरे हाथ का स्पर्श तुझे निरोग करने का सामर्थ्य रखता है। हाथ निरोग करने में समर्थ है, यह वाणी का कथन है- मैं तो रोगी को स्वस्थ करने की घोषणा करता ही हूँ। इसके अतिरिक्त जिन्होंने भी  मेरी इस योग्यता का लाभ उठाया है, उनकी वाणी भी मेरी योग्यता का बखान करती है। मेरी चिकित्सा से स्वस्थ हुये व्यक्ति सदा मेरी प्रशंसा करते हैं।

इस पूरे सूक्त में मनुष्य को किस प्रकार स्वस्थ रखा जा सकता है, यह कथन किया है। वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा, आश्वासन चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा के सूत्र इन मन्त्रों में बताये गये हैं। सामान्य बात है कि शरीर जिन पंच महाभूतों से बना है, उनके कम अधिक होने पर मनुष्य रोगी होता है। इन भौतिक तत्त्वों का सामान्य रूप ही शरीर को स्वस्थ रख सकता है। अतः चिकित्सा में केवल एक ही विचार सपूर्ण नहीं होता। इसको वैद्यक पथ्यापथ्य कहते हैं। औषध का उपयोग करने पर भी यदि पथ्य न किया जाये तो औषध से पूर्ण लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। पथ्य के महत्त्व को बताते हुए कहा गया है- यदि मनुष्य पथ्य करता है, तो बिना औषध के मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। वैद्य को पता होना चाहिए कि रोगी के शरीर में कौन से तत्त्व की कमी है और कौन सा पदार्थ उस तत्व को पूरा कर सकता है। यही इन मन्त्रों का सन्देश है।

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है

प्रभु की कृति में उसे देखने वाले का मन विषयों से बचता है
डा. अशोक आर्य
ऋग्वेद के पंचम सूक्त में बताया गया था कि हम सोम को शरीर में सुरक्षित कर इशान बनें व सामूहिक रुप से प्रभु की प्रार्थना करें । इन सुरक्षित शरीरों ( जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है ) को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करें ? हमारी इस जिज्ञासा का , इस बात को जानने का जो यत्न है , इसका उतर इस मण्डल के सूक्त छ: में दिया है । अत; इसे जानने के लिए सूक्त छ: का स्वाध्याय हम इस छ्टे सूक्त के प्रथम मन्त्र से करते हैं । मन्त्र उपदेश करता है कि : –

युञ्जन्तिब्रध्नमरुषंचरन्तंपरितस्थुषः।
रोचन्तेरोचनादिवि॥ ऋ01.6.1
युन्जन्ति ब्रघ्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुष: ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥रिग्वेद १.६.१ ॥
इस मन्त्र में पाच बातों की और मानव का ध्यान आकर्षित करते हुए इस प्रकार उपदेश किया गया है कि :
१. सूर्य सम्बन्धी ज्ञान :
ऊपर इशान बनने के लिए प्रेरित किया गया है । इशान बनने के लिए , दूसरे शब्दों में इन्द्रियों को विभिन्न प्रकार की वासनाओं से , विषयों से रोकने के लिए अभ्यास करने वाले अपने मन आदि को ब्रध्न में अर्थात आदित्य व सूर्य में लगाते हैं क्योंकि यह ही ब्रध्न हैं । इस प्रकार जब यह अपने मन को सूर्य में लगाते हैं तो यह लोग सूर्य समबन्धी सब ज्ञान को पाने का यत्न करते हैं । सूर्य क्या है ?, इसकी क्या बनावट है ?, इसके क्या लाभ हैं ?, यह कैसे गति करता है ? आदि , इन सब बातों को जानने की यत्न करते हैं । इस प्रकार सूर्य सम्बन्धी सब ज्ञान को पाते हैं तथा यथावश्यक सूर्य से लाभ प्राप्त करते हैं ओर इस से मिलने वाले लाभों में प्रभु की महिमा उन्हें दिखाई देती है , वह उस महिमा को देखते हैं ।
२. अग्नि प्रभु के गुणों का दर्शन :
सूर्य का सम्बन्ध अग्नि से होता है । अत: यह अपना सम्बन्ध अग्नि से जोडने का यत्न करते हैं । अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अब यह अग्नि विज्ञान का भी विषद अध्ययन करते हैं । इस के रहस्यों को भली प्रकार समझ कर अपने मन को इस में लगाते हैं । अग्नि में लगा हुआ यह मन प्रसंगवश जो विष्य आ जाते हैं, उन सब से हमारा यह मन बचा रहता है । जब मन विषयों से दूर होकर अग्नि में लग जाता है तो यह मन अग्नि का ठीक प्रकार से , उत्तम विधि से प्रयोग करता हुआ यह अग्निविद्या – वित पुरुष होने से अग्नि में भी उस प्रभु के महात्म्य का , उस प्रभु की महिमा का , उस प्रभु के गुणों का दर्शन करता है ।
३. वायु में प्रभु की महिमा :
अग्नि के रहस्यों को समझ व उन्हें आत्मसात करने के पश्चात हमारा यह मन वायु को जानने का यत्न करता है । यह वायु विज्ञान के अन्तर्गत वायु के गुणों को भी समझने का प्रयास करता है । वायु के ज्ञान को पाने पर यह इस का जब सदुपयोग काता है तो इससे हमारे स्वास्थ्य को पुष्टि मिलती है । हम स्वस्थ व पुष्ट हो जाते हैं । एसी अवस्था में हमें वायु में भी उस प्रभु की महिमा दिखाई देने लगति है। हम वायु को भी देव स्वीकार कर लेते हैं ।
४. अधिष्ठान्भूत लोकों का ज्ञान :
वायु के रहस्यों को समझने तथा इन्हें आत्मसत करने के पश्चात यह मधुछ्न्दा रुपी जीव अपने मन को अनेक प्रकार के विषयों में फ़ंसने से बचाना चाह्ता है तथा इस हेतु वह इसे इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में व्यस्त करता है , लगाता है । वह देखता है कि अग्निदेव का निवास पृथिवी पर होता है । जिसे वह वायु रुपि देव स्वीकार कर चुका है , उस देव का निवास अन्तरिक्ष में होता है तथा अग्नि का प्रतीक जिसे उसने सूर्य को स्वीकार किया है , उसका निवास द्युलोक में होता है ।
एक ज्ञानी व्यक्ति अपने मन को जहां अग्नि ,वायु तथा अग्नि के ज्ञान को पाने में लगाता है । इन सब के सम्बन्ध में विस्तार से जानकारी पाने का यत्न करता है वहां वह इन सब के अधिष्ठान्भूत लोकों का , उन लोकों का जो इन सब के अधिष्ठाता कहे जाते हैं , जिनके सहारे यह सब टिके हैं , उन सबका भी ज्ञान पाने का , उन्हें भी विस्तृत रुप से पाने का यत्न करता है । हम जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है । जब हमारा मन इन सब प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में लग जाता है तो इस मन के पास अन्य किसी ओर जाने का समय ही नहीं होता । जो व्यक्ति सदा कर्म में लगा रहता है , अपने आप को किसी न कीसी कार्य में व्यस्त रखता है , उसके सामने से हाथी भी निकल जावे तो उसे पता नहीं चलता । इस प्रकार के व्यस्त मन का ध्यान कभी विषय – विकारों की ओर जावेगा ,यह तो कोई सोच भी नहीं सकता । अत: एसा मन विषयों के दोष से बचा रहता है । कभी विषयों की ओर जाता ही नहीं ।
५. तारों में प्रभु की कांति : मन्त्र का अन्तिम भाग बता रहा है कि जब मन सब प्रकार से व्यस्त रहता है तथा इन सब के गू्ढ रह्स्यों का ज्ञान पाने का यत्न करता है , सदा इस ज्ञान पाने में व्यस्त रहता है तो यह इन देदिप्यमान नक्षत्रों में लगता है । यह सब नक्षत्र द्युलोक में सदा चमकते हुए दिखाई देते हैं । ये नक्षत्र आकाश को अच्छादित करते हैं , आकाश इन नक्षत्रों , इन तारों से भर जाता है । यह तारे भी तो उस प्रभू का ही स्तवन कर रहे हैं , उस प्रभु के ही गुणों का गायन कर रहे हैं । उसका ही कीर्तन करते से दिखाई देते हैं । तारों में भी प्रभु की कांति दिखाई देती है ।
इस प्रकार यह ज्ञानी मन , यह ज्ञानी पुरूष सदा ज्ञान को पाने का यत्न करता रहता है , ज्ञान प्राप्ति में व्यस्त रहता है । इस कार्य के लिए यह सूर्य , अग्नि, वायु , द्युलोक, पृथिवीलोक, अन्तरिक्ष लोक व नक्षत्रों आदि में भी प्रभु की महिमा को देखता है तथा इस महिमा को देखकर , उसकी इस महान कृति को देखकर वह उस पिता के आगे नत हो जाता है , अपना सिर उस पिता की इस कारागरी के आगे झुका लेता है , वह जान जाता है कि वह प्रभु कितना महान है । उसकी महानता के आगे वह नत हो जाता है । जहां वह प्रभु की इस कारागरी को समझने के कारण वह उसके आगे नत हो जाता है , वहां इस ज्ञान को पाने के निरन्तर यत्न से उसका ध्यान वासनाओं की ओर नहीं जा पाता । वासनाओं से बचे रहने के कारण वह इशन भी बना रहता है । कर्मशील का मन विषयों में जाने से बचा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें

ओउम
प्रभु सान्निध्य से प्रभु तुल्य दीप्त बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु की निकटता पा लेने पर हमारा भय दूर होगा । सब प्रकार के धन एश्वर्यों के हम स्वामी बन जावेंगे । सब प्रकार का सुख – वैभव तथा अनन्द हमें मिलेगा तथा हम प्रभु के ही समान दीप्त हो जावेंगे । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है : –
इन्द्रेणसंहिदृक्षसेसंजग्मानोअबिभ्युषा।
मन्दूसमानवर्चसा॥ ऋ01.6.7
यह मन्त्र चार बातों को इंगित करते हुए कहता है , उपदेश करता है कि :
१. प्रभु के समीप रह ऐश्वर्यों के स्वामी बनें
हे मानव निरन्तर प्रभु स्तवन कर , पिता का स्मरण कर , उसका कीर्तन कर तथा उसकी समीपता प्राप्त कर । तूं उस भय रहित , उस परम एशवर्यशाली प्रभु के मेल को प्राप्त होगा तथा उस की निकटता पाते हुए हे प्राणी तू ! निश्चय से ही उस की उपासना से ,. उस की निकटता से उन्नत होते हुए निरन्तर आगे ही बढता जाता है ।
हम जिस पिता के आराधक है , वह पिता सब प्रकार के भय से , सब प्रकार के डर से रहित होता है । जब हमारा पिता ही भयभीत नहीं होता तो उसके निकट रहने के कारण हमें भी किसी प्रकार का भय सता नहीं सकता । हम भी भय से रहित हो जाते हैं । वह तो भय के लवलेश से भी रहित होता है । उसे किंचित सा भय भी नहीं होता । वह पिता परमैश्वर्यशाली होता है , सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है । उसकी निकटता के कारण हम भी एश्वर्यों के स्वामी बनते हैं । यह सब उस प्रभु के समीप स्थान पाने से होता है , यह मेल उसकी उपासना का ही परिणाम होता है । जब हम उस पिता से मेल कर लेते हैं , उससे निकटता पा लेते हैं तो हम भी आगे बढने लगते हैं तथा उन्नत होने के अधिकारी बन जाते हैं ।
२. प्रभु के निकट रह भय मुक्त हों
यह एक स्वाभाविक नियम है कि जिस का साथी भय रहित होता है , उसके सान्निध्य के कारण वह भी सब प्रकार के डर से मुक्त हो जाता है । यह भी सत्य है कि जिसका मित्र सब प्रकार के एश्वर्यों का स्वामी होता है उस का यह साथी भी एश्वर्यों को प्राप्त करने में सशक्त हो जाता है । इस लिए हे प्राणी ! तूं उस प्रभु का सान्निध्य प्राप्त कर , उस प्रभु का गुणगान कर , उसकी उपासना ओर उसका कीर्तन कर ताकि तूं भी उस प्रभु के ही समान भय से मुक्त हो जावे तथा धन एशवर्य से सम्पन्न हो जावे ।
३. प्रभि गुणगान से आनंद प्राप्ति
हम जानते हैं कि निर्भय व्यक्ति सदा आनन्दित रहता है । जो आनन्दित रहता है , वह ही धन व एश्वर्य का स्वामी हो सकता है , अधिकारी हो सकता है , अन्य नहीं । हम यह भी जानते हैं कि हमारा वह पिता कभी भयभीत नहीं होता । वह तो है ही भय रहित । वह प्रभु सदा आनन्द मय ही रहता है क्योंकि वह भय से रहित है । वह परम पिता सदा आनन्द मय होता है इसलिए वह एश्वर्य से भरा रहता है । जब हम उस पिता के निकट जा कर उस का चिन्तन करते हैं तो हम भी भय से दूर हो जाते हैं , भय से रहित हो जाते हैं । भय रहित होने से हमारा जीवन भी आनन्द से भर जाता है तथा हम भी आनन्द से सम्पन्न हो कर अनेक प्रकार के धन एश्वर्यों को पाने में सक्षम हो जाते हैं , अनेक प्रकार के एश्वर्यों को पाकर सुखी हो जाते हैं । इस लिए सुख के अभिलाषी प्राणी को सदा प्रभु के समीप जा कर उस का गुणगान करना चाहिये ।
४. प्रभु स्तवन से दीप्ती
जब हम प्रभु की निकटता पाने में सफ़ल हो जाते हैं तो जिस प्रकार वह प्रभु दीप्ति से भर पूर दिखाई देता है , उस प्रकार हम भी दीप्त ही दिखाई देते हैं । प्रभु की आभा तथा हमारे मुख मण्ड्ल की आभा , चमक , दीप्ति एक समान ही दिखाई देती है । जिस प्रकार एक यज्ञकर्ता , एक होता , एक यज्ञमान , जब यज्ञ कर रहा होता है , अग्नि के सम्मुख बैठा होता है , उस समय उस की आभा , उसका मुख मण्डल भी अग्नि का सा ही हो जाता है । जैसा तेज अग्नि का होता है , यज्ञकर्ता भी वैसा ही दिखाई देता है । इस प्रकार अग्नि व उस अग्नि का उपासक दोनों ही समतुल्य दीप्ति वाले दिखाई देते हैं । इस प्रकार ही जब हम उस पिता के समीप आसन लगा लेते है तो हम भी उस पिता के से ही तेज वाले बन जाते हैं ।
यदि वेदान्त दर्शन की मानें तो हम इस प्रकार कह सकते हैं कि प्रभु का सान्निध्य पाने से , उसकी निकटता पाने से प्रभु के निकट जाने वाले प्राणी में भी वैसे ही गुण आने लगते हैं , जैसे उस प्रभु में होते हैं । इस प्रकार वह भी परमात्मा जैसा ही बन जाता है । बस अब प्रभु में ओर जीव में यह अन्तर ही रह जाता है कि प्रभु तो सृष्टि का निर्माण कर सकता है किन्तु जीव यह कार्य नहीं कर सकता क्योंकि सृष्टि के निर्माता होने के लिए उसका निराकार होना तथा सर्वशक्तिमान होना आवश्यक होता है , जो यह गुण है वह जीव कभी प्राप्त नहीं कर सकता । अन्य गुणों में वह प्रभु के बहुत निकट चला जाता है ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़

प्रभु भक्त ज्ञान व दीप्ति बांट उषा वेला में उठता है़
डा. अशोक आर्य
जो प्राणी प्रभु भक्त होता है , वह अज्ञानियों में सदा ज्ञान बांटता है , जो प्रसाद व दीप्ति से रहित होते हैं , उन्हें यह दीप्ति पाने में सहायक होता है तथा एसा प्राणी सदा उष:काल में उठ जाता है । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है : –
केतुंकृण्वन्नकेतवेपेशोमर्याअपेशसे।
समुषद्भिरजायथाः॥ ऋ01.6.3

केतुं क्रण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे ।
समुषद्भिर्जायथा: ॥ रिग्वेद १.६.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है , जो इस प्रकार है :-
१. ज्ञान का प्रसार ही जीवन का ध्येय
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को अपने शरीर रुपि रथ में जोडता है अर्थात जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को कभी स्वाधीनता से विचरण नहीं करने देता बल्कि इस प्रकार अपने काबू में रखता है ,जिस प्रकार एक उत्तम सारथि अपने घोडों को अपने काबू में रखता है । इस प्रकार इन्द्रियों को बस में रखते हुए वह प्रभु भक्त प्रभु के चिन्तन भजन में लगा रहता है , प्रभु के स्मरण व कीर्तन में लगा रहता है । प्रभु को साक्षात करने का यत्न करता है , प्रभु दर्शन का प्रयास करता है । एसा व्यक्ति उन लोगों के लिए ज्ञान का प्रकाश करने वाला बनता है , जो ज्ञान से रहित होते हैं । भाव यह कि जो व्यक्ति किन्हीं कारणों से ज्ञान नहीं पा सकते , यह व्यक्ति उन्हें उत्तम ज्ञान देकर अपने समकक्ष बनाने का यत्न करता है । इस प्रकार यह ज्ञान का प्रसार ही वह अपने जीवन का उद्देश्य , अपने जीवन का ध्येय बना लेता है ।
२. लडाई झगडों को कम कर दीप्ति बढाना
यह प्रभु भक्त अपने साथ ही साथ अन्यों को भी दीप्त करने वाला होता है । हे मानव ! यह प्रभु भक्त सब को आत्मवत ही , अपने समान ही समझते हुए अपने जैसा ही बनाने का यत्न करता है । जो सफ़लताएं , जो प्राप्तियां इसने पाली होतीहै, उन्हें दूसरों को भी प्राप्त कराने का यत्न यह करता है । जो दीप्ति रहित होते हैं उन्हें दीप्त करने का यत्न करता है । एसे लोगों को वह स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान देता है ताकि उस ज्ञान पर चलते हुए वह भी उत्तम स्वास्थ्य पा कर स्वास्थ्य में दीप्त हो सकें । इतना ही नहीं वह उनमें एक दूसरे के साथ व्यवहार कैसा किया जाना चाहिये , इस को भी समझाता है । परस्पर के व्यवहार की विभिन्न विधियों का उन्हें शिक्षण देता है , उन्हें बताता है । एक दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हुए रहने का उपदेश देता है । इस प्रकार परस्पर प्रेम में वृद्धि करता है प्रेम की इस वृद्धि से तथा आपसी झगडों में कमी करवा कर, उनके लडाई झगडों को कम करवा कर उन में दीप्ति को बढाने का कारण बनता है ।
३. उष:काल में उठना

मन्त्र में जिस तीसरी बात पर प्रकाश डाला गया है वह है – एसा व्यक्ति सदा ही उष:काल में . ब्रह्म मुहूर्त मे , सूर्य की प्रथम किरण निकलने के साथ ही उठ खडा होता है , शैय्या को त्याग देता है । इस समय कभी भी सोया हुआ दिखाई नहीं देता । वह यह जानता है कि जो प्रात:काल जल्दी उठता है , प्रभु उस पर सदा आशीर्वादों की वर्षा करता है तथा जो सोया रह जाता है , एसे व्यक्ति के तेज को उदय हो रहा सूर्य हर लेता है । यह तेज हीन , तेज रहित हो जाते हैं । इसलिए प्रात:काल उष:काल में निश्चित ही वह उठ खड़ा होता है |

डा. अशोक आर्य

मानव की इन्द्रियां

ओउम
डा. अशोक आर्य
मानव की इन्द्रियां मानव को अनेक पतन से भरे मार्ग पर ले जाकर उस का जीवन ही नष्ट कर देती हैं । जो मानव इन को अपने बस मे कर लेता है , वह उतम सारथी की भान्ति अपने गन्तव्य पर पहुंचने में सफ़ल हो्ता है । इस सूक्त का यह मन्त्र इस प्रकार का ही उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
युञ्जन्त्यस्यकाम्याहरीविपक्षसारथे।
शोणाधृष्णूनृवाहसा॥ ऋ01.6.2
युन्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्शसा रथे ।
शोणा ध्रष्णू न्रवाहसा ॥रिग्वेद १.६.२ ॥
इस मन्त्र में छ: बातों पर उपदेश देते हुए कहा गया है कि: –
१. इन्द्रियों को अपने बस में रखो
जो व्यक्ति अपने मन को सूर्यादि , ईश्वर के बनाए हुए ज्ञान के स्रोतों की प्राप्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित कर इन के विज्ञानों को समझने का प्रयास करते हैं , वह अपनी इन्द्रियों को बडी सरलता से अपने बस में करने वाले होते हैं , यह लोग इन्द्रियों पर इस प्रकार काबू कर लेते हैं , जिस प्रकार एक सफ़ल सारथी अपने रथ के घोडों को अपने वश में कर लेता है । एसे लोग ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रुपी घोडों को अपने शरीर रुपी रथ में सजाते हैं , जो्डते हैं ।
उपर की पंक्तियों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि मानव जीवन के दो महत्व पूर्ण अंग होते हैं :
क) ज्ञानेन्द्रियां :
ख) कर्मेन्द्रियां :
इन दोनों प्रकार की इन्द्रियों पर उतम पकड बनाए रखने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन के उद्देश्यों को सफ़लता से प्राप्त कर सकता है । इन दोनों को वश में रखने के लिए उसे यत्न करना होता है , परिश्रम करना होता है , पुरुषार्थ करना होता है ,मेहनत करना होता है । ज्ञानेन्द्रियां उसे विश्व का सब ज्ञान देती हैं , उसे बताती हैं कि क्या तेरे हित में है तथा क्या नहीं ?, क्या करना है तथा क्या नहीं ? जब भले बुरे का ज्ञान होता है तो ही कर्म सक्रिय होकर इस पर कार्य कर इसे अपना बना पाता है किन्तु यह प्रप्ति होती उसको ही है जो निरन्तर पुरुषार्थ में लगा रहता है । जो आलसी बनकर खटिया में पडा रहता है , उसे कुछ प्राप्त नहीं होता बल्कि जो उसके पास है वह भी धीरे धीरे समाप्त हो जाता है , लुट जाता है । अत: एसे व्यक्ति अपनी इन्द्रिय रुपी घोडों को कभी भी चरने के लिए खुला नहीं छोडते इन्हें सदा ही कर्म में लगाए रखते हैं , कर्म में व्यस्त रखते हैं । अत: इन्द्रियां कभी भी विषयों में ही चरती रहें , विचरण करती रहें , एसा सम्भव नहीं हो पाता ।
२. प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर
जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों पर काबू रखते हैं , अंकुश लगाए रखते है , उनकी यह इन्द्रियां सदा प्रभु में ही विचरण करती हैं , प्रभु के बताए मार्ग पर ही चलती हैं तथा उसके इंगित पर ही कार्य करती हैं ,कर्म करती हैं । मानव का अन्तिम लक्षय उस परम पिता की प्राप्ति ही होता है तथा उसकी यह इन्द्रियां उसे यह लक्षय पाने मे सफ़ल करती है किन्तु केवल तब जब उनकी लगाम को मजबूती से पकड रखा हो । अन्यथा यह उसे भटका देती हैं । अत: प्रभु में विचरण करने के लिए इन्द्रियों को काबू में कर आगे बटना होता है ।
३. उद्देश्यशील की इन्द्रियां गन्तव्य पावें
मानव के यह इन्द्रियरुप घोडे विशिष्ट परिग्रह से युक्त होते हैं । यह एक निश्चित तथा निर्धारित लक्षय को , ध्येय को लेकर चलते है , आगे बढते हैं तथा तब तक चलते चले जाते हैं , जब तक की गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर लेते । जब एक लक्षय निश्चित है तो मार्ग भटकने का इन्द्रियों को दूसरी ओर लगाने का तो इन के पास समय ही नहीं होता । सीधी स्पाट सडक पर जाना होता है ,मार्ग मे कहीं मुडना नहीं होता , इस कारण मार्ग कैसे भटक जावेंगे , एसा तो उसके लिए सम्भव ही नहीं होता । अत: एक निर्धारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली यह इन्द्रियां गन्तव्य पर जाकर ही सांस लेती है तथा निश्चित रुप से इसे पा लेती हैं ।
४. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
इनका उद्देश्य एक विशिष्ट उद्देश्य होता है । पूर्व निर्धारित उद्देश्य को इन इन्द्रियों ने प्राप्त करना होता है । इस निर्धारित उद्देश्य के कारण ये तेजस्वी होकर तीव्र गति से चल कर इसे पाने के लिए पुरुषार्थ करती हैं , प्रयास करती हैं । तेजस्वी हो कर कार्य मे लग जाती हैं । इन का रक्त वर्ण यह स्पष्ट कर रहा होता है कि यह तेजस्वी है , यह कर्मशील हैं , यह अपने निर्धारित गन्तव्य को पाने के लिए यत्नशील हैं । इसकी ही आभा , इसकी ही तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई देती है ।
५. तेजस्विता ललाट में दिखाई दे
जब एक निर्धारित लक्षय होता है तो मार्ग की बाधाएं इनके मार्ग को रोक नहीं पातीं । इनमें इतनी शक्ति आ जाती है कि मार्ग के सब शत्रुओं को , मार्ग की सब बाधाओं को यह बडी सरलता से नष्ट कर दे्ती हैं । किसी प्रकार का विघ्न , किसी प्रकार की मार्ग की बाधा तथा किसी प्रकार का मार्ग का शत्रु इसके सामने आते ही नष्ट हो जाते है , मारे जाते है ,दूर हो जाते हैं । इस प्रकार यह सदा प्रगति की ओर , उन्नति की ओर अपने उद्देश्य प्रप्ति की ओर निरन्तर तेजस्विता उनके ललाट में दिखाई दे जाते हैं ।
६. इन्द्रियां मानव की अनुगामी हों
इस प्रकार वश में की गई इन्द्रियां जब एक निश्चित लक्षय को पाने के लिए अपने आगे चलने वाले मानव की अनुगामी होती हैं तो वह निरन्तर उसे आगे तथा आगे ही ले जाते हुए ,उसे लक्षय तक ले जाती है । यह बडी सफ़लता से उसे लक्षय तक ले जाने वाली होती हैं । जब मानव में अग्रगति की , आगे बढने की , सफ़लता पाने की , विजयी होने की भावना है तो फ़िर उसकी इन्द्रियां भी उसके पीछे चलने वाली होती हैं । एसे मानव की इन्द्रियां विषयों में भटक ही नहीं सकतीं बल्कि निरन्तर उसके पीछे चलते हुए आगे की ओर बढती ही चली जाती हैं । अन्त में उसे सफ़लता दिलाने वाली बनती हैं ।

डा. अशोक आर्य

हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें

हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने हमें यह जीवन , यह शरीर कर्म करने के लिए दिया है । इसलिए हम प्रतिदिन वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करें तथा जितेन्द्रिय बन विषयों से उपर उठते हुए प्रभु के दिए इस शरीर की रक्षा करें । इसे समय से पूर्व नष्ट न होने दें । इस भावना को ही स्पष्ट करते हुए यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
म आ नो मती अभि द्रुहन तनूनामिन्द्र गिर्वाण: ।
ईशानो यवया वधम ॥ रिग्वेद १.५.१० ॥
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे जितेन्द्रिय मानव ! जिस मनुष्य ने अपनी वासनाओं पर अधिकार स्थापित कर लिया हो , अपनी वासनाओं को पराजित कर दिया हो तथा जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर के शत्रुओं को यथा काम , क्रोध, मद , लोभ , अहंकार आदि पर विजय पा ली हो , उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है । मन्त्र एसे ही व्यक्ति को सम्बोधन करते हुए उसे कह रहा है कि विगत मन्त्र के अनुसार तूंने सात्विक अन्नों का प्रयोग किया है । इन सात्विक अन्नों के सेवन से तूं सोम का रक्षण करने वाला बन गया है तथा सोम के रक्षण से तूने विषयों को पीछे छोड दिया है तथा कहा भी है कि जो लोग विषयों के पीछे पड़े होते हैं, वासनाओं में दुबे रहते हैं , वासनाओं में डूबे होने के कारण जिन्हें अपनी ही सुध नहीं होती । एसे लोग सदा बिना पुरुषार्थ के सब कुछ पाना चाहते हैं | इस के लिए दूसरों का बुरा ही चाहते हैं , दूसरों के धन पर अधिकार जमाने का यत्न तथा दूसरों की सम्पति पर सदा बुरी नजर रखते हैं ।
विषय वासनाओं के यह गुलाम कभी किसी के हित के लिए तो कार्य कर ही नहिंसकते अपितु दूसरों को मारने में भी आनन्द का ही अनुभव करते है क्योंकि दूसरे को मार कर ही वह उसके धन पा सकते हैं । मन्त्र कहता है कि हम न तो ताम्सिक अन्न का ही सेवन करें तथा न ही एसे अन्न का सेवन करने वालों के हाथों हम अपने नाश को प्राप्त करें कितु तामसिक लोग यह सब नहीं साझ सकते वह तो धन कि लालसा में मरते फ़िरते हैं | अपनी इस कुवृति को , अपनी इस लालसा को कभी छोडते नहीं | मन्त्र हमें यह ही तो उपदेश कर रहा है कि हम दुष्ट वृतियों वाले न बनेंताथा सदैव दुष्ट वृतियों को छोड़ें | उतम अन्न का सेवन करें तथा उतम सोम को सदा अपने शरीर में धारण करें | इस के साथ ही यह भी कहा है कि जो लोग दुष्ट वृतियों वाले होते हैं , वह हमारे इस शरीर का हनन करने की इच्छा कभी न करें ।
इस से एक तथ्य सामने आता है , वह है कि सात्विक आन्न का जो लोग सेवन न कर सदा ताम्सिक अन्न का ही सेवन करते हैं , वह न केवल अपने शरीर में अनेक दोषों को ही स्थान दे देते हैं , अनेक व्याधियों को अपने अन्दर स्थान देते हैं बल्कि एसे दुर्गुण भी भर लेते हैं , जो विनाश कारी होते हैं । इन दुर्गुणों के कारण संसार में उनकी सदा अपकीर्ति होती है | एक मनुष्य तो अपनी कीर्ति पाने के लिए दान , धर्म , पुन्य के कार्य करता है किन्तु यह तामसिक वृति के लोग , यह वासनाओं के गुलाम अपयश में ही अपनी इर्ति समझते हैं , अपना यश समझते हैं |
जो लोग अपकीर्ति के कार्यों को करने में ही अपना यश समझते हैं | इस प्रकार से बुराई के माध्यम से जो उनका नाम दूर तक जाता है | इस में ही अपना यश समझते हाँ , वह नहीं जानते कि वह इस प्रकार कि बुराइयों के कारण निरंतर मृत्यु को आमंत्रित कर रहे हैं | वह निरंतर मन्त्र कि भावना से दूर जा रहे हैं | भाव यह है कि मन्त्र तो हमें उपदेश कर रहा है कि हम यश व कीर्ति को पाने के लिए उतम कर्म करें ताकि हमारा शरीर असमय नष्ट न हो | समय से पूर्व मृत्यु आदि को न प्राप्त हों किन्तु हमारे यह बुरे कर्म हमें निरंतर नष्ट होने की और ले जा रहे हैं | हम निरंतर अपने आप को नष्ट करने कि और जा रहे हैं |
मन्त्र इस सम्बंध में ही उपदेश कर रहा है कि मनुष्य सदा अपनी कीर्ति को बढ़ता हुआ देखे , यश को चारों दिशाओं में फैलता हुआ देखे | इस के लिए वह सदा उतम कार्य करे, पुरुषार्थी बने तथा जितेन्द्रियता पाने के लिए उतम अन्नों का सेवन करने के साथ ही साथ जितेन्द्रिय बनने का प्रयास निरंतर करता रहे | इस से ही वह उतम यश व कीर्ति का अधिकारी बनेगा | इस लिए हम मन्त्र की शिक्षाओं के अनुरूप अपने जीवन को चालते हुए अपने शरीर को समय से पूर्व नष्ट न होने दें |

डा. अशोक आर्य