Category Archives: वेद मंत्र

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |

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इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्य
में इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,

लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म

ओउम
लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म
आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह कम से कम एक सो वर्ष की आयु तो अवश्य ही प्राप्त करे | हमारे शास्त्रों ने भी उसकी आयु सो वर्ष निर्धारित की है किन्तु हम देखते हैं कि बहुत कम लोग ऐसे होते है, जो सौ वर्ष की आयु पाते हैं | साधारनतया चालीस से स्तर वर्ष की आयु में ही इस संसार को छोड़ जाते हैं | जो सौ वर्ष की आयु परमपिता परमात्मा ने हमारे लिए निश्चित की थी , अपने जीवन की गल्तियों के कारण वह निरंतर हमारे से छिनती ही चली जाती है | यदि हम जीवन में भूलें न करते , यदि हम जीवन में आपराधिक कर्म न करते, यदि हम जीवन में सदा अच्छे कर्म करते, शुभ कर्म करते तो हम निश्चित रूप से सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्राप्त करते | वेद इस बात का अनुमोदन करता है कि जो अच्छे कर्म करता है , जो शुभ कर्म करता है , प्रभु उसे ही दीर्घ आयु देता है | यजुर्वेद मन्त्र २५.२१, ऋग्वेद मन्त्र १.८९.८ सामवेद मन्त्र १८७४ तथा तैतिरीय व आरण्यक उपनिषद् १.१.१ में इस तथ्य को ही स्पष्ट किया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
भद्रं कर्नेभि: श्रुणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: |
स्थिरैरान्गैस्तुश्तुवान्सस्तानुभी –
व्येशेमही देवहितं यदायु: ||यजु . २५.२१, ऋग . १.८९.८ साम. १८७४ , तैती. आरं. १.१.१ ||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा: ) हे पूजनीय (देवा: ) देवो, हम ( कर्नेभि:) कानों से (भद्रं) शुभ व मंगलमय (श्रुणुयाम) सुनें (अक्षभि:) देखें (स्थिरे) दृढ व् पुष्ट (अंगे:) अंगों से (तुष्ट्वांस: ) स्तुति करते हुए (तनुभि:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के लिए निर्धारित या हितकर ( यत आयु:) जो आयु है, उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
हे प्रभो ! हम दोनों कानों से शुभ ही शुभ सुनें, दोनों आँखों से शुभ ही शुभ सुनें, हृष्ट – पुष्ट अंगों से आप की स्तुति करते हुए , इस शरीर के द्वारा देवों के लिए हितकर दीर्घ आयु प्राप्त करैं |
मानव सदा सुखों का अभिलाषी होता है | उसकी कामना होती है कि उसे अपार सुख मिलें | वह पूर्णतया सुखी रहने की अभिलाषा , इच्छा रखता है | इतना ही नहीं वह आजीवन निरोग भी रहने की कामना रखता है | इस प्रकार की इच्छाओं की कामना रखने वालों के लिए जीवन यापन के कुछ नियम
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भी होते हैं , जिन पर चलने से ही जीवन सुखी होता है तथा दीर्घ व स्वस्थ आयु मिलती है जब तक इन नियमों को अपने जीवन का अंग बनाकर इन पर चला नहीं जाता तब तक न तो जीवन स्वस्थ होता है, न ही सुखी तथा न ही शतवर्षीय आयु ही मिलती है | अत: इन नियमों का पालन आवश्यक होता है यह नियम सरल भी होते हैं तथा कठोर भी | अर्थात यह नियम दोनों प्रकार के गुण संजोये रहते हैं | नियम तो सरल ही होते हैं किन्तु उनके लिए, जिन के विचार सुलझे हुए होते हैं , जिन्होंने अपने मन को पूरी तरह से अपने वश में कर रखा हो , जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह से अधिकार कर रखा हो ,जिन में सात्विक भाव जागृत होते हैं | इस प्रकार के लोगों को इन नियमों के पालन में कुछ भी कठिनाई नहीं होती | ऐसे लोगों के लिए ये नियम सरला होते हैं |
इच्छा तो है सुखी जीवन की किन्तु खाते हैं मांस , तो जीवन सुखी कैसे होगा ? चाहते तो है जीवन सुखमय किन्तु पूरा दिन शराब के नशे में धुत हो कर गाली – गलोज व मार r -पीट करते रहते हैं तो सुख मय जीवन कैसे होगा, जीवन में खुशियाँ कैसे आवेंगी तथा आयु दीर्घ कैसे होगी ? जीवन में खुशियाँ भरने के लिए काम भी तो ऐसे ही करने चाहियें , जिन से खुशियाँ मिलें , तब ही तो जीवन खुश होगा अन्यथा यह कैसे संभव है | किसी को मार कर खाने वाला जब किसी मारते हुए भयभीत नहीं होता तो फिर अपने जीवन में सुख मांगे , खुशियों की कामना करे, किन्तु उसे यह सब मिलना संभव नहीं | अत: जीवन को खुशियों से भरने के लिए , जीवन को अच्छी प्रकार जीने के लिए तथा दीर्घ आयु पाने के लिए सात्विक जीवन , द्रिध्विचार ,व वशीभूत मन का होना आवश्यक है |
विश्रिन्खल चितवृतियों वाले इन नियमों को सदा कठोर समझते हुए इन पर चलने से बचने का यत्न करते हैं | परन्तु जब तक इन नियमों का कठोरता से पालन नहीं होता, तब तक सच्चे सुख व दीर्घायु की प्राप्ति नहीं होती | जब हम ने दिल्ली जाना है तो हमें टिकट भी दिल्ली की लेनी होगी तथा गाडी भी दिल्ली की लेनी होगी, तब ही तो हम दिल्ली जा सकेंगे अन्यथा नहीं | अत: जो हम पाना चाहते है , उस के अनुरूप कर्म भी तो करेंगे तब ही वह हमें मिलेगा अन्यथा केवल अभिलाषा मात्र से तो कुछ मिलने वाला नहीं | वेद का यह मन्त्र भी तो इन दो तथ्यों पर, इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है, इन दो नियमों का ही तो उल्लेख करता है : –
१. कान से अच्छी बातें सुनें : –
हम अपने कान से अच्छी बातें सुनें, अच्छी चर्चाएँ सुनें, हमारे कानों में अच्छे स्वर ही पड़ें | लडाई – झगडा, कलह- क्लेश , म,आर – पीट व् कतला आदि के शब्द हमारे कानों में कभ न पड़ें | जब हम अच्छी अच्छी चर्चाएँ सुनेंगे तो हमारा मन प्रसन्न रहेगा , जब हम सब के सुख का ध्यान रखेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा , जब हम किसी के जीवन की रक्षा करेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा | जब हम राग – द्वेष को

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अपने ह्रदय में घर न करने देंगे तो भी हमारा मन प्रसन्न रहेगा , इस प्रकार के विचार आने से ह्रदय में पवित्रता आवेगी अत: जब हमारा मन पवित्र होगा तो कोई संकट हम पर आ ही नहीं सकेगा क्योंकि पवित्रता से ही सब खुशियाँ मिलाती हैं |
२. आँख से अच्छा देखें : –
जब हम आँख से सदा अच्छा ही अच्छा देखना चाहेंगे, बुरे भावों से दूर रहेंगे, कुवासना व बुरी वृतियों को अपने पास नहीं आने देंगे ,बुरे चित्रों व् चरित्रों से दूर रहेंगे, दृष्टि में कभी कुवासना के भाव नहीं आने देंगे तो निश्चित ही लोग अपने परिवार के लोगों को हमारा उदाहरण देते हुए परिजनों को भी हमारे पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे | जहां भी व जब भी कभी अच्छे लोगों की गणना होगी तो हमारा नाम सर्वप्रथम लिया जावेगा तो निश्चित ही हमारे मित्रों की मंडली में वृद्धि होगी | हमारे सहयोगी व हमारे हितैषी सदा हमारे साथ होंगे | इस प्रकार की अवस्था पाने के लिए यह आवश्यक है कि घृणा, कटुता, सब प्रकार के मनोमालिन्य को हम अपने पास न आने दें | सत्य तो यह है कि जब हम सुपथ पर चल रहे होते हैं तो इस प्रकार के दुर्भाव हमारे पास आने का साहस ही नहीं कर पाते | हम स्वयमेव ही इन कुविचारों से बच जाते हैं |
जब हम परमपिता परमात्मा द्वारा दर्शाए इन दो नियमों का पालन पूरी लगन व उत्कट इच्छा से करते हैं तो हमारे संयम की पुष्टि होती है , संयम पुष्ट होने से हमारा शरीर भी स्वस्थ रहेगा, जब शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी तो प्रसन्न रहेगा | यही दीर्घायु की कुंजी है ” स्वस्थ शरीर व मन प्रसन्न | अत: जब हमारा शरीर पूर्णतया स्वस्थ व मन पूर्णतया प्रसन्न है तो हमारी आयु निश्चित रूप से लम्बी होगी, दीर्घ होगी , इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता | अत: दीर्घायु की कामना करने वाले को सचरित्र रहते हुए मन की पुष्टि प्राप्त कर शरीर स्वस्थ बनाना होगा ताकि मन प्रसन्न रहे |

डा. अशोक आर्य

गृह की शोभा गृहिणी से ही है

ओउम
गृह की शोभा गृहिणी से ही है

डा. अशोक आर्य ,
वेद में नारी को समाज में ऊँचा स्थान दिया गया है | इसे माता कहा गया है | माता उसे कहते हैं ,जो निर्माण करे | माता संतान को पैदा ही नहीं करती, उसका निर्माण भी करती है | माता ही संतान को सुसंतान बना कर उन्नत मार्ग पर अग्रसर करती है तथा माता जब कुमाता बन जाती है तो संतान का विनाश भी करती है ,किन्तु ऐसी बुद्धिहीन ,कर्तव्य विहीन माता वास्तव में माता कहलाने का अधिकार नहीं रखती | जो माता संतान को ऊँचे आसन तक पहुँचाने के लिए तप करती है, सुख सुविधाओं को त्याग, भूखे रह कर भी उसके सुखों में कमीं नहीं आने देती , माता तो वह ही है | एसा कार्य जग की प्रत्येक माता करना चाहती है , इस कारण ही वह माता है | इस कारण ही विश्व में नारी का सम्मान है किन्तु मध्य युग में नारी के सम्मान का ह्रास हुआ है | इस का कारण गुलामी तथा वेद विद्या का अभाव ही कहा जा सकता है | वेद में नारी को जग की जननी तथा त्याग की मूर्ति कहते हुए इसे उच्च आसन देने का आदेश किया है | नारी को प्रशस्ति पूर्ण स्थान देने के लिए वेद में अनेक विध नारी का गुण गान किया गया है | ऋग्वेद ३.५३.४ में कहा गया है कि गृहिणी अर्थात नारी ही गृह है, घर है | नारी के बिना गृह की कल्पना भी नहीं की जा सकती | मन्त्र इस प्रकार दिया है : –
जायेदसत्न मघवन त्सेदु योनी: –
तदित तवा युक्ता हरयो वहन्तु |
यदा कदा च सुनवाय सोमम
अग्निष्ट्वा दूतो धन्वात्यच्छ ||ऋग ३.५३.४ ||
शब्दार्थ : –
हे (मघवन) हे एश्वर्य युक्त इंद्र (जाया इत) पत्नी ही (असतं) घर है (उ) और ( सा इत ) वह ही (योनि:) संतान उत्पादन का आधार है (तट इत ) उसी घर में वही (युक्ता:) जूते हुए (हरय:) घोड़े (त्वा) तुझ को (वहन्तु ) ले जावें (यदा कदा च) और जब कभी (सोमम) सोम रस को (सुनवाम ) निकालेंगे ( दूत:अग्नि: ) तब तुम्हारा दूत अग्नि (त्वा ) तेरे (अच्छ) पास (धन्वाती) दौड़कर जाएगा |
भावार्थ : –
हे इंद्र ! पत्नी ही घर है | कुलवृद्धि का आधार भी वही है | तुझे उसी घर में जूते हुए घोड़े लावें | तुम्हारा दूत अग्नि तब ही तुम्हारे पास जाएगा , जब हम सोमरस निकालेंगे |
यह मन्त्र हमें बताता है कि गृहस्थ का आधार क्या है ? उसका मूल क्या है ? तथा उसके मूल में क्या पदार्थ डालने की आवश्यकता है ? इन बातों का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि : –
पत्नी ही घर का आधार है | संस्कृत मई कहा भी है कि :”न गृहं गृहमित्याहू: , गृहिणी गृहमुच्याते ” अर्थात घर को घर नहीं कहते अपितु गृहिणी कि ही घर कहते हैं | कहा भी है कि गृहिणी के बिना घर में भुत का डेरा होता है | गृह में क्या कार्य होता है ? गृह में मुख्य कार्य होता है गृह कि सुरक्षा , गृह कि व्यवस्था, गृह का संचालन, गृह का निरिक्षण तथा समुन्नयन | यह सब कार्य गृहपत्नी अथवा नारी ही कराती है | पुरुष तो गृह व्यवस्था के साधन अर्थात धनोपार्जन के लिए प्राय अधिकाँश समय गृह से बाहर ही रहता है | इस कारण इन सब कार्यों को वह नहीं कर सकता | इन कार्यों को करने के लिए अधक समय वहां उपस्थित होना आवश्यक होता है , किन्तु ओउरुष के लिए एसा संभव न हो पाने के कारण यह सब व्यवस्था पत्नी ही देखती है | अत: पत्नी के बिना यह सब कार्य व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती , इस कारण गृह के इन कार्यों के लिए पत्नी का विशेष महत्व इस मन्त्र में बताया गया है | यदि गृहिणी न हो तो गृह कि यह सब व्यवस्था छीन भिन्न हो जाती है | तभी टी गृहिणी के बिना घर को भुत बंगला अथवा भूतों का निवास कहा गया है |
मन्त्र न केवल पत्नी के कर्तव्यों पर ही प्रकाशः डालता है अपितु उस के महत्व का भी वर्णन करता है | यदि हम गृहस्थ को एक वृक्ष मानें तो पत्नी उस वृक्ष का मूल अर्थात जड़ होती है | जब तक मूल नहीं है , तब तक वृक्ष का अस्तित्व ही नहीं होता | मूलाधार ही समग्र वृक्ष का भार वहन करता है | इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नारी गृह का मूल आधार होता है | उस के कन्धों पर ही पूरा परिवार खड़ा होता है | नारी के बिना यह स्वपन साकार नहीं हो सकता | वृक्ष की जड़ तो केवल वृक्ष को खड़ा रखने तथा उसे भोजन पहुँचाने का कार्य करती है किन्तु नारी न केवल जड़ का अर्थात परिवार का आधार अथवा परिवार के खड़े होने की परिकल्पना को साकार करने वाली होती है अपितु संतानोत्पति का कार्य अर्थात बीज व भूमि का कार्य भी करती है | नारी ही गृह की सश्रीकता का आधार है | नारी के बिना संतानोत्पति संभव नहीं | नारी के बिना परिवार की समृद्धि भी संभव नहीं | अत: नारी परिवार की अच्छी समृद्धि का कारण होती है | एक उत्तम नारी ही परिवार में सुखों की वर्षा करती है | तभी तो इसे योनि अथवा मूल कहा गया है | यह परिवार का मूल कारण होती है | परिवार के सुखों की वृद्धि का चिंतन नारी को ही होता है | नारी के बिना किसी प्रकार के सुख व समृद्धि की कल्पाना ही नहीं की जा सकती |
ऊपर कहा गया है कि नारी गृह की सश्रीकता होती है | इस का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि यह सोम से आती है | सश्रीकता के लिए सौम्य गुणों का होना आवश्यक है } सौम्य गुण ही इस का मूल आधार हैं | यह सौम्यगुण ही परिवार की श्रीवृद्धि करते हैं , क्योंकि यह कार्य नारी करती है , इसलिए नारी का सौम्यगुणों से युक्त होना आवश्यक है | यदि नारी बात बात पर झगड़ती है तो परिवार का संचालन, परिचालन व व्यवस्था ढीली हो जाती है | यह सुव्यवस्था न रह कर कुव्यवस्था हो जाती है | सुव्यवस्था के लिए सौम्यता आवश्यक है | अत: नारी में सौम्य गुण की प्रचुर मात्रा आवश्यक है | इंद्र तथा
जीवात्मा की उपस्थिति भी सौम्यगुन के साथ ही होती है | वहीँ आत्मिक बल होता है तथा जहाँ इंद्र वा जीवात्मा तथा आत्मिक बल हो वहां श्रीवृद्धि भी निरंतर होती रहती है |
अत: इस मन्त्र के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि नारी ही गृह का आधार है, गृह अथवा परिवार का मूल भी नारी ही है , सौम्य गुण इस मूल को पुष्ट करते हैं | यह पुष्टि का ही परिणाम होता है कि आत्म बल, सात्विकता, पवित्रता ,सुशीलता, तथा विनय आदि गुणों का आघान होता है | अत: परिवार के निर्माण व पुष्टि के लिए सौम्यता का होना आवश्यक है | यह सौम्यता नारी में विपुल मात्रा में होने के कारण ही नारी को ही गृहिणी को ही गृह अर्थात घर कहा गया है | इस के बिना घर की कल्पना भी संभव नहीं | इसलिए परिवार में नारी का सम्मान हो ताकि वह खुश रहते हुए सौम्यगुणों को बढाती रहे
डा. अशोक आर्य ,

सुशील नारी ही गृह लक्ष्मी होती है

ओउम
सुशील नारी ही गृह लक्ष्मी होती है

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
मानव सुन्दरता का पुजारी है | यही कारण है कि वह सुन्दरता की खोज में भटकता रहता है तथा प्रयास करता है कि वह प्रतिक्षण सुन्दर दृश्यों में ही अपना समय बितावे | यह ही वह कारण है कि आज का मानव न केवल सुन्दर अपितु सुशील युवती को पाकर अति प्रसन्न होता है | यदि उस की सुन्दरता में कुछ कमीं अनुभव करता है तो उसे वह वर्तमान युग में कृत्रिम साधनों से दूर करने का प्रयास करता है | ठीक इसी प्रकार मनुष्य सोम के जल को पा कर भी आनंद का अनुभव करता है , उसे पवित्र करता है | इस तथ्य की चर्चा ऋग्वेद के मन्त्र १०.३०.५ में की गयी है | जो इस प्रकार है : –
याभी: सोमां मोदते हर्षते च
कल्यानिभिर्युवतिभिर्ण मर्य: |
टा अघ्वर्यो अपो अच्छा परेहि
यदासिन्चा ओशधिभी: पुनितात || ऋग. १०.३०.५ ||
शब्दार्थ : –
(सोम:) सोम (याभि) जिनसे ( मोदतेहर्षते च ) प्रसन्न होता है (कल्यानीभी:) सुशील (युवातिभी:) स्त्रियों से (मर्य: न ) जैसे मनुष्य ( हे अध्वर्यो )हे यज्ञकर्ता ( ता: अप : अच्छ) उन जालों को प्राप्त करने के लिए (परेहि) जाओ (यात) जब (असिन्वा:) सींच,तब (ओशधिभी:) ओषधियों अर्थात सोमलता सोमरस और जल से ( पुनितात) पवित्र करे –
सुन्दर व् सुशील युवतियों से जिस प्रकार मनुष्य प्रसन्न होता है , उसी प्रकार सोम जल से आनंदित और प्रसन्न होता है | हे अघ्वर्यु ! उस जल के पास जाओ | जब तुम उस जल से सोम्लाता को सींचते हो तो सोम ओषधियों से पवित्र करता है |
सरल, सुशील और विनीत स्त्री अपने सौम्य तथा विनीत भाव से घर को स्वर्ग बना देती है | घर में किसी प्रकार का कलह, द्वेष नहीं रहता | इस का कारण है कि जहाँ सुशील और कल्याणकारी पत्नी है, वहां स्वर्ग होता है | जिस प्रकार स्वर्ग की कल्पना की गयी है कि वहां किसी को किसी प्रकार का अभाव नहीं होता , सब लोग सुख पूर्वक रहते हैं | कोई किसी से झगड़ता नहीं, कोई लड़ता नहीं, कोई किसी से द्वेष नहीं रखता , सब प्रकार के सुख, सब प्रकार की संपतियां, सब प्रकार के सुख के साधन वहां उपलब्ध होते हैं | ठीक इस प्रकार जहाँ सुशील, विनीत व् सरल स्वभाव पत्नी होती है , वहाँ इस प्रकार के सुखों की आनंदों की वर्षा प्रतिक्षण होती रहती है | सब परिजन परस्पर मिलकर आनंद से प्रसन्नता से

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रहते हैं | सुशील पत्नी सौभाग्य से ही प्राप्त होती है | इस तथ्य को ही मन्त्र स्पष्ट करता है | इस सुशील पत्नी को पाकर मनुष्य आनंद, प्रसन्न व सुखी रहता है |
सुशील स्त्री हर्ष व आमोद का कारण होती है तो इस से विपरीत गुणों वाली पत्नी जिसे हम दू:शील कह सकते हैं , परिवार के लिए दु:ख व कष्ट और क्लेश ही पैदा करती है | ऐसी पत्नी एक सुन्दर व संपन्न घर को तबाह कर देती है | वह घर में लडाई, झगडा, कलह क्लेश का कारण बनती है | ऐसे परिवार से सुख सम्पति, धन वैभव व प्रसन्नता भाग जाती है | परिवार रसातल की और बढ़ता चला जाता है | इस लिए गृह पत्नी का सुशील, विनीत होना गृह शोभा का कारण होता है | तब ही तो कहा गया है कि विवाह करते समय गुण, कर्म, स्वभाव की परख कर सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए | बेमेल सम्बन्ध जोड़ना , परिवार के नाश का कारण होता है |
जिस प्रकार किसी वृक्ष को जल मिल जाने से वृक्ष हरा भरा व् प्रसन्न रहता है , ठीक उस प्रकार ही सुशील स्त्री व् पुरुष के मिलन से परिवार के सुखों के कारण परिवार की ख्याति दूर दूर तक फ़ैल जाती है | इस तथ्य को मन्त्र में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है | वृक्ष की ही भाँती सुशील पत्नी को पा कर पुरुष फलता व फूलता है, सदा प्रसन्न रहता है | जंगल की लताएं जल को पाकर स्वयं ही फलती फूलती व बढती हैं , उस प्रकार ही सुन्दर सुशील स्त्री को पा कर परिवार की भी श्रीवृद्धि होती है | परिवार भी न केवल धन धान्य से बल्कि उत्तम सुसंतान से भर जाता है | तब ही तो सुशील ,विनीत पत्नी को परिवार की लक्ष्मी कहा गया है | जब स्त्री परिवार की लक्ष्मी है तो उस के आने से परिवार में धन धान्य की , सुखों की , प्रसन्नता की, वैभव की वर्षा तो होगी ही | इस प्रकार यह परिवार उस युवती के कारण , जो पत्नी बनकर परिवार में आयी है , संपन्न बन जावेगा | \
अत: मन्त्र के आश्य के अनुसार गृह पत्नी सुशील व प्रसन्न रहते हुए परिवार में खुशियाँ व संपतियां लाने का प्रयास करे तो उस की ख्याति बढ़ेगी | उसकी ख्याति के साथ ही परिवार की ख्याति भी बढ़ेगी तथा सुखों की गणना करते समय लोग इस परिवार का उदाहरण देने लगें गे |
डॉ. अशोक आर्य

हम दान देने में आनन्दित हों

हम दान देने में आनन्दित हों
डा. अशोक आर्य
हमारा जीवन यग्य के समान हो । हम सदा सोम का पान करते रहें तथा दूसरों को दान देने में हम आनन्द का अनुभव करें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है : –
उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिव ।
गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥ रिग्वेद १.४.२ ॥
विगत मन्त्र में प्रभु भक्त ने अत्यन्त तथा मधुर इच्छाओं वाले बन कर अपने प्रभु से एक प्रार्थना की थी । इस मन्त्र में चार बातों पर विचार देते हुए अपने भक्त की प्रार्थना को सुनकर प्रभु भक्त से कह रहे हैं कि हे भक्त ! तूं हमारे यग्यों को समीपता से प्राप्त होकर निरन्तर वेद में प्रतिपादित , वेद में वर्णित यग्य आदि कर्मों को कर ।
१.. प्रभु का आदेश है कि हम यग्यों को समीपता से करें तथा इन्हें वेदादेश के अनुरुप करे । इससे स्पष्ट है कि हम जिन यग्यों को करते हैं , उनमें अपनी भागीदारी बनाए रखें , इन्हें दूसरों पर न छोडें । जिस प्रकार आजकल नौकर प्रव्रिति परिवारों में चल रही है । उस प्रव्रिति का अवलम्बन करते हुए नौकर अथवा परिवार के किसी सद्स्य से यह यग्य न करवायें अपितु स्वयं को यग्यों का भाग बना कर करें । स्वयं इन यग्यों को करने में संलिप्त हों ।
मन्त्र यह भी आदेश दे रहा है कि हम जो भी यग्यादि कर्म करें वह इस प्रकार करें जैसे कि वेद के माध्यम से परम पिता ने करने का आदेश दिया है । इस का भाव है कि हम पहले वेद के माध्यम से स्वाध्याय कर वेद में दिए अर्थ समझें फ़िर तदनुरुप यग्य करें । यग्य का मुख्य अर्थ है दान व परोपकार । दूसरों की सहायता करना , दूसरों को उपर उटाने के लिए अपने अर्थ संग्रह का कुछ भाग उनकी सहायतार्थ देना ,दान काना ,प्रभु से संगतिकरण करना , प्रभु के बनाए संसार को वैसा ही स्वच्छ व सुन्दर बनाए रखना , जैसा कि उस पिता ने हमें दिया था ,जिसके लिए अग्निहोत्र करना । यह ही तो यग्य की भावना है । इस भावना को सम्मुख रखते हुए हम जो दानादि कर्म करें , उसमें स्वयं को इस प्रकार लिप्त करें कि दान तो हम करें किन्तु यह देते हुए हम किसी पकार का एहसान या प्रतिफ़ल न चाहें । परमपिता प्रमात्मा बता रहे हैं कि हे यग्यिक पुरुष ! जब तूं यह सब कार्य कर रहा है तो मैं समझता हूं कि तूं सच्चे मन से मेरी आराधना कर रहा है ।
२. मन्त्र जिस दूसरी बात पर प्रकाश डाल रहा है , वह है सोम कणों की रक्शा । पिता कह रहा है कि हे सोमकणों की रक्शा करने वाले आराधक ! तु अपने इस शरीर में सोमकणों की रक्शा कर । भाव यह है कि वेद ने शक्ति को सोम स्वीकार किया है । जिस मानव के पास शक्ति है , जिसका शरीर स्वस्थ है , जिस के शरीर से कान्ति छ्लक रही है , वह पूर्णतया निरोग होता है । जिस के पास शक्ति ही नहीं है , रोग निरोधक तत्व ही नहीं है , वह रोग से मुक्त कैसे रह सकता है ? जब वह रोगों से ही ग्रसित है तो दु:ख ही उसके जीवन का मुख्य भाग बन कर रह जाते हैं । दु:खी व्यक्ति अपने आप को ही नहीं सम्भाल सकता , ग्यान का अर्जन ही नहीं कर सकता दूसरों का क्या ध्यान करेगा । इस लिए मानव का सशक्त होना आवश्यक है । जो सशक्त होगा वह ग्यान आदि को प्राप्त कर उत्तम कर्म कर सकेगा ।
इस लिए पिता ने अपने भक्त को आशीर्वाद देते हुए उपदेश किया है कि हे मेरे आराधक ! तूं अपने शरीर में शक्ति का संचय कर , शरीर में सोमकणों का संग्रह कर । फ़िर हम इन सोम कणों की ग्यान की अग्नि में आहुति दें अर्थात हम अपने जीवन में एकत्र की इस शक्ति को ग्यान प्राप्त करने में लगावे । उत्तम से उत्तम , उच्च से उच्च ग्यान प्राप्त करने के लिए सदा प्रयास करें तथा हम ने जो शक्ति, जो सोम अपने शरीर में एकत्र किया है उसे इस सर्वश्रेट यग्य अर्थात ग्यान को प्राप्त करने मे व्यय करें । यह सोम कण ही हैं जो ग्यानग्नि में घी का कार्य करते हैं , इसे प्रचण्ड करते हैं , इसे तीव्र करते हैं ।
३. मन्त्र के तीसरे भाग में वह पिता आदेश कर रहे हैं , उपदेश कर रहे हैं कि हे पवित्र मानव ! तुने सोमकणॊं को तो अपने शरीर में रक्श्ति कर लिया तथा इन कणों को यग्यादि कर्मों में प्रयोग कर उत्तम ग्यान भी प्राप्त कर लिया , अब इस बात को याद रख कि जो धन तू ने अपने यत्न से एकत्र किया है , जो गौ आदि का संग्रह तूं ने किया है उसके दान में ही तुझे हर्ष है , तुम्हे इस सब के दान में ही आनन्द की अनुभूति है । जब तक तूं दिल खोल कर इस धन का सदुपयोग दानादि कार्यों में नहीं करता , तब तक तुझे अपार आनन्द नहीं मिलने वाला है । अत: दिल खोल कर दान कर । दान में ही धनवान का आनन्द छुपा है । इस आनन्द को पाने के लिए दान कर ।
४. मन्त्र के इस चतुर्थ व अन्तिम भाग में परम्पिता परमात्मा अपने आराधक को , अपने भक्त को तीन निर्देश देते हुए कह रहे हैं कि :-
क) हे भक्त ! तूं यग्यादि परोपकार के कार्यों में निरन्तर व्यस्त रहते हुए अपने अन्दर के क्रोध का दमन कर । क्रोध सब प्रकार के यग्यों का शत्रु है । एक व्यक्ति दान कर रहा है ओर दान करते हुए भी उसे क्रोध आ रहा है । क्रोध में जलते हुए वह कह रहा है कि मुफ़्त में यह सब मिल रहा है किन्तु फ़िर भी इन्हें सबर नही ,लेने का टंग नही , एक पंक्ति में खडे हो कर ले भी नहीं सकते । इस प्रकार वह क्रोधित हो कर अनाप शनाप बोल रह है तो उसका यह दान किया भी बेकार हो जाता है । दान देकर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। इस लिए दान दाता को क्रोध को अपने निकट नहीं आने देना चाहिये , उसक क्रोध से दूरी बनाए रखना आवश्यक है ।
ख) मानव का ध्येय सोमपान हो । सोम शक्ति का साधन है । अत: वह जीवन में निरन्तर इस सोम का पान करते हुए अपने शरीर में शक्ति का संचार करता रहे । इस सोम की शरीर में रक्शा करने के लिए उसका संयमी होना भी आवश्यक है। यदि वह अपनी इन्द्रियों को संयमित नहीं कर सकता , अपने काबू में नहीं कर सकता तो वह काम आदि में इस सोम को नष्ट करने लगे गा । जो सोम शरीर में ग्यान का प्रकाश करने के लिए एकत्र किया गया था ,संयम के अभाव में वह काम आदि में नष्ट हो जाता है । इस लिए मन्त्र आदेश दे रहा है कि शरीर मे सोम को एकत्र कर संयम में रहते हुए कामादि दुर्गुणों से बचना चहिए ।
ग) जब मानव लोभ से उपर उट कर दानादि कर्म करता है तो उसे आनन्द की अनुभूति होती है । इस लिए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हम कभी लोभ न करें । जब हम लोभी होते हैं तो यदि हम दान भी करने लगते हैं तो उसमें भी या तो कुछ बचाने की इच्छा रखते हैं या फ़िर जिस को हम दान दे रहे हैं, उस पर बहुत बडा एह्सान दिखाते हुए , उससे कुछ प्रतिफ़ल की भी आशा करते हैं । यह दान नहीं माना जा सकता । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हम लोभ से ऊपर ऊटकर दान करें तो हमें आनन्द आवेगा ।
हम दान देते समय क्रोध न करें । दान दया की भावना से होता है किन्तु जब दान देते हुए भी हम क्रोध करते हैं तो इसमें दया की भावना नहीं रह पाती क्योंकि क्रोध से उपर उटने को ही दया कहा गया है । अत; हम जो भी दनादि कर्म करें, वह सब दया भाव से करें ।
दान के समय हम अपने अन्दर की वासनाओं का भी दमन करें । काम एक एसा तत्व है जो हमार सोमकणों का नाश करता है । अत; काम को हम अपने निकट भी न आने दें । जब तक हमारे अन्दर काम की भावना है , तब तक हम दानशील हो ही नहीं सकते क्योंकि काम सब शक्तियों को नष्ट करता है । कामी व्यक्ति शक्ति की कमीं के कारण खुलकर मेहनत नहीं कर सकता । बिना मेहनत के धनार्जन नहीं होता ओर जब हमारे पास धन का ही अभाव है तो हम दान कैसे कर सकते हैं ? अत: काम से बचना आवश्यक है । जब हम काम से उपर उटते हैं तो इसे ही “दमन” कहते हैं ।
मानव जीवन में लोभ भी उसका एक बहुत बडा शत्रु है । यह देखा गया है कि लोभी व्यक्ति अपने पास अपार धन सम्पदा होते हुए भी जीवन के सुखों से ,दानादि कर्म से वंचित ही रहता है । यहां तक कि कई बार तो एसे लोग भी देखने को मिलते हैं , जो रुग्ण होते हैं , पास में अपार धन सम्पदा होते हुए भी लोभ वश वह अपने का स्वयं के रोग का निदान करने में भी कुछ भी व्यय नही करने को तैयार होते , दूसरे की सहायता तो क्या करेंगे ? एसा धन तो मिट्टी के टेले के समान ही होता है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हम अपने जीवन में लोभ को स्थान न दे । जो लोभ से ऊपर उट जाता है , वह ही दानी हो सकता है ।
ये परमपिता परमात्मा के तीन आदेश हैं । इन तीन आदेशों को उस पिता ने असुरों , मानवों तथा देवों को समान रुप से दिया है । समान रुप से आदेश देने का भाव यह है कि उस पिता ने बिना किसी भेदभाव के सब को समान अवसर देते हुए उत्तम बनने के लिए प्रेरित किया है । उपअनिषद मे भी तीन ” द ” दिए हैं । इन तीन “द” के माध्यम से दया , दमन तथा दान का आदेश उपनिषद ने किया है । इन तीनों का ही इस मन्त्र में उपदेश है । तीनों पर चलने के लिए ही तीनों प्रकार के प्राणियों को आदेश प्रभु ने दिया है । जो इन पर चलता है वह आनन्द विभोर हो जाता है, जो नहीं चलता वह जीवन प्रयन्त दु:खों में डूबा रहता है ।

डा. अशोक आर्य

हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा फूले

ओउम्
हमारा घर दतक सन्तान से भी सदा फूले
डा.अशोक आर्य
हम प्रशतेन्द्रिय होकर ही उस पिता की अपने घर में उपासना करें , उस पिता के पास बैठें । हमारे घर उत्तम सन्तान से युक्त हों | यदि किन्ही कारण से हमें दतक सन्तान लेनी पडती है तो भी हम वृद्धि को, उन्नति को ही प्राप्त हों । इस बात को इस मन्त्र मे इस प्रकार प्रकाशित किया गया है : –
यमश्वीनित्यमुपयातियज्ञंप्रजावन्तंस्वपत्यंक्षयंनः।
स्वजन्मनाशेषसावावृधानम्॥ ऋ07.1.12
१ प्रशास्तिन्द्रिय हो प्रभु के उपासक बनें
हे प्रभो ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला पुरूष आप की उपासना के लिये आप के चरणों में उपस्थित होते हैं । सब जानते हैं कि हमारी इन्दियाँ घोड़ों से भी तेज भागती हैं | मानव जीवन में गति का विशेष महत्व होता है और आज के युग में तो मंद गति वाले व्यक्ति को बेकार समझा जाता है | यह ही कारण है कि यह मन्त्र प्रशस्त अश्वों वाला पुरुष कहते हुए इश्वर की उपासना का , इश्वर के पास जाने का , उस प्रभु के पास आसन लगाने का उपदेश देते हुए मानव से यह प्रकट करवा रहा है कि हम अश्वों सरीखी प्रशस्त इन्द्रियों वाले होकर आपके निकट आते हैं | इस लिये हे प्रभु ! आप हमें एसा गृह दें, जो उत्तम प्रकार के पुरूषों से भरा हो, उत्तम सन्तानों से भरा हो । इस का भाव यह है कि इस घर में जो बडे लोग अर्थात माता पिता आदि निवास करते हैं ,वह उत्तम जीवन मूल्यों से भरपूर हो , उत्तम मार्ग पर चलने वाले तथा उत्तम कार्य करने वाले हों । इतना ही नहीं इस प्रकार के मुखिया से युक्त इस घर की सन्तानें भी उत्तम ही हों ।
मानव सदा उतम की ही प्राप्ति चाहता है | उतम जीवन , उतम विचार , उतम व्यवहार ही उस के यश व कीर्ति को बढाते हैं और उसे धन ऐश्वर्यों का स्वामी बनाते हैं | इस उतम को पाने के लिए उसे अपनी गति को ग्जोदों के समान तीव्र करना होता है | इतना ही नहीं हम यह भी इच्छा करते हैं कि हमारी संतान भी उतम हो | हमारी संतान भी हमारे जैसी ही नहीं अपितु हमारे से भी अधिक तीव्रगामी हो | इस लिए हम सदा अपनी संतानों को भी अधिक से अधिक योग्य बनाने का प्रयास करते है और कसी कारण हमें दतक संतान लेनी पड़ती है तो उसमें भी अह सब गुण देखना चाहते हैं | इस सब की प्राप्ति ए लिए ha तीव्रगामी हो कर प्रभु की उपासना करते हैं |
यहां प्रभु से इस मन्त्र के माध्यम से यह भी प्रार्थना की गयी है कि हमें जो घर प्राप्त हो , वह घर अपने से उत्पन्न सन्तानों से उन्नति पावे तथा ऒरस सन्तानों से भी वृद्धि को , उन्नति , को, सफ़लताओं को प्राप्त करे ।
२ शत्रुओं को नष्ट करें
जो परिवार उतम होता, उस परिवार का घर सदा धन धान्य से भरा रहता है | धन ऐश्वर्यों की इस परिवार में सदा वर्षा होती रहती है | जहाँ धन ऐश्वर्यों की वर्षा हो,वहां सम्पन्नता न हो , एसा तो कभी सोचा ही नहीं जा सकता ओर संपन्न परिवार के भरे खजानों के कारण उस की ख्याति दूर दूर तक फ़ीस जाती है | इस खायाती के कारण अनेक लोग इस परिवार का आदर करते हैं तो अनेक लोगों की बुरी दृष्टि भी इस परिवार पर पड़ती है | यह बुरे लोग इस परिवार के प्रति इर्ष्या रखने लगते हैं तथा शाम , दम ,दंड , भेद से इस परिवार की सम्पति को प्राप्त करना चाहते हैं | इस प्रकार के लोगों की यह चाहत ही इस परिवार के लिए शत्रुता का कारण बनती है | इन शत्रुओं से परिवार की , अपने घर की रक्षा करने के लिए अनेक बार हमें जूझना होता है | इसके लिए अतुलित शक्ति की भी आवश्यकता होती है | इसलिए प्रभु चरणों में बैठ कर जहाँ हम उतम संतान कि मांग करते हैं वहां हम उस परम पिता से यह भी प्रार्थना करते हैं कि हम इतने बलशाली हों , हम इतनी शक्ति से संपन्न हों कि मन शत्रु सेनाओं को बड़ी सरलता से नष्ट कर सकें |
डा. अशोक आर्य

सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें

औ३म
सद्गुणों से सजने व प्रभु दर्शन के लिये सोमकणों की रक्शा करें
डा.अशोक आर्य
रिगवेद के प्रथम मण्डल के प्रथम अध्याय का प्रथम सूक्त नॊ मन्त्रों से युक्त था , जिसके माध्यम से हमने अग्नि के नाम से प्रभु का स्मरण किया था । अग्नि आगे ले जाने का कार्य करती है । परमपिता परमात्मा भी तो जीवात्मा की उन्नति का कारण होता है , इस लिये उसे हमने अग्नि के नाम से जानने का यत्न किया ।
अब हम इस दूसरे सूक्त के नॊ मन्त्रों के माध्यम से उस पिता को वायु के नाम से स्मरण करते हैं । वायु का कार्य गति करना होता है । परमपिता परमात्मा भी गति के माध्यम से ही सब बुराईयों का नाश करता हैं । बिना गति के किसी भी बुराई का नाश नहीं हो सकता । इस कारण यहां प्रभू को वायु के नाम से स्मरण करते हुये कहा है कि हम इस शरीर में सोम की रक्शा करें । यह सोम कण हमारे जीवन को गुणॊं से भरेंगे तथा इससे हम प्रभू के दर्शन के योग्य बन सकेंगे । इस तथ्य को इस सूक्त का प्रथम मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट करने का यत्न करता है : –
वायवा याहि दर्श्तेमे सोमा अरंक्रिता:।
तेषां पाहिश्रुधी हवम ॥ रिग्वेद १.२.१ ॥
हे गति करने वाले पभो ! हे बुराईयों का नाश करने वाले प्रभो ! आप आकर हमारे ह्रिदय आसन पर विराजिये । वास्तव में आप सचमुच ही दर्शनीय हैं । इस लिये हे प्रभो ! मेरा ह्रिदय आप के निवास के लिए उत्तम स्थान है तथा वहीं पर ही मैं आपके दर्शन का सॊभाग्य प्राप्त करता हुं । हमारे शरीर में ह्रिदय ही एक एसा स्थान होता है , जिसे सब से पवित्र कहा जाता है । इस पवित्रता के ही कारण प्रभॊ का निवास इस ह्रिदय को माना गया है । इस लिए प्रभु को ह्रिदय रुपी आसन पर बैटाने की इच्छा व्यक्त की गई है ।
हे प्रभू मैं कभी भी आप की द्रिश्टि से ऒझल न होकर सदा आप की द्रिष्टि में ही रहूं । इस प्रकार मैं पवित्र बना रहूं । वह प्रभु जिस के साथ होगा, वह व्यक्ति पवित्रता से परिपूर्ण रहेगा । इस लिए जीव ने प्रभु की समीपता पाने के लिए प्रार्थना के साथ हीसाथ इस मन्त्र के माध्यम से प्रबू कीद्रिष्टी में रहने का यत्न भी किया गया है । इस प्रकार प्रभु कि क्रिपा में रहते हुये पवित्र बनने क यत्न इस मन्त्र के माध्यम से जीव ने किया है ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि मानव का सदा ही यत्न रहता है कि वह अपने शरीर में अधिक से अधिक सोमकणॊं की रक्शा करे । इतना ही नहीं रोके गये यह सोमकण शरीर में ही समा जावें, फ़ैल जावें । क्योंकि इस प्रकार रोके गये यह सोमकण शरीर में ग्यान रुपी अग्नि प्राप्त करने का ईंधन बनते हैं । ग्यान की इस अग्नि को दीप्त करने का कारण बनते हैं , साधन बनते हैं । इस प्रकार जो अग्नि दीप्त होती है , प्रकाशित होती है , उस ग्यान अग्नि से हम प्रभु के दर्शन पाने के योग्य बनते हैं ।
हे प्रभॊ ! हमारे इन सोमकणॊं की रक्शा भी तो आप के स्मरण करने से ही होती है । यदि हम आप का स्मरण नहीं करते तो यह सोमकण नष्ट हो जाते हैं । हम क्योंकि सदा आप का स्मरण करते रहते हैं, इसलिए हे प्रभो ! आप हमारे इन सोमकणों की रक्शा कीजिये । जहां महादेव अर्थात आप होते हैं, वहां काम रूपि शत्रु कभी प्रवेश करने का साहस भी नहीं कर सकता । कहा भी गया है कि ” जहां महादेव वहां कामदेव भस्म ” । यह काम ही है जो शरीर के सोम की रकशा में सदा ही बाधक बना रहता तथा इस काम के नाश से ही सोमकण शरीर में सर्वत्र फ़ैल जाते हैं । इस लिये हे प्रभो हम आपका स्मरण करते हैं , हमें काम रुपी दोष से मुक्त कीजिये तथा सोम इस शरीर में स्थान प्राप्त कराईये ।
अत: हे प्रभो ! आप हमारी इस प्रार्थना को सुनें , आप हमारी पुकार को सुनें , आप हमारी विनय को सुनें आपके यह सब भक्त प्रभो ! अपनी सोम्यता के कारण से सम्पन्न है । सोम्यता के यह सब गुण आप के भक्तों में भरे हुये हैं , रमे हुये हैं । सोम्यता के इन सब गुणों से अलंक्रित हैं । इस के बिना प्रभु से हम रक्शित नहीं हो सकते । इस लिए हम इन सब से अलंक्रित होने के कारण प्रभु से रक्शा के सचमुच ही पात्र हैं ।

डा. अशोक आर्य

राजा गर्भस्थ माता के सामान प्रजा का पालन करे

राजा गर्भस्थ माता के सामान प्रजा का पालन करे
डा. अशोक आर्य
राजा अपनी प्रजा का पिटा के समान पालन करता है इस लिए पिटा कहा गया हैकिन्तु राजा अपनी प्रजा का पालन माता के सामान भी करता है | वह बाल्याकालसे ही माता के सां प्रत्येक कदम पर अपनी प्रजा के प्रत्येक अंग रूप नागरिक को अपनी अंगुली पकड़ने के लिए देता है तथा पग पग पर उसका मार्ग दर्शन करता है | यहाँ तक कि जिस प्रकार माता अपनि संतान को नोऊ महीने तक अपने गर्भमें रखती है | उस प्रकार ही प्रजा के लिए राजा माता के सामान होता है तथा यह सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र उसके गर्भके समान्ही होता है , जिसमें रहते हुए उसकी प्रजा ठीक उस प्रकार विकास कराती है जिस प्रकार माता के गर्भ में उसकी संतान विकास को प्राप्त होती है | इस सम्बन्ध में वेद का मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :-
विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भSआ रोदसीSअपृणाज्जायमान: |
विडू चिदद्रिमभिनत् परायञ्जाना यदग्निमयजंत || यजु.१२.२३ ,ऋग्. १०.८५.६ ||
मन्त्र इस सम्बन्ध में उपदेश करते हुए कह रहा है कि हमारे इस जगत् रूपी ब्रह्माण्ड में सूर्य अपने आकर्षण का केंद्र होता है | इस कारण ही वह सब का धारक होता है अर्थात् सब लोग उसे धारण करते हैं | सब लोग सूर्य को क्यों धारण करते हैं ? इस का कारण है कि सूर्य प्रकाश का स्रोत होता है | जिस प्रकाश में हमारी आंख देखने की शक्ति प्राप्त करती है , वह प्रकाश हमें सूर्य से ही मिलता है | यदि सूर्य न हो तो हमारी आँख चाहे

कितनी भी सुन्दर हो , साफ़ हो, उसमें देखने की शक्ति हो किन्तु सूर्य के प्रकास्श के बिना यह आँख देख ही नहीं पाती | मानो उसमें देखने की शक्ति ही न हो | सूर्य के प्रकाश के बिना आँख कुछ भी तो नहीं देख सकती | इसलिए ही मन्त्र कह रहा है कि सूर्य अपने प्रकाश से सब के लिए धारक है |
मन्त्र कहता है कि प्रजा में से जिस व्यक्ति में सूर्य के सामान गुण हों , उसेही राजा के पद पर आसीन करना चाहिए | अर्थात् जो व्यक्ति सूर्य के सामान तेजस्वी हो | ब्रह्मचारी से जिसने अपने शरीर को खूब तपा लिया हो | उस के मुख से,उसके आभा मंडल से एक विशेष प्रकार की आभा , एक विशेष प्रकार का तेज टपक रहा हो | एक एसा तेज टपक रहा हो , जिस के पास आने से सब प्रकार के दुरित इस प्रकार सूर भाग जावें जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश में आने से सब प्रकार के रोगों के कीटाणु जला कर भस्म हो जाते हैं | इस प्रकार के व्यक्ति को ही अपना राजा चुनना चाहिए |
मन्त्र आगे कहता है कि राजा पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का सेवन करते हुए सब प्रकार की विद्याओं को पा गया हो अर्थात् वह सब प्रकार की विद्याओं का ज्ञाता हो | कोई एसी विद्या न हो जिसका उसे ज्ञान न हो | उसने इतने विशाल राज्य की प्रजा का पालन करना होता है और प्रजा भी वह जो अलग अलग विषयों को जानती हो , अलग अलग कार्य करती हो तथा राजा से यह आशा करती हो कि राजा उसके क्षेत्र को उन्नत करने , विकसित करने का कार्य करे ताकि उसका व्यवसाय आगे बढ़ सके | यदि राजा किसी एक विद्या को नहीं जानता होगा तो वह उस एक विद्या को उन्नत करने का कार्य कैसे कर सकेगा ? इसलिए मन्त्र के अनुसार राजा सब विद्याओं का ज्ञाता हो तथा उन विद्याओं के प्रसार में उसकी रूचि हो |
राजा के लिए यह भी आवश्यक है कि वह राज्य का धारक हो | इसका भाव यह है कि जिस व्यक्ति को हम राज सत्ता सौंपने जा रहे हैं उस में इतनी शक्ति हो कि वह जब इस सत्ता को धारण करे तो उसका कोई विरोधी न हो ,उसे सता ग्रहण करते समय कोई ललकारने वाला न हो | वह शक्ति से संपन्न हो | यदि कोई व्यक्ति उसकी सत्ता को ललकारने का दुस्साहस करे तो उसमें इतनी शक्ति होनी चाहिए , इतना साहस होना चाहिए की वह इस प्रकार के व्यक्ति कुचल कर रख दे | सब प्रकार के शत्रुओं का नाश करने की


उसके पास शक्ति का होना आवश्यक होता है | इसा प्रकार की शक्ति के बिना उसका शासक रह पाना संभव हिनहिन होता |
इस शक्ति से ही राजा सब प्रकार के सोखों का उत्पादक तथा सब प्रकार के सुखों की वर्षा कर सकता है | यदि शत्रु को देख कर राजा चूहे के सामान अपने बिल में घुस जावे तो शत्रु का सामना , शत्रु का मुकाबला कौन करेगा | राजा के अभाव में प्रजा छिन्न भिन्न हो जावेगी तथा शत्रु इस राज्य पर अपना अधिपत्य जमा लेगा | जब राज्य पर शत्रु आसीन हो जावेगा तो प्रजा सुखों के लिए तरसने लगेगी | सुख उसके लिए दिया स्वपन बन जावेंगे | जिस प्रकार मुगलों तथा अंग्रेज के राज्य के समय भारत की जनता दू:खों से भर गयी थी उस प्रकार की अवस्था आ जावेगी | इसलिए राजा के पास इतनी शक्ति होना आवश्यक है कि जिस से वह अपनी प्रजा के सुखों को बढ़ा कर उसे प्रसन्न रख सके |
इस सब के प्रकाश में मन्त्र कहता है कि माता अपने गर्भस्थ शिशु का पालन करने के लिए बड़ी सावधानी से चलती है , बड़ी सावधानी से बोलती है तथा बड़ी सावधानी से अपने जीवन का सब व्यापार करती है ताकि उसके गर्भ में पल रहे बालक को किसी प्रकार का कष्ट न हो तथा समय आने पर पूर्ण स्वास्थ्य के साथ इस संसार को देखे , इस संसार में जन्म ले | ठीक इस प्रकार ही राजा की प्रत्येक क्रिया प्रजा के सुख के लिए होती है | वह अपना प्रत्येक कार्य आराम्भ करने से पूर्व ही सोच लेता है कि उसके इस कार्य से प्रजा के किसी अंग को कष्ट तो नहीं होगा | किसी का अहित तो नहीं होगा | इसलिए प्रजापालक राजा का विद्वान्, गुणों से सपन्न होना आवश्यक होता है ताकि वह अपनी प्रजा के हितों के अनुसार कार्य करे तथा मातृवत ही गर्भस्थ शिशु के समान अपनी प्रजा का रक्षक हो |
मन्त्र स्पष्ट संकेत करता है कि अपने राजा का चुनाव करते समय प्रजा यह अवश्य देख परख ले कि जिस व्यक्ति को वह अपना राजा चुनने जा रही है , उसमें कितनी मातृत्व शक्ति है ? वह माता के समान कितने गुणों का धारक है ? उसमें अपनी प्रजा से माता के समान स्नेह होगा या नहीं ? इस प्रकार के गुणों की परख करने के पश्चात यदि वह उसकी कसौटी पर खरा उतरता है , तब ही उसे राजा चुना जावे अन्यथा जनता को कभी सुख प्राप्त नहीं होगा |
डा. अशोक आर्य

राजा अपनी प्रजा के पिता समान हो

राजा अपनी प्रजा के पिता समान हो
डा. अशोक आर्य
राजा और प्रजा दोनों ही एक दुसरे को यशस्वी, तेजस्वी बनाने वाले होते हैं | वेद का आदेश है कि राजा अपनी प्रजा का पालक होता है | प्रजा अपने राजा का चुनाव कर बनती है | अपने राजा को स्थिर बनाती है | इसलिए राजा के लिए भी बहुत से कर्तव्य हो जाते हैं | जिस प्रजा ने बड़ी श्रद्धा से, बड़े आदर से , बहुत सा सम्मान देते हुए उसे सिंहासनारूढ़ किया है , उस प्रजा के लिए राजा ने भी कुछ कर्तव्यों का पालन करना होता है | इन कर्तव्यों में मुख्य रूपा से प्रजा के भरण पोषण की व्यवस्था, मकान कपडे की आवश्यकता की पूर्ति , प्रजा की शिक्षा की व्यवस्था, प्रजा की सुरक्षा की व्यास्था आदि अनेक कार्य होते हैं , जो राजा को अपनी प्रजाके लिए करने होते हैं | इन सब क्लार्ताव्यों को जब राजा पूर्ण करने का यत्न करता है तो उसे हम प्रजा के पिता स्वरूप जानते हैं | इसलिए वेद ने राजा को पिता के सामान ही स्वीकार करते हुए कहा है कि : –
त्वामग्ने प्रथाममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषम्य विश्वपतिम् |
इळ मकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जयति || ऋग्वेद १.३१. ||
राजा की नियुक्ति प्रजा के चुनाव से होती है | हम किसी भी सभा के सभापति को भी राजा कह सकते हैं और शासन के मुखिया को बी कह सकते हैं | यह ही वेद की भावना होती है | वेद जब राजा के कर्तव्यों की व्याक्ल्ह्या कर रहा है तो इसके अन्दर इन सब को समाविष्ट किया जाता है | अत: राजा के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए मन्त्र कह रहा है कि हे विज्ञान युक्त सभाध्यक्ष ! अर्थात् ससब प्रकार की शिक्षाओं का संचालक इन्हें मानने वाला तथा इन शिक्षाओं का विस्तारक होने के कारण मन्त्र राजा को विग्यन्युक्त सभाध्यक्ष कहते हुए उपदेश करता है कि :-


हे सब प्रकार की विज्ञानों को उन्नत करने वाले विज्ञान से युक्त हमारी सभा के सभाद्यक्ष अर्थात् राजन् ! आप विद्वानों में सस्बा से अग्रणी हो , सबके अग्रगंता हो | आप अपने उत्तम न्याय से , अपनी न्यायशीलता से दोषियों को दण्डित करने वाले होने से इस प्रजा के आप ही नियंत्रण करने वाले हो | हम सब प्रजा ने मिलकर आप को अपना स्वामी बनाया है | यह सब इसलिए किया गया है कि आप हम सब की उन्नति के साधन हमें उपलब्ध करावें |
इतना ही नहीं मनुष्य मात्र की विज्ञान सम्बन्धी उन्नति के लिए , प्रजा की प्रगति के लिए आप ने वेदवाणी के स्वाध्याय की व्यवस्था की है , अनेक प्रकार के गुरुकुल, विद्यालय तथा महा विद्यालय आराम्भ्किये हैं , जीना में जा कर यह प्रजा वेदवाणी का स्वाध्याय कर सके अपने सब प्रकार की विज्ञान सम्बन्धी क्षुधा को दूर कर सके | इस प्रकार यह प्रजा भी आप ही के सामान ससब प्रकार के ज्ञानों को प्राप्त कर उन्नति की और अग्रसर हो सके |
वेदवाणी सब सत्यों को आगे बढाने वाली होती है | वेदवाणी का प्रकाशन अर्थात् मानव मात्र केकल्याण के लिए परमपिता परमात्मा ने व्दवानी का प्रकाश किया | इसा ज्ञान को सामान्य मानव तक पहुंचाया ताकि वह इस सत्य ज्ञान को पाकर अपना तथा जन जन का कल्याण करने में समर्थ हो सके | हे राजन् प्रभु के इस ज्ञान का न केवल तूं ही स्वाध्याय कर अपितु अपनी प्रजा में भी इस सत्य ज्ञान को बांटने की व्यवस्था कर इससे तेरा तो कल्याण होगा ही तेरे साथ तेरी प्रजा का भी यश फैलेगा | प्रजा तेरे लिए अपने ह्रदय में आदर पूर्ण स्थान देगी , जो तेरी शक्ति बनेगा | यह ही मानव की सत्य निति है | सका प्रकाशन भी पिटा ने ही किया है | इसा सत्य निति को अपना |
जिस प्रकार मानव अपनी संतान का पिता होता है | अह अपनी संतान का पालन पौशन करता है | अपनी संतान के लिए वह खाने पिने की व्यवास्था अर्थात् उसके भरण – पौषण की व्यवस्था करता है | वह उसके वस्त्राभूषण की भी व्यवशा करता है , उसे निवास के लिए एक भवन भी बनाता है , उसकी उत्तम शिक्षा के साधन भी उसे देता है | सदा उससे से प्यार , उससे स्नेह बनाए रखता है |
ठीक इस प्रकार ही राजा भी प्रजा का पिता होता है | जिस प्रकार से एक परिवार का पिता अपनी संतान के पालन पौषण तथा उन्नति की सब व्यवस्था काटा है , उस प्रकार

भी राजा भी अपनी प्रजा की सब सत्य आवश्यकताएं पूर्ण करने में सदा लगा रहता है | वह अपनी प्रजा के खाने पीने की , उसके पहनने , खेलने , व्यायाम करने के स्थान , निवास करने के लिए मकान , भरण पौषण , वेद स्वाध्याय या उतम शिक्षा आदि के अतिरिक्त शत्रुओं से भी रक्षा का कार्य करता है |
जब राजा अपनी प्रजा की ससब प्रकार की आवह्याकताओं को पूर्ण करते हुए अपने राज्य में अनेक प्रकार के उद्योग लगाता है , गुरुकुल, विद्यालय व महाविद्यालयों की व्यवस्था करता है , उन्नत खेती तथा गाय आदि की व्यवस्था करता है और कभी किसी वास्तु का उस के देश में अभाव हो जावे तो उस वास्तु को विदेश से मंगवा कर भी इस अभाव को पूर्ण करने का कार्य करता है | जब राजा इस प्रकार के कार्य करता हो जो एक परिवार में एक पिता किया करता है तो स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक परिवार का मुखिया पिटा होता है तो एक देश , एक राष्ट्र भी तो एक परिवार ही तो है | इस राष्ट्र रूपी परिवार का मुखिया होने के कारण राजा भी अपनी प्रजा का पिता ही तो हुआ | अत: स्पष्ट है कि राजा अपनी प्रजा का पिता होता है | वह अपनी प्रजा का पालन पानी ही संतान के सामान करता है | इस प्रकार भी प्रजा भी उसे अपने ही पिटा के समान आदर देती है |

डा. अशोक आर्य