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अज्ञान से ज्ञान की ओर – आचार्य शिवकुमार आर्य

जो एकत्व भाव से सभी को देखता है, उसको मोह तथा शोक नहीं होता है-

यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।

तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनुपश्यतः।।

यजु. 40-7

पदार्थ – (यस्मिन्) जिसमें-जिसके हृदय में। (सर्वाणि भूतानि) सभी प्राणी (आत्मा एव) आत्मा ही (अभूत) हैं (विजानतः) जानते हैं (तत्र) उसके हृदय में (कः मोहः) कैसा मोह (कः शोकः) कैसा शोक (एकत्वम्) एकता को (अनुपश्यतः) देखने वाले को।

अर्थ- जो सभी प्राणियों को आत्मा ही समझकर सब में एक जैसा अनुभव करता है, ऐसे व्यक्ति को कभी कोई मोह तथा शोक नहीं होता है। इन दोनों मन्त्रों में एक क्रम का वर्णन किया हैं। मनुष्य और अन्य प्राणियों में तीन प्रकार के रोग होते हैं। पहले का नाम है विचिकित्सा, दूसरे का नाम है मोह और तीसरे का नाम शोक है, परन्तु इन सभी दुःख निकायों का एक ही उपाय या समाधान है, जिसे कहते हैं समत्व। समत्व को व्यवहार के स्तर लाने के लिए प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार तथा यथायोग्य सभी के साथ व्यवहार करना चाहिए।

इन तीन प्रकार की व्यावहारिक भूलों के कारण मनुष्यों को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसी प्रकरण को योग शास्त्र में बड़े अच्छे प्रकार से स्पष्ट किया है-

‘‘मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां-

सुख-दुःख पुण्यापुण्यविषयाणाम् भावनातश्चित्तः प्रसादनम्’’

– योग. द. समाधिपाद-33

इस योगदर्शन के सूत्र में चित्त को प्रसन्न करने के चार उपाय बताये हैं। सुखी जनों को देखकर या मिलकर प्रसन्न होना तथा दीन-दुखियों को देखकर करुणा के भाव रखना चाहिये और इनको सहयोग प्रदान करना चाहिए। इसी प्रकार से सज्जन मनुष्य या पुण्यात्माओं में मुदिता (हर्ष) के भाव रखने चाहिये। चौथा है अपुण्यात्मा, अर्थात् दुष्ट, अधर्मी। उसके प्रति सज्जन जनों को सदैव उपेक्षा के भाव रखने चाहिये, क्योंकि दुष्ट व्यक्ति से दोस्ती तथा दुश्मनी-दोनों ही दुःखदायी होती हैं। इसी प्रकार से जो प्रतिपाद्य विषय है, उसमें एकता के स्थान पर अनेकता आती है, क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तु व व्यक्ति के स्वभाव अथवा गुणों को देखकर उसी प्रकार की वृत्ति बदलती है, तभी मानव सुखी व प्रसन्न चित्त रह सकता है, जब वह वस्तु के यथार्थ स्वरूप को देखे। सभी को सम दृष्टि से देखना तो सदैव अशान्ति का कारण होगा। वस्तुतः वेदमन्त्र प्रतिपादित ‘‘एकत्व’’ किसी अन्य बात को ही कह रहा है। जिस एकत्व के भाव से लोग मोह, शोकादि सभी अन्तर विकारों से शान्त या संयत हो जाते हैं, वह एकत्व क्या है? यह सर्वाधिक विचारणीय बिन्दु है। जो भौतिकवाद तथा आध्यात्मवाद के विषय को समता में लाने तथा अनेकता में ही एकता को स्थिर करने का नाम एकत्व या समत्व है। जैसे एक सन्तरे के फल में विभिन्न प्रकार के तत्त्व अथवा रसों के होने पर भी समत्व है, इसी प्रकार अन्य पदार्थों में अनेकता में एकता है। मानव शरीर में दस इन्द्रियाँ तथा चार अन्तःकरण हैं। मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार ये सभी मिलकर आत्मिक शान्ति को एक रूप में प्रकट करते हैं। मन तथा इन्द्रियों की अनेक क्रियाएँ एक ही सुखानुाूति को जन्म देती हैं तथा भिन्न-भिन्न, क्षणिक सुख बड़े सुखों में परिणित हो जाते हैं। इसी तरह समस्त जीवन के कर्म एक फल में समाहित हो जाते हैं। आत्मवत्- जो देखने का दृष्टिकोण है, वह यह नहीं कहता कि अच्छी-बुरी वस्तु या व्यक्ति को यथार्थ में मत देखो। आत्मवत् दर्शन का अभिप्राय है कि सभी जड़-चेतन व आत्मा-परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानो तथा जानकर विषमता को हटाकर समता स्थापित करो। भिन्न-ािन्न पदार्थों का अपना-अपना एकत्व या समत्व है। उसी प्रकार से स्वयं आत्म तत्त्व की भी समसन्तुलन व एक अवस्था है। जो पदार्थ अपनी सच्ची शन्ति को भंग न कर सके और उस वस्तु के क्षणिक संसर्ग सुख के वशीभूत न हों, वह यथार्थ में एकत्व का स्वरूप है। समत्व को लाने के लिए इस आत्मा को न जाने कितने जन्म धारण करने पड़ेंगे। क्योंकि भौतिक वस्तुओं में तो सदैव एकत्व व समानता होती ही नहीं है, क्योंकि इन पदार्थों में एक रूपता सदैव रहती ही नहीं। ये सर्वदा बदलते रहते हैं। जैसे-शीत काल में वायु शीतल अनुभव होती है, परन्तु वही वायु ग्रीष्म ऋतु में गर्म प्रतीत होती है। जैसे व्यवहार में अभी एक व्यक्ति हमारा मित्र है, किन्तु वही व्यक्ति कुछ काल बाद हमारा दुश्मन बन जाता है। जिस भोजन से हमें जीवन मिल रहा है, वही भोजन अब विषम हो गया है और नाना प्रकार के रोग उत्पन्न कर रहा है। इस पंचभौतिक शरीर को कितने प्रयत्नों से पाला-पोषा था, किन्तु अब तो इसने जीवन जीने से स्पष्ट मना कर दिया। जो सभी सांसारिक सुखों का अधिकरण था, वही अंग-प्रत्यंग से शिथिल हो चुका है। वह अब नवीनीकरण चाहता है। वह सभी सुखों के स्थान पर दुःख देना प्रारभ कर देता है, अतः ध्यान देने योग्य बात यह है कि सुख-दुःख तथा शान्ति-अशान्ति कोई वस्तुनिष्ठ नहीं है। इनमें तो एकान्तिक नियम स्थापित किया ही नहीं जा सकता है, जिसके लिए वेद में उपदेश दिया जा रहा है। वस्तुतः कोई संशय तथा रोग व्यर्थ नहीं है, किन्तु उनका जो उत्पन्न होना है, उसका समुचित उपाय करना आवश्यक है। इसके आगे एक और समस्या है, उसे मोह कहते हैं। मोह और प्रेम के अन्तर को जानना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि इनके मौलिक भेद को जाने बिना सन्देह दूर नहीं हो सकता है, प्रायः मोह के दीवाने लोग प्रेम को अन्यत्र स्थानों पर घसीटते हैं और मोह पिपासा को तृप्त करते हैं, किन्तु सच्चे प्रेम के अभाव में सच्ची शन्ति नहीं मिलती है। आधुनिक कवियों ने मोहमयी वासनाओं को प्रेम के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सच्चे प्रेम के साथ घोर अन्याय है। मोह तथा प्रेम में मौलिक अन्तर है, प्रेम निःस्वार्थ विवेकपूर्वक होता है, किन्तु मोह किसी विशेष स्वार्थयुक्त तथा विवेकशून्य होता है। ‘‘मुह-वैचित्ये’’ इस धातु से मोह शद सिद्ध होता है। इसका अर्थ है चित्त का विचलित होना या विभ्रम होना। इसी प्रकार ‘‘प्रीञ्-तर्पणे’’ धातु से प्रेम शद सिद्ध होता है, जिसका अर्थ होगा- तृप्ति, तो इन दोनों शदों के पृथक्-पृथक् अर्थ हैं। जिसमें क्षणिक सुख है अपितु दुःख अधिक है, उसे मोह कहते हैं। दूसरा है प्रेम, जो स्थायी सुख तथा समत्व का कारण है। क्योंकि मोह का उत्पत्ति स्थान स्नेह है। शास्त्र कहता है कि ‘‘नास्ति मोहसमासवः’’ -महाभारत, अर्थात् मोह के समान कोईाी मादक द्रव्य नहीं है। जैसे अहंकार का मनुष्य के ऊपर प्रकोप होता है, तब वह विवेक शून्य हो जाता है, उसी प्रकार जब मनुष्य के ऊपर मोह का आक्रमण होता है, तब भी वह मोहान्धकार में अन्धा हो जाता है। एक माँ अपने अबोध बच्चे के दोषों को छिपाती है, क्यों? जिससे उसका पिता उसे दण्ड न दे सके। यह उस माँ का मोह संयुक्त अज्ञान है। उसी मोह के साथ अन्य दोष भी जुड़ जाते हैं। धृतराष्ट्र का अपने पुत्रों के प्रति अत्यन्त मोह था। जिससे वह सत्यासत्य का निर्णय न कर सका और एकाीषण युद्ध का कारण बना। ‘‘मोहः पापीयान्’’ की उक्ति यहाँ सार्थक सिद्ध होती है। इस मोह की कई प्रकार की शाखाप्रशाखायें होती हैं। जैसे माता-पिता, पति-पत्नी भाई-बहन, पुत्र, पौत्र, धन, धान्य तथा भवन-भोजनादि। इसके अतिरिक्त शरीर तथा प्राणों का मोह अतीव प्रगाढ़ होता है। जिस शरीर में आत्मा ने लबे समय तक वास किया है, उसके प्रति अब अत्यधिक मोह जाग्रत हो जाता है, जबकि जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग भी अवश्यंभावी है, क्योंकि-

जरा मृत्यु हि भूतानां खादितारौ वृकाविव।

बलिनां दुर्बलानाञ्च हृस्वानां महतामपि।।

ये बुढ़ापा तथा मृत्युरूपी दो भेड़िये हैं, जो निरन्तर मानव शरीरों को खाये जा रहे हैं। बलवान, दुर्बल या छोटा-बड़ा कोई भी हो, सभी को ये खाने वाले हैं। मनुष्य की अति आसक्ति प्रायः पदलिप्सा होती है, जिसे शास्त्रों में लोकेषणा के रूप में उद्धृत किया है। मोह के लघु बन्धनों को छोड़ने के बाद यह लोक प्रतिष्ठा का मोह बाँध ही लेता है, जिससे बड़े-बड़े त्यागी तपस्वी लोग भी नहीं बच पाते हैं। विषय को विषाद करने के लिए एक कवि ने रूपक अलंकार के रूप में एक सुन्दर आयान दिया है। वह यहाँ प्रस्तुत है- आत्मा जब इस शरीर में आती है, तभी से पति-पत्नी सन्तान, चलाचल सपत्ति और पद के मोह में फँस जाता हैं उसकी स्थिति एक भँवरे के समान होती है, जो एक कमल की सुगन्ध के सुगन्घि पर मुग्ध हो जाता है और उसी फूल में अपना आवास बना लेता है। प्रतिदिन के गमनागमन की परेशानी को दूर करने के लिए उस फूल में बैठ जाता है, किन्तु रात्रि के समय पुष्प पराग के अन्दर बैठकर यहविचार करता है कि-

रात्रिगमिष्यति भविष्यति सुप्रभातम्।

भास्वानुदिष्यति हसिष्यति पंकज श्रीः।।

इत्थं विचिन्तयति शोकगते द्विरेफे।

हा हन्त, हन्त! नलिनीं गज उज्जहार।।

अर्थात् वह मनोरथ करता है कि रात्रि बीतेगी और सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य उदित होगा, कमल खिलेंगे लेकिन उस भँवरे के मनोरथ पर जो तुषारापात हुआ, वह अत्यन्त दुःख भरा था। रात्रि के समय वहाँ एक जंगली हाथी आया और उसने जल पीकर जो उत्पात किया वह शदों में कहना कठिन है। उस मदान्ध गज ने सरोवर स्थित उस कमल वन को कुचल डाला और उन्हीं जिस कमल पुष्प में भौंरा बैठा हुआ था, वह भी कुचला गया। अतः इस मानव की दशा वैसी ही होती है, जैसे कि उस मूर्ख भौंरे की हुई। इसीलिए मोह के स्वार्थ रूपी अन्धकार से निकलकर ‘प्रेम’ प्रकाश में आना चाहिये, जिससे संसार के बन्धन छूट सकें। इति।

-महर्षि कपिल आर्ष गुरुकुल (वैदिक आश्रम), कोलायत, बीकानेर, राज. चलभाष- 9413144029, 9166323384

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए

।। ओ३म ।।

अयं त इध्म आत्मा जातवेदः।

“हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।”

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए :

क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ।

सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं।

उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः।
ये अन्तः क्रिमयो गवि।।

(अथर्ववेद २।३२।१)

“उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।”

सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच ने सन १८९० में अनेको प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध किया की क्षयरोग (फेफड़ो के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित जीवित नहीं रह सकते। इसलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धुप सेकनी चाहिए।

संभवतः जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है की अँधेरे में क्षयरोग फूलता फलता है तथा प्रकाश में यह दम दबाकर भाग जाता है।

अतः यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।

आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है

http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…

अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।

अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”

(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है।

कृपया यज्ञ करे – राष्ट्र और पर्यावण को सुखी बनाये

आओ लौटो वेदो की और।

नमस्ते

नोट : इस पोस्ट की कुछ सामग्री “यज्ञ विमर्श” पुस्तक से उद्धृत है।

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

।। ओ३म ।।

अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा।
हव्यवावाड्जुह्वास्यः।।

(ऋग्वेद 1.12.6)

प्रथमाश्रम में अपने में ज्ञान को समिद्ध करते हुए हम द्वितीयाश्रम में उत्तम गृहपति बने। वानप्रस्थ बनकर यज्ञो का वहन करते हुए तुरियाश्रम में ज्ञान का प्रसार करने वाले बने।

नमस्ते मित्रो – आज का विषय

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

वेदो में प्रयुक्त कवि शब्द एक अलंकार है – किसी प्राणी का नाम नहीं, क्योंकि विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों के दृष्टा, को कवि कहते हैं – इस कारण ये अलंकार ऋषियों के लिए भी प्रयुक्त होता है और समस्त विद्या (वेदो का ज्ञान) देने वाला ईश्वर भी अलंकार रूप से कवि नाम पुकारा जा सकता है।

क्योंकि ये एक अलंकार है इससे किसी व्यक्ति प्राणी का नाम समझना एक भूल है – विसंगति है – मगर बहुत से रामपालिये चेले चपाटे अपनी मूर्खता में ये काम करने से भी बाज़ नहीं आते उन्हें कुछ शास्त्रोक्त प्रमाण दिए जाते हैं –

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)

“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।

इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

अतः इन प्रमाणों से सिद्ध हुआ की वेदो में प्रयुक्त “कवि” शब्द एक अलंकार है – जहाँ जहाँ भी जिस जिस वेद मन्त्र में कवि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ अलंकार से ही लेना उचित होगा, बाकी मूढ़ लोगो को बुद्धि तो खुद “कबीर” भी ना दे पाये देखिये कबीर ने अपने ग्रंथो में क्या लिखा है :

कबीर जी परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। कबीर जी के कुछ वचन देखे :

स्वयं संत कबीर दास जी ने भी ईश्वर को सर्वव्यापक माना है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 855)

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
सरब बिआपी = सर्वव्यापी
कबीर जी कह रहे हैं की हे मेरे परमात्मा तू सर्वव्यापी है।

तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी॥

तुम्हारे सामान कोई दयालु नहीं है, और मेरे सामान कोई पापी नहीं है।

कबीर जी ब्रह्म का अर्थ परमात्मा लेते है काल नहीं
कबीरा मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 1373)

ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

सभी की उत्पत्ति ब्रह्म अर्थात ईश्वर से होती है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 324)

अब जब कबीर जी भी ईश्वर अर्थात ब्रह्म से सभी की उत्पत्ति मानते हैं ऐसा लिखते भी हैं तब ये रामपाल और उसके चेले कबीर जैसे संत की वाणी को झूठा क्यों सिद्ध करते फिरते हैं की कबीर परमात्मा हैं ?

क्या ये धूर्तता और ढोंग पाखंड नहीं ?

क्या कबीर जैसे संत की वाणी को दूषित करना और संत कबीर को ईश्वर कहना क्या संत कबीर के शब्दों और दोहो का अपमान नहीं ?

आशा है सभ्य समाज इस लेख के माध्यम से रामपालिये और उसके चेलो के पाखंड का विरोध करेंगे और बुद्धिमान व्यक्ति इस पोस्ट के माध्यम से अपने विचार रखेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :

।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं :

यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा : अब हमारे जनाब अनवर जमाल साहब कुरान के इल्म से बाहर निकले तो कुछ ज्ञान विज्ञानं को समझे पर क्या करे अल्लाह मिया ने क़ुरान में ऐसा ज्ञान नाज़िल किया की जमाल साहब उसे पढ़कर ही खुद आलिम हो गए। देखिये जमाल साहब ऋषि ने क्या कहा और उसका अर्थ क्या निकलता है :

ऋषि ने लिखा :

`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)

अब इसका फलसफा और विज्ञानं देखो – ऋषि को वेदो से जो ज्ञान और विज्ञानं मिला वो इन जमाल साहब को नजर नहीं आएगा –

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है।

ऋषि का अर्थ है क्योंकि चन्द्रमा नक्षत्रो के पथ से जुड़ा है इसलिए अलंकार रूप में वहां लिखा है की नक्षत्रलोको के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया –

अब इसका वैज्ञानिक प्रभाव देखो :

तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर ‘नक्षत्र चक्र’ कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं।

इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

ये ज्ञान और विज्ञानं वेदो में ही दिखता है क़ुरान में नहीं जमाल साहब।

क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी ही बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है
(क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया।
(सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है।

(सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है।

(सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है

(सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।

रही बात सूर्यादि ग्रह पर प्रजा की बात तो आज विज्ञानं स्वयं सिद्ध करता है की सूर्य पर भी फायर बेस्ड लाइफ मौजूद है। ज्यादा जानकारी के लिए लिंक देखिये :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

अब किसको ज्ञान ज्यादा रहा जमाल साहब ?

आपके क़ुरान नाज़िल करने वाले अल्लाह मिया को ?

या वेद को पढ़कर पूर्ण ज्ञानी ऋषि की उपाधि प्राप्त करने वाले महर्षि दयानंद को।

लिखने को तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर आपकी इस शंका पर इतने से ही पाठकगण समझ जाएंगे इसलिए अपनी लेखनी को विराम देता हु – बाकी और भी जो आक्षेप आपकी पुस्तक में ऋषि और सत्यार्थ प्रकाश पर उठाये हैं यथासंभव जवाब देने की कोशिश रहेगी

खुद पढ़े आगे बढे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

धर्म अनिवार्य क्यों है? डॉ – धर्मवीर

हम समझते हैं- धर्म ऐच्छिक है, इसे हम मानें हमारी इच्छा, न मानें हमारी इच्छा। इसी प्रकार हम यह भी मानते हैं कि धर्म अनेक होते हैं, इसमें भी विकल्प हैं। कोई किसी बात को धर्म मानता है, कोई किसी बात को। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि धर्म दो नहीं होते, धर्म एक ही होता है। धर्म की कसौटी भी उन्होंने बता दी- जिसे दुनिया का कोई भी समझदार व्यक्ति मानने से इन्कार नहीं कर सके, उसे धर्म कहते हैं। धर्म के सबन्ध में यह जानना आवश्यक है कि कोई वस्तु या विचार आवश्यक है या नहीं, इस बात का निर्णय उसकी आवश्यकता और उपयोगिता से होता है। हमें धन की  आवश्यकता का पता है, हमारे जीवन में उसकी उपयोगिता का हमें अनुभव है, अतः उसे प्राप्त करना चाहते हैं। धन प्राप्त करने के उपाय भी खोजते हैं। इसके लिए हम व्यापार करते हैं, नौकरी करते हैं, मजदूरी करते हैं, खेती करते हैं। कुछ भी करके हम धन कमाते हैं, क्योंकि धन के बिना हमारा जीवन चलता नहीं है, इसलिए अर्थ की हमारे जीवन में उपयोगिता है। हमें लगता है कि अर्थ की भाँति हमारे जीवन में धर्म की कहीं उपयोगिता दृष्टिगत नहीं होती, अतः धर्म अनिवार्य नहीं, ऐच्छिक है। हमें व्यापार आदि के करने से अर्थ का लाभ होता है, परन्तु धर्म के करने से हमें कुछ प्राप्ति होती दिखाई नहीं देती, अतः हम स्वीकार कर लेते हैं कि धर्म गौण और ऐच्छिक है।

अर्थ की आवश्यकता स्पष्ट है, धर्म की आवश्यकता स्पष्ट नहीं है। मनुष्य के पास जब पर्याप्त साधन हो जाते हैं, तब वह समझता है- मुझे किसी की आवश्यकता नहीं है, उसी प्रकार सब अपने लिये अपने-अपने पुरुषार्थ से धन कमा लेंगे, फिर मेरे धन की भी किसी को आवश्यकता नहीं रहेगी। मैंने अपने प्रयत्न से अपनी सूझ-बूझ और बुद्धि से धन कमाया है, वह मेरा है, अतः मैं किसी को भी क्यों दूँ? यह विचार स्वाभाविक है, इस विचार को सुधारने के लिए हमें वह प्रसंग खोजना होगा, जहाँ हमारे साधन सपन्न होने पर भी ये साधन हमारी कुछ भी सहायता नहीं कर सकते। आज नेपाल में भूकप आया है, क्या वहाँ के साधन सपन्न लोगों को कोई कष्ट नहीं है? क्या उनकी सपत्ति, उनके काम आ रही है? हम देखते हैं कि सपन्न व्यक्ति का घर टूट गया है, उसके पास आज रहने के लिए स्थान नहीं है, पीने के लिए पानी नहीं है, पहनने के लिए कपड़ा नहीं है, चोट और रोग की पीड़ा दूर करने के लिए उनके पास औषध और चिकित्सक नहीं है। आज उसके पास कोई सान्त्वना देने वाला भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में क्या धन उसकी सहायता कर सकता है? प्रथम तो उसके साधन नष्ट हो गये होते हैं, यदि साधन कहीं रखे भी हैं तो व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने से वे साधन उसे एक घूँट पानी या एक ग्रास भोजन दिलाने में भी असमर्थ हैं। ऐसे समय में उसे कोई व्यक्ति पानी, भोजन, वस्त्र आदि साधन और सान्त्वना क्यों देगा? बस यहीं से दूसरी व्यवस्था का जन्म होता है, जिसे हम धर्म कहते हैं।

धर्म का फल मिलता है। लोग समझते हैं, धर्म का कोई फल नहीं मिलता, धर्म का फल मिलता है, क्योंकि ऐसा सभव नहीं है कि आपने कर्म किया हो, उसका फल  न मिले। जब बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है तो धर्म के रूप में अच्छे कर्म का अच्छा फल क्यों नहीं मिलेगा? फल तो निष्काम कर्म का भी मिलता है, क्योंकि वह कर्म फल की आकांक्षा से प्रेरित होकर चाहे नहीं किया गया, परन्तु कर्म तो है। कर्म है तो फल भी होगा। सकाम कर्म में फल की इच्छा से कर्म किया जाता है। निष्काम कर्म में कर्त्ता के मन में फल की इच्छा नहीं रहती, फल परमेश्वर की व्यवस्था पर छोड़ दिया जाता है। सांसारिक कर्म पाप और पुण्य नहीं होने पर भी आवश्यक होने से फल की इच्छा से किये जाते हैं। धर्म के कार्य में और व्यापार के कर्म में अन्तर इतना ही है कि व्यापार के फल के रूप में धन को ध्यान में रख कर व्यापार किया जाता है, धर्म पुण्य रूप फल  को ध्यान में रखकर किया जाता है। रेल के डिबे में दो लोग पानी पिला रहे हैं या भोजन दे रहे हैं। एक जो पैसे लेकर देता है, उससे कोई भी व्यक्ति ले सकता है, परन्तु उसकी जेब में पैसे होने चाहिएँ। आपको कितनी भी भूख या प्यास लगी हो, यदि पैसे पास में नहीं हैं तो आप को भोजन या पानी नहीं मिल सकता। पैसे हैं तो आप बिना आवश्यकता के भी सामान लेकर अपने पास रख सकते हैं। इसके विपरीत धर्म आपके पैसे नहीं देखता, धर्म आपकी आवश्यकता देखता है, आपकी पीड़ा या कष्ट दूर करता है। यही उसका मूल्य है। धर्म आपके कष्ट को दूर करने के लिए किया जाता है, इसी कारण ऐसे कार्य को सेवा कहा गया है। पुराने लोगों ने सेवा को धर्म कहा है। जब कोई दुकानदार या सेवक सेवा करता है तो वह भी सेवा है, परन्तु धर्म की भाँति निष्काम कर्म नहीं है। जब धर्म समझ कर किसी की सेवा करते हैं, तब उसका धर्म, जाति, रूप, रंग, सबन्ध आदि में किसी का बोध नहीं होता। हम केवल उसकी पीड़ा से पीड़ित होते हैं और पीड़ा को दूर करना चाहते हैं। यदि सेवा में हम पक्षपात करते हैं, तब वह कार्य धर्म नहीं होगा, व्यापार होगा, सौदा होगा। बदले में आप कुछ भी क्यों न चाहते हों, जब आप बदला चाहते हैं, तब व्यापार करते हैं और तब वह पाप तो नहीं, परन्तु पुण्य भी नहीं, वह अपनों के साथ किया गया, कर्त्तव्य है। अतः जब कुछ देकर कुछ लिया जाता है, वह व्यापार है। जो देकर ही सुख मानता है, वह किसे दे रहा है, इससे उसका कुछ भी सबन्ध नहीं रहता, तब वह कार्य धर्म कहलाता है।

लोग समझते हैं कि धर्म बड़ी कठिन और गहरी वस्तु है, उसको समझना सबके लिए सरल नहीं है। यह हो सकता है कि विवेचना के स्तर पर तर्क-वितर्क में उसको समझना कठिन हो, परन्तु व्यावहारिक धरातल पर धर्म को समझना और करना दोनों ही सरल हैं। आप भोजन करते हैं, तब आप नहीं कहते कि आप धर्म कर रहे हैं, परन्तु रोटी का छोटा-सा टुकड़ा थाली में से निकाल कर किसी निमित्त से रखते हैं, तब आप धार्मिक भावना से भरे होते हैं। हमारे घरों में मातायें रोटी बनाते हुए पहली रोटी गाय के लिए और अन्तिम रोटी कुत्ते के लिए बनाती थीं। यह रोटी अपने लिए नहीं होने से स्वार्थ नहीं, परोपकार है और परोपकार और धर्म दोनों पर्यायवाची शद हैं। जब हम स्वयं पानी पीते हैं, तब स्वार्थ होता है और जब सब के लिए पानी पीने की व्यवस्था करते हैं, तब उसे धर्मार्थ प्याऊ कहते हैं। हम अपने लिये भवन बनाते हैं, तब वह घर होता है, होटल होता है, जब उपकार की भावना से घर बनाते हैं, तब उसे धर्मशाला कहते हैं। इस प्रकार अपने बच्चों को पढ़ाना स्वार्थ है, परन्तु निर्धन, असमर्थ बच्चों की सहायता करना धर्म है। मनुष्य की जो-जो आवश्यकताएँ है, उनकी पूर्त्ति स्वार्थ है। यदि हम उन्हीं आवश्यकताओं की पूर्त्ति निस्वार्थ भाव से अन्यों की करते हैं, तब वह धर्म बन जाता है। धर्म मनुष्य को संवेदनशील बनाता है, उसका मुय कारण है- स्वार्थ में मनुष्य के मन में रजोगुण प्रबल होता है। जब मनुष्य धर्म का कार्य करने की इच्छा करता है, तब उसके अन्दर सतोगुण की प्रबलता होती है। स्वामी दयानन्द जी के जीवन में आता है कि जब एक किसान गाड़ी में जुते हुए बैलों को मार-मार कर कीचड़ से गाड़ी को निकाल रहा था, तब स्वामी जी ने स्वयं गाड़ी में जुतकर गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकाल दिया। सभी महापुरुषों के जीवन में इस प्रकार की दया और करुणा से भरे कार्यों की चर्चा आती है।

धर्म और अर्थ के उपार्जन में मुय अन्तर परिणाम के प्राप्त होने का है। यथार्थ में धर्म भी व्यापार ही है, अन्तर इतना ही है कि व्यापार में मनुष्य फल की प्राप्ति तत्काल चाहता है और जिसके प्रति कार्य किया गया है, उसी से फल की आशा करता है। जिसके लिये कार्य किया है, जिसको सौदा दिया है, उसी से मनुष्य परिणाम के रूप में धन प्राप्त करता है, परन्तु धर्म में कार्य तो हुआ है, परन्तु फल कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, किस के द्वारा मिलेगा- इसका धर्म करने वाले को पता नहीं होता। मनुष्य को विपत्ति में जब सहायता मिलती है तो वह फल ही है, परन्तु हमारे कौन से कार्य का, किसके प्रति किये गये कार्य का फल है- यह हम नहीं जान सकते। जैसे वर्तमान जीवन के लिए धन की तत्काल प्राप्ति हमारे आजीविका के लिये आवश्यक है, उसी प्रकार हमें विषम परिस्थितियों में, असमर्थता की दशा में धर्म की आवश्यकता होती है। व्यापार से, पुरुषार्थ से स्वयं धन कमाकर व्यक्ति स्वयं जीवित रहता है, परन्तु धर्म से अपने साथ-साथ दूसरों को भी जीवन देता है। मनुष्य को यदि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न होती तो सभव था- धर्म की भी आवश्यकता न होती, परन्तु मनुष्य के जीवन पर दृष्टिपात करने पर देखते हैं- पदे-पदे मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्य का बालक सहायता के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवन में सदा सहायता की आवश्यकता होती है। सामान्य रूप से अपने कहे जाने वाले लोग जन्म से मृत्यु तक उसकी सहायता करते हैं। यह सहायता कर्त्तव्यवश या मोहवश की जाती है, परन्तु हमारे लोग सदा हमारे साथ नहीं होते या सदा समर्थ नहीं होते, ऐसी परिस्थिति में हमें अन्य की सहायता अपेक्षित है और यह सहायता हमें बिना धार्मिक बने नहीं मिल सकती। धर्म के फल की प्राप्ति जब परमेश्वर हमें आवश्यक समझता है, तब कराता है। जब हमें कहीं से भी आशा की किरण नहीं दिखाई देती, तब हम परमेश्वर को याद करते हैं, उससे सहायता की आशा करते हैं। वह सहायता क्या हमारे बिना किये कर्म का फल है? यदि ऐसा होता तो यह सहायता सबको सदा समान रूप से मिल रही होती, परन्तु विपत्ति सब पर आने पर भी दुःख सबको समान रूप से नहीं होता। दुःख में सहायता भी सबको समान रूप से नहीं मिल पाती। किसी को तत्काल सहायता मिलती है तो किसी को देर से, किसी को पर्याप्त, तो किसी को स्वल्प, ऐसा क्यों होता है? हमारे कर्मों की भिन्नता के कारण फल की प्राप्ति भी भिन्न होती है। जैसे व्यापार को सत्य व्यवहार से करने पर मन में सन्तुष्टि और धन की प्राप्ति भी होती है, उसी प्रकार धर्म का आचरण करने पर वर्तमान में सन्तोष का सुख और कालान्तर में परमेश्वर का सहयोग मिलता है।

इस बात को एक और प्रकार से समझा जा सकता है। राममनोहर लोहिया ने एक बार धर्म और राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा था कि तात्कालिक धर्म को राजनीति कहते हैं और दीर्घकालिक राजनीति को धर्म कहा जाता है। उसी प्रकार तात्कालिक लाभ को व्यापार और दीर्घकालिक व्यापार को परोपकार या धर्म कहा जाता है। स्वार्थ और परार्थ दो कार्य हैं, दोनों की जीवन में आवश्यकता है, एक से किसी का भी कार्य नहीं चल सकता, परोपकार से स्वार्थ सिद्ध हो सकता है, परन्तु स्वार्थ में धर्म का अंश न हो तो परोपकार की सिद्धि नहीं हो सकती।

एक प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है- धर्म के प्रति रुचि कैसे जाग्रत हो? मनुष्य को धार्मिक होने के लिये संवेदनशील होना आवश्यक है। संवेदना शून्य व्यक्ति क्रूर बन जाता है, दूसरों को दुःख देने में प्रसन्नता अनुभव करता है। इसके विपरीत संवेदनशील व्यक्ति दूसरों के दुःखों से स्वयं दुःखी होता है और अपने दुःख को दूर करने के लिये वह दूसरों की सहायता करता है। इसी कारण धार्मिक परोपकार के कार्य करके मनुष्य को प्रसन्नता होती है और वह सन्तोष का अनुभव करता है। इसके लिए चाणक्य ने कहा है- हम जो कुछ करें, उसे बुद्धि के प्रकाश में करें, संसार के सारे कार्य हमें करने हैं, यदि धार्मिक बुद्धि से किये गये तो हमारी प्रवृत्ति उस ओर होती है। वह धार्मिक बुद्धि कैसे प्राप्त होती है? तब कहा गया है, वह धार्मिक बुद्धि शास्त्रों के अध्ययन से मिलती है। परमेश्वर की उपासना से मिलती है। हम ईश्वर उपासक या ईश्वर के भक्त को धार्मिक कहते हैं और मानते हैं कि जो धार्मिक होगा, वह ईश्वर का भक्त भी होगा। धार्मिक व्यक्ति को शास्त्र इसलिए पढ़ना चाहिए कि शास्त्रों की रचना धार्मिक और ईश्वर भक्त लोगों ने की है, उन्होंने इसमें धर्म पर चलने का मार्ग बतलाया है। धर्म पर चलने से क्या होता है? कोई व्यक्ति धार्मिक होता है तो कैसा होता है? धार्मिक होने से मनुष्य को क्या लाभ होता है? इसके लिए गीता में कहा गया है-  धर्म से वर्तमान में सुख होता है और बाद में कल्याण की प्राप्ति होती है। चाणक्य ने अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- जो मनुष्य धार्मिक होता है, उसकी बुद्धि निर्मल होती है, धार्मिक व्यक्ति की वाणी स्पष्ट होती है, उसके कार्य सरल होते हैं, उसके कार्य में किसी प्रकार की कुटिलता नहीं होती। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में जो सर्वाधिक उत्कृष्ट पक्ष है, वह कष्ट या दुःख आने पर विचलित नहीं होता और वैभव की प्राप्ति  होने पर अहंकार का ग्रास नहीं बनता। दोनों परिस्थितियाँ मनुष्य को असामान्य बनाती हैं। सांसारिक पदार्थों के लाभ और प्राप्ति में मनुष्य अपनी उपलधियों से गर्व का अनुभव करने लगता है, पदार्थों के अभाव में घोर निराशा और दुःख में डूब जाता है, आत्महत्या कर लेता है, इसलिये मनुष्य को वर्तमान लाभ के साथ परोक्ष के लाभ के लिए धार्मिक होने की आवश्यकता होती है। मनु महाराज नेाी संवेदनशील बनने के लिये कहा है-

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।

– धर्मवीर

आओ, सोम-सरोवर के भक्ति रस-जल में स्नान कर आनन्दित हों’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

 

सामवेद उपासना तथा ईश्वर की स्तुति-गान का वेद है। उपासना ईश्वर के पास बैठकर आनन्द में सराबोर होना है। इसे सोम सरोवर का स्नान भी कह सकते हैं। पं. चमूपति महर्षि दयानन्द के आदर्श अनुयायी थे। वह उर्दू, अरबी, फारसी व अंग्रेजी के विद्वान होने के साथ संस्कृत व हिन्दी के भी विद्वान थे। आपने अनेक भाषाओं में रचनायें की है। आपकी अनेक प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है सोम सरोवर इस पुस्तक में आपने सामवेद के पवमान सूक्त के मन्त्रों की भक्ति रस में डूब कर व्याख्या की है जो हृदय को झंकृत कर उसमें आस्तिक भाव को उत्पन्न करती है और जीवात्मा-पुरूष आनन्द रस में भरकर हरा-भरा हो जाता है। आर्यसमाज के एक दूरदर्शी नेता पत्रकार शिरोमणि महाशय कृष्ण की सोम सरोवर के सम्बन्ध में यह सम्मति थी कि यह विश्व के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में से एक है। जिन साहित्यिक ग्रन्थों पर साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया जा चुका है, सोम सरोवर ऐसे कई ग्रन्थों से कहीं ऊंचा श्रेष्ठ है। सोम-सरोवर पुस्तक का महत्व बताते हुए प्रसिद्ध लेखक एवं विद्वान राजेन्द्र जिज्ञासु ने लिखा है कि हिन्दी के साहित्यकार, प्राध्यापक प्रेमी यह जान लें कि हिन्दी साहित्य में इस कोटि की दूसरी पुस्तक अब तक तो लिखी नहीं गई। यदि कोई है तो वह पं. चमूपति कृत जीवनज्योति है। आईये इस पुस्तक सोम-सरोवर से दो मन्त्रों का पाठ व उसकी व्याख्या पढ़कर सरोवर में स्नान का आनन्द लेते हैं।

 

मन्त्र हैः यस्ते मदो वरेण्यस्तेनापवस्वान्धसा। देवावीरघशंसहा।। लेखक ने इस मन्त्र का शीर्षक पापनाशक नशा दिया है। मन्त्र का ऋषि है अमहीयुः अर्थात् एक ऐसा मनीषी जो पृथिवी की नहीं, आकाश से भी ऊपर द्युलोक की उड़ान लेने वाला। पहले इस मन्त्र के पदों वा शब्दों के अर्थ जान लेते हैं। (ते) तेरा (यः) जो (वरेण्यः) ग्रहण करने लायक (मदः) नशा है (तेन) उस (अन्धसा) प्राणप्रद संजीवनरस से (आपवस्व) चारों ओर पवित्रता का प्रवाह चला। तू (देवावीः) दिव्य भावनाओं तथा दिव्य प्रजाओं का रक्षक तथा (अघशंसहा) पाप की प्रशंसा का घातक है।

 

अन्य सब नशे छोड़ देने चाहिए। वे मैले हैं, अपवित्र हैं। उन में पाप का पुट है। वे हिंसा से पैदा होते हैं। उन के खमीर में पाप है। वे पाप ही की उपज हैं और पाप ही की प्रेरणा करते हैं। परन्तु मोहन ! तेरे प्रेम का नशा प्राणप्रद है। इस से स्वास्थ्य बढ़ता है। इस के पान से शरीर नया जीवन-लाभ करता है। और मन की तो काया-पलट सी हो जाती है। यह नशा अत्यन्त पवित्र, अत्यन्त सुखदायक है।

 

देवताओं के लिए यह नशा अमृत है। दैवी प्रवृत्तियां सो रही हों तो इस नशे का ध्यान आते ही जाग जाती हैं, झूमने लगती हैं। भली भावना किसी संकट के कारण मृतप्राय हो तो केवल जी ही नहीं, लहलहा उठती हैं। साईं के स्नेह का नशा सत्य की, सरलता की, सन्तोष की, सदाचार की रक्षा करता है। लाख आपत्तियां आती हों, साईं का स्नेही धर्म के रास्ते से नहीं हटता। धर्म के लिए संकट सहने में उसे आनन्द आता है। पाप की मोहिनी साईं के स्नेह के सम्मुख एक क्षण के लिए भी नहीं ठहर सकती।

 

हमारा मन भटक जाता है। उस की रूचि पाप की ओर हो जाती है। कोई अन्दर-अन्दर से मानो दबी सी आवाज में पाप की प्रशंसा करने लगता है। दिल कहता है-पाप है तो क्या, इस से लाभ ही होगा, झूठ बोल दो, इस से एक अपना ही नहीं, सम्पूर्ण जाति का लाभ है। परोपकारार्थ छल करने से क्या दोष है? इस प्रकार के कितने छल हैं जो मेरा छली मन रोज करता रहता है।

 

प्रभो ! आप की आंख बचा कर तो यह छल चल भी जाये, परन्तु आप के सामने आते ही यह मोह–अज्ञान का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो जाता है। आप की एक कृपा-कोर लाख पापों का बंटाढार कर देती है।

 

तो फिर वह आप की कृपाकोर कहां है? मेरे लिए वही सोम है। मैं उसी का प्यासा हूं। एक प्याली! एक घूंट!! एक बूंद!!!

 

हम आशा करते हैं कि उक्त मन्त्र की व्याख्या से पाठक आनन्दित एवं भाव-विभोर हुए होंगे। एक अन्य मन्त्र की व्याख्या और प्रस्तुत कर रहे हैं। इस मन्त्र का शीर्षक है इन्द्र की अर्चना मन्त्र प्रस्तुत हैः इन्द्रायेन्दो मरुत्वते पवस्व मधुमत्तमः। अर्कस्य योनिमासदम्।। मन्त्रार्थः (इन्दो) जगत् को सरसाने वाले स्नेहरस के सुधाकर मुझ (मरुत्वते) प्राणों वाले (इन्द्राय) मुझ इन्द्रियों वाले देहधारी के लिए (मधुमत्तमः) अत्यन्त मधुर होकर (पवस्व) पवित्रता का प्रवाह चला। मैं (अर्कस्य) अर्चना के (योनिम्) मन्दिर में (आसदम्) प्रवेश कर रहा हूं।

 

मेरे प्राण प्रबल हैं। शरीर स्वस्थ हैं। अंग-अंग में स्फूर्ति है। निठल्ला बैठने को जी नहीं चाहता। दसों इन्द्रियां शक्तिशाली हैं। यह सब कुछ होते हुए भी जीवन नीरस है। स्वास्थ्य के साथ भी दिन बीत जाता है। रोग की अवस्था में भी ज्यों त्यों रात कट जाती है। किसी ने कराह-कराह कर समय गुजार दिया, किसी ने हंस खेल कर दिन बिता दिये। स्मृति दोनों की नीरस है।

 

मुझे शक्ति का अभिमान तो होता है, रस नहीं मिलता। गर्व से गर्दन उठा देता हूं और वह ऐंठ जाती है। पर ऐंठ में रस कहां? रस तो लचक में है। हां लचक ही में जीवन है।

 

प्रभो ! कोई लचकीला आनन्द !  कोई स्थायी स्थिर रस ! सुनता हूं, स्थिर रस तुम्हारी कृपा-कोरों में है। तुम्हारी कृपा-कोरों की चांदनी चांद के, तारों के प्रकाश के साथ-साथ जगत् को व्याप्त कर रही है। आकाश-गंगा प्रेम की गंगा बहाये जा रही है। मेरे हृदय-चकोर के चांद ! तुम्हारी स्निग्ध किरणों ने ही तो अपने स्नेह-रस में सम्पूर्ण प्रकृति को गूंध-गूंध कर रसमय बना दिया है। तुम्हारा हृदय यदि आर्द्र न होता तो अणु-अणु पृथक भले ही रह जाता, पर इस में तरी न आती। पिण्ड न बनते। ब्राह्माण्डों की सृष्टि-संसृष्टि-न हो पाती।

 

हे सृष्ट जगत् के संजीवन-रस। एक कृपा-कोर मेरी ओर भी।

 

मैं अपने ताप का कारण समझ गया हूं। वह है तुम्हारी करुणा से विमुखता। मेरे पास स्वास्थ्य है, स्फूर्ति है, पर इन दोनों का सारतुम्हारा स्नेह मेरी आंखों से दूर है।

 

हे प्राणों के प्राण ! मेरे प्राणों को अपनी स्नेहसुधा से अनुप्राणित कर दो। मेरे जीवन को अपनी संजीवनी से उज्जीवित कर दो। मेरी इन्द्रियां तुम्हारी अर्चना के फूल बन जायें। मेरे प्राण तुम्हारी पूजा के नैवेद्य हों। आज मेरा नया जन्म हो। अर्चना के जीवन का जन्म। पूजा के नवजीवन का उदय।

 

मैं झुक जाऊं, लचक जाऊं, तुम्हारे चरणों में तन, मन, धनसब अर्पण कर दूं। सफलता अर्पण में है। अर्चन में है। अर्पण अर्चन एक हैं।

 

हम आशा करते हैं कि पं. चमूपति जी की उपर्युक्त अर्चनाओं को पढ़कर पाठकों ने भक्ति के सोम-सरोवर में स्नान कर आनन्द का अनुभव अवश्य किया होगा। इस अर्पण व अर्चन को संजो कर रखिये, बहुत काम आएगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

क्या धर्म से सुखी हो सकते हैं?????                                              शिवदेव आर्य, गुरुकुल पौन्धा, देहरादून मो.-8810005096

 

इस भूमण्डल पर प्रत्येक प्राणी सुख की कामना करता है। हर कोई साधु-संन्यासी, बड़े-बड़े महन्त पूर्ण दावे के साथ सुख प्राप्त करा देने की बात करते हैं। ये बात कितनी ठीक है? ये तो नहीं जानता परन्तु निश्चित रूप से कह सकता हूॅं कि यदि कोई व्यक्ति चाहे और प्रयास करने लग जाये, तो सुख का सोपान अलभ्य तो बिल्कुल नहीं है। प्रयत्न काल से ही सुख की वृष्टि प्रारम्भ हो जाती है।

सुख कैसे प्राप्त हो ? इस प्रश्न का समाधान वैदिक वाङ्मय से सहजतया प्राप्त होता है कि सुखस्य मूलं धर्मः अर्थात् सुख का मूल धर्म है। जी हाॅं,  ये तो बहुत आश्चर्य का विषय है कि धर्म सुख का मूल कैसे हो सकता है? ये धर्म ही तो आज दुःख के कारण बने हुए हैं। जहाॅं देखो वहीं धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं। यहाॅं कोई हिन्दु धर्म को मानने वाला है तो कोई मुस्लिम, कोई सिख तो कोई ईसाइ आदि। ये जो परस्पर द्रोह करते रहते हैं। दुःख पहूॅंचाने का सदैव प्रयत्न करते रहते हैं। अगर मैं इन धर्मों को मानूॅंगा तो मैं भी इन के ही समान हो जाऊॅंगा तो ये धर्म सुख का साधन कैसे हो सकता है?

यह सर्वमान्य सत्य है कि आज के समाज में धर्म के नाम पर पाखण्ड़ पनप रहा है। धर्माधिकारी धर्म का यथार्थ स्वरूप न बताकर मतान्ध बना रहे हैं। एक दूसरे से लड़ना सिखा रहे है।ं चाहे कोई हिन्दू हो या मुसलमान, सिक्ख हो या ईसाई, पारसी हो या बहाई, जैनी हो या बौध्द, कोई भी क्यों न हो, प्रत्येक एक-दूसरे को मारने-काटने को सदैव उद्यत रहते हैं।

हम अपनी सारी शक्ति लड़ने-झगड़ने में समाप्त कर देते हैं। हम अपने बारे में ही सोचते हैं। हम अपने से आगे किसी को देखना पसन्द नहीं करते।  अगर कोई  परिश्रम करके आगे निकल भी जाता है तो उसको पीछे करने के लिए परिश्रम नहीं करते। बल्कि दूसरे मनुष्य  के पैर पकड़ कर नीचे खींच देते हैं।

धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, तोड़ता नहीं। जो एक-दूसरे के बीच में दरारें पैदा करता है, एक-दूसरे को तोडता है, झगड़े कराता है, वह धर्म कदापि नहीं हो सकता। धर्म तो एकता का पाठ पढ़ाता है, वैर-विरोध का नहीं। धर्म तो आपस में भाई-चारे का पाठ सिखाता है, पे्रम का पाठ पढ़ाता है, सुख और शान्ति की सुगन्ध फैलाता है।

धर्म शब्द ‘धृ धारणपोषणयोः ’ इस धातु से औणादिक मन् प्रत्यय करने से सिध्द होता है। सुख प्राप्ति के लिए जिसको धारण किया जाये या जिसका सेवन किया जाये, उसे धर्म कहते हैं। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसको धारण किया जाये? वह क्या हैं? इसका उत्तर देते हुए मनुमहाराज  कहते हैं कि धर्म के दश लक्षण हैं, जो इस प्रकार हैं-

धृतिक्षमादमोऽस्तेयं  शौचमिन्द्रिय निग्रहः।

धीर्विद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।

धृति:   धृति अर्थात् धैर्य को धारण करना। बड़ी से बड़ी आपत्ति आने पर, अपने आप में धैर्य को बनाये रखना चाहिए।

क्षमा: क्षमा करने के सामथ्र्य को धारण करना। जैसे कोई जीव निर्बल है, उससे कोई गलती होने पर उसे माफ (क्षमा) कर देना ही क्षमा है।

दम:    दमन करना अर्थात् रोकना। इन्द्रियाॅं अपने विषयों में बार-बार चली जाती है। आॅंख अच्छा रूप देखना चाहती है परन्तु विषय वस्तुओं में लिप्त हो जाती हैं। इनको रोकना ही दम है।

अस्तेय: चोरी न करना ही अस्तेय है। कोई भी तुच्छ से तुच्छ वस्तु को बिना स्वामी की आज्ञा से हाथ न लगाना अस्तेय कहाता है।

शौच: शुचिता अर्थात् पवित्रता एवं स्वच्छतापूर्वक रहने को शौच कहते है। शुचि रहने से मनुष्य परम शान्ति का अनुभव करता है।

इन्द्रियनिग्रह: इन्द्रियनिग्रह का तात्पर्य यह है कि अपनी इन्द्रियों को अपने  नियन्त्रण में रखना। हम कोई भी आकर्षक चीज देखते हैं तो उसे प्राप्त करने के लिए हम अपनी इन्द्रियों के अधीन हो जाते हैं। इसी आकर्षण से बचने का नाम ही इन्द्रियनिग्रह है।

धी:    अच्छी मति (बुध्दि) को धी कहते हैं। हमारे शरीर का मुख्य भाग बुध्दि है। वह बुध्दि अच्छी हो, पापाचार से अयुक्त हो तो सम्पूर्ण कार्य अच्छे होते हैं। इसलिए गायत्री मन्त्र में परमपिता परमेश्वर से ‘‘धियो योः न प्रचोदयात्’’ की प्रार्थना  करते है।

विद्या: विद्या अर्थात्  सत्य ज्ञान को पाकर, मानव अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त होता है।  विद्या के वास्तविक स्वरूप को दर्शाते हुए कहा गया है कि ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ विद्या वही जो अमृतत्व को प्राप्त कराये।

सत्य: वास्तविकता को सत्य कहते हैं। अर्थात् जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही मानना, कहना, जानना  और उसके अनुरूप कार्य करना ही सत्य है।  किसी ने कह दिया और उसे हम सत्य मान ले, तो यह न्यायोचित नहीं है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी लिखते है कि जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों से युक्त और पाॅंच प्रकार की परीक्षाओं की कसौटी पर तुला हुआ हो, वही सत्य है।

अक्रोध: ‘‘क्रोधो अमर्षा’’ अर्थात् सहन न करने को  क्रोध  कहते है। किसी ने कुछ अपशब्द कह दिये तो उसे सहन न करना ही क्रोध है। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जब हम क्रोध में वशी भूत होकर धर्माधर्म में अन्तर नहीं समझते तब अधर्मयुक्त कुकृत्यों को कर बैठतें है।

ऋषिवर देव दयानन्द जी महाराज धर्म के स्वरूप को दर्शाते हुए आर्योदेश्य रत्नमाला में  लिखते हैं कि-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन पक्षपात रहित न्याय व सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए एक और मानने योग्य है, उसे धर्म कहते हैं।

न लिंगधर्मकारणम्-संसार में विभिन्न मतवालों ने अपने-अपने धर्म के नाम पर विभिन्न चिह्न बना रखे हैं। जैसे कोई केश बढ़ा रहा है, कोई लम्बी दाढ़ी बढ़ाये हुए  है, कोई्र केश व दाढ़ी दोनों बढ़ाये हुए है, कोई पांच शिखाएं रखे हुए है, कोई मूंछ कटाकर दाढ़ी बढ़ा रहा है और कोई चन्दन का तिलक लगा रहा है, कोई माथे को अनेक रेखाओं से अंकित किये हुए है और हाथों पर भी चिह्न बनाये हुए है, किन्तु ये सभी धर्म से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखते हैं। अत एव बाह्यचिह्नों को धर्म नहीं माना गया हैं।

धर्म को धारण करने से ही लौकिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। हमें जानना चाहिए कि सुख-दुःख क्या हैं?   सुख और दुःख संस्कृत भाषा के शब्द हैं- सु=शोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः’ अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा लगे उसे सुख कहते हैं। और दूर्=दुष्ठु=अशोभनं खेभ्यः=इन्द्रियेभ्यः अर्थात् जो इन्द्रियों को अच्छा न लगे उसे दुःख कहते हैं।

आत्मा भोक्ता है, उसके भोग का आधार शरीर है, भोग के साधन नेत्रादि इन्द्रियाँ है। इन्द्रियों के अर्थ ही भोक्तव्य हैं, बुध्दि ही भोग है, और फल तथा दुःख का स्वरूप समझाते हुए लिखा हैं-ससाधनं सुखदुःखोपभोगः फलम्। जन्म……सुखसाधनस्य दुःखानुषंगगात् विविधबधनायोगाद् दुःखम्।।

अर्थात् सुख-दुःख के साधनों का बुध्दिविषयत्वापन्न भोग ही फल है। सुख के साधनों का दुःख से सम्पर्क होना ही दुःख हैं। इसी बात को इस प्रकार कह सकते हैं कि-

अनुकूलवेदनीयं सुखं प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्।।

अर्थात् आत्मा के अनुकूलता का ही नाम सुख है और प्रतिकूलता दुःख है। महर्षि मनु ने सुख दुःख की व्याख्या इस प्रकार की है-

सर्वं परवश्ंा दुःखम्, सर्वमात्मवशं सुखम्।।

एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।

सुख दुःख का संक्षेप में यही लक्षण जानना चाहिये अर्थात् दूसरों के अधीन होना ही दुःख है और अपने अधीन रहना ही सुख है।

सुख दुःख का प्रत्यक्ष ज्ञान हमें कैसे होता है। इसकी प्रक्रिया समझाते हुए, न्यायदर्शन में वात्स्यायन भाष्य में लिखा है कि ‘‘आत्मादिषु सुखादिषु च प्रत्यक्षलक्षणं वक्तव्यम्।’’ आत्मादि तथा सुखादि का प्रत्यक्ष कैसे होता है उसका प्रकार समझाते है- जीवात्मा प्रथम मन से सम्पर्क करता है, मन इन्द्रियों से तथा इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सम्बध्द होकर प्रत्यक्ष कराती है।

वैशेषिक दर्शनकार कणाद कहते हैं – ‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयस् बुध्दि: स धर्मः’’ इसलिए धर्म करने से ही मनुष्य का जीवन सार्थक है परन्तु आज सम्पूर्ण विश्व में लोगों को यह नहीं पता कि धर्म क्या होता है? मुस्लिम, इसाई, बौध्द, जैन आदि मत-मतान्तरों को कुछ लोग धर्म मान लेते है और उस पर चलना प्रारम्भ कर देते है वे नहीं जानते कि धर्म क्या है अथवा किसे कहते है? मुस्लिम विचार करता है कि मुस्लिमत्व ही मेरा धर्म है, ईसाई विचार करता है कि कृश्चीयन मेरा धर्म है, हिन्दु विचार करता है कि हिन्दुत्व ही मेरा धर्म है परन्तु ये यह नहीं जानते कि जिसका ये धर्म मानकर अनुष्ठान कर रहे है, वे धर्म नहीं मत-सम्प्रदाय है। वास्तव में जब धर्म का स्वरूप ही भ्रान्त हो जाएगा तो, धर्म का अनुष्ठान सर्वथा व्यर्थ है।

व्यक्ति के अवनति  व विनाश के साधनों को जुटाने में जो ऊर्जा शक्ति का अपव्यय होता है, उससे आत्मिक बल और जीवनीय शक्ति का भी क्षय होता हैं। भय और हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगती हे और निश्चित रूप से विवेक में न्यूनता आती है। उस व्यक्ति में स्वार्थ, लिप्सा और मिथ्याहंकार ज्ञान-चक्षुओं के पट खुलने नहीं देते। इसके दुष्परिणाम तत्काल या कालान्तर में उस व्यक्ति, समाज व राष्ट्र को भुगतने पड़ते हैं। इसलिए जीवन में उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को विवेक का विकास निरन्तर करते रहना चाहिए। यही यथार्थ में जीवन का पथ हैंै।

आचार्य चाणक्य ने लिखा है‘‘सुखस्य मूलं धर्मः धर्मस्य मूलमिन्द्रियजयः।’’ अर्थात् सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल है-इन्द्रियों को संयम में रखना। संसार में  प्रत्येक मनुष्य की इच्छा होती है कि मैं सुखी रहूँ और सुख की प्राप्ति धर्म के बिना नहीं हो सकती। अतः धर्म का आचरण अवश्य ही करना चाहिये। बिना धर्म को अपनाये कोई भी मनुष्य सुखी नहीं हो सकता है। इसीलिए वर्तमान में तथाकथित जो धर्म है, उसे स्वीकार न कर सर्वहितार्थ जो धर्म का स्वरूप यहाॅं बताया है, उसे ही धारण करना चाहिए। इसी से दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकेगी। धर्म को धारण करने से सुख ही नहीं प्राप्त होगा अपितु भावी जन्म में भी सहायक होगा।

संसार की कोई भी वस्तु सुख का हेतु हो सकती है परन्तु मरणोत्तर किसी के साथ नहीं जा सकती। शास्त्रकार कहते हैं-

धर्म एकोऽनुगच्छति’ अर्थात् एक धर्म ही मरणोत्तर मनुष्य के साथ जाता है। नीतिकार भी कहते है-

धनानि भूमौ, पशवश्च गोष्ठे, नारी गृहे बान्धवाः श्मशाने।

देहश्चितायां परलोकमार्गे, धर्मानुगो गच्छति जीवः एकः।।

अर्थात् भौतिक समस्त धन भूमि में ही गड़ा रह जाता है अथवा आजकल बैंकों में या तिजोरियों में ही   धरा रह जाता है और गाय आदि पशु गोशाला में ही    बन्धे रह जाते हैं । पत्नी घर के द्वार तक ही साथ जाती है और परिवार के भाई-बन्धु व मित्रजन श्मशान तक ही साथ देते है एक मनुष्य का शुभाशुभ कर्म ;धर्मद्ध ही परलोक में मनुष्य का साथ देता है अर्थात्  धर्म के अनुसार ही मनुष्य को परलोक में अच्छी-बुरी योनियों में जाना पड़ता है।

यतो धर्मस्ततो जयः गीता के इस श्लोक से इस बात की पुष्टि होती है कि धर्म सदैव विजयी होता है। चाहे  अधर्मी कितना ही बलवान् हो उसकी हार अवश्य होती है लोक में भी यह देखा जाता है कि अधर्मी की हार का कारण अधर्म ही बन जाता है। मनुस्मृति में भी सत्य ही कहा गया है-

अधर्मेणैधते तावत् ततो भद्राणि पश्यति।

ततो सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति।।

अर्थात् अधर्माचरण करने से व्यक्ति धन-सम्पदा बढ़ने से बढ़ता हुआ दिखाई देता है, तत्पश्चात् भद्र भी देखता है अर्थात् भौतिक साधनों की समृध्दि होने से बड़े-बड़े महल, कोठियाँ बना लेता हे, अपने विरोधियों पर येन-केन विजय प्राप्त कर लेता है। किन्तु अन्त में उसका सर्वनाश हो जाता है। इसलिए हमें इस शाश्वत सत्य पर अवश्य दृढ़ विश्वास करना चाहिये-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।

तस्माद् धर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।

जो धर्म को नष्ट करता है, धर्म उसका नाश कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता हैं धर्म उसकी रक्षा करता है। इसलिए अधर्म से प्राप्त लक्ष्मी कभी भी घर में न आने देवंे। अन्यथा ऐसा धन तीसरी पीढ़ी में अवश्य दुष्परिणाम दिखा देता है। लोक में ऐसे उदाहरण अधिकांशतया प्राप्त हो जाते हैं।

निष्कर्ष रूप में  धर्म का ज्ञान तथा उसका आचरण मनुष्य के लिए परमावश्यक है। यही हम सब का आधार है। हम सब के परमलक्ष्य का परम सहायक भी यही धर्म है। आओ! हम सब मिलकर धर्म के यथार्थ स्वरूप को जाने तथा धारण कर सुख-सम्पन्नता के मार्ग को प्राप्त हो, मोक्षपथानुगामी हों।

सोम का वास्तविक अर्थ और सोमरस का पाखंड

अ हं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।

अ हं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे ।।

– ऋ० मं० १०। सू० ४९। मं० १।।

हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता उस से सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता; मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।

नमस्ते मित्रो,

जैसा की आप सभी जानते हों हमारे देश में अनेको विद्वान और गुरुजन होते चले आये हैं और होते भी रहेंगे क्योंकि ये देश ही विद्वान उत्पन्न करने वाला है, इसीलिए इस देश आर्यावर्त को विश्वगुरु कहा जाता है, मगर ये भी एक कटु सत्य है की इसी देश में अनेको ऐसे भी तथाकथित और स्वघोषित विद्वान होते आये हैं जिनका उद्देश्य ही धर्म अर्थात वेद और वेदज्ञान का उपहास करना रहा है, ऐसे ही एक तथाकथित विद्वान हुए थे जिनका नाम था नारायण भवानराव पावगी इन्होने कुछ पुस्तके लिखी थी जिनमे कुछ हैं

1. आर्यावर्तच आर्यांची जन्मभूमि व उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२०)

2. ॠग्वेदातील सप्तसिंधुंचा प्रांत अथवा आर्यावर्तातील आर्यांची जन्मभूमि आणि उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२१)

3. सोमरस-सुरा नव्हे (इ.स. १९२२)

इन पुस्तको में लेखक ने वेदो, वैदिक ज्ञान और ऋषियों पर अनेक लांछन लगाये जिनमे प्रमुखता से ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी की वैदिक काल में ऋषि और सामान्य मानव भी होम के दौरान सोमरस का पान देवताओ को करवाते थे और अपनी इच्छित मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु यज्ञ में पशु वध, नरमेध भी करते थे। अब इन आधारहीन तथ्यों के आधार पर अनेको विधर्मी और महामानव आदि अपनी वेबसाइट और लेखो के माध्यम से हिन्दुओ के मन में वेदज्ञान के प्रति जहर भरने का कार्य करते हैं, उनमे मुख्यत जो आरोप लगाया जाता है वो है :

वेदो और वैदिक ज्ञान के अनुसार ऋषि आदि अपनी मनोकामनाए पूरी करने हेतु अनेको देवताओ को सोमरस (शराब) की भेंट करते थे।

सोमरस बनाने की विधि वेद में वर्णित है ऐसा भी इनका खोखला दावा है।

आइये एक एक आक्षेप को देखकर उसका समुचित जवाब देने की कोशिश करते हैं।

आक्षेप 1. वेदों में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। जिसे यदि उबाल कर इसका पानी पीया जाय तो इससे थोड़ा नशा भी होता है। कहते हैं यह पौरुष वर्धक औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है।
सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं ।
मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

समाधान : सोमलता की उत्पत्ति जो बिना पत्ती का पौधा है ऐसा इनका विचार है जो अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पैदा होता है ऐसा इनका दावा है उसके लिए ये ऋग्वेद 10.34.1 का मन्त्र “सोमस्येव मौजवतस्य भक्षः” उद्धृत करते हैं। मौजवत पर्वत को आजके हिन्दुकुश अर्थात अफगानिस्तान से निरर्थक ही जोड़ने का प्रयास करते हैं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।

निरुक्त में “मूजवान पर्वतः” पाठ है मगर वेद का मौजवत और निरुक्त का मूजवान एक ही है, इसमें संदेह होता है, क्योंकि सुश्रुत में “मुञ्जवान” सोम का पर्याय लिखा है अतः मौजवत, मूजवान और मुञ्जवान पृथक पृथक हैं ज्ञात होता है। वेद में एक पदार्थ का वर्णन जो सोम नाम से आता है वह पृथ्वी के वृक्षों की जान है। पृथ्वी की वनस्पति का पोषक है, वनस्पति में सौम्यभाव लाने वाला औषिधिराज है और वनस्पतिमात्र का स्वामी है। वह जिस स्थान में रहता है उसको मौजवत कहते हैं। मेरी पिछली पोस्ट में गौओ के निवास को व्रज कहते हैं ये सिद्ध किया था उसी प्रकार सोम के स्थान को मौजवत कहा गया है। यह स्थान पृथ्वी पर नहीं किन्तु आकाश में है। क्योंकि वनस्पति की जीवनशक्ति चन्द्रमा के आधीन है इसलिए उसका नाम सोम है वह औषधि राज है। अलंकारूप से वह लतारूप है क्योंकि जो भी व्यक्ति शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष को समझते हैं जानते हैं उन्हें पता है की चन्द्रमा पंद्रह दिन तक बढ़ता और पंद्रह दिन तक घटता है, इसे न समझकर व्यर्थ की कोरी कल्पना कर ली गयी की शुक्लपक्ष में इस सोमलता के पत्ते होते हैं और कृष्णपक्ष में गिर जाते हैं।

सोम वसुवर्ग के देवताओ में हैं ये भी मिथ्या कल्पना इनके घर की है क्योंकि जो वसु का अर्थ भली प्रकार जानते तो ऐसे दोष और मिथ्या बाते प्रचारित ही न करते, आठ वसु में सोम भी शामिल है उसके लिए उपर्लिखित पुराण का श्लोक उद्धृत करते हैं

मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है।

अब यदि इनसे पूछा जाए की – आठ वसुओं में सोम हैं मत्स्य पुराण के अनुसार जिसका अर्थ है मादक दृव्य यानी शराब – तो भगवत पुराण में आठ वसुओं में सोम क्यों नहीं लिखा ?

देखिये ऋषि दयानंद अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वसु का अर्थ किस प्रकार करते हैं :

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। (स. प्र. सप्तम समुल्लास)

ऋषि ने बहुत ही सरल शब्दों में वसु का अर्थ कर दिया। अब अन्य आर्ष ग्रन्थ से आठ वसुओं का प्रमाण देते हैं :

शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’
याज्ञ.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।

(बृहदारण्यकोपनिषद, अध्याय तीन)

इन प्रमाणों से सिद्ध है की आठ वसुओं में सोम नामक कोई नाम नहीं। हाँ यदि सोम का अर्थ चन्द्र से करते हो जैसा की इस लेख से सिद्ध भी होता है तो आपकी सोमलता और सोमरस का सिद्धांत ही खंडित हो जाता है।

आक्षेप 2. सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) स्वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया । ऋग्वेद ऋग्वेद 1.93.6 में कथन है : ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ इसी प्रकार ऋग्वेद 9.61.10 में कहा गया है: हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है । सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गान्धार-कम्बोज प्रदेश) है’। ऋग्वेद 10.34.1

समाधान : यहाँ भी “आँख के अंधे और गाँठ के पुरे” वाली कहावत चरितार्थ होती है देखिये :

अप्सु में सोमो अब्रवीदंतविर्श्वानी भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।। (ऋग्वेद 1.23.20)

यहाँ सोम समस्त औषधियों के अंदर व्याप्त बतलाया गया है। इस सोम को ऐतरेयब्राह्मण 7.2.10 में स्पष्ट कह दिया है की “एतद्वै देव सोमं यच्चन्द्रमाः” अर्थात यही देवताओ का सोम है जो चन्द्रमा है। इस सोम को गरुड़ और श्येन स्वर्ग से लाते हैं। गरुड़ और श्येन भी सूर्य की किरणे ही हैं। सोम का सौम्य गुण औषधियों पर पड़ता है, यदि स्वर्ग से गरुड़ और श्येन द्वारा उसका लाना है।

ऐसे वैदिक रीति से किये अर्थो को ना जानकार व्यर्थ ही वेद और सत्य ज्ञान पर आक्षेप लगाना जो सम्पूर्ण विज्ञानं सम्मत है निरर्थक कार्य है, क्योंकि आज विज्ञानं भी प्रमाणित करता है की चन्द्रमा की रौशनी अपनी खुद की नहीं सूर्य की रौशनी ही है यही बात इस मन्त्र में यथार्थ रूप से प्रकट होती है और दूसरा सबसे बड़ा विज्ञानं ये है की चन्द्रमा जो रात को प्रकाश देता है उससे औषधियों का बल बढ़ता है।

आशा है इस लेख के माध्यम से सोमरस, सोमलता आदि जो मिथ्या बाते फैलाई जा रही हैं उनपर ज्ञानीजन विचार करेंगे। ईश्वर कृपा से इसी विषय पर जो और आक्षेप लगाये हैं उनका भी समाधान प्रस्तुत होता रहेगा

लौटो वेदो की और

नमस्ते

यज्ञ में पशु-वध वैदिक काल में नहीं था

महाभारत काल में भी इसकी पुष्टि मिलती है – क्योंकि महाभारत में वृतांत आता है –

“यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”

ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है – केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।

तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।

तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।

अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।

सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मः सत्यवादिनाम्।।

इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर ने भीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणी दंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वी ब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है।

इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद 11.7.7 में लिखा है –

राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।
अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।

राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकि प्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसका
एकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है”

जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’ हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः।

अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी, उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसका जीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?

उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित है की न तो इतिहास में यज्ञो में पशु बलि का समर्थन मिलता है – ना ही वेद में – ब्रह्माण्ड ग्रंथो में भी ऐसा कुछ पाया नहीं जाता –
लेकिन फिर भी कुछ मूढ़ याज्ञिक (पौराणिक) लोग “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का ढोल पीटते हुए यज्ञ में पशुवध को अहिंसा बताते हुए स्वर्ग का मार्ग तक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं –

ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है, अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकि देखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –

या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।।
योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।
स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।
(५.४४-४५)

अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता।

दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –

गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।।
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।

अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।

उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है।
वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की – गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है –

मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है – न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत काल में – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –

अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये –

सभी महानुभावो से विनम्र निवेदन है कृपया सत्य को समझे – और माने –

वेदो की और लौटिए –

सत्य और न्याय की और लौटिए।

नमस्ते

नोट : ये मनुस्मृति का श्लोक – श्री राम ने – बाली के वध के समय – बाली को सुनाया भी था – ताकि बाली को पता हो की उसने जो वेदविरुद्ध कृत्य किया था – उसका दंड उसे वेद सम्मत और न्यायकारी प्रक्रिया के अधीन ही दिया जा रहा है।

ईश्वर निराकार है – एक तर्कपूर्ण समाधान

शंका निवारण :

पूर्वपक्षी : क्या ईश्वर के हाथ पाँव आदि अवयव हैं ?

उत्तरपक्षी : ये शंका आपको क्यों हुई ?

पूर्वपक्षी : क्योंकि बिना हाथ पाँव आदि अवयव ईश्वर ने ये सृष्टि कैसे रची होगी ? कैसे पालन और प्रलय करेगा ?

उत्तरपक्षी : अच्छा चलिए में आपसे एक सवाल पूछता हु – क्या आप आत्मा रूह जीव को मानते हैं ?

पूर्वपक्षी : जी हाँ – में आत्मा को मानता हु – सभी मनुष्य पशु आदि के शरीर में है – पर ये मेरे सवाल का जवाब तो नहीं – मेरे पूछे सवाल से इस जवाब का क्या ताल्लुक ? कृपया सीधा जवाब दीजिये।

उत्तरपक्षी : भाई साहब कुछ जवाब खोजने पड़ते हैं – खैर चलिए ये बताये शरीर में हाथ पाँव आदि अवयव होते हैं क्योंकि जीव को इनसे ही सभी काम करने होते हैं – पर जो आत्मा होती है उसके अपने हाथ पाँव भी होते हैं क्या ?

पूर्वपक्षी : नहीं होते।

उत्तरपक्षी : क्यों नहीं होते ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(सर खुजाते हुए – कोई जवाब नहीं – चुप)

उत्तरपक्षी : जब एक आत्मा जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के अधीन है – बिना हाथ पाँव अवयव आदि के – मेरे इस शरीर में विद्यमान रहकर – शरीर को चला सकती है – तो ईश्वर जो सर्वशक्तिमान है – वो ये सृष्टि का निर्धारण उत्पत्ति प्रलय सञ्चालन वो भी बिना हाथ पाँव आदि अवयव क्यों नहीं कर सकता ? इसमें आपको कैसे शंका ? कमाल के ज्ञानी हो आप ?

पूर्वपक्षी : #$*&)_*&(*#$*$()
(चुपचाप गुमसुम चले गए)