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स्तुता मया वरदा वेदमाता: डॉ. धर्मवीर जी

उदसौ सूर्यों अगादुदयं मामको भगः।

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।।

– ऋक्. 10/159/1

वैदिक धर्म और संस्कृतिश्रेष्ठतम विचार है। वैदिक धर्म और संस्कृति के सबन्ध में विचार करते हुए, यदि हम एक बात का स्मरण रखें तो हमारे चिन्तन में दोष आने की सभावना समाप्त हो जाती है। वैदिक धर्म का मूलवेद है। वेद में सिद्धान्त प्रतिपादित है और जानने-मानने वाले को, उस विचार को व्यवहार में लाना होता है, उसपर आचरण करना होता है। हम कितना भी अच्छा क्यों न सोचते हों, हमारी अल्पशक्ति, अल्पबुद्धि कुछ-न-कुछ अनुचित कर बैठती है। यदि मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान और सामर्थ्य होता तो संसार में न तो ईश्वर की आवश्यकता होती और न ही संसार की। मनुष्य की अल्पज्ञता ही संसार और ईश्वर की आवश्यकता की प्रतिपादक है। अल्प और सर्व एक सापेक्ष शद हैं, एक शद के अभाव में दूसरे शद की कोई उपयोगिता नहीं बचती। मनुष्य अल्पज्ञ है, अतः सिद्ध है कि कोई सर्वज्ञ है। इसी प्रकार यदि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सर्वत्र है, तो वह एक ही होगा। इसमें विकल्प की कल्पना ही अनेकत्व का कारण बनेगी। ज्ञान का प्रवाह अधिक से कम की ओर होगा, अतः सर्वज्ञ परमेश्वर से अल्पज्ञ मनुष्य की ओर ज्ञान की गति स्वाभाविक है।

इस प्रकार ईश्वर एक है, सबको ज्ञान, सामर्थ्य, ऐश्वर्य का देने वाला है, तो उसके ज्ञान के देने में अन्याय या पक्षपात की बात कैसे सभव है। संसार में मनुष्यों को, प्राणियों को देखकर हमें ऐसा लगता है, जैसे परमेश्वर सबको अलग-अलग देकर अन्याय कर रहा है, परन्तु हम भूल जाते हैं कि देने वाला एक है, उसका देने का प्रकार भी एक ही होगा, अन्तर तो भिन्नता की ओर से होता है, प्राप्त करने वाले मनुष्य पृथक् हैं, अतः देने वाले के दृष्टि में सब एक हैं, परन्तु लेने वाले भिन्न और अनेक हैं, अतः ग्रहण करने के सामर्थ्य में भिन्नता दिखती है।

इतना मान लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा सबके साथ समान व्यवहार ही हो रहा है, फिर चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या कुछ और भी हो, जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वत्र है, उसका अनुाव जड़ को तो नहीं होता, चेतन को होता है, उसी प्रकार एक चेतन उसकी सत्ता को अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार ही देख पाता है, अनुभव कर सकता है, दूसरा ज्ञान के अभाव से ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता। यह अन्तर संसार में देखने में आता है, संसार का सारा व्यापार  व्यक्तिपरक है, परमेश्वर सबको यथावत जानता है, अतः सबको उचित ज्ञान और सामर्थ्य देता है। आज इस मनुष्य संसार में स्त्री-पुरुष को लेकर जो जैसा व्यवहार दिखाई दे रहा है, वह सारा मनुष्य बुद्धि का परिणाम है। परमेश्वर सभी मनुष्यों का कल्याण चाहता है। और उनका उपकार करता है। जिस प्रकार एक माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री का समान हित चाहते हैं। उसी प्रकार स्त्री पुरुष भी परमेश्वर की पुत्र-पुत्रियाँ हैं वह उनमें भेद और पक्षपात कैसे कर सकता है?

इस सूक्त के मन्त्रों से इस बात को भली प्रकार समझा जा सकता है। यह सूक्त शची पौलीमी कहलाता है, इसका देवता भी यही है, इसका ऋषि भी यही है। यदि कहने वाला किसी बात को कहता है तो कहने वाले को हम ऋषि कहते हैं और कही जाने वाली बात को देवता । ऋषि कभी स्वयं ईश्वर है कभी उसके ज्ञान का कोई प्रवक्ता। ये शद ईश्वर और उसके ज्ञान से सबन्ध रखते हैं अतः यदि मनुष्य के साथ इनको जोड़कर देोंगे तो अर्थ की संगति नहीं लग पायेगी अतः शद को उसके अर्थ की ओर इंगित करने देते हैं तो हमें अर्थ सरलता से समझ में आ जाता है तथा उसक ी संगति भी ठीक लग जाती है। इस सूक्त में एक स्त्री का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए इस बात को समझाया गया है। इस विवरण को व्यक्ति विशेष का वक्तव्य न मानकर स्त्री सामन्य का वक्तव्य मानना उचित होगा। इस विचार से मन्त्र में बताया गया विचार समाज की सभी स्त्रियों का होगा।

वेद उत्साह और आशा की प्रेरणा देता है। वेद में निराशा, पराजय, उदासी की बात नहीं है, यही बात इस सूक्त के मन्त्रों में भी दिखाई देती है। मन्त्र में कहा गया उदसौ सूर्यो अगात् मनुष्य का उत्साह सूर्य के उदय के साथ आगे बढ़ता है, प्रकृति का वातावरण मनुष्य के लिये उत्साह और आनन्द प्राप्त कराता है। प्रत्येक मनुष्य संसार में अपनी भूमिका में स्वयं सुख का अनुभव करता है। और अपने साथ वालों को भी आनन्दित करता है।

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 2- मैं महर्षि दयानन्द जी का एक बहुत छोटा सिपाही हूँ, दैनिक यज्ञ एवं दोनों समय सन्ध्या करता हूँ, किन्तु सन्ध्या करते वक्त जब मैं मनसा परिक्रमा मन्त्र का अर्थ भाव के साथ उच्चारण करता हूँ तो निनलिखित शंका घेर लेती है-

(क) मनसा परिक्रमा मन्त्रों में हम दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि जड़ पदार्थों को नमन करते हैं। कृपया, भाव स्पष्ट करें।

(ख) हर जीव अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर आयु, देश, स्थिति आदि प्राप्त करता है, लेकिन बहुत से लोग बेईमानी, छल-कपट के द्वारा भाग्य से अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, जो कि उसके प्रारध से ज्यादा होता है। कृपया, थोड़ा प्रकाश डाल कर अज्ञान दूर करें।

– सुरेन्द्र कुमार, डल्यू-2-349-बी, नांगल राया, नई दिल्ली-110046

समाधान– 2 (क) महर्षि ने सन्ध्या करने का विधान मनुष्यों के लिए किया है। सन्ध्या में जिन मन्त्रों का विनियोग जिस क्रम से किया है, वह अपने आप में सन्ध्योपासना करने की वैज्ञानिक शैली है। सन्ध्या के प्रारभ से अन्त तक जिस क्रम को महर्षि ने रखा है, उस क्रम से साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाता चला जाता है।

आर्य जगत् मूर्धन्य दार्शनिक योग्य विद्वान् पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने इस विषय पर चिन्तन कर सन्ध्या विषय को लेकर ‘सन्ध्या क्या, क्यों, कैसे’ पुस्तक लिखी है। उसके आधार पर यहाँ हम कुछ लिखते हैं।

सन्ध्या को चार भागों में विभक्त करके देखें- 1. आचमन मन्त्र से लेकर प्राणायाम मन्त्र पर्यन्त, 2. अघमर्षण मन्त्र, 3. मनसा परिक्रमा मन्त्र और 4. उपस्थान मन्त्र। प्रथम भाग में अपने शरीर=पिण्ड में ईश्वर के गुणों का विचार करना। इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन एवं प्राणायाम मन्त्र में इसी पर बल दिया गया है, अर्थात् शरीर, प्राण व इन्द्रियों की बलवत्ता पर बल दिया गया है। दूसरापिण्ड से आगे ब्रह्माण्ड को देखते हुए, ईश्वर का विचार करना, जो अघमर्षण मन्त्रों में हैं। पिण्ड केवल मेरा अपना है, किन्तु ब्रह्माण्ड मेरा अपना भी है और सभी प्राणियों का भी। ब्रह्माण्ड सबके साझे का पिण्ड है। तीसरा स्थूल से सूक्ष्मता की ओर लेकर जाने का है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड ये स्थूल हैं, इन स्थूल से सूक्ष्म मन है, उस मन को सर्वत्र दौड़ाकर सर्वत्र परमेश्वर का चिन्तन करना, अर्थात् सब दिशाओं-उपदिशाओं में परमेश्वर का भान करना। चौथा मन से भी परे आत्मा को परमात्मा के निकट ले जाना, जो कि हम उपस्थान मन्त्रों के द्वारा परमेश्वर के निकट होते हैं। यह स्थिति सन्ध्या में सर्वोत्कृष्ट है। हमें इस स्थिति तक पहुँचना है, अर्थात् परमेश्वर के निकट अपनी आत्मा को ले जाना है।

अब आपकी जिज्ञासा पर विचार करते हैं। मनसा परिक्रमा मन्त्रों में जो कहा गया है कि सब दिशाओं में परमात्मा अपनी विभिन्न शक्ति स्वरूप से स्वामी है। सबके लिए नमस्कार व अपने अन्दर व अन्य के अन्दर स्थित द्वेष को दूर करने की प्रार्थना। आपका कथन है कि ‘‘इन दिशाओं, अग्नि, सूर्य, लता आदि को नमन करने का क्या भाव है?’’ इन मन्त्रों में जड़ और चेतन दोनों का ही कथन है और दोनों के लिए नमस्कार करने को कहा है। इन छः मन्त्रों में अग्नि, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु और बृहस्पति, ये नाम सब दिशाओं में स्थित परमात्मा के हैं और इसी प्रकार असितः स्वजः और श्वित्र, ये नाम भी परमेश्वर के हैं। इन सभी स्वरूप वाले परमेश्वर को नमस्कार करना, अर्थात् उस परमेश्वर का समान करना, उससे यथायोग्य व्यवहार करना, अर्थात् उसकी आज्ञा का पालन करना। मन्त्रों में एक चेतन परमात्मा का वर्णन है, दूसरे चेतन पितर लोग, कीट-पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष-लता-बेल आदि हैं, इनको भी नमस्कार किया गया है। नमस्कार का अर्थ है- झुकना, नमन करना, यथायोग्य व्यवहार करना। इस यथायोग्य व्यवहार को लेकर जब नमस्कार को देखेंगे तो पितर, जो चेतन हैं, उनके लिए क्या व्यवहार होगा, वह हमारे सामने आ जायेगा। कीट, पतंग, विषधर प्राणी, लता, बेल, वृक्ष आदि ये हमारे लिए कितने उपयोगी हैं, इस प्रकृति के लिए कितने उपयोगी हैं, ऐसा विचार करना और इनके उपयोग को देखकर वैसा ही इसका उपयोग करना, व्यवहार में लाना, इनके लिए नमस्कार होगा और जो जड़ पदार्थ- आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा है, इनको भी नमस्कार अर्थात् इनका यथायोग्य उपयोग लेना, इनसे उपकार लेना, यह इनके लिए नमस्कार होगा।

कीट, पतंग, विषधर प्राणी, वृक्ष, लता, वेल, आदित्य, अन्न, अशनि, वर्षा, इषु आदि को नमस्कार करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि इनकी जैसे पौराणिक वर्ग पूजा करता है, वैसे नमस्कारादि करना। यह व्यवहार चेतन मनुष्यों व परमेश्वर के लिए हो सकता है, अन्य के लिए नहीं।

(ख) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह पाप-पुण्य रूप कर्म दोनों ही कर सकता है। इन्हीं पाप-पुण्य रूप कर्म के आधार पर परमेश्वर जीवों को फल देता है। वर्तमान जीवन में पिछले कर्मों के आधार पर व इस जीवन में किये पुरुषार्थ से जीव भोग भोगता है। पिछले कर्म श्रेष्ठ  थे, उसके आधार पर बहुत अच्छा शरीर, परिवार, समाज आदि मिला। ये मिलने के बाद भी जीवात्मा इस जीवन में विपरीत कर्म करता हुआ दुःखी हो सकता है। भले ही पिछले कर्म अच्छे थे, किन्तु इस जीवन में उसने जघन्य पाप किये, तो वह इस जीवन व अगले जीवन में दुःख भोगेगा।

एक बात और यहाँ कह दें कि जो कुछ हम जीवन में सुख-दुःख भोगते हैं, वह सब हमारे कर्मों का फल नहीं होता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख-दुःख फल हमारे कर्मों का होता है, किन्तु सभी सुख-दुःख हमारे कर्मों का नहीं होता। किसी अन्य व्यक्ति के कारण या प्राकृतिक आपदा के कारण भी सुख-दुःख हो सकता है।

अब आपकी बात- जिस व्यक्ति का कर्माशय सामान्य था और इस आधार पर उसको फल भी सामान्य मिलना था, किन्तु वह व्यक्ति छल, कपट, अधर्म कर-करके बहुत धनादि अर्जित कर लेता है। उस अधर्म अर्जित धन वाले व्यक्ति को दूसरे लोग देखकर यह सोचने लग जाते हैं कि धर्म करने वाला दुःखी और यह अधर्म करने वाला सुखी है। ऐसा सोचना नासमझी है, क्योंकि धर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और अधर्म का फल सदा विपरीत ही होता है।

जिस व्यक्ति ने अधर्म से साधन अर्जित किये हैं, निश्चित रूप से उसको आगे जो फल मिलने वाला है, वह घोर दुःख ही होगा। महर्षि दयानन्द ने इस विषय में मनु का श्लोक देते हुए लिखा है-

अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।

‘‘जब अधर्मात्मा मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़ (जैसे तालाब के बाँध तोड़, जल चारों ओर फैल जाता है वैसे) मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड, अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासधातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ से काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।’’ सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 5, इसलिए अधर्मी को बढ़ते देख यह कभी न सोचें कि इसका जीवन अच्छा है, अपितु यह विचारें कि यह नादान परमेश्वर के न्याय को नहीं देख रहा, यह परमेश्वर के न्याय से कभी नहीं बच सकता। जो इसने छल-कपट से अर्जन किया है, उससे वह विशेष सुख तो नहीं ले पायेगा, अपितु परमात्मा के न्याय से उसने जो छल-कपट के कर्म किये हैं, उनका विशेष दुःख अवश्य भोगेगा। अस्तु।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

जिज्ञासा समाधान: आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा 1- योग के आठ अंगों में जिनका ‘साधन पाद’ में उल्लेख है, छठा अंग ‘धारणा’ है। उसमें मन को शरीर के किसी एक अंग- जैसे नासिका, मस्तक आदि पर स्थिर करने की बात कही है। इसी स्थान पर आगे ध्यान, समाधि लगती है, परन्तु ‘समाधि पाद’ में सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति, जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है। मेरी शंका यही है कि धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?

आशा है, मैं अपनी जिज्ञासा को ठीक प्रकार प्रकट कर पाया हूँ। आपसे निवेदन है कि इसका समाधान देने की कृपा करें।

– ज्ञानप्रकाश कुकरेजा, 786/8, अर्बन स्टेट, करनाल, हरियाणा-132001

समाधानयोग के आठ अंगों में धारणा छठा अंग है। धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।’’ इस सूत्र की व्याया करते हुए महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के उपासना प्रकरण में लिखा- ‘‘जब उपासना योग के पूर्वोक्त पाँचों अंग सिद्ध हो जाते हैं, तब उसका छठा अंग धारणा भी यथावत् प्राप्त होती है। धारणा उसको कहते हैं कि मन को चञ्चलता से छुड़ाके नाभि, हृदय, मस्तक, नासिका और जीभ के अग्रभाग आदि देशों में स्थिर करके ओंकार का जप और उसका अर्थ जो परमेश्वर है, उसका विचार करना।’’ धारणा के लिए मुय बात अपने मन को एक स्थान पर टिका लेना, स्थिर कर लेना है। टिके हुए स्थान पर ही ध्यान करना और वहीं पर समाधि का लगना होता है। इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा- ‘‘त्रयमेकत्र संयमः’’ अर्थात् धारणा, ध्यान, समाधि तीनों का एक विषय हो जाना संयम कहलाता है। इस सूत्र पर महर्षि दयानन्द ने लिखा- ‘‘जिस देश में धारणा की जाये, उसी में ध्यान और उसी में समाधि, अर्थात् ध्यान करने योग्य परमेश्वर में मग्न हो जाने को संयम कहते हैं, जो एक ही काल में तीनों का मेल होना, अर्थात् धारणा से संयुक्त ध्यान और ध्यान से संयुक्त समाधि होती है। उसमें बहुत सूक्ष्म काल का भेद रहता है, परन्तु जब समाधि होती है, तब आनन्द के बीच में तीनों का फल एक ही हो जाता है।’’ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका

धारणा+ध्यान+समाधि= संयम।

अब आपकी बात पर आते हैं, आपने जो कहा कि ‘‘……सप्रज्ञात समाधि के अन्तर्गत जब वितर्क रूपी स्थिति जिसमें पृथिवी आदि स्थूल भूतों का साक्षात्कार होता है, उसमें मन को नासिका, जिह्वा आदि अलग-अलग स्थानों पर लगाने का उल्लेख है।’’ आपकी यह बात ‘‘वितर्कविचारानन्दास्मिता…..।’’ योगदर्शन 1.17 इस सूत्र में नहीं कही गई, हाँ ‘‘विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी।’’ योगदर्शन 1.35 इसमें कही है। इसमें वितर्क समाधि की बात नहीं, यहाँ तो मन की स्थिरता का कारण बताया है। यहाँ कहा है- नासिकाग्र आदि स्थानों पर चित्त को स्थिर करने से उत्पन्न दिव्यगन्धादि विषयों वाली प्रवृत्ति मन की स्थिति का कारण होती है।

इस सूत्र से पहले प्राणायाम का वर्णन किया हुआ है। ऋषि ने प्राणायाम को चित्त की स्थिरता का प्रमुख उपाय कहा है, अर्थात् प्राणायाम मन स्थिर करने का प्रमुख उपाय है। अब इसके आगे मन को स्थिर करने के अन्य गौण उपाय कहे हैं, उनमें यह उपाय भी है। जब योगायासी जिह्वाग्र, नासिकाग्र आदि स्थानों पर मन को स्थिर करता है, तब दिव्यरसादि की अनुभूति होती है। यह अनुभूति रूप व्यापार सामान्य न होकर उत्कृष्ट होता है। यह प्रवृत्ति मन को एकाग्र करने में सहायक होती है और साधक का अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने में विश्वास पैदा होता है और श्रद्धा पैदा होती है। तात्पर्य यह हुआ कि स्थान विशेष पर धारणा कर मन को स्थिर (एकाग्र) करना है।

वितर्क आदि समाधि सालब हैं। वहाँ स्थूल का आलबन करते हैं, अर्थात् नासिकाग्रादि का आलबन करना वितर्क कहलाता है। वितर्क समाधि एक-एक स्थान का आलबन करने से होती है। आपने जो पूछा- ‘धारणा के समय जब एक स्थान चुन लिया है तो फिर वितर्क समाधि में अलग-अलग स्थान क्यों?’ आप इस वितर्क समाधि के स्वरूप को समझेंगे तो आपको यह शंका नहीं होगी। वितर्क समाधि सालब समाधि है और वे आलबन स्थूल हैं, अलग-अलग हैं। अलग-अलग होने पर अलग-अलग स्थान धारणा के लिए चुने हैं।

धारणा के लिए भी ऋषि ने केवल एक ही स्थान निश्चित नहीं किया, वहाँ भी अनेक स्थान कहें हैं। अनेक में से कोई एक तो है, पर केवल एक नहीं है। जब दिव्य गन्ध की अनुभूति करनी है तो धारणा स्थल एक नासिकाग्र ही होता है, वहाँ स्थान बदले नहीं जाते। ऐसे ही अन्य विषयों में भी है। इसलिए जो अलग-अलग स्थान आप देख रहे हैं, वे अनेक विषयों को लेकर देख रहे हैं, जब एक ही विषय को लेकर देखेंगे तो अलग-अलग धारणा स्थल न देखकर एक ही स्थान देख पायेंगे।

‘ईश्वर के प्रति मनुष्य का मुख्य कर्तव्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 देहरादून।

 

हमें हमारे माता-पिता इस संसार में लाये। जब हम जन्में तब हमें अपना, परिवार, समाज व संसार का किंचित ज्ञान नहीं था। माता की निकटता और प्रेरणाओं से हम शनैः शनैः ज्ञान से युक्त होने लगे। माता-पिता के हमारे प्रति किए गये प्रयासों से हमें उनको व परिवार के सदस्यों को कुछ-कुछ जानने का ज्ञान व अभ्यास हुआ। आयु वृद्धि के साथ हमारा ज्ञान बढ़ता गया और हम भोजन, वस्त्र, निवास, पारिवारिक व सामाजिक लोगों के ज्ञान तक सीमित हो गये। हमने घर में किए जाने वाले पूजा आदि धार्मिक क्रियाओं को भी देख कर उनको करना आरम्भ कर दिया। हमने अपनी आंखों से पृथिवी, सूर्य, चन्द्र एवं पृथिवीस्थ अग्नि, जल, वायु, आकाश, नदी, पहाड़, वन, खेत आदि को देखा परन्तु इन सबसे हमें ईश्वर के वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं हुआ। सभी प्राणियों की उत्पत्ति सहित संसार की रचना की ओर हमारा ध्यान ही नहीं गया। ईश्वर की कृपा से हमें एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज का परिचय मिला, उन्होंने समाज के नियम, मान्यताओं और सिद्धान्तों के बारे में बताया और हम खाली समय में उनके साथ समाज मन्दिर जाने लगे। पता ही नहीं कब हमें ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक अनेक सत्ताओं का तर्क युक्ति से पूर्ण सन्तोषप्रद निर्भरान्त ज्ञान हो गया। यह ज्ञान हमें विद्वानों के उपदेश व सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन से प्राप्त हुआ। आज भी हम सत्यार्थप्रकाश पढ़ते हैं तो हमें हर बार कुछ नया ज्ञान प्राप्त होता है व अनुभव से हमें महर्षि दयानन्द के ज्ञान की उत्कृष्टता, पराकाष्ठा व उनकी सदाशयता का पता चलता है।

 

संसार में सभी लोगों को यह तो ज्ञान है कि हमें अच्छा भोजन करना है, स्वस्थ रहना है, धनसम्पत्ति एकत्र कर सुख भोगने हैं परन्तु ईश्वर, जीवात्मा सृष्टि विषयक यथार्थ ज्ञान इनके प्रति हमारे कर्तव्यों का ज्ञान अधिकांश को नहीं है। ईश्वर आदि के प्रति यथार्थ ज्ञान न होने के कारण प्रायः सभी मतों की रूढि़वादी सोच है। वह जितना जानते हैं व जो कुछ उनके मत की पुस्तक में लिखा है, उससे अधिक न सोचते हैं न जानना चाहते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि उनका ज्ञान अति अल्प है जिसमें मिथ्याज्ञान भी सम्मिलित है। महर्षि दयानन्द (1825-1883) इतिहास में एक अनूठे मनुष्य हुए जिन्होंने हर प्रश्न का उत्तर खोजा और अत्यन्त तप व पुरुषार्थ से प्राप्त उस दुर्लभ ज्ञान को संसार के सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेशों, लेखों वा पुस्तकों द्वारा प्रस्तुत किया। आज संसार के विरोधी मत वाले भी उनके द्वारा प्रचारित व प्रसारित मान्यताओं व सिद्धान्तों को न मानने पर भी उनमें कोई न्यूनता व त्रुटि दिखाने की स्थिति में नहीं है। वैदिक व आर्य सिद्धान्तों को न मानना उनका मिथ्याचार है। एक प्रकार से सभी मतों ने महर्षि दयानन्द अर्थात् वेदों की सभी मान्यताओं को स्वीकार कर लिया है परन्तु अज्ञान, स्वार्थ, हठ आदि के कारण वह अपने रूढि़गत विचारों से ही जुड़े हुए हैं।

 

ईश्वर है या नहीं, यदि है तो कहां है, कैसा है, आंखों से दिखता क्यों नहीं, उसको जानने व मानने से हमें क्या लाभ होगा या हो सकता है, आदि अनेक प्रश्न हैं जो पूछे जा सकते हैं। ईश्वर है या नहीं का उत्तर है कि ईश्वर अवश्य है। यह जड़-चेतन संसार व इसके नियम ईश्वर के होने का प्रमाण हैं। यदि ईश्वर न होता तो यह संसार भी न होता और हमारी आत्मा का अस्तित्व होने पर भी हमारा मनुष्यादि योनि में जन्म न हुआ होता। जीवात्माओं को प्राणी योनियों में जन्म देना ईश्वर का ही काम है, और इससे ईश्वर सिद्ध होता है। इसे कारण-कार्य सिद्धान्त कह सकते हैं। संसार का कारण ईश्वर व प्रकृति है। ईश्वर निमित्त कारण है और प्रकृति उपादान कारण है। ईश्वर के होने में अन्य अनेक प्रमाण भी है जिसे सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय कर जाना जा सकता है। ईश्वर कहां है? इसका उत्तर है कि सर्वत्र, सब जगह है अर्थात् वह आकाशवत् सर्वव्यापक है। यदि ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वत्र न होता तो भी संसार की रचना, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणियोनियों में जन्म व उनका पालन सम्भव नहीं था। अतः ईश्वर का निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होना तर्क व युक्ति संगत है। ईश्वर कैसा है, प्रश्न भी उत्तर का समाधान चाहता है। इसका उत्तर है कि ईश्वर आकार रहित है, उसका मनुष्य की तरह न शरीर है, न आकृति है, न रंग व रूप है। वह स्वयंभू है और उसकी सत्ता स्वयंसिद्ध है तथा वह सच्चिदानन्द (सत्य+चित्त+आनन्द) स्वरूप है। अत्यन्त सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मतम् होने के कारण वह आंखों से भी दिखाई नहीं देता। इसको इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि आंखे जितने सूक्ष्म आकार को देख सकती हैं, ईश्वर उससे भी कहीं अधिक सूक्ष्म है, इसलिये वह दिखाई नहीं देता। हमारी आत्मा ईश्वर की तुलना में कम सूक्ष्म है अर्थात् ईश्वर जीवात्मा से भी अधिक सूक्ष्म है। जब हम अपनी व दूसरे प्राणियों की जीवात्माओं को ही नहीं देख सकते, तो ईश्वर का सर्वातिसूक्ष्म होने के कारण हमारी भौतिक आंखों से दिखाई देना सम्भव नहीं है। हां, उसे बुद्धि व ज्ञान से देखा, समझा व अनुभव किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश पढ़ने से भी सभी प्रश्नों व शंकाओं का समाधान हो जाता है। ईश्वर को जानने से हमें उसके स्वरुप, गुण, कर्म व स्वभाव का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वैज्ञानिकों ने पृथिवीस्थ पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर आज कम्प्यूटर, मोबाइल, जहाज, रेल आदि सभी वस्तुयें तथा चिकित्सा पद्धति सहित शल्य क्रिया आदि का ज्ञान उन्नत किया है, इसी प्रकार से ईश्वर को जानकर सभी दुःखों से निवृत्ति, सुखों व आनन्द की प्राप्ति और  जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। अतः वैदिक धर्म व स्वामी दयानन्द प्रदत्त वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति विषयक मनुष्यों के लिए जानने योग्य सभी प्रश्नों का समाधान हो जाता है।

 

अब हमें मनुष्यों के ईश्वर के प्रति कर्तव्य को जानना है। ईश्वर ने जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए इस सृष्टि की उत्पत्ति की है व विगत 1.96 अरब वर्षों से वह इसका सफलतापूर्वक संचालन करने के साथ सृष्टि में जन्म लेने वाले सभी प्राणियों का पालन करता चला आ रहा है। हमें जन्म भी ईश्वर ने हमारे पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर ही दिया है। हमारा पहला कर्तव्य तो ईश्वर सहित जीवात्मा और प्रकृति के सत्यस्वरुप को जानने के लिए प्रयत्न करना है। इन्हें जानकर ईश्वर के प्रति हमारा क्या कर्तव्य है यह जानना है। इसके लिए हमारे वेद और वैदिक साहित्य से सहायता ली जा सकती है। महर्षि दयानन्द ने यह कर्तव्य बताया है और कहा कि मनुष्य को ईश्वर की प्रतिदिन प्रातः सायं सन्ध्या अर्थात् योग पद्धति से सम्यक् ध्यान उपासना करनी चाहिये। सन्ध्या में ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की जाती है। देवयज्ञ व अग्निहोत्र में भी इसे किया जाता है। सभी शुभ-अशुभ अवसरों पर भी स्तुति-प्रार्थना-उपासना सहित यज्ञ करने का विधान किया गया है। इससे दुःखों की निवृति व सुखों की उपलब्धि होती है। सन्ध्या वा स्तुतिप्रार्थनाउपासना इसलिये की जाती है कि हम ईश्वर के जन्मजन्मान्तरों के असंख्य अगणित उपकारों के लिए कृतज्ञता व्यक्त कर उसका धन्यवाद कर सकें। इसके साथ स्तुति करने से ईश्वर से प्रीति, प्रार्थना से निरभिमानता तथा उपासना से दुर्गुण, दुव्र्यस्नों व दुखों की निवृति सहित कल्याणकारक गुण-कर्म-स्वभाव व पदार्थों की उपलब्धि वा प्राप्ति होती है। प्राचीन काल से हमारे सभी पूर्वज, ऋषि, मुनि, विद्वान, ज्ञानी, विज्ञ, विप्र ईश्वर की उपासना करते आये हैं और उनमें से महर्षि दयानन्द सहित अनेकों ने समाधि को सिद्धकर धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति की थी। हम भी यदि सन्ध्या-उपासना व यज्ञ आदि कर्मों को करेंगे तो हमें भी यह फल प्राप्त होंगे और यदि नहीं करेंगे तो हम इनसे वंचित रहेंगे। सन्ध्या व यज्ञ की विधि के लिए महर्षि दयानन्द जी की पुस्तक मंचमहायज्ञविधि तथा संस्कारविधि का अध्ययन किया जाना चाहिये।

 

आज नये आंग्ल वर्ष 2016 का प्रथम दिवस है। यदि हम इसे मनाते हैं तो आज हमें स्वयं को व ईश्वर को जानने तथा इनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने का संकल्प वा व्रत लेना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हमें बाद में पछताना होगा। आईये, वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वर के प्रति मनुष्य के मुख्य कर्तव्य सन्ध्या व यज्ञ सहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना की प्रतिज्ञा करें, संकल्प व व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

उपासना क्या, क्यों व किसकी करें तथा इसकी विधि?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

उपासना का उल्लेख आने पर पहले उपासना को जानना आवश्यक है। उपासना का शब्दार्थ है समीप बैठना। हिन्दी में हम अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के पास बैठते हैं परन्तु इसे कोई उपासना करना नहीं कहता, यद्यपि यह उपासना ही है। उपासना शब्द सम्प्रति रूढ़ हो गया है और इसका अर्थ जन साधारण द्वारा ईश्वर की पूजा वा उपासना के अर्थ में लिया जाता है। ईश्वर की पूजा व उपासना भी वस्तुतः उपसना है परन्तु अपने परिवार, मित्रों व विद्वानों आदि के समीप उपस्थित होना व उनसे संगति करना भी उपासना ही है। अब यदि सब प्रकार की उपासनाओं पर विचार कर यह जानें कि सर्वश्रेष्ठ उपासना कौन सी होती है तो इसका उत्तर इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले सर्वगुण, ऐश्वर्य व शक्ति सम्पन्न ईश्वर की उपासना करना ही ज्ञात होता है। यदि मनुष्य ईश्वर की यथार्थ उपासना करना सीख जाये व करने लगे तो मनुष्य का अज्ञान, दुर्बलता व दरिद्रता दूर होकर वह भी ईश्वर की ही तरह गुणवान, बलवान व ऐश्वर्य से सम्पन्न हो सकता है। यह भी जान लें कि उपासना एक साधना है जिसके लिए तप वा पुरुषार्थ करना होता है जिसका विस्तृत निर्देश योगदर्शन व महर्षि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों में मिलता है।

 

पहला प्रश्न है कि उपासना क्या है, दूसरा श्रेष्ठ उपासना किसकी की जानी चाहिये और तीसरा प्रश्न होता है कि उस श्रेष्ठ उपासना की विधि क्या है? पहले प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, यह जानकर कि उपासना समीप बैठने व उपस्थित होने को कहते हैं, हमें यह जानना है कि पास बैठने का तात्पर्य क्या है? हम किसी के पास जाते हैं तो हमारा इसका अवश्य कोई प्रयोजन होता है। उस प्रयोजन की पूर्ति ही उपासना के द्वारा अभिप्रेत होती है। हम अपने परिवार के सदस्यों के पास बैठते हैं तो वहां भी प्रयोजन है और वह है संगतिकरण का। संगतिकरण में हम एक दूसरे के बारे में वा उनके सुख-दुःख वा उनकी शैक्षिक, सामाजिक स्थिति आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं और वह भी हमारी जानकारी प्राप्त करने के साथ अपने बड़ों से उपदेश व अपनी समस्याओं का समाधान प्राप्त करते हैं। पुत्र ने पुस्तक खरीदनी है, वह अपनी माता व पिता के पास जाता है और उनसे पुस्तक खरीदने की बात बताकर धन प्राप्त करता है। यह एक सीमित उद्देश्य से की गई उपासना, प्रार्थना व उसकी सफलता का उदाहरण है। इसी प्रकार विद्यार्थी अपने विद्यालय में अपनी कक्षा में अपने गुरुओं व अन्य विद्यार्थियों की उपासना व संगति कर इच्छित विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है। वेद, ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से हमने जाना कि ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, आनन्दस्वरुप, सर्व-ऐश्वर्य-सम्पन्न, सर्वशक्तिमान तथा आदि-व्याधियों से रहित है। हमें भी अपना सम्पूर्ण अज्ञान, दरिद्रता, निर्बलता, रोग, आदि-व्याधियों, भीरुता व दुःखों का निवारण करना है और इसको करके हमें ज्ञान, ऐश्वर्य, आरोग्य वा स्वास्थ्य तथा वीरता, दया, करुणा, प्रेम, सत्य, अंहिसा, स्वाभिमान, निर्बलों की रक्षा आदि गुणों को धारण करना है। इन सब अवगुणों को हटाकर गुणों को धारण करानेवाला सर्वाधिक सरलतम व मुख्य आधार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, निराकार, सर्वऐश्वर्यसम्पन्न व स्वयंभू गुणों से युक्त परमेश्वर है। अतः इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हमें ईश्वर के पास जाकर अर्थात् उसकी उपासना को प्राप्त होकर इन गुणों वा शक्तियों के लिए उसकी स्तुति व प्रार्थना करनी है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने का नाम ही ईश्वर की उपासना है और यही संसार विश्व में सर्वश्रेष्ठ उपासना है। ईश्वर की उपासना से पूर्व एक महत्वपूर्ण कार्य यह करना आवश्यक है कि हमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करना है। यह ज्ञान वेदाध्ययन, ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों 4 ब्राह्मण-ग्रन्थ, 6 दर्शन, 11 उपनिषद्, मनुस्मृति, चरक व सुश्रुत आदि आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थ, वाल्मीकि रामायण व व्यासकृत महाभारत सहित महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने से प्राप्त होता है। इन ग्रन्थों के अध्ययन के बाद ईश्वर की उपासना करना सरल हो जाता है और इच्छित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। माता-पिता, अन्य विद्वानों व महिमाशाली व्यक्तियों की उपासना करना सरल है जिसे हम अपने माता-पिता व बड़ों से जान सकते हैं व सभी जानते ही हैं।

 

मनुष्य को सभी उपासनाओं में श्रेष्ठ ईश्वर की उपासना करनी है जिससे वह मनुष्य जीवन के लक्ष्य को जानकर व उसके अनुरुप साधन व उपाय कर ईश्वर को प्राप्त होकर ज्ञान, बल व ऐश्वर्य आदि धनों को प्राप्त कर अपने जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सके। ईश्वर की उपासना के लिए ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना अनिवार्य है अन्यथा हम मत-मतान्तरों व कृत्रिम अज्ञानी गुरुओं के चक्र में फंस कर अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को नष्ट कर सकते हैं व अधिकांश कर रहे हैं। अतः हमें मत-मतान्तरों में न फंस कर उनसे दूरी बनाकर ईश्वर प्रदत्त वेद और उस पर आधारित सत्य वैदिक साहित्य को पढ़कर ही जानने योग्य सभी प्रश्नों के उत्तर जानने चाहिये और उनको स्वयं ही तर्क व वितर्क की कसौटी पर कस कर जो अकाट्य मान्यता, युक्ति व सिद्धान्त हों, उसी को स्वीकार कर उसका आचरण, उपदेश व लेखन आदि के द्वारा प्रचार करना चाहिये।

 

हमें यह तो ज्ञात हो गया कि हमें मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ धन वा रत्न ज्ञान व कर्मों की प्राप्ति के लिए ईश्वर की उपासना करनी है, परन्तु ईश्वर उपासना की सत्य व प्रभावकारी तथा लक्ष्य को प्राप्त कराने वाली विधि क्या है, इस पर भी विचार करना है। यद्यपि यह विधि हमारे पास उपलब्ध है फिर भी हम उस तक पहुंचने के लिए भूमिका रुप में कुछ विचार करना चाहते हैं। ईश्वर की उपासना करने के लिए हमें ईश्वर के पास बैठना है। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से सदा-सर्वदा सबको प्राप्त है और इस कारण से हर क्षण ईश्वर व सभी जीवात्माओं की ईश्वर के साथ उपासना सम्पन्न हो रही है। यह उपासना तो है परन्तु यह ज्ञान व विवेक रहित उपासना है अतः इसका परिणाम कुछ नहीं निकलता। हमारे शरीर ने ईश्वर ने हमें बुद्धि व मन दिया है। मन एक समय में एक ही विषय का चिन्तन कर सकता है, दो व अधिक का नहीं। हम प्रायः दिन के 24 घंटे ससार वा सांसारिक कार्यों से जुड़े रहते है, अतः संसार, समाज व परिवार की उपासना ही कर रहे होते हैं। ईश्वर की उपासना के लिए हमें इन उपासनाओं से स्वयं को पृथक कर अपने मन को सभी विषयों से हटा कर केवल और केवल ईश्वर पर ही केन्द्रित करना होता है। मन चंचल है अतः मन को साधने अर्थात् उसे ईश्वर के गुणों व कर्मों में लगाने अर्थात् उनका ध्यान करने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। नियत समय पर प्रातः सायं अभ्यास करने से मन धीरे-धीरे ईश्वर के गुणों व स्वरुप में स्थिर होने लगता है। इसके लिए शरीर का स्वस्थ होना और मनुष्य का अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, वेद व सत्य वैदिक ग्रन्थों का स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान से युक्त जीवन व्यतीत करना भी आवश्यक है। इसकी अनुपस्थिति में हमारा मन ईश्वर में निरन्तर स्थिर नहीं होता व रहता। अतः योगदर्शन का अध्ययन कर इस विषय में विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुरुप जीवन व्यतीत करना चाहिये। ऐसा करने पर जब हम ईश्वर की उपासना के लिए आसन में स्थित होकर ईश्वर के गुणों व कर्मों के ध्यान द्वारा उपसना करेंगे और ऐसा करते हुए उससे जीवन को श्रेष्ठ मार्ग में चलाने और गलत मार्ग से हटाने की प्रार्थना सहित सभी दुर्गुण, दुव्यस्न और दुःखों को दूर करने और जो कुछ भी हमारे लिए श्रेष्ठ और श्रेयस्कर गुण-कर्म और स्वभाव हैं, उनको प्रदान करने की प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थना व उपासना निश्चय ही सफल होगी। ईश्वर की इसी स्तुति-प्रार्थना-उपासना को यथार्थ रुप में सम्पादित करने के लिए महर्षि दयानन्द ने ‘‘सन्ध्योपासना विधि लघु ग्रन्थ की रचना की है जो आकार में लघु होने पर भी मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को पूरा करने में कृतकार्य है। इसका अध्ययन कर व इसके अनुसार ही सन्ध्योपासना अर्थात् ईश्वर का भली-भांति ध्यान व उपासना सभी मनुष्यों को करनी चाहिये और अपने जीवन को सफल करना चाहिये। यह सन्ध्याविधि वेद व ऋषि-मुनियों के प्राचीन ग्रन्थों पर आधारित है। महर्षि दयानन्द जी के बाद इस संध्योपासनाविधि में विद्वानों द्वारा कहीं कोई न्यूनता व त्रुटि नहीं पाई गई और न भविष्य में इसकी सम्भावना ही है। अनेक पौराणिक विद्वानों ने भी इस विधि को अपनाया है। अतः स्तुति, प्रार्थना व उपासना के ज्ञान व विज्ञान को जानकर सभी मनुष्यों को एक समान विधि, वैदिक विधि से ही ईश्वर की उपासना करने में प्रवृत्त होना चाहिये जिससे लक्ष्य व आशानुरुप परिणाम प्राप्त हो सके। अशिक्षित, अज्ञानी साधारण बुद्धि के लोग, जो उपासना को ज्ञान, चिन्तनमननध्यान पूर्वक सश्रम नहीं कर सकते, वह गायत्री मन्त्र के अर्थ की धारणा सहित एक मिनट में 15 बार मन में बोल कर उपासना कर किंचित लाभान्वित हो सकते हैं। यह कार्य दिन में अनेक अवसरों पर सम्पन्न किया जा सकता है। यह भी सरलतम अल्पकालिक उत्तम उपासना ही है जो भविष्य में दीर्घावधि की उपासना की नींव का काम कर सकती है। मनुष्य जीवन में ईश्वर को प्राप्त करने का उपासना ही एक वैदिक व सत्य मार्ग हैं जिससे सभी को लाभ उठाना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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आत्म-चिन्तन और मनन – रमेश मुनि

 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।

सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधाद् भवति समोहः समोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

– (गीता 2-62,63)

शराबी आदमी शराब पी कर गिरता है। वह खड़ा होना, ठीक ढंग से चलना चाहता है, किन्तु नहीं हो पाता, ठीक ढंग से नहीं चल पाता। इस अवस्था में वह आदमी नहीं रह जाता- यह उसकी करुणाजनक स्थिति होती है। वह शरीर से उत्तम है, सुन्दर कपड़े पहने हुए है, किन्तु मदिरा के मस्तिष्क में पहुँच जाने के कारण बुद्धि बिगड़ जाती है, बुद्धि में अन्तर आ जाता है। इसी से सन्तुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण वह चलने के लिए उठता है, किन्तु गिर पड़ता है, फिर उठता है फिर गिर पड़ता है, इसी प्रकार की स्थिति बनी रहती है। संसार में हम सब की भी ऐसी स्थिति प्रायः बनी रहती है। सांसारिक विषयों की इच्छाओं के  प्रभाव के कारण सभी का सन्तुलन बिगड़ा रहता है, उठना-गिरना, उठना-गिरना सभी में होता रहता है, सभी में ऐसी स्थिति चलती रहती है। ऐसी स्थिति के कारण ही काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या आदि दोष प्रबल हो जाते हैं, जिस कारण व्यक्ति छल, कपट, ऊँच, नीच करता रहता है। सदा एक बुद्धि को बनाए नहीं रख सकता, जिससे शराबी की तरह पगलाया रहता है। ईश्वर और आत्माएँ नित्य हैं, जबकि संसार अनित्य है, सदा रहने वाला नहीं है। इस तत्त्व को वह या तो जानता ही नहीं, यदि जानता भी है तो इसे मानता नहीं है और विषयों के प्रभाव के कारण सांसारिक पदार्थों को नित्य मान कर अपना व्यवहार करता है।

ईश्वर ने मानव के लिए अत्युत्तम पदार्थ बुद्धि बनाई है, किन्तु अपने कर्मों या व्यवहार के कारण इससे वञ्चित हो जाता है। मानवपन तब सार्थक होता है, जब वास्तविकता को समझ कर आचरण ठीक कर समाधिनिष्ठ होगा, जिससे बुद्धि सात्विक होगी और शराबी के तरह का भाव समाप्त हो जाएगा। शराबी यदि अपने व्यवहार को ठीक नहीं करता तो उसका जीवन दुःखमय रहता है, इसी प्रकार सामान्य मानव भी विषयों के नशे में रहेगा तो जीवन दुःखमय बना रहेगा। जिस प्रकार शराबी की उस अवस्था को देख हम उसे दया का पात्र मानते हैं, इसी प्रकार अपने को भी दया का पात्र मानना चाहिए। मानव जीवन का लक्ष्य यह है कि विशेष उपलधि से अपने को वञ्चित देखकर हमें ग्लानि अनुभव करनी चाहिए और दोष को दूर करना चाहिए। शराबी के मन में खड़े होने, ठीक प्रकार से चलने का प्रयास करके अपने आपको अच्छा दिखाने की भावना होती है। वह प्र्रयास से अपने समान को सुरक्षित करना चाहता है, किन्तु बुद्धि बिगड़ने से नहीं कर पाता। यही स्थिति हमारी भी है। हम दिखाना चाहते हैं कि मैं जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं, लेकिन वह काम गलत होता है।

योगी विवेकी जानता है कि आम आदमी को ऐेसी हालत में देख कर ईश्वर हमें उस शराबी की तरह का समझता है। इस अवस्था को उत्पन्न करने का मूल कारण हमारी इच्छाएँ हैं (योगदर्शन के अनुसार वृत्तियाँ)। इन्हें हटाने का प्रयास करें। यदि हम अपनी इच्छा को रोक लेते हैं तो वृत्तियाँ स्वयं रुक जाएँगी, इच्छा बढ़ने से चञ्चलता के कारण वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ बढ़ जाएँगी, जीवन दुःखमय हो जाएगा।

न्याय दर्शन सूत्र (4-2-2)- ‘‘दोष निमित्तं रूपादयो विषयाः संकल्पकृताः’’ अर्थात् मिथ्या इच्छाओं से उत्पन्न रूप, रस आदि पाँच विषय राग, द्वेष आदि दोषों को उत्पन्न करते हैं। मिथ्या इच्छाओं को समाप्त करके रूपादि विषयों के प्रति आसक्ति को दूर करके शराबी के व्यवहार से बच सकते हैं।

आनन्दमयोऽयासात् (वेदान्त 1-1-12)

परमात्मा आनन्द स्वरूप है। अर्न्तदृष्टि से परमात्मा का अयास करने से, यम-नियमों का अनुष्ठान, पालन करने से ईश्वर की अनुभूति होती है।

जब इच्छा के साथ भिन्न-भिन्न विषय जुड़ते जाते हैं तो कामनाएँ जोर मारने लगती हैं। जब इच्छा शरीर को प्राप्त करने की हो तो यह काम कहलाती है। इसमें यदि दूसरा व्यक्ति प्रतियोगी है और समान स्तर का है तो उससे ईर्ष्या। यदि वह बाधा करता है तो द्वेष और यदि प्रतियोगी निर्बल हो तो उसे मारने या नष्ट करने की प्रवृत्ति बन जाया करती है।

इच्छा यदि अनुकूल विषय से जुड़ गई तो राग बन जाती है, वही अनुभूति बढ़ने से प्रीति या प्रेम कहलाती है। इच्छाएँ लगातार बढ़ती जाएँगी। यदि मिल गया तो फिर मिले। यदि इच्छा की पूर्ति में समय अधिक लगेगा तो व्याकुलता होगी या निराशा, यदि उपलधि समीप आ रही हैं तो आशा। इस प्रकार अलग-अलग अवस्थाएँ भावों को बदलती रहती हैं- कभी आशा, कभी निराशा, कभी क्र ोध, काी क्षमा आदि।

इसका निदान है इच्छा को पकड़ लें, रोक दें, चाहे बलपूर्वक या बुद्धिपूर्वक। यदि मन में धारणा बना ली कि मुझे कुछ नहीं चाहिए तो संकल्प करते ही मन में स्थिरता आएगी, शान्ति मिलेगी। यदि इच्छा बढ़ाते हैं तो क्लेश होगा। जब इच्छा हमारे ऊपर है तो क्लेश और जब हम क्लेश के ऊपर हैं तो शान्ति मिलेगी, आत्मा शक्तिशाली अनुभव करेगा। इस प्रकार कोई भी इच्छा करते समय बुद्धिपूर्वक विचार करेंगे, चिन्तन करेंगे तो क्लेश-दुःख से बच कर सुख शान्ति पाएँगे।

गीता ठीक कहती है- विषयों का निरन्तर सेवन करते रहने से व्यक्ति का क्रमशः पतन होता चला जाता है और निरन्तर साधना से व्यक्ति ऊर्ध्वमुखी होता चला जाता है। यही अध्यात्म है।           – ऋषि उद्यान, अजमेर।

‘ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

मनुष्य विज्ञान की नई-नई खोजों के वर्तमान युग में ईश्वर व अपनी जीवात्मा के मूल स्वरुप को भूल बैठा है। आज ईश्वर को मानना व नाना प्रकार के मत-मतान्तरों प्रचलित विधि से उसकी स्तुति व प्रार्थना करना एक प्रकार का फैशन सा लगता है। कोई भी काम करने से पहले उसका यथेष्ट ज्ञान व विधि जानना आवश्यक होता है। एक कलर्क की नौकरी पाने के लिए कक्षा 10 या बारह उत्तीर्ण होना आवश्यक होता है। इसके साथ टंकण का ज्ञान भी उसके लिये अनिवार्य माना जाता है। हम ईश्वर, जो इस सृष्टि का रचयिता व पालनकर्त्ता है, उसकी स्तुति व प्रार्थना करते हैं तो क्या हमें इसके लिए निर्धारित किसी योग्यता को तय करना आवश्यक नहीं है? सभी मत-मतान्तर वाले कहेंगे की उनके मत में जो रीति व नीति है, वही इस कार्य के लिए उपयुक्त है। वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान से हमें लगता है कि ईश्वर व जीवात्मा के स्वरुप को जानकर तथा वेद की शिक्षाओं को समक्ष रखकर ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य व यथार्थ रीति व नीति तय की जा सकती है। हम यह मानते हैं कि भिन्न-भिन्न मतों में ईश्वर व जीवात्मा विषयक जो ज्ञान है, वह अल्प व सीमित होने से अपूर्ण व अपर्याप्त है। इसके साथ ही मत-मतान्तरों में ईश्वर के सत्य स्वरुप से भिन्न असत्य बातें भी जुड़ी हुई हैं। अतः यदि उन्हीं के आधार पर स्तुति-प्रार्थना-उपासना की जाती है, तो हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के अपने यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने व इसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक व अनिवार्य है।

 

मनुष्य जीवन पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य माता-पिता के द्वारा सृष्टि नियमों के अनुसार उत्पन्न होता है। जन्म के समय इसका शरीर अत्यन्त लघु व सामथ्र्यविहीन होता है। माता के दुग्ध, पालन व स्वास्थ्यप्रद भोजन से शरीर की उन्नति होती है। किशोरावस्था व युवावस्थ्यायें आती हैं और अन्त में प्रौढ़ व वृद्धावस्था आने के बाद 100 वर्ष की आयु प्राप्त कर व उससे पहले कभी भी किसी रोग, दुर्घटना व अन्य कारणों से मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के होने पर मनुष्य का शरीर निष्क्रिय हो जाता है जिससे अनुमान लगता है कि शरीर में निवास करने वाली एक चेतन सूक्ष्म अदृश्य सत्ता शरीर से निकल गई है। मानव शरीर तो पंचभौतिक तत्वों अर्थात् पृथिवी के तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः इसे अग्नि में रखकर पंचतत्वों में ही विलीन कर देने का प्राचीन काल से विधान चला आ रहा है। यह प्रक्रिया उपयुक्त, सरल, अल्पव्ययसाध्य व शीघ्र उद्देश्य की पोषक है। बहुत से लोग अन्त्येष्टि संस्कार की महत्ता को अभी तक जान व समझ नहीं पाये हैं, अतः वह शव को जलाने के स्थान पर भूमि में गाढ़ देना ही उचित समझते हैं। अन्त्येष्टि का संबंध ज्ञान व विज्ञान तथा सृष्टि के नियमों से है। यदि मतों के आग्रह से इसे बाहर निकाल कर निर्णय किया जाये, तो यह इस सृष्टि के लिए उचित होगा।

 

मनुष्य वा प्राणियों का जीवात्मा एक चेतन तत्व होता है। यह अल्प परिणाम, सूक्ष्म, ज्ञान व कर्म अथवा गति के स्वभाव से युक्त, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अनिवाशी, अजर व अमर गुणों वाला है। अस्त्र व शस्त्रों से इसका छेदन नहीं होता, अग्नि से यह जलता नहीं है, वायु इसे सुखा नहीं सकती और वायु इसे गला नहीं सकती है। इस जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा इसके पूर्व कर्मानुसार जिसे प्रारब्घ कहते हैं, नाना योनियों में से किसी एक योनि में जन्म मिलता है। जन्म दिये जाने का कारण पूर्व कर्मों के सुख व दुःख रुपी फलों को भोग व मनुष्य योनि में मोक्ष को केन्द्रित कर वेद निर्दिष्ट व निर्धारित शुभ कर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। जिस प्रकार से मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर से प्राप्त होती है, कर्मों के सुख व दुःख रुपी फल ईश्वर से प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति भी ईश्वर के द्वारा ही होती है। मोक्ष सभी प्रकार के दुःखों की पूर्णतया निवृति तथा जन्म व मरण से छुट्टी का नाम है। जिस प्रकार विद्यालय में परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्नति होकर उससे आगे की कक्षा में प्रवेश मिलता है और पूर्व कक्षा के पाठ्यक्रम व अध्ययन आदि कार्यों से अवकाश मिल जाता है, इसी प्रकार से मोक्ष में भी जन्म-मरण से अवकाश होकर इससे ऊपर व ऊंची मोक्ष की अवस्था प्राप्त होती है। अनुमानतः महर्षि दयानन्द व उनके समान कुछ आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होने का अनुमान किया जाता है।

 

मनुष्य को जन्म व जीवन ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है जिसमें माता-पिता, समाज एवं पर्यावरण की एक सहायक के रूप में भूमिका होती है। ईश्वर कैसा है, इसका उत्तर हम महर्षि दयानन्द के शब्दों में देना उचित समझते हैं। यही ज्ञान व विज्ञान से युक्त उत्तर है। वेदों के यथार्थ अर्थों के विद्वान महर्षि दयानन्द के अनुसार  ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उन्होंने यह भी बताया कि संसार में केवल एक ईश्वर ही उपासनीय अर्थात् हमारी स्तुति प्रार्थानाओं के योग्य है अर्थात् इनका पात्र है। स्वामीजी के अनुसार ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, वह केवल चेतनमात्र वस्तु है जो एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापक अर्थात संसार के भीतर बाहर विद्यमान उपस्थित है, सत्य गुणवाला है, जिसका स्वभाव अविनाशी है, वह ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध और अजन्मा आदि है। ईश्वर का कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को उनके पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है। ओ३म्, ब्रह्म, परमात्मा आदि नाम ईश्वर के ही हैं और इस सृष्टि को बनाकर इसका पालन संहार करने का कार्य भी ईश्वर ही करता है। ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप वाली सत्ता ही ईश्वर संज्ञक नाम वाली है। ईश्वर का यह सत्य वा यथार्थ स्वरुप है। जीवात्मा व मनुष्यों को इस स्वरुपवान ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। स्तुति व प्रार्थना करने से लाभ यह होता है कि हम ईश्वर के जिस गुण की स्तुति करते हैं वह गुण हमारी आत्मा व जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। स्तुति के प्रभाव ये आत्मा के मल रूपी सभी दुर्गुण, दुःख व दुव्र्यस्न दूर होने आरम्भ हो जाते हैं और इनका स्थान स्तुति व प्रार्थना किये गये गुण, कर्म व स्वभाव लेने लगते हैं। धीरे-धीरे स्तोता व प्रार्थना करने वाले की आत्मिक, बौद्धिक, सामाजिक व शारीरिक उन्नति होती है। अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि भी होती है। स्तुति, प्रार्थना उपासना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। इस कृतज्ञता प्रदर्शित करने का नाम ही स्तुतिप्रार्थनाउपासना है। कृतज्ञता इस लिए कि ईश्वर ने हमें मनुष्य के रूप में जन्म दिया, मातापिताभाईबहिनसंबंधी इष्टमित्र प्रदान किये। वेदों का सत्य ज्ञान प्रदान किया, हमारे लिए ही उसने इस सृष्टि को रचा इसमें नाना प्रकार के सुख प्रदान करने वाले अन्न, जल, वायु रत्नादि भोग प्रदान किये। वह सर्वान्तर्यामी रूप से हमारी आत्मा में विद्यमान हमें सत्कर्मों करने की प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई अच्छा, परोपकार, सेवा, ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना, यज्ञ आदि का कार्य करते हैं तो हमें सुख, आनन्द व उत्साह की अनुभूति कराता है और बुरा काम करने पर भय, शंका व लज्जा की अनुभूति कराकर उस कर्म को करने से रोकता है। इस सुख, आनन्द, उत्साह तथा भय, शंका, लज्जा रूपी प्रेरणा करने से ही ईश्वर की जीवात्मा में विद्यमानता व सर्वव्यापकता सहित निराकारता सिद्ध होती है। पुष्प, सृष्टि तथा नाना प्रकार के प्राणियों की रचना व इनमें अनेक विशेष्टिताओं को देखकर भी ईश्वर की सत्ता का होना व अस्तित्व सिद्ध होता है। ईश्वर के सभी मनुष्यों प्राणियों पर इतने उपकार हैं कि उन्हें गिना नहीं जा सकता। वह हमारे पूर्व के विभिन्न योनियों में अनन्त जन्मों में भी मित्र रूप से हमारा साथी रहा है और आगे भी रहेगा। अतः उसके प्रति स्तुतिप्रार्थनाउपासना, देव यज्ञ अग्निहोत्र आदि वेदानुकूल कर्मों को करके हमें अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करनी चाहिये। इससे जीवन के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सहित हमारे भावी जन्म अति उन्नत होंगे और आगामी किसी न किसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है।

 

संसार भर में रहने वाले सभी मनुष्यों को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जानकर उसकी वेद व ऋषियों के द्वारा निर्मित विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि कर्तव्य करने चाहिये। ईश्वर प्रदत्त देव ज्ञान संसार के सभी मनुष्यों के लिए है। भारत के ऋषि-मुनि संसार के वर्तमान सभी मनुष्यों के पूर्वज हैं। उनका सम्मान करना सबका सामूहिक धर्म है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ऐसे मनुष्यों का न तो यह जन्म और न भावी जन्म ही उन्नत होंगे और न कभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति की सम्भावना हो सकती है। इसका कारण मोक्ष वेद विहित कर्म-सापेक्ष उपलब्धि है। अन्यथा इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः संसार के सभी लोगों को एक ही ईश्वर के सत्य स्वरुप को जानकर वैदिक विधि से ईश्वर की स्तुतिप्रार्थनाउपासना द्वारा उसे प्राप्त कर कृतघ्नता के दोष से बचना चाहिये और अपना वर्तमान भविष्य सुधारना चाहिये। सभी मनुष्यों को सत्य को जानकर एक मतस्थ होना व सबको एक मतस्थ करना भी कर्तव्य व धर्म है। आईये, वेदानुसार कृतज्ञता स्वरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा यज्ञादि कर्मों को करके हम ईश्वर, देश व समाज के प्रति कृतघ्नता के दोष से बचें और अपनी सर्वांगीण उन्नति करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर सबको हर क्षण देखता है और सभी कर्मों का यथोचित फल देता है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

बहुत से अज्ञानियों के लिए यह संसार एक पहेली है। संसार की जनसंख्या लगभग 7 अरब बताई जाती है परन्तु इनमें से अधिकांश लोगों को न तो अपने स्वरुप का और न हि अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का ज्ञान है। उन्हें इस संसार को बनाने वाले व हमें व अन्य सभी प्राणियों को जन्म देने वाले ईश्वर के स्वरुप व कर्मों का भी ज्ञान नहीं है। जब अपना, ईश्वर तथा सृष्टि के सत्य स्वरुप का ज्ञान ही नहीं है, तो वह अपने जीवन को सही मार्ग पर चला भी कैसे सकते हैं? अर्थात् नहीं चला सकते। महर्षि दयानन्द अपने बाल जीवन में इनसे मिलते-जुलते अनेक प्रश्नों से परिचित हुए थे परन्तु तब उन्हें अपने पिता व आचार्यों से इन प्रश्नों का समाधान नहीं मिला था। इस कारण उन्हें स्वयं ही इन प्रश्नों के उत्तर व समाधानों की खोज करनी पड़ी जिसकी परिणति उनके समाधि सिद्ध योगी बनने व वेद ज्ञान अर्जित करने पर समाप्त हुई। यह अवस्था उन्हें सन् 1863 में तब प्राप्त हुई जब मथुरा के दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी के यहां उनका अध्ययन समाप्त हुआ था। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी के सामने एक ही कार्य था कि वह एक गुरुकुल रूपी विद्यालय खोलकर वहां विद्यार्थियों को योग व संस्कृत व्याकरण सहित वैदिक साहित्य और वेद की शिक्षा देते। स्वामीजी ने अभी अपने भावी जीवन में किये जाने वाले कार्य की योजना तय नहीं की थी। गुरु-दक्षिणा के अवसर पर उनके गुरुजी ने उन्हें संसार में फैले अविद्यान्धकार का परिचय कराकर उसे दूर करने का अनुरोध किया। उनका कहना था कि संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, वह सभी अज्ञान व मिथ्या-विश्वासों से पूर्ण है। इन मत-मतान्तरों के कारण ही मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि-प्रकृति के सत्यस्वरुप से परिचित नहीं हो पा रहे थे और अपना अमृतमय पावन दुर्लभ जीवन बर्बाद कर रहे थे। उन्होंने ऋषि को आज्ञापूर्ण निवेदन किया कि वह संसार से मत-मतान्तरों का अज्ञान, मिथ्या-विश्वासों, अवैदिक कुरीतियों व नाना सामाजिक विषमताओं व विसंगतियों को मिटाकर इसके साथ हि सत्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रकाश कर लोगों को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सच्चे स्वरुप, जो कि चेतन व जड़ के रूप में हैं, उसको विश्व में फैलायें, उसका प्रकाश व प्रचार करें।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गुरुजी की बात के एक-एक शब्द को स्वीकार किया और उन्हें वचन दिया कि वह अपने भावी जीवन में ऐसा ही करेंगे। गुरुजी दयानन्द जी के व्यक्तित्व व व्रतपालन के व्यवहार से परिचित थे। उन्हें विश्वास हो गया कि जो कार्य वह करना चाहते थे परन्तु प्रज्ञाचक्षु वा नेत्रान्ध होने के कारण नहीं कर पाये थे, वह उनका शिष्य अवश्य करेगा। इस विश्वास से उनको अत्यन्त हर्ष हुआ था। महर्षि दयानन्द जी ने अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को मिटाने व समाज का सुधार करने के लिए अपूर्व रीति से वेदों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। जो महत्वपूर्ण घटनायें उनके प्रचार कार्यों से जुड़ी हैं उनमें 16 नवम्बर, 1869 को हुआ काशी के लगभग 30 शीर्षस्थ पौराणिक पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ, उसके बाद 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई नगरी में आर्यसमाज की स्थापना, सन् 1874 में सत्यार्थ-प्रकाश का लेखन और प्रकाशन, उसके बाद ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका सहित वेदभाष्य एवं संस्कार-विधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, आर्योद्देश्यरत्नमाला, संस्कृत की वर्णोच्चरणशिक्षा से लेकर 14 व्याकरण ग्रन्थों की रचना आदि कुछ प्रमुख कार्य भी थे। उन्होंने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये, सभी मतों के विद्वानों की शंकाओं का उत्तर व समाधान किया, लाहौर, बिहार के आरा आदि अनेक स्थानों पर आर्यसमाजों की स्थापना की तथा परोपकारिणी सभा की स्थापना आदि प्रमुख कार्य किये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर ईश्वर के जिस सत्यस्वरुप का प्रचार किया उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। यह भी सिद्ध किया कि संसार में केवल ईश्वर ही उपासनीय हमारी स्तुति प्रार्थानाओं के योग्य अर्थात इनका पात्र है। स्वामीजी के अनुसार ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, वह केवल चेतनमात्र वस्तु है जो एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापक अर्थात संसार के भीतर बाहर विद्यमान उपस्थित है, सत्य गुणवाला है, जिसका स्वभाव अविनाशी है, वह ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध  और अजन्मा आदि है। ईश्वर का कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को उनके पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है। ओ३म्, ब्रह्म, परमात्मा आदि नाम ईश्वर के ही हैं और इस सृष्टि को बनाकर इसका पालन संहार करने का कार्य भी ईश्वर ही करता है। ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप वाली सत्ता ही ईश्वर संज्ञक नाम वाली है। जिसका जन्म हुआ व होता है तथा जिसकी मृत्यु हुई व होती है, वह ईश्वर कदापि नहीं हो सकता। उनके अनुसार ईश्वर का कभी अवतार भी नहीं होता क्योंकि ईश्वर निराकार-स्वरुप से ही अपने समस्त कार्यों को करने में सक्षम व समर्थ है। महर्षि दयानन्द ने जीवात्मा का स्वरुप बताते हुए कहा है कि जीवात्मा सूक्ष्म, चेतन, एकदेशी, अल्प शक्ति व सामर्थ्य वाली, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, जन्म-मरण को प्राप्त होने वाली, योग द्वारा उपासना कर समाधि में ईश्वर का साक्षात्कर कर तथा वेदों के ज्ञान व उसके प्रचार-प्रसार से मोक्ष को प्राप्त होने वाली सत्ता है। जीवात्मा के स्वरुप तथा विभिन्न व्यवहारों पर उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ-प्रकाश में व्यापक रुप से प्रकाश डाला हे। इसी प्रकार से प्रकृति के जड़ स्वरुप व सृष्टि के रुप में इसकी रचना पर भी उन्होंने यथावश्यक प्रकाश डाला है।

 

ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व जीवों के पाप-पुण्य रुपी फलों को देने वाला है। इसका अर्थ है कि ईश्वर हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है और वह अपने कर्म-फल विज्ञान के अनुसार हमारे सभी कर्मों के सुख-दुःख भोग रूपी फल हमें प्रदान करता है। कर्म-फलों को प्रदान करने के लिए ईश्वर का सर्वव्यापक, साक्षी, व सर्वशक्तिमान होना आवश्यक है। ईश्वर हमारे सभी कर्मों का निराकार, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी रूपी से हर क्षण का साक्षी है। इसका प्रमाण हमारा और अन्य प्राणियों का मनुष्य व अन्य प्राणी योनियों में जन्म है तथा हम सभी प्राणियों को नित्य प्रति सुख-दुख का भोग करते हुए देख रहे हैं। मृत्यु का समय आने पर जीवात्मा को शरीर से पृथक करने का कार्य भी ईश्वर द्वारा ही सम्पन्न होता है। न चाहकर भी जीव को संसार व शरीर को छोड़कर जाना पड़ता है। पूर्व जन्मों में जिन्होंने वेदानुसार अच्छे शुभ कर्म किये थे, ईश्वर द्वारा इस जन्म में वह मनुष्य बनाये गये और मनुष्यों में भी सुख विशेष की सम्पत्ति उन्हें प्रदान हुई है। कर्मों के न्यूनाधिक होने से ही हमारे परस्पर के सुख व दुःखों में अन्तर होता है। जैसे-जैसे मनुष्य विद्यादि का ग्रहण व तदनुरुप आचरण करता है उसके दुःखों में कमी व सुखों में वृद्धि होती जाती है। कुछ कर्मों के फल इस जन्म के होते हैं व कुछ भोग पूर्व जन्मों व भूतकाल के कर्मों के होते हैं। कुछ कर्मों के फलों का ज्ञान मनुष्य अपनी बुद्धि व विवेक से जान पाता है और कुछ का नहीं जान पाता क्योंकि मनुष्य अल्पज्ञ व अल्पशक्तिवाला है।

 

कर्मफल व्यवस्था पर एक प्रचलित श्लोक है-अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुंभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये शुभ अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। यह इस कारण है कि ईश्वर हमारे कर्मों पर अपनी दृष्टि जमाये हुए है और उनका साक्षी है। अतः हमें स्वस्थ रहने हेतु जहां व्यायाम व योगासनों को करना है, स्वास्थ्यवर्धक सुपाच्य भोजन करना है, वहीं वेदों का स्वाध्याय व प्रचार करने के साथ हमें सन्ध्या-योग-समाधि का भी अभ्यास भी करना चाहिये और वेद-निर्दिष्ट यज्ञ आदि कर्मों को करके हम पापों से बचकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का लाभ प्राप्त करें। यही ईश्वर-वेदों, ऋषियों व महर्षि दयानन्द का सन्देश है और यही विवेक से भी सिद्ध होता है। यह भी विशेष रुप से हमें सदैव ध्यान रखना है कि ईश्वर हमारे सभी कर्मों का साक्षी है, हम कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह हमें शुभ व अशुभ कर्म करने से रोकता नहीं परन्तु साक्षी होने से असत्य व बुरे कर्मों में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करके उसे न करने की प्रेरणा देता है और जब हम शुभ कर्म करते हैं तो वह हमें अपना समर्थन उत्साह, सुख एवं आनन्द की उत्पत्ति करके करता है। यह भी जानने योग्य है मनुष्यों की ही तरह ईश्वर के पास भी देखने, सुनने, चखने, सूंघने व वाणी आदि जैसी सभी शक्तियां व सामथ्र्य चरम रूप में है। भौतिक आंख न होने पर भी वह हमसे अधिक स्पष्ट देखता है, कान न होने पर भी सुनता है, मुख न होने पर भी उसके पास वेद-वाणी आदि है और अन्य सभी शक्तियों से युक्त वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सब जीवों के सभी अच्छे व बुरे कर्मों को हर क्षण देखता है वा उनका साक्षी है, यह जानकर उसके कर्म फल विधान को समझकर आईये वेदाध्ययन, वेदाचरण, वेदप्रचार, सन्ध्या व यज्ञ आदि करने का व्रत लें। हमें लगता है कि राजनीति से जुड़े लोगों को ईश्वर के सर्वदर्शी व न्यायकारी दण्ड देने वाले स्वरुप को जानने की अधिक आवश्यकता है। उन्हें वेदाध्ययन कर ईश्वर के कर्म-फल विधान को जानना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी

 

देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौयसो वोस्त।

संज्ञान सूक्त के अन्तिम मन्त्र की दूसरी पंक्ति में दो बातों पर बल दिया गया है। एक में कहा है कि परिवार में प्रेम का वातावरण सदा ही रहना चाहिए। यहाँ दो पद पढ़े गये हैं, सायं प्रातः, अर्थात् हमारे परिवारिक वातावरण में प्रेम का प्रवाह प्रातः से सायं तक और सायं से प्रातः तक प्रवाहित होते रहना चाहिए। यह प्रेम सौमनस्य से प्रकाशित होता है। हमारे मन में सद्भाव का प्रवाह होगा, सद्विचारों की गति होगी तो सौमनस्य का भाव बनेगा। प्रेम के लिये शारीरिक पुरुषार्थ तो होता ही है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, छोटों से स्नेह और बड़ों का आदर करते हैं, तब हमारे परिवार में सौमनस्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

हम यदि सोचते हैं कि प्रेम हमारे परिवार के सदस्यों में स्वतः बना रहेगा, कोई हमारा भाई है, बेटा है, पिता या पुत्र है, इतने मात्र से परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। हम पारिवारिक सबन्धों में प्रेम की सहज कल्पना करते हैं, परन्तु परिवार का प्राकृतिक सबन्ध प्रेम उत्पन्न करने की सहज परिस्थिति है। इसमें प्रेम के अंकुर निकलते हैं, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।

प्रेम का अंकुरण विचारों से होता है, मनुष्य अपनी सेवा सहायता चाहता है, अपना आदर, समान चाहता है, अपनी प्रशंसा की इच्छा करता है। यह विचार हमें सुख देता है, कोई व्यक्ति दृष्टि सेवा सहायता करता है, समान देता है। ऐसे सुख की कामना सभी में होती है, अतः जो भी किसी के प्रति ऐसा करने का भाव रखेगा, उसके मन में इसी प्रकार आदर के भाव उत्पन्न होंगे। आप किसी का आदर करते हैं, दूसरा व्यक्ति भी आपका आदर करता है। आप किसी की सहायता करते हैं, दूसरे व्यक्ति के मन में भी आपके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह भी आपकी सेवा के लिये तत्पर रहता है।

मनुष्य के मन में स्वार्थ की पूर्ति की इच्छा स्वाभाविक होती है। स्वार्थ पूर्ण करने के लिये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परोपकार, धर्म, सेवा, आदर आदि में कार्य बुद्धिपूर्वक सोच-विचार कर ही किये जा सकते हैं, अतः ये विचार हमारे हृदय में सदा बने रहें, इसका प्रयत्न करना पड़ता है। इसी के उपाय के रूप में कहा गया है कि हमें सौमनस्य की निरन्तर रक्षा करनी होती है, तभी सौमनस्य सपूर्ण समय बना रह सकता है।

सौमनस्य बनाना पड़ता है, उसके लिये बहुत सावधानी सतर्कता की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ की वृत्तियाँ सदा सक्रिय रहती हैं। उनपर नियन्त्रण रखने के लिये सदा सजग रहने की आवश्यकता है। इसके लिये वेद में उदाहरण दिया गया है, जैसे देवता लोग अमृत की रक्षा में तत्पर रहते हैं, वैसे मनुष्य को भी अपने वातावरण में सदाव सौमनस्य की रक्षा करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। पुराणों में कथा आती है- देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया और सोलह पदार्थ प्राप्त किये। जब समुद्र से अमृत निकला तो देवताओं ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस बात का जैसे ही असुरों को ज्ञान हुआ, वे अमृत प्राप्त करने के लिये देवताओं से संघर्ष करने लगे। जहाँ-जहाँ इस संघर्ष के कारण अमृत के बिन्दु गिरे, वहाँ-वहाँ अच्छी-अच्छी चीजें बनीं, उत्पन्न हुईं उन पदार्थों में कोई न्यूनता है तो असुरों के स्पर्श के कारण, जैसे लशुन की अमृत से उत्पत्ति मानी गई है, परन्तु इसमें दुर्गन्ध का कारण इससे असुरों का स्पर्श कहा गया है।

प्रकृति में देवता निरन्तर नियमपूर्वक कार्य करते हैं, तभी संसार नियमित रूप से चल रहा है। यदि एक क्षण के लिये भी देवता अपना काम छोड़ दें तो संसार में प्रलय उत्पन्न हो जायेगी। हम सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि को देखकर इस बात का निश्चय भली प्रकार कर सकते हैं। इसी कारण व्रत धारण करते समय देवताओं के व्रत धारण को उदाहरण के रूप में स्मरण किया जाता है, ‘अग्ने व्रतपते’ हे अग्नि! तू व्रत पति है तेरा व्रत भी नहीं टूटता मैं भी तेरे समान व्रत पति बनूँ कहा गया है।

देवताओं का एक नाम अनिमेष है। वे कभी पलक भी नहीं झपकाते, सदा सतर्क, सावधान रहते हैं। वैसे भी परिवार समाज में सौमस्य बनाये रखने के लिये मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए, सौमनस्य बना रह सकता है। देवताओं का देवत्व अमृत से ही है, अमृत नहीं है तो उनका देवत्व ही समाप्त हो जाता है। और अमरता है- व्रत न टूटना। व्रत टूटते ही मृत्यु है…….. हमें देवताओं के समान अपने सदविचारों की सदा रक्षा करनी चाहिये, तभी सौमनस्य की प्राप्ति सभव है।

-प्राचीन भारत का स्वर्णिम आदर्श इतिहास- ‘कैकेय नरेश महाराज अश्वपति की सार्वजनिक घोषणा’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

भारत विगत लगभग पौने दो अरब वर्षों से अधिक तक वैदिक धर्म व वैदिक संस्कृति का अनुयायी रहा है। भारत वा आर्यावर्त्त का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि यह ब्रह्माण्ड। सृष्टि की आदि, लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख, 53 हजार वर्ष, से वेदों को मानने व उसके अनुसार शासन करने वाले लाखों राजा हुए हैं जिन्होंने वेदों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के अनुसार राज्य व शासन किया है। भारत का इतिहास अत्यन्त प्राचीन होने व इसके लिखित रूप में सुरक्षित न होने के कारण उसके विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि अनेक विधर्मियों ने वैदिक साहित्य का नाश किया जिसके कारण अनेक प्रमुख इतिहास आदि के ग्रन्थ नष्ट हो गये। इतिहास में यहां तक विवरण हैं कि विधर्मियों ने जब तक्षशिला व नालन्दा के पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित किया तो वहां महीनों तक अग्नि जलती रही व उन ग्रन्थों का धुआं आकाश में उठता रहा। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारा कितना साहित्य नष्ट किया गया। इसका कारण हमारे कुछ व अनेक पूर्वजों की अकर्मण्यता को ही माना जा सकता है।

 

हमारा सौभाग्य है कि हमारे पास वर्तमान में भी अनेक प्राचीन ग्रन्थ बचे हुए हैं। इनमें से एक शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ है। यह यद्यपि अति प्राचीन ग्रन्थ है परन्तु काल प्रवाह में इसमें भी अनेक प्रक्षेप भी हुए हैं। प्रक्षेप करने वालों ने अपने-अपने मतानुसार उस-उस शास्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत विचारों को उसमें मिलाया अवश्य परन्तु यह अच्छी बात हुई कि उसमें से कुछ निकाला नहीं। इन प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करने से यह परिणाम निकलता है। यदि प्रक्षेपकत्र्ता प्राचीन ग्रन्थों में से अच्छी बातों को निकालते तो फिर मनुस्मृत्यादि ग्रन्थों में श्रेष्ठ व उत्तम विचार व बातें न होती? शतपथ ब्राह्मण वा छान्दोग्य उपनिषद में एक प्रसिद्ध प्रकरण आता है जिसमें कैकेय राज्य के राजा अश्वपति अपने राज्य की आदर्श स्थिति का वर्णन वा घोषणा करते हैं। वैदिक साहित्य के प्रवर विद्वान पं. विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने इसका उल्लेख अपने ग्रन्थ शतपथब्राह्मणस्थ अग्निचयनसमीक्षा के बारहवें परिशिष्ट में किया है। वहीं से यह प्रकरण उद्धृत कर रहे हैं।

 

“शतपथ ब्राह्मण काण्ड 10 अध्याय 6 ब्राह्मण 1 कण्डिका 1-11 में अश्वपति तथा अरुण-आपवेशि आदि 6 विद्वानों में वैश्वानर के स्वरूप विषयक जो संवाद हुआ, उसी संवाद का वर्णन, कतिपय परिवर्तनों सहित, छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय 5, खण्ड 11 से 18 तक में भी हुआ है। प्राचीनशाल औपमन्यव, सत्ययज्ञ पौलुषि, इन्द्र-द्युम्न भाल्लवेय, जन शाकराक्ष्य, बुडिल आश्वतराश्वि तथा उद्दालक आरुणि, ये 6 विद्वान, ‘‘आत्मा और ब्रह्म का क्या स्वरुप है” इसे जानने के लिये केकय के राजा अश्वपति के पास आए। प्रातःकाल जाग कर अश्वपति ने उनके प्रति कहा किः-

 

मे स्तेनो जनपदे कदर्यो मद्यपो।

नानाहिताग्निर्नाविद्वान् स्वैरी स्वैरिणी कुतः।।      (खण्ड 11 कण्डिका 5)

 

तथा साथ यह भी कहा कि हे भाग्यशालियों ! मैं यज्ञ करूंगा, जितनाजितना धन मैं प्रत्येक ऋत्विज् को दूंगा उतनाउतना आप सबको भी दूंगा, तब तक आप प्रतीक्षा कीजिये और यहां निवास कीजिये।

 

उपर्युक्त श्लोक का अर्थ निम्नलिखित हैः-

 

मेरे जनपद अर्थात् राज्य में कोई चोर है, कंजूस स्वामी और वैश्य है कोई शराब पीने वाला है कोई यज्ञकर्मों से रहित है, कोई अविद्वान् है। कोई मर्यादा का उल्लंघन करके स्वेच्छाचारी है, स्वेच्छाचारिणी तो हो ही कैसे सकती है।

 

इस श्लोक में कही गई बातों का अभिप्राय यह है कि आत्मज्ञ और ब्रह्मज्ञ शासक ही, प्रजाजनों को उत्तम शिक्षा देकर, उन्हें सामाजिक तथा धार्मिक भावनाओं से सम्पन्न कर सदाचारी बना सकते हैं।” हमारा अनुमान है कि आज पूरे विश्व में एक भी आत्मज्ञ एवं ब्रह्मज्ञ शासक नहीं है। यह उन्नति नहीं अपितु अवनति का प्रतीक है।

 

राजा अश्वपति ने जो घोषणा की, उसके अनुसार उनके देश केकय में तब तक कोई नागरिक चोर नहीं था अर्थात् उनके राज्य में चोरी नहीं होती थी। दूसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक कंजूस नहीं था। तीसरी विशेषता थी कि कोई नागरिक शराब नहीं पीता था। चैथी विशेषता उन्होंने यह बतायी कि कोई नागरिक यज्ञ कर्म न करने वाला नहीं है अर्थात् प्रत्येक नागरिक प्रतिदिन प्रातः सायं वेदाज्ञानुसार यज्ञ करता है। कोई प्रजाजन अविद्वान नहीं है अर्थात् सभी वेदों के ज्ञान से सम्पन्न हैं। ऐसा भी कोई नागरिक नहीं था जो मर्यादा का उल्लंघन करे अर्थात् स्वेच्छाचारी हो। जब स्वेच्छाचारी व चारित्रिक पतन वाला एक भी पुरुष ही नहीं था तो स्वेच्छाचारिणी स्त्रियां तो होने का प्रश्न ही नहीं था। हम जब इस श्लोक को पढ़ते हैं और संसार की वर्तमान स्थिति को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि संसार का पतन किस सीमा तक हुआ है। यह भारत के मूल निवासी आर्य राजा की घोषणा है जब इस देश में सभी निवासी आर्य थे, कोई आदिवासी या आर्येत्तर वनवासी जैसा भेद नहीं था। आर्य बाहर से आये, यह महाझूठ अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए प्रचारित किया था जिसे आज के अज्ञानी व विदेशियों के उच्छिष्ठ भोजी भी अपने स्वार्थ के लिए यदा कदा प्रयोग करते रहते हैं। हमें ऐसे लोगों के बुद्धिमान व मनुष्य होने भी सन्देह होता है। आज हम भारत को आदर्श, स्वावलम्बी व समृद्ध राष्ट्र बनाने की बातें तो करते हैं परन्तु महाराजा अश्वपति के राज्यकाल के एक भी गुण को वर्तमान के नागरिकों में शत प्रतिशत स्थापित करने का हमारा किंचित संकल्प नहीं है। यह बात अलग है कि वैदिक धर्मी आर्यसमाजी अनेक मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो आज भी शत-प्रतिशत इन नियमों व आदर्शों का पालन करते हैं। हमें लगता है कि यह श्लोक आदर्श राज्य का नमूना प्रदर्शित करता है जो प्राचीन काल में न केवल कैकय में अपितु सर्वत्र भारत में लाखों व करोड़ो वर्ष तक रहा है। आज का भारत कैसा है, इसे आज के समाचार पत्रों व टीवी समाचारों सहित हमारी लोकसभा में होने वाली घटनाओं को देखकर जाना जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना न केवल इस श्लोक में वर्णित प्राचीन भारत के आदर्श के अनुरुप देश को बनाने की थी अपितु वह पूरे विश्व को ही इसके अनुरुप बनाना चाहते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं वेदभाष्य आदि ग्रन्थों की रचना भी इसी अभिप्राय से की थी। ऐसा भारत व विश्व ही आदर्श रामराज्य कहा जा सकता है। महर्षि दयानन्द का स्वप्न भविष्य में कभी साकार होगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता परन्तु हम महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के अनुयायियों का आदर्श ऐसा ही राज्य हो सकता है। हम शतपथब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषदकारों को इस श्लोक को प्रस्तुत करने के लिए उनका अभिनन्दन करते हैं। यदि एक वाक्य में कहा जाये तो इस श्लोक के बारे में यह कहा जा सकता है कि कैकय राज्य के समान भारत को बनाने के लिए सभी मनुष्यों को सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा, प्रत्येक पल-क्षण, उद्यत रहना चाहिये। वेदमन्त्र ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्नासुव।। अर्थात् ईश्वर हमारी समस्त बुराईयों, दुःखों व दुव्र्यस्नों को हमसे दूर करे और हमारे लिए जो भद्र वा कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं वह सब हमें प्राप्त कराये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121