Category Archives: वेद विशेष

हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो


हे प्रभु हमारे मन में प्रकाश बढ़ा दो
डा . अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा ने जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता दी है जबकि किये गए कर्म का फल अपने हाथ रखा है । जीव सदा सुखों की कामना करता है । उसकी यह कामना होती है कि संसार के जो भी सुख हैं , तत्काल उसे मिल जावें किन्तु कुछ भी न करना पड़े । मानव पूरा समय ऐसे काम करते जाता हैं ,जिसका फल केवल और केवल अन्धकार ही होता है , फिर कैसे मानव अपने जीवन में सुखों की , प्रकाश की अभिलाषा रखता है । जब बीज ही मिरची के डाल रहे हैं तो गुड कैसे मिलेगा ? जब कि अनथक प्रयास , मेहनत मानव को सुख प्रदान कर देते हैं, अपार अन्धकार हो, तो भी प्रकाश की रश्मियाँ सब और फैलती हैं । सामवेद का मन्त्र भी इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है :
अग्न : आयाही वीतये ,
गृणानो हव्यदातये ,
नि होता सत्सि बर्हिषि ।। सामवेद 1 ||
संक्षेप में हमें मन्त्र यह सदेश दे रहा है कि जब मानव ह्रदय में प्रभु का प्रकाश हो जाता है तो उसके अन्दर से अन्धकार स्वयमेव ही भाग जाता है , दूर हो जाता है , निकल जाता है । इस प्रकार प्रकाशित ह्रदय को सन्मार्ग की प्रेरणा देते हुए प्रभु अपने सेवकों के बंधनों को कर्मों के फल को देते हुए , कर्म के बंधनों से मुक्त करते हुए , सब बंधनों को काट देते हैं । जब ह्रदय वासना से शून्य हो जाता है , वासना से शुन्य हो जाता है , तब ही विश्व के उस महा उपदेशक अर्थात परमपिता परमात्मा की प्रेरणा के शब्द कानों में आते हैं ।
मन्त्र में कहा गया है कि हे प्रभु ! आप अग्नि होने के नाते अपने भक्तों को आगे ले जाते हैं, मोक्ष की और ले जाने वाले हैं । यही कारण है कि आपको अधिकांशतया अग्नि के नामसे ही पुकारा गया है । जिस प्रकार अग्नि सबको प्रकाशित कर आगे ले जाती है , उस प्रकार ही आप भी जीव को उसके कर्मों के अनुरूप फल देकर उसे आगे ले जातें हो , प्रकाश देते हो । मानव जीवन का यह लक्ष्य है कि वह आगे बढे , प्रगति को प्राप्त हो । अतः मानव जीवन में निरंतर प्रगति पाने के लिए, उन्नति के लिए , प्रकाश प्राप्त करने के लिए निरंतर कर्म कर रहा है तथा प्रभु भी मानव से निरंतर कह रहा है कि ” हे मानव ! तूने मोक्ष को पाना है किन्तु यह तब ही मिलेगा जब तेरे पर मेरी कृपा होगी ” । प्रभु की कृपा को पाने के लिए हम ने प्रयत्न करते हुए अच्छे कर्म करते , दूसरों की सहायता करते हुए उस प्रभु से हमारे ह्रदय के अन्धकार को दूर कर प्रकाश देने, ज्ञान देने की प्रार्थना करते है । जब हमारे में प्रभु के प्रकाश की ज्योति जग उठेगी तो वहां अन्धकार कैसे रह सकेगा ? प्रकाश में तो अन्धकार किसी भी अवस्था में रह ही नहीं सकता । प्रभु से प्राप्त ज्योति में, प्रकाश में सब प्रकार के अन्धकार, सब प्रकार के दोष दूर प्रकार के हो जाते हैं ।
जब मानव के जीवन से अन्धकार नष्ट हो जाता है , प्रकाश की ज्योति जग जाती है तो मानव को एक अन्य इच्छा होती है , इस इछा को कल्याण के नाम से जाना जाता है । अब मानव कल्याण चाहता है । इस निमित मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु ! आप भक्तों के बन्धन को काटने का कार्य भी करें । वह जीव ही हव्य कहे जा सकते हैं , जो प्रभु में शरद्धा तथा विश्वास रखते हैं । जब तक प्रभु में विश्वास ही नहीं तब तक उसकी उपासना नहीं की जा सकती तथा बिना उपासना के प्रभु का आशीर्वाद नहीं मिल सकता । इसलिये प्रभु में पूर्ण विश्वास रख कर उसकी उपासना करने से प्रभु उसके आह्वान को सुनेंगे तथा उसके कृपा पात्र बनकर उसे कु छ देंगे । पारम्पिता परमात्मा उसके ही बंधनों को काटते हैं,जो सच्छे ह्रदय से उस का भक्त हो अन्य के नहीं । अत: उस प्रभु की कृपा को पाने के लिए सच्चे मन से उस का भक्त बनना होगा, उस प्रभु को स्मरण करना होगा,उस प्रभु के समीप जाना होगा,उसे अपना बनाना होगा, तब ही उसके आशीर्वाद से हमारा कलयाण होगा ।
मन्त्र जिस तीसरे तथ्य की और इंगित कर रहा है ,वह है कि हमें यह सब देकर प्रभु हमारे ह्रदय पर शासन करे, ह्रदय में निवास करे, ह्रदय में विराज हो । अत: हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं कि हे सृष्टि के महान उपदेशक प्रभो ! जिस मानव ने आप का सानिध्य प्राप्त कर , जिस मानव ने आपकी उपासना कर, जिस मानव ने सद्कर्म कर आप का विश्वास प्राप्त किया है तथा अपनी वासनाओं को, अपने अज्ञान को, अपने अन्धकार को नष्ट कर लिया है , उस के ह्रदय रूपी अंतरिक्ष में अर्थात यह सब दूषण निकल जाने के पश्चात उन के ह्रदय में जो आकाश रूपी खाली स्थान बना है , उसमें आप निरंतर तथा सदा के लिए विराजमान हों, वहां आप अपना निवास बनावें। आप इस स्थान पर ही सदा अपना आसन रखें । अत: आप इस स्थान पर निवास करें, विराजमान होवें । हम सब जानते हैं कि वह प्रभु पवित्रता को ही पसंद करते है । जहाँ पवित्रता होती है, प्रभु स्वयमेव्व ही  डेरा वहां डाल लेता है । जब हमारे हृदय से सब प्रकार के कलुष, सब प्रकार की कुवृतिया, सब प्रकार के क्लेश तथा सब प्रकार के अन्धकार नष्ट हो जावेंगे तो वह प्रभु निश्चय ही वहां अपना आसन जमा कर हमें प्रकाश देते हुए दर्शन देगा । इस प्रकार उस प्रभु के संपर्क में आकर हमें अनेकविध शक्ति प्रदान करता है । अत: यह शक्ति प्राप्त करने के लिए हमें अपने अन्दर को धोना है, सब क्लेशों से रहित करना है , कल्याण के मार्ग्ग पर आना है तथा प्रभु का हमारे अन्दर निवास हो सके अपने आप को इस योग्य बनाना है , तब ही हम आगे बढ़ सकेंगे ।
डा . अशोक आर्य
104 ..शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी ,
201010 जिला गाजियाबाद
चल्वार्ता : 09718528068

सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है

ओउम
सोमपान से हमारा जीवन स्वादिष्ट होता है
डा अशोक आर्य
ऋगवेद का नवं मण्डल का ऋषि ” मधुच्छन्दा विश्वामित्र:” है ,जबकि इस वेड का प्रारम्भ भी इसी ऋषि के सूक्त से ही हुआ है । इस में सोम के रक्षण की कामना की गयी है । सोम से अभिप्राय शक्ति से होता है । अत: यश पुर का पूरा सूक्त सोम से ही सम्बन्ध रखते हुए सोम के विभिन्न कार्यों व शक्तियों का उल्लेख करते हुए सोम की रक्षा करने का आह्वान करता है । यह सूक्त बताता है कि सोम मधुर होता है तथा इस का संग्रह करने वाला भी सदा मधुर ही होता है , मधुर ही बनाता है । मधुर भाषी तथा मधुर व्यवहारी होने के कारण वह सदा दूसरों के हित की ही सोचता है अहित की कभी कामना नहीं करता । इस प्रकार की इच्छा रखते हुए वह इस सूक्त के प्रथम मन्त्रके माध्यम से प्रार्थना करता है कि सोम हमारे जीवन को मधुर, स्वादिष्ट तथा मदिष्ट बनाता है । इसलिए हम जितेन्द्रिय बनें तथा सोम को अपने शारीर में ही संभालें ,व्याप्त रखें ।इस सूक्त में कुल दस मन्त्र हैं , जिनके माध्यम से इसे प्रकाशित किया गया है । प्रथम मन्त्र में इस तथ्य को इस प्रकार प्रकात्किया गया है : –
1. स्वादिष्ठया मदिष्ठ्या पवस्व सोम धारया ।
इन्द्राय पातवे सूत : ।। ऋगवेद 9.1.1. ।।
2. सोम रोगनाशक ,ज्ञानवर्धक है तथा शारीर मेंलोह्कण व् रुधिर को बढ़ता है
रक्षोहा विशवचर्श्निरभी योनिमयोहतम ।
दृणउनां सधस्थमासदत ।। साम 9.1.2 ।।
3. रक्षित सोम हमें उदार्वृति वाला बनाता है जिससे हम सुपथ पर चलते हैं
वरिवोधातमो भव मन्हीश्ठो वृत्रहन्तम: ।
पर्षि सधो मघोनाम ।। साम 9.1.3 ।।
4. सोम्रक्षण से ज्ञान व पवित्रता से हम देव बनते हैं,शक्ति व यश मिलता है
अभ्यर्श महानां देवानां वीतिमन्धसा ।
अभि वाजमुत श्राव: ।। सैम 9.1.4 ।।
5. सोमारक्षण से सब कामनाएं पूर्ण होती है
त्वामच्छा चरामज्सि तदिदर्थं दिवे दिवे ।
इन्दो तवे न आशस:।। सोम 9.1.5 ।।
6. श्रद्धा से सोम पवित्र होकर हमें बल तथा स्फुर्तियुक्त शक्ति देता है
पुनाति ते परिस्त्रत्न सोमं सूर्यस्य दुहिता ।
वारेण शश्वता ताना ।। साम 9.1.6 ।।
7. बुद्धि इन्द्रियों से सोम रक्षण कर विषयों से उठ उचक ज्ञान पावें
तमोमन्वी: समर्य आ ग्रभ्नन्ति योषनो दश ।
स्वसार: पार्ये दिवि ।। साम 9.1.7 ।।
8. सोम त्रिधातु वारण मध्य है ,उन्नतिपथ पर चलने से रक्षण होता है
तमीं हिन्वन्त्यग्रुवो धमन्ति बाकुर्ण द्रतिम ।
त्रिधातु वारण मधु ।। साम 9.1.8 ।।
9. स्वाद्याय से सोमारक्षण तथा बुद्धि तीव्र होती है
अभी3ममध्न्या उत श्रीनंती धेनव: शिशुम ।
सोममिन्द्राय पातवे ।। साम 9.1.9 ।
10. हम जितेन्द्रिय व दानी बनें
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा विश्वा वृत्रानी जिघ्रते ।
शूरो मघा च महते ।। साम 9.1.10 ।।
इस प्रकार इस सूक्त के कल दस के दस मन्त्रों में सोम रक्षण पर बल दिया है यह्सोम हमारी शक्ति को बढ़ा कर हमें मधुर भाषी व बलशाली बनाता है । मधुर भाषी व बलाशाली बनने से हम अत्यधिक महानता से धनोपार्जन कारते हैं । इसा धन से हमारी सब आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं तथा हम शेष धन से दूसरों की सहायता करते है तथा खूब स्वाध्याय कर अपने ज्ञान को भी बढाते हैं । इससे हमारे धन एशवर्य के साथ ही साथ यस व् कीर्ति भी दूर दूर तक जाते हैं । हमारे सब रोग भी छुट जाते है तथा हम सदा स्वस्थ रहते हैं । स्वस्थ होने से हमारे कार्य की गति भी बढाती है ।
उपार हमने मूल मन्त्र दिए हैं । इनकी अलग अलग व्याख्या नहीं कर पाए । केवल भाव ही दिया है ।

डा अशोक आर्य
104 -शिप्रा अपार्टमेंट , कौशाम्बी 201010 गाजियाबाद
चलावार्ता : 09718528068
E MAIL ashokarya1944@rediffmail.com

अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है

ओउम
अच्छे काम करने से आयु लम्बी होती है
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक प्राणी की अभिलाषा होती है कि वह लम्बी, अत्यंत लम्बी आयु प्राप्त करे | आयु लम्बी ही नहीं सुखमय भी हो | दु:खों से भरी छोटी सी आयु भी जीवन को जीने का आनंद प्राप्त करने नहीं देती | दु:खों से भरा प्राणी सदा इस संसार से छुटकारा पाना चाहता है | जब आयु सुखों से भरी हो तो कितनी भी लम्बी हो , इस में प्राणी प्रसन्न ही रहता है | इस लिए ही वह सुखों से भरपूर दीर्घ आयु की कामना करता है | दीर्घ आयु के अभिलाषी को कर्म भी ऐसे ही करने होते हैं , जिस से वह प्रसन्न चित रह सके , द्रश्य भी ऐसे देखने होते हैं , जो उस की प्रसन्नता को बढ़ा सके | संवाद भी ऐसे सुनने होते हैं , जो उस की खुशियों को बढ़ा सकें | बोलना भी एसा होता है, जो अच्छा हो ताकि प्रतिफल में उसके कानों में संवाद भी अच्छे ही पड़ें | इस निमित ऋग्वेद के मन्त्र १.८९.८ तथा यजुर्वेद के मन्त्र २५.२१ ; सामवेद के मन्त्र १८२४ ; तैतिरीय ; आर. १.१.१ में बड़ा सुन्दर उपदेश किया गया है : –
भद्रं कर्णेभी: श्रुणुयाम देवा ,
भद्रं पश्येमाक्श्भिर्यजत्रा |
स्थिरैरंगेर्स्तुश्तूवान्सस्तानुभी –
व्यशेमही देवहितं यदायु: || ऋग्वेद १.८९.८ ; यजुर्वेद २५.२१;
सामवेद १८२४ ;तैतिरीय ;आर.१.१.१ .||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा:) हे पूजनीय ( देवा: ) देवो ! ( कर्नेभी:) हमारे कानों में (भद्रं) मंगल (स्रुनुयाम) सुनें (अक्षभि:) आँखों से (भद्रं) अच्छा (पश्येम) देखें (स्थिरे) पुष्ट (अन्गई) अंगों से (तुश्तुवान्सा) स्तुति कर्ता (तनुभी:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के हितकर (यात आयु:) जो आयु है उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
यह मन्त्र दो बातों पर विशेष बल देता है | यह दो बातें ही मानव जीवन का आधार है | यह दो अंग ही मानव का कल्याण कर सकते हैं तथा यह दो अंग ही मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा सकते हैं | यदि हम इन दोनों को अच्छे मार्ग पर ले जावेंगे , सुमार्ग पर लेजावेंगे , अच्छे कार्यों के लिए प्रयोग करेंगे तो हम जीवन का उद्देश्य पाने में सफल होंगे | अन्यथा हम जीवन भर भटकते ही रहेंगे , कुछ भी प्राप्त न कर सकेंगे | यह दो विषय क्या हैं , जिन पर इस मन्त्र में प्रकाश डाला गया है , यह हैं : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छा ही सुनें
२. हम अपोअनी आँखों से सदैव अच्छा ही देखें
विश्व का प्रत्येक सुख इन दो विषयों से ही मिलता है | हमारी शारीरिक पुष्टि भी इन दो कर्मों से ही होती है | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सुख की खोज मैं भटक रहा है किन्तु वह जानता नहीं की सुख उसे कैसे मिलेगा ? | हम यह भी जानते हैं कि इस सृष्टि का प्रत्येक प्राणी सदा प्रसन्न रहना चाहता है किन्तु वह यह नहीं जानता की प्रसन्न रहने का उपाय क्या है ? जीवन पर्यंत वह इधर से उधर तथा उधर से इधर भटकता रहता है किन्तु न तो उसे सुख के ही दर्शन हो पाते हैं तथा न ही प्रसन्नता के | हों भी कैसे ? जहाँ पर सुख से रहने का , प्रसन्नता से रहने का साधन बताया गया है , वहां तो जा कर खोजने का उस ने उपाय ही नहीं किया | वेदों के अन्दर यह सब उपाय बताये गए हैं किन्तु इस जीव ने वेद का स्वाध्याय तो दूर उसके दर्शन भी नहीं किये | किसी वेदोपदेशक के पास बैठ कर शिक्षा भी न पा सका | फिर उसे यह सब कैसे प्राप्त हो ? वेद कहता है कि हे मानव ! यदि तू सुखों की कामना करता है , यदि तू जीवन में प्रसन्नचित रहना चाहता है , यदि तू हृष्ट पुष्ट रहना चाहता है , यदि तू दीर्घ आयु का अभिलाषी है तो वेद की शरण में आ | वेद तुझे तेरी इच्छाएं पूर्ण करने का उपाय बताएगा | प्रस्तुत मन्त्र में भी मानव को सुखमय , संपन्न व प्रसन्न – चित रहने के उपाय बताये हैं |
यदि मानव आजीवन सुखी रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन प्रसन्न रहना चाहता है , यदि मानव आजीवन निरोग व स्वस्थ रहना चाहता है तो उसे अपने आप को कुछ सिद्धांतों के साथ जुड़ना ही होगा , कुछ नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | बिना नियम बध हुए कोई भी कार्य सफल नहीं होता , संपन्न नहीं होता | कर्तव्य परायण व्यक्ति , दृढ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह नियम अत्यंत ही सरल होते हैं किन्तु कर्म से जी चुराने वाले के लिए , पुरुषार्थ से भागने वाले आलसी के लिए यही नियम ही कठोर बन जाते हैं , जिन्हें करने से वह जी को चुराता है | किसी को चाहे यह नियम कठोर लगें या किसी को सरल किन्तु सुख की कामना के लिए,, प्रसन्नता पूर्ण जीवन की प्राप्ति के लिए , निरोग शरीर को पाने के लिए तथा लम्बी आयु के लिए इन नियमों का पालन आवश्यक है | इसके बिना कोई अन्य मार्ग उसके पास नहीं है | बस इस के लिए अपने पास अच्छे व सुलझे हुए विचारों का स्वामी होकर मन को अपने वश में रखना होगा ,इन्द्रियों को वश में करना होगा तथा अपने में सात्विक भाव जगा कर कर्मशील होना आवश्यक है | यदि हम स्वयं को इस प्रकार चला पाने में सफल होते हैं तो मन्त्र में वर्णित नियम हमें सरल ही लगेंगे | यदि हमारा मन ही हमारे वश में नहीं है , यदि हमारे विचार ही विश्रन्खल हैं , यदि हमारा अपनी इन्द्रियों पर ही अधिकार नहीं है तथा हम में कोई सात्विक भाव ही नहीं है तो सुखों की आराधना के लिए जो नियम बनाए गए हैं, वह अत्यंत कठोर लगेंगे | जो इन नियमों को अपने जीवन में अंगीकार कर लेगा , वह सुखी व प्रसन्न होगा, धन ऐश्वर्यों का स्वामी होगा तथा लम्बी आयु पाने का अधिकारी होगा अन्यथा भटकता ही रहेगा |
कठोर अनुशासन के बंधन में बंधे बिना कभी कोई उपलब्धि नहीं मिला करती | सफलता सदा उसी को ही मिलती है जो कठोरता से नियमों के पालन का व्रत लेता है | अत- स्पष्ट है की जीवन में कठोर अनुशासन लाये बिना , नियमों का कठोरता से पालन किये बिना न तो सुख मिल सकता है न ही समृद्धि | यदि सुख , समृद्धि ही नहीं पा सके तो प्रसन्नता कहाँ से होगी | फिर प्रसन्नता के बिना लम्बी आयु भी संभव नहीं | अत: लम्बी आयु की कामना करने वालों को कठोर नियमों के बंधन में बंधना ही होगा | प्रस्तुत मन्त्र भी इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है | मन्त्र कहता है कि : –
१. हम अपने कानों से सदा अच्छी बातें ही सुनें | अच्छी चर्चा से मन प्रसन्न होता है | प्रत्येक मानव जो भी कार्य करना चाहता है , वह अपनी प्रसन्नता के लिए ही करता है | अत: अपनी प्रसन्नता के लिए अच्छी चर्चाओं को ही सुनना चाहिए | अच्छी चर्चा को सुनकर मन को प्रसन्नता मिलेगी | प्रसन्न मन सदा राग – द्वेष से दूर रहता है | अत: राग – द्वेष के रोग से भी छुटकारा मिलेगा | ह्रदय के शांत बनने से जीवन में पवित्रता आवेगी | जिस का जीवन पवित्र है उसको सदा अच्छे मित्र अथवा सहयोगी मिलते हैं , जिससे उसकी ख्याति सर्व दिशा में फ़ैल जाती है |
२. मन्त्र कहता है कि हम यदि सुखी, संपन्न व प्रसन्न और स्वस्थ रह कर लम्बी आयु पाना चाहते हैं तो आँखों से सदा अच्छे दृश्य ही देखें | अच्छे दृश्य देखने की अभिलाषा रखने वाले की आँख कभी कुवासना , दूषित मनोवृति के दृश्य देखना पसंद ही नहीं करेगी | दूसरे शब्दों में एसा व्यक्ति स्वयमेव ही कुवासना तथा दूषित मनोवृति को अपने पास आने ही नहीं देगा | जब हम कुवासना से रहित होंगे | गंदे व दूषित वातावरण से दूर रहेंगे तो हमें मित्र , सहयोगी व प्रिय लोगों के ही दर्शन होंगे | ऐसे सहयोगी मिलेंगे , ऐसे मित्र मिलेंगे जो इन दु:खो क्लेशों से दूर रहते हुए शुद्ध मन के निर्माण के लिए शद्ध भावना रखते होंगे | जब हमारा अनुगमन व मार्ग दर्शन ऐसे स्वच्छ साथियों के हाथ में होगा तो हमारे में घृणा व कटुता की कोई भावना आ ही नहीं सकेगी | मात्सर्य तथा मनोमालिन्य के अवसर कभी आवेंगे ही नहीं | उत्तम मित्रों में बैठ कर प्रत्येक क्षण उत्तम चर्चाएँ होने से कानों में सदैव मधुर स्वर ही पडेंगे ऐसे मित्रों के साथ यात्रा भी करेंगे तो आँखें भी सदा सुन्दर दृश्य ही देख पावेंगी क्योंकि सद्मित्र कभी बुरा नहीं देखते |
स्पष्ट है की इन दोनों नियमों के पालन से हमारे संयम को पुष्टि मिलेगी | संयम पुष्ट होने से शरीर स्वस्थ रहेगा | जब शारीर स्वस्थ व निरोग होगा तो मन प्रसन्न रहेगा | स्वस्थ शरीर व प्रसन्न मन ही दीर्घ आयु का आधार होते हैं | इस प्रकार इन दो नियमों के पालन का परिणाम ही दीर्घ आयु की प्राप्ति है | जब मात्र दो नियमों के पालन से हमें सुख , समृद्धि , पुष्टि , संयम , स्वास्थ्य , निरोगता , प्रसन्नता व दीर्घायु के साथ ही साथ अच्छे मित्र व सहयोगी भी मिलेंगे , यश व कीर्ति भी मिलेगी तो इन्हें अपनाने से कौन इंकार करेगा | जब एक साथ इतना कुछ मिलेगा तो इस नियम पालन से हम परहेज कैसे कर सकते हैं ? निश्चय ही पालन करेंगे

डा. अशोक आर्य १०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद उ.प्र.
चलभाष : ०९७१८५२८०६८

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों

ओउम

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों
डा. अशोक आर्य ,
माता पिता सदा संतान का सुख चाहते हैं | संतान का पालन करते हुए कोई भी माता या पिता प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता | इतना ही नहीं प्राय: सब माता पिता अपने बच्चों का हट चाहते है तथा उन्स म्र्दुभाषा में ही बात करते हैं | यह माता पिता का यूँ कहा जा सकता है की संतान के लिए एक महान दान है | दुसरे सब्दों में हम कह सकते हैं कि यह माता पिता कि दान कि प्रवृति है | एक प्रकार से बच्चों का पालन अराते हुए जब बिना किसी प्रतिफल कि भावना से बच्चों का भरण पोषण करते हैं , उनकी सब आवस्यकताओं को पूरा करते हैं , उनको सुशिक्षा देने कि न केवल व्यवस्था जी करते हैं अपितु उनकी से ऊँची शिक्षा दिलाने का भी प्रयास करते हैं | सदा उनसे मीठा ही बोलते हैं | इस प्रकार माता पिता के सम्बन्ध में ऋग्वेद के अध्याय ५ मंडल ४३ के मन्त्र २ में इस प्रकार कहा गया है : –
आ सुष्टुति नमसा वर्तायध्ये ,
द्यावा वाजाय पृथ्वी अम्रिघ्रे |
पिता माता मधुवचा: सुहस्ता
भरेभरे नो यशासावविष्टाम || ऋग्वेद ५.४३.२ ||
शब्दार्थ : –
( अहं } मैं (सुष्टुति } उत्तम स्तुति से (नमसा) नमस्ते से (अम्रिध्रे )अजेय (द्यावा पृथ्वी) द्युलोक ओर पृथ्वी (वाजाय) बल या शक्ति हेतु (आ वर्त्यध्ये इच्छामि ) अपनी ओऊ लाने कि इच्छा से (यशसौ } यशस्वी (पिता माता ) पिता माता सम (म्रिधुवचा:) मीठा बोलने वाले (सुहस्ता ) सुन्दर हाथ वाले (भरे भरे ) प्रत्येक संकट मैं (न:) हमारी (अविष्टाम) रक्षा करें |
इस मन्त्र में माता पिता के कर्तव्यों का बड़े ही सुन्दर व सरल ढंग से उल्लेख किया गया है | मन्त्र कहता है कि माता पिता सदा मधुर बोलें , बड़े ही सुन्दर ढंग के दानी बनें, वह यशस्वी हों तथा संकट में पड़े अपनी सन्तान की रक्षा करें | यह माता पिता के मुख्य कर्तव्य इस मन्त्र में बताये गए हैं | |

मन्त्र कहता है कि माता पिता मधुर भाषी हों | मधुर भाषण से हमें अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है | जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव प्रसन्न रहता है | यह मीठा बोलने की विशेषता है कि जो मीठा बोलता है , उसे किसी के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता| इसलिए उसे कोई कष्ट होता ही नहीं | जब कष्ट नहीं होता तो वह सदा प्रसन्न ही तो रहेगा | न तो उसे कोई दु:ख होगा तथा न ही उसे कोई तंग करेगा जिससे उसकी प्रसन्नता निरंतर बढती चली जाती है | अत: स्पष्ट है की म्रदुभाशी सदा प्रसन्न रहता है | जब वह मीठा बोलता है तो उसके वचनों से किसी को भी कष्ट नहीं होता अपितु उसके वचनों से सुख ही मिलता है | जिस के द्वारा किसी को सुख मिलता है तो वह निश्चित रूप से उसकी अच्छई कि चर्चा अनेक स्थानों पर करता है | इस प्रकार उसकी ख्याति भी दूर दूर तक फैलाती है | इस का नाम है वशीकरण | अर्थात मीठा बोलने से सब लोग स्वयं ही उस कि और खींचे चले आते हैं | इसा के अतिरिक्त मीठा बोलकर जीतनी सरलता से दुसरे को जीता जा सकता है, जीतनी सरलता से दुसरे को अपने बश में किया जा सकता है , उतनी सरलाता से दुसरे को वश में करने का कोई एनी उपाय नहीं | अत: मीठा बोलने को वशीकरण मन्त्र भी कहा जा सकता है और मीठा बोलने से संतान सुसंतान बनाकर माता पिता का अनुगमन करते हुए माता पिता के सामान ही मृदुभाषी बनेगी |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कोशाम्बी
जिला गाजियाबाद ,उ.प्र.
चल्वार्ता :: ०९७१८५२८०६८

देशभक्त और यशस्वी हों ..

ओउम
देशभक्त और यशस्वी हों ..
देशभक्ति किसी भी देश के नागरिकों की प्रथम तथा महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है | जब तक देश के नागरिक देशभक्त नहीं, तब तक देश का उत्थान संभव नहीं, देश की उन्नति संभव नहीं , नागरिकों में चरित्र संभव नहीं , यहाँ तक कि किसी का उत्तम भविष्य भी संभव नहीं | एक सफल राष्ट्र की यह प्रथम आवश्यकता होती है कि उस देश के नागरिक देश भक्त हों | जिस देश के नागरिक देशभक्ति में पूर्णतया अनुरक्त हों, वह देश सब प्रकार की उन्नति करते हुए विश्व में एक अग्रणी देश के रूप में उभरता है | प्रत्येक उन्नत देश का अनुगामी बनाने का प्रयास अन्य देश भी करते हैं | ठीक वैसी ही देश भक्ति, वैसे ही उत्पादन, वैसी ही सरकार तथा वैसे ही नागरिक पैदा करने के उदहारण अन्य देशों में दिए जाते हैं | इस प्रकार उस देश की ख्याति भी विश्व भर में बढ़ जाती है | उस के इस यश व कीर्ति को देख कर उस जैसा बनने की प्रेरणा सब देशों में आती है , बस इस का नाम ही यश है, यशस्विता है | अथर्ववेद मैं भी इस तथ्य को स्पस्ट करते हुए कहा है कि : –
ब्रह्म च क्षत्रं च राष्ट्रं च विशश्च,
त्विविश्च यशश्च वर्च्श्च द्रविणम च || अथर्ववेद १२.५.८ ||
हम ब्रह्म शक्ति अर्थात विद्या , क्षात्र शक्ति अर्थात शौर्य देश की उन्नति , उत्तम प्रजा अर्थात वनिक वर्ग, यश, तेज , कांति और धन प्राप्त करें |
इस मन्त्र में प्रभु से समाज व परिवार की उन्नति के लिए आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं , ये हैं – ब्रह्म शक्ति ,क्षात्र शक्ति राष्ट्रीय ,विष ,त्विथी ,यश ,वर्चस और द्रविण .माँगा गया है |
इस मन्त्र में देशभक्ति के तथा यश प्राप्ति के लिए जो आठ वस्तुएं मांगी गयी हैं, उन में से कुछ साधन हैं और कुछ साध्य हैं | . राष्ट्र और प्रजा की उन्नति साध्य है . जहाँ विष अर्थात प्रजावर्ग संतुष्ट है ,सुखी है ,कष्ट क्लेश से रहित है , कोई संकट प्रजा को नहीं सता रहा , वहां का राष्ट्र भी प्रसन्न है | हम जानते हैं कि राष्ट्र के साथ प्रजा का अभिन्न सम्बन्ध होता I. प्रजा अंग है तो राष्ट्र अंगी होता है | प्रजा की समृधि से राष्ट्र की समृद्धि संभव हो पाती है | प्रजा और राष्ट्र की उन्नति के साधन हैं – ब्रह्मशक्ति और क्षत्र शक्ति | . जहाँ ज्ञान और शौर्य प्रबल होंगे , जहन विद्वान तथा शक्तिशाली लोग होंगे वहां सब प्रकार की उन्नति होगी | इसलिए मन्त्र के प्रारम्भ में ही इन ब्रह्म और क्षात्र सब्दों को अथवा शक्तियों को रखा गया है . ब्रह्म और अर्थात ब्राह्मण अर्थात विद्वान् लोग अर्थात शिक्षा का प्रसार करने वाले लोग तथा क्षात्र अर्थात देशा के रक्षक अथवा सैनिक व सरकार उन्नत है तो वह राष्ट्र और प्रजा को भी उन्नत करेंगे | यदि यह सुस्त हैं, उन्नति की और बढने के अभिलाषी नहीं है , निष्क्रिय है , लालची व स्वार्थी हैं तो देश का डूबना भी निश्छित ही होता है |.
जब ब्रह्म और क्षात्र के आधार पर ही देश ,राष्ट्र व इस के सब समुदाय सुख , वैभव, धन एश्वर्य के स्वामी बन पाते हैं | यदि यह दोनों शक्तियां उन्नत होगी तो ही तो प्रजा में धन की समृधि होगी तथा व धन धन्य से भरपूर हो सब प्रकार के धन एशवर्य की स्वामी बनेगी | समृधि का आधार ब्रह्म और क्षात्रशक्ति का समन्वय ही तो ह्होता है | इन दोनों शक्तियोंका एक ही उद्देश्य होता है, प्रजा को सुखी बनाना | जब प्रजा की समृधि होगी , धन धान्य से भरपूर होगी , सब प्रकार के क्लेशों से मुक्त होगी तब राष्ट्र का भी यश होगा . इस बात की विशव भर में चर्चा होगी कि अमुक देश के लोग कितने संपन्न व कष्ट रहित हैं , हम भी उनके अनुगामी बनें | जब प्रजा के सब व्यक्ति इस प्रकार के यशस्वी होंगे .तो इस यशस्विता का फल होगा कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति में वर्चस और त्विथी उत्पन्न होंगे . त्विथी दे एप्ती या काँटी है . इससे स्फूर्ति आती है . ओजस और वर्चस को इस काँटी का कर्ण बताया है |.
ऋग्वेद में भी कहा है …
तिथ्ती दधान ओजसा | ऋग्वेद . ९ .३९ .३
इस सब से स्पस्ट होता है कि प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति, समृद्धि , सुरक्षा का आधार उस देश कि ब्रह्म शक्ति तथा उस देश कि \क्षात्र शक्ति होती है | ब्रह्म शक्ति देश को शिक्षित करने वाले लोगों से बनती है | इन लोगों की अवस्था जैसी होगी , भाविष्य भी उस प्रकार का ही बनेगा | यह लोग सुखी व क्लेश रहित हैं तो इस से शिक्षा पाने वाले समुदायों को यह लोग अच्छी शिक्षा दे पावेंगे , जिस से सब वर्ग सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बनेंगे | यदि यह समुदाय निर्धन है, बेसहारा है, दु:खी है तो अन्यों को क्या ख़ाक शिक्षा दे पावेगा | जब स्वयं ही अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संघर्ष में लगा रहेगा तो अन्यों को शिक्षित करने के लिए उसके पास समय ही कहाँ बचेगा | इस लिए ब्रह्मशक्ति का दुःख, कष्ट से रहित होना आवश्यक है |
देश की उन्नति का आधार जो दूसरी शक्ति है उसे क्षात्र शक्ति कहा गया है | इस शक्ति का कार्य देश की व्यवस्था व सुरक्षा का होता है | ईस शक्ति को हम देश की सेना के रूप में जानते हैं | सरकार को भी हम इस श्रेणी में रख सकते हैं | इस का कार्य होता है देश के लोगों के जान व माल की रक्षा न केवल चोर डाकुओं व लुटेरों से करना ही होता है अपितु विदेशी आक्रमण कारियों से भी बचाना होता है | यह कार्य भी वह व्यक्ति ही कर सकता है जो ब्राह्मण के समान ही सुखी व संपन्न होने के साथ ही साथ सब प्रकार की शक्तियों का स्वामी है | यह सब कुछ भी एक सुखी व संपन्न व्यक्ति ही कर सकता है अन्यथा वह स्वयं के परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए संघर्ष करता रहेगा , कई बार तो इन आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए देश में ही लूट आदि के कार्य करने लगेगा , फिर अन्यों का रक्षक, अन्यों का सहयोगी कैसे बन पावेगा ? इस लिए इस समुदाय का भी सुखी व संपन्न होना आवश्यक है ताकि यह अपने कर्तव्यों को आदर सहित संपन्न कर सके |संक्षेप में हम कह सकते हैं कि वह देश, वह राष्ट्र ही सुख संपन्न व धन ऐश्वर्यों का स्वामी बन सकता है जिस के नागरिक सुखी हों तथा उस देश के नागरिक ही सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी बन सकते है ,जिस के विद्या देने वाले तथा रक्षा करने वाले सुखी व धन ऐश्वर्यों के स्वामी हों | इस ल्लिये देश को सुखों व सम्पति से भरपूर बनाने के लिए हमें ऐसे साधन अपनाने होंगे, जिस से ब्रह्मशक्ति व क्षात्र शक्ति सुखी व संपन्न हो ताकि वह अपना पूरा समय प्रजा के सुखों को बढाने व प्रजा की रक्षा करने में ही लगा सके | इस से ही लोग देशभक्त होंगे | देशभक्त ही यश पाते हैं |
डा , अशोक आर्य्य
१०४ – शिप्रा ,अपार्टमेंट, koushaambi ,गाजियाबाद

अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें

ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य ,
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पाकर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४-शिप्रा अपार्टमैंट ,कौशाम्बी
गाजियाबाद , उ. प्र. चलवार्ता : ०९७१८५२८०६८

सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो

ओउम
सब सुखों की प्राप्ति के लिए मन को पवित्र रखो
डा. अशोक आर्य मण्डी डबवाली
मन की पवित्रता की सर्वत्र चर्चा होती है | जिसका मन पवित्र है , वह सत्वादी है, वह धर्मात्मा है , वह परोपकारी है , वह दूसरों का सहायक है उसमें वशीकरण की शक्ति है, इसे व्यक्ति के मन को बुद्धि सदा ही चेतना देती है | एसा मन ज्ञान और कर्म से भरपूर होता है , व् संकल्प शक्ति का केंद्र बन जाता है ,एसा व्यक्ति चिंतनशील, सुविचारों वाला होता है | जब मन के शुद्ध होने से इतने गुणों की प्राप्ति होती है तो क्यों न हम इन सुखों को पाने के लिए मन को पवित्र रखें | यजुर्वेद के अध्याय २ के मन्त्र आठ, अध्याय ८ के मन्त्र १४ तथा अथर्ववेद के अध्याय ६ मंडल ५३ के मन्त्र संख्या ३ के अंतर्गत मन को सर्व सुख दाता बताया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
सं वर्चसा पयसा सं तनुभी –
रागंमही मनसा स गं शिवेन |
त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायो$-
नुमार्ष्तु तन्वो यद् विलिष्तम|| यजुर्वेद २.२४, ८. अथर्वेद ६, .५३.३ .१४||
शब्दार्थ :
( वर्चस ) ब्रहमचारी से (पयसा ) दुग्धादी से (समागंमही) युक्त हो (तनुभी:) स्वस्थ शारीर से (सम अगन्मही) युक्त हो ( शिवेन मनसा ) शांत एवं पवित्र मन से ( सम अगन्मही) युक्त हो (सुदत्र:) शुभ दानी (त्वष्टा ) विधाता (राय:) एश्वर्य (विदधातु ) दे या करे (तंव:) हमारे शरीर का (यत) जो (विलिष्ट्म) न्यून या निर्बल अंग है, उसे (अनुमार्ष्ट्तु ) शुद्ध या ठीक करे |
भावार्थ : –
हे प्रभु हमें ब्रह्मवर्चस और दुग्धादि से युक्त करो | हम स्वस्थ शरीर वाले हों | पिता, हमारा मन भी शुभ हो | हे दानियों के दानी , महादानी प्रभु, हमें एश्वर्य दो | इसके साथ ही साथ हमारे शरीर की न्यूनताओं को दूर करो |
सब प्राणियों की इच्छा रहती है की वह शक्तिशाली हों , बल में कोई उससे आगे न हो | शक्ति के दोनों साधन अर्थात ब्रह्मवर्चस से हम भरपूर हों | इसके लिए दुग्ध आदि पौष्टिक पदार्थों की आवश्यकता होती है , प्रभु हमें दूध , घी, शक्ति वर्धक फल, वनस्पतियों से भरपूर करदो , ताकि हमारे अन्दर ओज पैदा हो, शक्ति की वृद्धि हो तथा हमें कोई पराजित न कर सके | इस मन्त्र में हम परम पिता परमात्मा से यह भी मंगाते हैं कि हे प्रभु, हम स्वस्थ शरीर वाले हों | स्वस्थ शरीर भी ब्रह्मचर्य के सेवन व पोष्टिक पदार्थों के उपभोग से ही बनता है | अत: हम कह सकते हैं कि हम अपनी बात पर बल देते हुए एक बार पुन: ब्रह्मचर्य व धन धान्य की मांग पर बल देते हैं | परमात्मा दानियों का भी दानी होने के कारण महान दानी है | वह बिन मांगे हमारी इच्छाए, आवश्यकताएं पूर्ण करता है | इस लिए हम परम पिता परमात्मा से हमारे शरीर की कमियों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं |
मन्त्र में मन की पवित्रता पर बल देते हुए इस के महत्व का बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया गया है | इस मन्त्र में मानव जीवन के दो लक्ष्य बताये हैं | यह दो लक्ष्य हैं : –

अभ्युद्य तथा नि:श्रेयस
अभ्युदय का भाव समाज में आदरपूर्ण स्थिति से है | यह स्थिति प्राप्त करने के लिए हमें सांसारिक सुख वैभव प्राप्त करना होता है , सांसारिक उन्नति करनी होती है | हमें धन वैभव से संपन्न होना होता है क्योंकि सम्पन्नता के बिना समाज में आदर नहीं मिलता | संसार में आदर पाने के लिए हमें संपन्न होना ही होगा अन्यथा संसार में ख्याति नहीं मिल सकती |
मन्त्र कुछ अभीष्ट बातों की और भी संकेत करता है | इन में कुछ बातें व्यवहारिक हैं ओर कुछ सम्पन्नता से सम्बन्ध रखती हैं | यथा : सुन्दर स्वास्थ्य, ब्रह्मवर्चस , दुग्धादी जिसे आज के युग में धन धान्य से भरपूर होना कह सकते हैं , तथा शुभ व शुद्ध मन का संग्रह करने के रूप में है | प्रसाद गुण की प्राप्ति के लिए मन का शुभ विचारों से भरपूर होना आवश्यक है | प्रसाद गुण की अवस्था में सर्वत्र प्रसन्नता ही प्रसन्नता समझी जाती है | जब मुखमंडल प्रसन्नता की आभा से भरा होगा तो मुख मंडल की दीप्ती, आभा या चमक से सब ओर उसकी ख्याति फ़ैल जावेगी , सब उसी को ही निहारेंगे , उसी को ही देखना चाहेंगे , वैसा ही बनने का संकेत अपने परिजनों को देंगे | इस अवस्था में ही प्रसाद गुण का आघान होता है | इसे ही ब्रहमचर्य कहते हैं |
इस प्रकार का संयमित जीवन बिताने वाला सदैव निरोगी होता है | कोई दू:ख क्लेश उसके पासा नहीं आता | इस प्रकार का संयमी जीवन बिताने वाला ही ब्रह्मवर्चस होता है | इस शक्ति को पाने पर उसके शारीर से रोग के सब अणु या जीवाणु नष्ट हो जाते हैं | रोगमुक्त होने से उस की शारीरिक शक्ति बढ़ जाती है , चेहरे पर एक विशेष प्रकार की आभा आ जाती है | कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा इस क्षमता से जब वह कार्य करता है तो उस के पास धन एश्वर्य के भर पूर भंडार हो जाते हैं , इस प्रकार की श्री व्रद्धी से वह असीमित धन सम्पति का स्वामी बन जाता है |
मन में परम पिता परमात्मा से यह प्रार्थना की गयी है कि परमात्मा हमें एश्वर्य दे तथा शारीरिक न्यूनताओं को दूर करो, यदि कोई न्यूता है तो हमारे मन को पवित्र करो शुभ विचारों वाला बनाओ , शिव संकल्पों से भर दो ताकि हमारी कमियाँ हम पर कभी भारी न हों तथा हम उन्हें दूर करने मैं सक्षम हो सकें |
यदि हम अपने विचारों को शुभ संकल्पों से भर देंगे , ब्रह्मतेज प्राप्त कर लेंगे, मन को पवित्रता से वश में कर लेंगे तो कोई कारण नहीं कि किसी ओर से भी हमारे मन में बुरे विचार आवें, स्वास्थ्य गिरे , कोई कमी नहीं आवेगी तथा हमारी अच्छे कार्यों के करने से हम सदा ही सम्मानित स्थान समाज में प्राप्त करने के अधिकारी होंगे |

डा. अशोक आर्य , मण्डी डबवाली
१०४- शिप्रा अपार्टमैंट , कौशाम्बी
गाज़ियाबाद (उ. प्र. )
चलवार्ता ०९७१८५२८०६८

हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे

ओउम
हम सदा ज्ञान के सागर में डुबकियाँ लगाते रहे
डा अशोक आर्य
ज्ञान से मानव का अंत:करण पवित्र हो जाता है । ग्यानी अर्थात विद्वान की संगति को सब लोग पसंद करते हैं । गयान से ही व्यक्ति सर्वगुण संपन्न बनता है । सब गुणों से संपन्न व्यक्ति को सर्वत्र सम्मान मीलता है , उसकी सलाह पर लोग चलते हैं तथा वह सब का मार्ग दर्शक होता है । इस लिए कहा जाता है कि ज्ञान के समान पवित्रता लाने वाली कोई और वस्तु नहीं है तथा इसे पाने के लिए निरंतर ज्ञान के सागर में गोते लगाने की आवश्यकता होती है । इस तथ्य को ही साम वेद के मन्त्र संख्या 33 में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
शन्नो देवीरभिष्टाए शन्नो भवन्तु पिताये ।
स\श्न्योरभीस्रवन्तु न: ।। सामवेद 33।।
इस मन्त्र में मुख्य रूप से चार बातों पर प्रकाश डाला गया है ।
1) दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों : –
दिव्य बुद्धिया , जिन का निर्माण केवल और केवल ज्ञान से ही संभव होता है , हमें सदा शांति देने वाली हों । जो व्यक्ति ज्ञान का भंडारी होता है । बुद्धि का भरपूर भण्डार अपने पास राखता है , एसा व्यक्ति कभी अशांत नहीं देखा गया, कभी दू:खी नहीं देखा गया । उसके सब दू:ख क्लेष क्षणों में ही दूर हो जाते हैं । बुद्धि की सहायता से वह अपने प्रत्येक संकट का कोई न कोई मार्ग निकाल ही लेता है । इसलिए इस मन्त्र में सर्व प्रथम कहा गया है कि हम दिव्य बुद्धियों के स्वामी बनें तथा यह दिव्य बुद्धियाँ हमें शान्ति देने वाली हों ।
मानव सदा अपना जीवन सुखी व शान्ति से भरपूर बनाना चाहता है किन्तु अनेक प्रकार की व्याधियां उसे सुखी नहीं होने देतीं , कोई न कोई संकट उसके मार्ग में सदा खड़ा रहता है । इन संकटों से पार पाने के लिए उसे बुद्धि की आवश्यकता होती है , ज्ञान की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि तथा यह ज्ञान ही उसे संकटों में से रास्ता निकाल कर शान्ति की और ले जाता है । अत: वास्तविक सुख व शान्ति पाने के अभिलाषी मानव को ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदा यत्न शील रहना चाहिए । यह भी कहा जाता है कि पूर्ण अज्ञानी होने से भी शान्ति मिलती है , इस शान्ति को तामस निश्चलता कहते हैं । इस प्रकार की शान्ति में कभी सुख का अनुभव नहीं होता । अत: यह ज्ञान का मार्ग ही है जिससे हमें सुख मिलता है । इस लिए हमें सदा ज्ञान प्राप्ति का यत्न करते रहना चाहिए ।
2) बुद्धियों के प्रयोग से हम सदा निरोग हों : –
मन्त्र में कथित दूसरी चर्चा के अंतर्गत कहा गया है कि दिव्य बुद्धियां हमें आसुरी भावनाओं से भरपूर आक्रमणों से रक्षा करने के लिए सदा आसुरी प्रव्रितियों से युद्ध करती रहती हैं । इस से स्पष्ट होता है कि दिव्य बुद्धियां हमारे पास महान योद्धा के रूप में कार्य करते हुए आसुरी भावनाओं से सदा युद्ध करती रहती हैं तथा हमारी इन दुष्ट बुद्धियों से रक्षा करती हैं । इन बुद्धियों का आधार ज्ञान होता है अत: यह अज्ञान पर ज्ञान से आक्रमण कर उन्हें नष्ट करती हैं । जिस प्रकार मानस आधियों पर ज्ञान आक्रमण कर उन्हें दूर भगाता है , उस प्रकार ही शरीर से सम्बंधित व्याधियों पर भी ज्ञान भीषण आक्रमण कर उन्हें दूर भगा देता है ।
हम जानते हैं कि परम पिता परमात्मा ने अनेक प्रकार की ओषधियाँ पैदा की हैं , जिन के प्रयोग से सब प्रकार के रोगों का नाश किया जा सकता है किन्तु जब तक हमें उन ओषधियों तथा उनके गुणों का ज्ञान नहीं होता तब तक वह ओषधिय बूटियाँ हमारे लिए घास फूस से अधिक कुछ भी महत्त्व नहीं रखतीं । यह ज्ञान ही है जो हमें इन ओषधियों के गुणों का ज्ञान कराता है , यह ज्ञान ही है , जो हमें इन ओषधियों की पहचान भी कराता है । इतना ही नहीं यह ज्ञान ही होता है जो हमें इन ओषधियों के प्रयोग की विधि भी बताता है । अत: जब हम ज्ञान की सहायता से बुद्धि का प्रयोग करते हैं तो हम निरोग भी हो जाते हैं ।
3) बुद्धि हमारा रक्षा कवच बन हमारी रक्षा करे : –
जैसे ऊपर कहा गया है ठीक उस प्रकार ही स्पष्ट तथ्य मन्त्र अपनी तीसरी कथा का वर्णन करते हुए उपदेश करता है कि यह जल हमारी व्याधियों को ,,हमारे रोगों को नष्ट करते हुए, दूर करते हुए हमारी रक्षा के लिए हों अर्थात हमारी रक्षा करें । जब भी कभी अथवा कहीं ज्ञान का अभाव होता है , तब ही तथा वहां ही विनाश होता है । इससे स्पष्ट होता है कि अज्ञान ही हमारे विनाश का कारण होता है । ज्ञान हमारे लिये रक्षा कवच का कार्य करते हुए हमारी सब प्रकार की आधियों तथा व्याधियों से रक्षा करता है ।
4) हम सदा ज्ञान सागर में गोते लगाते हुए सब कष्टों से मुक्त हों : –
मानव की यह अभिलाषा रहती है कि उसे भयंकर रोगों से मुक्त करने वाली यह दिव्य बुद्धियाँ सदा हमारे चारों और बहती रहे ताकि हम सदा रोगों से बचे रहे । दुसरे शब्दों में हम यहाँ मन्त्र की चौथी बात को इस प्रकार समझ सकते हैं कि हम सदा ज्ञान से भरपूर वातावरण में , पर्यावरण में रहें अथवा सदा अपने ज्ञान को बढाने का प्रयास करते रहे । हमारे महान ऋषियों ने हमें महान उपदेश दिए हैं , विद्वत्तापूर्ण पुस्तकों का भण्डार दिया है , । इन उपदेशों तथा ग्रंथों को हम सदा अपना साथी बनाकर अपने साथ रखें । इन से सदा मार्ग दर्शन लेते रहे । सदा अपने ज्ञान को बढाते हुए शान्ति प्राप्त करें, अपनी शक्ति को बढावें, अपनी रक्षा करें तथा सदा निरोग रहे । ऐसे रहते हुए निरोगता का अनुभव करते हुए तीनों कष्टों से मुक्त हो ज्ञान उपासक , प्रभु भक्त बनें ।
डा अशोक आर्य
104 – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी, गाजियाबाद
चलावार्ता – 0120 277 3400 , 09718528068
e mail –ashokarya1944@rediffmail.com

हम दान कर अपनी कमिया दूर करे

औ३म
हम दान कर अपनी कमिया दूर करे
डा.अशोक.आर्य
हम रोग क्रामियो से लड़े,हमारा प्रत्येक अंग शक्तिशाली हो , मन शिव संकल्प वाला हो ,हम धन आदि का सदा दान करते हुए अपनी कमीयो को दूर हटा कर इन्हे शुद्ध करे | यजुर्वेद प्रथम अध्याय का यह २४ वा मंत्र इस पर ही उपदेश करत्रे हुए कह र्हा है,कि.:-
स वर्चसा पयसा संतनुभिरगन्महि मनसा स शिवेन |
त्वष्ट सुदत्रो विदधातु रायो नुमार्ष्टु तन्वो यद्वित्निष्टम || यजुर्वेद १.२४ ||
जब मानव अपने यत्न से , अपने प्रयास से राक्शसी प्रव्रतियो को अपने से दूर करने मे सफल हो जाता है तो यह अपने संबंध मे प्रभु से कुछ प्रार्थना करने की स्थिति मे आ जाता है | अब वह प्रभु से प्रार्थना करता है क़ि :-
1 हे प्रभु हमारे मे एसी शक्ति हो कि हम अपने अंदर के जो रोगाणु है , जो रोग बटाने तथा फैलाने वाले कीट आदि हमारे अंदर निवास कर रहे है ,उन्हे मारने मे हम सदा सफल हो | इस जगत मे बहुत से लोग तो एसे है कि जो बुराई से लड़ने का साहस ही नही करते और अनेक एसे भी होते है जो अकारण ही लड़ाई करते रहते है किंतु मंत्र उपदेश करता है की बुराई तथा रोग के कीटाणुओ से हम कभी लड़ने से पीछे न हटे | यह रोग के कीटाणु जब फैल जाते है तो हमारे लिए भ्यकर रोग परेशानी का कारण हो जाते है | इस लिए पैदा होते ही इनका विनाश उत्तम होता है | इस लिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि हम इन रोगो के कीटो से लड़ने मे सक्षम हो तथा अपनी प्राण शकति के रक्षक बनकर प्राणो को अर्थात जीवन को लंबा करे |
२. हम ने रोग के कीटणु के रुप में आये शत्रु से लडना है किन्तु हम तब ही उनसे लड पवेंगे ,जब हम स्वस्थ होंगे , शक्तिशली होंगे, पुष्ट होगे । इस लिए मन्त्र मे यह जो दूसरी प्रर्थना की गयी है कि हमारे एक एक अंग की शक्ति निरन्तर ब्रद्धि की ओर ही अग्रसर रहे । जितना हम संघर्ष करें , उतना ही हमारे अंगों की शक्ति भी बटे । इस में कभी कमी न आने पावे। प्रत्येक अंग सशक्त हो ।
३. हम ने रोगणुओ से लडना है किन्तु यह हम तब ही कर सकते है , जब हम शक्ति का संरक्शण कर सकेगे । कोई भी सेना शत्रु पर तब तक विजयी नही होती , जब तक कि वह शत्रु से शक्ति मे कुछ अधिक न हो । यदि शक्ति मे शत्रु से कम है तो विजय का प्रश्न ही नहीं होता । फ़िर जिस शत्रु से हम लडने जा रहे हैं ,वह तो हमारे शरीर के अन्दर ही है । अन्दर रहते हुए ही यह हमारा नाश कर रहा है । इस से लडने के लिए हमारे शरीर के अनदर भी एसी शक्ति हो कि यह अन्दर बौटे इस शत्रु का नाश कर सके । इस प्रकर की शक्ति को पाने के लिए ही मन्त्र कह रहा है कि एसी शक्तियां जिस शरीर में निरन्तर बटती रहती हैं , हे प्रभु ! हमें एसा शरीर दो । भाव यह है कि हमारा शरीर इतना पुष्ट हो कि जो रोधक शक्तियों की निरन्तर व्रधि करता रहे ।
४. हमने अपने अन्दर की राक्षसी प्रवरतियों से लड़ाई लड़नी है किन्तु इस में हमें विजय कैसे मिलेगी ? यह विजय पाने के लिए हमारे मन में मजबूती का होना आवश्यक है | जब हमारा मन ही मजबूत नहीं है , हमारा मन ही स्थिर नही है तो हम इस लड़ाई में विजय कैसे पा सकते हैं ? इस लिए मन्त्र कहता है की हम शिव संकल्प वाले हों | अर्थात हम द्रट निश्चय वाले हो , जो निर्णय हमने ले लियॆ है , उसे पूरा करने के लिए अपनी सब शक्ति लगा देवें | यह ही हमारी विजय का एक मेव मार्ग है | इस प्रकार के प्रयत्न से जब हम अपने शत्रुओ का नाश करने में सफल हो जाते हैं तो हमारा जीवन लंबा हो जाता है |

2
स्वस्थ होने से हमारी प्राणशक्ति बट जाती है | जब हमारी प्राण शक्ति बट जाती है तो हमारे शरीर के सब अंग स्वस्थ व द्रट हो जाते हैं | हम अपने शरीर के शब्द को नाम को सार्थक करने वाले बन जाते हैं |
५. जब हम सब प्रकार के सुखो को पा लेते है तो हम अपने जीवन को उतम बनाने के लिए धन की इच्छा करते है और इस मन्त्र के माध्यम से उस पिता से प्रार्थना करते हैं क़ि सब सुखों को देने वाला वह प्रभु न केवल हमें युद्धों में विजयी कर स्वस्थ ही बनाने वाला है बल्कि यह हमें सुन्दर भी बनाने वाला है | उस ने हमारे रंग रूप से तो हमें सुन्दर बनाया ही है , हमें रस गंध, रूप , स्वस्थ शरीर दे कर इस शरीर से भी सुन्दर बनाया है | वह पिता एक अद्भुत शिल्पी है , वह जब कुछ बनाने बैठता है तो उस की कारीगरी में , उसकी निर्माण कला में किंचित भी कमीं नहीं रहती , वह पूर्ण है ओर उसकी क्रती भी पूर्ण ही होती है | इस प्रकार हमें उतम से उतम साधन तथा शक्तियां देने वाला प्रभु हमें दान देने के लिए उतम धन भी दे | इस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने के पश्चात हमने उस पिता से धन मांगा है , यह धन भी हमने अपने लिए नहीं दूसरों की सहायता के लिए , दुसरों को उन्नत करने के लिए मांगा है |
यहां पर मन्त्र एक अन्य उपदेश कर रहा है | मन्त्र कहता है क़ि प्राणी उस पिता से धन की कामना कर रहा है किन्तु कुबेर बनने के लिए नहीं | धन का चौकीदार अथवा स्वामी बनने के लिए नहीं बल्कि दूसरों की सहायता के लिए , दान के लिए | कितना सुन्दर उपदेश दे रहा है यह मन्त्र | हम धन तो मांगें किन्तु दूसरों की सहायता के लिए | हमने धन अपने हित के लिए नहीं मांग रहे | हमने धन इस लिए नहीं मांगा की इस से हम विलासिता की सामग्री प्राप्त कर नशे में धुत हो आलसी बनकर लेटे रहें , कर्म हीन हो जावें , पराश्रित हो जावें | इस प्रकार हम निरंतर म्रत्यु के पाश में जकडते चले जावेंगे | नहीं हमारा प्रभु हमारा पिता भी है | वह हमें एसा धन कभी भी नहीं देगा , जिस से हम अपने आप को नष्ट कर दें | वह तो वह धन एसा ही देगा जिस से हमारा स्वास्थ्य उत्तम हो तथा हमारे यश व कीर्ति भी बढे |
६. प्रभु कृपालु है , प्रभु दयालु है | वह प्रभु हम पर कृपा करके , हम पर दया कर के , हमारे शरीर में जो भी अलपग्यता है , जो भी कमियां है , जो भी त्रुटियां है , अपनी शक्ति से उन सब को दूर करदे | हमारी सब न्यूनताऒ को अपनी कृपा से दूर करदे | हमारे मलों को धो कर , नष्ट कर दे , उनको शुद्ध करदे | इस प्रकार जब हमारे अन्दर किसी प्रकार का मालिन्य नहीं रहे गा तो हम स्वयं ही सुन्दर से भी कहीं अधिक सुन्दर हो जावेंगे | यहां एक बात समझने की है क़ि प्रभु उसकी ही सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करता है | अत: जो इस प्रकार का पुरुषार्थ करता है , मेहनत करता है , एसी सुन्दरता प्रभु उसे ही देता है | अन्य किसी को नही |

डा.अशोक.आर्य
104 शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कौशाम्बी २०१०१०
गाजियाबाद

सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस पर चलकर वह शीघ्र ही धनपति बनना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उस दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार पर कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकाल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व , घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम . पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों . यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी डरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्पष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय
बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार
की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता .
कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है : –
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा .
इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद् मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .

डा. अशोक आर्य
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