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स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें

स्वाध्याय व नियमित जीवन अपनायें
डा. अशोक आर्य
मान्व को कभी भी अपने स्वरुप को तथ अपने झीअन के उद्देश्य को नहीं भूलना चाहिये । एसा करने से ही हम अपने जीवन्में स्वाध्याय को अपनाते हुए जीअन को एक नियम के अनुसार चलावेंगे । इस बात को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है ।

इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर विचार करते हुए परमात्मा इस प्रकार उपदेश दे रहे हैं :-
१. ग्यान उन्नति का मूल है :-
हे जीव ! तेरे अन्दर बुद्धि दी गयी है ताकि तूं सब प्रकार के ग्यान को प्राप्त कर सके । ग्यान सब प्रकार की उन्नति का मूल स्रोत है । इस लिए तूं उन्नतिशील कहा जाता है क्योंकि तेरे अन्दर ग्यान को प्राप्त करने और बटाने की इच्छा सदा बनी रहती है । अत: तूं निरन्तर ग्यान को प्राप्त करने के प्रयास में लगा रह ।
२. ध्रतिशील बन :-
हे जीव ! तूं अपने अन्दर ध्रति को धारण कर , धैर्य को बनाए रख । जब तक तेरे अन्दर धैर्य बना रहेगा, तब तक कोई विपति तुझे पथ-भ्रष्ट नहीं कर सकती । इस प्रकार तूं अपने जीवन के स्वपनों को साकार करने के लिए निरन्तर आगे बटता ही चला जावेगा । तूं धैर्यवान होने के कारण अपने ह्रदय रुप अन्तरिक्श में , अपने ह्रदय के अन्दर जो आकाश रुप खाली स्थान है ,उसको द्रट बना । हमारे अन्त:करण का सब से उतम , सब से महान गुण तो धैर्य ही है । यह धैर्य अर्थात यह ध्रति ही हमारे धर्म के अन्य सब अंगों का आधार है । इस से ही धर्म चलता है । इसके आधार पर ही धर्म खडा है । यह ही कारण है कि मनु महाराज ने इसे ( ध्रति को ) धर्म का प्रथम लक्शण कहा है ।
३. शत्रुओं के नाश में समर्थ बन :-
हे जीव ! तुं शत्रुओं के , (अपने अन्दर के तथा बाहर के शत्रुओं के) विनाश के लिए सामर्थ्य प्राप्त कर । यह कैसे सम्भव होगा ? इस निमित परम पिता परमात्मा उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! तूं अपने अन्त: करण का स्म्पादन करने वाला है , अपने अन्त:करण को एक नियम से बांधने वाला है । तूं ही ग्यान का उपभोग करने वाला, सेवन करने वाला, उपयोग करने वाला होने के नाते सदा उत्तम ग्यान को संकलन कर , ग्रहण कर । तूं ही सब प्रकार के बलों को प्रयोग करने वाला है । इतना ही नहीं सब प्रकार के उत्तम यग्यों को करने वाला भी तूं ही है । इस प्रकार के गुणों से युक्त , सम्पन्न , तुझे मैं अपने समीप स्थान देता हूं ।
मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य परम पिता की समीपता को पाना है , वह सदा उस पिता के निकट अपना आसन लगाने की इच्छा रखता है । इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए वह उसका सदा स्मरण करता है , उसके गुणों का गान करता है । उस पिता ने ही उपर कुछ विधियां दी हैं , जिनके करने से उसकी समीपत मिलती है तथा जीव को पिता ने उपदेश किया है कि तूं यह सब कुछ कर । इससे ही मैं तुझे अपने समीप स्थान दूंगा । जब उस पिता की निकटता मिल जाती है , जब जीव प्रभु के निकट आसन प्राप्त कर लेता है तो उसमें इतनी शक्ति आ जाती है , वह इतनी शक्ति का स्वामी बन जाता है कि वह अपने सब प्रकार के शत्रुओं का नाश कर सके ।
४. शत्रु विनाश के लिए प्रभु की निकटता पा :-
हे प्रणी ! तेरे अन्दर अत्यधिक धारक शक्ति होने से तूं भरपूर स्मरण शक्ति का भी स्वामी बन गया है । स्मरण शक्ति मानव में तब तक ही रहती है , किसी विषय का स्मरण वह तब तक ही रख सकता है , जब तक उसमें धारण शक्ति है , इसे स्म्भालने की शक्ति है । इस लिए ही पभु कह रहे हैं कि तूं ने यत्न करके अपने अन्दर धारण शक्ति को बटाया है ,जिससे तेरी स्मरण शक्ति द्रट हो गयी है । इस स्मरण शक्ति के उपयोग से तूं अपने मस्तिष्क को भी मजबूत कर , प्रबल कर । यह मस्तिष्क प्राणी का द्युलोक ही होता है । यह ही सब प्रकार के ग्यान को एकत्र कर, उसे देने वाला होता है । जब यह द्रट होगा तो तेरे अन्दर की ग्यान शक्ति निरन्तर बनी रहे गी । तूं ने जो अपनी स्मरण शक्ति से ग्यान एकत्र किया है , धारण किया है , इस ग्यान से मस्तिष्क उज्ज्वल बनेगा ।
तेरे अन्दर ग्यान का सेवन कर इसे निरन्तर बटाने की अभिलाषा है , एसे अभिलाषी को ही मैं अपने निकट आसन देता हूं । इस लिए तूं आ मेरे निकट बैट । जब तूं मेरे निकट आसन लगा लेगा तो काम , क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि शत्रु तेरे से भयभीत होंगे तथा तेरे अन्दर इतनी शक्ति आ जावेगी कि तुं इन सब का विनाश बडी सरलता से कर सकेगा ।
५. सब और से प्रभु ई समीपता बना :-
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि जब प्रणी अपने शरीर , अपने ह्रदय तथा अपने मस्तिष्क आदि सब अंगों को मजबूत कर लेता है तो वह प्रभु के निकट आसन लगाने के पूर्णतया योग्य हो जाता है , पूर्णतया अधिकारी हो जाता है ओर इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए ,इस अधिकार का प्रयोग करने के लिए तैयार भी हो जाता है । प्रभु कहते हैं कि जब तुझे मेरे निकट आने का अधिकार प्राप्त हो गया है तो मैं भी तुझे सब दिशाओं से अपने निकट स्थान देता हूं । तुं जिस दिशा से भी चाहे उस से ही मेरे समीप आसन लगा सकता है ।
इसका भाव यह है कि जीव की इन्द्रियां विभिन्न समय पर विभिन्न दिशाओं में भटकती रहती हैं । यह प्रतिक्शण अनेक प्रकार से हानि पहुंचाने का प्रयास करती रहती हैं । यह इन्द्रियां इधर – उधर किसी भी दिशा में भटक कर नाश का कार्य न कर सकें और तुं इनको पूरी भान्ति अपने वश में रख सके । इसलिए ही हमारे पिता कहते हैं कि मैं तुझे सब दिशाएं देता हूं , तुं किसी भी दिशा से मेरे निकट आ सकता है अर्थात सब दिशाओं से तुं अपने शत्रुओं का विनाश कर सकता है । बस तूं इन इन्द्रियों से उपर उट और अपने ध्यान को केवल मुझ में ही लगा कर मेरे निकट आसन लगा । सर्वत्र भटकने वाली इन इन्द्रियों को वश में करके अपने ध्यान को केन्द्रित कर ।
६.स्वाध्यायशील और तपस्वी बन :-
हे प्राणी! तूं चेतन है । इस्स्रष्ट में तेरे पास ही कर्म का अधिकार है अन्य किसी जीव को मैंने कर्म का अधिकार नहीं दिया है । वह तो सब भोग योनि में ही हैं । इस कारण्केवल भॊग का ही आर्य्करते हैं । बस तूं ही है , जो अर्म्कर सकता है । अपनी चेतनता के कारण तुम उत्क्रष्ट बन जाते हो । इस कारण ही तुम्हारे अन्दर इतनी शक्ति है कि तुम अपने हित तथा अहित को समझते हो । इसलिए अपने हित को समझते हुए तुम जानते हो कि तुमने क्या करना है तथ क्या नहीं करन । स धारणा के आधार पर ही तुम अपने शरीर को अत्यधिक लचक वाल बना कर शक्ति सम्पन्न करने की अपनी इच्छा को पूर्न्करने वाला बनाना चाहते हो । तुम्हारी यहिच्चा तब ही पूर्ण होगी ,जब तुम अपने शईर मेम लचक रखे वाले, निरन्तर आसन [प्राणा याम करने वाले तपस्वी गुणी जनों के पास जा अकर योगाभ्यास करो गे , योगादि को सिखोगे । इस्लिए एसे तपस्वी लोगों की शरण में जा कर यह सब सीख्ने का पुरुषार्थ करो । ताकि तुम्हारे अंगों में भी लचक आ सके। यह लचक आले बन सकेम ।
तप भी दो प्रकार का होता है :-
क) भ्रगुओं का तप ;_
इस तप को हम स्वाध्याय के नाम से जानते हैं । इस तप को प्राप्त करने का साधन है नित्य प्रति प्रात: उटकर वेदादि शास्त्रों को पटना तथा उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करना ।
ख) अंगिरा का तप:-
इस प्रकार के तप को रित कहते हैं । इस तप से मानव पूर्ण स्वस्थ हो कर एक विशेष प्रकार की दीप्ति को, एक विशेष प्रकार के प्रकाश को प्राप्त करता है ।
परम पिता परमात्मा उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हे मानव ! अपने जीवन को एक निश्चित क्रम में बांध कर तुम इसे नित्य प्रति स्वाध्याय करने वाला बनाओ । यह निश्चित करो कि तुम्हारा प्रत्येक कार्य , प्रत्येक क्रिया एक निश्चित समय पर ही हो । न केवल टीक समय पर हो अपितु यह सब एक निश्चित स्थान पर भी हो अर्थात हमारी क्रियाओं का ,हमारे कार्यों का स्थान भी निर्धारित होना आवश्यक है । इससे तु भ्रगुओं की भान्ति बनेगा, जिन्होंने सब रसों का अंगीकार कर लिया होता है , ग्रहण कर लिया होता है , एसे अंगिरसों की भान्ति अपने स्वास्थ्य को एसी ही दीप्ति प्रदान करो , एसे ही प्रकश पुन्ज के समान बनाओ । ग्यान की द्रष्टि से तुम एसे रिषि बनो कि जो अपने विषय के सर्व गुण सम्पन्न हों तो बल का जब प्रश्न आवे तो तुम अपने आप को एक महान मल्ल के रुप में सिद्ध करो । जब बुद्धि और शक्ति दोनों आ जावेंगे तो तुम आदर्श पुरुष कहलाने के अधिकारी बनोगे ।
बस यह जानो कि जीवन की क्रियाओं में हम ने ध्रुवता को स्थिरता को लाना है । अपने स्वास्थ्य के लिए हमें ध्रति से सम्पन्न होना है अर्थात धैर्य से काम लेना है तथा मस्तिष्क की उज्जवलता के लिए हम ने धर्त्र को धारण करना है अर्थात प्राप्त ग्यान को सम्भालना है , स्मरण रखना है ।

, डा. अशोक आर्य

ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें

ज्ञान, बल व यग्य से प्रभु उपासना करें
डा. अशोक आर्य
हम कच्ची वस्तुओं व मांस आदि के सेवन से रोगों व वासनाओं में फ़ंसते हैं , इन्हें त्याग दें । नियमित जीवन से शरीर को कटोर करें । ज्ञान ,बल व नियमित यज्ञ को कर परम पिता परमात्मा की समीपता प्राप्त करें तथा जितने भी काम आदि शत्रु हैं उन का नाश करें । यजुर्वेद का प्रथम अध्याय का यह १७वां मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
ध्रष्टिरस्यपाऽग्नेऽअग्निमामादं जहि निष्क्रव्याद \^M सेधा देवयजंवह । ध्रुवमसि
प्रथिवी द्र \^M ह ब्रह्म्वनि त्वा क्शत्रनि सजातवन्युपदधामि भ्रात्रिव्यस्य वधार्य ॥
यजु.१.१७ ॥
शुद्ध मन्त्र पाठ के लिए नीचे हिन्दी आरती फ़ोन्ट के प्रयोग से देखें :-
QaRiYTrsyapaa # gnao # AignamaamaadM jaih inaYk `vyaad \^M saoQaa dovayajaं vah | Qa`uvamaisa
paRiqavaI dR \^Mh ba`+vaina tvaa Xa~avaina sajaatavanyaupadQaaima Ba`ataRvyasya vaQaaya- || yajua।.17||
इस मन्त्र में छ: बिन्दुओं पर प्र्काश डालते हुए मन्त्र उपदेश करता है कि :-
१. अग्नि के समान आगे बढ :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा ऊपर उठ , निरन्तर आगे बढ । तेरे तेज से शत्रु कम्पित हों , शत्रु सदा भयभीत हों । तूं अपने अन्दर के शत्रुओं का यथा काम, क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि का नाश करने वाला है । यह वह शत्रु हैं , जो तेरे जीवन के विनाश का कारण होते हैं , कभी आगे बढने ही नहीं देते , कभी उन्नति के मार्ग पर चलने ही नहीं देते किन्तु तूं पुरुषार्थ से इनका नाश करता है । निरन्तर इन से युद्ध करता रहता है ओर इन शत्रुओं को अपने शरीर से दूर ही रखता है । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश करने ही नहीं देता । यह सब तब ही हो पाता है जब तूं शरीर में किसी भी प्रकार के रोग को तथा मन में कामादि किसी भी शत्रु को प्रवेश नहीं करने देता ।
तूं शरीर को विभिन्न प्रकार के रोगों से बचाता है तथा मन को कामादि शत्रुओं से रक्षित रखता है , इससे तेरा यह शरीर अग्नि बन जाता है । इस अग्नि बने शरीर में किसी भी शत्रु को जलाने की शक्ति होती है , चाहे वह किसी प्रकार का रोग हो, चाहे काम, क्रोध, मद , लोभ या अहंकार रुपि शत्रु हो , अग्नि बना यह शरीर इन सब शत्रुओं को जला कर राख कर देता है , भस्म कर देता है । इस पर अग्नि के समान तूं निरन्तर आगे बढने वाला है , ऊपर उठने वाला है , उन्नति के मार्ग पर चलने वाला है ।
२. आअमाद अग्नि को पास न आने दें :-
हे जीव ! तूं अग्नि के समान सदा उन्नति के मार्ग पर आगे बढने वाला है । इस लिए तूं उस भोजन को अपने से दूर रख जो कच्ची वस्तुओं या कच्ची अग्नि से बना हो । तूं सदा पका हुआ भोजन ही खा , कभी कच्चा भोजन मत खा । पका हुआ भोजन जहां शरीर की व्रद्धि का , उन्नति का कारण होता है ,वहां कच्चा भोजन शरीर के ह्रास का , रोग का , दु:ख का ,क्लेष का कारण होता है । यह कच्चा भोजन भी दो प्रकार से हमें मिलता है ।
क) असावधानी या लापरवही से बच :-
कच्चे भोजन प्राप्ति के दो कारणो में से प्रथम है असावधानी या लापरवाही । हम जब अग्नि पर अपने भोजन , रोटी,दाल आदि को पकाते हैं तो कई बार असावधानी हो जाती है , कई बार प्रकाश की कमीं के कारण हमें पता नहीं चलता, कई बार हमें कुछ जल्दी होती है , इन में से किसी भी अवस्था में हमारा भोजन , हमारी रोटी पूरी तरह से पक नहीं पाती , यह आधी कच्ची ही होती है कि हम इस अधपके भोजन का उपभॊग कर लेते हैं , खा लेते हैं । एसा भोजन करनीय नहीं होता किन्तु तो भी यह भोजन किसी प्रकार हमारे पेट में प्रवेश कर जाता है । इसका ही परिणाम होता है कि यह हमारे लिए कई प्रकार के कष्टों का कारण बनता है । इस प्रकार का किया गया भोजन हमारे पेट आदि के दर्द के रुप में या किसी अन्य प्रकार की व्याधि के रुप में हमें कष्ट देने वाला ही सिद्ध होता है ।
ख) कच्चे फ़लों के रुप में :-
कच्चे या अधपके भोजन के रुप में जिस दूसरी वस्तु को हम जानते हैं , वह है फ़ल । वृक्षों पर लगे फ़लों को देख कर हम कई बार रह नहीं पाते ओर इन को तोड कर खाने लगते हैं । जब हम इन फ़लों को तोड रहे होते हैं तो टहनी का कुछ भाग भी टूट्कर साथ आ जाता है । यह टहनी हमें संकेत कर रही होती है कि यह फ़ल अभी पका नहीं है । यह अभी कच्चा है तथा खाने योग्य नहीं है । जब यह पूरा पक जावेगा तो हाथ लगाते ही टूट जवेगा । उस समय ही यह खाने के योग्य बनेगा । किन्तु हम है कि जो टहनी के इस सन्देश को समझ ही नहीं पाते , हमारे अन्दर लालच भरा होता है । इस लालच के कारण हम इस कच्चे फ़ल को खाने लगते हैं । परिणाम क्या होता है ?, वही जो कच्ची रोटी से हुआ था । हम कई प्रकार की व्याधियों के शिकार हो जाते हैं , जिह्वा छिल जाती है, गला बन्द हो जाता है ओर दर्द देने लगता है, जीभ कड्वाहट से भर जाती है तथा हमें कई प्रकार के कष्टों का सामना करना पडता है ।
इसलिए मन्त्र कहता है कि हे जीव ! तूं सदा पका हुआ भोजन ही करने वाला बन तथा पके हुए फलों का ही उपभोग कर । इस लिए आमाद अग्नि अर्थात वह अग्नि जिससे भोजन कच्चा रह जाता है , को सदा अपने से दूर रख , इसे कभी अपने पास मत आने दे । हमारे अन्दर जो जठर अग्नि है , वह इन सब चीजों को पचाने का कार्य करती है किन्तु जब हम कच्चा खाते हैं तो इस जठराग्नि को इन वस्तुओं को पचाने के लिए बहुत मेहनत करनी होती है । अनेक बार अत्यधिक मेहनत के पश्चात भी यह उस कच्चे भोजन को पचा नहीं पाती ओर वह भोजन कष्ट का कारण बन जाता है । इस लिए कभी भी जठराग्नि के सामने इस प्रकार का अध पका भोजन न आने दे । सदा सुपाच्य भोजन ही दें ।
३. मांसहार मत कर :-
परमपिता परमात्मा इस मन्त्र के माध्यम से अगला उपदेश करते हुए कहता है कि हे उन्नति पथ के पथिक जीव ! मांस खाने वाली अग्नि या मांस खाने की इच्छा को तो तूं कभी अपने पास भी न आने दे । तेरे मन में कभी मांस खाने का तो विचार भी नहीं आने देना । मांसाहारी व्यक्ति जिस क्रूरता से मांस प्राप्त करता है , वह क्रूर स्वभाव उसके जीवन का भाग बन जाता है । कोई भी क्रूर व्यक्ति मानव धर्म ( दूसरे की सहायता करना , दूसरे को कष्ट से बचाना , दूसरे पर दया करना आदि ) का ठीक प्रकार से निर्वहन नहीं कर पाता ।
४. सदा दूसरों को खिला कर खाना :-
ऊपर बताया गया है कि मानव के जीवन में जो अग्नि होती है । उसमें से आमाद अग्नि अपाच्य होती है । अपाच्य होने से यह हमारे शरीर में रोगादि ला कर कष्ट का कारण होती है । इस प्रकार की अग्नि से बचना , इस प्रकार की अग्नि को कभी अपने शरीर में प्रवेश न करने देना । इस क्रव्याद अग्नि को दूर करने से , नष्ट करने से , इस का संहार करने से ही मानव क्रूरता से ऊपर उठ सकता है । जब हम क्रूरता से ऊपर उठ जाते है , इस अवस्था में दूसरों की सहायता करने की ,दूसरों पर दया करने की भावना हमारे अन्दर पैदा होती है । इस अवस्था में हम देवयज्ञ के योग्य हो जाते हैं अर्थात हम प्रभु के समीप बैठकर उस का स्मरण करने के अधिकारी बन जाते हैं । यह देवयज्ञ क्य़ा है ? यह यज्ञ है दूसरों की सहायता करना ,दूसरों पर दया करना, दूसरों को खिला कर ही खाना । वेद तो कहता है कि केवलादि न बन । अर्थात केवल अपने लिए ही न जी । दूसरों को भी जीवन दे ।
५. जीवन को नियमित बना :-
इसके पश्चात उस पिता का आदेश है कि हे जीव ! तेरी लालसा है कि तूं सुखी रहे , तेरे सुखों में निरन्तर वृद्धि हो । इसके लिए यह आवश्यक है कि तूं अपने जीवन को एक नियम से बांध । जब तक तूं अपने जीवन को नियम से नहीं बांधता, जब तक तूं अपने जीवन को नियमित नहीं करता, तब तक सुख की कामना मत कर । अपना एक निश्चित कार्यक्रम बना ले । इस योजना के अनुसार प्रात; उठ ,स्नानादि कर ,प्रभु का स्मरण कर , निश्चित समय पर भोजन कर । इस प्रकार तूं कालभोजी बन । कालभोजी ही सुखी रह सकता है । जो सारा दिन पशु की भान्ती खाता रहता है , उसकी बुद्धि तो क्षीण होती ही है , उसका स्वास्थ्य भी क्षीण हो जाता है । अनेक प्रकार के रोग उसे ग्रस लेते हैं । समय पर भोजन करने वाले , एक निश्चित व्यवस्था में रहने वाले को इस प्रकार की व्याधियां कभी नहीं आती ।
६. स्वाध्याय से ग्यान को बढा :-
जब शरीर में कोई कष्ट क्लेष होता है तो हम अपना बहुत सा समय उस कष्ट से निवारण में लगा देते हैं । इस मध्य हम कुछ अन्य कार्य नहीं कर पाते किन्तु जब शरीर स्वस्थ होता है तो हमारी दिनचर्या के अतिरिक्त भी हमारे पास बहुत सा समय बच जाता है । इस समय को हम अन्य निर्माणात्मक कार्यों में लगाते है । इस लिए परमात्मा कहता है कि हे जीव ! तूं स्वस्थ है । इस कारण तेरे तन में , तेरे मन में कुछ ग्रहण करने की पिपासा है , उसे पूर्ण करने के लिए तूं उतम ज्ञान का संग्रह करने के लिए स्वाध्याय कर ।
आज कुछ भी पढने को लोग स्वाध्याय कहने लग गए हैं । उन्हें पता ही नहीं कि स्वध्याय किसे कहते हैं ? इस लिए स्वाध्याय का अर्थ जान लेना भी आवश्यक है । स्व कहते हैं अपने आप को तथा ध्याय कहते हैं मनन को , चिन्तन को । इस प्रकार स्वाध्याय का अर्थ हुआ अपने आप का मनन व चिन्तन । यह तो हुआ संक्षिप्त अर्थ किन्तु जब हम गहराई से देखें तो हम पाते हैं कि सृष्टी के आरम्भ में परम पिता परमात्मा ने हमारे जीवन यापन तथा क्रिया क्लाप की एक विधि दी है ,एक ज्ञान दिया है । इस विधि , इस ग्यान का नाम है वेद । जब हम प्रभु के दिये इस ज्ञान का अध्ययन करते हैं तो इसे ही स्वाध्याय कहते हैं इस से स्पष्ट है कि वेदादि शास्त्रों के अध्ययन को ही स्वाध्याय कहते हैं । इस मन्त्र में भी यह ही कहा गया है कि स्वस्थ रहते हुए हम वेद का स्वाध्याय करें ।
अत: हे यज्ञ का सेवन करने वाले प्राणी , हे अपने ज्ञान को बढाने वाले प्राणी, हे उत्तम यज्ञों द्वारा उत्तम कर्म करने वाले प्राणी , मैं तुझे अपने समीप स्थित करता हूं , अपने समीप बैठने का अधिकारी बनाता हूं । इस प्रकार तेरे अन्दर वह शक्ति आ जावेगी कि तूं अपने शत्रुओं को नाश कर सकेगा ।
मनुष्य प्रभु के समीप आसन लगाने में तब ही समर्थ होता है जब वह स्वस्थ रहते हुए उत्तम ज्ञान तथा शक्ति को प्राप्त कर अपने जीवन को यज्ञमय बना लेता है । जब उसे प्रभु की निकटता मिल जाती है तो यह जीव काम, क्रोध आदि अन्दर के शत्रुओं का कभी शिकार नहीं होता बल्कि उन शत्रुओं का नाशक बन जाता है ।

, डा. अशोक आर्य

हम प्रात: सूर्य व वायु सेवन से स्वास्थ्य व विवेक प्राप्त करें

हम प्रात: सूर्य व वायु सेवन से स्वास्थ्य व विवेक प्राप्त करें
डा. अशोक आर्य
हम सदा अस्तेय धर्म का पालन करते हुए वार्तालाप में मधुर शब्दों का प्रयोग करें । प्रात: भ्रमण के समय हम खुली वायु व धूप में विचरण कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर उतम बुद्धि को पावें । यह बात यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र १६ में इस प्रकार बतायी गई है :-
कुक्कुटोऽसि मधुइजिह्वऽइष्मूर्जमावद त्वया वय तं जेष्म वर्ष्व्र्द्ध्मसि प्रति त्वा वर्षव्रद्धं वेत्तु परापूत  रक्श:परापूता अरातयोऽपहत रक्शो वायुर्वो विविनक्तु देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिग्रभ्णात्वैच्छ्द्रेण पाणिना ॥ यजुर्वेद १.१६ ॥
शुद्ध मन्त्र पाट के लिए आगे की पंक्तियां हिन्दी आरती फ़ोन्ट में देखें
k u@ku Tao # isa maQauuijaÒ # [YamaUja-maavad tvayaa vaya ^M\ saÈ\GaataM jaoYma vaYa-vaRwmaisa pa`ita tvaa vaYa-vaRwM vao<au parapaUta ^M\rXa: parapaUtaa Arataya o# pahta ^M\ à rXaao vaayauvaa- ivaivana>u dovaao va: saivataa ihrNyapaaiNa: pa`itagaRBNaatvaicCd`oNa paaiNanaa || yajuavao-d 1.16 ||
इस मन्त्र के माध्यम से आट बिन्दुओं के माध्यम से परम पिता परमात्मा प्रणी को इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. आदान व्रति को पास न आने देना :-
मन्त्र कह रहा है कि हे प्राणी ! तूं कभी दूसरे के धन पर ब्लात कब्जा करने वाला नहीं है । तूं कभी अदान की भावना से ग्रसित मत होना । किसी के धन को अधिग्रहण की इच्छा भी मत करना । इस प्रकार की भावना कभी तेरे अन्दर आवे भी नहीं । तेरे लिए दूसरे का धन एसे होना चाहिये कि जैसे मिट्टी का टेला होता है । जिस प्रकर मिट्टी के टेले को कहीं भी रख दो कभी इस के चोरी का भय नहीं होता , इस प्रकार ही तेरे लिये दूसरे का धन होता है ,तूं इसे पाने की कभी इच्छा नहीं रखता ।
२. मधुभाषी बन ग्यान बांट :-
मन्त्र आगे कहता है कि हे जीव ! तेरी वाणी मधुरता से टपकती हो । इसमें इतनी मधुरता हो, इतनी मिटास हो कि जब तूं बोले , जब तूं व्याख्यान करे तो सब लोग तुझे सुनने के लिए आगे आवें । तेरे द्वारा होने वाले ग्यान के प्रचार व प्रसार में अत्यन्त मिटास हो, श्लेक्शण इससे टपकती हो । जब इस प्रकार के गुणों से तूं युक्त होता है तो हम कह सकेंगे कि तूं पूर्ण जिह्वा वाला है अर्थात तेरी जिह्वा का अगला भाग ही नहीं बल्कि मूल भाग से भी सदा व सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य टपकता है , मीटे ही मीटे वचन निकलते हैं ।
३. प्रेरणा व शक्ति का आघान कर :-
हे अपनी जीह्वा की मिटास से सब का आह्लादित करने वाले प्राणी ! तूं सब के लिए प्रेरणा का पुंज बन । अपनी मीटी वाणी से अपने आस पास के सब लोगों को प्रेरित कर तथा उन्हें अपनी इस आकर्षक वाणी से शक्ति दे कि वह भी तेरा अनुसरण करें, अनुगमन करें । जब सब लोग इस प्रकार की मिटास बांटेंगे तो इस संसार में सब ओर स्वर्ग ही स्वर्ग दिखाई देगा ।
४. तुझ से प्रेरित हम वसनाओं को कुचलें :-
जब एक प्राणी अपनी मिटास से सब को प्रेरित करता है तथा शक्ति से भर देता है तो प्रत्युतर में श्रोता कहता है कि हम तेरे मीटे वचनों को सुन कर, इनके उपयोग व लाभ को समझ गये हैं तथा हम भी आप का ही अनुगमन करते हैं आप ही के साथ चलते हुए , आप जैसा ही बनने का प्रयास करते हैं । आप से हमें जो उत्साह मिला है तथा आप से हमें जो शक्ति मिली है , उस उत्साह , उस प्रेरणा तथा उस शक्ति के बल पर हम अपने अन्दर की दुर्वासनाओं को ,बुरी शक्तियों को पराजित कर आप ही के समान शुद्ध व पवित्र बननें का प्रयास करते हैं । आप हमारी प्रेरणा के स्रोत हो । इस से प्रेरित हो कर हम भी सदा मीटा बोलें , ग्यान का प्रसार कर अपने अन्दर की वसनाओं का हनन कर उतम बनें ।
५. प्रभु आप हमारे पथ दर्शक हो :-
वर्षों के द्र्ष्टी से अर्थात आयु क्रम से भी आप हमारे से बडे हो । इस कारण चाहे ग्यान का विषय हो , चाहे अनुभव का आप हमारे से आगे हो । मानव को जो ग्यान प्राप्त होता है तथा जीवन के जो अनुभव वह प्राप्त करता है , उस में समय की विशेष भूमिका होती है । जीवन का जितना काल होता है , उतने काल इस की प्राप्ति निरन्तर होती ही रहती है । इस लिए जब कभी कोई छोटी आयु का व्यक्ति कुछ काम करके उसे न्याय संगत टहराने का यत्न करता है तो सामने वाला व्यक्ति अनायास ही कह उतता है कि मैंने तेरे से अधिक दुनियां देखी है अर्थात मेरी आयु तेरे से बडी होने से मेरे अनुभव भी तेरे से अधिक हैं ।
इससे भी स्पष्ट होता है कि आयु ओर अनुभव का ग्यान के विस्तार में कुछ तो स्थान होता ही है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हे प्रभु ! आप ग्यान के साथ ही साथ अनुभव में भी हम से अधिक परिपक्व हो । एक परिपक्व का अनुगमन करने से , एक अनुभवी के पीछे चलने से हमारा कल्याण ही होगा,अर्थात हम अपने कार्य में निश्चित रुप से सफ़ल होंगे । हे वर्ष व्रद्ध ! हे आयु व अनुभव में हमारे मार्ग दर्शक ! आप के अनुभव का लाभ उटाने के लिए इस स्रश्टि का प्रत्येक प्राणी आप को पा सके , आप को टीक से जान सके, आप हम लोगों के लिए अगम्य हो , आप से हम कभी आगे नहीं निकल सकते । इस कारण ही आप हमारे पथ प्रदर्शक हो, मार्ग दर्शक हो ।
६. हमारी रक्शी व्रतियां दूर हों :-
हे पिता ! आपकी दया व आप की क्रपा से हमें आप ने जो आप से ग्यान का उपदेश , ग्यान का सन्देश मिला है , उस के प्रयोग करने से हमारी जितनी भी राक्शसी प्रव्रतियां है , जितनी भी बुराईयां है, वह सब धुलकर हम साफ़ व स्वच्छ हो जावें । इस प्रकार हमरी यह बुरी वासनाएं हम से छूट जावें , हमसे अलग हो जावें । इतना ही नहीं दूसरे को न देने की , दूसरे की सहायता न करने की अर्थात दान न देने की आदत बहुत गन्दी होती है । यह बुराई हम से दूर हो जावे तथा हम सदा दूसरे की सहायता के लिए तैयार रहें , एसा हम बन जावें । हम न केवल अपने रमण के लिए , अपने घूमने के लिए , अपने जीवन व्यापार को चलाने के लिए कभी दूसरों की हानि न करें , दूसरों क्शति न पहुंचावें अपितु हम सदा दान शील बनकर दूसरों को हाथ देकर उपर उटाने वाले भी बने रहें । हमारे अन्दर जितने भी राक्शसी भाव हैं जितनी भी बुरी व्रतियां हैं , आप के सहयोग से वह नष्ट हो जावें ।
७. पवित्र वायु का सेवन कर विवेकशील हों :-
प्रभु तो उपदेशकों के भी उपदेशक हैं । इस कारण वह उपदेश देने वाले तथा उपदेश लेने वाले दोनों को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि वायु अत्यन्त गतिशील होता है इस लिए यह वायु देव अपनी गतिशीलता से सब बुराईयों का नाश करते हुए तुम्हें प्राप्त हो तथा तुमहारे अन्दर ग्यान का विस्तार करे । वायु को गति शील माना गया है । यदि वायु की गति रुक जाती है तो यह विनाशक हो जाती है । हम जानते हैं कि जब किसी भवन को बहुत देर बन्द रखा गया हो तो उसे खोलते समय कहा जाता है कि इस का दरवाजा खोल कर कुछ देर के लिए एक और हट जाना नहीं तो इस से निकलने वाली गन्दी वायु तुम्हारे स्वास्थ्य का नाश कर देगी । स्पष्ट है कि गन्दी वायु जहां हानि का कारण होती है , वहां स्वच्छ व शीतल वायु उतमता लाने वाली भी होती है । इस के सेवन से विवेक का जागरण भी होता है । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि यह निरन्तर विचरण करने वाली वायु तेरी सब बुराईयों का नाश कर तेरे अन्दर विवेक को , बुद्धि को , ग्यान को जाग्रत करे ।
मन्त्र इस के साथ ही प्रात: भ्रमण पर बल देते हुए कहता है कि प्रात: काल की उषा वेला में बडे ही शीतलता से वायु चलती है । यह वायु स्वास्थ्य के लिए अति उपयोगी होती है । इस वायु के सेवन से हमारा मस्तिष्क शुद्ध , पवित्र और कुषाग्र हो जाता है । इसलिए हम प्रात; शुभ मुहुर्त में , उषा वेला में उट कर इस पवित्र व शीतल वायु का सेवन कर अपने मस्तिष्क को शुद्ध पवित्र कर अपनी बुद्धि को कुशाग्र तथा तीव्र बनावें ।
८. प्रात: का सूर्य तेरे लिए हितकर हो :-
परम पिता परमात्मा जानता है कि हमारे लिए क्या क्या हितकर है । इस कारण प्रभु प्रत्येक कदम पर हमारा मार्ग दर्शक बनकर सदा हमें प्रेरित करता रहता है । ऊपर वायु के गुणों का वर्णन कर शीतल वायु के सेवन का उपदेश दिया था । यहां वह प्रभु हमें सूर्य के गुणों का वर्णन करते हुए उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! यदि तुझे इन उत्तम गुणों को पाने की इच्छा है तो तूं नित्य प्रात: काल उटकर नगर से बाहर किसी खुले स्थान पर जा कर आसन प्राणायाम कर , प्रभु का स्मरण कर , उसकी निकटता को प्राप्त कर , इससे तेरा जीवन उत्तम बन जावेगा ।
प्रभु कहते हैं कि यह जो सूर्य है , यह सब प्राण दायी तत्वों से भरपूर होने से सदा इन प्राण शक्तियों को बांटता रहाता है । यह सूर्य सब प्रकार की दिव्य शक्तियों का कोश है , खजाना है । इस करण इस सूर्य से हमें यह सब प्राण देने वाली शक्तियां हमें देने के लिए सदा लालायित रहता है किन्तु देता उसको ही है जो प्रयास करता है ,पुरुषार्थ करता है । यह सूर्य प्रात: काल की उषा वेला में एसे हमारे सामने आता है , जैसे मानो स्वर्ण को अपने हाथ में लेकर आता है तथा यह स्वर्ण हमें बांटता है । यह स्वरर्ण उसे ही मिल पाता है , जो इस समय तक अपनी निद्रा को त्याग, बिस्तर को छोडकर भ्रमण को निकल जाते हैं । हम जानते हैं कि प्रात: का सूर्य लाल होता है तथा अपनी लाली से अनेक प्रकार के रोगों को दूर करता है । हमारी आंखों को इससे अत्यदिक लाभ होता है ।
जब हम प्रात:काल इस सूर्य के दर्शन करते हैं तो एसे लगता है कि यह सूर्य अपनी स्वर्ण मयी किरणॊ से हमें गुणों से भरे हुए टीके ( इन्जेक्शन ) लगा रहा हो । इस लिए मन्त्र कहता है कि यह सूर्य अपनी किरण रुपी हाथों से हे जीव ! तुम्हें ग्रहण करे । इस का भाव यह है कि सूर्य की यह किरणें तेरे अन्दर तक जा कर तेरे अन्दर के सब दोषों को दूर कर तुझे उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें । इस प्रकार तूं प्रात:काल की अम्रत वेला में इस सूर्य की किरणों के द्वारा उत्तम प्राण , उत्तम शक्ति तथा दिव्य गुणो को प्राप्त कराता है । इस प्रकार यह सूर्य तुम्हारे लिए अत्यन्त हितकर होता है अत्यन्त रमणीय होता है ।

, डा. अशोक आर्य

हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं

हम अपने जीवन की मलिनता हटाएं
डा. अशोक आर्य
प्रभु की सहायता पाकर हम अपने अन्दर के काम , क्रोध आदि दुष्ट प्रव्रतियों को दूर करें । सदा दिव्य व उतम कर्मों में लगे रह कर जीवन को शुद्ध करें तथा जीवन में जो जो भी बुराईयां हों उन्हें दूर करने का सदा प्रयत्न करें । यजुर्वेद का यह मन्त्र इस पर ही प्रकाश डाल रहा है ।
युष्माऽव्रणीत व्रत्रतूर्ये युयमिन्द्र्मव्रणीध्वं व्रत्रतूर्ये प्रोशिता स्थ । अग्नये त्वा जुष्ट प्रोक्शाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुश्टं प्रोक्शामि । दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोऽशुद्धा: प्राज्ध्नुरिदं वस्तच्छुन्धामि ॥यजु.१.१३॥

इस मन्त्र में सात बातें बताई गई हैं :=
१. हम अपने कामादि का नाश करें :-
इस मन्त्र में जिस प्रथम विष्य पर चर्चा की गई है, वह है कामादि का नाश । मानव जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ , अहंकार आदि अनेक शत्रु होते हैं । इन शत्रुओं के वश में रहने वाला जीव सदा ही विपतियों से घिरा रहता है । लडाई – झगडा, कलह – क्लेष उसके जीवन का आवश्यक अंग बन जाते हैं । उसका जीवन नरक के समान बन जाता है । इस लिए इन सब को जीवन के शत्रु माना गया है । यह मन्त्र अपने उपदेश के आरम्भ में यह ही कह रहा है कि हम इन शत्रुओं का नाश करें , इन का संहार करें । इन शत्रुओं को हम अपने जीवन में न आने दें ।
जब हम इन बुराऒयों का नाश करने के लिए इन से लड रहे होते हैं तो इस लडाई को मन्त्र तूर्य का नाम देता है तथा जब हम इस का संहार करते हैं तो मन्त्र इसे व्रत्रतूर्य का नाम देता है । मन्त्र कहता है कि हे जीव तू व्रत्रतूर्य बन । अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए इन सब का संहार करदे । यह बुराईयों के संहार के रुप में तूं एक प्रकार का यग्य कर रहा है । इस यग्य की अग्नि कभी बुझने न दे । इस में सफ़लता प्राप्त कर ही विश्राम करना । जब तक सफ़लता नहीं मिलती, इस युद्ध को , इस यग्य को करते ही रहना ।
हे जीव ! प्रभु ने तुम्हें इस कामादि शत्रुओं को नष्ट करने के लिए चुना है क्योंकि तूंने विगत में उतम कर्म किये थे। जिन प्राणियों का विगत कर्मों का संग्रह उतम होता है , प्रभु उसे ही उतम कर्म करने का अधिकारी बनाता है । जिन के बैंक में कु्छ जमा ही नहीं , वह क्या कुछ बैंक से निकालेगा अर्थात कुछ भी नहीं । इस प्रकार ही जिस प्रणी ने अपने विगत जीवन को मौज मस्ती में बिताया था ,कुछ उतम किया ही न था । एसे प्राणियों को प्रभु ने भोग योनी में भेज दिया । उनका काम मात्र भोग ही रह गया किन्तु जिन प्राणियों ने कुछ उतम कार्य किये ,चाहे वह कर्म उनके मध्यम स्थिति में ही रहे , एसे प्राणियों को ही उस प्रभु ने मानव जीवन दिया । इस प्रकार के प्राणी को मानव जीवन तो दे दिया किन्तु वह सामन्य प्राणी ही बने रहते हैं । वह कामादि दोषों से प्रताडित ही रहते हैं ।
जिन प्राणियों ने यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के मन्त्र संख्या बारह के अनुरुप कार्य करते हुए अपने जीवन को उतम व पवित्र बनाया , एसे प्राणियों को प्रभु ने सात्विक श्रेणी , उतम श्रेणी दी । जिस प्रकार एक स्कूल की एक ही कक्शा को कई भागों में बांट कर अ , ब, स आदि विभाग किये ह्जाते हैं । अ भाग में सब से उतम , ब में मध्यम तथा स में निक्रष्ट प्रकार के बच्चों को रख दिया जाता है । इस प्रकार ही जो प्राणी अपने जीवन को पवित्र बनाने में सफ़ल रहते हैं , एसे प्राणियों को प्रभु कामादि शत्रुओं से लडने तथा उनका संहार करने की शक्ति देता है । एसे व्यक्ति ही सात्विक कहलाते है तथा एसे प्राणियों की श्रेणी का नाम ही सात्विक श्रेणी होता है । इस प्रकार के प्राणी कामादि से तब तक निरन्तर लडते रहते हैं, जब तक कि वह इन दोषों का नाश करने में सफ़ल नहीं होते ।
२. प्रभु की सहायता से ही हम सफ़ल होते हैं :-
हम कामादि शत्रुओं से लडने की शक्ति भी प्रभु से ही प्राप्त करते हैं । इस लिए उस परमैश्वर्य शाली पभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद पाने का यत्न , उसकी निकटता पाने का प्रयास हम निरन्तर करते हैं और यह आवश्यक भी है , क्योंकि उसकी सहायता के बिना हम सफ़ल तो क्या होंगे ? कुछ कर भी न सकेंगे । हम जानते हैं कि केवल महादेव ही काम देव को भस्म कर सकते हैं , अन्य कोई नहीं । इस लिए हमें उस महादेव रुपि उस पिता से निकटता बना कर , इस कार्य की सफ़लता का उससे आशीर्वाद प्राप्त करना है ।
३. प्रभु क्रपा से ही हम शुद्ध होते हैं :-
कामादि शत्रुओं से लडने के लिए हमारे अन्दर शुद्धता का ,पवित्रता का होना आवश्यक है । जब हम स्वयं ही शुद्ध पवित्र नहीं हैं , जब हम स्वयं ही कलुषित कार्य कर रहे हैं तो हम कलुषित के साथ लड कर कैसे विजयी हो सकते हैं । इस लिए हमें पहले अपने जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाना होता है तकि हमारी शक्ति हमारे शत्रु से अधिक हो सके तथा फ़िर जब हम इन शत्रुओं से लडेंगे तो निश्चय ही सफ़ल भी होंगे । कहा गया है अपने उपर जल छिडको , स्नान करो तो तुम शुद्ध हो जावोगे । जल शुद्धि का प्रतीक माना गया है । इस प्रकार ही प्रभु की समीपता को पाना, उस प्रभु का वरण करना , उसका आशीर्वाद प्राप्त करना भी शक्ति का प्रतीक है । जब तुम प्रभु का वरण करने में सफ़ल हो जाते हो तो तुम शक्तिशाली हो जाते हो , प्रत्येक अंग में शक्ति का संचार हो जाता है तथा इस युद्ध में तुम्हारी विजय निश्चित हो जाती है । इस लिए हम प्रभु की सहायता प्राप्त कर अपने जीवन को शुद्ध बनावें ।
४. हम केवल यग्य शेष का ही सेवन करें :-
मानव सदा पका हुआ भोजन ही करता है । कच्चा भोजन वह नहीं करता क्योंकि एसा भोजन इस के लिए सुपाच्य नहीं होता । कभी वह कच्चा भोजन कर भी लेता है तो उसको उल्टी. टट्टी या पेट दर्द आदि कई प्रकार की व्याधियां हो जाती है । यह क्यों होती हैं ?, क्योंकि उसने प्रभु के बनाए हुए नियम को तोडते हुए अपने शरिर का तनाशाह बनने का यत्न किया । इस दु:साहस के लिए साथ के साथ ही प्रभु ने उसे दण्डित करते हुए उसके पेट में दर्द आदि कुछ व्याधि पैदा कर दी । यह व्याधि उसे केवल कष्ट देने मात्र के लिए पैदा नहीं की अपितु इस लिए भी की कि उसे पता चले कि उसने गल्ती की है तथा भविष्य में इस प्रकार की गलती को पुन: नहीं करना ।
इसलिए प्रभु उपदेश करते हैं कि हे मानव ! यग्य की अग्नि को ही अपने में अवशिष्ट कर । अर्थात यग्य करने के पश्चात जो शेष बचता है , उसे ही तूं उपभोग कर । संसार की वस्तुओं पर आश्रित न रह कर यग्य शेष पर ही आश्रित रह । इस सब का भाव यह है कि हमारे पास जो कुछ भी है, उसे हम यग्य पर , परोपकार के कार्यों पर व्यय करें और इस प्रकार से दूसरों की सहायता करने के पश्चात ही शेष बचे पदार्थ को हम अपने हित के लिए प्रयोग करें । हम जानते हैं कि हमारी यह प्राचीन काल से ही परम्परा रही है कि हम भोजन बनाते समय या भोजन करते समय पहले गाय , फ़िर पशु , पक्शी आदि का भाग रखकर फ़िर ही भोजन को अपने पेट की भेंट करते हैं । इस का भाव यह ही है कि हम पहले यग्य करते हैं तथा फ़िर यग्य शेष को अपने लिए ग्रहण करते हैं ।
इस प्रकार जो पदार्थ अग्नि व सोम द्वारा सेवित होता है ,संस्कारित होता है , उसका ही मैं अपने लिए प्रयोग करता हूं अर्थात इस प्रकार से संस्कारित भोजन को ही हम ग्रहण करें क्योंकि एसा भोजन शन्ति देने वाला होता है, एसा भोजन शुद्धि देने वाला होता है, एसा भोजन पवित्रता व निरोगता देने वाला होता है , एसा भोजन शक्ति व स्वास्थ्य देने वाला होता है । इस प्रकार हमारा भोजन भी यग्य के रूप में बन जाता है । इस भोजन को करने का उद्देश्य एक मात्र यह ही होता है कि हमारा शरीर शक्ति सम्पन्न व शान्ति से भरपूर हो ।
५. हम शुद्ध हो प्रभु का संगतिकरण करें :-
मन्त्र का उपदेश है कि हम प्रभु से संगतीकरण करें , हम प्रभु का साथ बनावें , हम प्रभु से निकटता बनावें , किन्तु कैसे ? हम प्रभु का संगतिकरण किस प्रकार कर सकते हैं ?, इस पर भी मन्त्र प्रकाश डालते हुए हमें कुछ मार्ग बताता है ।
मन्त्र बता रहा है कि हम सर्व प्रथम अपने को अथवा अपनी आत्मा को शुद्ध करें ,पवित्र करें इस शुद्धता व पवित्रता लाने के लिए यह निश्चित है कि हम अपने प्रयोग में , उपभोग में आने वाले प्रत्येक पदार्थ के प्रयोग के लिए इस भावना को बनाए रखें कि पहले हम ने यग्य करना है तथा फ़िर यग्य शेष को ही अपने लिए प्रयोग करना है । एसा करने से ही तुम्हारी शुद्धि होगी ,एसा करने से ही प्रभु से संगतिकरण होगा । एसा करने से ही उस पिता की संगति , समीपता , निकटता व साथ प्राप्त होगा । हमारे इतिहास पुरुष सदा ही एसा ही करते आये हैं । हमें भी उनका अनुसरण करना है । इस प्रकार के साधनों को अपनाने से जनक ने अनेक सिद्धियां प्राप्त की थीं , हे जीव ! तुम भी एसे ही उपाय करो , जिन से उस प्रभु की निकटता तुम्हें मिल सके ।
६. आत्मशुद्धि के लिए कर्म करो :-
हम ने अपनी आत्म शुद्धि करना है क्योंकि आत्मशुद्धि के बिना प्रभु का सानिध्य प्राप्त नहीं हो सकता । हम जब प्रभु की निकटता पाने का यत्न कर रहे हैं तो हमारे लिए आत्म शुद्धि आवश्यक है । जब तक आत्मशुद्धि नहीं हो जाती, तब तक हम प्रभु के निकट नहीं जा सकते । इस लिए हम यत्न पूर्वक आत्मशुद्धि के कार्यों को , विधियों को , साधनों को अपनाते हैं । जब हम अपने आप को दिव्य कार्यों में लगा देंगे , उतम कार्यों के लिए अपने जीवन को अर्पित कर देंगे तो हमारे अन्दर की सब मलिनताएं , सब दोष , सब गन्दगी धुल जावेगी और हम शुद्ध व पवित्र हो प्रभु का आशीर्वाद पाने के अधिकारी बन जावेंगे । हम जानते हैं कि संसार के जितने भी योगी हुए हैं , वह सदा आत्म शुद्धि के लिए कर्म करते रहे हैं । हम भी इस प्रकार के कर्मों में ही लगें ।
७. प्रभु सब का शोधन करते हैं :-
जब हम प्रयत्न पूर्वक अपना शोधन करने में जुट जाते हैं , जब हम केवल यग्य शेष को ही ग्रहण करते हैं , जब हम परोपकार के कार्यों को अपनाते हैं तो प्रभु कहते हैं कि मेरे लिए फ़िर सम्भव ही नहीं है कि हे जीव ! मैं तुझे दोष मुक्त न कर सकूं अर्थात अब मैं तुझे शुद्ध करता हूं ,पवित्र करता हूं । अब तूं पूर्ण संस्कारित हो चुका है । अब मैं तुझे मेरी संगति में आने का ,मेरे निकट आने का अधिकार देता हूं ।

डा. अशोक आर्य

हम उत्तम मन वाले बनें

हम उत्तम मन वाले बनें
ड. अशोक आर्य
मानव जीवन में वायु , सूर्य तथा जल पवित्रता आने वाले हैं । इस पवित्रता के आरण ही हममएं यग्य की प्रव्रतियां आती हैं । इससे हम में उत्तम रुधिर्तथा रस आदि धातुएं बट कर शरीर को स्व्स्थ रखती हैं तथा हम दिव्य गुणों से युक्त होकर उतम मन वाले बनते हैं । इस व को यजुर्वेद के मन्त्र संख्य १२ में इस प्रकार कहा गया है :-
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व: प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण
सूर्यस्य रश्मिधि:। सेवीरापोऽअग्रेपुवोऽग्रंऽइम्म्द्य यग्यं नयताग्रे
यग्य्पति सुधातु यग्यपतिं देवयुवम । यजुर्वेद १.१२ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा पति और पत्नि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं कि :-
१. पवित्र झिवन वाले बनो :-
परिवार का मुक्य केन्द्र पति और पत्नि ही होते हैं । यह दोनों जैसे होंगे आगे आने वाली उनकी प्रजा भी वैसी ही होगी । उतम प्रजा के लिए माता पिता का भी उतम होना आवश्यक होता है । इस लिए मन्त्र यहां से ही अपने उपदेश का आरम्भ करते हुए कह रहा है कि हे इस परिवार के पति व पति ! अर्थात हे माता पिताओ ! तुम दोनों अपने जीवन को पवित्र बनाने वाले बनो । अपने जीवन को पवित्रता से भर लो ।
२.तुम मानस, बौद्धिक तथा शारीरिक उनति प्राप्त करो :-
प्रभु मानव को पवित्र बनने का उपदेश करते हुए दूसरे बिन्दु पर कह रहे हैं कि तुम दोनों विष्णु के उपासक बनो। अर्थात तुम व्यापक रुप से तथा उदार व्रति वाले बनें । जब तक मानव में व्यापकता से उदारता नहीं आती, तब तक वह विष्णु रुप ब्रह्म का उपासक बन ही नहीं सकता । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि विष्णु की उपासना के लिए व्यापक उदारता अपने अन्दर लावो । विष्णु के समबन्ध मे मन्त्र उपदेश कर रहा है कि विष्णु उन लोगों का साथ देता है जो उसके साथ तीन कदम बटाते हैं । यह तीन कदम बटाने वाले विष्णु को साक्शात कर लेते हैं या यूं कहें कि विष्णु ही बन जाते हैं । यह तीन कदम कौन से हैं ? इन तीन कदमों में प्रथम कदम का नाम है शारीरिक उन्नति , दूसरे का नाम है मानस उन्नति तथा तीसरे कदम का नाम है बोद्धिक उन्नति । जो मानव शारीरिक रुप से स्वस्थ है , जो व्यक्ति मानसिक रुप से भी स्वस्थ है तथा जिसके पास तीव्र बुद्धि है , एसा व्यक्ति संसार के श्रेष्ट लोगों में गिना जाता है तथा उसके सब कार्य सरलता से सिद्ध होते हैं । इस लिए मानव के द्वारा विष्णु की और जाने वाले यह तीन कदम ही उसकी उतमता के , उसकी उन्नति के प्रतीक होते हैं ।
इस बिन्दु को ही आगे बटाते हुए मन्त्र कह रहा है कि तुम दोनों ने प्रयत्न पूर्वक अपने शरीर को स्वस्थ रखा है, अपने मन को निर्मल किया है तथा अपनी बुद्धि को प्रयत्न पूर्वक तीव्र व उज्ज्वल बनाया है । जब तुम ने यह सब करने में सफ़लता पा ली है तो इसका लाभ भी निश्चित रूप से आप को मिलने वाला है ।
३. पवित्र हो उन्नति पथ के पथिक बनें :-
इस मन्त्र में तीसरा उपदेश इस प्रकार दे रहे हैं कि वह प्रभु उत्पादक है । उस ही के कारण इस जगत की उत्पति हुई है । इस उत्पन्न हुए जगत मेम ही तुम भी एक हो । अत: मैं इस जगत के निवासी तु सब को पवित्र करके उन्नति के पथ पर अग्र्सर करता हूं ।
अब प्रश्न उटता है कि प्रभु हमें जो पवित्र करने के लिए , पवित्र बनने के लिए प्रेरित कर रहा है , वह कौन से साधन हैं , जिससे हम पवित्र होते हैं । इस सम्बन्ध में मन्त्र कह रहा है कि :-
क) वायु पवित्रता का साधन है :-
मन्त्र कहता है कि वायु पवित्र होती है क्योंकि अछिद्र व आकाश से रहित होती है प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे इस वायु से पवित्र करता हूं । वायु समग्र आकाश में होने से आकाश में एसा कोई स्थान नहीं रहता जहां किंचित भी खाली स्थान हो , इस लिए इस वायु के कारण आकाश में कहीं कोई छिद्र नहीं रहता , तब ही तो यहां वायु को अछिद्र कहा गया है । इतना ही नहीं अपितु यह वायु ही है जो हमारे शरीर में प्रवेश कर हमारे अन्दर आक्सीजन के द्वारा हमारे रक्त को शुद्ध करने का कार्य करती है । जिस का रक्त शुद्ध होता है , वह ही स्वस्थ होता है । इस प्रकार वायु हमारे उतम स्वास्थ्य का साधन है ।
ख) सूर्य भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु हमारे अन्दर पवित्रता , शुद्धता ला कर हमें स्वस्थ करती है , उस प्रकार ही हमारे लिए पवित्रता का दूसरा साधन सूर्य होता है । वह पिता उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे जीव ! मैं तुझे सूर्य की किरणों के द्वारा पवित्र करता हूं । सूर्य की किरणों में रोगाणुओं के नाश की अद्भुत शक्ति होती है । यह किरणें जब हमारी छाती पर पडती हैं तो हमारे शरीर में स्थित रोगाणु नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार हमारे अन्दर जो रोग की गन्दगी होती है , यह किरणें उसे धोकर शुद्ध कर देती हैं । इसलिए ही धूप स्नान का उपदेश चिकित्सक देते हैं तथा नवजात शिशु को भी प्रतिदिन धूप में कुछ समय रखने के लिए कहा जाता है ।
ग) जल भी पवित्रता का साधन है :-
जिस प्रकार वायु ओर सूर्य हमें पवित्र करने के साधन हैं , उस प्रकार ही जल भी हमारे लिए पवित्रता लाने का एक अन्य मुख्य साधन है । इस में इन दोनों से भी अधिक दिव्य गुणों से युक्त शक्ति होती है । जल का कार्य है ऊंचे से नीचे को चलना । इस कारण ही यह जल सदा समुद्र की और बटता रहता है । निरन्तर यात्रा में ही रहता है । इस कारण ही यह सब से अधिक पवित्रता लाने का कारण होता है । इस कारण यह जल सब प्रकार के रोगों का औषध होता है ।
इस जल को ही प्रेरित करते हुए प्रभु कहते हैं कि सब को पवित्र करने वाले इस जल से हमारे अन्दर यग्य की भावना बटे । जल का कार्य है पवित्रता लाना । जब हम जल के प्रयोग से अपने को शुद्ध पवित्र कर लेते हैं तो हमारे अन्दर परोपकार की , यग्य की भावना बलवती हो जाती है । अत: यह यग्यीय भावना को बटाने वाला होता है । इस लिए प्रभु कहता है कि इस जल के कारण जो लोग यग्यों को करते हैं , वह इस में जल के ही समान निरन्तरता बनाये रखें । यग्यों को किसी भी व्यवधान के आने पर भी न छोडें तथा यग्यीय जीव निरन्तर उन्नति को प्राप्त करे ।
यग्य में अभ्युदय व निश्रेयस की अपार शक्ति होती है । मन्त्र कहता है कि यह यग्य उसके अर्थात इसे अपनाने वाले जीव के अभ्युदय व नि:शेयस की शक्ति बने , साधक बने । इस यग्य से ही हमारी धातुएं भी पैदा होती हैं तथा बटती हैं । इसलिए कहा है कि यग्य हमारे शरीर की सब धातुओं को दोष रहित रखे , निर्दोष करे । धातुओं की निर्दोषता ही के कारण यह यग्य मनुष्य के जितने भी ग्यात ही नहीं अग्यात रोग हैं , उनसे भी मुक्त करता है । हम जानते हैं कि हमारे शरिर के अनेक रोग , जिनका हमें ग्यान होता है , उनसे मुक्ति के लिए हम तदानुरुप सामग्री आदि की आहुति देकर रोग मुक्त होते हैं किन्तु हमारे शरीर में कई एसे रोग भी विकसित हो रहे होते हैं ,जिन का अभी तक हमें पता ही नहीं होता ,जब तक हमें इन रोगों क पता चलता है तो यह विकराल हो चुके होते हैं । इस प्रकार के रोग , जिनका अभी हमें पता ही नहीं होता कि यह रोग हमारे शरीर में विक्सित हो रहे हैं , इन का भी यग्य के कारण हनन हो जाता है तथा हम रोग मुक्त हो जाते हैं । यह सब जल का ही प्रभाव होता है । इस लिए मन्त्र कह रहा है कि हे जलो ! तुम इस यग्यपति अर्थात प्रतिदिन यग्य करने वाले प्राणी को दिव्य गुणों से संयुक्त करदो , भर दो ।

डा. अशोक आर्य

धर्म व नैतिक शिक्षा की आवश्यकता

ओउम
धर्म व नैतिक शिक्षा की आवश्यकता
डा. अशोक आर्य
आज शिक्षा में नैतिक शिक्षा , धार्मिक शिक्षा तथा आध्यात्मिक शिक्षा का संचय होना चाहिए अथवा नहीं और यदि होना चाहिए तो वह कितना और किस प्रकार होना चाहिए , यह आज की शिक्षा के लिए एक जटिल समस्या का रूप ले चूका है | विद्वान लोग तथा देश व प्रांत की सरकारें इस विषय पर वर्षों से मंथन,चिन्तन मनन कर रही हैं किन्तु इस का कोई समाधान सामने नहीं आ रहा ||
आज हमारे संविधान में इस राज्य के लिए धर्म निरपेक्ष शब्द डाल दिया गया है | इस शब्द ने हमारी शिक्षा की इस जटिलता को और भी अधिक जटिल कर दिया है | इतना ही नहीं आज के अनेक लोग इस का अर्थ धर्म विहीन राज्य अथवा अधार्मिक राज्य के रूप में अनुवाद करने लगे हैं | इस सम्बन्ध में हमारे अनेक राजनेताओं ने तथा हमारे पूर्व राष्ट्रपतियों ने यह स्पष्ट भी किया है कि धर्मं निरपेक्ष का अर्थ धर्म विहीन नहीं अपितु असाम्प्रदायिक है इसलिए प्रत्येक धार्मिक आचरण तथा क्रिया कलाप के लिए सब नागरिक स्वतन्त्र हैं | यह सब स्पष्टीकरण आने पर भी हमारे विद्यालयों में इस प्रकार की शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं किया गया | इसके साथ ही यह विचार भी चल निकला है कि शिक्षा प्रसार के लिए सरकार से यदि किसी प्रकार की सहायता पानी है तो धर्म निरपेक्ष की छवि बनाते हुए धार्मिक शिक्षा को नहीं अपनाना होगा
इस सब का क्या परिणाम हम देख रहे हैं | वह यह कि आज का छात्र उच्छ्रिन्खल , अनुशासनहीन ,सदा नैतिक पतन की और बढ़ने वाला , देश के उच्च आदर्श से सदा दूर रहने वाला बनता जा रहा है | इस कारण न केवल उसके गुरुजन सब शिक्षा शास्त्री ही नहीं , उसका अपना परिवार भी परेशान है , खिन्न

है | उन्हें समझ ही नहीं आ रहा कि आज के विद्यार्थी को सुमार्ग पर लाने के लिए वह क्या करें ? उन्हें कोई उपाय सूझ ही नहीं रहा कि वह क्या करें इसलिए वह किंकर्तव्य विमूढ़ से ही बन गए हैं |
इस समस्या के समाधान के लिए हमें निश्चित ही वेद की शरण में जाना होगा क्योंकि वेद ही सब समस्याओं का समाधान अपने में समेटे हुए हैं | वेद एक इस प्रकार का सच्चा मार्गदर्शक ग्रन्थ है , जिसमें नीति , धर्म और आध्यात्मिकता का सब से अधिक प्रतिपादन किया है | वेद में न केवल भूमि को ही धारण करने वाले गुणों का वर्णन मिलता है बल्कि अन्य वस्तुओं का भी वर्णन मिलता है | इस अन्य में ब्रह्म तथा वेद को भी समाहित किया गया है | इस प्रकार हमारी समस्या का समाधान वेद की शरण के बिना संभव ही नहीं हो पाता इस सम्बन्ध में अथर्ववेद का एक मन्त्र दर्शनीय है | मन्त्र कह रहा है कि :-
सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो पृथिवीं धारयन्ति || अथर्ववेद १३.१.१.||
इस मन्त्र में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि पृथिवी को धारण करने वाले कौन हैं ? मन्त्र कहता है कि पृथिवी को धारण करने वालों में सत्य , विस्तृत शिक्षा , तेजस्विता , ब्रह्मचर्य आदि की दीक्षा , शीतोष्ण , सुख दुःख , हानि लाभादि द्वंद्व , सहिष्णुता , वेद का ब्रह्म ज्ञान तथा यग्य , यह सब तत्व इस प्रकार के हैं , जो हमारी भूमि को धारण करते हैं | इस सब से एक तथ्य जो सामने आता है वह यह कि हमारी इस पृथिवी को धारण करने के लिए सत्य पर आधारित उच्च शिक्षा से प्राप्त तेजस्विता , जो वेद की शिक्षा से ही मिलती है , यह सब ही इस पृथिवी को धारण करते हैं अर्थात पृथिवी के बाहर और अन्दर
जो क्लुछ भी ओषध, वनस्पतियाँ , खनिज आदि है , वह सेब वेद की इस शिक्षा

के आधार पर हमें मिल जाते हैं |
इस विचार को जब हम ध्यान से देखते हैं कि इस पृथिवी के अस्तित्व के लिए यह सब पदार्थ ही कारण हैं | यदि यह वेदोक्त कारण नहीं प्राप्त होते तो पृथिवी की कुछ भी उपयोगिता न रह पाती | |इसलिए पृथ्वी के धारण में यह सब पदार्थ अपना अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं | जिससे यह पृथिवी पृथिवी कहलाने के योग्य बन पाती है | अत: वेद ज्ञान के बिना पृथिवी के धारण का प्रशन ही नहीं उठता यह एक असंभव प्रश्न है , जिसे कभी हल नहीं किया जा सकता अथवा जिसका कभी उत्तर ही नहीं दिया जा सकता | हमारे जितने भी शास्त्रकार हुए हैं सब ने एक स्वर से धर्म का मूल वेद को स्वीकार किया है |

सत्य से ही कल्याण सम्भव

सत्य से ही कल्याण सम्भव
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा सब को सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं । सत्य से ही दोनों लोकों का कल्याण होता है । इस सत्य को प्रतिष्टित करने के लिए ही हम उदार बनें , क्रियाशील बनें । यह बात यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा तस्मै त्वा युनक्ति ।
कर्मणे वा वेषाय वाम ॥ यजुर्वेद १,६ ॥
गत मन्त्र में सत्य का व्रत लेने का प्रभु ने आदेश दिया है । इस मन्त्र में भी चार बिन्दुओं के माध्यम से सत्य बोलने की ही प्रेर्णा दी गयी है :”-
१. सत्य से स्वर्गिक आनन्द मिलता है :-
परम पिता परमात्मा सब को सुख देने वाले हैं तथा प्रभु का मानना है कि संसार के सब सुखों का आधार सत्य भाषण ही है । इस लिए व इस जगत के प्राणी को सत्य भाषण के लिए ही प्रेरणा दे रहे हैं तथा कह रहे हैं कि हे जीव ! यदि तूंने सुखों की कामना करनी है, जीवन में सदा सुखी रहना है तो निश्चय ही तुझे सत्य की शरण में जाना है तथा सदा सत्य बोलना है , सत्याचरण ही करना है । इस सत्य को धारण किये बिना, सत्य आचरण किये बिना तुझे कभी सुख के दर्शन नहीं मिलेंगे । यह सत्य ही है, जिसके पालन से , जिसे अपनाने से मानव को वैसा आनन्द प्राप्त होता है , जिसे स्वर्गिक आनन्द मिलता है । यह ही वह कारण है कि प्रभु सदा ही तुझ जीव को इस सत्य का आचरण करने के लिए, सत्य बोलने के लिए सदा ही प्रेरित करते है ।
२. सत्य से प्रेय व श्रेय कि सिद्दी :-
मानव जीवन के दो मार्ग बताये गये हैं :-
(क) प्रेय मार्ग
(ख) श्रेय मार्ग
इन दो मार्गों में से किसी एक मार्ग पर मानव को निश्चय ही चलना होता है । मानव का अन्तिम उद्देश्य सम्मानित जीवन पाने का होता है , जिसे श्रेय मार्ग कहा जाता है। इस सम्मानित जीवन को पाने के लिए उसे एसे कार्य करने होते हैं , जिन से जन हित होता हो । इन जनहित के कार्यों मे दान देना, पुण्य करना , दीन दु:खियों की सहायता करना , दूसरों के कष्टों को अपना कष्ट समझ कर उसे दूर करने का यत्न करना ही प्रमुख साधन है ।
वैशेषिक दर्शन सत्य को ही धर्म मानता है । इस का कहना है कि जब हम सत्य का आचरण करते हैं तो हम धर्म के मार्ग पर चल रहे होते हैं । सत्य अभ्युदय का मार्ग है । सत्य का आचरण करने वाला उपर उटता है , उन्नति करता है । नि:श्रेयस भी सत्य से ही सिद्ध होता है । मन्त्र भी कहता है कि हे जीव ! वह प्रभु तुझे कर्मों में व्याप्रत कर , तुझे उत्क्रष्ट लोक की प्राप्ति के लिए सत्य बोलने तथा सत्य आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
३. कर्म में लगे रहना ही सत्य है :-
जहां सत्य भाषण को सत्य कहा गया है , वहीं अब यह भी कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलना भी सत्य कर्म ही है । इस बात को परमपिता परिवार के साथ जोड कर कह रहे हैं क्योंकि पिता जानते हैं कि यदि परिवार उत्तम होगा तो सन्तान भी उत्तम ही होगी । माता पिता सत्य का आचरण करेंगे तो उनकी सन्तान भी सदा सत्य बोलने वाली ही होगी , सदा सत्य मार्ग पर चलने वाली ही होगी ।
इस लिए परिवा के मुख्य आंग , परिवार के आधार स्तम्भ अर्थात पति ओर पत्नि को पिता उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हे परिवार के आधार स्तम्भ पति ओर पत्नि ! आप दोनों कर्म में सदा लिप्त रहो , कुछ न कुछ करत्रे रहो किन्तु जो भी कस्रो , वह सब सत्य पर आधारित होना चाहिये । सस्त्य करम ही तुम्हारा उद्दार करेंगे । तुं जान की सत्य क्या है ? निरन्तर कर्म करते रहना ही सत्य है । जब तुम कर्म्करते हो ,पुरुषर्थ करते हो , मेहनत करते हो तो निश्चय ही तु सत्य मार्ग पर चल रहे हो ।
कर्म के उलट होता है अकर्म, आलस्य तथा अकर्मण्यता । जो व्यक्ति मेहनत नहींकरता , पुरुषार्थ नहीं करता , कर्म हीन होता है , व्ह व्यक्ति सत्य के आचरण से दूर जा रहा होता है । इस लिए हम सदा पुर्रुषार्थी बनें , जो सत्य का मार्ग है ।
निरन्तर गमन करते रहना , निरन्तर कर्मशील रहने को ही आत्मा कहते हैं । जो व्यक्ति पुरुषार्थ न कर आलसी बना रहता है , उस से आत्माहीन माना जाता है , कहा जाता है कि उसकी आत्मा मर गयी है । कर्म ही क्रिया ही , पुरुशार्थ ही आत्मा का अध्यात्मिक स्वभाव है , कर्म ही अत्मा का स्वभाव है । ज्योंही हम क्रिया हीन हो जाते हैं , कर्म हीन हो जाते हैं त्यों ही हमारा आत्म तत्व नष्ट हो जाता है , आत्मा मर जाती है ।
४. विशालता में ही सत्य स्थित है :-
किसी व्याप्ति के लिए , व्याप्त बनने के लिए , अपने आप को उदार बनाने के लिए , उदार मनोव्रति को अपनाने के लिए ,धारण करने के लिए परम पिता परमात्मा आप सब को यह प्रेरणा दे रहे हैं । जब हमारी मनोव्रति संकुचित हो जाती है , छोटी हो जाती है तो इस प्रकार की व्रति में असत्य आ जाता है , असत्य मिल जाता है , इसका समावेश हो जाता है । इस लिए सत्य मनोव्रति धारण करने की प्रभु प्ररेर्णा करते हैं । प्रभु का कहना है कि जब हमारा ह्रदय विशाल होता है तो हमारे अन्दर पवित्रता आती है , जहां पवित्रता होती है , वहां ही सत्य का निवास होता है ।
मन्त्र के दो भग किये गये हैं :-
(क) प्रभु के गुणों यथा सुख स्वरुप अर्थात सब सुखों को देने वाले हैं , वह प्रभु सदा से ही सुप्रसिद्ध रहे हैं , वह स्वयंभू भी हैं , सत्य पर चलने के कारण उन्हें सत्य स्वरुप भी कहा गया है । एसे प्रभु समग्र संसार को सदा सत्य पर चलने की ही प्रेरणा करते हैं ।
(ख) प्रभु की इच्छा है कि यह जगत सुखमय हो , इस संसार के सब प्राणी सदा सुखी रहें । इतना ही नहीं वह चाहते है कि प्रत्येक प्राणी का परलोक भी सिद्ध हो , उत्तम हो । इस सब के लिए वह पिता इस के लिए प्रेरित करते हैं । आदि खण्ड में ही प्रभु ने कहा है कि सत्य को प्रतिस्थापित करने के लिए हम करम में रत , क्रिया – शीलता , पुरुषार्थ तथा उदारता के व्यवहार को अपनावें ।
डा.अशोक आर्य

तप से मेरा ह्रदय विशाल हो

तप से मेरा ह्रदय विशाल हो
डा. अशोक आर्य
मैं अपनी राक्षसी आदतों को छोडकर दनशील बनूं । सदा तप करता रहूं तथा इस तप से अपनी इन बुराईयोण को जला कर राख कर अपने ह्रदय को विशाल करुं । इस भावना क उप्देश यह मन्त्र इस प्रकार कर रहा है :-
प्रत्युष्टंरक्श: प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्तंरक्शो निष्ट्प्ताऽअरातय: ।
उर्वुन्त्रिक्शमन्वेमि ॥ रिग्वेद १.७ ||
इस मन्त्र मे चार बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुये उपासक प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना कर रहा है :-
१. राक्षसी प्रवृतियों का नाश हो :-
राक्षसी प्रव्रतिया प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर खैंचती हैं । यह प्रव्रतियां बहुत खतरनाक होती हैं ,जिस में भी घुसती हैं ,जिसे भी घेरती हैं , उसका अल्प काल में ही नाश हो जाता है । उसका अपना ही नाश नहीं होता , जो इस के आसपास होते है या जो इस के परिजन व मित्र होते हैं वह भी कलह – कलेष में फ़ंसकर नष्ट हो जाते हैं । इस लिए प्रभु से विनती की है कि हे प्रभु यह जो राक्शसी प्रव्रतियां हैं यह मेरे अन्दर न घुसने पावें तथा आप की सहायता से मैं इन्हें जला कर नष्ट कर दूं । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश न करने दूं ।
भाव यह है कि अपने हित के लिए ओरों को हानि देने वाली जितनी भी भावनाएं हैं , वह मुझ में प्रवेश न कर सकें , मुझ में पैदा ही न होने पावें । मैं अपने सुख साधनों को बटाने के लिए किसी भी रूप में दूसरों को हानि न होने दूं । सब के हित का ही सदा ध्यान रखूं ।
२. दान देने के पश्चात ही खाऊं :-
इस मन्त्र में जिस दूसरे बिन्दु पर विचार किया गया है , वह है दान की वृति । जीव नहीं चाहता कि वह सदा अपने ही हित साधन में लगा रहे । वह पर हित का भी ध्यान रखना चाहता है । इस लिए प्रभु से प्रार्थना करता है कि , वह उसे इतनी शक्ति दे कि वह अपनी दान न देने वाली आदतों को नष्ट करदे तथा अपने ही हित का ध्यान न रखते हुए अपनी सब सम्पति अपने ही हित में व्यय न कर ओरों के ह्त का भी ध्यान रखे , ओरों को भी उपर उटाने का यत्न करे । जीव चाहता है कि वह सदा त्यागपूर्वक प्रभु की दी हुई सम्पतियों का भोग करे, उपभोग करे । इसके लिए वह अपने जीवन को यग्य मय बनाने की इच्छा रखता है । जिस प्रकार यग्य में डाला पदार्थ दूर दूर तक न जाने कितने लोगों का ओर न जाने किस किस का हित करता है । उस प्रकार भी जीव चाहता है कि उसके द्वारा किस किस का हित हुआ है , इसका भी उसे पता न चले , वह जो भी दे गुप्त रुप से ही दे , गुप्त दन्के रुप से ही दे ।
इस प्रकार जीव चाहता है कि जिस प्रकार यग्य शेष को सब में बांट कर फ़िर बचा हुआ ही अपने लिए उपभोग किया जाता है । इस प्रकार मैं सब में बांटने के पश्चात बचे हुए धन का ही अपने लिए प्रयोग करूं । जो मेरे पास है उससे जन हित के कार्य करूं तथा बचे हुए शेष को ही अपने लिए प्रयोग करुं ।
३. तप से दान की वृतियां आती हैं :-
मन्त्र कहता है कि तप दो कार्य करता है (क) यह रक्शी तथा अदान की आदतों को जला कर राख कर देता है तथा (ख) दान की आदतों को बटाता है । इसे ही ध्यान में केन्द्रित कर मन्त्र कह रहा है , उपदेश कर रहा है कि राक्शसी व्रतियों को दूर करने के लिए तपश्चर्या करें तथा दान न देने की आदतों का भी विनाश करने के लिए तप करें । तपश्चर्या, प्रभु का स्मरण , प्रभु के समीप आसन लगाने से हमारी जितनी भी रक्शसी आदतें हैं, वह जल कर नष्ट हो जाती हैं , दान न देने की भावना भी दूर हो जाती हैं तथा हम दूसरों के सहायक बन कर उन्हें भी अपने ही समान उपर उटाने के लिए सहयोग करते हैं , अपने धन को दान स्वरुप ,सहयोग के लिए उन्हें दे देते हैं । जब हमारे अन्दर की भोग की , वासना की व्रतियां ही नष्ट हो जावेंगी तो ओरों को हानि देने का तो कभी सोच भी नहीं सकते ।
४. ह्रदय की विशालता से देव बनते हैं :-
ह्रदय की विशालता हमें देवत्व की ओर ले जाती है , उन्नति की ओर ले जाती है । इस कारण ही तप करने वाला व्यक्ति सदा अपने ह्रदय को विशाल बनाने का प्रयास करता है । उस के जीवन का कोई भी कार्य कभी भी स्वार्थी बनकर , ह्रदय को संकुचित करके नहीं किया जाता । वह सदा खुले मन से , दूसरे के हित को सामने रखते हुए सब कार्य काता है । उस के अन्दर की यह विशालता ही उसके ह्रदय को पवित्र बनाती है , पवित्र रखती है । यह ही कारण है कि उसके अन्दर भोग की इच्छाएं कभी जन्म ही नहीं ले पातीं । जब हम अपने से पहले दूसरे का हित चाहते हैं तो हम पवित्र हो जाते हैं तथा एसा पवित्र व्यक्ति ही मानवत्व से उपर उटकर देव बनता है । अत: हम भी देव अर्थात दूसरों को कुछ देने वाले बन जाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु क उपदेश है इ हम सत्य का व्रत लें ,इसका पालन्कर देवत्व को प्राप्त करें । देवत्व को प्राप्त कर ही हम प्रभु प्रप्ति के अध्करी बनते हैं । यह मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डालता है :-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिश्यामि तच्छेकेयं तन्मे रध्यताम ।
इदमहम्न्रतात सत्मुपैमि ॥यजुर्वेद १.५ ॥
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के चतुर्थ मन्त्र पर विचार करते हुए बताया गया था कि वेदवणी हमारे सब प्रकार के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है । प्रस्तुत मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बटाते हुए तीन बिन्दुओं के माध्यम से उपदेश काते हुए बताता है कि :-
१.हमारे सब कर्य सत्य पर आश्रित हों :-
मन्त्र कहता है कि विगत मन्त्र के अनुसार जो स्पष्ट किया गया थ कि हमारा अन्तिम ध्येय परम पिता की प्राप्ति है । इस पित को पाने का माध्यम वेदवाणियों के अनुरुप अपने आप को चलाना है , इसके आदेशों को मानना है । इस के बिना हम प्रभु तक नहीं जा पाते । वेद में इस मार्ग के अनुगामी व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं । इन कर्तव्यों में एक है सत्य मार्ग पर आश्रित होना ,सत्य मार्ग पर चलना ।
मन्त्र के आदेशानुसार प्रभु की समीपता पाने के लिए हमारे सब कर्तव्यों के अन्दर एक सूत्र का ओत – प्रोत होना बताया गया है तथा कहा गया है कि हमारे सब कर्तव्य सत्य पर ही आधरित हों । सत्य के बिना हम किसी भी कर्तव्य की इति श्री न कर सकें , पूर्ति न कर सकें । भाव यह है कि हम सदैव सत्य का आचरण करें , सत्य का ही प्रयोग करें ओर सत्य मार्ग पर ही चलें ।
सत्य के इस कर्तव्य को सम्मुख रखते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हे इस संसार के संचालक !, हे पग पग पर सांसारिक प्राणी को मार्ग दर्शन देने वाले , रास्ता दिखाने वाले प्रभो ! मैं एक व्रत धारण करूंगा , मैं एक प्रतिग्या लेता हूं कि मैं लिए गए व्रतों का सदैव पालन कर सकूं , उस लिए गए व्रत के अनुरुप अपने आप को टाल लूं , तदनुरुप अपने आप को चलाउं । जो व्रत मैने लिया है , उसके अनुसार ही कार्य व्यवहार करुं । इस प्रकार प्रभु मेरा यह व्रत सिद्ध हो , जो मैंने प्रतिग्या ली है उस पर चलते हुए मेरी वह प्रतिग्या पूर्ण हो । मैं उसे सफ़लता पूर्वक इति तक ले जा सकूं ।
इस प्रकार हे प्रभो ! मैं सदा व्रती रहते हुए , उस पर आचरण करते हुए , इस सत्य मार्ग पर चलते हुए मैं अन्रत को , मैं गल्त मार्ग को , मैं झुट के मार्ग को छोड कर इस सत्य मार्ग का , इस सज्जनों के मार्ग का आचरण करूं ओर इस में विस्त्रत होने वाले , इस मार्ग पर व्यापक होने वाले सत्य को मैं अति समीपता से , अति निकटता से प्राप्त होऊं ।
२. सत्य की प्राप्ति व्रस्त का स्वरुप :-
प्रश्न उटता है कि हमने जो व्रत लिया है , जो प्रतिग्या ली है , उसका स्वरुप क्या है ? विचार करने पर यह निर्णय सामने आता है कि हम ने जो व्रत लिया है इस व्रत का संक्शेपतया स्वरूप यह है कि हम अन्रत को छोड दें, हम पाप के मार्ग को छोड दें । हम बुरे मार्ग पर चलना छोड दें । यह अन्रत का मार्ग हमें उन्नति की ओर नहीं ले जाता । यह मार्ग हमें ऊपर उटने नहीं देता । यह सुपथ नहीं है । यह गल्त मार्ग है । हमने अपने जिस ध्येय को पाने की प्रतिग्या ली है , यह पाप का मार्ग हमें उस ध्येय के निकट ले जाने के स्थान पर दूर ले जाने वाला है । इसलिए हमने इस मार्ग पर न जा कर सत्य के मार्ग पर चलना है । मानो हम ने गाजियाबाद से दिल्ली जाना है । इसके लिए आवश्यक है कि हम दिल्ली की सडक पकडें । यदि हम मेरट की सडक पर चलने लगें तो चाहे कितना भी आगे बटते जावें , चलते जावें, कभी दिल्ली आने वाली नहीं है । इस लिए हम ने जो उस पिता को पाने की प्रतिग्या ली है , उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम असत्य मार्ग को छोड सत्य मार्ग को प्राप्त हों , तब ही हमें उस पिता की समीपता मिल पावेगी ।
३.सत्य से उत्तरोत्तर तेज बटता है :-
परमपिता परमात्मा को व्रतपति कहा गया है । वह प्रभु हमारे सब्व्रतों के स्वामी हैं । हमारे किसी भी व्रत की इति श्री , हमारे कीसी भि व्रत की पुर्ति , उस प्रभु की दया द्रष्टि के बिना, उस प्रभु की क्रपा द्रष्ट के बिना पूर्ण होने वाली नहीं है । जब प्रभु की दया हम पर बनेगी तो ही हम अपने किए गए व्रतों को सिद्ध कर सकेंगे । इस लिए हमने जो सत्य पथ का पथिक बनने का जो व्रत लिया है , उसको सफ़लता तक ले जाने के लिए हमने सत्य – व्रत का पालन करना है तथा सुपथ गामी बनना है । प्रभु का उपासन , प्रभु की समीपता , प्रभु के निकट आसन लगाना ही हमारी शक्ति का स्रोत है । इसलिए हमने प्रभु के निकट जाकर बैटना है । तब ही हम अपने लिए गए व्रत का पालन करने में सफ़ल हो सकेंगे । जब हम सत पर चलते हैं , जभम सत्य्व्रती हो , इस व्रत की पूर्ति का यत्न करते हैं तो धीरे धीरे हमारा तज भी बटता है जब कि अन्रत माअर्ग पर चलने से , बुराईयों के , पापों के माग पर चलने से हमारा तेज क्शीण होता है , नष्त होता है । इसलिए अपने तेज को बटाने के लिए हमें सत्य मार्ग पर ही आगे बटना है । यह उपदेश ही यह मन्त्र दे रहा है ।
डा. अशोक आर्य

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं –

डा. अशोक आर्य
सम्पूर्ण जीवन वेदवाणी के विचार का विषय है तथा वह कर्म व पुरुषार्थ प्रधान है । हमें ज्ञान देती है । सोम से हम छोटे प्रभु का रुप लेते हैं, उन्नति करते हुए, ह्व्य की रक्शा करते हुए, हम अपने जीवन को यग्यमय बनावें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है :-
सा विश्वायु: सा विश्वकर्मा सा विश्वधाया:।
इन्द्रस्य त्वा भागंउसोमेनातनच्पि विश्णो ह्व्यंउरक्श॥यजुर्वेद १.४ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर उपदेश करते हुए बताया गया है कि :-
१. वेदवाणी सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करती है : –
विगत मन्त्र में वेदवाणी के दोहन का विस्तार से वर्णन किया गया है , यह वेदवाणी हमारे सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करने वाली है । इससे स्पष्ट है कि मानव जीवन के आदि से अन्त तक के जीवन के सम्बन्ध में वेद में चर्चा आती है । वेद में जीवन के विभिन्न अवसरों पर मानव के करणीय कार्यों व कर्तव्यों की बडे विस्तार से चर्चा की है तथा उपदेश किया है कि हे मानव ! यह वेद मार्ग ही तेरे सुख का मार्ग है , तेरे धन एश्वर्य की प्राप्ति का साधन है , तेरे लिए श्रेय प्राप्ति का साधन है । इसलिए तूं सदा वेद के अनुसार ही अपने जीवन को चला । जब कभी तूं वेद मार्ग से भटकेगा , तब ही तेरे लिए विनाश का मार्ग खुल जावे गा , अवन्ति के गढे में गिरता चला जावेगा । इस लिए वेदवाणी की शरण में ही रहना , इसके आंचल को कभी अपने से हटने मत देना ।
वेद में ब्राह्मण आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के लिए क्या करणीय है तथा उनके क्या क्या कर्तव्य हैं , सामाजिक स्थितियों में पति – पत्नि ,बहिन – भाई , पिता – पुत्र , शिष्य – आचार्य, राजा – प्रजा , ग्राहक – दुकानदार आदि के कार्यों , कर्तव्यों , करणीय कार्यों आदि की बडे ही विस्तार से चर्चा की गई है । समाज के प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक वर्ग के लिए बडा ही सुन्दर उपदेश करते हुए , उनके कर्तव्यों विष्द प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार वेद ही समाज के प्रत्येक प्राणी का मार्ग – दर्शक है । इस पर चलने पर ही क्ल्याण का मार्ग खुलता है ।
२. वेदवाणी सब के कार्यों का वर्णन करती है :-
समाज में अनेक खण्ड हैं , समाज के कार्यों का विभाजन करते हुए , प्रत्येक आश्रम , प्रत्येक वर्ण के कार्यों व कर्तव्यों पर भी इस वेदवाणी में चर्चा की गयी है । वेद्वाणी का उपदेश है कि अपने कर्तव्यों को अवश्यम्भावी समझते हुए उसे तत्काल करना आरम्भ कर दो तथा तब तक उन पर कार्य करते रहो , जब तक सम्पन्न न हो जावें किन्तु अधिकारों की मांग कभी भी मत करें । जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , तब तक समाज उपर नहीं उठ सकता , उन्नति नहीं कर सकता । अत: समाज की उन्नति के लिए ही नहीं , अपनी स्वयं की उन्नति के लिए भी पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्तव्यों की इति श्री आवश्यक है । इससे ही जीवन सुन्दर बनता है । इसके साथ ही हम कभी अपने अधिकारों की चर्चा तक न करें। जब हम अधिकारों को मांगने लगेंगे तो समाज का ताना बाना ही बिगड जावेगा । यह सत्य है कि जब हम अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में लगते हैं तो यह अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त होते जाते हैं । इन पर अलग से कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं होती । तब ही तो गीता में भी उपदेश किया गया है कि ” तुम्हारा अधिकार कर्म का ही है फ़ल का नहीं ।” कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन ॥
३. वेदवाणी समग्र ज्ञान का पान कराती है :-
वेद सब प्रकार का ज्ञान देते हैं , यह सब प्रकार के ज्ञानों का पान कराते है । एसा कोई ज्ञान नहीं है , जिसका वर्णन इस वेदवाणी में न हो । वेदवाणी द्वारा दिये इस ज्ञान से ही हमारी कर्तव्य भावना का उदय होता है , जागरण होता है । इस ज्ञान को दूध मानते हुए , इस समग्र ग्यान के दूध का हमें यह वेदवाणी हमें पान कराती है । वेदवाणी में सब सत्य विद्याओं का ज्ञान प्रकाशित किया गया है । इस कारण यह प्राणी मात्र को व्यापक ज्ञान देती है । अनेक विद्वानों ने वेदवाणी को गौ के नाम से तथा इस के उपदेश को गाय के दूध के नाम से सम्बोधन किया है क्योंकि यह मानव के जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम बनाने वाले गाय के दूध के ही समान जगत के सब प्राणियों को धारण करती है तथा इन सब का पालन भी करती है ।
इस वेदवाणी की चर्चा के साथ ही परम पिता परमात्मा कहते हैं कि हे जीव इस वेदवाणी का स्वाध्याय करने के कारण मैं तुझे अपने छोटे रुप में तैयार कर देता हूं , तुझे अपने छॊटे रुप में बना देता हूं , ताकि तूं भी मेरे ही समान अपने से छोटे , अपने से अग्यानी लोगों में इस वेदवाणी के ज्ञान को बांट सके । इस प्रकार मैं तुझे ठीक कर देता हूं , ठीक बना देता हूं ।
मानव जीवन में जो कुछ भी खाता है , उस आहार का अन्तिम रस अथवा सार रुप हमारा यह वीर्य होता है । इस वीर्य के द्वारा ही हमारे यह पिता हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं । इस सोम रक्षा से जहां हमारा स्वास्थ्य उत्तम बनता है , वहां हमारे मन से सब प्रकार के विकार , सब प्रकार के दोष धुल जाने के कारण इस में ईर्ष्या , द्वेष आदि को स्थान ही नहीं मिलता । सोम की रक्षा करने से हमारे शरीर में इतनी शक्ति आ जाती है कि इस में किसी प्रकार की इर्ष्या , किसी प्रकार का राग, किसी प्रकार का द्वेष स्थान ही नहीं पा सकता । इस प्रकार हम अपना समय राग – द्वेष में न लगा कर निर्माण के कार्यों में लगाते हैं । इससे हमें अत्यधिक धन एश्वर्य की प्राप्ति होती है । हम सोम रुप हो जाते हैं । सोम रुप होने से हम में ज्ञान की अग्नि भडक उठती है । ज्ञान प्राप्त करने की अद्भुत इच्छा शक्ति पैदा होती है । इस ज्ञाणाग्नि रुपी ईंधन को पा कर यह अग्नि , यह इच्छा शक्ति ओर भी तीव्र हो जाती है तथा इससे हमारा मस्तिष्क तीव्र हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस में ज्ञान का अत्यधिक प्रकाश हो जाता है , जिस प्रकाश का तेज हमारे आभा – मण्ड्ल को भी दमका देता है,चमका देता है । इस सोम से मानव का जहां मस्तिष्क दीप्त होता है वहां शरीर व मन आदि सब कुछ ही ठीक हो जाता है, पुष्ट हो जता है ।
४. मानव विष्णु बन जाता है :-
मानव जब सब प्रकार की उन्नति करने वाला बन जाता है तो इस प्रकार की उन्नति को त्रिविध उन्नति कहते हैं तथा इस प्रकार की उन्नति करने में सफ़लता पाने वाले मानव को त्रिविक्रम कहते हैं । इस त्रिविक्रम प्राणी को विश्णु भी कहा जाता है । इस प्रकार तीनों विधियों से उन्नत होने के कारण यह विष्णु बन जाता है । जो विष्णु बन जाता है , उससे परम पिता उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे सब प्रकार से व्यापक उन्नति करने वाले प्राणी ! तुम अपने जीवन से , अपने श्वासों से ,अपने कर्मों से इस यज्ञ की सदा रक्षा करना अर्थात सदा यज्ञ आदि कर्म करते रहना तथा अपने जीवन को भी यज्ञमय ही बना देना । यज्ञ को अपने जीवन से कभी अलग मत होने देना , विलुप्त मत होने देना । तेरे यह प्रभु यग्य रुप ही हैं । इस प्रकार जीवन पर्यन्त यज्ञ करने से ही तूं वास्तव मे इस यज्ञरुप प्रभु की निकटता पा सकेगा , उस प्रभु के समीप अपना आसन लगा सकेगा, उसकी उपासना कर सकेगा ।
डा. अशोक आर्य