सत्य से ही कल्याण सम्भव

सत्य से ही कल्याण सम्भव
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा सब को सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं । सत्य से ही दोनों लोकों का कल्याण होता है । इस सत्य को प्रतिष्टित करने के लिए ही हम उदार बनें , क्रियाशील बनें । यह बात यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा तस्मै त्वा युनक्ति ।
कर्मणे वा वेषाय वाम ॥ यजुर्वेद १,६ ॥
गत मन्त्र में सत्य का व्रत लेने का प्रभु ने आदेश दिया है । इस मन्त्र में भी चार बिन्दुओं के माध्यम से सत्य बोलने की ही प्रेर्णा दी गयी है :”-
१. सत्य से स्वर्गिक आनन्द मिलता है :-
परम पिता परमात्मा सब को सुख देने वाले हैं तथा प्रभु का मानना है कि संसार के सब सुखों का आधार सत्य भाषण ही है । इस लिए व इस जगत के प्राणी को सत्य भाषण के लिए ही प्रेरणा दे रहे हैं तथा कह रहे हैं कि हे जीव ! यदि तूंने सुखों की कामना करनी है, जीवन में सदा सुखी रहना है तो निश्चय ही तुझे सत्य की शरण में जाना है तथा सदा सत्य बोलना है , सत्याचरण ही करना है । इस सत्य को धारण किये बिना, सत्य आचरण किये बिना तुझे कभी सुख के दर्शन नहीं मिलेंगे । यह सत्य ही है, जिसके पालन से , जिसे अपनाने से मानव को वैसा आनन्द प्राप्त होता है , जिसे स्वर्गिक आनन्द मिलता है । यह ही वह कारण है कि प्रभु सदा ही तुझ जीव को इस सत्य का आचरण करने के लिए, सत्य बोलने के लिए सदा ही प्रेरित करते है ।
२. सत्य से प्रेय व श्रेय कि सिद्दी :-
मानव जीवन के दो मार्ग बताये गये हैं :-
(क) प्रेय मार्ग
(ख) श्रेय मार्ग
इन दो मार्गों में से किसी एक मार्ग पर मानव को निश्चय ही चलना होता है । मानव का अन्तिम उद्देश्य सम्मानित जीवन पाने का होता है , जिसे श्रेय मार्ग कहा जाता है। इस सम्मानित जीवन को पाने के लिए उसे एसे कार्य करने होते हैं , जिन से जन हित होता हो । इन जनहित के कार्यों मे दान देना, पुण्य करना , दीन दु:खियों की सहायता करना , दूसरों के कष्टों को अपना कष्ट समझ कर उसे दूर करने का यत्न करना ही प्रमुख साधन है ।
वैशेषिक दर्शन सत्य को ही धर्म मानता है । इस का कहना है कि जब हम सत्य का आचरण करते हैं तो हम धर्म के मार्ग पर चल रहे होते हैं । सत्य अभ्युदय का मार्ग है । सत्य का आचरण करने वाला उपर उटता है , उन्नति करता है । नि:श्रेयस भी सत्य से ही सिद्ध होता है । मन्त्र भी कहता है कि हे जीव ! वह प्रभु तुझे कर्मों में व्याप्रत कर , तुझे उत्क्रष्ट लोक की प्राप्ति के लिए सत्य बोलने तथा सत्य आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं ।
३. कर्म में लगे रहना ही सत्य है :-
जहां सत्य भाषण को सत्य कहा गया है , वहीं अब यह भी कहा गया है कि सत्य के मार्ग पर चलना भी सत्य कर्म ही है । इस बात को परमपिता परिवार के साथ जोड कर कह रहे हैं क्योंकि पिता जानते हैं कि यदि परिवार उत्तम होगा तो सन्तान भी उत्तम ही होगी । माता पिता सत्य का आचरण करेंगे तो उनकी सन्तान भी सदा सत्य बोलने वाली ही होगी , सदा सत्य मार्ग पर चलने वाली ही होगी ।
इस लिए परिवा के मुख्य आंग , परिवार के आधार स्तम्भ अर्थात पति ओर पत्नि को पिता उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हे परिवार के आधार स्तम्भ पति ओर पत्नि ! आप दोनों कर्म में सदा लिप्त रहो , कुछ न कुछ करत्रे रहो किन्तु जो भी कस्रो , वह सब सत्य पर आधारित होना चाहिये । सस्त्य करम ही तुम्हारा उद्दार करेंगे । तुं जान की सत्य क्या है ? निरन्तर कर्म करते रहना ही सत्य है । जब तुम कर्म्करते हो ,पुरुषर्थ करते हो , मेहनत करते हो तो निश्चय ही तु सत्य मार्ग पर चल रहे हो ।
कर्म के उलट होता है अकर्म, आलस्य तथा अकर्मण्यता । जो व्यक्ति मेहनत नहींकरता , पुरुषार्थ नहीं करता , कर्म हीन होता है , व्ह व्यक्ति सत्य के आचरण से दूर जा रहा होता है । इस लिए हम सदा पुर्रुषार्थी बनें , जो सत्य का मार्ग है ।
निरन्तर गमन करते रहना , निरन्तर कर्मशील रहने को ही आत्मा कहते हैं । जो व्यक्ति पुरुषार्थ न कर आलसी बना रहता है , उस से आत्माहीन माना जाता है , कहा जाता है कि उसकी आत्मा मर गयी है । कर्म ही क्रिया ही , पुरुशार्थ ही आत्मा का अध्यात्मिक स्वभाव है , कर्म ही अत्मा का स्वभाव है । ज्योंही हम क्रिया हीन हो जाते हैं , कर्म हीन हो जाते हैं त्यों ही हमारा आत्म तत्व नष्ट हो जाता है , आत्मा मर जाती है ।
४. विशालता में ही सत्य स्थित है :-
किसी व्याप्ति के लिए , व्याप्त बनने के लिए , अपने आप को उदार बनाने के लिए , उदार मनोव्रति को अपनाने के लिए ,धारण करने के लिए परम पिता परमात्मा आप सब को यह प्रेरणा दे रहे हैं । जब हमारी मनोव्रति संकुचित हो जाती है , छोटी हो जाती है तो इस प्रकार की व्रति में असत्य आ जाता है , असत्य मिल जाता है , इसका समावेश हो जाता है । इस लिए सत्य मनोव्रति धारण करने की प्रभु प्ररेर्णा करते हैं । प्रभु का कहना है कि जब हमारा ह्रदय विशाल होता है तो हमारे अन्दर पवित्रता आती है , जहां पवित्रता होती है , वहां ही सत्य का निवास होता है ।
मन्त्र के दो भग किये गये हैं :-
(क) प्रभु के गुणों यथा सुख स्वरुप अर्थात सब सुखों को देने वाले हैं , वह प्रभु सदा से ही सुप्रसिद्ध रहे हैं , वह स्वयंभू भी हैं , सत्य पर चलने के कारण उन्हें सत्य स्वरुप भी कहा गया है । एसे प्रभु समग्र संसार को सदा सत्य पर चलने की ही प्रेरणा करते हैं ।
(ख) प्रभु की इच्छा है कि यह जगत सुखमय हो , इस संसार के सब प्राणी सदा सुखी रहें । इतना ही नहीं वह चाहते है कि प्रत्येक प्राणी का परलोक भी सिद्ध हो , उत्तम हो । इस सब के लिए वह पिता इस के लिए प्रेरित करते हैं । आदि खण्ड में ही प्रभु ने कहा है कि सत्य को प्रतिस्थापित करने के लिए हम करम में रत , क्रिया – शीलता , पुरुषार्थ तथा उदारता के व्यवहार को अपनावें ।
डा.अशोक आर्य

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