Category Archives: वेद विशेष

हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें

ओउम
हम व्यर्थ में निन्दा न कर खाली समय में प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
विगत मन्त्र में उपदेश किया था कि हम ज्ञानी व संयमी व्यक्तियों के समीप बैठ कर ,उनसे ज्ञान पावें । अब बताया गया है कि
(क) हम कभी किसी की निन्दा न करें ।
(ख) हम सदा व्यर्थ के कार्यों से दूर रहते हुए अवकाश के क्षणों में पभु की ही चर्चा करें , प्रभु नाम का ही स्मरण करें तथा उस के ही अर्थ का चिन्तन करें । इस बात को मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है: –
उत ब्रुवन्तु नो निदो निरन्यतश्चिदारत ।
दधाना इन्द्र इद दुव: ॥ रिग्वेद १.४.५ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर बल दिया गया है : –
१) हम व्यर्थ में किसी की निन्दा न करें : –
हम कभी निन्दात्मक शब्द न बोलें । हम कभी किसी की निन्दा न करें । यहां तक कि हमारे मुख से कभी भूल कर भी निन्दात्मक शब्दों का उच्चारण न हो , हमारे मुख से कभी किसी की निन्दा में एक भी शब्द न निकले । हम सदा वेदों के दिए उपदेश के अनुगमन में रहते हुए भद्र शब्दों का ही उच्चारण करें । हमारा सदा यह व्रत रहे कि हम सूक्तात्मक अर्थात जो वेद मन्त्र के समूह रूप सूक्त में आदेश दिये गए हैं , उनके अनुरुप चलते हुए स्तुति रुप जो कव्य दिए गए हैं , जो कथन दिए गए हैं , उन्हें ही बोलूं , उनका ही
गायन करूं ।
मन्त्र के इस प्रथम खण्ड में यह जो कुछ कहा गया है , इस सब का भाव है कि मानव जीवन तपश्चर्या का जीवन है । इस जीवन में मानव ने जब भी पग आगे बढाना है बडा ही सोच समझ कर तथा जो समाज के मंगल के लिए हो , कल्याण के लिए हो वही सब करना है । यूं ही इधर उधर भटकते फ़िरना तथा अपने खाली समय में भटकते हुए किसी की निन्दा करते रहना , किसी के अमंगल के लिए सोचते रहना उतम नहीं है । किसी की निन्दा करना धर्म नहीं अधर्म है । इसलिए हम अपने मुख से किसी की निन्दा के लिए एक शब्द का भी उच्चारण न करें । सदा दूसरों के लिए शुभ ही सोचें , शुभ ही विचारें । इस में ही भला है , इसमें ही कल्याण है । जब हम इस प्रकार की प्रतीज्ञा लेकर समाज के कल्याण के लिए कृतसंकल्प होंगे तो हमें सब ओर मंगल ही मंगल दिखाई देगा ।
२.बेकार समय व्यर्थ करने से बचो : –
मन्त्र के इस भाग से हमारे वह पूज्य पिता हमें उपदेश करते हुए कह रहे हैं कि हम कभी दूसरों के कार्यों में अकारण हस्तक्षेप न करें । एसा करना निन्दनीय होता है , दूसरों को कलेश पहुंचाने वाला होता है , दूसरे का तिरस्कार करने वाला , अपमान करने वाला होता है । इसलिए हमें इस प्रकार के हस्तक्षेप से बचते हुए तथा दूसरों की निन्दा से बचते हुए सदा अपना जीवन चलाना चाहिए । अत: हम अनुपयोगी , अनावश्यक तथा बेकार के कामों से अपने को सदा दूर रखें ।
आज अनेक व्यक्ति अपने आप को खाली समझ कर अथवा गाडी आदि में यात्रा के समय ताश आदि खेल कर अपने समय को नष्ट करते हैं , यह उत्तम नही है । हम अपने इस बेकार समय को भी निर्माणात्मक कार्य में लगा कर अपनी हित लाभ के साथ ही साथ अन्य भी अनेक लोगों के भी हित के कार्य कर सकते हैं । इसलिए एसे बेकार के कार्यों में समय नष्ट न कर सदा उत्तम कार्यों में ही कार्यरत हों । यह ही उत्तम है, यह ही कल्याण का , प्रगति का साधन है । इस लिए मन्त्र की भावना के अनुसार बेकार के खेल खेलना तथा बेकार में गप शप करते रहना मानव की प्रगति के पथ में बाधक होता है , इसलिए एसे कार्यों से सदा दूर रहना ही उत्तम है ।
मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बढाते हुए बता रहा है कि जब कभी भी हमारे पास अवकाश के क्षण आवें , हमारे पास जब भी कभी खाली समय हो अथवा जब भी हम अपने घर के सब आवश्यक कार्यों से निवृत हो कर स्वयं को खाली समझें , जब भी हम स्वाध्याय करते हुए श्रान्त हो जाये , थक गये हों तो इस समय को हम निश्चय ही उस परम एशवर्य से युक्त पभु में लगावे , प्रभु की परिचर्चा में लगावें , प्रभु के स्मरण में लगावें , प्रभु की स्तुति में लगावें , पभु के समीप बैठकर इस समय को व्यतीत करें । इस प्रकार हम सदा ही प्रभु परिचर्चा को , प्रभु स्तवन को , प्रभु संवाद को धारण करने वाले हों तथा
अपने चित की वृतियों को सदा ही प्रभु के साथ जोडे रखे , यह ही क्ल्याण का साधन है ।

डा. अशोक आर्य

आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे

ओउम
आचार्य्रु रुप प्रभु से हम सुमति पावे
डा. अशोक आर्य
हमारा यह प्रभु ,हमारा आचार्य भी है । जिस गुरुकुल में हम ने शिक्षा प्राप्त करना है , उस गुरुकुल के आचार्य परम पिता परमात्मा के हम अन्त:वासी है । अन्त:वासी होने के नाते हम पिता के समीप रहते हुए उत्तम सुमति पाने का लाभार्थी हों । इस भावना को मन्त्र इस प्रकार कह रहा है :

अथा ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम।
मा नोअतिक्य आ गहि ॥ ऋग्वेद १.४.३॥
विगत मन्त्र में पिता ने जीव को निर्देश दिया था कि हे जीव ! तुं अपने जीवन को यज्ञात्मक बना, जीवन में सोम पान कर तथा दान करने में ही अनन्द अनुभव कर । इस मन्त्र में प्रभु के इस आदेश का पालन करने की शक्ति पाने के लिए शान्ति की याचना के साथ जीव प्रभु से प्रार्थना करता है कि :
१. बुद्धियों में ज्ञानों का प्रकाश करें
हे पिता ! हम ने सोमपान पाने की कामना के लिए साधना आरम्भ की है। एसे साधक हम आप की अन्तिकम में अत:वासी बन कर अत्यन्त समीप रहें . हम आपके अधिक से अधिक समीप रहने के लिए आप हमारे हृदयों में स्थान ग्रहणकर विद्यमान हों । इस प्रकार उत्तम मतियों , बुद्धियों में उत्तम विचारों व उत्तम ज्ञानों का प्रकाश हमें प्राप्त करावें ।
हमारी प्राचीन वैदिक परम्परा यह ही है कि गुरु के चरणों में बैठकर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं । शिक्षा काल में गुरु ही हमारा माता ,गुरू ही हमारा पिता होता है , वह ही हमारा भाई,मित्र तथा अन्य भी जितने शिक्षात्मक सम्बन्ध होते हैं ,वह सब गुरु ही होता है । विद्यार्थी जितना गुरु के समीप रहेगा , उतना ही अधिक व उत्तम ज्ञान का प्रकाश उसे मिलेगा । इस लिए ही हम गुरुकुलीय शिक्षा को उत्तम मानते हैं क्योंकि शिक्षा काल में ब्रहमचारी ( जिसे आजकल विद्यार्थी कहते हैं ) गुरु के पास ही निवास करते हुए शिक्षा प्राप्त करता था । इस शिक्षा के ही परिणाम स्वरुप भारत में महान योद्धा ,महान विद्वान व महान विचारकों को पाते हैं । यह तो अंग्रेज ने शिक्षा की विधि में परिवर्तन कर इस देश का सत्यानाश कर दिया , इसे अपनी ही संस्कृति का दुश्मन बना दिया अन्यथा हमारी धरोहर विश्व की महान धरोहर थी, जिससे पैदा होने वाले इस देश के शूर्मा प्रत्येक क्षेत्र मे अग्रणी थे ।
उत्तम शिक्षा पाने के लिए गुरु के समीप निवास होने का आदेश मन्त्र ने दिया है । इसलिए ही भारतीय विद्यार्थी गुरु को अपने हृदय में स्थान देकर , उसके अन्त:वासी बनकर , उससे शिक्षा पाता था । इस तथ्य के आधार पर जब हम मानते हैं कि वह परमात्मा हमारा सब से उत्तम गुरु होने के कारण हमारी यह कामना है कि वह हमारे हृदय में निवास करे । हम उसे अपने हृदय में आसीन कर उससे उत्तम बुद्धियों को उत्तम ज्ञानों को व उत्तम विचारों का ज्ञान प्रतिक्षण प्राप्त करते रहते हैं तथा हे प्रभु ! आपको अपने हृदयस्थ करते हैं तथा अपने ही अन्दर विद्यमान होने के नाते आप के ज्ञान को पाने के लिए हम सदैव ही यत्न करते रहते हैं ।
इस सूक्त के दूसरे मन्त्र में भी यज्ञ करने , सोमपान तथा दान से यह बात ही संकेत की गई थी । जब हम यज्ञशील होंगे, जब हम अपने सोम अर्थात अपने वीर्य की , अपनी शक्ति की रक्षा के लिए संयमी जीवन बनाएंगे तथा दान करेंगे , इस सब से यह ही भाव प्रकट किया गया है कि हम परोपकार की भावना को सम्मुख रखते हुए संयमी बनकर अपनी शक्तियों की रक्षा करते हुए शिक्षा प्राप्त करें तथा फ़िर प्राप्त ज्ञान का दान करें । इस प्रकार हम लोभ की भावना से उपर उठेंगे तो हे प्रभू ! क्योंकि आप हमारे अन्त: स्थित हैं , आपके अन्त:स्थित होने के कारण जो प्रकाश आप हमारे अन्दर दे रहे हैं उसके दर्शन हम क्यों न करेंगे ? अवश्य करेंगे ।
२. प्रभु हमें दान का पात्र समझे
मन्त्र में दूसरी बात का जो उपदेश किया गया है , वह यह है कि वह प्रभु हमें छोडकर अन्यों को ही अपने ज्ञान का दान न करे । इस का भाव यह है कि प्रभु हमें दान का पात्र समझे । कहीं एसा न हो कि हमें अपात्र समझ कर छोड दे तथा दूसरों को ही यह उतम ज्ञान बांटने लग जावे । इसलिए यहां प्रार्थना की है कि हम प्रभु से, उसका ज्ञान पाने के पात्र बनें । हम पुरुषार्थ कर अपने आप को इस योग्य बनावें कि हम उस प्रभु से ज्ञान पाने
के अधिकारी बनें ।
३. प्रभु हमारे हृदय में निवास करें
मन्त्र के इस तीसरे व अन्तिम खण्ड में प्रार्थना करते हुए जीव कह रहा है कि हे प्रभु ! आपका हमारे हृदय में निवास बना रहे । जैसे कि उपर उपदेश किया गया है कि ज्ञान के अभिलाषी प्राणी को गुरु ( परमात्मा ) के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक है । जब हम उस पिता से ज्ञान की कामना करते है तो उस पिता के अधिक से अधिक समीप रहना आवश्यक हो जाता है । अत्यधिक समीपता हृदय से ही होती है । इसलिए हम उसे अपने हृदय में स्थापित करते हैं ,अपना अंत:वासी करते है ताकि उसके निकट रहते हुए , उससे सदा ही उत्तम ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करते रहें । एसा करने से ही हमारे प्रभु से सम्पर्क हो सकता है । प्रभू का यह सम्पर्क ज्ञान प्राप्ति के लिए ही तो होता है ओर किस लिए होता है ?
जब हम प्रभु को अपने हृदयस्त कर लेंगे तो वह प्रभु ही हमारे आचार्य होंगे, हम उस प्रभु के विद्यार्थी , उस प्रभु के शिष्य बन जावेंगे , तब ही हमे सुमति रुपि ज्ञान प्राप्ति का लाभ मिलेगा तथा हम कभी भी उस प्रभु से मिलने वाले ज्ञान के प्रकाश से रहित न होंगे ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

ओ३म
प्रभु दर्शन के लिए सात्विक भोजन आवश्यक

डा. अशोक आर्य
हमारी सदा ही यह इच्छा रही है कि हम उस पिता को , उस प्रभु को प्राप्त करें किन्तु कैसे ? इस निमित्त हम अपनी अन्दर की वासनाओं का नाश करें । वासना विनाश के लिए अपने अन्दर ग्यान का दीप जलाएं । ग्यान का दीप जलाने के लिए सात्विक अन्न का प्रयोग करना आवश्यक है । जब मन वासना रहित होगा , अन्दर ग्यान का प्रकाश होगा तथा जब यह शरीर सात्विक भोजन पर
निर्भर होगा तो हम प्रभु को पाने में सफ़ल होंगे । इस तथ्य पर ही यह मन्त्र इस प्रकार प्रकाश डाल रहा है :-
इन्द्रा याहि तुतुजान उप ब्रह्माणि हरिव: ।
सुते दधिष्व नश्चन: ॥रिग्वेद १.३.६ ॥
इस मन्त्र में ती बातों पर , तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है , उप्देश किया गया है : –
१.
जितेन्दिय पुरुष को इन्द्र के नाम से सम्बोधित करते हुए मन्त्र कहता है कि हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तूं अति शीघ्रता से सब वासनाओं का नाश करता हुआ मेरे समीप आ । इससे यह स्पष्ट होता है कि मन्त्र के अनुसार प्रभु प्राप्ति की प्र्थम तथा प्रमुख सीटी वासनाओं का नाश ही है । जब तक वासनाओं का नाश नहीं होता तब तक प्रभु प्राप्ति की ओर प्रथम कदम भी नहीं रखा जा सकता । इस लिए प्रभु दर्शन के अभिलाषी प्राणी को सर्व प्रथम जो कार्य करना होता है , उसे हम वासनाओं का नाश के नाम से जानते हैं । अत: प्रभु प्राप्ति के पथिक को सर्व प्रथम वासना नाश रुपि मार्ग को पकडना
होता है । यह ही प्रभु दर्शन का प्रथम साधन है , प्रथम सीटी है ।
२.
वासनाओं का नाश करने के इच्छुक हे प्रशस्त इन्द्रिय रुपि घोडों से युक्त प्राणी ! तुं सदा ग्यान के मध्य निवास करने वाला बन । ग्यान प्राप्ति की रुचि के बिना तुं ग्यान प्राप्त नहीं कर सकता । इस लिए तेरे लिए यह आवश्यक है कि यदि तूं ग्यान प्राप्ति की अभिलाषा रखता है तो अपने अन्दर ग्यान को पाने की इच्छा पैदा कर , रुचि पैदा कर । जब तक तेरे अन्दर ग्यान नहीं है , तब तक वासनाओं का नाश सम्भव ही नहीं है । जब तुझे अच्छे व बुरे का ग्यान ही नहीं है , तब तक तूं बुराई को कैसे छोड सकता है । अत: तूं यह अभिलाषा अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ग्यान प्राप्त करे तथा यह इच्छा शक्ति भी अपने अन्दर पैदा कर कि तुं ने उत्तम ग्यान को पैदा करना है, ग्रहण करना है । जब तक तेरे अन्दर वासनाओं को मारने के लिए , वासनाओं का हनन करने के लिए ग्यान ही नहीं है , वासनाओं की बुराई को तुं जानता ही नहीं है , तब तक इनका नाश नही कर सकता । इस लिए महान ग्यानी बनना तेरे लिए आवश्यक है । यह ग्यान ही है जो हमें वासनाओं की हानियों की जानकारी देने वाला है । यह ग्यान ही तो है जो वासनाओं का नाश करता है ।
३.
अपने शरीर में हमने शक्ति पैद करनीहै । शक्ति ही सब सफ़लताओं का मर्ग है, सब सफ़लताओं का मूल है । इस शक्ती को ही सोम कहते हैं । इस लिए हे प्राणी अपने शरीर में सोम की उत्पति के लिए , शक्ति की उतपति के लिए , मैंने जो अन्न तेरे लिए दिया है , पैदा किया है , तुं उसे तुं धारण करने के योग्य बन , आने अन्दर एसे गुण पैदा कर कि तुं इस अन्न का उपभोग करने के योग्य्बन सके , इस अन्न को ग्रहण कर । यह अन्न ही तेरा भूजन है, यह अन्न ही तेरी क्शुधा पूर्ति का साधन है , यह अन्न ही तेरे जीवान का मुख्य भाग है । इस प्रकार यह मन्त्र उप्देश कर रहा है कि गेहूं , चावल , जौ, उडद,दालें, तिल आदि वस्तुएं , जिन्हें अन्न का नाम दिया गया है , ही तुं खाने के लिए सेवन कर , इनका ही उपभोग कर, इन्हें ही तुं ग्रहण कर । मांस मनुष्य का भोजन नहीं है , इसलिए तुंने मांस , मदिरा आदि तुच्छ पदार्थों का अपने भोजन के रूप में सेवन नहीं करना । एसे गन्दे भोजन का सेवन कर तूं अपनी बुद्धि को रजस व्रितियों वाला बना कर वैष्यिक व्रितिवाला बनकर , तामस व्रोइति वाला बनकर सोम रक्शन का कार्य नहीम क्लर पावेगा । सोम रक्शण एसी दूषित व्रितियों से नहीं होता ।यदि तूं अपने शरीर में सोम की ,शक्ति की रक्शा करना चाहता है तो यह आवश्यक है कि तुं उत्तम अन्न व दालों आदि का ही सेवन कर । मां , मदिरा के सम्बन्ध्में सोच भी ना , देख भी न ।
इसस्से ही शक्ति , सोम की प्राप्ति होगी । इस के अतिरिक्त हे जीव ! तुं यह भी कर:-
क) तुं सदा सात्विक भोजन कर
ख) सात्विक भोजन की प्राप्ति से तुं सुक्शम बुद्दि वाला बनकर ग्यान
प्राप्ति के कार्य में लग जा ।
ग) ग्यान प्राप्ती से तुण अच्छे व बुरेर की परख करने वाला बन ।
घ) अच्छे व बुरे का पारखी बनकर तुं अपने अन्दर की विषय वासनाओं की
हानि को समझ तथा अपनी वासनाओं का विनाश कर ।
ड) वासनाओं का विनाश कर तुं अस्पने आप को प्रभु को पाने के योग्य बना ।

दर्शना देवी डा. अशोक आर्य

प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

ओ३म
प्रभु प्राप्ति के लिए विद्वान व संयमी से ज्ञान आवश्यक

डा अशोक आर्य
मानव सदा ही प्रभु की शरण में रहना चाहता है किन्तु वह उपाय नहीं करता जो , प्रभू शरण पाने के अभिलाषी के लिए आवश्यक होते हैं । यदि हम प्रभु की शरण में रहना चाहते हैं तो हमारी प्रत्यएक चेष्टा , प्रत्येक यत्न बुद्धि को पाने के उद्देश्य से होना चाहिये । दूसरे हम सदा ग्यानी ,विद्वान लोगों से प्रेरणा लेते रहें तथा हम सदा उन लोगों के समीप रहें , जो विद्वान हों , संयमी हों , ज्ञानी हों । एसे लोगों के समीप रहते हुये हम उनसे ज्ञान प्राप्त करते रहें । इस बात को ही यह मन्त्र अपने उपदेश में हमें बता रहा है । मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूता: सुतावत: ।
उप ब्रह्माणि वाघत: ॥ रिग्वेद १.३.५ ॥
इस मन्त्र में चार बातों की ओर संकेत किया गया है : =-
१.
जीव ने विगत में जो परमपिता प्रमात्मा से जो प्रार्थना की थी , उस का उत्तर देते हुये पिता इस मन्त्र में हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे इन्द्रियों के अधिष्टाता जीव ! हे इन्द्रियों को अपने वश में कर लेने वाले जीव । अर्थात प्रभु उस जीव को सम्बोधन कर रहे हैं , जिसने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है । उस पिता का एक नियम है कि वह पिता उसे ही अपने समीप बैटने की अनुमति देता है , उसे ही अपने समीप स्थान देता है , जो अपनी इन्द्रियों के आधीन न हो कर अपनी इन्द्रियों को अपने आधीन कर लेता है , जो इन्द्रियों की इच्छा के वश में नहीं रहता अपितु इन्द्रियां जिसके वश में होती है । अत: इन्द्रियों पर आधिपत्य पा लेने में सफ़ल रहने वाला जीव जब उस प्रभु को पुकारता है तो एसे जीव की प्रार्थना को प्रभु अवश्य ही स्वीकार करता है तथा जीव को कहता है कि हे इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले जीव तु आ मेरे समीप आकर स्थान ले , मेरे समीप आ कर बैठ ।
२.
हे जीव ! तूं अपने सब प्रयास , सब यत्न , सब कर्म बुद्धि को पाने के लिए, बुद्धि को बढाने के लिए ही करता है । तूं सदा बुद्धि से ही प्रेरित रहता है । बुद्धि सदा तुझे कुछ न कुछ प्रेरणा करती रहती है । तूं जितने भी कार्य करता है , वह सब तूं या तो बुद्धि से करता है अथवा तूं जो भी करता है , वह सब बुद्धि को पाने के यत्न स्वरुप करता है । तेरी सब प्रेरणाएं बुद्धि को पाने के लिए प्रेरित होती हैं । इतना ही नहीं तूं जितनी भी चेष्टाएं करता है , जितने भी यत्न करता है, जितना भी परिश्रम करता है , जितना भी प्रयास करता है , वह सब भी तूं बुद्धि को पाने के लिए ही करता है । तूं अपने इस यत्न को निरन्तर बनाए रख । तेरे इस यत्न से ही तेरी बुद्धि सूक्शम हो सकेगी , जिस बुद्धि के द्वारा तूं इस ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा , मेरी सृष्टि को देख पाने में सफ़ल होगा ।
३.
तेरे अन्दर जो यह तीव्र बुद्धि आई है, जो सूक्षम बुद्धि का स्रोत बह रहा है, वह तूंने अपने ब्रह्मचर्य काल में अपने ज्ञानी , विद्वान तथा सूक्षम बुद्धि से युक्त आचार्यों से , गुरुजनों से , प्रेरित हो कर एकत्र किया है । इतना ही नहीं तूं अब भी उत्तम बुद्धि को पाने के लिए अपनी अभिलाषा को बनाए हुए है । इस कारण तूं ने अब भी उत्तम विद्वान पुरूषों की शरण को नहीं छोडा है , सूक्शम बुद्धि से युक्त गुरुजनों के चरणों में ही रहने का यत्न कर रहा है अर्थात इतनी बुद्धि का स्वामी होने पर भी बुद्धि पाने का यत्न तूंने छोडा नहीं है अपितु अब भी तूं इसे पाने के लिये निरन्तर प्रयास में लगा है ।
४.
हे उत्तम बुद्धि के स्वामी जीव ! तूं सोम का सम्पादन करने वाला है । तूं प्रतिक्षण अपने जीवन में एसे यत्न , यथा प्राणायाम, द्ण्ड , बैठक आदि में व्यस्त रहता है, जिन से सोम की तेरे शरीर में उत्पति होती ही रहती है । तूं ने अपना जीवन इतना संयमित व नियमित कर लिया है कि सोम का कभी तेरे शरीर में नाश हो ही नहीं सकता अपितु सोम तेरे शरीर में सदा ही रक्षित है । इतना ही नहीं तूं सदा एसे लोगों का , एसे विद्वानों का, एसे गुरुजनों का साथ पाने व सहयोग लेने के लिए , मार्ग-दर्शन पाने के लिए यत्नशील रहता है , जो सोम को अपने यत्न से अपने शरीर में उत्पन्न कर , उसकी रक्षा करते हैं । सोम रक्षण से वह मेधावी होते हैं । एसे मेधावी व्यक्ति के , एसे ज्ञान के भण्डारी के , एसे संयमी व्यक्ति के समीप रह कर तूं उससे ज्ञान रुपि बुद्धि को ओर भी मेधावी बनाने के लिए यत्न शील है ।
डा. अशोक आर्य

सोम रक्षण स परमात्मा का साक्षात्कार

ओ३म
सोम रक्षण स परमात्मा का साक्षात्कार
डा. अशोक आर्य
– सोम की रक्षा से हमारी बुद्धि सूक्षम बनती है , जो गहणतम ज्ञान को भी सरलता से ग्रहण कर सकती है । सोम की रक्षा से ही हमारे हृदय पवित्र होते हैं तथा सोम की रक्षा से ही परमपिता परमात्मा के दर्शन होते हैं तथा उसके प्रकाश का, उसके ज्ञान का साक्षात्कार होता है । इस बात का उपदेश यह मन्त्र इस प्रकार कर रहा है : –
इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायव: ।
अपवीभिस्तना पूतास: ॥ ऋग्वेद १.३.४ ॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डाला गया है : –
१.
विगत मन्त्र में जिस प्राणसाधना को प्रभु को पाने का मार्ग बताया गया था , उस चर्चा को ही आगे बटाते हुए इस मन्त्र में प्रथम उपदेश किया गया है कि प्रभु ! आपके उपदेश के अनुसार आप को प्राप्त करने की जो प्रथम सीटी प्राण साधना बतायी गयी है ,मैंने प्राणों की सिद्धि प्राप्त कर ली है , मैंने प्राणों की साधना कर ली है । इस साधना के कारण मेरे अन्दर स्वच्छता आ गई है क्यों कि मेरे अन्दर की सब प्रकार की कामुक वृतियां नष्ट हो गई हैं । मैंने सब प्रकार की वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है । इन वासनाओं के निकल जाने से मेरे अन्दर रिक्त स्थान बन गया है , जिसे भरना चाहता हूं । अत: हे पभु आप आईये ! मेरा हृदय आप के निवास के योग्य बन चुका है । इसमें निवास कीजिये ।
२.
मन्त्र में दूसरा उपदेश करते हुए कहा गया है कि हे ज्ञान को देने वाले तथा ज्ञान को दीप्त करने वाले, ज्ञान को प्रकाशित करने वाले पिता ! मेरे अन्दर जो सोमकण पै्दा हुए हैं , उत्पन्न हुए हैं , वह आप को पाने की कामना वाले हों , आप को पाने की इच्छा रखने वाले हों । इनकी सहायता से हम आपकॊ प्राप्त कर सके । यह सोमकण ही हमारे अन्दर जो आपको पाने की अग्नि जल रही है , आपके दर्शनों की जो उत्कट अभिलाषा है उसे दीप्त करने के लिए , उसे तीव्र अग्नि का रूप देने के लिए ईंधन का कार्य करें तथा उस अग्नि को ओर तीव्रता देने का कारण बनें ।
हमारे अन्दर के सोमकण ही हमारी सूक्षम बुद्धियों के साथ मिलकर हमारे अन्दर के मालिन्य को धो डाले । इस प्रकार हमारे मालिन्य का नाश कर हमारी बुद्धि को सदा पवित्र करने वाले बनें क्योंकि सोम की रक्षा से न केवल हमारी बुद्धि सूक्षम ही होती है अपितु यह हमारे ह्रदय को भी पवित्र करने वाले होते हैं । हम जानते हैं कि सोम की रक्षा से हमारी बुराईयों का नाश हो जाता है तथा जब हम बुराई रहित हो जाते हैं तो हम पवित्र हो जाते हैं । यह सब कार्य सोम की रक्षा करने से ही होता है । जब ह्रदय पवित्र हो जाते हैं तो एसे ह्रदय के अभिलाषी प्रभु स्वयं ही आ कर ह्रदय में विराजमान हो जाते हैं । अत: सोम की रक्षा से ही वह पिता हमारे ह्रदयों में प्रवेश करते हैं । तब ही तो काव्यमयी भाषा में कहा गया है कि यह सोम हमारे लिए प्रभु की कामना वाले हों ।
३.
मन्त्र मे तीसरे तथ्य पर प्रकाश डालते हुए उपदेश किया गया है कि जब हम अपने ह्रदय को पवित्र करके सूक्षम बुद्धि को पा लेते हैं तो हम इस अवस्था में आ जाते हैं कि प्रभु के प्रकाश को देख सकें । भाव यह है कि जब हमने सोम की रक्षा अपने अन्दर करके अन्दर के सब क्लुषों को धो दिया तथा ज्ञान की अग्नि से अन्दर को पवित्र कर लिया तो वह पिता हमारे ह्रदय में प्रवेश कर जाते हैं । इस अवस्था में हम अपने अन्दर प्रकाश ही प्रकाश अनुभव करते हैं । चित्रभानु होने के कारण उस प्रभु की अद्भुत दीप्ति होती है । प्रभु के इस प्रकाश का , इस तेज का , इस ज्योति का अनुभव ही किया जा सकता है , इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता ।

डा. अशोक आर्य

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं

प्रभु दान देने वाले का कल्याण करते हैं
डा.अशोक आर्य
परम पिता परमात्मा सदा ही दानदाता का कल्याण करते हैं , जो देता है, जो देव है , उसका वह प्रभु कल्याण करते हैं । यह ही प्रभु क सत्य है , यह ही प्रभु का व्रत है , यह ही प्रतिज्ञा है । इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुये मन्त्र उपदेश कर रहा है : _
यदन्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत सत्यमन्गिर: ॥ रिग्वेद १.१.६ ॥
हे सब व्स्तुओं के दाता, सब वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले पिता,सब के अग्रणी, सब से आगे रहने वाले प्रभु ! धन देव तथा आप की प्रार्थना एक साथ नहीं की जा सकती । यह नियम तो आप ही ने बनाया है कि दाता की सदा प्रार्थना करो । प्रार्थना से ही दाता देता है । जब हम दाता से कुछ मांगते हीनहीं तो दाता को क्या पता की आप को किस वस्तु की इच्छा है , वह आप की इच्छा कैसे पूरा करेगा ? अत: आप के बनाये गये नियम के अनुरूप हम दाता से , दाश्वान से मांगते है, कुछ पाने के लिये प्रार्थना करते हैं । दात, देव अथवा दान देने वाला भी हमारे लिये दाता है तथा आप सब से बडे दाता है । हम किस को अपना अर्पण करें ? जो धन देने वाला दाता है, उसे अथवा आप के प्रति अपना अर्पण करें । दोनों के समीप एक साथ तो बैठा नहीं जा सकता । एसा सम्भव ही नहीं है ।
हे पिता ! आप कल्याण करने वाले हैं । आप ही हमारे लिये वित की व्यवस्था करने वाले हैं , आप ही हमारे लिये घर की , निवास की व्यवस्था करते हैं , आप ही हमारे लिये पशु आदि, धनादि रुप में सब प्रकार के भद्र पदार्थ देने वाले हैं । इस प्रकार आप का यह नियम निश्चय ही सत्य है , आप के इस नियम के द्वारा हमारे उन दाश्वान् के अंगों में मधुर रसों का संचार करने वाले आप ही तो हैं । सब अंग – प्रत्यंगों में जीवनीय शक्ति, जीवनीय रसों का संचार करते हुये आप ही वास्तव में इन अंगों में सब रसों का संचार करने वाले , प्रवाह करने वाले हैं । अत: आप ही जीवन दाता हैं, जीवन देने वाले हैं ।
जब एक नन्हा सा बालक अपने आपको पूरी तरह से अपने ही माता पिता के अर्पण कर देता है , अपनी इच्छाओं को अपने माता पिता की इच्छाओं से मिला लेता है । अब माता पिता की इच्छा ही उस बालक की इच्छा बन जाती है । एसी अवस्था में एसे बालक का माता पिता अपने से भी अधिक अपने इस बालक का ध्यान रखते हैं । इस प्रकार की उत्तम भावना से वह अपने इस बालक का उत्तम निर्माण करते हैं । ठीक इस प्रकार ही जब एक दश्वान व्यक्ति उस पिता के प्रति स्वयं को समर्पित कर देता है ,अर्पण कर देता है तो बालक के माता पिता के ही समान प्रभु भी उसे अत्यधिक प्रिय मानते हैं । अत:वह पिता भी हमें सब प्रकार की अभ्युदय कारक , आगे बढाने वाली वस्तुएं, उन्नत कराने वाली वस्तुएं स्वयमेव ही उपलब्ध कराते हैं ।
जीव अल्पबुद्धि होता है । जीव की इस अल्पज्ञता के कारण जीव अपने द्वारा धारण किया कोइ व्रत भूल भी जावे ,उससे कोई व्रत टूट भी जावे तो भी परम पिता का व्रत उसके पूर्ण ग्यान के कारण टूट नहीं पाता । यह तो हम जानते हैं कि जीव अल्पज्ञ है । इस अल्पज्ञता के कारण अनेक बार कोई गल्त वस्तु भी दे देता है किन्तु हमारा वह प्रभु तो पूर्ण है । अपनी पूर्णता के कारण उससे कभी कोई भूल सम्भव ही नहीं है । अत: वह सदैव ठीक ही करता है तथा ठीक वस्तु ही देता है ।

डा.अशोक आर्य

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें

हम प्राण – अपान की साधना से सुरूप बनें
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल का दूसरा सूक्त मित्रा वरुणा की आराधना के साथ समाप्त होता है । मित्रा से भाव प्राण अथवा प्राणशक्ति तथा वरुणा से भाव अपानशक्ति होने से यह सूक्त प्राण अपान अर्थात प्राणायाम अर्थात सांस की क्रिया से सम्बन्ध रखता है तथ्गा नित्य प्राणायाम करने की प्रेरणा देते हुए समाप्त होता है।
जिस मनुष्य में प्राण शक्ति है , वह ही जीवित माना जाता है किन्तु मन्त्र की भावना है कि प्राणशक्ति होन पर मनुश्य मित्र व स्नेह की व्रिति वाला होता है । यह सत्य भी है , जिसमं जीवन है , वह किसी स स्न्ह भी कर्गा तथा मित्रता भी कर्गा किन्तु यै जीवनीय शक्ति ही नहीं है क्वल शरीर
मात्र है , लाश्मात्र है तो वह्न तो किसी स स्न्हिल व्यवहार ही कर सकता ह तथा न ही किसी स मैत्री की ही क्शमता उस मं होती है ।
जब मानव की अपान शक्ति टीक से कार्य करती है तो मानव के अन्दर से दूसरों क प्रति जो द्वेष की भावना होती है , वह उससे निकल कर दूर हो जाती है । कोष्ट्बधता की व्रितिवाले लोग ईर्ष्यालु , द्वेषी तथा चिडचिडे स्वभाव वाले हो जाते हैं । साधारण भाषा में कोष्ट्बद्धता को हम कब्ज के रूप में जानते हैं । जिस व्यक्ति को कब्ज होती है , उसका व्यवहार इन सब दोषों को अपने अन्दर स्मेट लेता है । न तो उसे भूख ही लगती है न ही बातचीत अथवा लोक व्यवहार की कोई क्रिति वह कर पाता है । बस प्रत्येक क्शण उसके अन्दर दूसरों से द्वेष , बात बात पर चिटना तथा इर्ष्या की सी भावना उसमें दिखाई देती रहती है । जब उसकी यह कब्ज दूर हो जाती है तो हंस मुख चेहरे के साथ दूसरों का शुभचिन्तक हो कर खुश रहता है ।
अत: जब मानव निरन्तर अपने प्राण तथा अपान की साधना करता है तो उसमें शुभ व्रितियों का उदय होता है । अब वह सब का भला चाहने वाला बन जाता है । स्वयं भी खुश रहता है तथा अन्यों के लिए भी खुशी का कारण बनता है । इस लिए प्राणापान की निरन्तर साधना से मानव में शुभ व्रितियों का उदय होता है ।
प्राणापान साधना के जो फ़ल हमें दिखाई देते हैं , विभिन्न मन्त्रों के माध्यम से वह इस प्रकार हैं :-
१.
प्राणापान की साधना से हमारे अन्दर की सब अशुभ वासनाएं , अशुभ व्रित्तियां दूर हो जाती हैं तथा हम स्वच्छ , पवित्र हो जाते हैं ।
३.
पवित्र मानव ही प्रभु से साक्शात्कार करने के योग्य बनता है । अत: अशुभ व्रितियों के दूर होने से उसे प्रभु से साक्शात करने की शक्ति आ जाती है ।
४.
पवित्र व्यक्ति अपनी पवित्रता को बनाए रखने के लिए व्यर्थ के कार्यों में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता ,एसा करने से तो उसकी पवित्रता के ही समाप्त होने का खतरा बना रहता है । जब वह अपने समय को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट नहीं करता तो इस समय का कहीं तो सदुपयोग करना
ही होता है । अत: वह दिव्यगुणों को पाने व बटाने में इस समय का सदुपयोग करता है , जिससे उसमें दिव्यगुण का ओर भी आधिक्य हो जाता है ।
७.
अब उसको इन दिव्यगुणों की प्राप्ती की एक ललक सी ही लग जाती है , वह इन्हें पाने का ओर अधिक यत्न करना चाहता है ताकि वह निरन्तर अपने इन गुणॊं को बटाता रह सके । इस निमित वह ग्यान पाना चाहता है , सरस्वती का आराधक बन जाता है । अब वह ग्यान का सच्चा पुजारी बन जाता है तथा अपने जो भी कार्य वह करता है , वह उसके ग्यान पाने के साधक ही होते हैं ।
१०.
जब वह सरस्वती की निरन्तर आराधना करने लगता है तथा वह उस ग्यान स्वरुप परम एश्वर्य से युक्त प्रभु की उपासना करता है , उससे समीपता बनाता है , उसके पास बैटने लगता है तो वह सुरूप हो जाता है , सुरुपता के सब गुण उस में आ जाते हैं ।
सूक्त संख्या तीन में बताए कार्यों को कर सके । अत: आओ हम रिग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सूक्त तीन पर चिन्तन करें, विचार करे इसका स्वाध्याय करें |

डा. अशोक आर्य

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें

हम दिव्यगुणों के ग्रहण से प्रभु को धारण करें
परम पिता परमात्मा होता, कविकृतु , सत्य तथा चित्रश्रवस्तम व देव हैं । उन्हें प्राप्त करने के लिये हमें दिव्यगुणों को ग्रहण करना होता है । जैसे जैसे तथा जितना जितना हम प्रभु को , उस पिता को धारण करने का यत्न करते हैं , उतना उतना ही हम दिव्यगुणों वाले होते चले जाते हैं । इस मन्त्र में इस बात पर ही प्रकाश डालते हुये इस प्रकार व्याख्यान किया है : –
अग्निर्होता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: ।
देवो देवेभिरा गमत । ऋग्वेद १.१.५ ॥
१. गत मन्त्र की भावना अनुरूप ही यह मन्त्र भी कहता है कि संसार में जितने प्रकार के भी यग्य आदि कार्य होते हैं , उनको करने वाले वह देव ही होते हैं , जो सब को गति देने वाले हैं, जिन्हें हम प्रभु के नाम से जानते हैं । हम तो मात्र इन यग्यों को करने के माध्यम मात्र ही होते हैं , वह भी तब जब हम पर उस प्रभु की क्रिपा हो जाती है, उस प्रभु का जब हमें आशीर्वाद मिल जाता है , तब ही तो हम इन सब यग्यों को पूर्ण होता हुआ देख पाते है । यह स्रिष्टि भी एक प्रकार का यग्य ही तो है । इस यग्य के होता, इस यज्ञ को करने वाले तो स्वयं वह पिता ही हैं , इस तथ्य को तो हम सब लोग भली प्रकार से जानते हैं , इस सब से तो हम स्पष्ट रूप से तथा भली भान्ति से परीचित हैं ।
२. यह मन्त्र जो दूसरा उपदेश हमें दे रहा है , वह है – वह पिता कविकृतु हैं अर्थात वह पिता क्रान्तदर्शी हैं । क्रान्तदर्शी होने के कारण वह प्रभु सब कामों को करने वाले हैं । चाहे हम कविकृतु कहें, चाहे हम क्रान्तदर्शी कहें , भाव यह ही है कि वह पिता सब प्रकार के कामों को करने वाले हैं , कारण हैं क्योंकि वह पिता ही सब कामों को करने वाले होते है , इस कारण ही सृष्टी आदि कार्य जिन्हें उस पिता ने किया है , उनमें कहीं कोइ न्यूनता नहीं दिखाई देती , यह सब कार्य कहीं अपूर्ण नहीं होते , पूर्णतया पूर्ण ही होते है । जब हमारे वह पिता पूर्ण हैं तो उनके द्वारा ही किया गया यह कार्य , जिसे हम स्रिष्टी कहते हैं, वह अपूर्ण कैसे हो सकती है ? अत: यह सृष्टी रुपी यह यज्ञ भी पूर्ण है ।
अनेक बार हमें अपनी ही अज्ञानता के कारण इस सृष्टी में कुछ न्यूनतायें दिखाई देती हैं , एसा हम अनुभव करते हैं । जैसे अनेक बार जब हम भूकम्पों का प्रकोप देखते हैं , तो उस पिता को कोसने लगते हैं । हमारे शरीर में अनेक प्रकार की अनेक ग्रन्थियां हैं । उस पिता ने इन का निर्माण किसी विशेष प्रयोजन से किया होगा किन्तु हम अपने ज्ञान की कमी से इन में से कुछ ग्रन्थियों को निष्प्रयोजन मान लेते हैं । इस संसार में अनेक प्राणी एसे हैं , जिनके विषय में हमें कुछ भी जानकारी नहीं है , अनेक वनस्पतियां एसी हैं , जिनके उप्योग के सम्बन्ध में हम कुछ भी ग्यान नहीं रखते । हम अपने बचपन में जो थोडा सा जानते थे, वह बटते बटते , आज हम काफ़ी आगे निकल गये हैं । आज हमे अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर हमारे अपने ही बाल्यकाल से कहीं अधिक ज्ञान है । अत: हम यह नहीं कह सकते कि जिसे हम नहीं जानते, वह ह ही नहीं । जैसे जैसे हम इन सब को जानते जावेंगे, इनके उपयोग को समझते जावेंगे, त्यों त्यों ही हमारा ज्ञान भी बढता ही चला जावेगा । जितना हम जान लेंगे, उतना संसार हमें पूर्ण दिखायी देगा, शेष को हम जानने का यत्न करते रहेंगे ।
हमारे परमपिता परमात्मा सत्य हैं । उन्हें हम सत्य स्वरूप के रुप में जानते हैं । हम यह भी मानते हैं कि जितने भी सज्जन लोग हैं , उनमें उस पिता का ही निवास है । सर्व व्यापक होने के नाते वह पिता सब जगह रह्ते हैं किन्तु फ़िर भी मन्त्र बता रहा है कि वह पिता सज्जनों के ह्रिदय में निवास करते हैं । भाव यह है कि वह पिता सर्व व्यापक होते हुये भी सज्जन लोगों के ह्रिदय को प्रकाशित करते हैं , सज्जन लोगों के अन्दर ही ज्ञान का प्रकाश वह प्रभु करते हैं ।
उस पिता द्वारा जब सृष्टी की उत्पति की जाती है तो आरम्भ मे प्राणी को ग्यान की आवशकता होती है क्योंकि इस समय उसे ज्ञान देने वाला अन्य कोइ नहीं होता । अत: उस परमपिता परमात्मा ने स्रिष्टी के आरम्भ मे प्राणी को वेद का ग्यान दिया । जिस प्रकार हम आज स्कूल , कालेज अथवा गुरूकुल ,में जा कर ज्ञान प्राप्त करते हैं , प्रभु उस प्रकार से ग्यान नहीं देता । उसका ग्यान देने का ढग भी अद्भुत ही है । हम जानते हैं कि वह सर्वव्यापक प्रभु सर्वव्यापक होने के कारण ही हमारे अन्दर ही नहीं हमारे हृदय में भी निवास करता है । इस प्रकार हृदयस्त होने से , बिना किसी अन्य यत्न के हमारे पवित्र हृदयों को प्रकाशित कर देते हैं । अपने ज्ञान के कारण वह प्रभू अत्यन्त कीर्तिमान से युक्त हैं । दूसरे श्ब्दों में वह प्रभु सर्वाधिक ज्ञान वाले हैं , ग्यान के भण्डारी हैं । इस लिये ही तो उन्हें निरतिशय ज्ञान के अधिष्ठाता माना गया है ।
(क) पभु गुणों के साथ आते हैं :-
वह प्रभु सब देवताओं के,जो सब गुणों के पुन्ज रुप होते हैं , के साथ हमारे पास आते हैं । इसका भाव यह है कि उस प्रभु का निवास हमारे ह्रिदयों में होता है । उस प्रभु का निवास होने के कारण हृदय में ही बैठे हुये वह प्रभु हमे सब प्रकार के दिव्यगुणों से स्वयमेव ही भरता चला जाता है । इस प्रकार यह दिव्य गुण हममें स्वय्मेव ही प्रादुर्भूत हो जाते हैं ।
(ख) प्रभु दिव्य गुणों वालों का साथी :-
अथवा हम यूं भी कह सकते हैं कि इन दिव्यगुणों के कारण ही वह पिता हम मे आते हैं । इस सब का भाव यह ही है कि उस पिता को पाने के लिये हम अपने आचरण को देवों के समान उत्तम बनावे , हमारे व्यवहार भी देवों के समान ही हों, आसुरी प्रव्रिति हमारे व्यवहार में किन्चित भी न हो । प्रभु दिव्य गुणों वालों के पास ही रहता है, निवास करता है । अत: हम जितना जितना दिव्यता को दिव्य गुणॊं को अपनायेंगे, उतना उतना ही उस पिता के समीप होते चले जावेंगे । दाश्वान का कल्याण ही प्रभु का सत्य व्रत है |

डा.अशोक आर्य

प्रभु का दर्शन कैसे करें

ओ३म
प्रभु का दर्शन कैसे करें
डा. अशोक आर्य
संसार का पत्येक प्राणी अपना जीवन सुखी बनाने के लिये प[रभु को पाना चाहता है । वह जानता है कि सुखुस को ही मिलता है , जो प्रभु का आशिर्वाद प्राप्त कर ले, प्रभु का साक्शात्कार कर ले । प्रभु को पाने का सही साधन यह है कि ग्यानि लोग चिन्तन करके स्वयं को प्रक्रिति कि उलझनों से ऊपर उथा कर , उस पर्मपिता पर्मात्मा क न केवल स्वयं डाशःआण कर पाने मेइन सफ़लता पाते हैं अपितु दूसरों को भी प्रभु के दर्शन करवाते हैं , दुसरों क जीवन भी सुखी बनाते हैं । इस तथ्य को सामवेद के मन्त्र संख्या ३१ मेइन इस्प्रकार स्पश्ट किया गया है : –
उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव: ।
दृशे विश्वाय सुर्यम ॥सामवेद ३१ ॥
मानव जीवन में अनेक कर्म करता है । इन में कुछ कर्म उत्तम होन्गे तो अधिकांश प्तित होंगे । यह पतित कर्म ही होते हैं , जिनके कारण मानव को जीवन मेइन अनेक रकार के कश्टों क सामना कराना पड्ता है । यह्कश्ट ही( उसे इस्वर की शर्ण मेइण ले जाते हैं । खा भी है कि : –
दु:ख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे , दु:ख काहे को होय।॥
जीव प्रभु के पास स्वयं को अर्पण करना चाहता है किन्तु कैओसे करे अर्पण तो उसी को ही किया जा सकता है, जो दिखायी दे, जो दिखायी ही न दे , उसे कैसे अर्पण करें ? जब प्रभु दिखेगा, तब ही तो उसे अपने कश्ट अर्पण करेगा । अत: प्रभु क दर्शन , उसे कुछ भी अर्पित करने केलिये आवशय्क है ।
मानव तुं उपर उठ : –
प्रकृतिक भोगों में उलझी अवस्था में जीव प्रभु के दर्शन कभी नहीं कर सकता । हम जानते हैं कि जीव सुख चाह्ता है किन्तु उसने प्रक्रितिक भोगों को ही सुख का साधन समझ रखा है , इस कारण वह सद इन भोगों में ही सदा उलझा रहता है , इस कारण प्रभु दर्शन से निरन्तर दूर होता चला जा रहा है । जब तक हमें दुनियां के रंगओं में हमारी आंखें उलझ रही हैं तब तक हमें प्रभु दर्शन क प्रभु कथा का कोई भी प्रसंग हमारे कानों में नहीं पड सकता । हम भोगों में लिप्त हैं । हमारे पास प्रभु स्मरण का समय ही नहीं तो फ़िर प्रभु दर्शन की अभिलाशा ही क्यों रखते हैं ? सांसारिक रंगों में उलझने से तो हम सांसारिक वस्तुएं ही पा सकते हैं । यदि प्रभु के दर्शन करने हैं तो उपाय भी तो प्रभु स्तुति के ही करने होंगे । अन्यथा उसके दर्शन कैसे मिलेंगे । इस लिये हम अपने जीवन में एक बार यह निर्णय कर लें कि प्रभु के दर्शन राग – द्वेश से होंगे या फ़िर किसी अन्य उपाय से । एक बार पूर्ण ग्यान पुर्वक विचार कर कुछ निर्णय लेने के पशचात फ़िर बेकार के राग द्वेश से परिपुर्ण विषयों पर समय नष्ट करना अथवा अपनी शक्ति लगाने क कुछ भी प्रयोजन नहीं रह जाता । जिस दिन हम इस भ्रान्ति से उपर उथ जावेंगे , जिस दिन हम गल्तियां छोड्कर ऊपर उठ जावेंगे, जिस दिन प्रभु दर्शन के लिये हम गम्भीर विचार कर लेंगे तथा जिस दिन हम प्रकृति कि उलझनों से निकल जावेंगे , उस दिन से ही हम उस दूर दिखाई देने वाले , सब स्थानों पर विद्यमान , प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक कण में विद्यमान , ज्ञान की अग्नि से प्रकाशित तथा सब को प्रकाशित करने वाले को ज्ञानी लोग विचारशील हो कर धारण करते हैं ।
परमपिता परमात्मा संसार के कण कण में होने के कारण हमारे हृदयों में भी निवास करता है । , परन्तु ज्ञान के अभाव में उस की सत्ता को हम समझ नहीं पाते , उसके दर्शन नहीं कर पाते । हाँ जब हम अपने अन्दर ज्ञान की ज्योति जगा लेते हैं , ज्ञानशील बन जाते हैं तथा ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तो हमुस प्रभु को अपने अन्दर धारण करते हैं स्थापित करते हैं ।
प्रभु ज्ञान को अन्यों में भी बांटते हैं : –
ज्ञानी विद्वान लोग अपनी ज्ञान की ज्योति के माध्यम से प्रभु के दर्शन कर लेते हैं , उसे पा लेते हैं तो वह इतने स्वार्थी नहीं होते कि इस रस क पान वह अकेले ह्जी कर लें अपितु अन्यों में भीइओसे बांट्ने क सुप्रयास आर्म्भ कर देते हैं । संसार के जीव इस प्रकार भटक रहे होते हैं जिस प्रकार जंगल में हिंसक पशु । इन्हें सुपथ पर लाने के लिये , इन्हें भी प्रभु के दर्शन कराने का यत्न ज्ञानी लोग करते हैं । इस प्रकार परमानन्द की प्राप्ति के पश्चात भी वह स्वार्थ भावना से ऊपर उठ कर अन्यों का मार्ग द्र्शन भी करते हैं । इस से यह प्र\मानित होता है कि यह सब लोग स्वार्थ भावना से बहुत दूर होते हैं । इस कारण ही यह लोग मूर्खता से अथवा मूर्खतापूर्ण कार्यो से भी दूर होते हैं ।

ड. अशोक आर्य

हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला

ओउम
हे प्रभु ! हमारी बुद्धि सन्मार्ग पर चला
डा. अशोक आर्य
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है | प्रत्येक प्राणी अपने में ज्ञान का भंडार भरना चाहता है | अच्छा व्यवहार चाहता है | अपना कल्याण चाहता है | यह सब परम पिता परमात्मा के आशीर्वाद से ही संभव है | पिता के इस आशीर्वाद को ही प्राप्त , करना मानव जीवन में सब का प्रयास रहता है | इस के लिए सन्मार्ग पर चलना आवश्यक है जो सन्मार्ग पर चलता है , उसे प्रभु का आशीर्वाद अवश्य ही मिलता है | चारों वेद के विभिन्न गायत्री मन्त्र में इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए इस प्रकार कहा गया है : –
॥ओउम॥ भूर्भुव:स्व: | तत सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न प्रचोदयात || : ऋग.३.६२.१० , यजु .३६.३,३.३५, ३०.२,२२.९ साम . १४६२ तथा तैति आर. १.११.२ तैति .१.५.६.४ , ४.१.११.१ ||
जो सच्चिदानंद स्वरूप , संसार के उत्पादक ,देव, परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट तेज है उसे हम धारण करते हैं | वही परमात्मा हमारी बुद्धि को उतम कर्मों में प्रेरित करे |
आस्तिकता तथा बुधि की शुद्धता इन दो बातों की आस्तिक होने के लिए आवश्यकता होती है | दोनों की ही सिद्धि गायत्री मन्त्र करता है | गायत्री का अर्थ गय और गाय दिया गया है जिसका भाव है – प्राण | शत पथ ब्राह्मण में इस प्रकार दिया है : -प्राणा वै गया: ( श.ब्रा.१४.८.१५.७ ) गया: प्राणा: ,गया: एव गाया: तान त्रायते इति गायत्री | इसमें गाय या प्राणों की रक्षा करने वाले को गायत्री बताया है | यही कारण है कि गायत्री मन्त्र के जप से प्राणशक्ति बढती है | इस के साथ ही गायत्री के जप से शारीरिक व बौद्धिक दुर्बलता भी दूर होती है | इतना ही नहीं गायत्री को सावित्री भी कहा है | सावित्री का सविता arthat सूर्य या ब्रह्मा से संबध होने से ही यह सावित्री कहलाया है क्योंकि इस मन्त्र के जप से सौर शक्ति उत्पन्न होती है |
इतने से ही सपष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने अन्दर बौधिक विकास की अभिलाषा रखता है , जोव्यक्ति अपने शरीर को सशक्त रखना चाहता है , जो अपने में सूर्यवत तेजस्विता चाहता है , उसके लिए गायत्री का जप अत्यंत उपयोगी है | बिना गायत्री जप के इस सब में से कुछ भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं है |
तैतिरीय ब्राम्हण में तो गायत्री को ब्रह्म वर्चस भी बताया है | इस का भाव है कि गायत्री ही ब्रह्मतेज है | अत: जो व्यक्ति गायत्री का नियमित जप करता है वह ब्रह्मतेज को भी पा लेता है | यह ब्रह्म वर्चस ही है , जिससे व्यक्ति संयमी ,मनोंइग्रही तथा जितेन्द्रिय बनता है | अत: जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की इच्छा सिंजो रक्खी है , जो अपने जीवन में संयम को धारण करना चाहता है अथवा जो मनोनिग्रह की कामना रखता है , उसके लिए गायत्री का जाप आवश्यक व उपयोगी है | तभी तो तान्द्य ब्राह्मण में ” वीर्यं वै गायत्री ” कहा गया है |
यदि हम गायत्री मन्त्र की पंक्तियों को देखते हैं तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि गायत्री के तीन भाग हैं :-
(१) महाव्याह्रति :-
गायत्री में ओउम भूर्भुव: स्व: | , यह प्रथम पंक्ति है | इसे ही इस मन्त्र का प्रार\थम भाग कहा गया है | इस भाग मैं परमात्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में बताया गया है | मन्त्र का यह भाग बताता है कि हमारा उत्पादक परमात्मा सत, चित और आनंद स्वरूप है | यह आनन्द ही तो है जिस को प्राप्त करने का प्रयास मानव जीवन भर करता रहता है यह ही उस का ध्येय है , अन्तिम लक्ष्य है |
(२) तत से लेकर धीमहि तक के गायत्री खंड को मन्त्र के दूसरे भाग स्वरूप लिया जाता है | इस का भाव है कि जो आनन्द का वर्णन प्रथम भाग में किया है , उस आनन्द को पाने के लिए परमात्मा के तेज को , परमात्मा की ज्योति को ह्रदय में धारण करना होगा | इस ज्योति को जब तक हम अपने ह्रदय में धारण नहीं करते तब तक ज्ञान की शक्ति ही उद्बुद्ध नहीं होगी , ज्ञान की शक्ति का हमारे अंदर यदि है ही नहीं तो आनन्द ,सुख कैसे होगा | बुद्धि तब ही शुद्ध होती है जब हमें पिता पर पूर्ण विशवास हो ,जिसे आस्तिकता कहा गया है , हम आस्तिक हों, ईश विश्वासी हों और ईश की सर्वव्यापकता पर विशवास रखते हों | इस प्रकार मन्त्र का यह दूसरा भाग आत्मिकता और आत्मिक शक्ति को उत्पन्न करने का साधन है | जब तक हम यह शक्ति उदित नहीं कर लेते तब तक प्रभु का स्नेह नहीं पा सकते |
(३) मन्त्र का शेष भाग – धियो ……….. दयात ,इस| के तृतीय भाग स्वरूप है | इस भाग में मन्त्र जप का फ़ल बताया गया है | यह भाग हमें बताता है कि पिता को ह्रदय में धारण करने से उस प्रभु का प्रकाश बुद्धि को शुद्ध करता है | शुद्ध बुद्धि स्वयं ही उतम मार्ग की अनुगामी होने से सन्मार्ग पर चलती है | बुद्धि कुमार्ग को , अकर्तव्य पथ को त्याग कर सन्मार्ग या सुपथ या कर्तव्य पथ पर चलने लगती है | जब बुद्धि सन्मार्ग पर चलती है तो मानव जीवन सुखों से भर जाता है | अत: सुखों के अभिलाषी प्राणी के लिए आवश्यक है कि वह सन्मार्ग पर चले ,जिसे पाने के लिए गायत्री का निरन्तर जाप करे |
डा. अशोक आर्य