Category Archives: वेद विशेष

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

सर्गारम्भ में वेद का अर्थ । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      यह पूर्व कहा जा चुका है कि शब्द बिना अर्थ के नहीं रह सकता, और भाषा बिना ज्ञान के, ऐसी दशा में आदिज्ञान के साथ ही अर्थ[१] का प्रकाश भी उन आदि ऋषियों के हृदयों में हुआ। उनसे ही आगे भाषा का व्यवहार चला, और उन्हीं से अर्थ का ज्ञान आगे सबको हुआ। व्यवहार की भाषा वेद से ही चली, अर्थात् लौकिक भाषा का निर्माण वेद में वर्णित नियमों के आधार पर ही हुआ और वह वेद की भाषा से भिन्न थी। इतना तो ठीक है कि वेद से निकली होने के कारण देववाणी (संस्कृत) में वेद से लिये शब्दों का बाहुल्य रहा। यह भी कहा जा सकता है कि वेद के कुछ शब्दों को छोड़ कर लोक में उन्हीं शब्दों का व्यवहार हुआ, जो वेद में थे, अतः वेद के आधार पर निर्मित भाषा में जो शब्द मनुष्यों द्वारा बोले गये, वे लौकिक हैं और वेद में प्रयुक्त आनुपूर्वी से युक्त शब्द जो कभी किसी जाति विशेष के मनुष्यों द्वारा बोले नहीं गये, वे वैदिक हैं। इन लौकिक-वैदिक शब्दों का वर्णन महामुनि पतञ्जलि निम्न प्रकार करते हैं –

      🔥”केषां शब्दानां ? लौकिकानां वैदिकानां च। तत्र लौकिकास्तावद्गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति। वैदिकाः खल्वपि-शं नो देवीरभिष्टये। इषे त्वोर्जे त्वा। अग्निमीळे पुरोहितम्। अग्न आयाहि वीतये॥” (महाभाष्यारम्भे)। 

      यहाँ वैदिक शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो लोक में न बोला जाता हो। उधर ‘अश्वो ब्राह्मणः’ आदि सभी शब्द वेद में आते हैं। तब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि फिर लौकिक और वैदिक शब्दों में भेद क्या हुआ? इसका उत्तर यह है कि वेद की आनुपूर्वी (क्रम) नित्य होती है। 🔥”अग्निमीळे पुरोहितम्” ऐसा ही पाठ रहेगा, 🔥”पुरोहितमग्निमीळे” इत्यादि नहीं हो सकता, अर्थात् वेद में ये शब्द आगे-पीछे कभी नहीं हो सकते। लौकिक शब्दों में यह बात नहीं। मीमांसकों ने 🔥“य एव लौकिकास्त एव वैदिकाः” ऐसा सिद्धान्त निश्चय किया है, उसका अभिप्राय यही है कि सामान्यतया जो शब्द वेद में आये हैं, वही लोक में आते हैं। दूसरे शब्दों में वेदवाणी की पुत्री देववाणी का व्यवहार वेद के शब्दों को लेकर हुआ। यह बात ध्यान में रखने की है कि वेद में कुछ विशेष शब्द आते हैं, जो लोक में नहीं आते। यह ज्ञान सृष्टि के आदि में ही सब ऋषि-मुनियों को था, उन्हीं के द्वारा आगे भी सबको हुआ। 

[📎पाद टिप्पणी १. (ऋ॰ १०।७१।१) में “नामधेय दधानाः” से यह बात अवभासित होती है। ‘अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्’ से यह अवभासित होता है कि वाणी (वैदिक वा लौकिक) ऋषियों द्वारा सबको बताई गई, पढ़ाई गई वा निर्धारित हुई।]

      लौकिक-वैदिक शब्दों के विषय में अर्थ के सामान्य, विशेष नियमों का ज्ञान आरम्भ में ही हुआ होगा। आगे अध्ययन-अध्यापन का व्यवहार कैसे चला होगा, इसमें सामान्य व्यवस्था तो वही हो सकती है, जो अब है अर्थात् बिना सिखाये कोई सीख नहीं सकता, किसी न किसी के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान और आगे लौकिक शब्दों के अर्थ-सम्बन्ध का ज्ञान भी होना ही चाहिये। अध्यापन की प्रक्रिया में उस समय कोई भेद रहा हो, ऐसा तो समझ में नहीं पाता। इतना भेद अवश्य रहा होगा कि अतः उस समय भाषा देववाणी थी, अतः उन्हें वेद का अर्थ समझने में अतीव सुगमता थी। आरम्भ में वेदार्थ ज्ञान की क्या शैली थी, इस विषय में निरुक्तकार केवल इतना सङ्कत करते हैं – 

      🔥”साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवः। तेऽवरेभ्योऽसाक्षावकृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः”॥ [निरु॰१।२०] 

      अर्थात्- साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने, जिनको ज्ञान नहीं था, उनको उपदेश के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान कराया। 

      🔥’अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ [ऋ॰ १।१।१] 

      🔥’विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव’॥ [यजु॰ ३०।३] 

      इनमें तथा इसी प्रकार वेद के अन्य मन्त्रों में अर्थ का ज्ञान तत्काल ही हो जाता रहा होगा। इस समय भी इनके अर्थ समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं, न ही लौकिक शब्दों से कोई विशेष भेद है, सिवाय इसके कि ‘अग्नि’ आदि शब्दों का अर्थ वेद में केवल इतना ही नहीं होता, जितना कि लोक में। मन्त्र उच्चारण करने के साथ ही उसका अर्थ हृदयङ्गम हो जाता होगा, जैसा कि इस समय भी हो रहा है। भेद केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उस समय वैदिक शब्दों के व्यापक अर्थों का ज्ञान प्रायः करके सबको था, क्योंकि आरम्भ में वह ऋषियों के द्वारा सबको मिला था। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क्या माता सीता धरती से उत्पन्न हुई थी ? 🤔 ✍🏻 शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी

[२ वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के उप-मुख्यमंत्री डॉ॰ दिनेश शर्मा ने अजीबो-गरीब बयान दिया था। उन्होंने कहा की- ‘सीता माता का जन्म जमीन के अंदर किसी घड़े में हुआ था। इसका मतलब है कि रामायण काल में टेस्ट ट्यूब बेबी का कॉन्सेप्ट था।’ (दैनिक भास्कर, दिनांक २ जून २०१८) इस भ्रांति का निवारण के लिए हम शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी का एक लेख प्रस्तुत कर रहे है। उर्दू में लिखें इस लेख का हिंदी अनुवाद श्री राजेंद्र जिज्ञासु जी ने किया है। पाठक स्वयं पढ़ कर स्वविवेक से निर्णय लेवें। – 🌺 ‘अवत्सार’]

      प्रिय पाठकवृन्द ! आज हम आपकी सेवा में महारानी सीताजी की उत्पत्ति के विषय में कुछ बताना चाहते हैं। महाभारत के युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वानों के मारे जाने के पश्चात् एक घोर वाममार्ग का समय आया। जिसमें स्वार्थी, अनाचारी लोगों ने सुरापान, मांसाहार तथा व्यभिचार को धर्म ठहराया और प्राचीन ऋषि-मुनियों पर सुरापान, मांसाहार व व्यभिचार के दोषारोपण करने के लिए भागवतादि पुराणों की रचना की। इन पुराणो में जहाँ ऋषियों पर दुराचार सम्बन्धी दोष लगाये गये वहाँ उनकी उत्पत्ति को भी घृणितरूप से जनता के सामने उपस्थित किया। यदि आप पुराणों को पढ़ें तो आपको पता लगेगा कि पुराणों ने किसी की उत्पत्ति को सीधे ढंग से पेश नहीं किया। जहाँ इन वामपन्थी लोगों ने पुराणों का निर्माण किया वहाँ प्राचीन ग्रन्थों में भी मांस, व्यभिचार आदि के श्लोक घड़कर मिला दिये और पूज्य महात्माओं की उत्पत्ति को घृणितरूप से वर्णन करनेवाले श्लोक भी प्राचीन ग्रन्थों में मिला दिये। चूंकि इन धूर्त, पाखण्डी, वाममार्गी पौराणिक लोगों ने महारानी सीताजी की उत्पत्ति के बारे में भी वाल्मीकि रामायण में निम्न प्रकार के श्लोक बनाकर सम्मिलित कर दिये, जैसाकि जनक ने बताया है – 

      🔥अथ मे कृषतः क्षेत्र लांगलादुत्थिता तत॥१३॥ 

      🔥क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता। 

      भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा॥१४॥ 

      [वा॰ रा॰ बाल॰ ६६ / १३ – १४] 

      अर्थ – मेरे द्वारा खेत को जोतने पर मेरे हल की फाली से यह ऊपर को उठ पड़ी॥१३॥ चूंकि वह मुझे खेत को जोतते हुए मिली, अतः उसका नाम सीता प्रसिद्ध हो गया वह मेरी पुत्री पृथिवी से निकली और वृद्धि को प्राप्त हुई॥१४॥ 

      अब सीता की इस उत्पत्ति पर ज़रा विचार कीजिए। प्रथम तो इस प्रकार की उत्पत्ति सृष्टि के नियम के विरुद्ध है, क्योंकि मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ३३ में स्पष्ट लिखा है कि – 

      🔥क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। 

      क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदहिनाम्॥३३॥ 

      अर्थ – श्री खेतरूप है और पुरुष बीजरूप है। खेत तथा बीज के मिलने से ही सब शरीरधारियों की उत्पत्ति सम्भव हो सकती है। 

      अतः बिना स्त्री-पुरुष के संयोग के जैवी सृष्टि में किसी भी शरीरधारी की उत्पत्ति असम्भव और सृष्टि-नियम के विरुद्ध है, अतः सिद्ध हुआ कि सीता की उत्पत्ति का इस प्रकार वर्णन करना पौराणिक गप्पाष्टक ही है। दूसरे स्वयं रामायण में भी इसके विरुद्ध प्रमाण मिल जाते हैं जैसाकि जब सीता अनसूया के पास गई और अनसूया ने उसको पतिव्रत धर्म का उपदेश किया तो उत्तर में सीता ने कहा कि –

      🔥पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा त्वग्रिसंनिधौ। 

      अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्॥८॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ , अयोध्या स॰ ११८]

      अर्थ – पहले अग्रि के समीप जो मेरा हाथ राम को पकड़ाते हुए मेरी जननी ने मुझे शिक्षा दी थी वह वाक्य भी मैंने धारण किया हुआ है। 

      इस श्लोक में सीता ने स्पष्ट शब्दों में अपनी जननी माता का वर्णन किया है। इससे आगे जब हनुमान्जी सीता से मिलकर लौटने लगे तो सीता ने कपड़े में से खोलकर एक मणि हनुमान् को दी और कहा कि यह राम को दे देना। और मणि देने के पश्चात् सीता ने कहा कि –

      🔥मणिं दृष्ट्वा च रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति। 

      वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च॥२॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ सुन्दर॰ स॰ २८] 

      अर्थ – इस मणि को देखकर राम तीन को याद करेंगे – मेरी जननी को, मुझे और राजा दशरथ को। 

      सीता के इस कथन से भी सीता की जननी माता का होना स्पष्ट सिद्ध है। इससे यह तो सिद्ध है कि सीता की माता और वह भी पालन करनेवाली नहीं अपितु जननी अवश्य थी, किन्तु कथा में गौण होने के कारण उसका स्पष्ट वर्णन रामायण में नहीं आया। अब हम आपको पौराणिकों के घर से ही अपने पक्ष की पुष्टि के प्रमाण बताते हैं। जब प्रतिपक्षी स्वयं ही हमारी बात का अनुमोदन कर दें तो फिर उनके मिथ्यात्व में क्या सन्देह है। लीजिए शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड अध्याय ३, श्लोक २९ में लिखा है कि – 

      🔥धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च। 

      तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति॥ 

      अर्थ – दूसरी धन्यभाग्यवाली जनक की स्त्री जिसका नाम योगिनी है उसकी कन्या महालक्ष्मी होगी, उसका नाम सीता होगा।

      ‘जादू वह जो सिर चढ़कर बोले’ यह जनश्रुति पौराणिकों पर ही ठीक घटित होती है। इन सम्पूर्ण प्रमाणों से यह स्पष्ट सिद्ध है कि योगिनी नाम की जनक की स्री थी। उसके गर्भ से ही सीता की उत्पत्ति हुई थी। पौराणिकों ने खेत से सीता का निकलना मिथ्या ही रामायण में मिला दिया। इसी प्रकार से अन्य ऋषि , मनीषियों की उत्पत्ति भी सृष्टि-नियम के विरुद्ध मिथ्या ही पुराणों ने प्रतिपादित की है। सज्जन लोग बुद्धिपूर्वक सच्चाई को ग्रहण करने का प्रयत्न करें।

✍🏻 लेखक – शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी [अनुवादकर्ता – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य का विद्वानों पर प्रभाव ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा किये गये वेदभाष्य का प्रभाव अनेक देशी-विदेशी विद्वानों पर पड़ा है। किसी ने उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न करते हुए भी उनके विचारों में जो विशेष परिवर्तन हुआ, उससे आँका है। 

      इसके लिये हम एक भारतीय विद्वान् योगिराज अरविन्द घोष और विदेशी प्रतिप्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर के विचार उद्धृत करते हैं। 

      श्री अरविन्द घोष ‘युजन’ ( =योगी) व्यक्ति थे। अतः उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारमार्थिक अर्थ के विषय में ही लिखा। योगिराज अरविन्द घोष ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के विषय में वैदिक मैगजीन १९१६ में लिखा था[१] –

[📎पाद टिप्पणी १. आगे उद्धृत श्री अरविन्द का मूल अंग्रेजी लेख और उसका हिन्दी भावांश पं. भगवदत्तजी कृत-वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग २, ‘वेदों के भाष्यकार’ ग्रन्थ से लिया है। द्र॰-पृष्ठ ८८-९२, सन् १९७६ का संस्करण]

      It is objected to the sense Dayananda gave to the Veda that it is no true sense but an arbitrary fabrication of imaginative learning and ingenuity, to his method that it is fantastic and unacceptable to the critical reason, to his teaching of a revealed Scripture that the very idea is a rejected superstition impossible for any enlightened mind to admit or to announce sincerely. 

      I shall only sate the broad principles underlying his thought about the Veda as they present themselves to me. 

      To start with the negation of his work by his critics, in whose mouth does it lie to accure Dayananda’s dealing with the Veda of a fantastic or arbitrary ingenuity? Not in the mouth of those who accept Sayana’s traditional interpretation. For if ever there was a monument of arbitiarily erudite ingenuity, of great learning divorced as great learning too often is, from sound judgment and sure taste and a faithful critical and comparative observation, from direct seeing and often even from plainest common sense or of a constant fitting of the text into the Procrushean bed of preconceived theory, it is surely this commentary, other wise so imposing so useful as first crude material, so erudite and laborious, left to us by the Acharya Sayana. Nor does the reproach lie in the mouth of those who take us final the recent labours of European scholarship. For if ever there was a toil of interpretation in which the loosest vein has been given to an ingenious speculation, in which doubtful indications have been snatched at as certain proofs, in which the boldest conclusions have been insisted upon with the scantiest justification, the most enormous difficulties ignored and preconceived prejudic maintained in face of the clear and often admitted suggestions of the text, it is surely this labour, so eminently respectable otherwise for its industry, good will and power of research, per formed through a long century by European Vedic scholarship. 

      What is the main positive issue in this matter? An interpretation of Veda must stand or fall by its central conception of the Vedic religion and the amount of support given to it by the intrinsic evidence of the Veda itself. Here Dayanada’s view is quite clear its foundation inexpugnable. The Vedic hymns are chanted to the One deity under many names, names which are used and even designed to express His qualities and powers. Was this conception of Dayanada’s arbitrary conceit fetched out of his own too ingenious imagination ? Not at all; it is the explicit statement of the Veda it self; “One existent, sages” not the ignorant, mind you, but seers, the men of knowledge.–“speak of in many ways, as Indra, as Yama, as Matarisvan, as Agni.” The Vedic Rishis ought surely to have known something about their own religion, more, let us hope than Roth or Max Mueller, and this is what they knew. 

      We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn, they say, was a late production, this loftier idea which it expresses with so clear a force rose up somehow in the later Aryan mind or was borrowed by those ignorent fire-worshipers, sun worshipers, sky-worshipers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughout the Veda we have confirmatory hymns and expressions. Agni or Indra or another is expressly hymned as one with all the other gods. Agni contains all other divine powers within himself, the Maruts are described as all the gods, one deity is addressed by the names of other as well as his own, or, most commonly, he is given as Lord and King of the universe, attributes only appro priate to the Supreme Deity. An, but that cannot mean, ought not to mean, must not mean the worship of One; let us invent a new word, call it henotheism and suppose that the Rishis did not really believe Indra or Agni to be the Supreme Deity but treated any god or every god as such for the nonce, perhaps that he might feel the more flattered and lend a more gracious ear for so hyperbolic a compliment ! But why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism rather than this new fangled monstrosity of henotheism ? Well, because primitive barbarians could not possibly have risen to such high conception and if you allow them to have so risen you imperil our theory of evolutionary stages of the human development and you destory our whole idea about the sense of the Vedic hymns and their place in the history of mankind. Truth must hide herself. common sense disappear from the field so that a theory may flourish ! I ask, in this point, and it is the fundamental point, who deals most straightforwardly with the text, Dayananda or the Western scholars ? 

      But if this fundamental point of Dayanada is granted, if the character given by the Vedic Rishis them selves to their gods is admitted, we are bound. when ever the hymns speak of Agni or another, to see behind that name present always to the thought of Rishis, the one Supreme Deity or else one of His powers with its attendant qualities or workings. Immediately the whole character of the Veda is fixed in the sense Dayananda gave to it; the merely ritual, mythological!, polytheistic interpretation of Sayana collapses, the merely meteorological and naturalistic European interpretation collapses. We have instead a real scripture, one of the world’s sacred books and the divine word of a lofty and noble religion. 

      अर्थात्[२] दयानन्द के वेदभाष्य के सम्बन्ध में अनेक शंकाएँ की जाती हैं। ….. मैं दयानन्द के वेद-भाष्य के आधाररूप उन प्रसिद्ध नियमों का उल्लेख करूँगा, जो मुझे समझ पाए हैं। 

[📎पाद टिप्पणी २. हमने श्री अरविन्द के लेख का भावमात्र दिया है। वैदिक मैगजीन,१९१६]

      सायण-भाष्य को ठीक समझनेवाले व्यक्ति स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। महाविद्वान् सायण का भाष्य ऊपर से महत्त्व वाला दिखाई देता हुआ भी वेद का यथार्थ और सीधा अर्थ नहीं है। पाश्चात्य विद्वान् भी स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। उनका परिश्रम, शुभेच्छा, अनुसन्धान शक्ति से एक शताब्दी में किया गया अर्थ भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें पूर्वापर सम्बन्ध का अभाव है और सन्दिग्ध विषयों को प्रमाणभूत मान कर अर्थ किया गया है। 

      वेदार्थ तो वेद से होना चाहिए। इस विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार सुस्पष्ट है, उसकी आधारशिला अभेद्य है। वेद के सूक्त भिन्न-भिन्न नामों से एक ईश्वर को ही सम्बोधन करके गाए हैं । विप्र, अर्थात् ऋषि एक परमात्मा को ही अग्नि, इन्द्र, यम, मातरिश्वा और वायु आदि नामों से बहुत प्रकार से कहते हैं। वैदिक ऋषि अपने धर्म के विषय में मैक्समूलर या राथ की अपेक्षा अधिक जानते थे। अतः वेद स्पष्ट कहता है कि जितने भी नाम हैं वे सब एक ईश्वर के ही अनेक नाम हैं। 

      हम जानते हैं कि आधुनिक विद्वान् किस प्रकार इस बात को खींच तान करके उलटते हैं। वे कहते हैं, यह सूक्त नये काल का है। ऐसे ऊँचे विचार बहुत प्राचीन आर्य लोगों के मन में नहीं आ सकता था। इसके विपरीत हम देखते हैं कि वेद में अनेक सूक्त इसी भाव को बताते हैं। अग्नि में ही सब दूसरी दैवी शक्तियाँ हैं, इत्यादि। देवताओं के ऐसे विशेषण हैं, जो सिवाय ईश्वर के और किसी के हो नहीं सकते। पाश्चात्य इस बात से घबराते हैं। वेद का ऐसा अर्थ नहीं होना चाहिए, निस्सन्देह ऐसे अर्थ से उनका चिरकाल से पनप रहा विचार नष्ट होता है। अतः सत्य को छिपाना चाहिए। मैं पूछता हूं, इस बात में, इस मौलिक बात में स्वामी दयानन्द सरस्वती वेद का सीधा अर्थ करते हैं या पाश्चात्य विद्वान्। 

      इस एक के समझने से, दयानन्द के इस मौलिक सिद्धान्त के मानने से नहीं, वैदिक ऋषियों के इस विश्वास के जानने से कि सब देवता एक महान् आत्मा के नाम हैं, हम वेद का वास्तविक भाव जान लेते हैं। बस वेद का वही तात्पर्य निकलता है, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इससे निकाला। केवल याज्ञिक अर्थ या सायण का बहुदेवतावाद आदि का अर्थ भस्मीभूत हो जाता है। पाश्चात्यों का केवल अन्तरिक्ष आदि लोकों के देवताओं के सम्बन्ध में किया हुआ अर्थ मलियामेट हो जाता है। इसके स्थान में वेद एक वास्तविक धर्म ग्रन्थ, संसार का एक पवित्र पुस्तक और एक श्रेष्ठ और उच्च धर्म का देवी शब्द हो जाता।

      ◼️प्रा॰ मैक्समूलर[३] और स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य – यद्यपि प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्रा॰ मैक्समूलर की स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में क्या धारणा थी अथवा उनके वेदभाष्य का प्रा॰ मैक्समूलर पर क्या प्रभाव पड़ा। इसके लिये यदि हम मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों की उत्तर कालीन विचारों से तुलना करें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसके विचारों में जो परिवर्तन दिखाई देता है, उसके पीछे दयानन्द के वेदभाष्य का प्रभाव अवश्य है। एक स्थान पर तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की अपूर्वता को हल्के स्वर से स्वीकार भी करता है। उसने नागर प्रशासक के रूप में भारत आनेवाले व्यक्तियों के सम्मुख ७ व्याख्यान दिये थे। उनका विषय था- INDIA WHAT CAN IT TEACH US अर्थात् ‘हम भारत से क्या सीखें’ इसके तीसरे भाषण में कहा था –

      “We may divide the whole of Sanskrit literature, begining with the Rig Veda and ending with Dayanada’s Introduction to his edition of the Rig Veda, his by no means uninteresting Rig-Veda-Bhumika, into two great periods.” 

      अर्थात् ‘ऋग्वेदकाल से प्रारम्भ करके दयानन्द द्वारा स्वसम्पादित ऋग्वेद की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह बात भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है। (भाषण ३, पृष्ठ १०२)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. प्रा॰ मैक्समूलर ने ऋग्वेद सायणभाष्य के आरम्भ में स्वनाम का ‘मोक्षमूलर’ रूप में संस्कृतीकरण किया था। अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती उनका उल्लेख सर्वत्र ‘मोक्षमूलर’ शब्द से ही स्वग्रन्थों में करते थे।]

      प्रा॰ मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों और उत्तरकालीन विचारों का निर्देश हम आगे करेंगे। पहले हम मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में लिखते हैं। 

      ◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के नियमित ग्राहक – स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के प्रतिमास छपनेवाले अङ्कों के टाइटल पृष्ठों पर वेदभाष्य के नियमित ग्राहकों के नाम पते छपते थे। उनमें हमने एक स्थान पर प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के नाम छपे देखे थे। मुशी समर्थदान ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञानुसार ३० जून १८७९ ई॰ में श्यामजीकृष्ण वर्मा को जो पत्र इङ्गलैण्ड लिखा था, उसमें भी मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों के वेदभाष्य का नियमित ग्राहक होना सिद्ध होता है । (यह पत्र हम आगे उद्धृत करेंगे।)

      स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने वेदभाष्य में तथा अन्यत्र जब भी अवसर प्राप्त होता, प्रा॰ मैक्समूलर का प्रतिवाद करने में नहीं चूकते थे। इसी प्रकार एक अवसर पर मैक्समूलर ने कहा था- दयानन्द मेरे वेदभाष्य का कितना ही खण्डन क्यों न करें, मेरे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद सायणभाष्य सदा उनकी मेज पर खुला रहता है, (द्र॰-पूर्व पृष्ठ ८६, तथा टि॰ २)। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के कार्य से न केवल भले प्रकार परिचित थे, अपितु एक-दूसरे के कार्यों की वास्तविकता को भी समझते थे। फिर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती यह स्पष्ट रूप से जानना चाहते थे कि प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के अपने वेद भाष्य के सम्बन्ध में क्या विचार हैं। मुशी समर्थदान प्रबन्धक वेदभाष्य कार्यालय ने ३० जून १८७९ को स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञा[४] से श्यामजी कृष्णवर्मा को आक्सफोर्ड (इङ्गलैण्ड) के पते से एक पत्र लिखा था। उस में लिखा है- प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों से भिजवा देना और लिखना कि उन लोगों का स्वामीजी और वेदभाष्य के विषय में क्या कहना है। स्वामीजी उनके भाष्य का खण्डन करते हैं, उसके बाबत क्या कहते हैं।[५]

[📎पाद टिप्पणी ४. ‘मैं यह पत्र स्वामीजी की आज्ञानुसार लिखता हूं।’ ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, पृष्ठ २७६, पं॰१०]

[📎पाद टिप्पणी ५. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ २७७, पं॰ ८-११] 

      पुनः प्राषाढ़ सुदि ६, मंगलवार (२३ जुलाई १८८०) को श्यामजी कृष्णवर्मा को लिखे पत्र में स्वामी दयानन्द पूछते हैं-

      श्रीयुत प्रियवराध्यापक मूनियर विलियंस मोक्षमूलराख्यानामधुना वेदादिशास्त्राणां मध्ये कीदृङ् निश्चयः प्रेम तदर्थप्रचाराय चिकीर्षाऽस्ति।[६]

[📎पाद टिप्पणी ६. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ ३४७, पं॰ २३-२४]

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती के महत्त्व को स्वीकारना – हम पहले लिख चुके हैं कि अपने समय के इन दोनों प्रतिवादिभयङ्करों का कभी परस्पर साक्षात् नहीं हुआ परन्तु दोनों एक दूसरे के कार्य से भले प्रकार परिचित थे। 

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती को इङ्गलेण्ड आने का निमन्त्रण –  स्वामी दयानन्द सरस्वती के पं॰ लेखराम-लिखित जीवनचरित से स्पष्ट होता है कि मैक्समूलर ने सन् १८७५ में स्वामी दयानन्द सरस्वती को इंग्लैंड आने का निमन्त्रण भेजा था। उक्त जीवनचरित के पृष्ठ २८७ (हिन्दी अनु॰ प्र॰ संस्क॰) पर मैक्समूलर के पत्र का निम्न सारांश दिया है –

      ‘यदि आप यहां आवें तो बहुत बड़ी कृपा होगी। और वहां के धन्य भाग हैं, जहाँ आपने जन्म लिया है।’ 

      इसके उत्तर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो पत्र लिखा था, उसका सारांश उसी जीवनचरित के पृष्ठ २८८ में इस प्रकार छपा 

      मेरी इच्छा आने की अवश्य थी, परन्तु यहाँ के लोग अभी मुझे नास्तिक कहते हैं। जब तक में इस देश को अच्छी तरह से न बतादूँ कि में कैसा नास्तिक हूं, तब तक नहीं आ सकता। 

      पं॰ लेखराम ने तो यह भी लिखा है…’वहाँ ( बम्बई) के भाटियों ने जहाज पर ले जाने का वचन भी दे दिया था’ (वही, पृष्ठ २८८)। पुनः पृष्ठ २९३ पर लिखा है- [लखनऊ में] ‘एक बंगाली बाबू को अंग्रेजी पढ़ाने को नौकर रखा था। और पढ़ना आरम्भ किया था।’ इण्डियन मिरर (कलकत्ता), बिहार बन्धु (पटना), हिन्दूबान्धव (लाहौर) के समाचारपत्रों में इस आशय की सूचनाएँ छपी थीं। 

      ‘ईश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है’ इस सुभाषित के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का इङ्गलैण्ड जाना नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ। अन्यथा पाश्चात्य भक्तों को यह कहने का अवसर मिल जाता कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो कार्य किया है, उसकी प्रेरणा उन्हें पाश्चात्य विचारधारा से मिली है। 

      ◼️स्वा॰ द॰ स॰ का जीवनचरित लिखने की आङ्काक्षा – स्वामी दयानन्द सरस्वती के निधन के कुछ समय पश्चात् प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखने का संकल्प किया था, और उसके लिये परोपकारिणी सभा के तात्कालिक मन्त्री मोहनलाल विष्णूलाल पाण्डया को पत्र लिखा था। यह वृत्तान्त अजमेर के ‘देश हितैषी’ पत्र के खण्ड ४ अङ्क ४ सं॰ १९४२ (?) के पृष्ठ ८५ से ज्ञात होता है। पाण्ड्याजी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनचरित सम्बन्धी सामग्री स्वयं एकत्र न करके सब आर्यसमाजियों को प्रेरणा दी थी कि जिन्हें स्वामीजी की कोई विशेष घटना ज्ञात होवे, वह प्रा. मैक्समूलर साहब को लिखें। इसी प्रकार का वर्णन ‘फर्रुखाबाद का इतिहास’ के पृष्ठ २५५ पर भी मिलता है। 

      हन्त ! परोपकारिणी सभा के मन्त्री केवल आर्य समाजियों को प्रेरित मात्र करके अपने उत्तरदायित्व से मुक्त न होकर प्रा॰ मैक्समलर को स्वामीजी की जीवनघटनाओं को संग्रहीत करके भेजते तो प्रा॰ मैक्समलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखा जाना एक गौरव की बात होती। अस्तु 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रा॰ मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों में वैपरीत्य होते हए भी दोनों में व्यक्तिगत सौहार्द उसी प्रकार का लक्षित होता है, जैसे मोनियर विलियम्स और स्वामी दयानन्द सरस्वती में परस्पर था।

      अब हम प्रा॰ मैक्समूलर के वेदविषयक प्रारम्भिक और उत्तरवर्ती विचारों का संक्षेप से वर्णन करते हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि प्रा. मैक्समूलर के विचारों में उत्तरकाल में कितना अधिक परिवर्तन हुआ

था। 

      ◼️प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं –

      मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं।[७] पत्रलेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ७. Life and letters of Frederich Max Muller, Two Vols.]

      ▪️१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता –

      वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण[सायणभाष्य सहित ऋग्वेद का संस्करण] उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है। और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।[८]

[📎पाद टिप्पणी ८. ……This adition of mine and the translation of the Veda Will here after tell to a great extent on the fate of India, ……It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.] 

      ▪️२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है –

      ‘संसार की सब धर्मपुस्तकों में से नई प्रतिज्ञा[अर्थात् ईसा की बाईबल] उत्कृष्ट है। इसके पश्चात कुरान जो प्राचार की शिक्षा में नई प्रतिज्ञा का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा[अर्थात् यहूदी बाइबल] दाक्षिणात्य बौद्ध पिटक, बेद, और अवेस्ता आदि हैं।'[९] 

[📎पाद टिप्पणी ९. Would you say that anyone sacred book is superior to all others in the world ?……I say the New Testament. After that, I should place the Koran, which in its moral teachings, is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow,……the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.] 

      ▪️३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है –

      ‘भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?'[१०]

[📎पाद टिप्पणी १०. The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault it be ?] 

      ▪️४. मैक्समूलर लिखता है- 

      ‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल अधर्म और साधारण है।'[११] 

[📎पाद टिप्पणी ११. “Large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious, low, common place.” Chips from a German Workshop, second edition, 1866, p. 27.]

      ▪️५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई॰ बी॰ पुसे का पत्र – 

      ‘आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवगुण लाने वाला है।'[१२]

[📎पाद टिप्पणी १२. ‘Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India……’]

      वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र ? ऐसों के लिये ही तो कहावत है- 🔥उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभाः। 

      वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई यहूदी वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे, उन सबके मस्तिष्क में ईसाई यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाईयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिये लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है- 

      “That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.” 

(भूमिका, पृष्ठ९) 

      हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं –

      ◼️उत्तरकालीन विचार – मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आनेवाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में “INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें ? ) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था। 

      सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में पाये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल मानने वाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिये था कि तुम्हें वहाँ जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि ‘हम भारत से क्या सीखें ?’ अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद[१३] से कतिपय विचार उद्धत करते हैं –

[📎पाद टिप्पणी १३. अनुवादक- श्री कमलाकर तिवारी एवं रमेश तिवारी। प्रकाशक-इतिहास प्रकाशन संस्थान, इलाहाबाद। प्रथम संस्करण, जुलाई १९६४]

      ▪️वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया – 

      “वेदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना आरम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं, तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की प्रति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता, वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।” (पृष्ठ १३५)। 

      ▪️वैदिक भाषा, साहित्य धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है-  

      “प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिये जितने तर्क दिये जा चुके हैं, उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है, उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है, जो उत्तर में अगम्य पर्वत श्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्ण रूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है, जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हुआ।” (पृष्ठ १४५)। 

      ▪️बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- 

      “यदि आप हमसे यह पूछ बैठे कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी, तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएँ ऐसी हैं, जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है, उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि “वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं, जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्”[१४]। पृष्ठ( १४८)। 

[📎पाद टिप्पणी १४. 🔥इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। ऋ॰ १।१६४।४६] 

      “यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विशेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीअस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोम वालों से भिन्न है, वरन् वह पालिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकारप्राप्त ग्रामों का संघ राजतंत्रीय शासन से भिन्न होता है।” (पृष्ठ १४६)। 

      ▪️केवल एक ही देव – “……. उन ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं, वह एक है और केवल एक है।” (पृष्ठ १५१)। 

      “उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है….. ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।” (पृष्ठ २२३)। 

      ▪️वेद का चरम लक्ष्य – “मैं तो यहाँ तक कह सकता है कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहाँ का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।” (पृष्ठ २२३)। 

      ”लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।” (पृष्ठ २२७) ।

      “वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गवई गाँव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।” (पृष्ठ २२७)। 

      मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति ‘शापन हावर’ के उपनिषदविषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया। 

      यदि आप ये समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं, तो मैं आपके समक्ष एक महान दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूँगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापन हावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रगट करते हुए लिखा है कि-

      “समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊँचा उठाने वाला नहीं है, जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का संतोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।” (पृष्ठ २३०)।

      इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था। परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। और इनके मध्य श्यामजीकृष्णवर्मा, जो संस्कृत अध्यापन के लिये लन्दन गए हुए थे, सम्पर्कमाध्यम के रूप में भूमिका निभा रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती – 

      ‘ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेद भाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।’ हम भारत से क्या सीखें, पृष्ठ १०२। 

      सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में, जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हों, वहाँ कम से कम मैक्समूलर के INDIA WHAT CAN IT TEACH US ? (हम भारत से क्या सीखें ) शीर्षक व्याख्यानसंकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय, तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्ध भक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[ 📖 साभार ग्रन्थ – मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वर्तमान परमाणु (एटम) की उत्पत्ति और वेद -ब्रह्यचारी अग्निव्रत नैष्ठिक

जिस समय डाल्टन का परमाणुवाद संसार के सम्मुख प्रस्तुत हुआ उस समया एटम (परमाणु) को किसी भी पदार्थ का मूल कण माना जाने लगा परन्तु इलेक्ट्रोन आदि की खोज से डाल्टन का परमाणुवाद इतिहास की बात होकर रह गया। एटम को विखण्डित करते-करते आज मूल कण कहे जाने वाले कणों की संख्या दौ सौ के लगभग ही हो चुकी है। इन कणों को भी वैज्ञानिक उत्पन्न कर रहा है, दूसरों में परिवर्तित कर रहा है उदासीन पाई मैसोन की त्रिज्या १० से, मानी जा रही है तब इन्हें कैसे मूलकण माना जाये ?

            आज एटम का स्टेण्डर्ड मॉडल प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रारूप में छः क्वार्क (u, d, c, b, t) तथा छः लैप्टोन (इलेक्ट्रॉन, म्यूऑन, टाऊन, इलेक्ट्रॉन-न्यूट्रिनो, म्यूऑन-न्यूट्रिनो तथा टाऊन-न्यूट्रिनो) ये मूल कण कहे जा रहे है। अन्य मूल कणों को इन्हीं से निर्मित माना जा रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है-

All evidences point to the fact that the leptons have no internal structure and are point particles. They are considered more elementary than handrons which have internal structure ¼quark-structure½ Leptons and quarks seem to be at the same level of elementriness.

            ¼Atomic & Nuclear Physics – Vol. II S.N. Ghoshal-New Delhi, P.९०५½

            अर्थात् लप्टोन तथा क्वार्क कणों की आन्तरिक संरचना नहीं होती इस कारण ये कण प्रोटीन, न्यूट्रोन आदि कणों की अपेक्षा अधि कमूल कण हैं। इसके आगे यही ग्रन्थकार लिखता है-

            Each type of Lepton is associated with a neutrino. The elementriness

            अर्थात् प्रत्येक लेप्टान के साथ लगभग शून्य द्रव्यमान का कण न्यूट्रिनों संयुक्त होता है। इस कण के बारे में ब्रिटिश वैज्ञानिक लिखते हैं-

            Every particles is accompanies by another particles called neutrino which mass in rest is zero. It is high energy particles. Its speed is equal to light speed.

            ¼Atomic energy-macmillon & Co.Ltd.-London-१९६२½

            अर्थात् विरामावस्था में शून्य द्रव्यमान वाला न्यूट्रिनो कण प्रत्येक कण के साथ संयुक्त होता है जिसमें उच्च ऊर्जा होती है तथा प्रकाश वेग गति करता है।

            प्रश्न यह है कि क्या न्यूट्रिनो तथा उसके संयोगी कणों का संयोग अनादि है? ऐसा हो ही नहीं सकता तब ये कण भी विशेषकर वे जिसके साथ न्यूट्रिनों का संयोग अनिवार्य है, मूलकण नहीं हो सकता तब सिद्ध है कि लेप्टोनों का निर्माण कभी न कभी हुआ है। इसी प्रकार क्वार्क कणों के साथ ग्लूऑन कणों की कल्पना की जाती है। जिस आधार पर लेप्टोनों का अनादित्व असिद्ध हुआ उसी प्रकार क्वार्कों का भी अनादित्व असिद्ध होगा। तब जो कण अनादि नहीं हो सकते वे मूल कण भी कैसे कहे जा सकते हैं? फिर वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रत्येक कण गतिशील ही होता है। वेद भी ऐसा स्पष्ट रूपेण कहता है। विज्ञान और वेद दोनों ही यह भी मानते हैं कि कणीय गति से ही कणों की सत्ता है।

            वायवायाहि दर्शते मे सोभा अरंकृताः तेषां पाहि-ऋग्वेद १/२/१

            मंत्र बतला रहा है कि गति गुण ने ही संसार भर के मूर्तिमान पदार्थों को सजा रखा है और वही इनकी रक्षा भी कर रहा है।

            विज्ञान के शब्दों में-

Only Few are stable, such as the proton, electron, neutrino, positron, photon, and poton, the rest are all unstable.

            ¼ Atomic & Nuclear Physics-S.N.GHOSHAL, P.९०१½

            निश्चित ही गति की सत्ता अनादि नहीं है तब वर्तमान में मूलकण कहे जाने वाले कणों में से कोई भी कण आद्य अवस्था में विद्यमान नहीं था। जब इनका अस्तित्व गति के अभाव में समाप्त हो जाता है तब ये कण किसमें परिवर्तित हो जाते हैं उस सत्ता को मूलावस्था क्यों न माना जाय? प्रश्न यह भी है कि बिना गति इन कणों की सत्ता रहती नहीं और वैज्ञानिक इन कणों का द्रव्यमान विराम अवस्था में ही मापते और बतलाते हैं तब क्यों कर इन्हें विराम में प्राप्त कर पाते हैं? फिर वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि गतिशील कण का द्रव्यमान अपेक्षाकृत वर्धमान होता जाता है। इससे सिद्ध है कि ऊर्जा में कुछ न कुछ द्रव्यमान अवश्य होता है।

            अब वैज्ञानिक सृष्टि की आदिम अवस्था में इन कणों का निर्माण स्वीकार करते हैं, वे मानते हैं कि प्रारम्भ में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कल्पनातीत ताप था।

            Thus at the time + १०-४५ after zero time the temperature was about १०-३२ K. Between + १०-३५ s only rwo of the fundamental interactions were operative. These were the unfield strong weak force and the gravitati onal force. A type of very heavy particles are called the X-Bosons exited during the period, which  helped change the quarks into leptons and vikce weasa———-As we approached the time + १०-१०s there is defreezing of the strong plus electron weak interaction is and the two interactions now appear as Distinct. So there are now the there fundamental interaction – gravitational strong nuclear and electro weak in operation. W+ and Zo Bos appear at + १०-१० s The electron weak interaction begin to defreeze electro-megnetic and weak forces become seperated now we have all the four distinct interactions operative. Between १०-६s -१०-४s there is another transition. The neutrons and the protons being to take shape due to the combination of the quark. So that the fundamental particles are produed familiar to us in the present day universe begin to appear.

            At about + १०-३s the temp has fallen to ८*१० १० K. Hundrads of different elementry particles are produced by collisions at the available energy.

            At the time zero plus there minutes the temp is about to ७० times, that found in the core of the sun. This is when the protons and neutrons begin to combine to from the complet nueclai.

            The formation of the atoms came much later at the time zero plus ५००००० years. The universe cooled down sufficiently so that electrons and the nuclei could join together to from the atoms.

            { Atomic and Nuclear Physics – Page ९५१-५२}

            उपर्युक्त उदाहरण पर विचारने से निम्न तथ्य सामने आते हैं-

१.        आदिम अवस्था का ताप सूर्य के केन्द्रीय ताप का १ करोड़ अरब गुना था, जो वर्तमान में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कहीं सम्भव नहीं होगा।

२.        उस ताप में अत्यन्त तेजी से गिरावट आती है।

३.        उस समय किसी भी प्रकार के कण नहीं होते हैं। कहा गया है कि सर्वप्रथम उत्पन्न बोसोन कण लेप्टोन को क्वार्क तथा क्वार्कों को लेप्टोनों में परिवर्तित करते हैं।

४.        लगभग ५ लाख वर्ष में एटम का निर्माण हो पाता है।

५.        पूर्व में दो ही बल थे जो बाद में चार बलों में विभक्त हो गये। उपर्युक्त बिन्दुओं की समीक्षा से निम्न प्रश्न उपस्थित होते हैं-

१.  वह उच्चतम ताप कैसे, किसमें तथा किसके द्वारा उत्पन्न हुआ? यदि ईश्वरीय सत्ता को भी यह प्रश्न शेष रहेगा कि ताप किस प्रकार तथा किस उपादान पदार्थ से उत्पन्न किया गया। यह ताप वाली स्थिति अनादि तो हो नहीं सकती तब उपर्युक्त प्रश्न अनुत्तरित रहेगे ही।

२.  उस ताप में इतनी तेजी से गिरावट आना भी कैसे हुआ? केवल ३ मिनट में ताप १० ३२ K से लगभग ३-४ अरब K तक पहुंच जाना अप्रत्याशित सा प्रतीत होता है। केवल तीन मिनट में नाभिकों का निर्माण हो जाना जबकि एटम के निर्माण में ५ लाख वर्ष, लगे, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती।

३.  बोसोनों की उत्पत्ति के पश्चात् क्वार्क से लेप्टान तथ लेप्टान से क्वार्क बनने के सिद्धान्त में अन्योन्य आश्रय का दोष आयेगा। इन दोनों में कौन प्रथम, इसका उत्तर कैसे दिया जायेगा? फिर जो प्रथम बना तो किससे और यदि दोनों एक साथ कैसे बने और जिससे भी बने उसी से फिर क्यों नहीं बने ?

            जैसा कि हम विचार कर चुके हैं कि अब तक मूलकण कहे जाने वाले कणों में से मूलकण कोई प्रतीत नहीं होता, हाँ ग्लूऑन, न्यूट्रिनों, फोटोन जैसे कुछ कण अवश्य ही ज्ञान कणों में प्राथमिक प्रतीत होते हैं।

                        -: अब हम वैदिक विचारधारा को प्रस्तुत करें:-

            सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि सृष्टि सृजन के पूर्व अर्थात् आदिम अवस्था क्या थी?

            गीर्णिभुवनं तमसापगूढ़म……………ऋग्वेद १०१/८८/२

            अर्थात् उस समय सब कुछ निगला हुआ सा और अंधकार से आवृत था।

            तम आसीत्तमसागूढ़मग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्। ऋग्वेद १०/१२९/३

            अर्थात् सबको लीन किये हुये चिन्ह रहित तथा अंधकार से आवृत और सब ओर व्याप्त यह प्रकृति थी।

            नासदासीनों सदासीत्तदानीं नासीद्वजः ऋग्वेद-१०/१२९/१

            अर्थात् उस समय शून्य रूप असत् आकाश भी नहीं था क्योंकि उसका व्यवहार नहीं था और न ही सत् अर्थात् सत्व, रज, तम से बना प्रधान ही था अथवा उस समय अभाव रूप असत् तथा भावरूप व्यक्त जगत् दोनों ही नहीं थे। और न रजस् अर्थात् परमाणु ही थे। इसी को  भगवान मनु ने इस प्रकार कहा-

            आसीदिदं तमोभूतम प्रज्ञातम लक्षणम्।

            अग्रतक्र्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।। मनु १/५

            अर्थात् उस समय की अवस्था पूर्णतः अन्धकारमय, न जानने योग्य, लक्षणविहीन, तर्क न करने योग्य प्रसुप्त जैसी थी। कोई ध्वनि, प्रकाश, गति आदि कुछ भी नहीं था।

            इसके साथ

            ऽस्वधया तदेकम्…………………..ऋ. १०/१२९/२

            अर्थात् वह परमात्मा स्वधा (प्रकृति ) के साथ रहता है क्योंकि

            योऽस्याधयक्षः………………………..ऋ. १०/१२९/७

            अर्थात् वह परमात्मा ही इस सृष्टि का अध्यक्ष है, वही इसकी रचना, पालन तथा धारण आदि करता है। वेद यह भी स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त अवस्था न केवल स्थान विशेष में बल्कि…………..

            तिरश्र्वीनोक्तितो रश्मिरेषामधः रिवदासीदुपरि स्विदासीत्……………. -ऋ. १०/१२९/५

            उपर्युक्त बिन्दुओं पर विचार करने पर निम्नलिखित तथ्य प्राप्त होते हैं-

१.        वह अवस्था पूर्णतः अंधकार व प्रसुप्त होने से अव्यक्त एवं अज्ञेय ही होती है। जिस प्रकार हम किसी वस्तु को निगल लेते हैं तब निगली हुई वस्तु का अभाव तो नहीं होता परन्तु वह छिप जाती है। इसी प्रकार उस समय सब कुछ अंधकार द्वारा निगला हुआ होता है। अंधकार, शांत, निष्क्रियता की सीमा इतनी कि उससे अधिक ब्रह्माण्ड में कहीं एवं कभी सम्भव नहीं हो सकती।

वैज्ञानिक प्रारम्भिक अवस्था को अत्यन्त तप्त, तेजस्वी बतलाते हैं जहां प्रकाश एवं ऊष्मा की चरम सीमा है जो कहीं तथा कभी उसके पश्चात् कल्पित भी नहीं की जा सकती जबकि वैदिक विचारधारा इसके ठीक विपरीत है अर्थात् उस समय इतना शैत्य जितना कभी और कहीं भी इस ब्रह्माण्ड में इस अवस्था के पश्चात् सम्भव नहीं है।

२.        उस समय एटम आदि नहीं होते हैं। यहां ‘परमाणु’ शब्द का अर्थ एटम या अणु (मॉलीक्यूल) आदि ही है न कि सबसे सूक्ष्म कण भगवान यास्क के शब्दों में-

अर्थात् प्रकाश एवंज ल का सूक्ष्मतम कण वा लोक को रजस् कहते हैं। प्रकाश का सूक्ष्म कण फोटोन जल का एक अणु अर्थात् किसी भी साधन से दृष्टि में आने योग्य कण वा लोक लोकान्तर। ये सभी उस समय अविद्यमान थे।

३.        उस समय जो भी मूलकण होते हैं, वे सलिल अवस्था जैसे होते हैं। ‘‘सलति गच्छति निम्नं देशं सलिलम्’’ अर्थात् जो नीचे की ओर सरकता है, फिसलता है ‘सलिल’ कहलाता है। इस का तात्पर्य यह नहीं कि उस समय ऐसी अवस्था वास्तव में होती है बल्कि यहां आशय मात्र यह है कि कण परस्पर किसी भी प्रकार के चिपचिपेपन से रहित अर्थात् एक दूसरे पर पूर्णतः फिसलने योग्य होते हैं। पूर्णतः पारस्परिक बन्धन (आकर्षण या प्रतिकर्षण) रहित। और यह सलिल भी कैसा था।-

आपं वा इयमग्रे सलिल…………………….मासीत् तै. १/१/३/५

अर्थात् प्रारम्भ में यह ‘आपस्’ ही सलिल था। और आपस् क्या है-

अिर्वाइदं सर्वमाप्तम्……………….शतपथ १/१/१/१४

अर्थात् ऐसा पदार्थ सर्वत्रव्याप्तथा और भी-

अगृता ह्यापः……………………..-शत. ३/९/४।१६

            अर्थात् वह आपस् अमृत था अर्थात् अनादि था ऊपर, नीचे, दांये, बांये सर्वत्र वह सलिल रूपी मूलपदार्थ भरा रहता है। इसी कारण आकाश अर्थात् अवकाश का अभाव बताया गया है।

४.        इस अवस्था को वेद ‘स्वधा’ नाम से सम्बोधित करता है।

स्वधा शब्द का अर्थ है- ‘‘स्वं दधातीति स्वधा’’ अर्थात् जो स्व को धारण करती है। अब स्व क्या है-

स्वरित्यसौ (द्यु) लोकः-शत. ८/७/४/५

अन्तो वै स्वः – ऐत. ५/२०

अर्थात् द्यु को धारण करने वाली। यहां ‘द्यु’ शब्द का अर्थ विद्युत् से है अर्थात् जो विद्युत को धारण करने वाली है।-

यजुर्वेद ३३/२२ के शब्दों में- ‘‘अमृतानि तस्थौ’’ अर्थात् विद्युत रूपी ‘स्वधा’ कहा।

            इस स्वधा को शतपथकार ने और भी स्पष्ट किया-

            स्वधाकांर पितरः (उपजीवन्ति) – शत. १४/८/१

            मत्र्याः पितरः – शत. २/१/३/४

            अर्थात् जो उत्पन्न होते हैं और नाश को प्राप्त होते हैं, वे पदार्थ वा कण पितर कहलाते हैं तथा वे पितर स्वधा के कारण ही जीवित रहते हैं अर्थात् वह पदार्थ जिसके आश्रय पर विनाशी कण निर्भर हैं, स्वधा कहलाता है और इसी का अपर नाम प्रकृति है।

५.        इस अव्यक्त स्वधा प्रकृति के साथ परमात्मा चेतन तत्व सदैव रहता है जो सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माता, नियन्त्रक व संचालक है। उसके बिना उस निष्क्रिय, शान्त, अन्धकारावृत मूलपदार्थ प्रकृति में क्रिया का होना सर्वथा असम्भव है।

अब प्रकृति की इस स्थिति के गुणों पर विचार करते हैं। वर्तमान विज्ञान इस स्थिति तक विचार नहीं पाया है। वेद उस अव्यक्त प्रकृति को ‘‘त्रितस्य धारया” -ऋ. ९/१०२/३ तथा ‘त्रिधातु’ – ऋ. १/१५४/४ कहकर तीन सत्व, रजस् तथा तमस् का बोध करा रहा है। वेद में अनेकत्र प्रकृति के त्रैत का उल्लेख है।

            इस त्रैत को भी ‘सलक्ष्मा’ ऋ. १०/१२/६ कहकर साम्यावस्था वाली सिव् कर रहा है प्रकृति के त्रैत और उसकी साम्यावस्था विषय में भगवत्कपिलर्षि ने लिखा-

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः – सांख्य दर्शन १/२६

            अर्थात् सत्व, रजस् तथा तमस् की साम्यावस्था का नाम, प्रकृति है। अब यह विचारणीय है कि सत्व, रजस् तथा तमस् क्या है? इनकी साम्यावस्था क्या है? कुछ आर्य विद्धान् प्रोटोन, इलेक्ट्रोन तथा न्यूट्रोन को क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् मानते रहे हैं परन्तु अब इलेक्ट्रोन को छोड़कर अन्य कणों की मौलिकता विज्ञान ने असिद्ध कर दी है। हमारीदृष्टि में इलेक्ट्रोन भी मूल कण नहीं है।

            अब क्रमशः सत्व, रजस् तथा तमस् पर विचार करते हैं-

            ‘‘प्रीत्यप्रीति विषादाद्यैर्गुणाना मन्योन्य वैधम्र्यम्” – सां. द. १/९२

            ‘‘प्रकाशशीलं सत्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तमः” – यो. द. २/१८

            प्र व्यासर्षि भाष्य अर्थात् सत्व प्रीति आकर्षण एवं प्रकाश युक्त, रजस् अप्रीति (प्रतिकर्षण) तथा क्रियाशीलता युक्त तमस् विषाद् (उदासीनता) युक्त तथा स्थितिशील है। सांख्य सिद्धान्त में ख्यातिर्लब्ध आर्य विद्वान् आचार्य उदयवीर शास्त्री ने इनके अतिरिक्त अन्य गुणों का भी वर्णन किया है। यथा-सत्व = लघु, रजस् = चल तथा प्रवर्तन, तमस् = उदासीन एवं अकर्मण्य।

            अर्थात् ऐसा कण जो प्रकाश तथा आकर्षण का अधिष्ठान होते हुये लघु हो, सत्व, ऐसा कण जो क्रियाशीलता गति तथा प्रतिकर्षण का अधिष्ठान हो, रजस् तथा ऐसा कण जो गुरूता तथा निष्क्रियता का अधिष्ठान हो तमस्, साथ में ये सभी आदि मूलकण होवें। वर्तमान में कहे जाने वाले मूलकणों में से न्यूट्रिनों, फोटोन तथा ग्लूऑन की स्थिति कुछ मूल प्रतीत होती है। फोटोन जैसा सत्व, न्यूट्रोन जैसा रजस् तथा ग्लूऑन जैसा तमस् हो सके परन्तु फोटोन में आकर्षण न्यूट्रोन में प्रतिकर्षण जब तक सिद्ध न हो तथा ग्लूऑन का स्वरूप पूर्ण स्पष्ट न हो तब तक ऐसी तुलना उचित नहीं कही जा सकती। विज्ञान जो भी सिद्ध वा प्राप्त करे, हमारी मान्यता है कि मूल प्रकृति उन मूलकणों का समूदाय है संयोग नहीं जो परस्पर पूर्णबन्धन सहित, शान्त एवं उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं। इस पूर्ण शिथिल, शान्त अंधकार में-

            ‘‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति” (तै. उप.)

            ‘‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’’ -ऋ. १०/१२९/४

            अर्थात् परमात्मा सर्वप्रथम सृष्टि रचना करने की कामना करता है। किसी भी कार्य के लिये सर्वप्रथम इच्छा का होना अनिवार्य है परन्तु परमात्मा की इच्छा, ज्ञान व क्रिया सब स्वभाविक होते हैं।

            ‘‘स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च” – श्रे्व. उप.

            ळम जिस प्रकार की इच्छा करते हैं, उस प्रकार की इच्छा नहीं बल्कि जीवों के पालनार्थ ( भोग एवं मोक्ष हेतु) इच्छा करता है। भगवान मनु ने कहा-

            ‘‘व्यंजयत्रिदम्……………………….प्रादुरासीतमोनुदः।’’ -मनु. १/६

            अर्थात् उस अंधकारमयी प्रकृति का प्रेरक इस जगत् को प्रकटावस्था में लाता हुआ परमात्मा प्रकट हुआ। सर्वप्रथम उसने क्या किया-

            ‘‘यानि, त्रीणि बृहन्ति येषां चतुर्थं विनियुक्त वाचम्।’ – अथ. ८/९/३

            अर्थात् जो तीन (सत्व, रजस् तथा तमस्) हैं उनमें चैथा ब्रह्म वाक् नियुक्त कर देता है। यहां यह वाक् का अर्थ सामान्य नहीं होकर गूढ़ अर्थ है।

            ‘‘बाग्वै भर्गः।’’ -शतपथ १०/३/४/१०

            अर्थात् भर्ग (तेज) ही वाक् है, तब अर्थ हुआ कि वह परमात्मा तेजहीन इन तीनों को तेज युक्त कर देता है जगा देता है।

            ‘‘तस्मिन् प्रजापतौ सर्वाणि यानि त्रीणि’’ – अथर्व- १०/७/४०

            कहकर सत्व, रजस् तथा तमस् को परमात्मा की ज्योति रूप जड़ शक्तियां कहा है। इस तेज को ही ऋग्वेद में अग्नि नाम दिया है।

            ‘‘यस्मिन् देवा विदथे मादयन्ते’’ -ऋ. १०/१२/७

            ‘‘यस्मिन् देवा मन्मनि संचरन्ति’’ -ऋ. १०/१२/८

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि के शक्तिशाली एवं सक्रिय होने पर ही सभी दिव्य शक्तियां गति और क्रिया का संचार करती हैं। इस विद्युद्रूपाग्नि को मानव कभी जान भी सके परन्तु उस ईश्वरीय तेज को कभी परीखित वा निरीक्षित नहीं किया जा सकेगा। यजुर्वेद में……………….

            ‘‘द्यौरासीत्पूर्वचिति’’……………२३/५४ का भाष्य करते हुये भगवान् दयानन्द कहते हैं कि विद्युत पहिला संचय है। ऋ. ४/१/११ में कहा- स जायत प्रथमः अर्थात् वह विद्युद्रूपाग्नि सर्वप्रथम उत्पन्न होता है ऐसा प्रतीत होता है कि कारणावस्था में परमात्मा द्वारा तेज प्रदान करने से मूल उपादान में क्षोभ उत्पन्न होता है जिससे तीन तीनों गुणों का अन्तर्निहित भाव उत्पन्न होता है आकर्षण, प्रतिकर्णण, प्रकाशशीलता, क्रियाशीलता, गुरूता, लघुता आदि सभी गुण अस्तित्व में आ जाते हैं अथवा जो अन्तर्मुखी थे वे बहिर्मुखी हो जाते हैं। यहां विद्युत् की उत्पत्ति संकेत है परन्तु वास्तव में विद्युत् की उत्पत्ति नहीं होती। वेद विद्युत को ‘प्रत्ना’ (ऋ. ६/६२/५) अर्थात् पुरातन मानता है। यजुर्वेद ३/१६ में भी महर्षि के भाष्य में इसे प्राचीन और अनादि कहा है। त बवह प्रथम अवस्था अव्यक्त होना मात्र है।

            प्रश्न यह हो सकता है कि सभी गुण अव्यत्त वा साम्य कैसे रहते हैं? यह अत्यन्त रहस्यमय तथ्य है कि जिसका उद्घाटन सम्भव प्रतीत मुझे तो नहीं होता। हां इतना भी कहूंगा कि वर्तमान विज्ञान भी व्यक्त ऊर्जा के भी स्वरूप को स्पष्ट नहीं कर सका है तब अव्यक्त को स्पष्ट कर देना क्यों कर सम्भव है? कोई बताये कि स्थितिज ऊर्जा के लिये कोई पिण्ड जब नीचे गिरने लगता है और उसकी स्थितिज ऊर्जा का गतिज ऊर्जा में परिवर्तन होता है। मान लें उस पिण्ड ने नीचे गिरकर किसी वस्तु को तोड़ दिया तब वह ऊर्जा कहां गयी? प्रोटोन तथा न्यूट्रोन की अधिकता वा न्रूवता से कोई वस्तु आवेशित हो जाती है। कोई बताये कि इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि में आवेश क्यों होता है आवेश का स्परूप क्या होता है, सर्वप्रथम इसे कौन उत्पन्न करता है, ये प्रश्न हैं जिनका समाधान नहीं हो सका है तब अव्यक्त को व्यक्त करवाना कैसे सम्भव है? आज तक इलेक्ट्रोन के स्वरूप को भी पूर्णतः जान नहीं पाये जबकि इसके प्रयोग से संसार में विराट् क्रान्ति खड़ी हो गयी तब मूलावस्था में गुणों की साम्यता का स्वरूप दर्शाना क्योंकर हो सकता है?

            कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्रकृति का प्रत्येक कण तीनों गुणों (सत्व, रजस् तथा तमस्) का युग्म है जिनके संयोग विशेष से धन ऋण वा उदासीन कण अस्तित्व में आते हैं। मेरे विचार से इस मान्यता का यह दोष होगा कि आवेश का युग्म अनादि नहीं हो सकता तब प्रकृति का अनादित्व असिद्ध होगा, जो अनेक प्रश्नों को जन्म देगा। इस कारण प्रत्येक कण को स्वतंन्त्र ही मानना होगा और उन्हीं कणों को सत्यार्थ प्रकाश में परमाणु कहा है। कोई यह कहे कि विद्युत् का प्रथम प्राकट्य कैसे होता है? तो इसका उत्तर यह है कि चेतन कत्र्ता के रहते तो यह होना सम्भव है परन्तु इसके बिना अवश्य ही असम्भव रहेगा। मैं तो यह पूछना चाहता हूँ कि प्रारम्भ में अत्युच्च ताप के अस्तित्व को कैसे सम्भव मानते हैं? यह अवस्था तो नियन्त्रक एवं नियामक सत्ता परमात्मा के सहाय से भी सम्भव नहीं। हां कुछ कालोपरान्त अवश्य सम्भव है। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नत होगा वैदिक प्रक्रिया को अवश्य स्वीकार करेगा। अब इसके पश्चात्

            ‘‘प्रकृतेर्महान्……………………………’’-सां.द. १/२६

१.        शब्द तन्मात्रा:- इस तन्मात्रा से आकाश की उत्पत्ति मानी गयी है। शब्द तन्मात्रा शब्द ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूप है जिसके स्वरूप का निर्धारण करना अति दुष्कर कार्य है। आकाश कोई पदार्थ विशेष न होकर शून्य वा अवकाश का ही नाम है। ऋषि दयानन्द जी का कहना है- ‘‘वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि बिना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें’’ (सत्यार्थ प्रकाश-अष्टम समुल्लास)

भगवान कणादर्षि ने शब्द को आकाश का गुण बतलाया है। इस आधार पर अनेक विद्वान् आकाश को शून्य न मानकर पदार्थ विशेष मानते हुए कहते हैं कि गुण शून्य नहीं तो गुणी शून्य क्योंकर हो सकता है? मेरे विचार से वे कणाद ऋषि का आशय नहीं समझते । आचार्य ने शब्द को आकाश का गुण उस प्रकार सहज भाव से नहीं माना है जिस प्रकार अन्य गुण-गुणियों के सम्बन्ध दर्शाये हैं बल्कि अन्य किसी भी भूत का गुण सम्भव न मानकर आकाश के ही शेष रह जाने पर -‘‘परिशेषालिंगमा-काशास्य’’ वै. द. २/१/२७

            इसके आगे आचार्य ने आकाश का समवाय वा असमवाय कोई कारण नहीं माना और न ही आकाश के वायु आदि के समान परमाणु ही स्वीकार किये हैं।

            भगवत्कणाद ने काल, दिशा के समान आकाश को भी निष्क्रिय माना है। मेरे विचार से इन तीनों का व्यवहारार्थ ही उपयोग है। यह न किसी का उपादान है और न उसका कोई उपादान है। इसका मुख्य लिंग आचार्य लिखते हैं-

            ‘‘निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिंगम्।’’ – वै. द. २/१/२०

            अर्थात् निकलना, प्रवेश करना, इस प्रकार की क्रिया का सम्भव होना, आकाश का लिंग है। ऐसे ही गुण कुछ सर आलीवर लाज ने ईथर रूपी आकाश के बताये हैं परन्तु वे इसे पदार्थ विशेष मानते हैं साथ ही ईथर को सर्वव्यापक, प्रसार संकुचन से पूर्णतः रहित मानते हैं, जो उचित नहीं।

२.        स्पर्श तन्मात्रा:- स्मर्तव्य है कि आकाश शून्य है परन्तु शब्द तन्मात्रा शून्य नहीं है। ऐसा अनुमान होता है कि सर्वप्रथम उस तामस् प्रधान अहंकार में शब्द (नाद) उत्पन्न होता है। वैसे महत् अवस्था से ही गति का प्रादुर्भाव मानना होगा अन्यथा अहंकार की उत्पत्ति भी सम्भव न हो परन्तु वह गति क्षेत्रीय सम्पीडन, अक्षीयचक्रण वा कम्पन के रूप में ही हो सकती है।

वायु की भांति उन कणों का स्वेच्छया गति करना, उस समय (प्रारम्भ में) सम्भव नहीं इसी कारण ‘‘आकाशाद्वायुः’’ – तै. उप.

            अर्थात् आकाश से वायु उत्पन्न होता है अर्थात् नाद से हलचल उत्पन्न होना ही वायु का उत्पन्न होना है। कणों की हलचल के समय ही अवकाश उत्पन्न हो जाता है, वहीं आकाश कहलाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार की स्थिति में ही वायव्य स्थिति उत्पन्न हो जाती है, और उसी स्थिति में विभिन्न कणों का निर्माण होता है। तथा हाईड्रोजन आयनों के निर्माण तक की प्रक्रिया तक की प्रक्रिया स्पर्श तन्मात्रा निर्माण के अन्तर्गत माना जा सकता है। ये सभी कण विशाल गैसीय मेघ के रूप में परिवर्तित हुये। तदुपरान्त-

३.        रूप तन्मात्रा:- सम्भवतः दृश्य प्रकाश के सूक्ष्मतम फोटोन को रूप तन्मात्रा कहते हैं। अब तक जो ऊर्जा थी, उसे अदृश्य तरंगो के रूप ही माना जा सकता है। स्थान-स्थान पर हाईड्रोजन आयनों के संलयन से नेब्यूलाओं को निर्माण होने लगा इसे ही ‘‘वायोरग्निः’’ – तै. उप. कहा। और भी

‘‘अग्निना अग्निः समिध्यते’’ – ऋ. १/१२/६

            अर्थात् विद्युद्रूपाग्नि से अग्नि प्रकट होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऊर्जा की उत्पत्ति का यह एक नया मार्ग खुल जाता है। जो अब तक जारी है। तब तक ऊर्जा का निरन्तर पतन हो रहा था अब इससे स्थायित्व वा वृद्धि का एक नया स्त्रोत खुल जाता है।

अर्थात् प्रकृति से महत् तत्व का निर्माण होता है इसी को भगवान मनु ने ‘मन’ कहा है। यह महत् तत्व सम्भवतः फोटोन, न्यूट्रिनों एवं ग्लूऑन से पूर्व की स्थिति हो क्योंकि साम्यावस्था भंग होने मात्र से ही महत् तत्व का निर्माण होता है इस कारण ये फोटोन आदि की पूर्वावस्था जिनमें उपर्युक्त सत्वादि गुण हों, होगी। इन तीनों को सात्विक, रजस् तथा तामस् महत् कह सकते हैं। तदुपरान्त- ‘‘महतोऽहंकारः’’ -सां. द. १/२६

            अर्थात् उस महत् तत्व तीन प्रकार का होता है विचारपूर्वक यह प्रतीत होता है कि फोटोन, न्यूट्रिनों तथा ग्लूऑन की स्थिति यहां बन जाती है सम्भव है एक्स वा गामा जैसी किरणों का निर्माण प्रथम होता है और इन्हीं के फोटोन प्रथम निर्मित होते हों। मेहता रिसर्च इन्सटीट्यूट प्रयाग में अन्तराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक डॉ. अशोक सेन का स्ट्रिंग सिद्धान्त यहां प्रारम्भ होता हो परन्तु यहां तक प्रकाश ऊष्मा तो है परन्तु दृश्य प्रकाश की उत्पत्ति अभी वैदिक विचारधारा से तो नहीं मानी जा सकती क्योंकि दृश्य प्रकाश-रूप तन्मात्रा का ही अपर नाम हो सकता है तथा इन से ही लेप्टानों विशेषकर इलेक्ट्रोन, पाजिट्रॉन को भी अहंकार के अन्तर्गत मान सकते हैं, की उत्पत्ति होती है। सात्विक अहंकार गौण तथा तामस की प्रधानता से क्वार्क आदि कणों का भी निर्माण होता है। पुनरपि क्वार्क आदि कणों को अहंकार के अन्तर्गत ही समाहित किया जायेगा। ‘ अहंकार शब्द का अर्थ है जो व्यक्त किया जा सके। अब से पूर्व यद्यपि अव्यक्त अवस्था कब की ही भंग हो गयी परन्तु ऐसी अवस्था जिसे विज्ञान वा बुद्धि द्वारा व्यक्त किया जा सके, वह अहंकार ही है।

            ऐसा प्रतीत होता है कि यहां तक उत्पन्न कण अपने प्रतिकणों से मिलकर अपार ऊर्जा पैदा करते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि फोटोन आदि की अधिकता ही उस ऊर्जा का कारण हो जो भी हो मन का वह स्वरूप दृश्य नहीं होगा। इन्हीं प्रक्रियाओं के चलते तन्मात्राओं की उत्पत्ति भी होती जाती है-

            ‘‘अहंकारात् पंचतन्मात्राणि’’ – १/२६ सां. द.

            अर्थात् अहंकार से पांच तन्मात्रायें उत्पन्न होती हैं जिनमें से शब्द तन्मात्रा की उत्पत्ति अहंकार के प्रथम चरण में ही हो जाती प्रतीत होती है।

            प्रश्न यह है कि सूक्ष्म तन्मात्रा क्या होती है अथर्ववेद १/३३/१, ३ में सूक्ष्म तन्मात्राओं के गुण निम्न प्रकार दर्शाये हैं।

            (हिरण्यवर्णाः) अर्थात् व्यापनशील और कमनीय गुणों वाली (यासु सविता यासु अग्निः जातः) जिनमें सूर्य और पार्थिव अग्नि उत्पन्न हुई (याः) जिन (आपः अग्नि द्धिरे) तन्मात्राओं ने विद्युद्रूपाग्नि को गर्भ के सामन धारण किया है (यासां देवाः दिवि भक्षम्) जिन तन्मात्राओं का सब प्रकाशमय पदार्थ आकाश में भोजन करते हैं।

            इससे निम्न तथ्य उद्घाटित होते हैं-

१.  तन्मात्रायें सम्पूर्ण अवकाश रूपी आकाश में फैली रहती हैं।

२.  तन्मात्रायें कमनीय स्वरूप वाली अर्थात् आकर्षण-प्रतिकर्षण आदि बलों से युक्त होती हैं। फोटोन से लेकर नाभिक वा एटम वा आयन इन सबको तन्मात्रायें कह सकते हैं।

३.  सूर्य और पार्थिव अग्नि उनमें होती हैं अर्थात् इनके अन्दर ही नाभिकीय संलयन आदि क्रियाओं के होने से प्रकाशमय पदार्थों द्वारा तन्मात्राओं का भोजन करना लिखा है।

            ‘तन्मात्रा’ शब्द का अर्थ है- उतना सा, सूक्ष्म सा अर्थात् जिसका अपना कोई वैशिष्ट्य हो उसके और सूक्ष्म होने से समाप्त हो जाये। प्रतीत होता है कि भगवत्कणाद का परमाणु है।

            तन्मात्राओं के भेदः

            पंच तन्मात्राओं की उत्पत्ति क्रमशः होती है।

            तन्मात्राओं को प्रकाश में भक्षण करने की बात यही कि हाईड्रोजन का भक्षण हीलियम तथा ऊर्जा की उत्पत्ति होती है इसके उपरान्त ब्रह्माण्ड में अनेकत्र नेब्यूलाओं का निर्माण हो जाता है-

            ‘‘यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत।

            अत्रा समुद्र आ गुढ़हमः सूर्यमाजभर्तन।’’ – ऋ. १०/७२/७

            अर्थात् जब दैवी शक्तियां मेघों की तरह लोकों को अपने परमाणुओं से पूरित करती हैं, तब आकाश में निगूढ़ सूर्य को चमका देते हैं। अन्यच-

            ‘‘प्रसीमादित्यो असृजद्विधंर्ता ऋतं सिन्धवो वरूणस्य यन्ति’’        -ऋ. २/२८/४

            अर्थात् सभी ओर विविध लोकों का धारक सूर्य (हिरण्यगर्भ) उदक, नदी और मेघों को प्राप्त होते हैं। यहां उदक, नदी तथा मेघ जल के नहीं बल्कि वह सूर्य ही आग का विशाल समुद्र होता है

 जिसमें अनेक आग्नेय धारायें होती है। अन्दर होने वाली प्रक्रिया के विषय में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतीय खगोलज्ञ डॉ. जयन्त विष्णु नार्लीकर का मानना है- हाईड्रोजन का संलयन होकर हीलियम के नाभिक पुनः कार्बन पुनः तारे के संकुचन से तारे के ताप में वृद्धि होकर कार्बन तथा हीलियम मिलकर ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व नियॉन, सल्फर, नाईट्रोजन से लेकर लोहा आदि सभी तत्व बनते हैं-………………(विज्ञान, मानव और ब्रह्माण्ड, १९९९) इसी प्रक्रिया का प्रमाण ऋग्वेद में भी मिलता है-

            ‘‘तमिद्गर्भ प्रथमदध्र आपो यत्र देवा समगच्छन्त।।’’ – १०/८२/६

            अर्थात् उस विराट् में स्थित हिरण्यगर्भ को प्रकृति परमाणु पहिले धारण करते हैं जिसमें समस्त पदार्थ संगत होते हैं।

            इस प्रकार वर्तमान में कहे जाने वाले सभी तत्वों के परमाणुओं को निर्माण नेब्यूलाओं में होता रहता है। अब तक सम्पन्न प्रक्रिया में लाखों वर्ष लगते हैं।

            हम इस पर गम्भीरता से विचार करें तो प्रतीत होता है कि वर्तमान विज्ञान तथा वैदिक विचारधारा इस विषय में बहुत भिन्न नहीं है। हां वैदिक विचारधारा वर्तमान प्रचलित विज्ञान की विचारधारा से कुछ आगे है। जैसे-जैसे विज्ञान प्रगति करेगा, उसे अपनी अवधारणायें परिवर्तित वा स्पष्ट करके वैदिक विचारधारा के अनुकूल आने को विवश होना होगा। अन्त में विषय के अधिकारी विद्वानों की सेवा विनम्र निवेदन है कि लेखक सिद्ध नहीं बल्कि साधक है। न्यूनतायें सम्भव हैं। विद्धान उनको दूर करने का ही यत्न करेंगे ऐसी आशा है।

                                                            प्रधान, आर्य समाज भीनमाल

                                                                                    जनपद-जालौर (राजस्थान) ३४३०२९

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल

आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है।

            वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप रात्रि उत्पन्न होती है (विद्यमान रहती है) और गतिशील सूक्ष्म कणों के रूप में व्यापक जल बनता है।

            ऋत वह मूलभूत तत्व है जो निरन्तर अपने स्वाभाविक रूप में गतिशील रहता है। वह गति प्रत्येक पदार्थ की गति, सापेक्ष गति भी हो सकती है, वह काल अबाध गति भी हो सकती है और वही प्रत्येक पदार्थ या तत्व के केन्द्र में विद्यमान परमाणुओं की गति भी हो सकती है। सार यह कि इस गति के बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय की स्थिति में सत् असत् का विश्लेषण हो ही नहीं सकता।

            थ्जसे उपरिनिर्दिष्ट मन्त्र में समुद्र अर्णव कहा गया है उसके मूल में भी गति (ऋ-क्षत) तत्व विद्यमान है। इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देवों (तत्वों) का मिलना अथवा गति करना कहा गया है।

            उपर्युक्त ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृष्टि के आधार में स्थायी तत्व है। ऋत गतिशील या गति प्रदान करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तविकता है, अरितत्व है। (सन्तमर्थमाययति)। सम्भवतः दोनों तत्वों के इस मौलिक तथा सभी पदार्थों के आधार में समान महत्व के कारण बहुत स्थानों पर वेद में ही इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में भी हुआ है।

            अथर्ववेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो प्रमुख तत्व हैं। सम्य जहाँ बृहत् महान् या व्यापक हैं, वहीं ऋत् उग्र, कठोर, शाश्र्वत है। ‘एक अन्य मन्त्र’ में कहा गया है कि पृथ्वी सत्य के द्वारा थामी गई है.. द्युलोक भी सत्य के द्वारा थामा गया है, ऋत अर्थात् निरन्तर गति से आदित्य अपने स्थान पर स्थिर है। इसी प्रकार ऋत से ही सोम (चन्द्रमा) द्युलोक में स्थित है।

            ऋत गति है क्योंकि सभी आदित्यादि ज्योतिःपिण्ड अपने-अपने मार्ग में निश्चित गति करते हैं। इस गति के प्रतीक रूप में ऋत की व्याख्या निरूक्त में जल के रूप में सब ओर पहुंचने वाला बताकर दी गई है। ऋत के मूल में गत्यर्थक ऋ धातु है। सदा एक ही स्थिति में निर्विकार रहने वाले परमेश्वर की तुलना में समस्त व्यक्त सृष्टि में गति मूल तत्व है। साम्यावस्था में सृष्टि हो ही नहीं सकती। जब तत्व, रजस्, तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होता है, तभी सृष्टि का आरम्भ होता है। विक्षोभी अथवा हलचल गति का ही दूसरा नाम है। यह गति प्रत्येक तत्व के एक-एक कण में विद्यमान है जिसके नाभिक अथवा केन्द्र में निरन्तर प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन गति करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इनसे भी सूक्ष्म परमाणुओं का पता लगाया है जिन्हें न्यूट्रॉन नाम दिया गया है। इन न्यूट्रॉन का प्रतिकण भी होता है। इन दोनों में से एक अपने कक्ष पर दक्षिणावर्त घूमना है तो उसका प्रतिकण वामावर्त घूमता है। यह अत्यधिक ऊर्जा का कण है। इसकी गति प्रकाश की गति के समान होती है।

            एक मन्त्र में नदियों (धाराओं) की गति के बताने के लिए ऋत शब्द प्रयुक्त है और सूर्य को सत्य का विस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ नदियों से सूक्ष्म कणों की धाराओं की गति अभिप्रेत नहीं हे? अन्यथा भी ऋत गति का द्योतक तो है ही।

            जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोनों ही नाम वेदों में ही अनेक स्थानों पर समानार्थक हो गये हैं। एक मन्त्र में सत्य के साथ असत्य के अर्थ में अनृत के प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है। वह मन्त्र आपः (व्यापक सृष्टि-जल) के सम्बन्ध में बताता है कि सूक्ष्म वाष्प-कणों के रूप में यह जल सम्पदा मध्यमस्थान (अन्तरिक्ष) में व्यास (आप्) रहता है और वहीं अपनी व्याप्ति के द्वारा वरूण (व्यापक परमेश्वर) सबका राजा होकर पहुँचा रहता है और वहीं से समस्त जनों के सत्य और असत्य आचरणों को देखता रहता है।

            वैदिक दृष्टि से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तविक तत्व भी है। तभी तो अन्यत्र कहा गया है कि प्रजापति ने सत्य और असत्य (अवास्तविक) दोनों को अलग किया और केवल सत्य (वास्तविकता) में श्रद्धा (विश्वास) का आधान किया, अनृत (अवास्तविक, मिथ्या) में नहीं।

            पदार्थों की ऊपरी, बाह्म रूप-रचना देख्कार जिसे हम वास्तविक समझ बैठते हैं, वास्तविक तत्व वह नहीं है। उस वास्तविक तत्व को जानने पर पहचानने के लिए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे देखना पड़ता है। तब वास्तविक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृष्टि के सभी पदार्थों के मूल में है।

            अग्नि भी अपने स्वरूप से और अपने दाहक तथा दान और आदान (हु दानादानयोः) -अग्नि सभी कुछ लेकर भस्म करके वायुमण्डल में उसका प्रभाव और दग्ध पदार्थों का भस्म देता है करने वाले तत्वों से युक्त है और क्रान्त (स्थूल दृष्टि से न देखे-जाने योग्य) कार्य करता है। इसलिए वह सत्य है और अद्भुत कीर्ति वाला है। विज्ञान उसके इस स्वरूप को समझ उसके विविध प्रयोग करता है। अगिन का स्वरूप सत्य इसलिए भी है क्योंकि विद्युत् और सूर्य में भी यही रूप होने के कारण उन्हें भी अग्नि ही कहा गया है।

            वेद सभी पदार्थों, या मौलिक भौतिक तत्वों में एक ऋत, सदास्थायी सूत्र कहाँ है और अनृत मिथ्या तत्व कौन सा है, इसकी खोज करता हे। वहां प्रेरणा दी गई है कि पृथ्वी और आकाश को प्रत्यक्ष जानने वाले विद्वान् इस तथ्य का अन्वेषण करें क्योंकि विज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण में छिपा हुआ है।

            इससे अगले मन्त्र में फिर ऋत की खोज कर स्वर मुखर हुआ है क्योंकि वहाँ फिर प्रश्न है कि हे देवो अथवा मूल तत्वों, तुम्हारे ऋत (शाश्र्वत नियम) का स्थान क्या है और सर्वव्यापक वरूण (आवरक तत्व) की दृष्टि कहाँ है? हम महान् अर्यमा (शत्रुओं के नियामक सूर्य) के किस सत्य मार्ग से दुरूह ग्रन्थियों का उत्क्रमण करें। निश्चय ही हम शाश्र्वत नियम का मार्ग है।

            ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदार्थों को उनके मूल रूप में स्थिर रखता है। इस मूलभूत स्थिरता, शाश्र्वतरूपता का नाम ऋत है। इसके विपरीत पदार्थों का परिवर्तनशील रूप अनृत है। यह रूप आयु से सीमित है। वा.सं. ७.४० के मन्त्र ‘‘एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा’’ की व्याख्या करते हुए शतपथ में कहा गया है कि ब्रह्म ही ऋत है, ब्रह्म ही मित्र है, ब्रह्म ही ऋत है। वरूण ही आयु है, वरूण संवत्सर है (क्योंकि वह परिवर्तनशील है), वरूण ही संवत्सर है, आयु है।

            बृहस्पति, परमेश्वर (बृहतां पाता वा पालयिता वा) भी ऋतप्रजात (ऋ. २.२३.१५) है क्योंकि उससे ही ऋत, शाश्र्वत नियम का जन्म होता है। अग्रि को भी ऋतप्रजात कहा गया है क्योंकि वह ऋत का वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल में शाश्र्वत नियम निरन्तर रहता है, जल से सम्बद्ध विद्युत् रूप अग्नि में भी वही शाश्र्वत तत्व विद्यमान रहता है। ऋ. १०.६७.१ में भी बुद्धि को ऋतप्रजाता कहा गया है क्योंकि वही उत्तम स्थिति में ऋत को उत्पन्न करती है। उत्कृष्ट रूप मे बुद्धि, अध्याम अथवा विज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।

            इसी क्रम में उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्योंकि वह शाश्र्वत नियम का पालन करती हुई चलती है।

                        ऋत को सभी पदार्थों की आद्य शक्ति के रूप में देखा गया है। यह शक्ति विनाशकारक भी है। वैज्ञानिक इस विषय में निश्चित ज्ञान रखते हैं कि ऋतरूप परमाणुओं के विखण्डन में कितनी शक्ति निहित है जो विनाशक भी हो सकती है। यही नहीं, ऋत के, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के मूल सूक्ष्म तत्व के धारणस्थान सुदृढ़ और सुनिश्चित होते हैं। एक-एक पदार्थ-शरीर के लिए वे ही बहुत आह्लादक अर्थात् उसे उसके रूप में धारणा कर महत्व प्रदान करने वाले होते हैं। अन्न भी उस ऋत का फल है और ऋत से ही गौएं (सूर्य-किरणें) ऋत में (शाश्र्वत नियम में) प्रविष्ट होती हैं। सार यह कि वेद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ, और उसकी गति में मूल तत्व के रूप में ऋत विद्यमान है। विस्तार के कारण बहुत रूपों वाले पृथ्वी और अनतरिक्ष को पृथ्वी बताकर उन्हें गम्भीर कहा गया है क्योंकि उनमें विद्यमान प्रत्येक तत्व का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है। ये दोनों ही परम गौएं कही जाती हैं जो ऋत अर्थात् शाश्र्वत तत्व के लिए (उसके नियमानुसार) दोहन करती हैं अर्थात्  असंख्य पदार्थों को उत्पन्न करती रहती हैं (प्रकट करती हैं)।

                        एक मन्त्र में अग्नि (परमेश्वर) को सम्बोधित करके कहा गया है कि अविनाशिनी, अखण्ड रूप में बहने वाली, मधुर जलों वाली दिव्य नदियाँ (अर्थात् सर्वत्र व्याप्त जलकण) ऋत या शाश्र्वत नियम से प्रेरित होकर सदैव बहने के लिए धारण की गई है, निरन्तर गति करती है।

            जिन नदियों का वर्णन ऊपर किया गया है, ये सामान्य जल की नदियाँ नहीं हैं। ये अमर हैं और अबाधित हैं। इससे संकेत मिलता है कि ये सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म जलकणों (आपः) की धारायें हैं जो ऋत (शाश्र्वत नियम, निरन्तर गति) से प्रेरित हैं। यह गति ऐसी है जैसी युद्ध के लिए सदैव तैयार घोड़े की होती है, अर्थात् निरन्तर गति है। ऋत निरन्तर गति का ही नाम है।

            सूर्यरूपी पौरूषयुक्त बलिष्ठ अग्नि वृषभ अर्थात् वर्षा के रूप में कामनाओं का वर्षक है। वह भी ऋत से अर्थात् निरन्तर गतिरूपी शाश्र्वत नियम से लिपटा हुआ अर्थात् युक्त है। वह स्पन्दित न होता हुआ अथवा स्तिमित गति से विचरण करता है। सबकी आयु को धारण करने वाला वह वर्षक पृश्नि अन्तरिक्षरूपी ऊध का दोहन करता है और शुक्र अर्थात् बलिष्ठ जल की वृष्टि करता है।

            इससे अगले ही मन्त्र में ऋत (नियमित गति) के साथ अंगिरसों (वायु सहित विद्युतों), गौओं (किरणों), ऊषा, सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस ऋत के द्वारा ही अंगिरस विद्युत् मेघ का भेदन करते हुए उसे (खाली करके) दूर फेंक देते हैं और (गतिशील) किरणों के साथ संयुक्त होकर प्रशंसित होते हैं, वे नेतृत्वगुणयुक्त (ऋतपालक) उषा के पास रहते हैं और जब (उषा का तीव्र प्रकाश रूप) अग्नि प्रकट होता है तो सूर्य दिखाई देता है। अग्नि, सूर्य, उषा-तीनों अग्निरूप होने के कारण ऋत (शाश्र्वत गतिमय नियम) से ही सम्बद्ध हैं। सब प्राणियों के सुख के लिए उनकी यह क्रिया-प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मन्त्र से मेघस्थ विद्युत, वायु और अग्नि का गतियुक्त स्थायी सम्बन्ध स्पष्ट होता है।

            बहुत काव्यात्मक शब्दों में एक मन्त्र मं प्रश्न किया गया है। कि पहले वाला (पुराना) ऋत कहाँ गया और नया कौन उसे धारणा करता है? द्युलोक और पृथ्वी-ये दोनों ही मेरे लिए उस तत्व को जानती हैं (और बताती हैं)।

            मरूत् (विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप हैं अर्थात् ऋत से संयुक्त हैं। वे ऋत अर्थात् शाश्र्वत नियम के अनुसार चलती हैं। इस ऋत के द्वारा ही वे सत्य को प्राप्त होती हैं। मेघ, वर्षा, विद्युत, आदि के माध्यम से उनका सत्य स्वरूप प्रकट होता है, उनके वास्तविक कार्य उनके दीर्घकालिक हित से प्रकट होते हैं। कारण यह है कि वे शुचिज मा हैं, उनका जन्म ही पवित्रता से पवित्रता के लिए हुआ है। वे पवित्र हैं। अथवा वे ज्वलनशील तत्वों से युक्त हैं।

            उषाओं को ऋत (शाश्र्वत नियम) से युक्त घोड़ों अर्थात् किरणों के द्वारा सब लोकों पर फैल जाने वाली कहा गया है। किरणों की यह गति ही ऋत है-यह ऐसा ऋत है जिससे विज्ञान ज्योतिःपिण्डों की दूरी मापता है। विज्ञान के शाश्र्वत नियम के अनुसार सदा से ये उषायें एक सी हैं; अतः इसके लिए यह कहना असम्भव है कि इनमें से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली चलती हैं और जीर्ण न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नहीं जानी जातीं। विज्ञान भी इन्हीं शाश्र्वत रूपों और नियमों की खोज करता है। उषाओं के पीछे एक ही तत्व की समानता है जिसे ऋत कहा जाता है। उसके प्रकाश में, गति में, काल में, स्वरूप में वही एक समान तत्व विद्यमान रहता है। उसे ही सत्य कहा जाता है।

            इस प्रसंग में उषा का ‘ऋतावरी’ विशेषण ध्यान देने योग्य है जिससे स्पष्ट होता है कि उषा ऋत अथवा शाश्र्वत नियम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही प्रकाशित होने वाली या उसको अपने व्यवहार से प्रकाशित करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल रूप सूर्य से ही अनुप्रेरित है। अनेक वेदमन्त्रों में उषा/उषाओं के प्रसंग में ‘ऋतावरी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार विद्युत और अन्तरिक्ष ऋतावरी है, द्युलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्योंकि सबके पीछे ऋत अथवा सत्य-नियम कार्य कर रहा है। ये दोनों बलिष्ठ हैं, देवों-विभिन्न दानादिगुणयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली (और इस प्रकार) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली हैं।

            इसी प्रकार सूर्य और पवन अथवा रस और ज्योतिरूप अश्र्वितनौ भी ऋत अथवा शाश्र्वत नियम से बढ़ने वाले बताये गये हैं। मित्रावरूणौ अर्थात् सूर्य और वायु भी सत्यनियम से बढ़ने वाले हैं।

            सूर्य के विभिन्न रूप तथा वरूण (व्यापक प्रकाश वाला और अन्धकाररोधक), मित्र (मित्र के समान हितकारी और सुखकरग) तथा अर्यमा (शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाला) ऋत से युक्त हैं, अपनी क्रियाओं और गति में ऋत का स्पर्श करने वाले, गतिशील जनों को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी और शोभन नेतृत्व करने वाले हैं।

           इस प्रकार वेद में ऋत और सत्य देवों अथवा दानादिगुणयुक्त प्राकृतिक पदार्थों के मूल में बताये गये हैं। उनके पीछे शाश्र्वत नियम और सतत गति की प्रच्छन्न प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है

पाद -टिप्पणी

१. त्रतं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत। रान्न्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। ऋ.१०.१९०.१

२. नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्। ऋ. १०.१२९.१

३. तभिद्गर्भं प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे। ऋ. १०.६३.६

४. सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं……………………पृथिवीं धारयन्ति।

५. सत्येनोत्तभिता भूमिः सत्येनोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिष्ठितः।। ऋ. १०.८५.१

६. ऋतभित्युदकनाम। प्रत्यृतं भवति। नि. २.२५

७. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is high energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. ¼ Atomic energy-Macmillon and Co. Ltd., London½

८. ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यः। ऋ. १.१०५.१२

९. यासां राजा वरूषो याति सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्। ऋ. ९.४९.३

१०. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनुतेऽदधाच्छद्वां सत्ये प्रजापतिः।। वा.सं. १९.७७

११. हिरण्यमवेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।। वा.सं. ४०.१७

१२. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। ऋ. १.१.५

१३. अप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। निरूक्त ७.१६

१४. अभी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

   कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ।। ऋ. १.१०५.५

१५. कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरूणस्य चक्षणम्। कदर्यम्णो महस्पथाति महस्पथाति कामेम दूढ्यः ।। ऋ. १.१०५.६

१६. ब्रह्म वा ऋतं ब्रह्म हि मित्रो ब्रह्मो ह्यृतं वरूण एवायुः संवत्सरो हि

   वरूणः संवत्सर आयुः। श. ब्रा. ४.१.४.१०

१७. ऋ. १.११३.१२

१८. ऋतस्य हि शुरूधः सन्ति पूर्वी। ऋ. ४.२३.८

१९. ऋतस्य दृव्व्हा धरूणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि।

      ऋतेन दीर्घ मिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ।। ऋ. ४.२३.९

२०. ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते।। ऋ. ४.२३.१०

२१. ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने।

       बजी न सगेंषु प्रस्तुभानः प्र सदमित्स्त्रवितवे दधन्युः।। ऋ. ४.३.१२

२२. ऋतावरि – ऋ. २.१.१, ऋतावरी – ऋ. ६.६१.९, ऋ. ३.५४.४, ३.६१.६, ऋ. ४.५२.२, ऋतावरीम्   – ऋ. ५.८०.१, ऋतावरीः – ३.५६.५

२३. ऋ. १.१६०.१

२४. ऋ. ४.५६.२ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरूक्षमाणे।

ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरकैः।।

२५. ऋ. १.४७.१ (ऋतावृधा) तुं अश्र्विनौ यद्व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषान्यः।

(रिरूक्त १२१)

२६. ऋ. १.२.८ (ऋतावधौ)

२७. ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जने जने।

सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरूचक्रयः ।। ऋ. ५.३७.४

वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक

वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करनेका ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।

            यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)

            यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त  या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।

            वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।

            दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।

            यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।

            भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।

            इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।

            वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।

            यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।

            वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।

            निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके  से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।

            वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।

           आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।

            यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।

            इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।

ए-३।११, पश्चिम विहार देहली-११००६३

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः सोमाहुतिः । देवता अग्निः । छन्दः स्वराडू आर्षी त्रिष्टप्।

पुर्नस्त्वादित्या रुद्रा वसवः सन्धि पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥

-यजु० १२।४४

हे ( वसुनीथ) स्वास्थ्य आदि ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले यज्ञाग्नि! ( पुनः त्वा ) पुनः तुझे (यज्ञैः ) यज्ञों से ( आदित्या:१) त्रिवेदी विद्वान्, (रुद्राः२) द्विवेदी विद्वान्, ( वसवः३) एकवेदी विद्वान् ( समिन्धताम् ) प्रज्वलित करें, ( पुनः ) पुनः ( ब्रह्माण:४) चतुर्वेदी विद्वान् [प्रदीप्त करें](घृतेन ) घृत से ( त्वं ) तू ( तन्वं) शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। (सत्याः सन्तु) सत्य हों (यजमानस्य कामाः ) यजमान की कामनाएँ।

यजमान ने किन्हीं पवित्र महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर सकाम यज्ञ आरम्भ किया है। यज्ञवेदि को हल्दी, रोली आदि से सजा कर यज्ञकुण्ड में घृतदीपक से अग्नि प्रज्वलित की है। यह अग्नि प्रकाश, ज्ञानज्योति, प्रगति, स्फूर्ति, अग्रगामिता, विघ्नदाह, राक्षसी वृत्तियों के भस्मीकरण, ऊध्र्वारोहण आदि का प्रतीक है। घृताहुति से यह बल पाता है और इसकी ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद और रोगहर पदार्थों के प्रज्वलन से यह पर्यावरण को शुद्ध करता है। मानस में मनुष्य से देव बनने की तरङ्गे उठाता है, सङ्कल्प को दृढ़ करता है। और ध्येय में सफल होने की प्रेरणा करता है। यह अग्नि ‘वसुनीथ’ कहलाता है, क्योंकि स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, प्राणशक्ति मनोबल आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है और उनका उन्नयन करता है। जीवन में एक बार ही इसे प्रज्वलित करना पर्याप्त नहीं है, अतः मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि याज्ञिकजन जीवन में पुनः पुन: इसे प्रज्वलित किया करें। इन याज्ञिकों को यहाँ चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है, वसु, रुद्र, आदित्य और ब्रह्मा । वसु एकवेदी, रुद्र द्विवेदी, आदित्य त्रिवेदी और ब्रह्मा चतुर्वेदी याज्ञिक हैं। यज्ञ घृत और चतुर्विध हवन-सामग्री से तो लाभ पहुँचाता ही है, इसके अतिरिक्त यजमान और पुरोहितों को जितना अधिक वेदमन्त्रों का अर्थबोध होगा, उतना ही अधिक आन्तरिक लाभ भी ये प्राप्त कर-करा सकेंगे। एक, दो, तीन या चारों वेदों का मन्त्रार्थ समझते हुए जो यज्ञ करता है, वह यज्ञ का केवल भौतिक लाभ ही नहीं प्राप्त करता, अपितु सद्गुण, विवेक, कर्त्तव्यबोध, ज्ञानवृद्धि, ईश्वरभक्ति, अमृतवर्षा, अन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय कोषों की बलवत्ता आदि का लाभ भी प्राप्त करता है। वह मन्त्रार्थ को अपने और समाज के जीवन में क्रियान्वित करने का व्रत भी व्रतपति अग्नि से और व्रतपति परमेश्वर से ग्रहण करता है। हे यज्ञाग्नि! तू घृतादि की आहुतियों से अपनी और यजमान की, दोनों की तनूवृद्धि कर, दोनों का शरीरवर्धन कर! हे यजमान ! यज्ञ में उपस्थित समस्त यज्ञप्रेमियों का, विद्वानों का, पुरोहितों का, वेद का और परमेश्वर का तुझे यह आशीर्वाद है कि यजमान की कामनाएँ सत्य हों, पूर्ण हों, फलित हों-”सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।”

पादटिप्पणियाँ

१-४.( वसव:) प्रथमे विद्वांसः, (रुद्राः) मध्यस्था:, (आदित्या:)पूर्णविद्याबलयुक्ताः, (ब्रह्माण:) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः द० |

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः विश्वामित्रः । देवता अग्निः । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः ।

इडामग्ने पुरुससनिं गोः शश्वत्त्तमहर्वमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाग्ने सा ते सुतिर्भूत्वस्मे॥

-यजु० १२।५१

( अग्ने ) हे तेजस्वी परमेश्वर ! ( हवमानाय ) मुझ प्रार्थी के लिए ( इडाम् ) भूमि, अन्न और गाय तथा ( पुरुदंसं ) अनेक कर्मों को सिद्ध करनेवाली ( गो:४ सनिं ) वाणी की देन ( शश्वत्तमं ) निरन्तर ( साध ) प्रदान कीजिए। (नः सूनुः ) हमारा पुत्र ( तनयः५) वंश आदि का विस्तार करनेवाला और ( विजावा ) विविध ऐश्वर्यों का जनक ( स्यात् ) हो ( सा ) ऐसी ( ते सुमतिः ) आपकी सुमति ( अस्मे ) हमारे लिए ( भूतु ) होवे।

हे अग्नि! हे अग्रनायक तेजस्वी परमेश्वर ! हम आपसे कुछ याचना कर रहे हैं, करबद्ध होकर प्रार्थना कर रहे हैं, वह हमारी प्रार्थना कृपा करके आप पूर्ण कीजिए। क्या कहते हो? अपने आचार्य के वचन सुनो-”यही प्रार्थना का मुख्य सिद्धान्त है कि जैसी प्रार्थना करे वैसा ही कर्म करे।७।। अतः जो कुछ माँगते हो उसे पाने का स्वयं पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ तो हम करेंगे भगवन्, किन्तु पहले आपका आशीर्वाद तो ले लें । प्रार्थना द्वारा आपसे दृढ़ सङ्कल्प, कर्म के प्रति तत्परता, उत्साह, प्रेरणा, सफलता का आशीर्वाद आदि प्राप्त होते हैं। प्रार्थना करके हम उन्हें ही प्राप्त करना चाहते हैं। फिर कृतकार्य होने के लिए पुरुषार्थ में जुट जायेंगे और आपके आशीर्वाद से प्रार्थित वस्तुओं को प्राप्त करके ही रहेंगे। पहली वस्तु, जो हम माँगते हैं, वह है ‘इडा’। इडा का अर्थ है भूमि, अन्न और  गाय । हमें निवास के लिए, खेती करने के लिए, बाग-बगीचे लगाने के लिए, कल-कारखाने खोलने के लिए और शिक्षणालय, औषधालय आदि चलाने के लिए भूमि दीजिए। अन्न, अर्थात् सकल शुद्ध आरोग्यकारी भोज्य पदार्थ दीजिए और दूध-दही-माखन आदि की पूर्ति के लिए दुधारू गाय दीजिए। दूसरी हमारी प्रार्थित वस्तु है ‘गोः सनिः’। गो शब्द निघण्टु में वाणीवाचक शब्दों में भी पठित है। वाणी की देन भी हमें चाहिए। वाणी पुरुदंसाः’ है, अनेक कार्यों को सिद्ध करनेवाली है। वेदादि शास्त्रों की वाणी, गुरुजनों की वाणी, अनुभवी संन्यासियों की वाणी मूर्ख को भी विद्वान्, अधार्मिक को भी धर्मात्मा, आतङ्कवादी को भी मित्र बना देती है। वाणी की यह देन नैरन्तर्य के साथ हमें प्राप्त होती रहे। हम कभी वाणी से और वाणी के लाभों से वञ्चित न हों। तीसरी वस्तु हम यह माँगते हैं कि हमारा पुत्र ‘तनय’ हो, वंश के यश का विस्तार करनेवाला हो। वह ‘विजावा’ अर्थात् विविध ऐश्वर्यो का जनक भी हो। धन-सम्पदा का ऐश्वर्य, वीरता का ऐश्वर्य, विद्या का ऐश्वर्य, प्रताप का ऐश्वर्य, अहिंसा का ऐश्वर्य, सत्य का ऐश्वर्य, ब्रह्मचर्य का ऐश्वर्य आदि ऐश्वर्यों की उसके पास झड़ी लगी हो।

हे अग्निदेव! हे तेजस्वी परमेश! ऐसी आपकी सुमति हमारे ऊपर रहे कि हम समस्त वांछित वस्तुओं को पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त करते रहें और संसार में सर्वाधिक समुन्नत होकर जीवनयापन करें।

पादटिप्पणियाँ

१. हृञ् स्पर्धायां शब्दे चे, सम्प्रसारण, पूर्वरूप होने पर हृ=हु, शानच् ।

२. इडा=पृथिवी, अन्न, गाय, निघं० १.१, २.७, २.११।।

३. पुरूणि बहूनि दंसांसि (कर्माणि) भवन्ति यस्मात्–द० ।

४. इडा=वाकु, निघं० ३.११ ।।

५. तनोति विस्तारयति वंशं यशश्च यः स तनयः।

६. विजावा विविधैश्वर्यजनकः-द०।।

७. अयमेव प्रार्थनाया मुख्यः सिद्धान्तः, यादृशीं प्रार्थनां कुर्यात् तादृशमेवकर्माचरदिति । य०भा० ३.३५ का भावार्थ।

हमें क्या-क्या प्राप्त हों? -रामनाथ विद्यालंकार