त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः सोमाहुतिः । देवता अग्निः । छन्दः स्वराडू आर्षी त्रिष्टप्।

पुर्नस्त्वादित्या रुद्रा वसवः सन्धि पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥

-यजु० १२।४४

हे ( वसुनीथ) स्वास्थ्य आदि ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले यज्ञाग्नि! ( पुनः त्वा ) पुनः तुझे (यज्ञैः ) यज्ञों से ( आदित्या:१) त्रिवेदी विद्वान्, (रुद्राः२) द्विवेदी विद्वान्, ( वसवः३) एकवेदी विद्वान् ( समिन्धताम् ) प्रज्वलित करें, ( पुनः ) पुनः ( ब्रह्माण:४) चतुर्वेदी विद्वान् [प्रदीप्त करें](घृतेन ) घृत से ( त्वं ) तू ( तन्वं) शरीर को (वर्धयस्व) बढ़ा। (सत्याः सन्तु) सत्य हों (यजमानस्य कामाः ) यजमान की कामनाएँ।

यजमान ने किन्हीं पवित्र महत्त्वाकांक्षाओं को लेकर सकाम यज्ञ आरम्भ किया है। यज्ञवेदि को हल्दी, रोली आदि से सजा कर यज्ञकुण्ड में घृतदीपक से अग्नि प्रज्वलित की है। यह अग्नि प्रकाश, ज्ञानज्योति, प्रगति, स्फूर्ति, अग्रगामिता, विघ्नदाह, राक्षसी वृत्तियों के भस्मीकरण, ऊध्र्वारोहण आदि का प्रतीक है। घृताहुति से यह बल पाता है और इसकी ज्वालाएँ ऊपर उठती हैं। सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद और रोगहर पदार्थों के प्रज्वलन से यह पर्यावरण को शुद्ध करता है। मानस में मनुष्य से देव बनने की तरङ्गे उठाता है, सङ्कल्प को दृढ़ करता है। और ध्येय में सफल होने की प्रेरणा करता है। यह अग्नि ‘वसुनीथ’ कहलाता है, क्योंकि स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, प्राणशक्ति मनोबल आदि ऐश्वर्यों को प्राप्त कराता है और उनका उन्नयन करता है। जीवन में एक बार ही इसे प्रज्वलित करना पर्याप्त नहीं है, अतः मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि याज्ञिकजन जीवन में पुनः पुन: इसे प्रज्वलित किया करें। इन याज्ञिकों को यहाँ चार श्रेणियों में विभक्त किया गया है, वसु, रुद्र, आदित्य और ब्रह्मा । वसु एकवेदी, रुद्र द्विवेदी, आदित्य त्रिवेदी और ब्रह्मा चतुर्वेदी याज्ञिक हैं। यज्ञ घृत और चतुर्विध हवन-सामग्री से तो लाभ पहुँचाता ही है, इसके अतिरिक्त यजमान और पुरोहितों को जितना अधिक वेदमन्त्रों का अर्थबोध होगा, उतना ही अधिक आन्तरिक लाभ भी ये प्राप्त कर-करा सकेंगे। एक, दो, तीन या चारों वेदों का मन्त्रार्थ समझते हुए जो यज्ञ करता है, वह यज्ञ का केवल भौतिक लाभ ही नहीं प्राप्त करता, अपितु सद्गुण, विवेक, कर्त्तव्यबोध, ज्ञानवृद्धि, ईश्वरभक्ति, अमृतवर्षा, अन्नमय-प्राणमय-मनोमय-विज्ञानमय कोषों की बलवत्ता आदि का लाभ भी प्राप्त करता है। वह मन्त्रार्थ को अपने और समाज के जीवन में क्रियान्वित करने का व्रत भी व्रतपति अग्नि से और व्रतपति परमेश्वर से ग्रहण करता है। हे यज्ञाग्नि! तू घृतादि की आहुतियों से अपनी और यजमान की, दोनों की तनूवृद्धि कर, दोनों का शरीरवर्धन कर! हे यजमान ! यज्ञ में उपस्थित समस्त यज्ञप्रेमियों का, विद्वानों का, पुरोहितों का, वेद का और परमेश्वर का तुझे यह आशीर्वाद है कि यजमान की कामनाएँ सत्य हों, पूर्ण हों, फलित हों-”सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ।”

पादटिप्पणियाँ

१-४.( वसव:) प्रथमे विद्वांसः, (रुद्राः) मध्यस्था:, (आदित्या:)पूर्णविद्याबलयुक्ताः, (ब्रह्माण:) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः द० |

त्याः सन्तु यजमानस्य कामाः-रामनाथ विद्यालंकार 

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