ऋषिः दीर्घतमाः । देवता पुरुष: ( परमात्मा) । छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।
हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुख॑म् यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पुरु॑ष॒ः सोऽसाव॒हम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥
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– यजु० ४० । १७ ( हिरण्मयेन पात्रेण ) स्वर्णिम पात्र से, सुनहरी ताले से ( सत्यस्य ) मुझ सत्यस्वरूप परमेश्वर का ( मुखं ) द्वार ( अपिहितं ) बन्द है । ( यः असौ ) जो वह ( आदित्ये ) आदित्य में ( पुरुषः ) पुरुष दीखता है ( सः असौ ) वह ( अहम् ) मैं हूँ । (ओ३म् खं ब्रह्म ) मेरा नाम ‘ओम्’ है, ‘खं’ है, ‘ब्रह्म’ है ।
हे सांसारिक जनो ! क्या तुम मेरा दर्शन करना चाहते हो । मेरे दर्शन के लिए तुम्हें मेरे मन्दिर में आना होगा । किन्तु, मेरे मन्दिर का द्वार तो सुनहरे ताले से बन्द है । वह सुनहरा ताला इतना आकर्षक है कि जो भी मेरे दर्शन के लिए द्वार पर आता है, वह मेरे दर्शन की बात तो भूल जाता है, सुनहरे ताले पर ही रीझ कर उसी के दर्शन से तृप्तिलाभ करने लग जाता है । तुम सोचोगे कि मैं सम्भवतः किसी तीर्थस्थल पर बने अपने मन्दिर की बात कर रहा हूँ । नहीं, मेरा मन्दिर तो सर्वत्र है । प्रकृति की सब जड़-चेतन वस्तुएँ मेरे मन्दिर हैं। बर्फीले और हरियाली – भरे पर्वतं, नदी, सरोवर, जङ्गल, वृक्ष, वनस्पतियाँ, समुद्र, बादल, सूर्य, चाँद, सितारे सब मेरे मन्दिर हैं, सब में मैं बैठा हुआ हूँ । इन सबके द्वार सुनहरे पात्र से बन्द हैं । इन सब पदार्थों का अपना आकर्षण ही वह स्वर्णिम पात्र है, सुनहरा ताला है । मनुष्य प्राकृतिक छटा को जब अपनी आँखों से देखता है, तब इसकी चकाचौंध से उसकी आँखें चुंधिया जाती हैं । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु के अन्दर बैठा हुआ मैं उसे दिखायी नहीं देता हूँ । पहले उस स्वर्णिम पात्र को, सुनहरे ताले को खोलना होगा। तब मेरी दिव्य मूर्ति तुम सर्वत्र देख सकोगे। क्या तुमने कभी सोचा है कि आदित्य में ज्योति, आकर्षण शक्ति और विपुल चुम्बकीय शक्ति किसने भरी है ? आदित्य को ज्योति देनेवाला, ग्रह-उपग्रहों को अपनी आकर्षण की डोर से बाँधने की शक्ति देनेवाला मैं ही हूँ । अतः जब तुम आदित्य को देखोगे, तब उसमें मैं ही उसके सञ्चालक के रूप में बैठा हुआ दिखायी दूँगा । आदित्य में जो वह उसका सञ्चालक ‘पुरुष’ दीखता है, वह मैं ही हूँ । इसी प्रकार अन्तरिक्ष की विद्युत् में, पृथिवी की अग्नि और प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में तुम्हें ‘पुरुष’ बैठा हुआ दीखेगा। मैं ही वह पुरुष हूँ। मेरा नाम ‘पुरुष’ इस कारण है कि मैं प्रत्येक वस्तु की पुरी में बैठा हूँ, प्रत्येक वस्तु की पुरी में शयन कर रहा हूँ और प्रत्येक वस्तु को स्वयं से परिपूर्ण कर रहा हूँ। मेरा नाम ‘ओम्’ है, क्योंकि मैं सबकी रक्षा करता हूँ, मेरा नाम ‘ ख ३
* है- क्योंकि मैं आकाश के समान सर्वव्यापक हूँ, मेरा नाम ‘ब्रह्म’ है, क्योंकि मैं महिमा में सबसे बड़ा हूँ ।
सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश दे रहा है – हे मनुष्यो ! जो मैं यहाँ हूँ, वही अन्यत्र सूर्यादि में भी हूँ, जो अन्यत्र सूर्यादि में हूँ, वही यहाँ हूँ । सर्वत्र परिपूर्ण, ‘ख’ (आकाश) के समान व्यापक और मुझसे अधिक महान् अन्य कोई नहीं है । सुलक्षण पुत्र के समान प्राणप्रिय मेरा निज नाम ओम्’ है। जो प्रेम और सत्याचरण के साथ मेरी शरण में आता है, उसकी अविद्या को अन्तर्यामी रूप से मैं ही विनष्ट करके, उसके आत्मा को प्रकाशित करके, उसे शुभ-गुण- कर्म-स्वभाववाला करके, उसके ऊपर सत्यस्वरूप का आवरण चढ़ाकर और उसे शुद्ध योगजन्य विज्ञान देकर सब दुःखों से पृथक् करके मोक्षसुख प्राप्त कराता हूँ ।
पाद-टिप्पणियाँ
१. पुरुष: पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा । पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य ।
निरु० २.३, ‘ ( पुरुष: ) पूर्ण: परमात्मा’ – द० ।
२. (ओम् ) योऽवति सकलं जगत् – द० । अव रक्षणादिषु, अवति रक्षतीति
‘ओम्’, ‘अवतेष्टिलोपश्च’ उ० १.१४२ से मन् प्रत्यय और उसकी टि ‘अन्’ का लोप । धातु की उपधा और वकार को ऊठ् = ऊ । ऊ म्=ओम् ।
३. (खम्) आकाशवद् व्यापकम् – द० ।
४. (ब्रह्म) सर्वेभ्यो गुणकर्मस्वरूपतो बृहत् — द० ।
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५. दयानन्दभाष्य में प्रकृत मन्त्र के संस्कृतभावार्थ का अस्मत्कृत अनुवाद |