चन्द्रमा :पण्डित शिवशङ्कर शर्मा काव्य तीर्थ

अब आकर्षण आदि विषय अधिक वर्णित हो चुके, मेरे अन्यान्य ग्रन्थ देखिये | अब कुछ चन्द्र के सम्बन्ध में वक्तव्य है । इस सम्बन्ध में भी धर्मग्रन्थ बहुत ही मिथ्या बात बतलाते हैं । १ – यह चन्द्र अमृतमय है । उस अमृत को देवता और पितृगण पी लेते हैं, इसी कारण यह घटता-बढ़ता रहता है। पुराणों का गप्प तो यह है ही, परन्तु महाकवि कालिदास भी इसी असम्भव का वर्णन करते हैं-

पर्य्यायपीतस्य सुरैर्हिमांशोः कलाक्षयः श्लाध्यतरोहि वृद्धेः ।

२ – कोई कहते हैं कि इस चन्द्रमा की गोद में एक हिरण बैठा है । इसी से इसमें लांछन दीखता है और इसी कारण इसको मृगाङ्क, शशी आदि नामों से पुकारते हैं । ३ – यह अत्रि ऋषि के नयन से उत्पन्न हुआ है । कोई कहते हैं कि यह समुद्र से उत्पन्न हुआ। ४– -पुराण कहते हैं कि दक्ष की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस कन्याओं से चन्द्रमा का विवाह है, वे ही २७ नक्षत्र हैं । ५ – यह सूर्य से भी ऊपर स्थित है । ६ – इसी से चन्द्र वंश की उत्पत्ति है । ७ – राहु इसको ग्रसता है, अत: चन्द्र ग्रहण होता है इत्यादि अनेक गप्प चन्द्र के विषय में कहे जाते हैं । यहाँ मैं संक्षेप से वेद के मन्त्र उद्धृत कर बतलाऊँगा कि वेद भगवान् इस विषय को किस दृष्टि से देखते हैं-

चन्द्रमा का प्रकाश

अथाऽप्यस्यैको रश्मिश्चन्द्रमसं प्रति दीप्यते तदेतेनोपेक्षितव्य मादित्यतोऽस्य दीप्तिर्भवति । – निरुक्त २ । ७ ।

यास्काचार्य कहते हैं कि सूर्य की एक किरण चन्द्रमा के ऊपर सदा पड़ती रहती है। इससे यह जानना चाहिए कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से होता है । पृथिवी के समान ही चन्द्रमा भी निस्तेज और अन्धकारमय है, जैसे पृथिवी के ऊपर जिस-जिस भाग में सूर्य की किरण पड़ती रहती है वहाँ-वहाँ दिन होता है। इसी प्रकार चन्द्रमा के ऊपर भी सूर्य की किरण पड़ती रहती है, अतः इसमें प्रकाश मालूम होता है। सूर्य की किरण न पड़ती तो चन्द्र सदा धुँधला प्रतीत होता ।

इस अतिगहन विज्ञान का भी वेद में विविध प्रकार से वर्णन है । यास्काचार्य ने वेद का ही आशय लेकर उपर्युक्तार्थ प्रकट किया है और यहाँ ही एक-दो और प्रमाण देकर इसको बहुत पुष्ट किया है ।

अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टु रपीच्यम् । इत्था चन्द्रसो गृहे ॥

ऋ० १।८४/१

(गोः) गमनशील ( चन्द्रमसः ) चन्द्रमा के (अत्र+ह+गृहे) इसी गृह में (त्वष्टः ) सूर्य का (नाम) सुप्रसिद्ध ज्योति ( इत्था ) इस प्रकार ( अपीच्यम् ) अन्तर्हित अर्थात् छिपा हुआ रहता है । यह ऋचा सर्व सन्देह को दूर कर देती है । चन्द्रमा के गृह में सूर्य का प्रकाश छिपा हुआ है । इस वर्णन से तो विस्पष्ट सिद्ध है कि सूर्य के प्रकाश से ही चन्द्र प्रकाशित है । पुनः इसी अर्थ को अन्य प्रकार से वेद भगवान निरूपण करते हैं, वह यह है-

सोमो वधूयुरभव दश्विनास्तामुभा वरा । सूर्य्यां यत्पत्ये शंसन्तीं मनसा सविता ददात् ॥

– ऋ० १० । १८५।९।

सूर्य की कन्या से चन्द्रमा के विवाह का वर्णन यहाँ अलंकार रूप से किया गया है। सूर्य की प्रभा ही मानों सूर्य कन्या है । अथ मन्त्रार्थ- (सोमः ) चन्द्रमा (वधूयुः) वधू की इच्छा वाला हुआ अर्थात् चन्द्रमा ने विवाह करने की इच्छा की। (उभौ + अश्विनौ+ वरौ + आस्ताम् ) इस बराती में अश्वी अर्थात् दिन और रात्रि देव बरात हुए । (यद्) जब (मनसा) मन के परम अनुराग से (पत्ये + शंसन्तीम्+ सूर्याम्) पति के लिए चाह करती हुई सूर्या (अपनी कन्या को ) सूर्य ने देखा तब ( सविता + अददात् ) सूर्य ने चन्द्र के अधीन सूर्या को कर दिया। इस आलंकारिक वर्णन से विशद हो जाता है कि चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य से हुआ करता है । यह विषय भारत देश में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि घर-घर इसको लोग जानते थे । काव्य नाटकों में भी इसकी चर्चा होने लगी । जो विषय अति प्रसिद्ध हो जाता है उसी का निरूपण कविगण अपने काव्यादि ग्रन्थों में किया करते हैं। कालिदास पौराणिक समय के विद्वान् थे, अतः अपने काव्यों को वैदिक और लौकिक दोनों

सिद्धान्तों से भूषित किया है। जैसे पौराणिक गप्प लेकर कालिदास जी ने कहा है कि देव और पितर चन्द्र का अमृत पीते रहते हैं, अतः चन्द्र की कला घटती-बढ़ती रहती है। वैसे ही वैदिक अर्थ को लेकर कहते हैं कि सूर्य के प्रकाश से चन्द्र प्रकाशित होता है; यथा-

पितुः प्रयत्नात् स समग्रसम्पदः शुभैः शरीरावयवैर्दिनेदिने । पुपोष वृद्धिं सरिदश्वदीधितेरनुप्रवेशादिव बालचन्द्रमा ।

– रघुवंश ३ । २२

सम्पूर्ण धनधान्य युक्त पिता के प्रयत्न से वह रघु दिन-दिन शरीर के शुभ अवयवों से बढ़ने लगे; जैसे- (बालचन्द्रमाः) छोटा चन्द्रमा (हरिदश्वदीधिते 🙂 सूर्य के ( अनुप्रवेशात्) अनुप्रवेश से शुक्ल पक्ष में दिन-दिन बढ़ता जाता है ।

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