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आधुनिक कानूनविदों व लेखकों के अनुसार मनु आदि-विधिप्रणेता:डॉ. सुरेन्द कुमार

(क) आधुनिक भारतीय लेखकों और कानूनविदों ने भी मनु के प्राचीनतम होने और मनुस्मृति के कानून का अदिस्रोत होने का समर्थन किया है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में मनु को प्राचीनतम कानूनदाता स्वीकार करते हैं-

“MANU, the earliest exponent of the Law” (P.118)

= ‘प्राचीनतम और कानून के आदिदाता मनु।’

“The old law giver Manu, himself says” (P.118)= ‘प्राचीन विधिदाता मनु कहते हैं।’

(ख) ‘मुल्लाज हिन्दू लॉ’ में टी. देसाई कानून के प्रसंग में मनु को मूल विधिदाता और आदिपुरुष के रूप में प्रस्तुत करते हैं-

“the original lawgiver” (P.19)= ‘आदि विधिदाता मनु’

“Manu, the first patriarch” (P.19)=‘मनु, प्रथम आदिपुरुष’

(ग) श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर अपनी पुस्तक ‘ञ्जशख्ड्डह्म्स्रह्य ह्वठ्ठद्बक्द्गह्म्ह्यड्डद्यद्वड्डठ्ठ’ में मनु को भारत का ‘ला गिवर’ घोषित करते हैं-

“Our law giver Manu talls us” (P.95)

-हमारे लॉ गिवर (विधिप्रदाता) मनुनेहमेंबतायाहै।

(घ) एन. आर. राघवचारी अपनी पुस्तक ‘हिन्दू लॉ’ में मनु को कानून में सर्वोच्च प्रमाण मानते हैं –

““Manu is paramount authority on secular law””(P.3)

-मनु धार्मिक कानूनदाता के रूप में सर्वोच्च प्रमाण हैं।

(ङ) प्रसिद्ध आध्यात्मिक चिन्तक श्री अरविंद ‘इंडियन लिटरेचर’ में लिखते हैं –

““The greatest and the most authoritative is the

famous Laws of Manu.” (P.282-283)

    अर्थात्-मनु का संविधान सबसे महान्, सबसे प्रामाणिक और सबसे प्रसिद्ध है।

(च) भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ0 राधाकृष्णन् ‘इंडियन फिलासफी’ में लिखते हैं-

““the code of Manu, to which a high position is

assigned among the smritis.”” (P.515)

    अर्थात्- स्मृतियों में मनु के संविधान की सर्वोच्च स्थिति है और सर्वोच्च प्रामाणिकता है।

विश्व का आदि संविधान ‘मनुस्मृति’ और आदिविधि प्रणेता राजर्षि मनु: डॉ. सुरेन्द कुमार

जब हम यह कहते हैं कि ‘मनुस्मृति’ विश्व का सर्वप्रथम संविधान है और मनु स्वायंभुव आदिराजा, आदि धर्मप्रवक्ता, आदिविधिप्रणेता है तो कुछ लोगों को यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। किन्तु है यह सत्य। प्राचीन बृहत्तर भारतवर्ष में, साथ ही दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में समाजव्यवस्था एवं दण्डव्यवस्था के निर्धारण में प्राचीन समय में मनुस्मृति के विधानों का वर्चस्व रहा है; इसका ज्ञान हमें प्राचीन भारतीय साहित्य, भाषाविज्ञान तथा अंग्रेजी शासनकालीन इतिहासों के उल्लेखों से होता है। सन् 1932 में, मनु और मनुस्मृति को प्राचीनतम शास्त्र बताने वाला एक चीनी भाषा का दस्तावेजाी प्राप्त हो चुका है जिसके अनुसार मनुस्मृति का अस्तित्व कम से कम 12-13 हजार वर्ष पूर्व था (देखिए अध्याय 1.5 में प्रमाण संया ‘क’ का विवरण)। वैदिक साहित्य में मनुस्मृति के रचयिता मनु स्वायभुव को केवल भारतीयों का ही नहीं अपितु मानवों का प्रमुख आदिपुरुष माना गया है। इसी कारण मनु स्वायंभुव को आदिविधि प्रणेता (First Law-giver)और उसके द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव धर्मशास्त्र’ को आदि संविधान (First Constitution) माना जाता है, क्योंकि स्वायंभुव मनु आदि सृष्टि की कालावधि का राजर्षि था।

प्राचीन भारतीय साहित्य के आधार पर

यदि हम कालनिर्धारण के आंकड़ों के गणित में न पड़कर केवल निष्कर्ष ही प्रस्तुत करें तो उसके अनुसार सभी भारतीय और पाश्चात्य वैदिक विद्वान् इस मान्यता पर एकमत हैं कि ‘ऋग्वेद संसार का प्राचीनतम ग्रन्थ है।’ वेदों के बाद मिलने वाले समस्त भारतीय साहित्य में मनु की और उनके उपदेशों की चर्चा है। अतः स्पष्ट है कि वेदों के बाद समस्त भारतीय साहित्य से मनु और मनुस्मृति प्राचीन हैं। मनु ने मनुस्मृति में अपने द्वारा विहित धर्म-विधानों का स्रोत वेदों को ही घोषित किया है और वर्णव्यवस्थााी वेद से ग्रहण की है। इसका सीधा-सा अभिप्राय यह निकलता है कि मौलिक मनुस्मृति के आधारभूत शास्त्र केवल वेद ही हैं उनके बीच में अन्य कोई साहित्य नहीं है। इस आधार पर वेदों के बाद मनुस्मृति का कालक्रम आता है।

(क) भारतीय इतिहास-परपरा के अनुसार श्री राम का काल लाखों वर्ष पुराना है। अमेरिका के नासा द्वारा प्रक्षेपित उपग्रह ने लंका के समुद्रतल स्थित पुल के आधार पर इसकी पुष्टि कर दी है। महर्षि वाल्मीकि भी राम के समकालीन थे। उसी समय उन्होंने ‘रामायण’ की रचना की। आदिकाव्य व सर्वाधिक प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘वाल्मीकि-रामायण’ में मनु वैवस्वत की वंश-परपरा का उल्लेख आता है जो प्रथम स्वायभुव मनु की वंश-परपरा में सातवां मनु है। इसके अतिरिक्त मनुस्मृति के कई श्लोक उसमें उद्धृत मिलते हैं। बालि-वध के प्रसंग में राम अपने वध-कर्म को उचित ठहराते हुए मनु के दो श्लोकों को मान्य कानून के रूप में उद्धृत करते हैं, वे श्लोक मनुस्मृति के अध्याय 8.316, 318 में उपलध हैं। रामायण में वे श्लोक इस क्रम से उद्धृत हैं-

राजभिर्धृतदण्डाश्च कृत्वा पापानि मानवाः।

निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा॥

शासनाद् वापि मोक्षाद् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते।

राजा त्वशासन् पापस्य तदवाप्नोति किल्विषम्॥

(किष्किन्धा काण्ड 18.30, 32)

    अर्थ-मनुष्य पाप या अपराध करने के बाद राजाओं के द्वारा दण्ड दिये जाने पर अच्छे आचरण वाले लोगों के समान माने जाते हैं। फिर वे दोषरहित सुखी जीवन जीते हैं। राजा द्वारा दण्ड देने के बाद अथवा निर्दोष समझकर छोड़ देने के बाद चोर चोरी के अपराध से मुक्त हो जाता है। यदि राजा अपराधी को दण्ड नहीं देता तो उसका दोष राजा का माना जाता है।

(ख) उसके पश्चात् संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रन्थों का रचना काल आता है (भारतीय परपरानुसार 10-12 हजार वर्ष पूर्व और पाश्चात्य मतानुसार 3-4 हजार वर्ष पूर्व)। उन ग्रन्थों में मनु के विधानों को समान के साथ स्मरण करते हुए प्रशंसित किया है-

‘‘मनुर्वै यत्किञ्च-अवदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’

(तैत्तिरीय संहिता 2.2.10.2; ताण्डय ब्राह्मण 23.16.7)

    अर्थात्-मनु ने अपनी स्मृति में (व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए) जो कुछ कहा है, वह औषधों का भी औषध है अर्थात् औषध के समान कल्याणकारी है।

(ग) महाभारत से कुछ प्राचीन ग्रन्थ (भारतीय परपरानुसार 5150 वर्ष पूर्व, आधुनिक मतानुसार 3500 वर्ष पूर्व) ‘निरुक्त’ में एक प्राचीन महत्त्वपूर्ण श्लोक उद्धृत मिलता है, जिसमें दो ऐतिहासिक तथ्यों का एक साथ उल्लेख है। एक-मनु मानवसृष्टि के आदिकालीन राजर्षि हैं, दो-उन्होंने दायभाग में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार विहित किया है। स्पष्ट है कि उस समय भी मनु के विधान सर्वप्राचीन और उल्लेखनीय माने जाते थे। वह श्लोक है-

अविशेषेण   पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।    

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥     (3.4)

अर्थात्-‘पुत्र और पुत्री में बिना किसी भेदभाव के पैतृक सपत्ति का बंटवारा होता है’ यह विधान स्वायभुव मनु ने मानवसृष्टि के आदि में किया था।’

(घ) वर्तमान मनुस्मृति में उपलध अनेक श्लोकों और श्लोकांशों को महाभारत में स्वायभुव मनु के विधान के नाम से उद्धृत किया है। उनसे ज्ञात होता है कि महाभारत से पूर्व मनुस्मृति मान्य थी और उसका रचयिता मनु स्वायभुव ही है। यथा –

‘‘प्राङ्नाभिवर्धनात् पुंसः जातकर्मः विधीयते॥’’

‘‘तदास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते॥’’

‘‘तावच्छूद्रसमो ह्येषः यावद् वेदे न जायते॥’’

तस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥

(वनपर्व 180.30-35)

इनमें से पहली पंक्ति मनुस्मृति 2.29 में, दूसरी 2.170, में तीसरी 2.172 श्लोक में उपलध है।

महाभारत में अनेक प्रसंगों में वर्तमान मनुस्मृति में उपलध दो सौ के लगभग श्लोक उद्धृत मिलते हैं (यथा-आदिपर्व 73.8-9, शान्तिपर्व 36.5-6, 335.44-46; आदि)। अनेक स्थलों पर उन श्लोकों को मनुप्रोक्त कहकर उद्धृत किया गया है।

(ङ) उनसे अर्वाचीन ग्रन्थ स्मृतियां और पुराण हैं, जिनका रचनाकाल भारतीय परपरानुसार महाभारतोत्तर और बौद्ध पूर्व है जबकि पाश्चात्य मतानुसार कुछ शतादी ईसा पूर्व है। प्रायः सभी में मनु का इतिवृत्त है और मनुविधानों का उल्लेख समान के साथ मिलता है। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

वेदार्थोनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनोः स्मृतम्।

मन्वर्थविपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते॥

तावच्छास्त्राणि शोभन्ते तर्कव्याकरणानि च।

धर्मार्थमोक्षोपदेष्टा मनुर्यावन्न दृश्यते॥

(बृहस्पति स्मृति, संस्कारखण्ड 13-14)

    अर्थ-वेदों के अर्थों के आधार पर रचित होने के कारण मनु की स्मृति ही सब शास्त्रों में प्रधान है। मनु के विधानों के विपरीत जो स्मृति है वह आदरणीय नहीं है। तर्कशास्त्र, व्याकरण शास्त्र आदि शास्त्रों की शोभा तभी तक है जब तक मनु का शास्त्र (मनुस्मृति) वहां नहीं होती। धर्म-अर्थ-मोक्ष-उपदेष्टा मनु के शास्त्र के समक्ष सभी शास्त्र फीके पड़ जाते हैं, अर्थात् गौण हैं।

राजर्षि मनु आदिराजा: डॉ. सुरेन्द कुमार

प्राचीन भारतीय इतिहास और साहित्य में जो आदितम वंशावलियां उपलध हैं, उनके अनुसार, सृष्टि का आदिपुरुष ब्रह्मा है, जिसका एक नाम ‘स्वयभू’ भी है। उसका एक पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) मनु था। ‘स्वयभू’ वंश का पुत्र होने के कारण ही इस आदि मनु का नाम ‘स्वायभुव मनु’ कहलाता है। प्रजाओं की प्रार्थना पर और पिता ब्रह्मा के आदेश से यह प्रथम मनु सृष्टि का प्रथम राजा बना। मनु ने क्षत्रियवर्ण को ग्रहण कर राजा बनना स्वीकार किया। इस प्रकार मनु क्षत्रिय था। राजा होते हुए भी वह शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न रहता था तथा उसका ऋषिवत् आध्यात्मिक एवं निर्लिप्त जीवन था, अतः वह ‘राजर्षि’ था। धर्म आदि विद्याओं का विशेषज्ञ होने के कारण यह ‘महर्षि’ था। संस्कृत-साहित्य में मनु के ‘आदि राजा’ होने का विवरण अनेकत्र मिलता है। कुछ विवरण यहां प्रस्तुत हैं।

(क) पिता ब्रह्मा के आदेश से स्वायभुव मनु सृष्टि का पहला राजा नियुक्त हुआ। उससे पहले न कोई राजा था, न राज्य था। सत्वगुणी लोग आत्मानुशासन से ही परस्पर सद्व्यवहार करते थे। धीरे-धीरे मनुष्यों में रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि होने लगी, बलवान् निर्बलों को सताने लगे। तब लोगों ने ब्रह्मा के पास जाकर किसी ऐसे को राजा बनाने की प्रार्थना की जो सबको व्यवस्था में चला सके। तब ब्रह्मा ने मनु को राजा बनने का आदेश दिया। मनु ने सबके कर्त्तव्यों-अकर्त्तव्यों का निर्धारण किया और सारे समाज को व्यवस्थित किया। मनु ने निर्धारित विधानों के अनुसार अपने शासन को व्यवस्थित किया और चलाया। इस कारण उसे ‘आदिराजा’ कहा जाता है। महाभारत में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार आता है-

सहितास्तदा जग्मुः– असुखार्ताः पितामहम्।

अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश॥

यं पूजयेम सभूय यश्च नः प्रतिपालयेत्।

ततो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः॥

बिभेमि कर्मणः पापात् राज्यं हि भृशदुस्तरम्।

विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा॥

तमब्रुवन् प्रजा मा भैः कर्तृनेनो गमिष्यति।

ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्।

शमयन् सर्वतः पापान् स्वकर्मसु च योजयन्॥

(महाभारत, शान्तिपर्व अ0 67, 20-23, 32)

    अर्थ-अराजकता से पीड़ित प्रजाएं एक साथ मिलकर पितामह ब्रह्मा के पास गयीं और बोलीं-हे भगवन्! बिना राजा के हम प्रजाएं विनष्ट हो जायेंगी इसलिए किसी उपयुक्त व्यक्ति को राजा नियुक्त कीजिये, जिसका हम सर्वोच्च समान करें और वह हमारा पालन-पोषण तथा रक्षा किया करे। ब्रह्मा ने मनु (स्वायंभुव) को राजा बन जाने का आदेश दिया किन्तु मनु को प्रजाओं का प्रस्ताव रुचिकर नहीं लगा। उसने कहा- राज्य करना एक कठिन कार्य है, विशेष रूप से मिथ्याचारी और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों पर शासन करना। मैं इस बात से डरता हूं कि मुझसे कोई पाप या अन्याय न हो जाये। तब प्रजाओं ने कहा-आप बिल्कुल मत डरिये, पाप तो पापकारियों को ही लगेगा। तब मनु राजा बनने के लिए तैयार हो गये। वे अपने शासन में सबको अपने-अपने कर्त्तव्य में नियुक्त राते हुए और पापों को शान्त करते हुए सर्वत्र इस प्रकार विचरण करते थे जैसे बरसने वाले मेघ आकाश में घूम-घूम कर तपन को शान्त करते हैं।

(ख) महर्षि वाल्मीकि-रचित रामायण में भी मनु को ‘आदिराजा’ बताया गया है-

‘‘आदिराजो मनुरिव प्रजानां परिरक्षिता’’

(बालकाण्ड 6.4, पश्चिमोत्तर संस्करण)

अर्थात्-‘दशरथ, आदिराजा स्वायभुव मनु के समान स्नेह से प्रजाओं की रक्षा करते थे।’

(ग) विष्णुपुराण में स्वायभुव मनु को ब्रह्मा का पुत्र कहा है और ब्रह्मा द्वारा उसको राजा नियुक्त करने का उल्लेख किया है। वही सबसे पहला राजा था-

ततो ब्रह्मा आत्मसभूतं पूर्वं स्वायभुवं प्रभुः।  

आत्मानमेव कृतवान् प्रजापाल्ये मनुं द्विजः॥ (1.7.16)

‘‘स्वायभुवो मनुः पूर्वम्’’ (3.1.6)

    अर्थात्-तब ब्राह्मणवर्णधारी ब्रह्मा ने अपने सगे पुत्र स्वायभुव मनु को प्रजापालनार्थ पहले राजा के रूप में नियुक्त किया। पुत्र को राजा बनाने पर यह अनुभव हो रहा था जैसे प्रभु ब्रह्मा ने स्वयं को ही राजा बनाया हो अर्थात् मनु गुणों में ब्रह्मा के सदृश था। यह स्वायभुव मनु आदिराजा था।

(घ) भागवत महापुराण के वर्णन से यह ऐतिहासिक तथ्य और अधिक सिद्ध और स्पष्ट हो जाता है। इस संदर्भ में मनु का पर्याप्त परिचय वर्णित किया गया है। जैसे-मनु ब्रह्मा का पुत्र था, आदिराजा था, उसका चक्रवर्ती राज्य था। उसकी राजधानी ‘ब्रह्मावर्त’ प्रदेश में थी। यह भी स्पष्ट किया है कि उसी स्वायभुव मनु ने ऋषियों को वर्णाश्रमों के धर्मों का उपदेश किया था-

प्रजापतिसुतः सम्राट् मनुः वियातमंगलः।

ब्रह्मावर्तं योऽधिवसन् शास्ति सप्तार्णवां महीम्॥

यः पृष्टो मुनिभिः प्राह धर्मान् नानाविधान् शुभान्।

नृणां वर्णाश्रमाणां व   सर्वभूतहितः सदा।

एतद्   आदिराजस्य   मनोश्चरितमद्भुतम्॥

(3.22.25, 38, 39)

    अर्थ-प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र सुवियात, यशस्वी मनु सम्राट्

(= चक्रवर्ती राजा) था, जो ब्रह्मावर्त प्रदेश को राजधानी बनाकर सातद्वीपों वाली पृथ्वी का शासन करता था। उसी स्वायभुव मनु ने मुनिजनों द्वारा पूछने पर मनुष्यों के वर्णों और आश्रमों के धर्मों का उपदेश किया था। वह सभी प्राणियों का हितैषी था। यह आदिराजा मनु का अद्भुत चरित्र है।

यही विवरण अन्य पुराणों में उपलब्ध है। द्रष्टव्य हैं-ब्रह्माण्ड पुराण 2.13.105, मत्स्यपुराण 3.44.5, 4.344.145.90, वायुपुराण 3.2.35, 3.23.47 आदि।

डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार मनु शूद्रों के भी आदिपुरुष व आदरणीय पूर्वज: डॉ. सुरेन्द कुमार

जैसा कि प्राचीन भारतीय परपरा को उद्धृत कर यह सप्रमाण दिखाया गया है कि प्राचीन वैदिक इतिहास के अनुसार मनु स्वायभुव आदितम ऐतिहासिक राजर्षि हैं और वे सबके श्रद्धेय है। डॉ0 अबेडकर ने प्राचीन मनुओं के विषय में इन्हीं ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए उन्हें आदरणीय पुरुष माना है। वे लिखते हैं –

(क) ‘‘स्वयंभू के पुत्र मनु (स्वायंभुव) के एक पुत्र प्रियंवद थे। उनके पुत्र अग्नीध्र हुए। अग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ हुए। ऋषभ के एक और वेदविद् पुत्र हुए जिनमें नारायण के परमभक्त भरत ज्येष्ठ थे। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा।…..उपरोक्त से पता चलता है कि सुदास किन प्रतापी राजाओं का वंशज था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 104)

(ख) आगे वे इस वंश का कुछ और विवरण प्रस्तुत करते हैं। स्वायभुव मनु की सुदीर्घ वंश परपरा में आगे चलकर सातवां मनु वैवस्वत हुआ। उसके पुत्र इक्ष्वाकु से क्षत्रियों का सूर्यवंश चला और पुत्री इला से चंद्रवंश चला। उसकी वंश परपरा को दर्शाते हुए वे लिखते हैं-

‘‘पुरूरवा वैवस्वत मनु का पौत्र और इला का पुत्र था। नहुष पुरूरवा का पौत्र था। निमि इक्ष्वाकु का पुत्र था जो स्वयं मनु वैवस्वत का पुत्र था। इक्ष्वाकु की ख्त्त्वीं पीढ़ी में त्रिशंकु हुआ। इक्ष्वाकु की भ्वीं पीढ़ी में सुदास था। वेन, मनु वैवस्वत का पुत्र था। ये सभी मनु के वंशज होने के कारण सभी सुदास से सबन्धित होने चाहिएं। ये सुदास के शूद्र होने के प्रमाण हैं।’’ (वही, खंड 13, पृ0 152)

यहां डॉ0 अबेडकर के निष्कर्षों में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। एक तो यह कि सुदास के शूद्र घोषित किये जाने का यह मतलब नहीं है कि उसका पूर्वापर सारा वंश शूद्र था। इस तरह तो मनु स्वायंभुव भी शूद्र कहा जायेगा। दूसरा, यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशक्रम नहीं है, केवल प्रसिद्ध पुरुषों की तालिका है। अन्य नवीन इतिहासकारों के अनुसार सुदास वैवस्वत मनु की 63 वीं प्रमुख पीढ़ी में थे। इसी वंश में राम 76 वीं प्रमुख पीढ़ी में हुए।

ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुङ्ग, वैवस्वत मनु के वंश के प्रमुख पुरुषों की 170 पीढ़ी पश्चात् हुआ है जिसकी चर्चा डॉ0 अबेडकर बार-बार ब्राह्मणवाद के संस्थापक राजा के रूप में करते हैं। स्वायभुव मनु से तो यह बहुत-बहुत दूर की पीढ़ी में आता है। यह ‘शुङ्ग’ वंश में उत्पन्न सामवेदी ब्राह्मण था और मौर्य सम्राट् बृहद्रथ का मुय सेनापति था। इसने उसका वध करके राज्य पर बलात् कजा किया था।

(ग) डॉ0 अबेडकर के मतानुसार वर्तमान शूद्र मूलतः क्षत्रिय जातियों से सबन्धित थे और वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सूर्यवंश से थे। इस प्रकार वैवस्वत मनु शूद्रों के आदिपुरुष सिद्ध होते हैं और स्वायंभुव मनु, जो मूल मनुस्मृति के रचयिता हैं, वे उनके भी आदितम पुरुष सिद्ध होते हैं। डा. अबेडकर लिखते हैं-

‘‘शूद्र सूर्यवंशी आर्यजातियों के एक कुल या वंश थे। भारतीय आर्य समुदाय में शूद्र का स्तर क्षत्रिय वर्ण का था।’’ (वही, खंड 13, पृ0 165)

(घ) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 151)

(ङ) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना ही महान् है, कहता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 179)

प्रश्न उपस्थित होता है कि जब प्राचीन राजर्षि स्वायभुव मनु शूद्रों के भी आदरणीय आदिपुरुष थे तो उनके द्वारा अपने आदिपुरुष का विरोध करना क्या कृतघ्नतापूर्ण असयाचरण नहीं है? नवीन लोगों द्वारा विहित व्यवस्थाओं को प्राचीन मनुओं पर थोपकर उनकी निन्दा और अपमान करना, क्या ऐतिहासिक अज्ञानता नहीं है? कितने दुःख का विषय है कि जिस अतीत पर हम भारतीयों को गर्व करना चाहिए, अपनी अज्ञानता और भ्रान्ति के कारण हम उसकी निन्दा कर रहे हैं! यह बौद्धिक पतन की चरम स्थिति है।

मनुष्य वाचक नामों के विषय में भ्रामक स्थापना: डॉ. सुरेन्द कुमार

अंग्रेजी शासन में कुछ शासनभक्त लेखकों को जब संस्कृत भाषा को विश्व की अधिकांश भाषाओं की जननी मानने और मनु व्यक्तिवाचक शद को मानव आदि नामों का मूल मानने में जब यह आभास हुआ कि इससे तो भारतवासी हमसे प्राचीन और सय माने जायेंगे तो उन्होंने इन मान्यताओं में भ्रान्ति पैदा करके इन्हें बदल डाला। कहा गया कि संस्कृत जननी नहीं अन्य भाषाओं की बहन है, जननी तो कोई अन्य भाषा थी, जिसका नाम ‘भारोपीय भाषा’ कल्पित किया गया। इसी प्रकार कहा गया कि मानव आदि नामों का मूल मनु चिन्तनार्थक शद है, व्यक्तिवाचक नहीं।

इस नयी भ्रामक स्थापना का समाधान संस्कृत की वैज्ञानिक पद्धति से हो जाता है। संस्कृत व्याकरण की सुनिश्चित प्रक्रिया है, जो नियमों में बंधी है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘मनु’ शद से जो प्रत्यय जुड़कर ‘मानव’ आदि शद बने हैं वे व्यक्तिवाचक शद से पुत्र या वंशज अर्थ में जुड़े हैं, अतः उनका व्याकरणिक अर्थ ‘मनु के पुत्र या वंशज’ ही होगा, अन्य नहीं। जैसे-मनु से ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘मानव’ बना है, ‘षुग्’ आगम और ‘यत्’ प्रत्यय होकर ‘मनुष्य’ तथा ‘अञ्’ प्रत्यय और ‘षुग्’ आगम होकर ‘मानुष’, मनु के साथ ‘जन्’ धातु के योग से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘मनुज बना है। यहां चिन्तन अर्थ प्रासंगिक नहीं बनता।

वंशज होने की पुष्टि प्राचीन भारतीय इतिहास, विदेशी इतिहास वैदिकसाहित्य के उल्लेख भी कर रहे हैं। वंशावली भी इसी तथ्य का समर्थन करती है। अतः कुछ लेखकों द्वारा स्थापित नयी मान्यता सर्वथा गलत है।

मनु के आदिपुरुष होने में भाषाविज्ञान के तथा विदेशी प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

वर्तमान में ‘भाषा विज्ञान’ (Linguastics)के नाम से प्रसिद्ध शास्त्र यूरोपीय विद्वानों की देन है। इस विद्या में भाषाओं के मूल, विकास और पारस्परिक सबन्धों का अध्ययन किया जाता है। इस शास्त्र के अध्ययन से मनु के प्रमुख आदिपुरुष होने के अनेक आश्चर्यजनक पोषक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। उनका भारतीय साहित्य के निष्कर्षों से अद्भुत तालमेल है।

(क) संस्कृत, हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं में आदमी के वाचक जितने नाम हैं, जैसे- मानव, मनुष्य, मनुज, मानुष ये सब मनु मूल शद से बने हैं, जिनका अर्थ है-‘मनु के वंशज या मनु की सन्तान।’ जैसे सभी बनिया स्वयं को महाराजा अग्रसेन का वंशज मानकर ‘अग्रवाल’ कहते हैं, उसी प्रकार मनु के वंशज ‘मनुष्य’ हैं। भाषाविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अधिकांश एशिया और यूरोपीय देशों की भाषाएं आर्यभाषाएं हैं और अधिकांश जातियां आर्यों की वंशज हैं। यही कारण है कि उनकी भाषाओं में प्रयुक्त मनुष्य वाचक शद ‘मनु’ से बने हुए हैं। बीस भागों वाली ‘दि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी’ में ‘मैन’ (Man) शब्द पर इनका विवरण दिया है-

अंग्रेजी में- MAN (मैन), जर्मनी में- MANN (मन्न), MANESH (मनेश), लैटिन व ग्रीक में- MYNOS (माइनोस), स्पेनिश में – MANNA (मन्ना)

यूरोप की अन्य भाषाओं में भी मनु मूल शद पर आधारित प्रयोग प्रचलित हैं, जैसे – मेनिस्, मनुस्, मनीस्, मनेस, मैन्स् आदि। (भाग 1, पृ0 284)

सिन्धी, फारसी और ईरानी में ‘मनुस्’ के स को ह होकर (जैसे सप्ताह का हप्ता) ‘मनुह’ बना, फिर वह ‘नूह’ रह गया। इसी प्रकार आदिम (ब्रह्मा) का आदम रूप प्रचलित हो गया। बाइबल और कुरान में आदम और नूह की कथा आती है। ये वैदिक साहित्य के देव आदिम = ब्रह्मा और मनु ही हैं। वर्तमान भाषा-विज्ञान ने इस मूल वंश परपरा को प्रकाश में ला दिया है।

(ख) यही स्थिति भारतीय भाषाओं की है, चाहे वे दक्षिण की हों अथवा अन्य दिशाओं की। सभी में ‘मनु’ मूल शद से बने शद ही मनुष्य के वाचक हैं। निनलिखित तालिका से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है-

कन्नड़     –    मनुष्य,       असमिया   –    मानुह (ष को ह)

तमिल     –    मनिदन्,      उड़िया     –    मनिष, मणिष

तेलगु      –    मनिषि,       बंगला      –    मानुष

मलयालम  –    मनुष्यम्,      गुजराती    –    माणस

सिन्धी     –    मानहू ,       राजस्थानी  –    माणस

(ष को ह)     हरयाणवी   –    माणस

पंजाबी     –    मनुख ,       मराठी     –   माणूस, मनुष्य

(ष को ख)

(ग) इसका समर्थन पाश्चात्य इतिहासकार मेनिंग स्वरचित इतिहास ‘एन्सिएन्ट एण्ड मेडिवल इंडिया’ में इस प्रकार करता है-

“It has been remarked by various authors (as Kuhn and Zeitschrift IV 94 ff) that in analogy with Manu as

the father of mankind or of the Aryas, German mythology recognises Manus as the ancestor of Teutons. The english Man and the German Manu appear also to be akin to the word Manu as the German Menesh presents a close resemblance to Manush of Sanskrit.” (Vol.I,P.118)

अर्थात्‘जैसा कि कुहन और जाइत्सक्रिट आदि विभिन्न लेखकों ने भी यह उल्लेख किया है कि मानवजाति और आर्यों के मूलपुरुष मनु हैं, इस मान्यता से जर्मन पुराकथाओं की भी मान्यता मेल खाती है कि जर्मन मनु ट्यूटोन्ज् का भी पूर्वज रहा है। अंग्रेजी का ‘मैन’ तथा जर्मन का मनु संस्कृत के ‘मनु’ के समान है, ऐसे ही जर्मन का ‘मनेश’ और संस्कृत के ‘मनुष्य’ में घनिष्ठ समानता विद्यमान है।’ अर्थात् मनु इन सब का आदिपुरुष है, यह भाषाविज्ञान और परपरा दोनों से सिद्ध होता है।

(घ) इसके साथ अपने पूर्वज मनु की एक और स्मृति विश्व की जातियां लेकर गई हैं। वह है वैवस्वत मनु के समय हुई ‘जलप्रलय’ की कथा। विश्व के प्रमुख धर्मग्रन्थों बाइबल और कुरान में यह नूह के नाम से वर्णित है जो ‘मनुस्’ (मनुहनूह) का अपभ्रंश है। इनके अतिरिक्त संसार के आधे से अधिक देशों के साहित्य में यह कथा थोड़े परिवर्तन के साथ सुरक्षित है।

(ङ) कबोडिया, मिस्र, ईरान आदि देशों के साहित्य में अभी तक उनके आर्य और मनु की सन्तान होने के उल्लेख मिलते हैं। एक प्रमाण लीजिए। बाइबल और कुरान में वर्णित नूह के दो पुत्र थे-1. हेम(=सूर्य), 2. सेम (=सोम=चन्द्र) इनमें हेम के वंशज मिस्र में रहते हैं जो स्वयं को सातवें वैवस्वत मनु की सूर्यवंशी सन्तान मानते हैं-

“The reader will not readily forget the city of the sun ‘Helispolis’ or ‘Menes’. The first Egyptian king of the sun, the ‘Menu Voivasowat’ or patriarch of the solar race, nor his statue, that of the great ‘Menoo’, whose voice was said to statue the rising sun.” (India is Greece, P. 174)       

 

अर्थात्-‘पाठक सूर्य के नगर (स्थान) ‘हेलिस्पोलिस्’ अथवा ‘मेनस्’ को सुगमता से नहीं भुला पायेगा और न ही मिस्र के प्रथम सूर्य राजा ‘मनु वैवस्वत’ को, जो कि सूर्यवंशियों का आदिपुरुष है, और जिस महान् मनु की प्रतिमा उगते हुए सूर्य के रूप में उसके नाम को प्रतिबिबित कर रही है, उसको भी नहीं भुला पायेगा।’

भाषाविज्ञान द्वारा यह स्पष्ट हुआ कि ‘मनु स्वायंभुव’ मानवों के आदिपुरुष हैं, अतः उन द्वारा रचित संविधान ‘मनुस्मृति’ भी विश्व का आदिकालीन प्रथम संविधान है।

(च) ‘‘थाई देश में राम खएंग के अतिरिक्त भी कई ऐसे शासक हुए हैँ जिनका नामोल्लेख शासकीय व्यवहार में ‘राजा’ ‘महाराजा’ शदों के साथ ‘राम’ उपाधि से किया जाता था, जैसे- महाराजा राम प्रथम, राम द्वितीय, राम तृतीय आदि। यह संया नौ तक चल गयी है। वास्तव में थाई शासकों के समान कुछ अन्य देशों के शासक भी अपने आपको रामायण के नायक राम के वंशज मानते रहेहैं।’’ (‘दैनिक ट्रियून’ चंडीगढ़ संस्करण दिनांक 14-10-1990, ‘रामकथा की सृजन भूमि रहा है थाई देश’ : डॉ. वेदज्ञ आर्य)

श्री राम सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। वे वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के सूर्यवंश में हुए। वैवस्वत मनु सातवां मनु था जो प्रथम मनु स्वायंभुव का वंशज था। इस प्रकार मनु स्वायंभुव आदिपुरुष था।

(छ) ‘‘कबुज (कंबोडिया) में संस्कृत में लिखे अनके लेख मिले हैं जिनसे मालूम होता है कि वहां के लोगों का भी विश्वास था कि वे मनु की सन्तान है।’’ (भारतीय संस्कृति के विस्तार की कहानी : भगवतशरण उपाध्याय, पृ0 42)

इस प्रकार विश्व के अधिकांश प्राचीन देशों में उनका प्राचीन इतिहास वहां के निवासियों को मनु का वंशज वर्णित करता है।

मनुस्मृति की प्राचीनता विषयक चीनी साहित्य का प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

गत पृष्ठों (विश्व में मनुस्मृति की प्रामाणिकता) में चीनी भाषा के ग्रन्थ में मनुस्मृति-काल सबन्धी उल्लेख का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उस पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार मनुस्मृति 10-12 हजार वर्ष पुराना शास्त्र है। इससे एक तथ्य की पुष्टि तो होती ही है कि मनुस्मृति समाज-व्यवस्था का सबसे पुराना ग्रन्थ है। अन्य किसी देश या समाज का इतना पुराना ग्रन्थ उपलध नहीं है। यह पुरातात्विक प्रमाण भी मनु और मनुस्मृति के काल को सबसे प्राचीन सिद्ध करता है।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनु एवं मनुस्मृति के काल के सबन्ध में पाश्चात्य लेखकों ने जो 185 ई0 पूर्व के काल की कल्पना की है, वह निराधार और अप्रामाणिक है; क्योंकि मनु स्वायंभुव रचित मनुस्मृति के उल्लेख उससे कई हजार वर्ष पूर्व के साहित्य में मिल रहे हैं। उन उल्लेखों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

मनु के काल के सबन्ध में जो वर्तमान लेखकों को अर्वाचीनता की भ्रान्ति हो रही है, उसका कारण मनुस्मृति में हुए प्रक्षेप हैं। बदलते समय के अनुसार लोग इसमें मिलावट करते चले गये जिससे इसका प्राचीन और मौलिक स्वरूप धूमिल हो गया। प्रक्षेपों के विषय पर अन्तिम अध्याय में विचार किया जायेगा।

वेदों में मनु का उल्लेख: डॉ. सुरेन्द कुमार

पाश्चात्य विद्वान् एवं पाश्चात्य विचारधारा के अनुगामी आधुनिक विद्वान् मनु पर विचार करते समय उसका उल्लेख एवं जीवन-परिचय वेदों में खोजते हैं। उनका कथन है कि ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर व्यक्तिवाचक मनु शद आया है। कहीं उसे पिता कहा है, कहीं प्रारभिक यज्ञकर्त्ता, तो कहीं अग्निस्थापक के रूप में उसका वर्णन है।4

इस चर्चा का उत्तर मनु के मन्तव्य के अनुसार दिया जाये तो अधिक प्रामाणिक होगा। मनु वेदों को ईश्वरप्रदत्त अर्थात् अपौरुषेय मानते हैं। सृष्टि के प्रारभ में ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य के माध्यम से वेदों का ज्ञान दिया। अपौरुषेय होने के कारण वेदज्ञान पूर्णतः ज्ञेय नहीं है, वह अपरिमित है।1 प्रारभ में वेदों से ही शद ग्रहण करके व्यक्तियों और वस्तुओं का नामकरण किया गया।2 मनु द्वारा वेदों को अपौरुषेय घोषित करने के उपरान्त उसी मनु का वेद में इतिहास ढूंढना मनु के विपरीत विचार है, और मनु से पूर्व वेदों का रचनाकाल होने से कालविरुद्धाी है।

वेदों में मनु शद विभिन्न अर्थों में आया है। कहीं वह ईश्वर का पर्यायवाची है,3 कहीं मनुष्य के लिये है,4 कहीं मननशील विद्वान् के लिये है।5 विचारकों को जहां इसके व्यक्तिवाचक होने का आभास होता है, वह वस्तुतः ईश्वरवाचक प्रयोग है। अधिक विस्तार में न जाते हुए, इस विषय में मनुस्मृति का ही एक प्रमाण देकर इस बात को प्रमाणित किया जाता है। ईश्वर का वर्णन करते हुए मनु स्वयं कहते हैं कि उस परमेश्वर को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, जिनमें एक नाम ‘मनु है-

एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्।

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥ 12। 123॥

    इस प्रकार मनु के मन्तव्य के अनुसार वेदों में ‘प्रजापति’ ‘पिता’ आदि विशेषणों से संबोधित मनु ईश्वर ही है। इस आधार पर वेद में मनु का परिचय खोजना मनु के दृष्टिकोण के विरुद्ध है।

आधुनिक मतों के अनुसार स्वायंभुव मनु का काल-डॉ. सुरेन्द कुमार

आधुनिक इतिहासकारों ने प्राचीन मतों को अमान्य करके नये सिरे से समग्र इतिहास पर विवेचन प्रारभ किया हुआ है। ये इतिहासकार अधिकतर पाश्चात्य विद्वानों की कल्पनाओं एवं कार्यपद्धति से प्रभावित हैं। यद्यपि इनके मतों में अनुसन्धान के आधार पर परिवर्तन आता रहता है, तथापि अब तक स्थिर हुए कुछ आधुनिक मतों का यहाँ उल्लेख किया जाता है।

श्री के. एल. दतरी स्वायंभुव मनु का काल 2670 ई. पू. मानते हैं।1 श्री त्र्यं. गु. काले ने पुराणों के आधार पर मनु का काल 3102 ई. पूर्व निर्धारित किया है।2 लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ज्योतिर्विज्ञानीय तत्त्वों के आधार पर प्राचीन वैदिक साहित्य का कालनिर्णय करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार कृत्तिका नक्षत्र में वसन्तारभ के समय ब्राहमण ग्रन्थों की रचना हुई और मृगशिरा नक्षत्र के काल में वैदिक मन्त्रसंहिताओं की रचना हुई। खगोल और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कृत्तिका और मृगशिरा नक्षत्रों में वसन्तारभ क्रमशः आज से 4500 ई.एवं 6500 वर्षों पूर्व हुआ था। इस प्रकार इन ग्रन्थों का काल क्रमशः 2500 ई. पू. तथा 4500 ई0पू0 के लगभग निर्धारित होता है।3 इस आधार पर मनु का काल भी ब्राहमणग्रन्थों से पूर्व इसी कालावधि के निकट निर्धारित होगा।

स्वरचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में धर्मशास्त्र और स्मृतिग्रन्थों के प्रसिद्ध विवेचक डा.पी. वी. काणे ने शतपथ ब्राहमण और तैत्तिरीय संहिता आदि का काल ई. पू. 4000-1000 वर्ष माना है। मनु की जीवनस्थिति इनसे पूर्व की होने के कारण मनु का कालाी इनसे प्राचीन सिद्ध होगा।

संस्कृत साहित्य में मनु के आदिपुरुष होने के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द कुमार

वैदिक तथा लौकिक संस्कृत साहित्य में मनुष्यों को ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि सभी मनुष्य मनु के वंशज हैं अथवा मनु की प्रजाएं हैं। वैदिक संस्कृति में राजा को पिता तथा प्रजा को पुत्रवत् माना जाता था, अतः प्रजाओं को भी सन्तान कहा गया है। राजर्षि मनु भी चक्रवर्ती राजा थे अतः सभी प्रजाएं उनकी सन्तान थीं। मनु का वंश भी अतिविशेष था और महत्त्व भी सर्वोच्च था। इस कारण मनुष्यों के प्रायः सभी मूल संस्कृत नाम ‘मनु’ शद से बने हैं। इसी मान्यता को स्थापित करते हुए वैदिक ग्रन्थ काठक ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय संहिता में कहा है-

‘‘ताःइमाः मानव्यः प्रजाः’’

(काठक0 2.30.2 तथा तैत्ति0 सं0 5.1.5.6)

    अर्थ-ये साी प्रजाएं (मनुष्य) मनु के वंशज हैं।

(ख) आचार्य यास्क निरुक्त में इसी मान्यता को स्थापित करते हैं-                 ‘‘मनोरपत्यं मनुष्यः (मानवः)’’(3.4)

    अर्थ-‘मनु की सन्तान होने के कारण सबको मनुष्य या मानव कहा जाता है।’

(ग) महाभारत में मानव वंश का प्रवर्तक मनु स्वायंभुव को माना है-

मनोर्वंशो मानवानाम्, ततोऽयं प्रथितोऽभवत्।

ब्रह्मक्षत्रादयः तस्मात्, मनोः जातास्तु मानवाः॥

(आदिपर्व 75.14)

    अर्थ-मानव वंश मनु के द्वारा प्रवर्तित है। उसी मनु से यह प्रतिष्ठित हुआ है। सभी मानव मनु की सन्तान हैं अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी उसी मनु के वंशज हैं।

(घ) मनु स्वायभुव ब्रह्मा का पुत्र था। महाभारत में लिखा है-

‘‘पैतामहः मनुर्देवः तस्य पुत्रः प्रजापतिः।’’

                                  (आदिपर्व 66.17)

    अर्थ-‘पितामह ब्रह्मा का पुत्र मनु था। उसको देव और प्रजापतिाी कहते हैं।’

(ङ)  ‘‘स वै स्वायभुवः पूर्वपुरुषो मनुरुच्यते।’’

(ब्रह्माण्ड पुराण 1.2.9)

    अर्थ-‘वह स्वायभुव मनु ‘आदिपुरुष’ या ‘पूर्वपुरुष’ माना जाता है।’

इस प्रकार भारतीय प्राचीन साहित्य और इतिहास के अनुसार मनु मानवों के प्रमुख आदिपुरुष हैं। आदिपुरुष होने के कारण वे मानव जाति द्वारा समादरणीय हैं। मनु के इतिहास के रूप में मानव जाति का आदि इतिहास सुरक्षित है, यह प्रसन्नता का विषय है।