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‘महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द वैदिक विचारधारा के ऋषि, विद्वान, आप्तपुरुष, सन्त, महात्मा सहित देश व समाज के हितैषी अपूर्व महापुरुष थे। उनका जीवन सारी मनुष्य जाति के लिए आदर्श, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। आज के लेख में हम उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण प्रेरणादायक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इनके अध्ययन व अनुकरण से सभी को लाभ होगा।

 

पहली घटना हम बरेली में उनके व्याख्यान की ले रहे हैं जिसका वर्णन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग के पथिक में किया है। बरेली में एक दिन स्वामी जी व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान में नगर के गणमान्य पुरुष और बड़े-बड़े राज-अधिकारी, कमिश्नर आदि सभी उपस्थित थे। व्याख्यान में ईसाई मत की मिथ्या मान्यताओं का खूब खण्डन किया गया। दूसरे दिन व्याख्यान से पूर्व उनसे कहा गया कि आप इतना खण्डन न करें, इससे उच्च अंग्रेज अधिकारी अप्रसन्न होंगे। दूसरे दिन का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान में कमिश्नर आदि सभी उच्च राज्याधिकारी उपस्थित थे। स्वामीजी ने गरज कर कहा-‘‘लोग कहते हैं कि असत्य का खण्डन कीजिए, पर चाहे चक्रवर्ती राजा भी अप्रसन्न क्यों हो जाए, परिणाम कुछ भी हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। अभय से पूर्ण मनुष्य के ऐसे जीवन को ही कहते है ईश्वर की सत्ता और सत्य पर अटल विश्वास।

 

दूसरी घटना कर्णवास में महर्षि दयानन्द के प्रवास की ले रहे हैं। जब स्वामीजी यहां आये थे तो अनूपशहर का एक अच्छा संस्कृतज्ञ विद्वान् पं. हीरावल्लभ अपने कुछ साथियों के साथ शास्त्रार्थ के लिए स्वामीजी के पास आया। सभा संगठित हुई। पं. हीरावल्लभ ने बीच में ठाकुरजी का सिंहासन, जिस पर शालिग्रामादि की मूर्तियां थी, रखकर सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं स्वामीजी से इन्हें भोग लगवाकर ही उठूंगा। छह दिन तक बराबर धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्ररार्थ होता रहा। सातवें दिन पण्डित हीरावल्लभ ने सभा में प्रकट कर दिया कि जो कुछ स्वामीजी कहते हैं वही ठीक है और सिंहासन पर वेद की स्थापना की। महर्षि दयानन्द के सभी उपलब्ध शास्त्रार्थ और प्रवचन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के ग्रन्थ महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन में उपलब्ध हैं। पाठक इस ग्रन्थ का अध्ययन कर इस ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं।

 

कर्णवास की ही एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक दिन स्वामीजी गंगा तट पर उपदेश कर रहे थे। बरौली के राव कर्णसिंह अपने कुछ हथियार-बन्द साथियों सहित वहां आए और बातचीत करते-करते बड़े क्रोध में आकर उन्होंने तलवार खींच कर स्वामीजी पर आक्रमण किया। स्वामीजी ने तलवार छीनकर दो टुकड़े कर दिए और राव को पकड़कर कहा कि ‘मैं तुम्हारे साथ इस समय वही सलूक कर सकता हूं जो किसी ‘‘आततायी (आतंकवादी) के साथ किया जा सकता है। परन्तु मैं संन्यासी हूं, इसलिए छोड़ता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें सुमति देवे।’

 

स्वामी दयानन्द जी का जीवन महान था। उनकी महानता एक उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपनी हत्या का प्रयास करने वाले को न केवल क्षमा कर दिया अपितु वैधानिक दण्ड से भी बचाया। यह घटना अनूपशहर की है। वहां स्वामी जी के सच्चे और स्पष्ट उपदेश से अप्रसन्न होकर एक दुष्ट पुरुष ने स्वामीजी के पास आकर नम्रता प्रदर्शित करते हुए एक पान का बीड़ा उनको भेंट किया। स्वामीजी ने लेकर उसे मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही उन्हें मालूम हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। योग सम्बन्धी बस्ती और न्यौली-क्रियाओं को करके उन्होंने उसके प्रभाव को नष्ट कर दिया। जब यह हाल वहां के मजिस्ट्रेट सैयद मुहम्मद को मालूम हुआ तो उसने उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़कर हवालात में डाल दिया और स्वामीजी के पास आकर अपनी कारगुजारी प्रकट करने आया तो स्वामीजी ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट करके उसे छुड़वा दिया और कहा कि ‘‘मैं दुनिया को कैद कराने नहीं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।

 

स्वामीजी जब उदयपुर में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात माननी चाहिए। इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि –‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है। इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व उच्चतम अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को न मानना चाहिये भले ही इससे उनकी कितनी भी हानि क्यों न हो।

 

उदयपुर की ही एक अन्य घटना है। वहां एक दिन एकान्त में स्वामीजी से महाराजा सज्जनसिंह जी ने कहा कि महाराज ! आप मुर्तिपूजा का खण्डन करना छोड़ दें। यदि आप इसे स्वीकार कर लें तो एक लिंग महादेव के मन्दिर, जिसके साथ लाखों रुपये की जायदाद लगी हुई है, आपकी होगी, और आप सारे राज्य के गुरु माने जाऐंगे। स्वामीजी ने उत्तर दिया–‘‘आपके सारे राज्य से मैं एक दौड़ लगाकर कुछ समय में बाहर जा सकता हूं परन्तु ईश्वर के संसार से दूर नहीं जा सकता, फिर मैं किस प्रकार इस धर्मविरुद्ध तुच्छ प्रलोभन में आकर ईश्वर की आज्ञा भंग करूं। यह है ईश्वर, उसकी व्यवस्था व धर्म में पूर्ण विश्वास और स्वार्थ से रहित सच्चे त्याग का उदाहरण।

 

प्रयाग की एक घटना है। एक दिन स्वामीजी एक सभा में उपस्थित थे। पं. सुन्दरलालजी आदि कुछ सभ्य पुरुष भी उपस्थित थे। स्वामीजी यकायक हंस पड़े। कारण पूछने पर बतलाया कि एक पुरुष मेरे पास आ रहा है, उसके आने पर एक कौतुक दिखाई देगा। थोड़़ी देर बाद एक व्यक्ति स्वामीजी के लिए कुछ विष मिश्रित मिठाई लाकर कहने लगा कि महाराज इसमें से कुछ भोग लगाएं। स्वामीजी ने थोड़ी सी मिठाई उठाकर लानेवाले को दी, उसे कहा कि इसे तुम खाओ, परन्तु उसने मिठाने लेने और खाने से इन्कार कर दिया। स्वामीजी इस पर हंस पड़े और पं. सुन्दरलालजी आदि पुरुषों से कहा कि देखों यह अपने पाप के कारण स्वयं कांप रहा है और लज्जित है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया है अब और दण्ड की आवश्यकता नहीं। यह थी स्वामी दयानन्द जी की योग व ईश्वरोपासना की शक्ति और दयालुता।

 

स्वामीजी की मृत्यु जोधपुर में उन्हें विष दिये जाने के कारण हुई थी। स्वामीजी जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह व महाराजा के निमंत्रण पर पधारे थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में राजाओं के दुव्र्यसनों मुख्यतः राजाओं की वेश्याओं में आसक्ति वा वैश्याचारिता का तीव्र खण्डन किया था। अपनी शिक्षाओं में उन्होने वैश्याओं की उपमा कुतिया से और राजाओं की उपमा शेर से दी थी। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन तो वह करते ही थे। अतः एक षडयन्त्र के अंतर्गत उनके विरोधियों ने उनके पाचक को अपने वश में करके उसके द्वारा स्वामीजी को सितम्बर, 1883 के अन्तिम सप्ताह की एक रात्रि को दूध में जहर डलवाकर पिलवा दिया था। स्वामीजी को इसका पता देर रात्रि तब चला जब उन्हें उदरशूल, दस्त होने के साथ वमन आदि की शिकायत हुई। स्वामीजी को सारी स्थिति का पता चल जाने पर उन्होंने अपने पाचक को पास बुलाकर उसे कुछ रूपये देते हुए कहा कि इन्हें लेकर नेपाल के राज्य आदि किसी ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां तुझे पकड़ा न जा सके और तुझे अपने प्राण न खोने पड़ें। अपने प्राणहंता की इस प्रकार रक्षा कर उन्होंने इतिहास में एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 

स्वामीजी ने पूना में अपने जीवन की घटनाओं विषयक एक उपदेश दिया था। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के निवेदन पर अपनी संक्षिप्त आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनेक खोजपुर जीवन चरित्र प्रकाश में आये जिनमें पं. लेखराम, पं. गोपालराव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, मास्टर लक्ष्मण आर्य, श्री हरविलास सारदा, श्री रामविलास शारदा आदि प्रमुख हैं। यह सभी जीवनचरित रामायण एवं महाभारत की ही भांति आदर्श, प्रेरणादायक तथा पाठक में धर्म के प्रति अनुराग व बोध उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इन्हें पढ़कर एक दस्यु वृत्ति का मनुष्य भी साधू बन सकता है और सच्चा मानव जीवन व्यतीत कर सकता है। पाठकों को इन जीवन चरितों से लाभ उठाना चाहिये। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

            –मनमोहन कुमार आर्य

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सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास पर आपत्तियाँ और  उनका उत्तर – राजेन्द्र जिज्ञासु

 

सत्यार्थ प्रकाश प्रकरण पर अदुल गनी व खलील खान ने जो आक्षेप किया है, उसका विवरण निम्न प्रकार है। पहली बात तो यह आक्षेप ही गलत है, क्योंकि ऋषि दयानन्द कुरान पढ़ना या अरबी भाषा जानते ही नहीं थे।

शाह रफी अहमद देहलवी के उर्दू अनुवाद का जो अन्य मौलवियों ने देवनागरी या हिन्दी में अनुवाद किया है, स्वामी जी ने उसी को ही ज्यों का त्यों लिया है। अनुभूमिका में साफ लिखा है, यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहिबों के तर्जुमों का पहले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे, क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिए है। दो लोगों ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदह समुल्लास का सुरा तहरीम 66 आयत 1 से 5 पर ऋषि ने दो किस्सा या कहानी है लिखा।

आक्षेपकर्ता ने यह कहानी कुरान में नहीं है, ऐसा लिखा तथा कहा- जब यह कहानी नहीं है कुरान में फिर दयानन्द ने क्यों लिखा? अतः दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये। विरोध यही है।

इसका उत्तर है कि कुरान की आयतों के उतरने का कारण है जिसे शानेनुजूल कहा जाता है, अर्थात् किस बिना पर यह आयत उतरी? या किस आधार पर यह आयत उतरी ? वजह क्या थी? इसे शानेनुजूल कहा जाता है।

तो सुरा तहरीम का शाने नुजूल के सभी अनुवाद कर्त्ताओं ने कुरान के फुटनोट में लिखा है, वह अनुवाद उर्दू, हिन्दी व अंग्रेजी सब में है, और विस्तार में बुखारी शरीफ हदीस, व शाही मुस्लिम हदीस में प्रत्येक सुरा का शानेनुजूल लिखा है।

अतः इन आयतों में स्वामी जी ने दो कहानी है लिखा है, परन्तु कहानी को स्वामी जी ने उद्धृत नहीं किया, मैं उन दोनों क हानी को लिखता हूँ उमूल मोमेनीन (मुसलमानों की मातायें) अर्थात् हजरत मुहमद सःआःवःसः की सभी बीबीयाँ, सभी मुसलमानों की मातायें हैं, विधवा होने पर भी वह किसी से निकाह नहीं कर सकतीं, और न कोई मुसलमान उनसे निकाह कर सकता, क्योंकि माँ जो ठहरीं। हजरत जैनब नामी बीवी के पास हजरत साहब शहद पीने को जाया करते थे। हुजूर की सबसे कमसिन पत्नी हजरत आयशा ने एक और पत्नी हजरत हफसा दोनों ने परामर्श कर पति हजरत मुहमद साहब से कहा कि दहन मुबारक से मगाफीर की बू आती है, चुनान्चे आपने क्या खाया?

जवाब में हुजूर ने कहा- अगर शहद पीने से बू आती है, तो आइन्दा मैं शहद का इस्तेमाल नहीं करुँगा। पहली कहानी यह है, और आयत का शानेनुजूल यह है। (मैंने कसम खाली है, तुम किसी से मत कहना)

दूसरी कहानी है कि हजरत साहब ने एक काम को न करने की कसम खा लिया तो अल्लाह ने यह आयत उतारी- ऐ नबी क्यों हराम करते हो उस चीज को? जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तुहारे लिए, अपनी बीविओं के खुशनुदियों के लिए (प्रसन्न के लिए)। हजरत हफसा के घर गए, वह मईके गई भी तो हुजूर ने मारिया, कनीज, के साथ एखतलात किया, हफसा ने दोनों को कमरे में देख लिया- हुजूर ने कसम खाली थी न करने को। तफसीर हक्कानी – पृ.125

एक बार हजरत साहब ने एक पत्नी हफसा से कहा, दूसरों से कहने को मना किया पर हजरत हफसा ने हजरत आयशा नामी पत्नी से कह दी । जिस पर अल्लाह ने पत्नियों को डाँट लगाते हुए कहा कि नबी अगर तुम लोगों को तलाक दें, तो उनकी पत्नियों की कमी नहीं, जिसे कुरान में अल्लाह ने कहा।

असा रबुहू इन तल्लाका ‘कुन्ना अई’ युब दिलाहू अजवाजन खैरम मिन कुन्ना मुसलिमातिम मुमिनातिन, कानेतातिन, तायेनातिन, सायेहातिन, सईये बातिय वा अबकरा। तहरीम – आ. 5

इन दो कहानी का ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में उल्लेख किया है, जो कुरान तथा हदीस में आयत का शानेनुजूल ही इस प्रकार है।

कुरान का अंग्रेजी अनुवादक पिक्यल व एन.जे. दाऊद, हिन्दी अनुवाद नवल किशोर ने भी लिखा है तथा उर्दू अनुवादकों ने भी लिखा है। अवश्य यह लिखना मैं युक्ति-युक्त समझता हूँ उर्दू अनुवादक ने लिखा यह किस्सा पादरियों ने अपने मन से मिला दिया है।

विचारणीय बात है कि ऋषि दयानन्द ने इसी आयत की समीक्षा में लिखा है, अल्लाह क्या ठहरा मुहमद साहब के घर व बाहर का इन्तेजाम करने वाले मुलाजिम ठहरा?

जरा सोचे तो सही कि कुरान का अल्लाह समग्र मानव मात्र का होने हेतु मानव मात्र के लिए उपदेश होना था कुरान का उपदेश।

किन्तु मानव मात्र का उपदेश तो क्या है, नबी के पति-पत्नी का घरेलू वार्तालाप ही अल्लाह का उपदेश है। समग्र कुरान में इस प्रकार अनेक घटनाएँ हैं। यहाँ तक कि नबी पत्नी बदचलन है या नहीं हैं, कुरान में अल्लाह गवाही दे रहे हैं। सुरा नूर-24 आयत 6 पर देखें।

बल्लजीना यरमूना अजवाजहुम व लम या कुल्लाहुम शुहदाऊ इल्ला अन फुसुहुम फ शहादतो अहादेहिम अरबयो शहादतिम बिल्ला हे इन्नाहू लन्स्सिादेकीन।

अब समीक्षा में ऋषि दयानन्द जी ने अपना विचार ही तो अभिव्यक्त किया है, न कि कुरान में यह क्यों लिखा है, यह पूछा?

अपने विचार अभिव्यक्त करने की छूट भारतीय संविधान में सबको है, और मानव बुद्धि परख होने हेतु किसी चीज को मानने के लिए बुद्धि का प्रयोग तो करना ही चाहिये। दयानन्द तो दोषी तब होते, जब अपनी मनमानी बातों को कुरान की आयतों के साथ मिलाते? उन्होंने तो मात्र कुरान की बातों को सामने रखा।

आक्षेप कर्ता ने सुरा कदर जो संया 97 है आयत 1 से 4 को लिखा है, तथा सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप किया है, कुरान में क्या कहा वह प्रथम प्रस्तुत करता हूँ।

तहकीक नाजिल किया हमने कुरान को बीच रात कदर के, और क्या जाने तू के क्या है रात कदर की, रात कदर की बेहतर है, हजार महिने से, उतरते हैं फरिश्ते और रूह पाक अपने परवार दिगार के  हुक्म से, हजार चीजों को लेकर अपने वास्ते, सलामती है वह तुलुय हो फजर। आक्षेप कर्ता को चाहिये था, दयानन्द को गभीरता से पढ़कर कुरान में सभी प्रश्नों को जानने का प्रयत्न करना, क्योंकि दयानन्द ने जो प्रश्न किया है, कुरान से उसका जवाब कुरानविदों के पास नहीं है।

कुरान में कई जगह कहा गया कि कुरान को बरकत वाली रात में उतारा, यहाँ तक कि उल्लहा ने कसम खाकर कहा। एक रात में कुरान को उतारा, किन्तु पूरी कुरान की आयतों को दो भागों में बाँटा गया, मक्की व मदनी में, अर्थात् प्रत्येक सुरा के प्रथम में लिखा है कि यह सुरा मक्का में और यह मदीना में उतारी गई आदि। दयानन्द का कहना सही है कि समग्र कुरान एक ही बार में उतरी? या कालान्तर में? क्योंकि इसका विरोध कुरान से ही होता है।

जो पवित्र आत्मा हजरत जिब्राइल को उतरना इस आयत में माना गया जो ऋषि ने वह पवित्र आत्मा कौन है लिखा, अल्लाह तक पहुँचने में जिब्राइल को पचास हजार साल लगते हैं, तो कुरान को उतरने में कितने वर्ष लगे?

सत्यार्थ प्रकाश पर आक्षेप कर्ताओं ने सुरा बकर-संया 2 आयत 25 से 37 तक का उल्लेख किया है।

सुरा बकर आयत 25 में लिखा- बशारत हैं उनके लिए जो नेक अमल करेंगे, अल्लाह उनको जन्नत में दाखिल करायेंगे, जिसके नीचे नहरे हैं, तरह-तरह के मेवे खाने को मिलेंगे, मेवे (फल) देखने में एक जैसा होगा पर स्वाद अलग-अलग है। खिलाने वाला कहेगा- अरे इसे खाकर देखें इसका स्वाद ही अलग है और वहाँ हुर गिलमों, पवित्र शराब तथा परिन्दों का गोश्त का कबाब भी खाने को मिलेगा, यह प्रमाण पूरी कुरान में अनेक बार आया है। यहाँ तक कि हम उमर औरतें, दिल बहलाने वाली औरतें, बड़ी-बड़ी आँख वाली जैसे मोती का अण्डा, रेशम का कपड़ा पहनकर जिससे तन दिखाई दे सोने के कंगन पहन कर सामान परिवेशन करेंगी- बहुत जगह कुरान में लिखा है।

ऋषि दयानन्द जी ने मात्र जानकारी लेनी चाही कि दुनिया में स्त्री, पुरुष जन्म लेते व मरते हैं, पर जन्नत में रहने वाली सुन्दर स्त्रियाँ अगर सदाकाल वहाँ रहती हैं? तो क्या वह एक जगह रहते -रहते ऊब नहीं जाती होंगी? जब तक कयामत की रात नहीं आवेगी, तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?

मेरे विचारों से सत्यार्थ प्रकाश में दर्शाये गए इन्हीं प्रश्नों को तीस हजारी कोर्ट से न पूछ कर उस्मानगनी व खलील खान को चाहिये था- डॉ. मुति मुकररम से ही पूछते। अब मुति साहब ने इन लोगों को जवाब देने के बजाय सुझाव दे डाला- कोर्ट में जा कर पूछो कि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यह क्यों लिखा?

किन्तु दयानन्द ने जो कुछाी लिखा है, वह कुरान में पहले से ही मौजूद है। अगर कुरान में यह बात न होती तो ऋषि दयानन्द यह न पूछते कि उन सुन्दरी स्त्रियों का एक जगह रहने में मन में घबराहट होती या नहीं? जवाब तो कुरान विचारकों को देना चाहिये। सुरा बकर-आयत 31 से 37 में सत्यार्थ प्रकाश पर जो आरोप है, वह भी निराधार है। अल्लाह ने आदम को सभी चीजों का नाम बता दिया, और फरिश्तों से पूछा कि अगर तुम सच बोलने वाले हो, तो उन चीजों का नाम बताओ। पर वह तो सच बोलने वाले ही थे, तो कहा हम तो उतना ही जानते हैं जितना तू ने हमें सिखाया।

इतने में अल्लाह ने आदम से पूछा, तो वह सभी नाम बता दिया। फिर अल्लाह ने कहा- हम बता नहीं रहे थे तुहें? जाव इन्हें सिजदा करो।

सत्यार्थ प्रकाश में लिखा- ऐसे फरिश्तों को धोखा दे कर अपनी बड़ाई करनााुदा का काम हो सकता है?

इसमें दयानन्द की क्या गलती? अल्लाह ने कुरान में कहा, व अल्ला मा आदमल असमा आ कुल्लाहा सुमा अराजा हुम अललमल इकते।

दयानन्द का कहना है कि जिस फरिश्ते ने आसमानों, और जमीनों में अल्लाह की इतनी इबादत की, अल्लाह ने जिसे आबिद, जाबिद, शाकिर, सालेह, खाशेय आदि नामों की उपाधि दी, और चीजों का नाम नहीं बताया, अब उसी की लाई गई मिट्टी से आदम को बनाकर सभी नाम बताना? क्या यह अल्लाह का धोखा नहीं?

क्या यह अल्लाह का पक्षपात नहीं? मात्र दयानन्द ही क्यों, कोईाी बुद्धि परख मानव इसे दगा ही मानेगा। क्या यह अल्लाह का काम हो सकता है?

अवश्य कुरान में इसकी चर्चा और भी कई जगहों पर हैं, जैसा संया 7 अयराफ में 12 से 19 तक लिखा है, और यहाँ तो उस फरिश्ते ने अल्लाह के सामने अंगुली नचा कर कहा, काला फबिमा अगवई तनी ला अकयूदन्नालहुम सिरातकल मुस्ताकीम-गुमराह किया तू ने मुझको, मैं भी उसे गुमराह करूँगा जो तेरे सीधे रास्ते पर होगा उसे आगे से पीछे से, दाँई और बाँई से उसे गुमराह करूँगा।

अब देखें अल्लाह ने उस शैतान को रोक नहीं पाया, और कहा- जो मेरे रास्ते पर होगा उसे तू गुमराह नहीं कर पायगा। शैतान ने कहा- मैं उसे ही गुमराह करूँगा जो तेरे रास्ते पर होगा, और आदम को गुमराह कर दिखाया।

यह सभी बातें कुरान में ही मौजूद है कि अल्लाह अगर शैतान के पास निरुत्तर हो और कोई मानव अपनी अकल पर ताला डाल कर सत्य बचन महाराज कहे तो इसमें ऋषि दयानन्द की क्या गलती है?

सुरा-2 आयत 37 पर जो आक्षेप है वह देखें, अल्लाह ने कहा- आदम तुम अपने जोरू के साथ वाहिश्त में रहो जहाँ मर्जी, जो मर्जी खाब पर नाजिदीक न जाव उस दरत के गुनहगार हो जावगे, और निकाल दिये जावगे यहाँ से- व कुलना या आदमुस्कुन अनता व जाब जुकल जन्नाता आदि

अब ऋषि दयानन्द ने जो लिखा- देखिये, खुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने को दिया और फिर उसे कहा निकलो, क्या खुदा नहीं जानता था कि आदम मेरा आदेश का उल्लंघन कर उसी फल को खायेगा, जिसे मैंने मना किया? स्वामी जी ने आगे लिखा कि जिस वृक्ष के फल को आदम को खाने से मना किया, आखिर अल्लाह ने उसे बनाया किसके लिए था? यह सभी प्रश्न तो दयानन्द का है, पर उल्टा दयानन्द के अनुयाइयों से पूछा जा रहा है कि दयानन्द ने अपने सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा? यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है।

जहाँ तक अल्लाह की अल्पज्ञता की बात है, वह तो कुरान से ही सिद्ध हो रही है, अल्लाह को पता नहीं था कि शैतान आदम को बहका देगा तथा शैतान हमारे हुकम का ताबेदार नहीं रहेगा आदि। दूसरी बात है कि अल्लाह ने आदम को बताया कि शैतान तुहारा खुला दुश्मन है, उसके बहकावे में मत आना।

और इधर शैतान को वर दे दिया कयामत के दिन तक जिन्दा रहने का, हर मानव के नस, नाड़ी तक पहुँचने का, व सीधे रास्ते पर चलने वालों को गुमराह (पथभ्रष्ट) करने का, अल्लाह ने ही मुहल्लत दी। ऋषि दयानन्द को इसीलिए लिखना पड़ा- यह काम अल्लाह का नहीं, और न ही यह उसकी ग्रन्थ की हो सकती है।

यहाँ अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्थ को सतर्क रहने वाली बात की है। इसका प्रमाण भी कुरान के दो स्थानों पर मौजूद है, जैसा-सुरा इमरान आयत 54 तथा अनफाल-आ030- व मकारू व मकाराल्लाहू बल्लाहू खैरुल मारेकीन।

अर्थ- मकर करते हैं वह, और मकर करता हूँ मैं, और मैं अच्छा मकर करने वाला हूँ। ध्यान देने योग्य बात है कि मकर का अर्थ है धोखा और अल्लाह से अच्छा धोखा करने वाला कोई नहीं, जो अल्लाह खुद कर रहे हैं अपनी कलाम में, अब अल्लाह व अल्लाह की कलाम की दशा क्या होगी? ऋषि दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में यही तो जानकारी इस्लाम के शिक्षाविदों से लेना चाह रहे हैं। अब प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कोई कहे कि सत्यार्थ प्रकाश में क्यों लिखा,उसका तो ईश्वर ही मालिक है। एक बात और भी जानने की है, ऊपर लिख आया हूँ शानेनुजूल को, कि आयत उतारने का कारण क्या है। इसका मतलब भी यह निकला- अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है, जो ऋषि ने अनभिज्ञ लिखा है। अगर कारण नहीं होता, तो अल्लाह आयत नहीं उतरते। कारण हो सकता है, यह ज्ञान कारण से पहले अल्लाह को नहीं था।

कुरान में ही अल्लाह ने कहा- ला तकर बुस्सलाता व अनतुम सुकाराआ। अर्थ- न पढ़ो नमाज जब कि तुम शराब की नशे में हो।

अर्थात् शराब पीकर नमाज नही पढ़नी चाहिये।

अब इसका शाने नुजूल देखें, एक सहाबी (मुहमद साहब का साथी) शराब पीकर नमाज पढ़ा रहे थे, नशे की दशा में कुरान की आयतों को पढ़ने का क्रम भंग किया, तो दूसरे ने हजरत से शिकायत की, तो अल्लाह ने यह आयात जिब्राइल के माध्यम से उतारी।

यह आयत उतरते ही सभी अरबवासी जो घर-घर शराब बनाते थे, सब ने शराब बहादी नालाओं में शराब बहने लगा, आदि।

इससे यह पता चला कि शराब पीने से नशा होता है, यह ज्ञान अल्लाह को नहीं था वरना शराब तो प्रथम से ही हराम होना था? अगर वह सहाबी कुरान पढ़ने का क्रम नशा में भंग न करते, तो अल्लाह को यह आयत उतारना ही नहीं पड़ता।

ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में यही तर्क पूर्ण बातें की हैं, अगर कोई अक्ल में दखल न दे, या अक्ल में ताला डालना चाहे तो ऋषि दयानन्द की क्या गलती है? दयानन्द ने साफ कहा है कि हठ और दुराग्रह को छोड़ मानव मात्र का भलाई जिससे हो, सत्य के खातिर काम करना चाहिये, मानव बुद्धि परख होने हेतु प्रत्येक कार्य को बुद्धि से करना चाहिये, क्योंकि इसी का ही नाम मानवता है। सुरा 2 आयत 87 को अगर ध्यान से पढ़ते तो शायद आक्षेप न कर पाते, क्योंकि सत्यार्थ प्रकाश में ऋषि दयानन्द ने कुरान में कही गई बातों को ज्ञान विरुद्ध तथा सृष्टि नियम विरुद्ध सिद्ध किया है। हजरत मूसा को अल्लाह ने अगर किताब दी, उसमें क्या कमी थी जो पुनः ईसा को अलग किताब देनी पड़ी? उससे पहले दाऊद को भी किताब दी थी, उसमें कौन-सी बातों को अल्लाह कहना भूल गये थे, जो अन्तिम में कुरान के रूप में हजरत मुहमद को अल्लाह ने दिया?

अल्लाह का ज्ञान पूर्ण है अथवा अधूरा? क्योंकि परमात्मा का ज्ञान पूर्ण होना आवश्यक है और सार्वकालिक, सार्वदेशिक, सार्वभौमिक होना चाहिये। कुरान इसमें खरा नहीं उतरता। हजरत मूसा ने मौजिजा दिखाया और नबिओं ने भी मौजिजा दिखाया, मौजिजा का अर्थ है चमत्कार। अगर चमत्कार तब होते थे, तो अब क्यों नहीं?

अगर चमत्कार से हजरत मरियम कुँवारी अवस्था में हजरत ईसा को जन्म देना मान लिया जाय, तो क्या सृष्टि नियम विरुद्ध नहीं होगा? कोई मेडिकल साइंस का जानने वाला इसे सही ठहरा सकता है? इसे अल्लाह ने सुरा अबिया-आयत-88 में क्या कहा, देखें- वल्लाति अहसनत फरजहा फनाफखना फीहा मिर रूहिना वज अलनाहा वबनहा

– कि अल्लाह ने मरियम के शर्मगाह (गुप्तइन्द्रियों) में फूँक मार दिया और मरियम गर्भवती हो गई।

कोई भी बुद्धिमान इस बात को ईश्वरीय ज्ञान तथा ईश्वरीय कार्य कैसे मान सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने लिखा है, भोले-भाले लोगों को बहकाया गया है।

अगर ऋषि दयानन्द अपने कार्यकाल में इस पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश को न लिखते, तो आर्य जाति को बचने का रास्ता बन्द था। सारा भारत कुरान का मानने वाला बन जाता, या बलात् बना दिया जाता। दयानन्द का बहुत बड़ा उपकार है इस पुस्तक को लिखने का।

गुरुदत्त विद्यार्थी ने कहा- अगर सारी सपत्ति बेचकर भी सत्यार्थ प्रकाश खरीदना पढ़े तो भी इसका मूल्य कम है। मैं इसे अवश्य खरीदता।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः राजेन्द्र जिज्ञासु

यह इतिहास नहीं, इतिहास का उपहास हैः- दिल्ली के करोलबाग क्षेत्र के एक माननीय, सुयोग्य और अनुभवी आर्य पुरुष ने योगी श्री सच्चिदानन्द व आदित्यपाल कपनी द्वारा प्रचारित ‘योगी का आत्म चरित’ पुस्तक में वर्णित सामग्री पर चलभाष पर कुछ चर्चा की। आपने कहा,‘‘मुझे तड़प झड़प’ पढ़े बिना चैन नहीं आता’’। सन् 1857 के विप्लव में महर्षि के भाग लेने पर प्रकाश डालने को आपने कहा।

मेरा निवेदन है कि मेरठ से इस विषय की उत्तम पुस्तक का नया संस्करण छप चुका है। स्वामी पूर्णनन्द जी महाराज ने इसमें दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया है। मैं भी श्री दीनबन्धु, सच्चिदानन्द महाराज व आदित्यपाल सिंह के एतद्विषयक दुष्प्रचार को एक षड्यन्त्र मानता हूँ। आप निम्न बिन्दुओं पर विचार करेंः-

  1. 1. ऋषि जी ने यह तथाकथित सामग्री अपने किसी भक्त, शिष्य वैदिक धर्मी को क्यों न दिखाई या लिखवाई?
  2. 2. ऋषि ने ठाकुर मुकन्दसिंह व भोपाल सिंह जी को अपने साहित्य के प्रसार के लिए कोर्ट में मुखतार बनाया। परोपकारिणी सभा का प्रधान महाराणा सज्जनसिंह जी को बनाया । इन्हें तो अपनी तीस वर्ष की घटनाओं का एक भी पृष्ठ न लिखवाया। इसका कारण क्या है?
  3. 3. ऋषि दयानन्द सरीखे दूरदर्शी ने एक ही को यह कहानी क्यों न लिखवाई? चार को क्यों लिखवाई? गोपनीयता क्या चार को लिखवाने से रह सकती थी?
  4. 4. इन चार ब्रह्मचारियों का ऋषि के नाम कभी कोई पत्र किसी ने देखा? क्या ऋषि ने इन्हें कभी कोई पत्र लिखा?
  5. 5. इन बगले भक्तों में से बंगाल से ऋषि की सेवा के लिए क्या कोई अजमेर पहुँचा?
  6. 6. महर्षि के दाहकर्म में ब्रह्म समाजी की इस चौकड़ी में से अजमेर किसी ने दर्शन दिये क्या?
  7. 7. ऋषि के मुख से ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की बहुत प्रशंसा व बड़ाई इन धोखाधड़ी करने वालों ने करवाई है। इतिहास प्रदूषित करने वाले इन नवीन पुराणकारों को इतना भी तो पता नहीं कि कोलकाता की पौराणिकों की जिस सभी ने दक्षिणा लेकर ऋषि के विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी थी, उस व्यवस्था पर ईश्वरचन्द्र जी विद्यासागर तथा गो-मांस भक्षण के प्रचारक राजेन्द्र लाल मित्र के भी हस्ताक्षर थे।
  8. 8. ऋषि जब लँगोटधारी थे, वस्त्र नहीं पहनते थे, तब शरीर पर मिट्टी रमाते थे। इसी अवस्था में एक बार छलेसर पधारे। छलेसर वालों ने एक मूल्यवान् पशमीना बिछाकर उस पर बैठने की विनती की तो ऋषि ने कहा- यह ठीक नहीं। आपका मूल्यवान् पशमीना गन्दा हो जायेगा। उन्होंने अनुरोध करके वहीं बैठने पर बाध्य किया। छलेसर के ठाकुरों की सेवा के लिये ऋषि ने कभी गुणकीर्तन क्यों न किया? कोई आदर्श संन्यासी तिरस्कार से क्रुद्ध होकर किसी को कोसता नहीं और सत्कार पाकर किसी का भाट बनकर उनके गीत नहीं गाया करता। कोलकाता में कोई अपने यहाँ ठहराने को तैयार नहीं था। क्या ऋषि ने उन्हें कोसा? कहीं भी किसी से ऐसी किसी घटना की ऋषि ने कभी भी चर्चा नहीं की। ब्रह्म समाजियों ने बंगाल में की गई सेवाओं पर ऋषि के मुख से जो प्रशंसा करवाई है- यह ऋषि के चरित्र हनन का षड्यन्त्र है।
  9. 9. महर्षि ने सत्यार्थ प्रकाश के तेहरवें समुल्लास में बाइबल की दो आयतों की समीक्षाओं में दार्शनिक विवेचन के साथ सूली व साम्राज्य, विदेशी शासकों की न्यायपालिका व लूट खसूट पर कड़ा प्रहार करके इतिहास रचा है। भारत में अंग्रेजों के न्यायालयों व शोषण पर ऐसी तीखी आलोचना करने वाले प्रथम विचारक व देशभक्त नेता ऋषि दयानन्द थे। महर्षि की अज्ञात जीवनी का ढोल पीटने वालों के ज्ञात इतिहास से ऋषि की निडरता की इन दो समीक्षाओं के महत्त्व का पता ही न चला। इन पर न कभी कुछ लिखा व कहा गया।
  10. 10. महर्षि जब जालंधर पधारे, तब भी विदेशी न्यायपालिका द्वारा गोरों के विदेशी के साथ भेदभाव पर कड़ा प्रहार किया।3 भारतीय की हत्या के दोषी गोरे अपराधी को दोषमुक्त करने पर ऋषि के हृदय की पीड़ा का इन्हें पता ही न चला। पं. लेखराम धन्य थे, जिन्होंने साहस करके यह घटना दे दी। फिर केवल लक्ष्मण जी ने यह प्रसंग लिखा। न जाने अन्य लेखकों ने इसे क्यों न दिया?
  11. 11. ऋषि की प्रतिष्ठा के लिए ऐसी सच्ची घटनायें क्या कम हैं? उन्हें महिमा मण्डित करने के लिए असत्य की, झूठे इतिहास की आवश्यकता नहीं है।

स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म व संस्कृति के सर्वाधिक प्रेमी ऐतिहासिक देशवासी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

धर्म व संस्कृति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य प्रकट होता है कि महाभारत काल में ह्रासोन्मुख वैदिक धर्म व संस्कृति दिन प्रतिदिन पतनोन्मुख होती गई। महाभारत युद्ध का समय लगभग पांच हजार वर्ष एक सौ वर्ष है। महाभारत काल तक भारत ही नहीं अपितु समूचे विश्व में वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार रहा है। यह भी तथ्य है कि विश्व में आज से पांच हजार वर्ष पूर्व कोई अन्य मत, धर्म व संस्कृति थी ही नहीं। वेद-आर्य धर्म के पतन का कारण ऋषि-मुनि कोटि के विद्वानों व आचार्यों का अभाव व कमी ही मुख्यतः प्रतीत होती है। महाभारत युद्ध में देश के बड़ी संख्या में अनेक राजा, क्षत्रिय व विद्वान मृत्यु को प्राप्त हुए। इससे राजव्यवस्था में खामियां उत्पन्न हुई। वर्ण-संकर का कारण भी यह महाभारत युद्ध था। वैदिक वर्ण व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त हो गई और उसका स्थान जन्मना जाति व्यवस्था, जिसे महर्षि दयानन्द ने मरण व्यवस्था कहा है, ने ले लिया। ऋषि-मुनियों व वेदों के विद्वानों की कमी व प्रजा द्वारा धर्म-कर्म में रुचि न लेने के कारण अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न होने आरम्भ हो गये थे जो उन्नीसवीं शताब्दी, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व, अपनी चरम अवस्था में पहुंच चुके थे। लोगों को यह पता ही नहीं था कि यथार्थ धर्म जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार आदि ऋषियों को दिये गए चार वेदों ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ज्ञान से आरम्भ हुआ था, वह प्रचलित अज्ञान व अन्धविश्वासयुक्त मत वा धर्म से कहीं अधिक उत्कृष्ट व श्रेष्ठ था व है। सौभाग्य से देश के सौभाग्य का दिन तब आरम्भ हुआ जब महर्षि दयानन्द के विद्या गुरू स्वामी विरजानन्द जी का जन्म पंजाब के करतारपुर की धरती पर हुआ। बचपन में उनके माता-पिता का देहान्त हो गया था। शीतला अर्थात् चेचक का रोग होने के कारण आपकी दोनों आंखे बचपन में ही चली गई। आपके भाई व भाभी का स्वभाव व व्यवहार आपके प्रति उपेक्षा व प्रताड़ना का था। अतः आपने गृह त्याग कर दिया। आपको घर से न जाने देने व रोकने वाला तो कोई था ही नहीं। अतः आप घर छोड़ने के बाद ऋषिकेश, हरिद्वार व कनखल आदि स्थानों पर रहकर तपस्या व साधना करते रहे। संस्कृत का अध्ययन भी आपने किया। विद्या ग्रहण के प्रति उच्च भाव संस्काररूप में आपमें विद्यमान थे जिसका लाभ यह हुआ कि आप नेत्रहीन होने पर भी संस्कृत व वैदिक ज्ञान से सम्पन्न हुए जो कि विगत पांच हजार वर्षों में हुए अन्य विद्वानों के भाग्य में नहीं था।

 

इतिहास में स्वामी दयानन्द जी का व्यक्तित्व भी अपूर्व व महान है। वह भी 14 वर्ष की अवस्था में सन् 1839 की शिवरात्रि के दिन व्रत व पूजा में अज्ञान व अन्धविश्वास की बातों का प्रमाण अपने शिवभक्त पिता से मांगते हैं। उनका समाधान न पिता और न ही अन्य कोई कर पाता है। उनमें सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने का संस्कार वपन हो जाता है। शिवरात्रि की घटना के बाद मूलशंकर, स्वामी दयानन्द का जन्म का नाम, की बहिन और चाचा की मृत्यु हो जाती है। अब उन्हें मृत्यु से डर लगता है। वह मृत्यु का उपाय जानने की कोशिश करते हैं, परन्तु उनका निश्चित समाधान घर पर रहकर नहीं होता। अतः वह अपने प्रश्नों के समाधान के लिए बड़े योगियों व विद्वानों की शरण में जाने के लिए अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर का त्याग कर निकल पड़ते हैं। स्वामी विरजानन्द जी के पास सन् 1860 में पहुंच कर व उनसे लगभग 3 वर्ष अध्ययन कर उनकी सभी इच्छायें पूरी होती है। समाधि सिद्ध योगी तो वह गुरु विरजानन्द जी के पास आने से पहले ही बन चुके थे। अब वह वेद विद्या में निष्णात भी हो गये। स्वामी विरजानन्द जी से विदा लेने से पूर्व स्वामी दयानन्द अपने गुरु के लिए उनकी प्रिय वस्तु लौंग दक्षिणा के रूप में लेकर उपस्थित होते हैं। गुरुजी इस दक्षिणा को स्वीकार करते हुए दयानन्द जी से अपने मन की बात कहते हैं। उन्होंने कहा कि सारा देश ही नहीं अपितु विश्व अज्ञान व अन्धविश्वासों की बेडि़यों में जकड़ा हुआ है जिससे सभी मनुष्य नानाविध दुःख पा रहे हैं। उन्हें दूर करने का एक ही उपाय है कि वेदों के ज्ञान का प्रचार कर समस्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर किया जाये। गुरुजी स्वामीजी से वेदों का प्रचार कर मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन करने का आग्रह करते हैं। उत्तर में स्वामी दयानन्द अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर उसके अनुसार अपना जीवन अर्पित करने का वचन देते हैं। गुरुजी दयानन्दजी के उत्तर से सन्तुष्ट हो जाते हैं। स्वामी दयानन्द का इस घटना के बाद का सारा जीवन अज्ञान पर आधारित अन्धविश्वासों के खण्डन, समाज सुधार व सत्य ज्ञान के भण्डार वेदों के प्रचार में ही व्यतीत होता है।

 

स्वामी दयानन्द जी ने गुरुजी से विदा लेकर मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियों का खण्डन करने के साथ वेदों की शिक्षाओं का प्रचार किया। वह एक-एक करके अनेक स्थानों पर जाते, वहां प्रवचन देते, लोगों से मिलकर उनकी शंकाओं का समाधान करते, पौराणिक व इतर मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ करते और वेदों के प्रमाणों व युक्तियों से अपनी बात मनवाते थे। 16 नवम्बर, 1869 को काशी में मूर्तिपूजा पर वहां के शीर्षस्थ लगभग 30 पण्डितों से उनका विश्व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ जिसमें वह विजयी होते हैं। इसके बाद उन्होंने आर्यसमाजों की स्थापना, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेद भाष्य, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया तथा परोपकारिणी सभा की सथापना की।  इन सबका उद्देश्य देश व विश्व से धार्मिक अज्ञान, अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता तथा सभी सामाजिक कुरीतियों को दूर कर वैदिक धर्म की विश्व में स्थापना करना था जिससे संसार से दुःख समाप्त होकर सर्वत्र सुख व आनन्द का वातावरण बने।

 

स्वामी विरजानन्द जी और स्वामी दयानन्द के जीवन का सबसे बड़ा गुण उनका ईश्वर के सच्चे स्वरुप का ज्ञान, उसके प्रति पूर्ण समर्पण, वेदों का यथार्थ ज्ञान तथा उसके प्रचार व प्रसार की प्रचण्ड व प्रज्जवलित अग्नि के समान तीव्रतम प्रबल व दृण भावना का होना था। अज्ञान व अन्धविश्वास सहित सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक कुरीतियां उन्हें असह्य थी। उन्होंने प्राणपण से वेदों का प्रचार कर अज्ञान के तिमिर का नाश किया। उन दोनों महापुरुषों के समान वेदों का ज्ञान रखने वाला व उनके प्रचार व प्रसार के लिए अपनी प्राणों को हथेली पर रखने वाला उनके समान ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देशभक्त, ईश्वर-वेद-धर्म का प्रचारक, अद्वितीय ब्रह्मचारी, माता-पिता-परिवार-गृह-संबंधियों का त्यागी व हर पल समाज, देश व मानवता के कल्याण का चिन्तन व तदनुरुप कार्यों को करने वाला महापुरुष दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने अपने जीवन में जो कार्य किया, वह आदर्श कार्य था जो ईश्वर द्वारा प्रेरित होने सहित उसे करने की समस्त शक्ति व बल भी उन्हें ईश्वर की ही देन था। यदि यह दोनों महापुरुष यह कार्य न करते तो हमें लगता है कि कुछ समय बाद वैदिक धर्म व संस्कृति संसार से विदा हो कर इतिहास की वस्तु बन जाती। स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द जी ने परस्पर मिलकर जो कार्य किया उसे अभूतपूर्व कह सकते हैं। महर्षि दयानन्द जैसा ईश्वर-वेद-देश-समाज भक्त दूसरा मनुष्य नहीं हुआ है। उन्होंने संसार के लोगों को सच्चा मार्ग दिखाया। उसी मार्ग का अनुसरण कर ही मनुष्य अपनी आत्मा की उन्नति कर सकता है, अपने भविष्य व मृत्योत्तर जीवनों व जन्मों को संवार सकता है और धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। यही मनुष्य जीवन का चरम व प्रमुख उद्देश्य व लक्ष्य है। अपने गुणों व कार्यों से न केवल गुरु विरजानन्द अपितु महर्षि दयानन्द भी सूर्य व चन्द्र की समाप्ति तक अमर रहेंगे। इन दोनों महान आत्माओं का विश्व के इतिहास में अद्वितीय व अमर स्थान बन गया है। उनके प्रयासों के परिणाम से हम निःसंकोच वैदिक धर्म को भविष्य का विश्व धर्म भी कह सकते हैं जिसमें सभी मनुष्यों का सुख व कल्याण निश्चित रुप से निहित है। अन्य कोई मार्ग व पथ मनुष्य जीवन व देश की उन्नति व दुःखों से मुक्ति का नहीं है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001/फोनः09412985121

ऋषि की एक ओर दिग्विजयःराजेन्द्र जिज्ञासु

सर सैयद अहमद खाँ को ऋषि का भक्त प्रशंसक बताकर उनका गुणगान कराना भी एक फैशन-सा हो गया । श्री रामगोपाल का पठनीय ग्रन्थ ‘इण्डियन मुस्लिम’ पढ़ें। सर सैयद का गुणकीर्तन करने से न तो देश का हित हो रहा है और न ऋषि मिशन को लाभ मिल रहा है। लाभ तो अलगाववादी तत्त्वों को मिल रहा है। हमारे विचार में सर सैयद ने ऋषि की संगत का लाभ उठाकर इस्लाम को लाभान्वित किया है। उस दिग्विजय पर हमारे विचारकों-प्रचारकों को बोलना चाहिये। हमारे पुराने विद्वानों व शास्त्रार्थ महारथियों ने 50-60 वर्ष पूर्व जितनी खोज कर दी, सो कर दी। अब इस विषय में क्या हो रहा है, ये सब जानते हैं। मैंने इस विषय में अब तक जो लिखा है उससे आगे कुछ और निवेदन किया जाता है। यह महर्षि का पुण्यप्रताप है कि सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को यह सुझाया व समझायाः-

  1. 1. कुरान मजीद में बदर इत्यादि के युद्धों में फरिश्तों की सहायता का वर्णन मिलता है। इससे उन युद्धों में फरिश्तों का आना सिद्ध नहीं होता।
  2. 2. हजरत ईसा की बिना पिता के उत्पत्ति किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती।
  3. 3. नबी पर जो वही (ईश्वरीय ज्ञान-आयतें) नाजिल होती है, वह किसी सन्देशवाहक (फरिशता) के द्वारा नहीं उतरती। यह उसके हृदय में उतरती है।
  4. 4. कुरान से जिन्नों की सत्ता, उनमें भी नर व नारी का होना तथा आगे से उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता। जिन्न मनुष्य को हानि पहुँचा सकते हैं-ऐसी बातें जो कुरान में वर्णित हैं, सृष्टि नियम विरुद्ध हैं। कुरान के भाष्यकारों ने यहूदियों का अनुकरण करके ऐसी व्यायायें की हैं।
  5. 5. कुरान में पैगबर के किसी भी चमत्कार का उल्लेख नहीं मिलता। चमत्कार नबूअत की युक्ति नहीं हो सकती।

पाठकों को बता दें कि कुरान के एक भाष्यकार ने कुरान में आये ‘जिन्न’ शद के बहुवचन ‘जिन्नात’ का कतई कुछ भी अर्थ नहीं दिया। सर सैयद ने इनका अग्नि से उत्पन्न होना तो झुठलाया ही है, साथ ही इनमें नर व नारी का होना भी नहीं माना। इस्लामी विचारधारा में सर सैयद की सोच ने जो हड़कप मचाया, यह महर्षि दयानन्द की बहुत बड़ी दिग्विजय है।

यह भी स्मरण रहे कि कुरान में अल्लाह द्वारा धरती व आकाश को छह दिन में बनाने का उल्लेख मिलता है। सर सैयद ने इसका प्रयोजन भी यहूदियों के मत का प्रतिवाद करना ही बताया है।2 प्रश्न यह है कि सर सैयद को भी यह तभी सूझा, जब महर्षि ने ईसाई मत की इस मान्यता का खण्डन किया ।

सर सैयद ने भले ही सीधे वैदिक धर्म को ग्रहण नहीं किया, उसने कुरान को एवं इस्लाम को वैदिक विचारधारा के  रंग में रंग दिया।

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखःराजेन्द्र जिज्ञासु

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखः- आर्य समाज के निष्ठावान् कार्यकर्त्ताओं, उपदेशकों, प्रचारकों व संन्यासियों से हम एक बार फिर सानुरोध यह निवेदन करेंगे कि ‘समाचार प्रचार’ की बजाय सैद्धान्तिक प्रचार पर शक्ति लगाकर संगठन को सुदृढ़ करें। समाज में जन शक्ति होगी तो राजनीति वाले पूछेंगे। राजनेता वोट व नोट की शक्ति को महत्त्व देंगे। बिना शक्ति के राजनेताओं का पिछलग्गू बनना पड़ता है। आर्य समाज को अपने मूलभूत सिद्धान्तों की विश्वव्यापी दिग्विजय और मौलिकता के साथ-साथ अपने स्वर्णिम इतिहास को प्रतिष्ठापूर्वक प्रचारित करने पर अपनी शक्ति लगानी चाहिये।

‘परोपकारी’ के पाठकों को यह जानकारी दी जा चुकी है कि भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम फिलौरी की एक जीवनी छापी है। इसमें बिना सोचे-विचारे ऋषि दयानन्द पर निराधार प्रहार किये गये हैं। ‘इतिहास की साक्षी’ नाम की पुस्तक छपवाकर सभा ने पं. श्रद्धाराम के शदों में ऋषि की महानता व महिमा तो दर्शा ही दी है। साथ ही पं. श्रद्धाराम के साथी पं. गोपाल शास्त्री जमू एवं पं. भानुदत्त जी के ऋषि के प्रति उद्गार विचार भी दे दिये हैं।

यहाँ एक तथ्य का अनावरण करना आवश्यक व उपयोगी रहेगा। हम सबको पूरे दलबल से इसे प्रचारित करना होगा। परोपकारी में प्रकाशित काशी शास्त्रार्थ पर प्रतिक्रिया देते हुए एक सुयोग्य सज्जन ने एक प्रश्न पूछा तो उसे बताया गया कि इस घटना के 12 वर्ष पश्चात् देश के मूर्धन्य सैंकड़ों विद्वानों का जमघट वेद से मूर्तिपूजा का एक भी प्रमाण न दे सका। इससे बड़ी ऋषि की विजय और क्या होगी?

सत सभा लाहौर के प्रधान संस्कृतज्ञ पं. भानुदत्त मूर्तिपूजा के पक्ष में नहीं थे। पं. श्रद्धाराम आदि पण्डितों के दबाव में इन्होंने ऋषि का विरोध करने के लिए नवगठित मूर्तिपूजकों की सभा का सचिव बनना स्वीकार कर लिया। प्रतिमा पूजन के पक्ष में व्यायान भी दिये।

जब कलकत्ता की सन्मार्ग संदर्शिनी सभा ने महर्षि को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना उनके विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी तब पं. भानुदत्त जी ने बड़ी निडरता से महर्षि के पक्ष में एक स्मरणीय लेख दिया। इनकी आत्मा देश भर के दक्षिणा लोभी पण्डितों की इस धाँधली को सहन न कर सकी।

श्री पं. भानुदत्त जी का कड़ा व खरा लेख कलकत्ता के ही एक पत्र में उक्त सभा के 19 दिन पश्चात् प्रकाशित हुआ था। आपने लिखा, ‘‘हा नारायण! यह क्या हो रहा है? एक पुरुष है और 100 ओर से उसे घसीटता है (अर्थात् घसीटा जाता है)। राजा राममोहन राय उठे, उसके बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर आये, फिर केशवचन्द्र सेन आये, और उनके बाद स्वामी दयानन्द जाहिर हो रहे हैं। सपादक महाशय! जब यह दशा हमारे देश की है, तो फिर बिना तर्क और वादियों के ग्रन्थ देखे घर में ही फैसला कर देना किसी प्रकार से योग्य नहीं प्रतीत होता, और न तो इससे वादियों के मत का खण्डन और साधारण समाज की सन्तुष्टि ही हो सकती है। सब यही कहेंगे कि सब कोई अपने-अपने घर में अपनी स्त्री का नाम ‘महारानी’ रख सकते हैं। अवतार आदि के मानने वालों तथा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा के स्थापन करने वालों को पूछो कि कभी दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘वेदभाष्य’ का प्रत्यक्ष विचार भी किया है? ………….प्रिय भ्राता! यदि कोई मन में दोख न करे तो ऐसी सभा के वादियों को इस बात के कहने का स्थान मिलता कि सरस्वती जी (ऋषि दयानन्द) के समुख होकर शास्त्रार्थ कोई नहीं करता, अपने-अपने घरों में जो-जो चाहे ध्रुपद गाते हैं।’’1

जिस पं. भानुदत्त को ऋषि के मन्तव्यों के खण्डन के लिए आगे किया गया, वही खुलकर लिख रहा है कि महर्षि के सामने खड़े होने का किसी में साहस ही नहीं। ऋषि जीवन के ऐसे-ऐसे प्रेरक प्रसंग तो वक्ता भजनोपदेशक सुनाते नहीं। ऋषि की वैचारिक मौलिकता व दिग्विजय की चर्चा नहीं होती। अज्ञात जीवनी की कपोल कल्पित कहानियाँ सुनाकर जनता को भ्रमित किया जाता है।

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता: डॉ धर्मवीर

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता

ऋषि दयानन्द के जीवन में कई विलक्षणताएँ हैं, जैसे-

घर न बनानाकिसी भी मनुष्य के मन में स्थायित्व का भाव रहता है। सामान्य व्यक्ति भी चाहता है कि उसका कोई अपना स्थान हो, जिस स्थान पर जाकर वह शान्ति और निश्चिन्तता का अनुभव कर सके। एक गृहस्थ की इच्छा रहती है कि उसका अपना घर हो, जिसे वह अपना कह सके, जिस पर उसका अधिकार हो, जहाँ पहुँचकर वह सुख और विश्रान्ति का अनुभव कर सके।

यदि मनुष्य साधु है तो भी उसे एक स्थायी आवास की आवश्यकता अनुभव होती है। उसका अपना कोई मठ, स्थान, मन्दिर, आश्रम हो। वह यदि किसी दूसरे के स्थान पर रहता है तो भी उसे अपने एक कमरे की, कुटिया की इच्छा रहती है, जिसमें वह अपनी इच्छा के अनुसार रह सके, अपने व्यक्तिगत कार्य कर सके, अपनी वस्तुओं को रख सके।

ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। घर से निकलने के बाद उन्होंने कभी घर बनाने की इच्छा नहीं की। उन्हें अनेक मठ-मन्दिरों के महन्तों ने अपने आश्रम देने, उनका महन्त बनाने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु ऋषि ने उन सबको ठुकरा दिया। राजे-महाराजे, सेठ-साहूकारों ने उन्हें अपने यहाँ आश्रय देने का प्रस्ताव किया, परन्तु ऋषि ने उनको भी अस्वीकार कर दिया। ऐसा नहीं है कि ऋषि को इसकी आवश्यकता न रही हो। ऋषि ने वैदिक यन्त्रालय के लिये स्थान लिया, मशीनें खरीदीं, कर्मचारी रखे, परन्तु उसको अपने लिये बाधा ही समझा। पत्र लिखते हुए ऋषि ने लिखा- आज हम गृहस्थ हो गये, आज हम पतित हो गये। इसमें उनकी इस आवश्यकता के पीछे की विवशता प्रकाशित होती है।

एक ऋषि भक्त मास्टर सुन्दरलाल जी ने ऋषि को लिखा- आपकी लिखी-छपी पुस्तकें मेरे घर में रखी हैं, उन्हें कहाँ भेजना है? तब ऋषि ने बड़ा मार्मिक उत्तर सुन्दरलाल को लिखा- मेरा कोई घर नहीं है, तुहारा घर ही मेरा घर है, मैं पुस्तकों को कहाँ ले जाऊँगा? इस बात से उनकी निःस्पृहता की पराकाष्ठा का बोध होता है।

पशुओं के अधिकारों की रक्षा बहुत लोग दया परोपकार का भाव रखते हैं, वे प्राणियों पर दया करते हैं, उनकी रक्षा भी करते हैं, परन्तु ऋषि पशुओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। पशुओं की रक्षा के लिए समाज के सभी वर्गों से आग्रह करते हैं, उनके विनाश से होने वाली हानि की चेतावनी देते हैं, ऋषिवर कहते हैं- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है। ऋषि ने कहा है- हे धार्मिक सज्जन लोगो! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय!! बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे आदि पशु और मोर आदि पक्षियों को मारने के लिये ले जाते हैं, तब वे अनाथ तुम हमको देखके राजा और प्रजा पर बड़े शोक प्रकाशित करते हैं-कि देखो! हमको बिना अपराध बुरे हाल से मारते हैं और हम रक्षा करने तथा मारनेवालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिये उपस्थित रहना चाहते हैं और मारे जाना नहीं चाहते। देखो! हम लोगों का सर्वस्व परोपकार के लिये है और हम इसलिये पुकारते हैं कि हमको आप लोग बचावें। हम तुहारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते, नहीं तो क्या हममें से किसी को कोई मारता तो हमाी आप लोगों के सदृश अपने मारनेवालों को न्याय व्यवस्था से फाँसी पर न चढ़वा देते? हम इस समय अतीव कष्ट में हैं, क्योंकि कोई भी हमको बचाने में उद्यत नहीं होता।

ऋषि केवल धार्मिक आधार पर ही प्राणि-रक्षा की बात नहीं करते, वे उनके अधिकार की बात करते हैं। समाज को उनके हानि-लाभ का गणित भी समझाते हैं। एक गाय के मांस से एक बार में कितने व्यक्तियों की तृप्ति होती है? इसके विपरीत एक गाय अपने जीवन में कितना दूध देती है? उसके कितने बछड़े-बछड़ियाँ होती हैं, बैलों से खेती में कितना अन्न उत्पन्न होता है, गाय के गोबर-मूत्र से भूमि कितनी उर्वरा होती है? ऐसा आर्थिक विश्लेषण किसी ने उनसे पूर्व नहीं किया। जहाँ तक प्राणियों के लिये ऋषि के मन में दया भाव का प्रश्न है, वह दया तो केवल दयानन्द के ही हृदय में हो सकती है। ऋषि लिखते हैं- भगवान! क्या पशुओं की चीत्कार तुहें सुनाई नहीं देती है? हे ईश्वर! क्या तुहारे न्याय के द्वार इन मूक पशुओं के लिये बन्द हो गये हैं?

अनाथ एवं अवैध सन्तानों के अधिकारों की रक्षाऋषि ने समाज में जो बालक-बालिकायें, माता-पिता और संरक्षक-विहीन, अभाव-पीड़ित, प्रताड़ित और उपेक्षित थे, उनके अधिकारों के लिये सरकार से लड़ाई लड़ी।

जो बालक अविवाहित माता-पिता की सन्तान हैं, समाज उन्हें हीन समझता है, उन बालकों को अवैध कहकर, उनकी उपेक्षा करता है। ऋषि कहते हैं- माता-पिता का यह कार्य समाज की दृष्टि में अवैध कहा जाता हो, परन्तु इसमें सन्तान किसी भी प्रकार से दोषी नहीं है। साी बालक ईश्वर की व्यवस्था से तथा प्रकृति के नियमानुसार ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे समाज में समानता के अधिकारी हैं। उनकी उपेक्षा करना, उनके साथ अन्याय है।

कोई शिष्य, उत्तराधिकारी नहीं बनाया- सभी मत-सप्रदाय परपरा के व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं। ऋषि के समय उनके भक्त, शिष्य, अनुयायी थे, परन्तु किसी भी व्यक्ति को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। उन्होंने अपनी वस्तुओं और धन का उत्तराधिकारी परोपकारिणी सभा को बनाया। अपने धन को सौंपते हुए, वेद के प्रचार-प्रसार और दीन-अनाथों की रक्षा का उत्तरदायित्व दिया। विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार के लिये आर्यसमाज के दस नियम और उनका पालन करने के लिये आर्यसमाज का संगठन बनाया।

धार्मिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र का प्रयोगधर्म और आस्था के क्षेत्र में उत्तराधिकार और गुरु-परपरा का स्थान मुय रहा है। शासन-परपरा में ऋषि के समय विदेशों में प्रजातन्त्र स्थापित हो रहा था। भारत में राजतन्त्र ही चल रहा था। अंग्रेज लोग राजाओं के माध्यम से ही भारतीय प्रजा पर शासन कर रहे थे। जहाँ राजा नहीं थे, वहाँ अंग्रेज अधिकारी ही शासक थे। शासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। ऋषि का कार्य क्षेत्र धार्मिक और सामाजिक था। इस क्षेत्र में प्रजातन्त्र की बात नहीं की जाती थी, गुरु-महन्त जिसको उचित समझे, उसे अपना उत्तराधिकारी चुन सकते थे। सभी लोग गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके उसका अनुसरण करते थे, आज भी ऐसा हो रहा है।

धार्मिक क्षेत्र आस्था और श्रद्धा का क्षेत्र है। व्यक्ति के मन में जिसके प्रति आस्था हो, वह उसको गुरु मान लेता है, उसका अनुयायी हो जाता है, परन्तु स्वामी जी ने इस क्षेत्र में तीन बातों का समावेश किया- प्रथम बात, किसी के प्रति श्रद्धा करने से पूर्व उसकी परीक्षा करना, किसी भी विचार को परीक्षा करने के उपरान्त ही स्वीकार करना। आज तक किसी गुरु ने शिष्य को यह अधिकार नहीं दिया कि वह गुरु की बातों की परीक्षा करे, उसके सत्यासत्य को स्वयं जाँचे। यही कारण है कि स्वामी जी के शिष्यों में गुरुडम को स्थान नहीं है।

ऋषि की दूसरी विलक्षणता- परीक्षा करने की योग्यता मनुष्य में तब आती है, जब वह ज्ञानवान होता है और मनुष्य को ज्ञानवान गुरु ही बनाता है। ऋषि दयानन्द अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायी लोगों को पहले ज्ञानवान बनाते हैं, फिर उस ज्ञान से अपने विचार की परीक्षा करने को कहते हैं।

सामान्य गुरु लोग अपने भक्तों और शिष्यों को ज्ञान का ही अधिकार नहीं देते, परीक्षा करने के अधिकार का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऋषि मनुष्य मात्र को ज्ञान का अधिकारी मानते हैं, अतः ज्ञान का उपयोग परीक्षा में होना स्वाभाविक है। तीसरी बात ऋषि ने धार्मिक क्षेत्र में की, वह है  प्रजातान्त्रिक प्रणाली का उपयोग। धार्मिक लोग सदा समर्पण को ही मान्यता देते हैं, वहाँ गुरु परपरा ही चलती है, परन्तु ऋषि ने धार्मिक संगठनों की स्थापना कर उनमें प्रजातन्त्रात्मक पद्धति का उपयोग किया। यह विवेचना का विषय हो सकता है कि यह पद्धति सफल है या असफल है। मनुष्य की बनाई कोई भी वस्तु शत-प्रतिशत सफल नहीं हो सकती, अतएव समाज में नियम, मान्यता, व्यवस्थाएँ सदा परिवर्तित होती रहती हैं। गुरुडम की समाप्ति प्रजातन्त्र के बिना सभव नहीं थी, अतः ऋषि ने इसे महत्त्व दिया है। प्रजातन्त्रात्मक पद्धति की विशेषता है कि इसमें योग्यता का समान होता है। इसमें हम देखते हैं कि योग्यता के कारण एक व्यक्ति जो सबसे पीछे था, वह इस पद्धति में एक दिन सबसे अग्रिम पंक्ति में दिखाई देता है।

मूर्ति-पूजा- मूर्ति पूजा एक ऐसा प्रश्न है, जिसके निरर्थक होने में बुद्धिमान सहमत हैं, परन्तु व्यवहार में स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं। ऋषि ने मूर्ति-पूजा को पाप और अपराध कहा, इसके लिये पूरे देश में शास्त्रार्थ किये। काशी के विद्वानों को ललकारा। ऋषि मूर्ति-पूजा के विरोध के प्रतीक बन गये। समाज में समाज-सुधारकों की बड़ी परपरा है, प्रायः सभी ने उसको यथावत् स्वीकार करके ही अपनी बात रखी, जिससे उनके अनुयायी बनने में जनता को किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आई। लोगों ने अपने भगवानों की पंक्ति में सुधारकों को भी समानित स्थान दे दिया। आश्चर्य है, आचार्य शंकर जैसे विद्वान्, जिनके लिये अखण्ड एकरस ब्रह्म जिसके सामने जीना-मरना, संसार का होना, न होना कोई अर्थ नहीं रखता, वे शिव की मूर्ति को भगवान मानकर उसकी पूजा-अर्चना करना ही अपना धर्म मानते हैं। तस्मै नकाराय नमः शिवाय जैसा स्तोत्र रचते हैं। मूर्ति-पूजा सबसे बड़ा पाखण्ड है, जिसमें एक पत्थर भगवान का विकल्प तो बन सकता है, परन्तु एक नौकर या एक गाय का विकल्प नहीं बन सकता। दुकान पर दुकानदार पत्थर के नौकर को बैठाकर अपना काम नहीं चला सकता और न ही पत्थर की गाय से दूध प्राप्त कर सकता है। प्रश्न यह है कि पत्थर का भगवान संसार की सारी वस्तुयें दे सकता है तो पत्थर की गाय दूध क्यों नहीं दे सकती या मनुष्य पत्थर के नौकर को दुकान पर छोड़कर बाहर क्यों नहीं जा सकता?

ऋषि दयानन्द ने मूर्ति-पूजा को धूर्तता और मूर्खता का समेलन बताया है। मन्दिर को चलाने वाला चालाक दुकानदार होता है और पूजा कर चढ़ावा चढ़ाने वाला भक्त भय, लोभ में फँसा अज्ञानी। यही मूर्ति-पूजा का रहस्य है, जिसे सभी जानते हैं, परन्तु इसको घोषणापूर्वक कहना ऋषि का ही कार्य है।

राष्ट्रीयता जिन्हें हम समाज-सुधारक या धार्मिक-नेता कहते हैं, वे राजनीति और शासन के सबन्ध में चुप रहना ही अच्छा समझते हैं। उनकी उदासीन या सर्वमैत्री भाव वाली दृष्टि कोउ नृप होऊ हमें का हानि वाली रहती है, परन्तु ऋषि ने अपने ग्रन्थ में राजनीति पर एक अध्याय लिखा और अपने लेखन, भाषण में उनके उचित-अनुचित पर टिप्पणी भी की। ऋषि दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं- विदेशी राज्य माता-पिता के समान भी सुखकारी हो, तो भी अपने राज्य से अच्छा नहीं हो सकता। आपने अंग्रेजी शासन की चर्चा करते हुए कहा कि अंग्रेज अपने कार्यालय में देसी जूते को समान नहीं देता, वह अंग्रेजी जूता पहनकर अपने कार्यालय में आने की आज्ञा देता है। यह लिखकर उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम प्रकाशित किया है।

ऋषि अंग्रेज अधिकारी द्वारा शासन में किसी प्रकार की असुविधा न होने की बात पर उसके लबे शासन की प्रार्थना का प्रस्ताव ठुकरा कर प्रतिदिन भगवान से देश के स्वतन्त्र होने की प्रार्थना करने की बात करते हैं। यही कारण है कि भारत के किसी मन्दिर में ‘भारत माता की जय’ नहीं बोली जाती, परन्तु आर्यसमाज मन्दिरों  में प्रत्येक सत्संग के बाद भारत माता की जय बोलना आर्यसमाज की धार्मिक परिपाटी का अङ्ग है। यह बात सभी समाज-सुधारकों से ऋषि को अलग करती है।

वेद के पढ़ने का अधिकार भारत को आज भी वेद के बिना देखना सभव नहीं, भारत के सभी सप्रदाय वेद से सबन्ध रखते हैं, उनका अस्तित्व वेद से है। जो आस्तिक सप्रदाय हैं, वे वेद में आस्था रखते हैं, वेद को पवित्र पुस्तक और धर्म ग्रन्थ मानते हैं, दूसरे सप्रदाय वेद को धर्मग्रन्थ नहीं मानते, स्वयं को वेद-विरोधी स्वीकार करते हैं। सबसे विचारणीय बात है कि वेद को मानने वाले अपने को आस्तिक कहते हैं, वेद न मानने वाले को लोग नास्तिक कहते हैं। सामान्य रूप से ईश्वर को मानने वाले आस्तिक कहलाते हैं। ईश्वर की सत्ता को जो लोग स्वीकार नहीं करते, उनको नास्तिक कहा जाता है। कुछ लोग वेद को स्वीकार नहीं करते, परन्तु किसी-न-किसी रूप में ईश्वर की सत्ता मानते हैं, अतः ऐसे लोगों को भी नास्तिकों की श्रेणी में रखा गया। इस देश के आस्तिक भी नास्तिक भी, वेद से जुड़े होने पर भी दोनों का वेद से कोई सबन्ध शेष नहीं है। वेद-समर्थक भी वेद नहीं पढ़ते, वेद-विरोधी भी वेद को बिना पढ़े समर्थकों की बातें सुनकर ही वेद का विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द इन दोनों से विलक्षण हैं। उनके वेद सबन्धी विचारों का विरोध वेद के समर्थक भी करते हैं और वेद विरोधी भी। दोनों ऋषि दयानन्द के विरोधी हैं और इसी कारण ऋषि दयानन्द दोनों का ही विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द की इस विलक्षणता का कारण उनकी वेद-ज्ञान की कसौटी है। लोग कहते हैं- ऋषि दयानन्द ने वेद कब पढ़े हैं? गुरु विरजानन्द के पास तो वे केवल ढाई वर्ष तक रहे, फिर वेद कब पढ़े? इसका उत्तर है- दण्डी विरजानन्द के पास ऋषि दयानन्द ने वेदार्थ की कुञ्जी प्राप्त की, वह कुञ्जी है- आर्ष और अनार्ष की। हमारे समाज में संस्कृत में लिखी बात को प्रमाण माना जाता है। आर्ष-अनार्ष में विभाजन करने से मनुष्यकृत सारा साहित्य अप्रमाण कोटि में आ जाता है। अब जो शेष साहित्य बचा है, उसके शुद्धिकरण की कुञ्जी शास्त्रों ने दी है। ऋषि दयानन्द ने उसको आधार बनाकर सारे वैदिक साहित्य को स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण में बाँट कर जो कुछ वेद के मन्तव्यों से विरुद्ध लिखा गया है, उसे निरस्त कर अप्रामाणिक घोषित कर दिया। जो कुछ इनमें वेद विरुद्ध लिखा गया, वह दो प्रकार का है, एक- स्वतन्त्र ऋषियों के नाम पर लिखे गये ग्रन्थ तथा दूसरे- ऋषि ग्रन्थों में की गई मिलावट, जिसे शास्त्रीय भाषा में प्रक्षेप कहते हैं। ऋषि ने इस प्रक्षेप को परतः प्रमाण मानकर जो कुछ वेदानुकूल नहीं है, उसे त्याज्य घोषित कर दिया। इस प्रकार ऋषि को वेद तक पहुँचना सरल हो गया।

अब बात शेष रही, वेद किसे माना जाय? पौराणिक लोग सब कुछ को वेद का नाम देकर सारा पाखण्ड ही वैदिक बना डालते हैं। ऋषि ने मूल वेद संहिता और शाखा ब्राह्मण भाग को वेद से भिन्न कर दिया। आज हमारे पास दो यजुर्वेद हैं, इनमें किसे वेद स्वीकार किया जाय, इस पर ऋषि दयानन्द की युक्ति बड़ी बुद्धि ग्राह्य लगती है। वे कहते हैं- शुक्ल और कृष्ण शद ही इसके निर्णायक हैं। शुक्ल प्रकाश होने से श्रेष्ठता का द्योतक है, कृष्ण प्रकाश रहित होने से कम होने का। दूसरा तर्क है, जिसमें मूल है, वह शुक्ल तथा जिसमें व्याया है, उसे कृष्ण कहा गया है।

ऋषि समस्त वेद को वेदत्व के नाते एक स्वीकार करते हैं तथा शेष वैदिक साहित्य को वेदानुकूल होने पर प्रमाण स्वीकार करते हैं। जहाँ तक हमारे पौराणिक लोग हैं, वे वेद को तो ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, परन्तु वेद में सब कुछ उचित-अनुचित है, यह भी उन्हें स्वीकार्य है। ऋषि दयानन्द जो ईश्वर और प्रकृति के नियमों के अनुकूल है, उसे ही वेद मानते हैं। जो ईश्वरीय ज्ञान प्रकृति नियमों के विरुद्ध है, उसे वेद प्रोक्त नहीं माना जा सकता।

वेद के अर्थ विचार की जो कसौटी ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत की है, वह भी शास्त्रानुकूल है। समस्त वेद एक होने से तथा वेद एक बुद्धिपूर्ण रचना होने से वेद में परस्पर विरोधी बातें नहीं हो सकती तथा वेद के शदों का अर्थ आज की लौकिक संस्कृत के शद कोष से निर्धारित नहीं किया जा सकता। शद का अर्थ पूरे मन्त्र में घटित होना चाहिए तथा मन्त्र का अर्थ भी बिना प्रसंग के नहीं किया जा सकता। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास वेदार्थ करने का जो उपाय शेष रहता है, वह बहुत सीमित है। कोष के नाम पर हमारे पास निघण्टु निरुक्त है। उसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में आये शदों के निर्वचन हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमारे पास वेदार्थ करने का एक और उपाय है- वेदार्थ में यौगिक प्रक्रिया का प्रयोग करना। लोक में प्रायः रूढ़ि, योग-रूढ़ शदों से काम चलाया जाता है, परन्तु रूढ़ि शदों से वेदार्थ करना, वेद के साथ अन्याय है, अतः यास्कादि ऋषि वेदार्थ के लिये यौगिक प्रक्रिया को अनिवार्य मानते हैं।

ऋषि दयानन्द इसी आधार पर वेदार्थ को इस युग के अनुसार प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके।

ऋषि दयानन्द की वेद के सबन्ध में एक और विलक्षणता है। वेद के भक्त वेद को धर्मग्रन्थाी मानते हैं, परन्तु वेद को धर्मग्रन्थ स्वीकार करने वालों को उसे पढ़ना तो दूर, उसके सुनने तक का अधिकार देने को तैयार नहीं। इसके विपरीत वेद पढ़ने-सुनने पर दण्डित करने का विधान करते हैं। इस विषय में ये लोग कुरान एवं मोहमद साहब से भी आगे पहुँच गये। मनुष्य के धार्मिक होने के लिये धर्मग्रन्थ होता है, धर्मग्रन्थ को जाने बिना कोई भी धर्माधर्म को कैसे जान सकता है? यह ऐसा प्रयास है, जैसे कोई बालक अपने माता-पिता से बात न कर सके। उसके शद न सुने और उनकी बात माने। ऋषि दयानन्द वेद मन्त्र से ही इस धारणा का खण्डन कर देते हैं। वे कहते हैं- वेद ईश्वरीय ज्ञान है, संसार ईश्वर का है। प्रकृति के सभी पदार्थों पर सबका समान अधिकार-जल, वायु, पृथ्वी, आकाश सभी कुछ पर। बिल्कुल वैसे ही, जैसे सन्तानों का अपने पिता की सपत्ति पर अधिकार होता है, अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वेद रूपी इस सपत्ति को अपनी सन्तान, परिजन, सेवकों को प्रदान करे। ऋषि इसके लिए यजुर्वेद का प्रमाण देते हैं-

यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेयः ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यतामुपमादो नमतु।

– डॉ. धर्मवीर

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के दलितोद्धार कार्यों पर स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का प्रेरणादायक उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक सभी वैदिक सनातनधर्मी स्वयं आर्य कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। तब तक हिन्दुओं शब्द का अस्तित्व भी संसार में नहीं था। मुस्लिम  आक्रमणकारियों के भारत आने पर यह शब्द प्रचलित हुआ। समय के साथ वेदों से दूर जाते और पतन की ओर बढ़ रहे आर्य कहलाने वाले बन्धुओं ने इस गौरवपूर्ण शब्द को भुलाकर हिन्दु शब्द को अंगीकार कर लिया। हिन्दुओं में प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वर्णव्यवस्था कुछ परिवर्तनों के साथ वर्तमान समय में भी विद्यमान है जो अब गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित न होकर यह प्रथा जन्मना हो गई है। इसके कारण हिन्दू समाज का सार्वत्रिक पतन हुआ है। आर्यसमाज के एक शीर्षस्थ विद्वान स्वामी वेदानन्द सरस्वती इस व्यवस्था के अन्तर्गत दलित बन्धुओं के सुधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के योगदान पर उपदेश कर रहे हैं और बताते हैं कि तथाकथित शूद्रों की दुर्दशा स्त्रियों से भी अधिक थी। उनमें से बहुसंख्यकों को अस्पृश्य माना जाता था। ऋषि दयानन्द ने उनको उनके सब अधिकार दिलवाए। महान् इतिहासविद् डा. काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में ‘‘महात्मा बुद्ध से लेकर राजा राममोहनराय तक जिस कार्य (शूद्रोद्धार कार्य) में सफलता प्राप्त कर सके, शास्त्र का आश्रय लेकर दयानन्द ने उसमें अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। स्वामीजी ने इस विषय में केवल उपदेश ही नहीं किये, परन्तु अपने आचारण द्वारा इस कार्य को किया। उदाहरणार्थजब ऋषि उत्तरप्रदेश में विचर रहे थे तो साधुजाति (यह अछूत मानी जाती थी) के एक व्यक्ति ने उन्हें भोजन लाकर दिया। ऋषि दयानन्द ने प्रेमपूर्वक उसका आतिथ्य स्वीकार किया। लोगों ने जब आक्षेप किया कि आपने साधु (एक अछूत) की रोटी खाकर अच्छा नहीं किया तो महाराज ने उन अबोध आक्षेपकत्र्ताओं को प्रेम से बोध दिया कि रोटी तो (अछूत की नहीं अपितु) अन्न की (बनी) थी। यदि वह अपवित्र पदार्थों की बनी हो अथवा पाप की कमाई की हो तो वह निषिद्ध है। वे साधु तो कृषि कर्म करते हैं, परिश्रमी हैं, ये लोग चोरी आदि कुकर्म भी नहीं करते अतः इनके अन्न में कोई दोष नहीं है। (उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घटी अछूतोद्धार की यह अन्यतम घटना है।)

 

शूद्रों (दलित बन्धुओं) के साथ ऋषि के प्रेम के दृष्टान्त अनेक हैं। आर्यसमाज ने ऋषि के इस उपदेश से यह कार्य कर दिखलाया है कि संसार दंग रह गया है। पंजाब में वशिष्ठों, डोमों, मेघों, बटवालों, ओड़ों, रहतियों का उत्थान करके उनको तथाकथित द्विजों के तुल्य यज्ञोपवीतादि का अधिकार दिया गया। इन जातियों के अनेक जन अब गुरुकुल से स्नातक, शास्त्री, बी0ए0, वकील आदि हैं। उनके उत्थान के लिए आर्यसमाजियों को कितना कष्ट सहन करना पड़ा, उसकी एक-दो घटनाओं के द्वारा एमझा जा सकता है।

 

लाला मुन्शीराम जिज्ञासु (पश्चात महात्मा तत्पश्चात् स्वनामधन्य स्वामी श्रद्धानन्द) ने जालन्धर जिले के रहतियों (ये अछूत माने जाते थे) का जातिप्रवेश संस्कार कराया। इस पर पौराणिक भाई बिगड़ खड़े हुए। उनसे और तो कुछ न बन सका, उन्होंने इनका तथा इस कार्य में इनके सहकारी लाला देवराजजी (जालन्धर के कन्या महाविद्यालय की ख्याति वाले) का सामाजिक बहिष्कार करने का विचार किया। लाला देवराज की गहरी नीति से वह सफल न हो सका। तब उन लोगों ने उन सब पुनः प्रविष्ट आर्यों को सार्वजनिक कूपों (कुओं) से जल लेने से रोक दिया। जालन्धर के राजा माने जानेवाले राय शालिग्राम के सुपुत्र देवराज तथा उनके दामाद लाला मुन्शीराम उनके लिए जल भरकर उनके घरों में पहुंचाते थे। यह दृश्य देख विरोधियों की उद्दण्डता नष्ट हो गई।

 

दूसरी घटना कारुणिक है। रोपड़ अछूतोद्धारकार्य करनेवालों का भी पानी बन्द कर दिया गया था। वे लोग नारहर (नहर) से जल लाते थे। लाला सोमनाथ वहां के एक सम्भ्रान्त आर्य इस कार्य के मुखिया थे। दैवयोग से उनकी वृद्धा माता बीमार पड़ गई। चिकित्सकों ने कहाइसे कुवें का जल पिलाओ। जब तक यह नहर का जल पियेंगी, अच्छी हो सकेंगी। सोमनाथ द्विविधा में पड़ गये। मातृभक्ति ने उन्हें प्रेरणा की कि वे क्षमा मांग लें और इस पुनीत कार्य से विरत हो जाएं। सोमनाथ जी की माता को जब अपने पुत्र की दुर्बलता का ज्ञान हुआ, तब तत्काल उन्हें बुलाकर उस देवी ने कहा‘‘देख ! पुत्र सोमनाथ ! मैं जीवन का सब सुख भेाग चुकी हूं। मुझे अब जीने की चाह नहीं रही। तू यदि मेरे लिए स्वधर्मअछूतोद्धार का परित्याग करेगा, तो मेरे प्राण वैसे ही निकल जाएंगे, अतः तू धर्म से मत गिरियो। सोमनाथ ने माता के उत्साहवर्धक शब्द सुनकर शिथिलता का परित्याग किया। इसमें सन्देह नहीं कि उनको अपनी माता से वंचित होना पड़ा, किन्तु वृद्धा माता सुख एवं शान्ति के साथ मरी। बतलाइए कितनी कठोर तितिक्षा है।

 

एक घटना और भी सुन लीजिए–स्यालकोट जिला में तथा जम्मू रियासत में मेघों की विपुल संख्या बसती थी। मेघ लोग किसी समय जम्मू के राजा थे। डोगरों ने मेघों से जम्मू छीना था। राज्य-भ्रष्ट होकर ये इतने गिरे कि ये अछूत माने जाने लगे। हिन्दू निकालना जानता है, अपने अन्दर डालना नहीं जानता। स्यालकोट के एक आर्य नेता श्री लाला गंगाराम का ध्यान इनकी ओर गया। उन्होंने इनमें कार्य आरम्भ किया और आगे चलकर इनके सुधारकार्य को व्यवस्थित करने के लिए मेघोद्धार सभा की स्थापना की। मेघोद्धार सभा ने स्यालकोट में इनके लिए एक हाईस्कूल स्थापित किया। सरकार से भूमि क्रय करके मुलतान जिला में इनके लिए एक नगर बसाया। इनकी आर्थिक दशा को उन्नत करने के लिए इनमें कई प्रकार के शिल्पों का प्रचार भी किया। वैसे अधिकतर मेघ कृषि तथा वस्त्र-निर्माण का कार्य ही करते हैं। स्यालकोट जिला में जब कार्य सुव्यवस्थित भित्ति पर समझ लिया गया, तो जम्मू के मेघों की ओर सभा का ध्यान गया। जम्मू में पहले भी कार्य हो रहा था। जम्मू के राजपूतों को दयानन्द के सैनिकों का यह पवित्र कार्य न रुचा और उन्होंने इसका विरोध करना आरम्भ किया। विरोध के सभी प्रकार–सामाजिक बहिष्कार आदि प्रयोग में लाये गये, किन्तु ये सब हथियार बेकार सिद्ध हुए। अन्त में राजपूतों ने इस आन्दोलन का, अपने विचार से मूल ही उन्मूलन करने की ठानी। उन्होंने इस आन्दोलन के एक कार्यकत्र्ता महाशय रामचन्द्र पर जम्मू के समीप बटैहरा ग्राम में जबकि वे अपने किसी निजी कार्य पर जा रहे थे, आक्रमण करके लाठियों के बर्बर प्रहारों से जर्जरित करके अपने विचारानुसार मारकर भाग गये। आर्यसामाजिकों को जब इसका ज्ञान हुआ, वे वहां पहुंचे, रामचन्द्रजी को उन्होंने जम्मू के अस्पताल में पहुंचाया, किन्तु रामचन्द्र के भाग्य में अमरता (बलिदान वा शहीदी) बदी थी। वे उन प्रहारों से बच सके।

 

दलितोद्धार के पवित्र कार्य में आई इस प्रकार की कष्टकथाओं की संख्या बहुत बड़ी है। यह सब दयालु देव दिव्य दयानन्द की दया का परिणाम है कि आज दलित वर्ग अपना माथा ऊंचा कर सका है।

 

भारत विभाजन होने पर कुछ-एक स्वार्थी हरिजन नेताओं ने हरिजनों को पापिस्थान में रहने का असत्परामर्श दिया जबकि ये स्वयं भारत में चले आये। मेघों ने अपने ऐसे स्वार्थी नेताओं के परामर्श को ठुकरा दिया और भारत में चले आये। उनमें से पर्याप्त संख्या अलवर जिले में बसी है। उनके धर्मभाव को देखिए। वहां आने पर उन लोगों ने कहाहम पहले अपने मन्दिर तथा कन्या पाठशालाओं के भवनों का निर्माण करेंगे, रहने के घर पीछे बनवाएंगे। आर्यसमाज ने इनके लिए आर्यनगर बसाया। कुएं खुदवाए। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त (पूर्व का उत्तर प्रदेश और वर्तमान में उत्तराखण्ड) में डोमों की शुद्धि के अतिरिक्त नायक जाति का सुधार एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। नायक जाति के लोग अपनी कन्याओं का विवाह न करके उन्हें वेश्यावृत्ति अंगीकार करने पर बाध्य करते थे। आर्यसमाज ने उनमें प्रचार करके उस जाति की काया पलट दी है।

यह सब दयालु दयानन्द की दया का मधुर फल है। इस प्रकार भारत के अन्य प्रान्तों में भी दयानन्द की दया ने अपना चमत्कार दिखाया है और अभी तक दिखा रही है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का यह उपदेश आर्यसमाज के सभी अधिकारियों व अनुयायियों सहित देश के सभी दलित भाईयों को भी पढ़ना चाहिये। हम अपने अनुभव के आधार पर यह कहना चाहते हैं कि यदि दलित भाई आर्यसमाज के सिद्धान्तों को अपनायेंगे तो उनका सामाजिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आत्मिक, शैक्षिक, नैतिक व आर्थिक, सभी प्रकार का सुधार व उन्नति होगी। आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा सिद्धान्त वह पारसमणि है जिसे संसार का कोई भी मनुष्य छूकर साधारण सामान्य स्तर से ऊपर उठकर देवतुल्य मानव बन सकता है और मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। हम यह भी बताना चाहते हैं कि आर्यसमाज जन्मना जाति को अस्वीकार करता है। वह जन्मना वर्ण व्यवस्था को मरण व्यवस्था मानता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों सहित सभी दलित भाईयों व स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकारी मानता है। सबको विद्या के चिन्ह  यज्ञोपवीत सकेंगी प्रदान करता है। वेद एवं वैदिक साहित्य सहित सभी आधुनिक विषयों के आवासीय गुरुकुल शिक्षा पद्धति से अध्ययन का पोषक व समर्थक है। सबको एक समान, निःशुल्क शिक्षा, समान भोजन व वस्त्र दिये जाने के साथ अध्ययन के बाद उनके गुण-कर्म-स्वभावानुसार विवाह का पोषक है। ऐसा करके ही भारत का विश्व का अग्रणीय राष्ट्र बनाया जा सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को स्वामी वेदानन्द जी का यह उपदेश पसन्द आयेगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अध्ययन और अध्यापन की ऋषि निर्दिष्ट विधि – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

(लेखक आर्य जगत् के प्रतिष्ठित विद्वान् थे। सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास के सन्दर्भ में उनके विचार आज भी उतने ही समीचीन हैं। यह लेख लगभग 5 दशक पूर्व का है।)    – सपादक

सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में ऋषि ने इतनी बात कही है-

(1) सच्चा आभूषण विद्या है, वे ही सच्चे माता-पिता और आचार्य हैं, जो इन आाूषणों से सन्तान को सजाते हैं।

(2) आठ वर्ष के हों, तब ही लड़के-लड़कियों को पाठशाला में भेज देना चाहिए।

(3) द्विज अपने घर में लड़के-लड़कियों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके आचार्य कुल में भेज दें।

(4) लड़के-लड़कियों की पाठशाला एक दूसरे से दूर हो तथा लड़कों की पाठशाला में लड़के अध्यापक हों, लड़कियों की पाठशाला में सब स्त्री अध्यापिका हों, पाठशाला नगर से दूर हो।

(5) सबके तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन हों।

(6) सन्तान माता-पिता से तथा माता-पिता सन्तान से न मिलें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रक्खें।

(7) राजनियम तथा जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़के-लड़कियों को घर में न रख सके।

(8) प्रथम लड़के का यज्ञोपवीत घर पर हो, दूसरा पाठशाला में आचार्य कुल में हो।

(9) इस प्रकार गायत्री मंत्र का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायामादि क्रिया है, सिखावें।

(10) प्राणायाम सिखावें, जिससे बल, पराक्रम जितेन्द्रियता व सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा, स्त्री भी इसी प्रकार योगायास करें।

(11) भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने-चालने, छोटे से व्यवहार करने का उपदेश करें।

(12) गायत्री मन्त्र का उच्चारण,अर्थ-ज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल-चलन को करें, परन्तु यह जप मन से करना उचित है।

(13) सन्ध्योपासन जिसको ब्रह्मयज्ञ कहते हैं, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग, सेवादि से होता है। संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही काल में करें। ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है।

(14) ब्राह्मण, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य का उपनयन करे, क्षत्रिय दो का, वैश्य एक का, शूद्र पढ़े, किन्तु उसका उपनयन न करें, यह मत अनेक आचार्यों का है।

(15) पुरुष न्यून से न्यून 25 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे, मध्यम ब्रह्मचर्य 44 वर्ष पर्यन्त तथा उत्कृष्ट 48 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य रक्खे।

जो (स्त्री-पुरुष) मरण पर्यन्त विवाह करना ही न चाहे तथा वे मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहें, परन्तु यह बड़ा कठिन काम है।

(16) ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्रों का अयास अधिक प्रयत्न से करावें।

क्योंकि –

क्षत्रियादि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रियादि होते हैं।

(17) पाठविधि व्याकरण को पढ़ के यास्कमुनिकृत निघण्टु और निरुक्त छः वा आठ महीने में सार्थक पढ़ें, इत्यादि।

(18) ब्राह्मणी और क्षत्रिया को सब विद्या, वैश्या को व्यवहार-क्रिया और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या पढ़नी चाहिए। जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये, वैसे स्त्रियों कोाी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये।

इन 18 सूत्रों को मैं तृतीय समुल्लास के 18 अंग कहूँगा और अति संक्षेप से इसमें दिये हुए बीजों को अंकुरित करने का प्रयास ही किया जा सकता है और वही किया जायगा।

प्रथम यदि इन पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो इनका विभाग इस प्रकार है-

प्रथम दो अंग माता-पिता के प्रति उपदेश हैं। तीसरा जाति-नियम द्वारा गुरु शिष्य के सामीप्य का समर्थक है। चौथा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो ब्रह्मचर्य की रक्षार्थ है। पाँचवाँ बच्चों में समानता तथा सरल जीवन का आधार है। छठा शिक्षा-शास्त्र-सबन्धी नियम है जो निश्चितता उत्पन्न करके गुरु-शिष्य की सामीप्य की पुष्टि करता है। सातवाँ राजनियम तथा जातिनियम द्वारा मोह का निराकरण तथा गुरु-शिष्य के सामीप्य का स्तभ रूप है। आठवाँ सामाजिक नियम द्वारा गुरु-शिष्य के  सामीप्य का पोषक है। नवाँ संध्योपासन द्वारा ईश्वराधीनता का अर्थात् सच्ची स्वाधीनता का शिक्षा में प्रवेश कराना है। दसवाँ तथा 11वाँ बच्चों को सच्ची दिनचर्या द्वारा संयम सिखाना है। 12वाँ विनीत भाव सिखा कर संयम की पुष्टि करता है। 13वाँ 14वाँ भी संकल्प  अथवा व्रत द्वारा संयम का सच्चा रूप उपस्थित करता है। 15वाँाी ब्रह्मचर्य न्यून से न्यून कितना हो यह बता कर संयम को व्यावहारिक रूप देता है। 16वें सूत्र में ब्राह्मण तथा क्षत्रियादि का परस्पर नियन्त्रण है। 17वें सूत्र में व्रतचर्या के लिए समय कैसे मिले, इसलिए आनुपूर्वी नाम का शिक्षा शास्त्र का महान् रहस्य दिया गया है, यथा 18वें में चारों वेदों के अध्ययन की लबी पाठविधि को यथायोग्य रूप से हर ब्रह्मचारी के बलाबल को देखकर पाठविधि कैसे बनाई जाय- इसकी कुञ्जी दी गई है।

शिक्षा का उद्देश्य

इस प्रकार इन अठारह अङ्गों के परस्पर सबन्ध की रूपरेखा देकर हम इन पर दार्शनिक विवेचन आरभ करते हैं। सबसे प्रथम यह देखना है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है। ऋषि ने शिक्षा का उद्देश्य भर्तृहरि महाराज के ‘‘विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः’’ इस श्लोक का उद्धरण देकर किया है। श्लोक का अनुवाद ऋषि के ही शदों में इस प्रकार है-

जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में मग्न रहता, सुन्दरशील स्वभावयुक्त सत्यभाषणादि नियम पालन युक्त और जो अभिमान अपवित्रता से रहित अन्य की मलिनता के नाशक सत्योपदेश और विद्या दान से संसारी जनों के  दुःखों को दूर करने वाले वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में लगे रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं।

बस इस प्रकार के धन्य पुरुष उत्पन्न करना शिक्षा का  उद्देश्य है।

भर्तृहरि की खान, ऋषि दयानन्द-सा जौहरी, क्या रत्न ढूँढकर निकाला है!

पहला ही शद ले लीजिये- विद्याविलासमनसः। हमें छात्रों को ब्रह्मचारी बनाना है। ब्रह्चारी के दो ही भोजन हैं, एक विद्या, दूसरा परमात्मा। इस भोजन को कभी-कभी खा लेने से वह ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। जिस प्रकार विलासी मनुष्य यदि वह भोजन का विलासी है, तो उसमें नए से नए रुचिकर व्यञ्जनों का आविष्कार करता रहता है, यदि रूप का विलासी है तो नए से नए शृङ्गारों का आविष्कार करने में ही उसका मन लगा रहता है, उसी प्रकार जब विद्या उसके लिए एक विलास की वस्तु बन जाय, तब ही तो वह ब्रह्मचारी बन सकेगा। परन्तु यह विद्या में रति बिना शील शिक्षा के नहीं प्राप्त हो सकती। शील शिक्षा भी वह जो पूर्णतया धारण कर ली गई हो, अडिग हो, अविचल हो। इसके लिए उसका व्रत धारण करना आवश्यक है। परन्तु ब्राह्मण व क्षत्रियादि के व्रत निश्चल तब ही हो सकते हैं, जब वह सत्य व्रत हों, यह व्रतपरायणता बिना अभिमान दूर किये नहीं हो सकती और अभिमान की परम चिकित्सा है प्रभुाक्ति, वह अािमान ही नहीं और सब मलों को भी दूर करने वाली है। इस भक्ति का आरभ होता है- संसार के दुःख दूर करने में ही गौरव मानने से। दुःख दूर करने से तो भक्ति का मार्ग आरभ होता है, परन्तु उसका पूर्ण चमत्कार तो दुःख दूर करके सच्चा सुख प्राप्त कराने से होता है । यही सबसे बड़ा परोपकार है।

परन्तु दुःखों का निराकरण तथा सच्चे सुख की प्राप्ति का उपाय जाना जाता है वेद से। उसी ने इसका विधान किया है। वेदविहित कर्मों का ठीक  ज्ञान न होने से अज्ञानी मनुष्य परोपकार की भावना से प्रेरित होकर भी अपकार ही तो करेगा, इसलिये विहित कर्मों से ही परोपकार होता है। चलो इन विहित कर्मों के ज्ञान के लिए वेद-वेदाङ्ग का ज्ञान प्राप्त करें। यही शिक्षा का आरा है, इसीलिए कहा-

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः,

सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः,

संसारदुःखदलनेन सुभुषिता ये,

धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः।।

इस प्रकार के धन्य मनुष्य इस प्रकार के गुरु के पास  पहुँचे बिना कैसे प्राप्त हो सकते हैं! इसलिए माता-पिता को उपदेश दिया (1) सांसारिक आभूषणों के मोह को तथा उसके मूल सन्तान के मोह को छोड़ो, सन्तान से प्रेम करना सीखो। यहाँ सबसे पहले मोह और प्रेम में भेद करना सीखना है। अनुराग के दो अङ्ग हैं- हितसन्निकर्षयो-रिच्छानुरागः। इनमें सन्निकर्ष अर्थात् प्रेमपात्र के वियोग को न सहन करना तथा समीप होने की इच्छा जितनी प्रबल होती जायगी, उतना ही अनुराग प्र्रेम की ओर उठता जायगा। यदि सन्निकर्षेच्छा न हो तो माता बच्चे के लिए रातों जाग नहीं सकती, परन्तु हितेच्छा न हो तो गुरुकुल नहीं भेज सकती। इसीलिए कहा कि पाँचवें वर्ष तक सन्निकर्षेच्छा समाप्त हो ही जानी चाहिए। यदि सन्तान की दुर्बलता आदि किसी अन्य कारण से सन्तान का माता-पिता के पास रहना आवश्यक भी हो तो 8 वें वर्ष तक तो राजनियम से बच्चे को माता-पिता से पृथक् कर ही देना चाहिए। यही नहीं, गुरु के पा जाने पर मोहवृद्धि कारक माता-पिता का मिलना तथा पत्र-व्यवहार आदि भी बन्द हों, जिससे गुरु शिष्य में वह सामीप्य उत्पन्न हो जाय, जिसका वेद ने इन शदों में वर्णन किया है-

आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणाम् कृणुते र्गामन्तः।

अथर्व. 11काण्ड

हमें विद्यार्थियों को न्याय सिखाना है, इसलिये सबसे पहले उनके साथ न्याय होना चाहिये। न्याय के दो सिरे हैं, निर्णय के पूर्व समान व्यवहार, निर्णय के पश्चात् यथायोग्य व्यवहार । शिक्षा के आरभ-काल में निर्णय नहीं हो सकता। इसलिए उस काल में सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जावें। इस प्रकार सच्ची समानता उत्पन्न की गई है।

यह समानता दो प्रकार से उत्पन्न की जा सकती है। एक नाना प्रकार के ऐश्वर्य की सामग्री सबको देकर, दूसरे सबको तपस्वी बनाकर । राजा के पुत्र को अपरिग्रही के समान रखकर अथवा परिग्रही को राज-तुल्य वैभव देकर। परन्तु ब्रह्मचर्य जिनकी शिक्षा का आधार है, वे सरलता द्वारा ही समानता उत्पन्न करेंगे, इसलिये तप तथा अपरिग्रह की शिक्षा दी गई है।

शिक्षा का तीसरा आधार स्वाधीनता है, परन्तु स्वाधीनता वस्तुतः ईश्वराधीनता से प्राप्त होती है। जो अपने-आपको ईश्वर के अधीन कर देता है, वह फिर न प्रकृति के अधीन होता है न विषयों के। जिस प्रकार स्वेच्छापूर्वक स्वयं चुने हुए विमान पर चढ़ने से मनुष्य की गति में तीव्रता तो अवश्य आ जाती है। इसी प्रकार स्वेच्छापूर्वक प्रभु समर्पण द्वारा मनुष्य अनन्त शक्ति का स्वामी तो हो जाता है, परन्तु पराधीन नहीं होता, इसीलिये ऋषि दयानन्द ने इस समुल्लास में शिक्षा का आरभ सन्ध्योपासन से किया है। इसी प्रकार देवयज्ञ की व्याया में उन्होंने देवयज्ञ के दो रूप दिये हैं- एक अग्निहोत्र, दूसरा विद्वानों का संगसेवादि। गुरु के तथा विद्वानों के संग-सेवादि से मनुष्य स्व को पहिचानता है। जिसने स्व को ही नहीं पहिचाना, वह स्वाधीन क्या होगा? स्वाधीन शद का दूसरा अर्थ आत्मीयों की अधीनता है। जीव का सबसे बड़ा आत्मीय उस वात्सल्य सागर प्रभु से बढ़ कर कौन हो सकता है, सो सन्ध्योपासन तथा अग्निहोत्र दोनों ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में स्वाधीनता दिलाने वाले हैं। अब हम संयम की ओर आते हैं, यह ब्रह्मचर्याश्रम है, हमें शक्ति के महास्रोत तक पहुँचना है, वहीं सुख है, वहीं शान्ति है, वहीं नित्यानन्द है। नित्य कैसे? मनुष्य का सुख दो प्रकार समाप्त हो जाता है। भोग्य पदार्थ की समाप्ति से या भोक्ता की रसास्वादन शक्ति की समाप्ति से, परन्तु जब जीव प्रकृति के माध्यम बिना सीधा प्रभु से रस लेने लगता है तो न भोग्य सामग्री समाप्त होती है, न भोक्ता की रसास्वादन शक्ति, बस इस अवस्था तक प्राणिमात्र को पहुँचाने के लिए मनुष्य मात्र को जीव और ईश्वर के बीच जाने वाले व्यवधानों से पूर्णतयामुक्त करके कैवल्य (ह्रठ्ठद्यब्ठ्ठद्गह्यह्य)तक पहुँचाना ही शिक्षा का उद्देश्य है। यह उद्देश्य इस समुल्लास में किस प्रकार पूरा किया गया है, अब हमें यह देखना है।

शिक्षा का केन्द्रः आचार

सबसे प्रथम जो बात समझने की है वह यह है कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में शिक्षा का केन्द्र आचार शक्ति है, विचार शक्ति नहीं, इसीलिये वैदिक भाषा में गुरु को आचार्य कहते हैं , विचार्य नहीं। विचार साधन हैं, आचार साध्य है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य ब्रह्म में विचरता-विचरता पूर्णतया ब्रह्मचारी हो जाता है और जब तक वह इस ध्येय तक नहीं पहुँच जाता है, तब तक के लिए उसे एक ही आज्ञा है ‘‘चरैवेति चरैवेति’’।

परन्तु विचार का क्षेत्र उसका चरने का क्षेत्र है। वह नाना प्रकार के विषयों में इन्द्रियों द्वारा विचरता हुआ विषयरूपी घास से ज्ञानरूपी दूध बनाता रहता है, परन्तु व्रत के खूँटे से बँधा होने के कारण कभी गोष्ठ-भ्रष्ट अथवा देवयूथ-भ्रष्ट नहीं होने पाता। इन्द्रियों का क्षेत्र उसके चरने का क्षेत्र है, परन्तु व्रत उसके बँधने का स्थान है। वह व्रत का खूँटा भगवान में गड़ा रहता है, इसलिए वह कभी भ्रष्ट नहीं होने पाता। इस शिक्षा-पद्धति में उसका दो बार यज्ञोपवीत किया जाता है, एक माता-पिता के घर में, दूसरा आचार्य कुल में। ब्राह्मण को संसार में अविद्या के नाश तथा सत्य के प्रकाश का व्रत धारण करना है।

क्षत्रिय को अन्याय के नाश तथा न्याय की रक्षा का व्रत धारण करना है। वैश्य को दारिद्र्य के नाश तथा प्रजा की समृद्धि की रक्षा का व्रत धारण करना है। इस यज्ञ अर्थात् लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बँधना है, इसीलिए इस बंधन का नाम यज्ञोपवीत है, अर्थात् वह रस्सा जो मनुष्य को लोकहित के व्रत के खूँटे के साथ बाँधने के लिए बनाया गया हो, प्रथम यज्ञोपवीत में माता-पिता उसे किस खूँटे के साथ बाँधना चाहते हैं, उनकी इस इच्छा का प्रकाश है।

परन्तु यह व्रत है, स्वेच्छापूर्वक चुना जाने वाला व्रत है, इसलिए आचार्य की अनुमति से ब्रह्मचारी इसे बदल भी सकता है, इसलिए आचार्य कुल में दूसरी बार यज्ञोपवीत किया जाता है। इस व्रत का मूल्य चुकाने मनुष्य को समाज में, सेना में तथा गृहस्थाश्रम में तो जाना है। संसार का हर सैनिक किसी न किसी रूप में झण्डे के सामने शपथ लेता है और हर दपती किसी न किसी रूप में एक दूसरे के साथ बँधे रहने की शपथ लेते हैं, परन्तु इस शपथ का लाभ शिक्षा -शास्त्र में लेना यह केवल वैदिक लोगों को ही सूझा। इसके बिना शिक्षा लक्ष्यहीन तीर चलाने के समान है। कोई तीर अचानक लक्ष्य पर भी जा लगता है।

विद्यायास कै से ?

अब आइये विद्यायास की ओर। इस क्षेत्र में सबसे प्रथम तो मनुष्य को प्रत्यक्षादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा करने का ज्ञान होना चाहिए, फिर भाषा का, फिर अन्य शास्त्रों का; यही क्रम यहाँ रक्खा गया है। परन्तु सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस क्रम में आनुपूर्वी है। पहले व्याकरण पढ़े, फिर निरुक्त छन्द आदि-यह आनुपूर्वी क्यों रक्खी गई है? आजकल की शिक्षा पद्धति में एक विद्यार्थी प्रतिदिन 8 या 10 विषय तक पढ़ता है। इस प्रणाली में उसे गुरु-सेवा, आश्रम-सेवा, चरित्र-निर्माण आदि के लिये कोई समय ही नहीं मिलता, इसलिये प्रतिदिन मुय रूप से लगातार कुछ समय तक-एक समय तक एक विषय को पढ़ कर समाप्त करे, फिर दूसरा विषय आरभ करे। इस क्रम से पढ़ने से उसे गुरु-सेवा, पशु-पालन, चरित्र-निर्माण इन सबके लिए पूरा समय मिलता है और इस प्रकार शिक्षा के मुय अंग आचार-निर्माण की पूर्णता होती है; जिससे आचार्य (आचारं ग्राहयति) को आचार्यत्व प्राप्त होता है।

यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। ऋषि ने लिखा है कि पुरुषों को व्याकरण, धर्म और एक व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य सीखनी चाहिये।

इस अत्यन्त मूल्यवान पंक्ति की ओर ध्यान न देने से आज आर्ष पद्धति के नाम पर सहस्रों विद्यार्थियों के  जीवन नष्ट हो रहे हैं।

ऋषि ने चारों वेदों की पाठविधि तो दी है, परन्तु चारों वेदों का पण्डित होना हर एक विद्यार्थी के लिये आवश्यक नहीं ठहराया, उलटा मनु का प्रमाण देकर लिखा है-

षट्त्रिंशदादिके चर्यं गुरौ त्रैवेदिक व्रतम्।

तदर्धम् पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव  वा।।

ब्रह्मचर्य 36 वर्ष, 18वर्ष अथवा 9 वर्ष का अथवा जितने में विद्या ग्रहण हो जाये, उतना रक्खे।

इसको पुरुषों को व्याकरण, धर्म तथा एक व्यवहार की विद्या के  साथ मिला कर पढ़िये। इसका भाव यह है कि व्याकरण तथा धर्म-शास्त्र पढ़ना सब के लिए आवश्यक है। धर्म-ज्ञान के लिए जितना व्याकरण पढ़ना आवश्यक है, सो तो सब पढ़ें; इससे विशेष व्याकरण उस विद्या को दृष्टि में रख कर पढ़ें जो उनकी व्यवहार की विद्या है। इसलिए जिसे विद्युत शास्त्र अथवा भौतिक विज्ञान अथवा इतिहास पढ़ना है, उसे महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण पढ़ना क्यों आवश्यक है- यह बिल्कुल समझ में नहीं आता, परन्तु आजकल आर्ष पद्धति के नाम पर जो सब बालकों को जबरदस्ती महाभाष्य पढ़ाया जाता है, इससे उन विद्यार्थियों में से बहुतों का जीवन नष्ट होता है और आर्ष पद्धति व्यर्थ बदनाम होती है। ऋषि ने अधिकतम और न्यूनतम दोनों पाठविधि दे दी है, विद्यार्थी की उचित शक्ति के अनुसार हर विद्यार्थी का पृथक् -पृथक् पाठ्यक्रम होना चाहिये । इसीलिए गुरु-शिष्य का सदा एक साथ रहना आवश्यक समझा गया है, जिससे गुरु-शिष्य की रुचि तथा शक्ति दोनों की ठीक परीक्षा करके यथायोग्य पाठविधि बना सके। यहाँ यथायोग्यवाद के स्थान में सायवाद का प्रयोग अत्यन्त हानिकारक सिद्ध हो रहा है।

अन्त में हम इस बात की ओर फिर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि वैदिक शिक्षा-पद्धति में संयम अर्थात् ब्रह्मचर्य का स्थान विद्या से ऊँचा माना गया है। संयमहीन शिक्षा कुशिक्षा है, इसलिए संध्योपासन, आनुपूर्वी का पाठ्य-क्रम तथा यज्ञोपवीत संस्कार तीनों ही विद्यार्थी को परमात्मा का भक्ति-दान करके ब्रह्मचारी बना देते हैं। इस संयम की जितनी महिमा गाई जाय, सो थोड़ी है। इस प्रकार यह 18 के 18 अंग जो इस समुल्लास में पाँच सकारों में परिणत हो जाते हैं, उन पाँच सकारों के नामोल्लेख के साथ ही इस लेख को समाप्त करते हैं-

समानता सरलता सामीप्यम् गुरुशिष्ययोः।

स्वाधीन्यं संयमञ्चैव सकाराः पञ्च सिद्धिदाः।।

 

‘आर्यसमाज की स्थापना और इसके नियमों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) उन्नीसवीं शताब्दी के समाज व धर्म-मत सुधारकों में अग्रणीय महापुरुष हैं। उन्होंने 10 अप्रैल सन् 1875 ई. (चैत्र शुक्ला 5 शनिवार सम्वत् 1932 विक्रमी) को मुम्बई में आर्यसमाज की  स्थापना की थी। इससे पूर्व उन्होंने 6 या 7 सितम्बर, 1872 को वर्तमान बिहार प्रदेश के आरा स्थान पर आगमन पर भी वहां आर्यसमाज स्थापित किया था। उपलब्ध इतिहास व जानकारी के अनुसार यह प्रथम आर्यसमाज था। महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी के लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित जीवन चरित में इस विषय में उल्लेख है कि नगर के सभी सम्भ्रान्त पुरुष महाराज के दर्शनार्थ आते थे और सन्ध्यासमय उनके पास अच्छी भीड़ लग जाती थी। स्वामीजी ने आरा में एक सभा की भी स्थापना की थी जिसका उद्देश्य आर्यधर्म और रीतिनीति का संस्कार करना था, परन्तु उसके एकदो ही अधिवेशन हुए। स्वामी जी के आरा से चले जाने के पश्चात् थोड़े ही दिन में उसकी समाप्ती (गतिविधियां बन्द) हो गई। जिन दिनों आर्यसमाज आरा की स्थापना हुई, तब न तो सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित हुआ था और न हि संस्कारविधि, आर्याभिविनय वा अन्य किसी प्रमुख ग्रन्थ की रचना ही हुई थी। आरा में स्वामीजी का प्रवास मात्र 1 या 2 दिनों का होने के कारण आर्यसमाज के नियम आदि भी नहीं बनाये जा सके थे। यहां से स्वामीजी पटना आ गये थे और यहां 25 दिनों का प्रवास किया था। आरा में स्वामीजी ने पं. रुद्रदत्त और पं. चन्द्रदत्त पौराणिक मत के पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ किया था। प्रसंग उठने पर आपने बताया था कि सभी पुराण ग्रन्थ वंचक लोगों के रचे हुए हैं। आरा में स्वामी जी के दो व्याख्यान हुए जिनमें से एक यहां के गवर्नमेंट स्कूल के प्रांगण में हुआ था। व्याख्यान वैदिक धर्म विषय पर था जिसमें बोलते हुए स्वामी जी ने कहा था कि प्रचलित हिन्दूधर्म और रीतिरिवाज वेदानुमोदित नहीं हैं, प्रतिमापूजा वेदप्रतिपादित नहीं है, विधवा विवाह वेदसम्मत और बालविवाह वेदविरुद्ध है। व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा था कि गुरुदीक्षा करने की रीति आधुनिक है तथा मन्त्र देने का अर्थ कान में फूंक मारने का नहीं है, जैसा कि दीक्षा देने वाले गुरू करते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने 31 दिसम्बर 1874 से 10 जनवरी 1875 तक राजकोट में प्रवास कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। यहां जिस कैम्प की धर्मशाला में स्वामी ठहरे, वहां उन्होंने आठ व्याख्यान दिये जिनके विषय थे ईश्वर, धर्मोदय, वेदों का अनादित्व और अपौरुषेयत्व, पुनर्जन्म, विद्याअविद्या, मुक्ति और बन्ध, आर्यों का इतिहास और कर्तव्य। यहां स्वामीजी ने पं. महीधर और जीवनराम शास्त्री से मूर्तिपूजा और वेदान्त-विषय पर शास्त्रार्थ भी किया। स्वामीजी का यहां राजाओं के पुत्रों की शिक्षा के कालेज, राजकुमार कालेज में एक व्याख्यान हुआ। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धर्म यहां स्कूल की ओर से स्वामीजी को प्रो. मैक्समूलर सम्पादित ऋग्वेद भेंट किया गया था। राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के विषय में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में निम्न विवरण प्राप्त होता है-स्वामीजी ने यह प्रस्ताव किया कि राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया जाए और प्रार्थनासमाज को ही आर्यसमाज में परिणत कर दिया जाए। प्रार्थनासमाज के सभी लोग इस प्रस्ताव से सहमत हो गये। वेद के निभ्र्रान्त होने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। स्वामीजी के दीप्तिमय शरीर और तेजस्विनी वाणी का लोगों पर चुम्बक जैसा प्रभाव पड़ता था। वह सबको नतमस्तक कर देता था। आर्यसमाज स्थापित हो गया, मणिशंकर जटाशंकर और उनकी अनुपस्थियों में उत्तमराम निर्भयराम प्रधान का कार्य करने के लिए और हरगोविन्ददास द्वारकादास और नगीनदास ब्रजभूषणदास मन्त्री का कर्तव्य पालन करने के लिए नियत हुए। आर्यसमाज के नियमों के विषय में इस जीवन-चरित में लिखा है कि स्वामीजी ने आर्यसमाज के नियम बनाये, जो मुद्रित कर लिये गये। इनकी 300 प्रतियां तो स्वामीजी ने अहमदाबाद और मुम्बई में वितरण करने के लिए स्वयं रख लीं और शेष प्रतियां राजकोट और अन्य स्थानों में बांटने के लिए रख ली गई जो राजकोट में बांट दी र्गइं, शेष गुजरात, काठियावाड़ और उत्तरीय भारत के प्रधान नगरों में भेज दी गईं। उस समय स्वामी जी की यह सम्मति थी कि प्रधान आर्यसमाज अहमदाबाद और मुम्बई में रहें। आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशन प्रति आदित्यवार को होने निश्चित हुए थे। यह ध्यातव्य है कि राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना पर बनाये गये नियमों की संख्या 26 थी। इनमें से 10 नियमों को आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

इसके बाद मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना हुई। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र से प्रस्तुत है। वह लिखते हैं कि ‘स्वामीजी के गुजरात की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का विचार जो बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था परन्तु अब स्वामी जी के पुनः आने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के लौटकर आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके स्वर्गवासी रावबहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गई। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही रहा (आर्यसमाज स्थापित नहीं हुआ)।’ इसके बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं, और अन्त में जब कई एक भद्र पुरुषों को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब समाज की स्थापना होती ही नहीं, तब कुछ धर्मात्माओं ने मिलकर राजमान्य राज्य श्री पानाचन्द आनन्द जी पारेख को नियत किए हुए नियमों (राजकोट में निर्धारित 26 नियम) पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक किए हुए नियम स्वामीजी ने स्वीकार कर लिए, तो उसके पश्चात् कुछ भद्र पुरुष, जो आर्यसमाज स्थापित करना चाहते थे और नियमों को बहुत पसन्द करते थे, लोकभय की चिन्ता करके, आगे धर्म के क्षेत्र में आये और चैत्र सुदि 5 शनिवार, संवत् 1932, तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को शाम के समय, मोहल्ला गिरगांव में डाक्टर मानक जी के बागीचे में, श्री गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., एल.एल.बी. की प्रधानता में एक सार्वजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम (28 नियम) सुनाये गये और सर्वसम्मति से प्रमाणित हुए और उसी दिन से आर्यसमाज की स्थापना हो गई।

 

हम अनुमान करते हैं कि पाठक आर्यसमाज के उन 28 नियमों को अवश्य जानने को उत्सुक होंगे जो मुम्बई में स्थापना के अवसर पर स्वीकार किये गये थे। यदि इन सभी नियमों को प्रस्तुत करें तो लेख का आकार बहुत बढ़ जायेगा अतः चाहकर भी हम केवल 10 नियम ही दे रहे हैं। पाठकों से निवेदन है कि वह इन नियमों को पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में देख लें। महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञान के दूसरे भाग में तृतीय परिशिष्ट के रूप में यह 28 नियम महर्षि दयानन्द कृत हिन्दी व्याख्या सहित दिये गये हैं। वहां इन्हें देख कर भी लाभ उठाया जा सकता है। 28 में से प्रथम 10 नियम हैं। 1-सब मनुष्यों के हितार्थ आर्यसमाज का होना आवश्यक है। 2-इस समाज में मुख्य स्वतःप्रमाण वेदों का ही माना जायेगा। साक्षी के लिए तथा वेदों के ज्ञान के लिए और इसी प्रकार आर्य-इतिहास के लिए, शतपथ ब्राह्मणादि 4, वेदांग 6, उपवेद 4, दर्शन 6 और 1127 शाखा (वेदों के व्याख्यान), वेदों के आर्ष सनातन संस्कृत ग्रन्थों का भी वेदानुकूल होने से गौण प्रमाण माना जायगा। 3- इस समाज में प्रति देश के मध्य (में) एक प्रधान समाज होगा और दूसरी शाखा प्रशाखाएं होंगीं। 4- प्रधान समाज के अनुकूल और सब समाजों की व्यवस्था रहेगी। 5- प्रधान समाज में वेदोक्त अनुकूल संस्कृत आर्य भाषा में नाना प्रकार के सत्योपदेश के लिए पुस्तक होंगे और एक आर्यप्रकाश पत्र यथानुकूल आठ-आठ दिन में निकलेगा। यह सब समाज में प्रवृत्त किये जायेंगे। 6-प्रत्येक समाज में एक प्रधान पुरुष, और दूसरा मंत्री तथा अन्य पुरुष और स्त्री, यह सब सभासद् होंगे। 7- प्रधान पुरुष इस समाज की यथावत् व्यवस्था का पालन करेगा और मंत्री सबके पत्र का उत्तर तथा सबके नाम व्यवस्था लेख करेगा। 8- इस समाज में सत्पुरुष सत्-नीति सत्-आचरणी मनुष्यों के हितकारक समाजस्थ (सदस्य बन सकेंगे) किये जायेंगे। 9- जो गृहस्थ गृहकृत्य से अवकाश प्राप्त होय सो जैसा घर के कामों में पुरुषार्थ करता है उससे अधिक पुरुषार्थ इस समाज की उन्नति के लिए करे और विरक्त तो नित्य इस समाज की उन्नति ही करे, अन्यथा नहीं। 10- प्रत्येक आठवें दिन प्रधान मंत्री और सभासद् समाज स्थान में एकत्रित हों और सब कामों से इस काम को मुख्य जानें।

 

28 नियमों के बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल की आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे, परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया जो अब तक है।

 

मुम्बई के बाद लाहौर में स्थापित आर्यसमाज का विशेष महत्व है। यहां न केवल महर्षि दयानन्द जी द्वारा आर्यसमाज की स्थापना ही की गई अपितु मुम्बई में जो 28 नियम स्वीकार किए गये थे उन्हें संक्षिप्त कर 10 नियमों में सीमित कर दिया गया और 8 सितम्बर, सन् 1877 को उन्हें विज्ञापित भी कर दिया गया। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित जीवन में मिलता है। वहां लिखा है कि ‘विदित हो कि जब स्वामी जी डाक्टर रहीम खां साहब की कोठी (जो नगर के बाहर छज्जू भगत के चैबारे से लगी हुई थी) में उतरे थे, उस समय उन्होंने लोगों को बतलाया कि आर्यधर्म की उन्नति तभी हो सकती है जब नगरनगर और ग्रामग्राम में आर्यसमाज स्थापित हो जावें। चूंकि स्वामीजी के उपदेशों से लोगों के विचार अपने धर्म पर दृढ़ हो चुके थे, सब लोगों ने इस बात को स्वीकार किया और 24 जून, सन् 1877, रविवार तदनुसार जेठ सुदि 13 संवत् 1934 वि. आषाढ़ 12, संक्रान्ति के दिन लाहौर नगर में आर्यसमाज स्थापित हुआ। चूंकि इससे पहले बम्बई और पूना में आर्यसमाज स्थापित हो चुका था और नियम भी निश्चित हो चुके थे किन्तु वे बहुत विस्तृत थे, उन विस्तृत नियमों को पंजाब में यहां के कुछ लोगों के कहने से उनकी सम्मति से स्वामीजी ने संक्षिप्त कर दिया और वे नियम 8 सितम्बर, सन् 1877 के समाचार पत्र खैरख्वाह और स्टार आफ इण्डिया खंड 12, संख्या 17, पृष्ठ 8 सियालकोट नगर में प्रकाशित हुए। यह संक्षिप्त किये गये 10 नियम वर्तमान में भी प्रचलित हैं। यह नियम हैं, 1-सब सत्यविद्या और विद्या से जो पदार्थ जाने जाते हैं उनका सबका आदिमूल परमेश्वर है। 2-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। 3-वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। 4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। 5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें। 6-संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 7- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। 8-अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। 9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। तथा 10-सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

 

आर्यसमाज लाहौर की स्थापना का आर्यसमाज में उल्लेखनीय स्थान है। इस आर्यसमाज से ही आर्यसमाज को लाला साईं दास, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय और लाला जीवनदास जैसे प्रमुख विद्वान व नेता मिले। गुरुकुल कांगड़ी जैसी विश्व विख्यात राष्ट्रीय शिक्षा संस्था और डी.ए.वी. आन्दोलन में भी आर्यसमाज लाहौर व पंजाबस्थ आर्यसमाजों की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। महर्षि दयानन्द जी का पं. लेखराम रचित विस्तृत जीवन चरित भी पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा की ही देन है। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के बाद महर्षि के यश व गौरव को बढ़ाने और समाज सुधार व धर्म सुधार व प्रचार का जो कार्य आर्यसमाज लाहौर और पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा ने किया वह इससे पूर्व स्थापित आर्यसमाजों और प्रादेशिक सभाओं से नहीं हो सका। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों को आर्यसमाज की स्थापना और आर्यसमाज के नियमों की इतिहास व निर्णय संबंधी जानकारी मिलेगी। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001