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मूक पशु भैंसों की हत्या रोकने पर महर्षि दयानन्द और उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह के बीच वार्तालाप और उसका शुभ परिणाम’

ओ३म्

स्वामी दयानन्द जी सितम्बर, 1882 में मेवाड़ उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जन सिंह के अतिथि थे। नवरात्र के अवसर पर वहां भैंसों का वध रोकने की एक घटना घटी। इसका वर्णन महर्षि के 10 से अधिक प्रमुख जीवनीकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। हम यहां मास्टर लक्ष्मण आर्य द्वारा महर्षि दयानन्द के उर्दू जीवन चरित में प्रस्तुत घटना को प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु कृत हिन्दी अनुवाद से प्रस्तुत कर रहें हैं:

स्वामी जी मूक पशुओं के वकील बनेजब विजयादशमी पर्व आया तो स्वामी जी बग्घी पर बैठकर दशहरा देखने गये तो नवरात्र पर्व पर बलि के लिए भैंसें बहुत मारे जा रहे थे। इस पर स्वामी जी ने उदयपुर के राजदरबार से एक तार्किक विवाद किया। एक अभियोग के रुप में कहा कि भैंसों ने हमें वकील किया है। आप राजा हैं। हम आपके सामने इनका केस (अभियोग) करते हैं। पुरातन प्रथाओं के नएनए रूप दिखाते हुए अन्त में स्वामी जी ने उन्हें समझा दिया कि भैंसों के मारने से पाप के अतिरिक्त कुछ भी लाभ नहीं। यह अत्यन्त क्रूरता है, अन्याय है। तत्पश्चात् स्वामी जी ने उन्हें इससे रोका। तब महाराणा जी (उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह) ने स्वीकार किया और कहा कि हम अविलम्ब तो बन्द नहीं कर सकते, ऐसा करना उचित है। लोग क्रुद्ध होंगे। तब स्वामी जी ने कहा, अच्छा शनैः शनैः घटा दो। तदनुसार वहीं सूची बनाई गई। राणा जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं धीरेधीरे इसे घटाने का प्रयास करूंगा।

 

दयानन्द जी गायों के समान भेंस, बकरी, भेड़ इत्यादि सभी उपकारी पशुओं की सुरक्षा व संवर्धन के पक्ष में तथा उनकी हत्या कर मांसाहार के विरुद्ध थे। वह कहते थे कि पशुओं की हत्या वा मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक बन जाता है और वह योग विद्या के लिए पात्र वा योग्य  नहीं रहता।  योग विद्या का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति और उसका साक्षात्कार है जिसके लिए योगी को बहुत कम मात्रा में शुद्ध शाकाहारी भोजन ही लेना होता है।  मांसाहार करने वालों को अपने इन कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से कालांतर में भोगना ही होता है।  अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम। मनुष्य को मनुष्य मननशील  होने के कारण व सत्य व असत्य को विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करने के कारण कहते हैं।

 

स्वामी दयानंद द्वारा दी गई मनुष्य की परिभाषा भी पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है: 

  ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरुप धर्म से पृथक कभी होंवे।स्वामी जी ने इन पंक्तियों में जो कहा है, उसका उन्होंने अपने जीवन में सदैव पूर्णतः पालन किया और विरोधियों के षडयन्त्र का शिकार होकर दीपावली 30 अक्तूबर, 1883 ई. को अपना जीवन बलिदान कर दिया।

हम आशा करते हैं कि पाठक इससे उचित शिक्षा ग्रहण करेंगे।

 

प्रस्तुतकर्तामनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 

 

धर्म विषयक सत्य व यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करना व कराना कठिन कार्य है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का चतुर्थ नियम यह बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इस नियम को सभी मनुष्य चाहे वह किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सत्य मानते व स्वीकार करते हैं परन्तु व्यवहार में वह ऐसा करते हुए अर्थात् असत्य को छोड़ते और सत्य को ग्रहण करते हुए दीखते नहीं है। महर्षि दयानन्द ने लगभग समस्त धार्मिक सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं से युक्त ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा। आज भी यह ग्रन्थ देश-विदेश में प्रचारित व प्रसारित है। होना तो यह चाहिये था कि सभी पठित व विवेकी लोग इसको पढ़ते, असत्य को छोड़ते व सत्य को स्वीकार कर लेते। परन्तु अपवादों को छोड़कर ऐसा नहीं हुआ। अनुमान है कि सभी मतों व सम्प्रदायों के आचार्यों व उनके अनेक अनुयायियों ने इसे पढ़ा व जाना भी है परन्तु सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़़ने के सिद्धान्त को मानते हुए भी शायद ही किसी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखित सत्य मान्तयाओं व सिद्धान्तों को अपनाया हो। ऐसा नहीं कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का कुछ प्रभाव नहीं हुआ, संसार के मुख्यतः धार्मिक लोगों ने तर्क व युक्ति को अपनाया और तर्क का स्थान कुछ सीमा तक कुतर्क ने ले लिया है। इसका कारण जानना विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं।

 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को लिखने के लेखक के आशय व लोग सत्य मान्यताओं को स्वीकार क्यों नहीं करते, इस पर महर्षि दयानन्द की ग्रन्थ में लिखी भूमिका पर दृष्टि डाल लेते हैं। वह कहते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन (मुख्यतः धर्म मतमतान्तर संबंधी) सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है, उसको सत्य और जो मिथ्या है, उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नही हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात वे स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहे। यहां महर्षि दयानन्द ने यह बताया है कि सभी मतों व धर्म के पक्षपाती लोग अपने असत्य को नहीं छोड़ते और दूसरे मत के सत्य को ग्रहण नहीं करते हैं, ऐसे लोग सत्य मत व धर्म को कभी प्राप्त नहीं हो सकते। वह अपनी हानि तो करते ही हैं, अपने उन अनुयायियों की जो उन पर आंखें बन्द कर विश्वास रखते हैं, उनकी भी हानि करते हैं। यह भी एक वा प्रमुख कारण समाज, देश व विश्व में अशान्ति का होता है।

 

इसके आगे महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ’मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु, इस ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना या किसी की हानि पर तात्पर्य है। किन्तु, जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि, सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द ने मनुष्य के असत्य में झुक जाने का कारण उसकी स्वार्थ की प्रवृत्ति, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों को बताया है। यहां जो कारण बतायें गये हैं, वह निर्विवाद है। यही कारण है कि आज संसार में एक धर्म के स्थान पर अनेकानेक धर्म वा मत-मतान्तर आदि फैले हुए हैं।

 

सभी मत-मतान्तरों के लोग अपने-अपने मत की सत्य व असत्य मान्यताओं पर विवेकरहित होकर विश्वास रखते व आचरण करते हैं, इस कारण वह न तो ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जान पाते हैं और न हि ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान के महत्व को समझ पाते हैं। ईश्वर के ज्ञान वेद से लाभ उठाना तो बहुत दूर की बात है। मनुष्य को अपने सभी काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य व असत्य को विचार करके करने चाहिये, इससे भी यह मताग्रही लोग वंचित रहते हैं जिससे वर्तमान व परजन्म में अनेक हानियां उठाते हैं। संसार का उपकार करना अर्थात् सभी मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना भी मनुष्य का धर्म है, इससे भी यह मताग्रही लोग दूर ही रहते हैं। इन मताग्रहियों का अज्ञानपूर्वक अपने मत को उत्तम मानने के कारण ऐसा देखने को नहीं मिलता कि कि इनका व्यवहार दूसरे मतों के लोगों के प्रति प्रीति का, धर्मानुसार व यथायोग्य है, इस कारण ये यथार्थ धर्म के आचरण से भी दूर ही रहते हैं। संसार का श्रेष्ठ सिद्धान्त है कि मनुष्यों को अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। हम समझते हैं कि शायद् इस मान्यता का कोई भी विरोघी नहीं हो सकता व है। विज्ञान भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करता है और उसने इस सिद्धान्त को अपनाकर ही असम्भव दीखने वाले कार्यों को सम्भव बना दिया है। यदि धर्म में भी अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के इस सिद्धान्त का प्रवेश होता व अब भी हो जावें, तो सभी धर्मों वा मतों से असत्य, अज्ञान, अविद्या व अभद्र दूर हो सकते हैं। मताग्रहियों द्वारा इस सिद्धान्त का यथार्थ रूप में पालन न करने से वह अविद्या से ग्रसित रहते हैं व हैं। मत-मतान्तरों के व्यवहार के कारण अविद्या की भविष्य में भी दूर होने की कोई सम्भावना नहीं है। वेदों का एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि सभी मनुष्यों को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु संसार के सभी मनुष्यों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये। यह सभी मत-मतान्तर इस उद्देश्य की पूर्ति में भी बाधक सिद्ध हो रहे हैं जिसका कारण सत्य को व्यवहार व आचरण में न लाना वा स्वीकार न करना है। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान के कारण इनके सभी अनुयायी सामाजिक सर्वहतकारी नियम पालन करने में परतन्त्र रहने के सिद्धान्त के विपरीत भी आचरण करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं जिससे सभी मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति में बाधा उपस्थित होती है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में ईश्वर पूजा और मूर्तिपूजा को एक दूसरे का पर्याय समझने का खण्डन करते हुए मूर्तिपूजा को अकरणीय व त्याज्य सिद्ध किया था। अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति और सामाजिक विषमता, बाल विवाह, बेमेल विवाह, सती प्रथा, अशिक्षा, अन्धविश्वास व अज्ञान का विरोध कर उन्हें वेद, तर्क व युक्तियों से खण्डित किया था जिसके प्रमाण आजतक किसी को नहीं मिले। इस पर भी इन सबका किसी न किसी रूप में व्यवहार हो रहा है जो कि देश व समाज के लिए हितकर नहीं है। अन्य मत के लोग भी हिन्दुओं का छल, प्रपंच, प्रलोभन, छद्म सेवा, बल प्रयोग व भय से धर्मान्तरण करने के नये-नये तरीके अपनाते रहते हैं। इतिहास में जो हुआ है वह सबके सामने है परन्तु लगता है कि इससे हमारे धर्म व संस्कृति के ठेकेदारों ने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। मनुस्मृति में चेतावनी दी गई है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है तथा जो मनुष्य व समाज धर्म का पालन करके उसकी रक्षा नहीं करता, धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। अतीत में ऐसा हो चुका है कि हमारे पूर्वजों ने जिस पौराणिक मत का पालन किया, उसने उसकी रक्षा नहीं की। गुलामी व देशविभाजन सहित हमारे पूर्वजों, माताओं व बहिनों को अपमानित किया गया व होना पड़ा और अपना धर्म तक गंवाना पड़ा। ऐसा ही कुछ-कुछ वर्तमान व भविष्य में भी हो सकता है। अतः सभी मनुष्यों को वेदों का अध्ययन कर अपने अज्ञान को दूर कर अन्धविश्वासपूर्ण धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं, विचारों व आस्थाओं को बदलना ही होगा। जो पदार्थ लचीला न हो वह टूट जाता है। हमें व संसार के सभी लोगों को लचीला होने का परिचय देना है। सत्य का आचरण ही मनुष्य धर्म है। इसी से मानवता की रक्षा होगी। आईये, सत्य के ग्रहण व असत्य के छोड़ने वा सत्य व असत्य को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन का व्रत लें। अविद्या के नाश व विद्या की उन्नति द्वारा स्वयं की उन्नति के लिए यह अति आवश्यक है। यदि ऐसा कर लाभ नहीं उठायेंगे तो पछताना होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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फोनः09412985121

‘गोरक्षा-आन्दोलन और गोपालन का महत्व’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आर्य विद्वान और नेता लौह पुरूष पं. नरेन्द्र जी, हैदराबाद की आत्मकथा जीवन की धूपछांव से गोरक्षा आन्दोलन विषयक उनका एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘सन् 1966 ईस्वी में पुरी के  जगद्गुरु शंकराचार्य के नेतृत्व में गोरक्षा आन्दोलन चलाया गया था। पांच लाख हिन्दुओं का एक ऐतिहासिक जुलूस लोकसभा तक निकाला गया था। वहां पहुंचकर प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को गोरक्षा नियम बनाने के लिए ध्यानाकर्षण के निमित्त ज्ञापन दिया गया। भारत सरकार ने अपनी शक्ति के द्वारा इस आन्दोलन को समाप्त करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन उभरता ही गया। हजारों आर्य समाजियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। हैदराबाद में पुरी के शंकराचार्य ने 1968 ई. में गोरक्षा-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था – ‘‘गोरक्षा आन्दोलन में आर्यसमाज ने अपना जो योगदान दिया है, उसके लिए मैं आर्यसमाज का जन्म भर आभारी रहूंगा। इस आन्दोलन में 21 गोभक्त शहीद हुए। कांग्रेसी राज्य के अत्याचार अनाचार, मारपीट के बावजूद भारत के कोनेकोने से लगातार जत्थे देहली पहुंचकर अपनेआपको गिरफ्तार कराते रहे। ऐसे अवसर पर चुप्पी साधकर बैठना मेरी (पं. नरेन्द्र की) प्रकृति के विरुद्ध था। मैंने उस समय दिल्ली पहुंच कर 112 सत्याग्रहियों के साथ चांदनी चैक, दिल्ली में हजारों हिन्दुओं और आर्यों की उपस्थिति में सत्याग्रह किया। हम सबको तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, जहां मजिस्ट्रेट ने एकएक मास की सजा सुनाई। हैदराबाद से श्री मुन्नालाल मिश्र, श्री गोपाल देवशास्त्री, श्री सोहनलाल वानप्रस्थी और श्री बंसीलाल जी के अतिरिक्त जालना, गुलबर्गा के आर्य समाजियों ने इसमें बढ़-चढ़ के भाग लिया था। श्री करपात्री जी के त्रुटिपूर्ण नेतृत्व के कारण यह आन्दोलन सफलता के द्वार तक पहुंचने से पूर्व ही सरकार की कूटनीति का शिकार हो गया।’

 

ईश्वरीय ज्ञान वेद में ईश्वर ने गोमाता को ‘‘गो सारे संसार की मां है कहकर सम्मान दिया है। यजुर्वेद के पहले ही मन्त्र में गो की रक्षा करने का निर्देश ईश्वर की ओर से दिया गया है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है। जिस  बच्चे व अति वृद्ध के मुंह में दांत नहीं होते उनका पालन पोषण भी गो दुग्ध के द्वारा होता है। हमने पढ़ा था कि भूदान यज्ञ के नेता विनोबा  भावे जी को उदर रोग था जिस कारण अन्न का सेवन उनके लिए निषिद्ध था और वह गो दुग्ध पीकर ही जीवन निर्वाह करते थे। पं. प्रकाशवीर शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गोहत्या राष्ट्र हत्या में लिखा है कि अनुसंधान में यह पाया गया है कि यदि गो को कई दिनों तक चारा न भी दिया जाये तब भी वह कई दिनों तक भूखी रहकर दूध देती रहती है। हमने स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी की पुस्तक गोदुग्ध अमृत है। में पढ़ा था कि एक निर्धन व असहाय किसान की आंखों की रोशनी चली गयी। उसके घर में एक गाय की बछिया थी जिसे उसका पुत्र पाल रहा था। कुछ महीनों बाद वह गाय बियाई तो घर में दुग्ध की प्रचुरता हो गई। कुछ ही दिनों में उस परिवार में चमत्कार हो गया। उस वृद्ध की आंखों की रोशनी गाय का दूध पीने से लौट आई। आज के समय का सबसे भयंकर रोग कैंसर है। इस रोग में भी गाय का मूत्र कारगर व लाभप्रद सिद्ध होता है। गोसदन में यदि क्षय रोगी को रखा जाये तो उसका रोग भी ठीक हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है।’ मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था। वह अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गोरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गो हत्या को बन्दर करने के लिए सन्तुष्ट वह सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनाई थी जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने के कारण गोरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका।

 

ईश्वर से गोरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह गोकरुणानिधि पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ‘ऐसा सृष्टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख और सुख का अनुभव करे? जब सब को लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तो बिना अपराध किसी प्राणी का प्राण वियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्दित कर्म क्यों होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि प्शुओं का विनाश करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनंद में रहे।

 

हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह गो का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे जिससे वह गोहत्या व गोमांस भक्षण का त्याग करके गो हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकंे तथा उनका अगला जन्म, जो कि निःसन्देह होना ही है, उसमें उन्हें निम्न जीवयोनियों में पड़कर दूसरों जीवों को लिए दुःख के समान स्वयं दुःख न भोग पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

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‘ईश्वर, माता-पिता, आचार्य, वायु, जल व अन्न आदि देवताओं का ऋणी मनुष्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

मनुष्य इस संसार में पूर्व जन्म के प्रारब्ध को लेकर जन्म लेता है। माता-पिता सन्तान को जन्म देने व पालन करने वाले होने से सभी सन्तानें इन दो चेतन मूर्तिमान देवताओं की ऋणी हैं। माता अपनी सन्तान को दस महीनों तक गर्भ में रखकर उसे जन्म देने योग्य बनाती है, इससे उसे जो कष्ट होता है वह सन्तान पर उसका ऋण होता है जिसे सन्तान सारा जीवन उसकी आज्ञा पालन, सेवा सुश्रुषा करे तो भी आंशिक ही अदा कर सकता है। इसी प्रकार से पिता का भी अपनी सन्तान के जन्म व पालन, भोजन-छादन, शिक्षा दीक्षा में योगदान करने से दूसरा सबसे बड़ा ऋण होता है। सभी मनुष्य अपने आचार्यों से ज्ञान प्राप्त कर सत्य व असत्य सहित कर्तव्याकर्तव्य व उचित अनुचित का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः इस ज्ञान के दाता होने से सन्तान अपने गुरूओं व आचार्यों के भी ऋणी होते हैं। यदि अच्छे आचार्य न मिलें तो मनुष्य पशुओं के समान ही होता है। सन्तान सहित इन तीनों माता-पिता-आचार्यों को उत्पन्न करने, सृष्टि की उत्पत्ति कर उसका संचालन करने तथा माता के गर्भ में सन्तान का निर्माण करने आदि के कारण सभी सन्तानें वा मनुष्य ईश्वर के भी ऋणी हैं। ईश्वर का ऋण तो ऐसा है कि जिससे सम्भवतः कोई कभी उ़ऋण ही नहीं हो सकता। यह भी सुखद आश्चर्य है कि ईश्वर एक ऐसी सत्ता है जो अपने किसी उपकार वा ऋण की आपूर्ति की अपने अमृत पुत्रों मनुष्यों से किंचित अपेक्षा नहीं करती तथापि हम सदा सर्वदा के लिए ईश्वर के ऋणी तो हैं ही।

 

ईश्वर, माता, पिता, आचार्य आदि चेतन देवता हैं परन्तु सृष्टि में अग्नि, वायु, जल व अन्न आदि मुख्य जड़ देवता हैं। इनसे भी हम जीवन भर लाभ लेते रहते हैं। अग्नि के बिना संसार के प्रायः सभी व अनेक कार्य ठप्प हो जायें। यह अग्नि हमारे शरीर में विभिन्न रूपों में विद्यमान है जिससे हमारा शरीर चलता है। प्रकाश भी एक प्रकार से अग्नि का ही एक परिवर्तित रूप है। सूर्य की अग्नि व ताप से ही हमारे अन्न, फल व ओषधियों आदि की उत्पत्ति होती है। चन्द्रमा के द्वारा ओषधियों व फलों में नाना प्रकार के रस भरे जाते हैं जिनके सेवन से हमारा शरीर स्वस्थ व बलवान बनता है। इसके बाद वायु पर विचार करें तो वायु हमारे जीवन का प्रमुख आधार है। पृथिवी के चारों ओर और ऊपर मीलों तक विद्यमान वायु ही हमारे प्राणों व जीवन का आधार है। यदि कुछ सेकेण्ड्स या मिनट, पल व क्षणों तक हमें शुद्ध वायु न मिले तो हमारा जीवन समाप्त हो जाता है। हम हर पल व क्षण, श्वास वा प्राणों द्वारा वायु लेते हैं अर्थात् शुद्ध आक्सीजनयुक्त वायु को लेते व अशुद्ध, विकृत व प्र प्रदुषित वायु जो कार्बन डाइआक्साइड की अधिक मात्रा लिये हुए होती है, उसे छोड़ते हैं। इससे हम ईश्वर द्वारा उत्पन्न वायु जो प्राणीमात्र के लिए है, उसे प्रदुषित कर एक प्रकार से प्रकृति व पर्यावरण को प्रदुषित कर उसके संचालन में बाधा उत्पन्न करते हैं। हमारा कर्तव्य बनता है कि हम जितनी वायु को अपने निमित्त से प्रदुषित करते हैं, उतनी वा उससे अधिक वायु को शुद्ध करें परन्तु हम न तो इसको जानने व उसके उपाय करने का प्रयास ही करते हैं और न ही हममें वैसी बुद्धि ही है। हमने देखा है कि आर्यसमाज में विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर वा पुस्तकें पढ़कर लोग वायु शुद्धि हेतु किए जाने वाले यज्ञों के प्रति सहमत व सन्तुष्ट तो हो जाते हैं, परन्तु फिर भी अपनी प्रवृत्ति व अनेक अच्छे व अनावश्यक कार्यों से व्यस्त बनाये अपने जीवन में यज्ञ करने के समय व साधन एकत्र कर उसका अनुष्ठान करते नहीं दीखते। इसका कारण जो दृष्टिगोचर वा समझ में आता है, वह है कि हम अपने शरीर का अन्तः वा बाह्य मार्जन भली प्रकार से नहीं करते हैं। यदि हमारा अन्तःकरण शुद्ध, परिष्कृत वा मार्जित होगा तो हम निश्चय ही यज्ञ को न केवल जानने का प्रयास करेंगे अपितु जानकर उसका अनुष्ठान भी अवश्य करेंगे जिस प्रकार हम उन सभी कार्यों को करते हैं जिनसे हमें किसी न किसी प्रकार का प्रत्यक्ष लाभ दृष्टिगोचर होता है। हमारे विद्वान चिन्तन, मनन, तर्क व विवेचन सहित वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कर यह भी निष्कर्ष निकाल कर हमें बताते हैं कि यदि हम उचित व आवश्यक मात्रा में प्रतिदिन वायु, जल, वर्षाजल आदि की शुद्धि नहीं करेंगे तो हम जन्म व मरण के चक्र से कभी भी छूट नहीं सकते। यज्ञ के अतिरिक्त यदि हम कुछ अन्य अच्छे कर्म करते हैं तो उससे वायु, जल, अन्न, अग्नि आदि का ऋण कम वा समाप्त नहीं हो जाता। इसके लिए तो हमें अवश्यमेव अग्निहोत्र यज्ञ करना ही होगा। यदि नहीं करेंगे तो हमने जितनी मात्रा में वायु, जल, अग्नि व अन्न आदि का उपभोग अपने मनुष्य जीवन में किया है, उसका जो ऋण हम पर बनता है, उसके परिणामस्वरूप ऋण चुकाने या भोग भोगने के लिए हमें बार-बार जन्म लेना ही होगा। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि ईश्वर हमारे सभी असंख्य अर्थात् अनन्त पूर्व जन्मों में हमारा साथी रहा है और भविष्य के अनन्त सभी जन्मों में भी मित्र, सखा, पथप्रर्दशक व साथी रहेगा। वह एक पल के लिए भी हमें विस्मृत नहीं करता। हम उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना करें या न करें, तथापि वह सभी का कल्याण कर सबको सुख देता है। वह हमें अर्थात् एक सूक्ष्म चेतन पदार्थ जीव को मनुष्य जन्म देकर मानव और महामानव तक बना देता हैं, क्या हमें उसको स्मरण कर उसका धन्यवाद नहीं करना चाहिये? प्रत्येक मनुष्य वा जीवात्मा को अपने उस सनातन शाश्वत सखा को न केवल जानना, स्मरण करना व कृतज्ञ ही होना चाहिये अपितु उसकी सेवा व आज्ञा पालन में अपना तन, मन व धन सब कुछ समर्पित कर देना चाहिये। यह समर्पण ही हमें जन्म-मरण से मुक्ति प्रदान करने में सहायक होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने मत-मजहब-सम्प्रदाय को भूल कर ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानकर एक शाश्वत् व सनातन मित्र की तरह उस ईश्वर का स्वागत, सत्कार व उसका आतिथ्य करना चाहिये। यह हमारे अपने लिए अति शुभ परिणामकारी होगा।

 

अब इन सभी ऋणों से उऋण होने पर विचार करते हैं। ईश्वर का ऋण ईश्वरोपासना व उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखकर और साथ हि ईश्वर के दिये वेदों के ज्ञान का अध्ययन व उसका प्रचार व प्रसार कर चुकाया व कुछ कम किया जा सकता है। यह कार्य प्रत्येक मनुष्य के लिए धर्म व कर्तव्य के समान है व आवश्यक है। इसके लिए सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना भी मनुष्य का धर्म व कर्तव्य है। महर्षि दयानन्द ने हमारी सहायता के लिए ईश्वरोपासना सम्पादित करने के लिए हम पर दया व करूणा प्रदर्शित करते हुए सन्ध्या की एक पुस्तक लिखी है जो अति महत्वपूर्ण है। समस्त वेद भाष्य का अध्ययन कर जो-जो कर्तव्य उसमें बतायें गये हैं उन सबका पालन करना उन्होंने मनुष्य का धर्म वा कर्तव्य बताया है। मातापिता के ऋण से उऋण होने के लिए हम क्या कर सकते हैं? इसके लिए तो माता-पिता के प्रति समस्त जीवन कृतज्ञता की भावना व बुद्धि रखना, अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार उनकी तन, मन व धन से सेवा करना, उनसे सद्व्यवहार करना, समय पर उन्हें भोजन कराना, उनके लिए वस्त्र आदि का प्रबन्ध करना व रोगों में उनके उपचार व स्वास्थ्य लाभ का प्रबन्ध करना आदि कार्यों को करके हम माता-पिता के ऋण को कम कर सकते हैं व कुछ सीमा तक उऋण हो सकते हैं। इसी प्रकार से हमारे आचार्यगण हमें जो ज्ञान देते हैं उनका भी हम पर ऋण होता है। उसके निवारणार्थ हमें उनके प्रति आदर व सम्मान की बुद्धि रखते हुए उनकी भी समय-समय देखभाल व उनका प्रिय करना चाहिये। इसके लिए उनकी जो भी उचित आवश्यकतायें हों, उन्हें पूरा करने का प्रयत्न करना चाहिये। इसका दूसरा प्रकार यह भी है कि ऐसे अन्य लोग जो आचार्य रहे हैं वा साधु-सन्यासी आदि होकर समाज, देश व विश्व के कल्याण की भावना से भ्रमण कर लोगों का उपकार करते हैं, उनकी अन्न, जल, वस्त्र सहित धन आदि से सेवा की करें। हमें स्वयं भी यथाशक्ति वैदिक ज्ञान अर्थात् सत्य का प्रचार व प्रसार करना उचित है। इससे हमारा अतिथि वा आचार्य ऋण कम होकर उतर सकता है। न केवल विद्यार्थी वा छात्र जीवन में ही आचार्यों व विद्वानों की संगति की जाती है अपितु गृहस्थी होकर भी इनकी संगति कर इनके ज्ञान व अनुभवों से लाभ उठाना चाहिये। यज्ञ के तीन प्रमुख अर्थों देवपूजा, संगतिकरण व दान में तो देवपूजा = विद्वानों का सम्मान तथा उनका संगतिकरण का साक्षात् विधान विद्यमान है। ऐसा करके ही जीवन यशस्वी व सफल होता है। इस देवपूजा व संगतिकरण से ही स्वामी दयानन्द ऋषि व महर्षि बने और उन्होंने विश्व का कल्याण किया। उन्होंने ज्ञान व विज्ञान का इतना दान किया है कि सृष्टि के अन्त अर्थात् प्रलय काल तक सारे संसार के मनुष्य व अन्य सभी प्राणी इससे लाभान्वित होते रहेंगे।

 

वायु, अग्नि, जल व अन्न आदि देवता जड़ होने पर भी ईश्वर द्वारा उनकों सौंपे गये कार्यों को बखूबी कर रहे हैं। इन सभी जड़ देवताओं के ऋण से उऋण होने के लिए ईश्वर ने वेद में मनुष्यों को यज्ञ करने की प्ररेणा व  आदेश दिया है। ईश्वर की आज्ञा की पूत्यर्थ महर्षि दयानन्द सहित हमारे पूर्व ऋषियों व मनीषियों ने यज्ञ का विधान बनाकर हमें प्रदान किया है। हमें यज्ञ विज्ञान का अध्ययन कर उसका स्वयं पालन करने के साथ उसका प्रचार व प्रसार भी करना चाहिये जिससे हम इन सभी जड़ देवताओं के ऋण से उऋण हो सके। हम यह भी समझते हैं कि आज के आधुनिक युग में संसार में यदि कोई श्रेष्ठ जीवन पद्धति है तो वह वैदिक जीवन पद्धति ही है जिसमें सभी सद्कार्यों को करने की छूट असद्कार्यों से बचने करने का निर्देंश है। यदि हम इस जीवन पद्धति को नहीं अपनायेंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि हम जीवात्मा की अमरता व ईश्वर के शाश्वत् कर्म-फल विधान को विस्मृत कर रहे हैं। ऐसा करके हम जन्म जन्मान्तरों में दुःख के भागी होंगे। आईये, ईश्वरोपासना, दैनिक अग्निहोत्र देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ को करते हुए हम ईश्वर से मांग करें कि ‘‘हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः। अर्थात् ईश्वर हमारे जप, उपासना सहित अनेक कर्मों के अनुसार हमें धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की सिद्धि शीघ्र प्रदान करें।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

दासता के 66 वर्ष तिब्बत की दासता की व्यथा कथा निर्वासित सरकार के शब्दों में

तिब्बत परिचयःतिब्बत सामान्यतः ‘विश्व की छत’ के रूप में जाना जाता है। भारत के दो तिहाई आकार से अधिक यह पश्चिम से पूर्व तक 2,500 किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस समय विश्व भर में लगभग 60 लाख तिबती हैं।

यह ऊँची बर्फ से ढ़की चोटियों से शुरु होकर पथरीली पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। एशिया की चार महानतम नदियाँ- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु- तिब्बत से निकलती हैं। भारी मात्रा में खनिज और अद्वितीय प्रकार के पौधे और जंगली जानवर यहाँ पाए जाते हैं।

सातवीं शतादी में यहाँ इसके पुरातन धर्म बौन के स्थान पर बौद्ध धर्म का प्रचलन आरभ हुआ। अब यह हमारी पहचान का अविभाज्य अंग बन चुका है। लगभग प्रत्येक परिवार के घर में बौद्ध देवताओं की प्रतिमाएँ हैं। कुछ तिबती अभी भी बौन धर्म को मानते हैं और कुछ मुस्लिम और ईसाई भी हैं।

अधिकतर तिबती लोग अपना जीवन-निर्वाह पशु-पालन और कृषि से करते थे। कुछ अन्य व्यापारी और कारीगर भी थे। सरकार, मठों धनाढ्यजनों के पास जो धरती थी, उन पर कृषक किराए पर खेती करते थे। कई तिबती लोगों के पास अपनी निजी कृषि योग्य भूमि भी थी।

सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं में नारी भी पुरुष के समान उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती थी और कुछ महिलाएँ राजनीति में भी अपना प्रभाव रखती थीं। तिबतियों में एक प्राचीन कहावत है- ‘यदि वह देश में खुशहाली लाती है तो एक भिक्षुणी भी तिब्बत की शासक हो सकती है।’ यह कहावत हमारे पुरातन तिब्बत की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता की सामान्य भावना को चिह्नित करती है।

प्रबन्धकर्ता– शेवो लोसंग थारगे, तिब्बत में तिबती प्रशासन के पूर्वाधिकारी।

चीनी अधिकार से पहले तिबतःतिब्बत 2000 वर्षों से अधिक समय तक एक स्वतन्त्र देश रहा है। इसकी अपनी सरकार, नागरिक सेवाएँ, न्यायिक पद्धति, मुद्रा, सेना और पुलिस बल थे।

चीन के साथ हमारे सबन्धों को देखने के लिए बहुत पीछे जाना पड़ेगा। आठवीं शतादी में चीन की प्राचीन राजधानी ज़ियान पर तिबतियों का अधिकार था। कभी-कभी चीन का तिब्बत पर प्रभाव था और कभी-कभार दोनों ही विदेशी शासन के अधीन रहे। किसी भी प्रकार से कभी भी तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं था।

उन्नीसवीं शतादी के अन्त से अंग्रेजों और रूसी साम्राज्यों ने तिब्बत पर अपना प्रभाव जमाना चाहा। 1904 में अंग्रेजों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। परिणाम-स्वरूप एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जिसने वास्तव में तिब्बत को एक पूर्ण स्वतन्त्र देश के रूप में स्वीकृत किया।

हमारी सरकार, गंदेन फोड़ं, सर्वप्रथम 1642 में स्थापित हुई। राजा सोंगत्वेन गापों द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुकूल हमारी सरकार की कार्य-पद्धति थी। इसके पास लौकिक और धार्मिक- दोनों अधिकार थे, जिनके मुखिया तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक नेता दलाई लामा थे। शिष्टजन और भिक्षु- दोनों ही शासन प्रबन्ध में अधिकारी थे।

13वें दलाई लामा ने हमारे देश और सरकार में सुधार लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक तार सेवा और आधुनिक सो की स्थापना की तथा तिब्बत की प्रथम अंग्रेजी पाठशाला की स्थापना का समर्थन किया।

अपने जीवन काल में 13वें दलाई लामा ने सायवाद के प्रसार से हमारे देश को होने वाले खतरे से सावधन करने के लिए घोषणा पत्र जारी किया। 1950 में 14वें दलाई लामा मात्र 15 वर्ष के थे जब उनके पूर्ववर्ती दलाई लामा की चेावनी सत्य सिद्ध हो गयी।

प्रबन्धकर्ता– रिचेन डोल्मा ठरिंग, तिबती होस फाउंडेशन मसूरी के संस्थापक।

एक पैनी दृष्टि घर की ओरः1949 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया। आक्रमण के साथ-साथ ही ऐसी नीतियाँ और कार्य आरभ हो गए जिनका लक्ष्य था तिब्बत की पहचान तथा उसकी पारपरिक जीवन पद्धति को मिटा देना। इसी कजे के परिणामस्वरूप युद्ध, भुखमरी, फाँसी तथा श्रम शिविरों का शिकार हो कर 10 लाख से ऊपर तिबती मृत्यु का ग्रास बन गए। बहुमूल्य आध्यात्मिक तथा भौतिक वस्तुऐं लूट ली गई, जला दी गई, ध्वस्त कर दी गई और वे सदा-सदा के लिये लुप्त हो गईं। तिब्बत के वन काट दिये गए और उनकी पवित्र झीलें दूषित की गई। तिब्बत एक विशाल सैनिक आधार- शिविर तथा आणविक कचरे का ढेर बन गया।

चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसाने की नीति ने तिबतियों को अपने ही देश में अल्पसंयक बना दिया है। अब तो तिबती संस्कृति तथा उसकी पहचान को बचाए रखना भी खतरे में है।

जबर्दस्ती कब्जे  के भय ने अनेकों तिबतियों को अपनी जन्मभूमि छोड़ कर पलायन करने पर बाध्य किया। अधिकांश शरणार्थियों को इस भयावह पलायन में पैदल हिमालय की पर्वत शृंखलाओं से जाना पड़ा और कटु स्मृतियों के सिवाय वे कुछ भी साथ न ले जा पाए।

इन्हीं स्मृतियों पर आधारित है ‘एक पैनी दृष्टि घर की ओर’। निष्कासन में रह रहे तिबती समाज के प्रतिनिध इसके 11 संग्रहाध्यक्ष हैं। राष्ट्र गाथा से गुथीं उन्होंने अपनी व्यक्तिगत कथाओं का वर्णन किया है तथा अपनी स्मृतियों को दृश्य रूप दिया है।

यह प्रदर्शनी बिबों तथा गाथाओं का एक ताना-बाना है, जिसमें एक साथ समष्टि की स्मृति- चेतना, स्मरण तथा आशाएँ बुनी गई हैं। ये गाथाऐं आपको, हर आगन्तुक को ले जाती है एक यात्रा पर, जिसमें चित्रित हैं आक्रमण की क्रूर कालिमा, विध्वंस और दमन, यह तिब्बत के गौरवमय भूत पर रोशनी डालती है तथा भविष्य की आशाओं की अभिव्यक्ति करती है।

विश्व-व्यापी तिबती संस्थाओं तथा समाज और तिब्बत के मित्रों के सहयोग से केन्द्रीय तिबती, प्रशासन द्वारा इस संग्रहालय एवं प्रदर्शनी को मूर्तरूप देना सभव हुआ।

आक्रमणः1949 में नवस्थापित चीनी लोक गणराज्य का प्रथम कार्य तिब्बत की मुक्ति था। कुछ महिनों के बाद उन्होंने आक्रमण कर दिया।

7 अक्टूबर 1950 में 40,000के लगभग चीनी सैनिकों ने देरगे, रिवोछे और सिदा की ओरस से त्रिकोणीय आक्रमण किया। 6,000 सेाी कम सैनिकों की हमारी सेना पराजित हो गयी और आक्रमणकारी छादो की ओर बढ़ गए।

छदो में तत्काल बैठक बुलाई गयी और निर्णय लिया गया कि राज्यपाल न्गाबो को छादो से भाग जाना चाहिए। हमारी सेना के पास आत्मसमर्पण के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। नगर में अफरा-तफरी मच गई और दो दिन तक शस्त्र और बारुद की आतिशबाजी चलती रही।

उधर ल्हासा में छादो का पतन एक दुःस्वप्न की भांति था। भिक्षु सैनिकों और सेना अधिकारियों द्वारा चीनी आक्रमणकारियों को रोकना असफल होगया और तिबती सरकार आक्रमण को रोकने केलिए राजनैतिक वार्तालाप का रास्ता ढूंढती रही।

23 मई 1951 को बीजिंग में चीनी सरकार के साथ बातचीत के लिए गए हुए दल को 17 सूत्री अनुबंध पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसमें तिब्बत की ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ तथा चीन में विलय की घोषणा की गई।

समस्ताम चीनी आक्रमणकारियों के लिए कूच का मैदान हो गया, वे जल्दी ही ल्हासा पहुँच गए।

प्रबन्धकर्ता– स्वर्गीय सोनम टाशी, तिबती सेना के अंग-रक्षक तथा सैन्य बल के पूर्व अधिकारी।

प्रतिरोधःचीन आधिपत्य के विरोध में आक्रमण के समय से खम और आदो में आरंभ हुआ विद्रोह 1956 तक पूर्वी तिब्बत में बड़े पैमाने के छापामार (गोरीला) युद्ध के रूप में विकसित हो गया। 1958 के प्रारभ में खम के प्रतिरोधी नेताओं ने ल्हासा में छु-शी-गंगडुक (चार नदी छह पहाड़) के नाम से गोरीला आन्दोलन का गठन किया।

16 जून 1958 को सर्वप्रथम द्रिगुथांग ल्होखा में संगठित तिबती विरोधी आन्दोलन तेन्सुंग दंगलंग मग्गर (तिब्बत के स्वयंसेवी स्वतन्त्रता सेनानी) का घ्वजारोहण हुआ। अंडुग गोपो टाशी इसके मुय सेनापति मनोनीत हुए। तिब्बत के सभी भागों से अनेक रंगरूट हमारे साथ समिलित हुए और शीघ्र ही हमारे 5,000 से अधिक सदस्य हो गए।

इसके बाद शीघ्र ही लड़ार्ई शुरु हो गयी। ञेमो में हमने सबसे बड़ी लड़ाई का सामना किया। हमारे एक हजार से कम सिपाहियों ने हमसे कहीं बड़ी चीनी सेना का सफलतापूर्वक सामना किया।

10 मार्च 1959 को ल्हासा में एक जनविद्रोह हुआ। जिसके फल-स्वरूप हजारों तिबती मारे गए। अब परम पावन दलाई लामा तिब्बत में बिल्कुल सुरक्षित नहीं थे और उन्होंने अपना देश छोड़ कर भाग जाने का निश्चय किया। हमने भारतीय सीमा तक सारे रास्ते उनके सुरक्षित निकलने के लिए पहरा दिया। यह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलधि थी।

हमने चीनियों के साथ लगभग 103 लड़ाईयाँ लड़ीं। कुछ समय तक दक्षिणी और पूर्वी तिबती भागों पर नियंत्रण रखा पर साधनों और प्रशिक्षण के अभाव में अन्ततः हमें अपने से कहीं अधिक बड़ी चीनी फौज से परास्त होकर भागना पड़ा।

शीघ्र ही प्रतिरोधी गतिविधियाँ नेपाल में मुस्तांग से पुनः प्रारभ हुई और ये 1970 के दशक तक जारी रहीं।

प्रबन्धकर्ता– नटू नवांग- छु-शी-गंगडुक के पूर्व सदस्य और तेन्सुंग दंगलंग मग्गर के उप-सेनापति।

विनाशः- चीन के तिब्बत पर नियन्त्रण की कार्यवाही जो तिबती संस्कृति, धर्म और अन्ततः इसकी पहचान को मिटा देने वाली नीतियों को लक्ष्य करके की जा रही थी, ने बड़े पैमाने पर इसका भौतिक विनाश किया है।

तिब्बत संस्कृति और धर्म के योजना-बद्ध ध्वंस ने 6,000 से अधिक मठों और मन्दिरों का विनाश देखा। जो थोड़े बहुत आज बचे भी हैं, वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण के बजाय उनका उपयोग मात्र पर्यटकों को आकर्षित करने का केन्द्र बना है। मूल्यवान धर्मपुस्तकों और प्रतिमाओं को नष्ट किया गया है। सोना, चाँदी आदि से निर्मित प्रतिमाओं को पिघलाकर उपयोग में लाया गया है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया गया है। चीनियों ने धर्मपुस्तकों का जूते के तलें के रूप में प्रयोग किया है।

कारावास तथा पूछताछ के दौरान जो तकलीफ और शारीरिक यंत्रणा तिबतियों ने भोगी, उसकी कल्पना भी मानव की बुद्धि से परे है। लगभग 1.2 लाख तिबती श्रम शिविरों में यंत्रणा और भूख के कारण चीनी निर्दयता के क्रू र उत्पीड़न के परिणाम-स्वरूप मृत्यु को प्राप्त हुए।

अब भी तिबतियों की आत्मा का क्रूरता से विनाश किया जा रहा है। हमारे घरों पर अनाधिकृत कजा, हमारे धर्म को मिटा देने की कोशिशें तथा तिबतियों के मध्य अविश्वास और परस्पर विरोध पैदा करने के प्रयत्न तिबतियों की सोच और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को दीर्घ-कालीन नुकसान पहुँचाने का कारण बनी हैं।

चीनी सरकार द्वारा तिबती प्राकृतिक स्रोतों का दोहन, अत्यधिक वन-विनाश और अनियंत्रित शिकार ने तिब्बत के कोमल पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाया। तिब्बत के कुछ भू-भाग को परमाणु परीक्षण और परमाणु कचरा दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। तिब्बत के पर्यावरण विनाश के प्रभाव मात्र तिब्बत के पठार पर ही नहीं अपितु चीन के साथ अन्य एशिया देशों में भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।

होरछड़ जिमे पूर्व-निदेशक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शोधकेन्द्र नोरवूलिंका संस्थान।

पलायनः- 1959 से लगभग एक लाख तिबती पड़ोसी देशों में भाग गए। चीनी आक्रमण और कठिन परिस्थितियों के कारण अनेक रास्ते में ही काल के ग्रास बन गए। प्रतिवर्ष तिब्बत में उत्पीड़न और उपद्रव के कारण हजारों तिबती पलायन करते हैं।

1993 की शरद ऋतु में चीन का ‘पुनर्शिक्षण’ दल हमारे मठ में आया। मैंने उनके दलाई लामा को दोषी करार देने की आज्ञा को मानने से इन्कार किया और मुझे लगा कि मेरे पास यह स्थान छोड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं, मैंने भारत में आने का निश्चय किया।

कुछ सप्ताह बाद मैंने तीन अन्य तिबतियों के साथ अपनी यात्रा आरभ की। हम चीनी सैनिक बलों के मुठभेड़ से बचने के लिए ऊंचाई पर जा रहे थे। हमें भारी बर्फानी तूफान का सामना करना पड़ा, हम रास्ता भूल गए। हमारे कबल आन्धी ले गई और हिम-दंश से पीड़ित थे पर हमारे पास चलते रहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।

तीन दिनों के पश्चात् हम सिक्किम में तिबती बंजारों के शिविर तक पहुँचे। हम बुरी तरह से थक चुके थे और हमारे शरीर में तुषार के दिए घावों में भयंकर पीड़ा हो रही थी। बंजारे हमें भारतीय सेना चौकी में उपचार के लिए ले गए। मुझे अपने स्वास्थ्य से अधिक इस बात की चिन्ता थी कि कहीं चीनियों को मेरी सूचना न मिल जाए।

हमें गंगटोक अस्पताल में भरती किया गया पर मेरी हालत में कोई सुधार नहीं आया। छः महीनों के बाद मेरी टांगों और मेरी कुछ अंगलियों  को मेरी शरीर से अलग कर दिया गया।

अन्ततः हममें से दो को धर्मशाला जाने की अनुमति दे दी गयी पर अन्य दो, जिनकी शारीरिक हालत कुछ अच्छी थी, उनको वापिस तिब्बत भेज दिया गया।

जब हम धर्मशाला पहुँचे तो हमें दलाई लामा के पास साक्षात्कार के लिए ले जाया गया। वहाँ क्या हुआ, मैं कुछ याद नहीं कर सकता। मैं मात्र रो पड़ा।

प्रबन्धकर्ता– मिमार छिरिंग, तिब्बत के धारगेलींग मठ के पूर्व भिक्षु।

चीनीकरणःजबसे तिब्बत पर चीन ने अधिकार किया उनके मुय उद्देश्यों में सर्वप्रथम तिबती राष्ट्रीय पहचान, संस्कृति तथा धार्मिक विश्वासों का क्रमिक ह्रास करके तिब्बत को चीनी राष्ट्रीय राज्यों में एक-जातीय मज्जित करना है।

सर्वप्रथम चीनी नेताओं द्वारा बड़े पैमाने पर लोकतान्त्रिक सुधारों की घोषणा तिब्बत के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रभुत्व को समाप्त करने का लक्ष्य करके की गयी। सितबर 1965 में तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के निर्माण के साथ यह प्रक्रिया अपनी चरम पर पहुँच गयी।

1966 में ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ की ध्वजा तले ‘लाल पहरेदारों’ ने तिबती सयता के विशिष्ट चिह्नों को निर्मूल कर दिया, जैसे मठ और पवित्र ग्रन्थ। अपेक्षाकृत थोड़े से समय में हमारी पुरातन सयता का तीन चौथाई हिस्सा विनष्ट हो गया।

80 के दशक में जो सुधार नीतियाँ घोषित की गयीं, उन्होंने कुछ आर्थिक परिवर्तन किए परन्तु अतिसूक्ष्म धूर्त सांस्कृतिक चीनीकरण की नीति जारी रही। आज हमारा धर्म और हमारे संस्थान समाजवादीकरण की प्रवृत्ति के लिए बाध्य हैं। शिक्षा और प्रबन्धन में चीनी भाषा को प्रधानता दिया जाना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तिबतियों को हाशिए पर रख देता है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय यह भी है कि हमारे अपने ही देश में जनसंया का स्थानान्तरण करके तिबतियों को अल्पसंयक रूप में परिवर्तित करना हैं।

निःसन्देह हमारी सयता के लिए समय हाथ से निकलता जा रहा है। तिब्बत का प्रश्न इसके सांस्कृतिक और राजनैतिक अस्तित्व का प्रश्न है। इससे पहले कि देर हो जाए, एक सांस्कृतिक नव जागरण ही तिब्बत में और निर्वासन में इसकी गति को बरकरार रख सकता है।

प्रबन्धकर्ता : कुन्छोग चुन्डू, प्रोजेक्ट अधिकारी, योजना परिषद, केन्द्रीय तिबती प्रशासन।

मानवाधिकार हननः चीन के द्वारा तिब्बत में मानवाधिकार हनन उसके अवैध कजे के साथ शुरू होने के पश्चात् आज तक जारी है। यह वैयक्तिक मानवाधिकार के हनन के साथ-साथ तिबती लोगों के सामूहिक अधिकारों पर भी संस्थागत एवं योजना-बद्ध आक्रमण है।

22 नवबर 1989 को मैंने अपने मठ की पाँच अन्य भिक्षुणियों के साथ ल्हासा में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में भाग लिया। हमें उसी समय गिरतार करके कारागार में भेज दिया गया।

दो महीने तक मुझसे पूछताछ जारी रही। मुझे छत से टांग दिया गया और मेरे शरीर पर सिगरेट दागे गए। मुझे धातु की तारों से बूरी तरह पीटा गया और मेरे अन्य साथियों को बिजली के छड़ी उनके आन्तरिक अंगों में ठूंसे गए थे।

तत्पश्चात् मुझे सात वर्ष की कैद का दण्ड दिया गया और द्राप्ची जेल में भेज दिया गया। वहाँ परिस्थितियाँ बहुत कठोर थीं। वहाँ कभीाी पर्याप्त खाना और मूल-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं थी तथा सभी कैदियों से काम करवाया जाता। अपने हिस्से के कार्य को समाप्त न करने की स्थिति में कारावास की अवधि बढ़ा दी जाती।

हमें अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं करने दिया जाता। फिर भी हमने छिप-छिप कर रोटी से जप-मालाएँ बनायीं, मिलकर प्रार्थना की और हम में से कुछ ने स्वतन्त्रता के गीतों की कैसेट भी रिकॉर्ड करवाई। उनके पकड़े जाने पर हमें सत दण्ड भी दिया गया।

जब मुझे जेल से रिहा कर दिया गया तो मुझे अपने मठ में नहीं जाने दिया गया और मेरी गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी। मेरे अधिकतर रिश्तेदार और मित्र डरके मारे मेरे साथ सबन्ध रखने से कतराने लगे, तभी मैंने भागकर भारत जाने का निश्चय कर लिया।

– भिक्षुणी रिजिंन छुत्री, तिब्बत की पूर्व-शुग्सेव भिक्षुणी-मठ से।

एक ज्वलन्त प्रश्न-तिबती आत्मदाह की ओर रुख क्यों कर रहे हैं?ः- चीनी दमन के अधीन सपूर्ण तिब्बत में सन 2008 के शान्तिपूर्ण जनविरोध के बाद लगभग सैन्य शासन लागू हो गया है। गत 60 वर्ष के चीनी दमन और सतत कठोर नीतियों के कारण तिब्बत में तिबतियों ने आत्मदाह के द्वारा विरोध शुरू किया है।

फरवरी 2009 से अप्रैल 2015 तक कुल 138 तिबतियों द्वारा आत्मदाह किया जा चुका है। जिसमें 119 लोगों का देहान्त हो चुका है और बाकी बचे लोगों के हालत का कुछ पता नहीं चल पाया है। आत्मदाह करने वाले जिनमें अधिकतम युवा या पूर्ण स्वस्थ लोग हैं। वे तिबतियों की आजादी और दलाई लामा जी की तिब्बत वापसी की माँगों की नारे लगाते हुए अपने आप को अग्नि के हवाले कर रहे हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया वा पर्यटकों से कट जाने के कारण बहुत कम लोग ही तिब्बत में हो रहे इन घटनाओं को जान पा रहे हैं।

साठ साल के चीनी अधिपत्य और शासन तिबतियों की पीड़ा को सबोधित करने में असफल रहा है। तिबतियों की मूल आजादी और संस्कृति वा पहचान का संरक्षण के जायज चाह को दमनकारी तारीकों से चुनौती दी जिनसे तिब्बत में राजनैतिक दमन, आर्थिक हशियापन, सांस्कृतिक विलयन और पर्यावरण का विनाश हुआ। अतः पारंपरिक विरोध प्रदर्शन के लिए कोई जगह ना पाने के कारण तिबतियों की पीड़ा की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए तिबतियों ने आत्मदाह को एकमात्र तरीके के रूप में देखा।

राजनैतिक दमनःतिब्बत में राजनैतिक दमन का सबसे दृष्टिगत रूप धार्मिक आस्था के स्वतन्त्रता पर कड़ा अंकुश और राष्ट्रभक्ति शिक्षा की तीव्रता है, जिसके तहत भिक्षु और भिक्षुणियों से बलपूर्वक दलाई लामा की निन्दा करवाना और चीनी सायवादी दल के प्रति निष्ठा दिलाना है।

लोकतान्त्रिक प्रबन्धक समिति जो सायवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से बना है वह तिब्बत की धार्मिक प्रतिष्ठानों की दैनिक गतिविधियों का संचालन करता है। राज्य नियन्त्रित मठ व्यवस्था बौद्ध धर्म की शिक्षा की अपेक्षा मातृभूमि चीन की प्रति वफादारी वा प्रेम को दोहराता है क्योंकि भिक्षुगण को आधा दिन पार्टी के प्रचार को याद करना पड़ता है। नवबर 2011 के बाद सभी मठों में चीनी सायवादी नेतृत्व के चित्र रखना और चीनी राष्ट्र ध्वज को लहराना अनिवार्य हो गया है तथा मठ और भिक्षुओं के कमरों पर निरन्तर रात्रि छापे पड़ते हैं।

पर्यावरण का विनाशःगत 60 वर्षों में चीनी सरकार ने तिब्बत की नाजुक पर्यावरण को नजरअंदाज कर तिब्बत में कई परियोजना और नीतियों को लागू किया है। तिब्बत में अनियन्त्रित खनन हो रहा है।

सन् 2009 से तिब्बत में खनन से सबन्धित जन विरोध की 20 घटनाएँ दर्ज हुए हैं। खनन और पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे आत्मदाह के मुय कारणों में रहे हैं। नवबर 2012 में छेरिड दोनडुब और कोनछोग छेरिड ने तिब्बत में यागर-थड़ में सोने की खदान के द्वार पर आत्मदाह किया। उसी तरह दो बच्चों की माँ चकमो  क्वीद भी रेवगोड में आत्मदाह से पूर्व जातीय समानता और पर्यावरण संरक्षण की आजादी के नारे लगाये। पुश्तैनी जमीन हथियाना, पवित्र स्थलों का विनाश, रोजगार अवसरों की कमी और पर्यावरण प्रदूषण के कारण तिब्बत में बहुत आक्रोश है।

आज चीनी सरकार पर्यावरण सुरक्षा और पारिस्थितिक प्रवासन के नाम पर पशुपालकों को बलपूर्वक उनकी पुश्तैनी जीवनशैली से बेदखल कर रहे हैं। उनकी सदियों पुरानी जीवन शैली से उन्हें हटा कर कंक्रीट के बने कैपों में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसके कारण गरीबी, पर्यावरण घटान और सामाजिक विघटन हो रहे हैं। आत्मदाह करने वालों में बीस से अधिक लोग पशुपालक परिवार से थे।

आर्थिक हाशियोपरः– तिब्बत की राजधानी ल्हासा के 70 फीसदी व्यवसाय चीनियों के हाथ में है।

– उच्च विद्यालय से शिक्षा प्राप्त 40 फीसदी तिबती बेरोजगार हैं।

चीनी सरकार ने विकास की नई रणनीति अपनाई जो कि आँकड़ों में बढ़त हासिल करने पर केन्द्रित है ना कि अत्पसंयकों के सशक्तिकरण और गुणवत्ता को प्राप्त करने पर। किसी विशेष अभिरुचि को लेकर केन्द्रीय सरकार की सारा निवेश शहरी उद्योग क्षेत्र को जाता है जब कि ज्यादातर तिबतियों की आजीविका ग्रामीण क्षेत्र में है।

ज्यादातर व्यापार पर चीनियों का कजा है। वे रोजगार देने में प्रवासी चीनियों को ही प्राथमिकता देते हैं जो चीनी कार्य शैली से वाकिफ है और बेशक चीनी भाषा से भी। तिब्बत में आर्थिक गतिविधि के लगभग सभी पहलुओं पर भेदभाव पाया जाता है। यहाँ तक कि तिबती और गैर तिबती कामगारों के वेतन में भी फर्क है। तिबती का क्षेत्र चीनी गणतन्त्र के सबसे गरीब क्षेत्रों में एक और तिब्बत के गरीबी का स्तर चीन के सबसे गरीब क्षेत्र से भी बदतर है।

सांस्कृतिक विलयनःतिबती संस्कृति और पृथक् तिबती पहचान को बचाए रखने में तिबती भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तिबतियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूल जिसका उद्देश्य तिबती युवाओं में तिबती संस्कृति और भाषा को सिखाना और बढ़ावा देना है, उन पर कठोर अंकुश है। तिबती छात्रों द्वारा आधुनिक विषय की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में बेहतर रूप से कर पाने के बावजूद चीनी सरकार द्वारा पाठ्यपुस्तकों को तिबती भाषा के बजाए चीनी भाषा में पढ़ाया जा रहा है। परिणामस्वरूप तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में छात्रों को अपनी भाषा और सयता का केवल सतही ज्ञान ही उपलध हो रहा है।

बहुतायत प्रवासी चीनियों के तिब्बत में बस जाने से तिब्बत में ही तिबतियों की पहचान की संकट और बढ़ गया है।

निर्वासन में तिबती समुदायःसन् 1959, ल्हासा में तिबती राष्ट्रीय विद्रोह हुआ था और परम पावन दलाई लामा जी के निर्वासन में आते समय उनके साथ हजारों तिबती पड़ौस के देशों में पलायन कर पहुँचे। आरभ में तिबतियों को शरणार्थी शिविरों में टेंट के अन्दर रखा गया। इस प्रकार उत्तरी भारत में सड़क बनाने का कार्य दिया गया। इसके बाद भारत में रह रहे तिबती समुदाय को भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में धीरे-धीरे लगभग 50 बस्तियों में बसाने का कार्य हुआ। परम पावन जी ने निर्वासन में आने के बाद जल्द ही तिब्बत तथा तिब्बत से बाहर रहने वालों की पहचान बनाये रखने के लिये तिबती प्रशासन तथा संसद स्थापित की।

निर्वासन में तिबती समुदाय के प्रशासन के कार्यालयों तथा संस्थानों के माध्यम से अपनी विरासत को जीवित रखने हेतु संरक्षण व संवर्द्धन में संघर्षरत है। निर्वासन में 80 से अधिक विद्यालय, साथ ही भिक्षु-भिक्षुणियों के लिये लगभग 190 मठ व विहारों का निर्माण किया गया है। केन्द्रीय तिबती प्रशासन ने अपनी अलग-अलग विभागों के माध्यम से तिबतियों के कल्याण में लगे और विश्वभर के 12 देशों के अन्दर प्रतिनिधित्व के रूप में यूरो ऑफिस स्थापित किया गया है। तिबती शरणार्थियों के वर्तमान संया मात्र 130,000 है। इनसे अधिकतर भारत, नेपाल और भूटान में हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका, सुईजरलैण्ड, केनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस इत्यादि अन्य देशों में भी काफी संया में तिबती रहते हैं।

60 के दशक के प्रारभ में, मैं एक शरणार्थी के रूप में भारत पहुँचा था। उस समय वास्तव में एक शिशु के रूप में अपने दादी के पीठ पर नेपाल के रास्ते से भारत में शरण लीया और मैं अपने बड़ों के उस समय की परेशानी व निराशा की अवस्था को नहीं जान सकता था। हालांकि परम पावन दलाई लामा जी के दर्शन और अपने बच्चे को उनके चरणों में अर्पित कर देने मात्र से ही अपने आगे की कठिनाइयों का सामना करने का उत्साह दिखाते हुये, वह अपने सड़क बनाने की कार्य के लिये गाना गाते हुये निकल जाते थे।

इसके पश्चात् धीरे-धीरे तिबती प्रशासन के कार्यालयों एवं तिबती संसद का गठन करते हुए, इतिहास में पहली बार पहला तिबती लोकतान्त्रिक संविधान का मसौदा तैयार किया गया। उसी समय पहला तिबती स्कूल भी खोला गया था। मेरे स्कूली जीवन के भी प्रारभ ऊपर धर्मशाला के तिबती नर्सरी में हुआ था।

हमारे कठिन परिस्थितियों में भारत सरकार ने अपनी कठिनाइयों के बावजूद हम तिबती शरणार्थियों को बहुत मदद की है। प्रारभ में अधिकतर तिबती उत्तरी भारत में सड़क श्रमिकों के रूप में कार्यरत थे। परन्तु जब हमें जल्द ही अहसास हुआ कि निर्वासन में हमें धर्म तथा संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये संघर्ष के क्रम में अधिक ठोस संरचना की जरूरत है। तब हमने भारत सरकार से अपनी समुदाय के लिये बस्तियों के निर्माण हेतु अनुमति के लिये अनुरोध किया था और सरकार ने भी सहयोग व स्वीकृति प्रदान की थी।

सन् 1960 में तिबती बस्तियों में पहला माइलाकुप्पे, कर्नाटक में स्थापित किया गया था। उसी क्रम में भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में कई बस्तियों को स्थापित किया गया। शुरूआत में अधिकतर बस्तियों की स्थिति बहुत दयनीय थी, फिर भी हम धीरे-धीरे कृषि कार्य एवं अन्य आय के स्रोतों को विकसित करते गये। इसी के साथ एक के बाद एक अधिकतर बस्तियों में स्कूल और मठों को बनाया जा सका।

निर्वासन में हमें बहुत कठिन परिस्थितियों में भी अच्छी सफलता मिली है। आज यह बात यकीन के साथ कह सकते हैं कि शरणार्थी तिबती समुदाय एक प्रगतिशील समुदाय बना है। परम पावन दलाई लामा जी ने राजनीतिक सत्ता को जनता द्वारा निर्वाचित सिक्योड को पूर्णरूपेन हस्तांतरण कर, मात्र तिब्बत के आदर्श लोकतान्त्रिक प्रणाली को ही नहीं बल्कि तिब्बत के स्वशासन (स्वायत्त क्षेत्र) के बहाली के लिये मध्यम मार्ग के रास्ते पर प्रतिबद्धता ही हमारे लिये सबसे बड़ी उपलधि है।

प्रबन्धकर्ता– श्री टाशी फुन्छोग, सचिव, सूचना एवं अन्तर्राष्ट्रीय सबन्ध विभाग, केन्द्रीय तिबती प्रशासन, धर्मशाला।

वर्तमान तिबतःतिब्बत आज भी निरन्तर डराने, धमकाने तथा यातनाओं का सामना कर रहा है। जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य अपने मानवाधिकारों का प्रयोगकरते हुए राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं, उन्हें राष्ट्र को अस्थिर करने के लिये कठोर दण्ड मिलता है, जैसे कि गिरितारियाँ, यातनाएँ और कारावास।

तिब्बत के भिक्षु तथा भिक्षुणी मठों में बड़े पैमाने पर चीनी सरकार देशभक्ति पुनर्शिक्षण नामक कार्यक्रम चलाती है। इसका विरोध करने वालों को गिरतार कर लिया जाता है, कारावासों में ठोंस दिया जाता है, यातनाएँ दी जाती हैं, तथा उनके मठों से निष्कासित कर दिया जाता है।

अधिकतर तिबती बच्चों को अनुकूल शिक्षा उपलध नहीं है। सर्वोत्तम विद्यालय चीनी विद्यार्थियों के लिये आरक्षित है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित अनेक विद्यालयों में प्रायः सुविधाएँ विशेषकर नगण्य हैं। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम चीनी भाषा है और तिबतियों का उनमें प्रवेश अत्यन्त कठिन है। चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है और अपने ही देश में हम लोग अल्पसंयक हो गए हैं। 60 लाख तिबतियों की तुलना में अब वहाँ 75 लाख चीनी हैं।

तिब्बत के विशिष्ट धर्म तथा उसकी संस्कृति को नष्ट करने के अतिरिक्त चीनी प्रवासियों की बाढ़ के कारण तिबतियों के पारपरिक रोजी-रोटी के साधनों पर बड़ा कुप्रभाव पड़ रहा है। कृषि उत्पादनों तथा तिबतियों द्वारा बनाई जाने वाली कलात्मक चीजों के मूल्य घटा दिये गए हैं तथा किसानों और व्यापारियों पर बोझिल कर थोपे गऐ हैं। अधिकांश तिबती नौकरी से वंचित रहने पर बिल्कुल असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं।

आर्थिक उदारी-करण तथा खुले बाजार की नीति से तिब्बत के प्राकृतिक साधनों पर बड़ा दबाव पड़ रहा है। चीन के हित में तिब्बत के वनों, खजिनों तथा जल-ऊर्जा संसाधनों का दोहन हो रहा है जिसके परिणाम-स्वरूप तिब्बत के कोमल पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है।

प्रबन्धकर्ता– जेद गोदम पूर्व राजनीतिक बन्दी, मियार प्रेरिंग ……. हस्पताल के चिकित्सक

तिब्बत का भविष्य– एक परिचय, परम पावन 14वें दलाई लामाः- यदि आध्यात्मिक दृष्टि से उल्लेख करें तो हमारे हिम देश तिब्बत के बारे में भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी। यह एक आशीर्वादित पुण्य भूमि है। स्वभावतः यहाँ के लोग करुणाशील तथा धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। हमारी अपने प्रति यही धारणा है और दुनिया का हमारे प्रति दृष्टिकोण भी ऐसा ही है।

सांसारिक दृष्टि से हमारे देश का बड़ा लबा इतिहास है। पुरातात्विक खोजों से पता चला है कि हमारा इतिहास छः से आठ हजार वर्ष पुराना है। तिबती लोग विश्व के सब से ऊँचे पठार के निवासी हैं।

भूत में हमारे लोग बड़ी कठिनाइयों से गुजरे परन्तु एक कौम के तौर पर जीवित रहने में हम सफल रहे हैं। न केवल तिब्बत के प्रति बल्कि किसी भी उद्देश्य के प्रति यदि तिबती लोगों को अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने का अवसर दिया जाए तो भी वे उस पर खरे उतरेंगे। हम ने अपनी संस्कृति का संरक्षण किया है। विशेषतः बौद्ध संस्कृति का जो कि तिब्बत तथा विश्व दोनों के लिए लाभदायक है। मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में हमारी बौद्ध संस्कृति फैली है। तिबती बौद्ध संस्कृति मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में प्रसारित हुई है। तिब्बत के बौद्ध धर्म को एक विश्वसनीय एवं सफल परपरा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।

बौद्ध शिक्षाओं ने तिबती लोगों के स्वभाव को प्रभावित किया है। करुणा हमारी संस्कृति का सार है। हमारे लोग दयालु तथा सरल हैं। आज के संसार में ये महत्वपूर्ण एवं अमूल्य गुण हैं। करुणा तथा दया के सार से युक्त तथा सरलता एवं नैतिकता से सबद्ध हमारी संस्कृति न केवल तिबतियों बल्कि समस्त विश्व के हित में लाभकारी होने की क्षमता रखती हैं। न केवल मानवों अपितु पशुओं के लिए भी सहृदयता हमारी संस्कृति (का अंग) है। हम अकारण ही जीवों का उपयोग, हनन तथा उनकी हानि नहीं करते। ये गुण समस्त विश्व के लिए हितकर है।

हमारी संस्कृति सन्तोष की (संस्कृति) भी है और हम प्रकृति का अत्याधिक दोहन नहीं करते। आज हम देख रहे हैं कि मनुष्य के लालच और असीम आकांक्षाओं के कारण विश्व में अत्यधिक समस्याएँ पैदा हुई हैं तथा पशु जगत् की अथाह क्षति हुई है। अतः भविष्य में तिब्बत में आर्थिक विकास का आधार होना चाहिए अहिंसा और शान्ति। जैसे कि हमारे पहाड़ों का पर्यावरण सुन्दर एवं शीतल है, वैसे ही हमें बौद्ध धर्म की करुणाचर्य्या द्वारा अपने मन को नियन्त्रित तथा शान्त बनाना चाहिए। इस प्रकार हम तिब्बत में शान्ति का वातावरण तैयार कर सकते हैं। तिब्बत के लिए अपनी पाँच-सूत्री योजना में मैंने प्रस्तावित किया था कि तिब्बत एक विसैन्यीकृत, शान्त आयारण्य बने।

भविष्य में तिब्बत का राजनीतिक ढाँचा लोकतान्त्रिक होना चाहिए। राजनीतिक प्रणलियाँ अनेक हैं परन्तु सब से व्यावहारिक प्रणाली वह है जो लोगों को सामूहिक उत्तरदायित्व प्रदान करती है और उन्हें अपने नेताओं को चुनने का अधिकार देती है। यही सर्वोत्तम एवं स्थायी राजनीतिक प्रणाली है। अतः हमें भावी तिब्बत को एक स्वतन्त्र लोकतन्त्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम ऐसा कर पांऐ तो हमारा देश एक ऐसा देश बन जाएगा कि जहाँ मनुष्य तथा अन्य प्राणी अपने सुन्दर पर्वतीय वातावरण में शान्तिपूर्वक रह सकेंगे। इस प्रकार हम सारी दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकते हैं। यह सभव भी है और प्राप्य भी। मैं सदैव इस की कामना करता हूँ तथा एतदर्थ प्रार्थना करता हूँ।

तिब्बत के प्रश्न पर चीनी समर्थकों की संया बढ़ रही है। चीन तथा आर्य देश भारत हमारे सब से महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। इन दोनों देशों तथा तिबती सीमा स्थित हिमालयी राज्यों में तिब्बत के समर्थक विद्यमान हैं। विश्वभर में तिब्बत के समर्थकों की बड़ी संया है। यदि वे सब हमारे लक्ष्य की प्रगति में हमारी सहायता करें तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

परम पावन के तीन प्रमुख प्रतिबद्धताएँः परम पावन चौदहवें दलाई लामा जी के जीवन की तीन अपरिहार्य प्रतिबद्धताएँ इस प्रकार हैं-

  1. उन्होंने एक मानव जीवन के स्तर पर, उन मानवीय मूल्यों जैसे करुणा, क्षमा, संतोष, शील आदि आत्म-अनुशासन का विकास करना है। सभी मानव जीव समान हैं। हम साी सुख चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। ऐसे व्यक्ति जो धर्म पर विश्वास नहीं करते, वे भी अपने जीवन को और सुखी बनाने में इन मानवीय मूल्यों के महत्त्व को पहचानते हैं। इस प्रकार के मानवीय मूल्यों को परम पावन धर्म निरपेक्ष नैतिकता के नाम से सबोधित करते हैं।
  2. धार्मिक अयासी के स्तर पर, धार्मिक सौहार्द की भावना और विश्व के प्रमुख धार्मिक परपरा की आपसी समझ को बढ़ावा देना है। दार्शनिक स्तर पर अन्तर होने के बावजूद सभी प्रमुख धर्मों में अच्छे मानव बनाने की एक समान क्षमता है। अतः सभी धार्मिक परपराओं के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे एक दूसरे का समान करें तथा एक दूसरे की परपराओं के मूल्य को पहचानें। जहाँ तक एक सत्य, एक धर्म का सबन्ध है, इसका एक वैयक्तिक स्तर पर महत्त्व है। परन्तु एक विशाल समुदाय के लिये कई सत्यों, कई धर्मों की आवश्यकता है।
  3. परम पावन एक तिबती हैं तथा दलाई लामा का नाम धारण किये हैं। विशेषकर तिब्बत में तथा तिब्बत से बाहर रहने वाले तिबती लोगों द्वारा उन पर अत्यधिक विश्वास है। इसलिये उनकी प्रतिबद्धता तिब्बत की प्रश्न को लेकर है। उन पर न्यायिक संघर्ष के प्रवक्ता का उत्तरदायित्व है। बौद्ध संस्कृति, शान्ति एवं अहिंसा शिक्षा की रक्षा के लिये प्रयास करना, दमन के नीचे जीवन व्यतीत करने वो उन तिबतियों की एक स्वतन्त्र रूप में प्रतिनिधित्व करना है।

– धर्मवीर

 

अहिंसक होने का दण्ड: डॉ धर्मवीर

एक दिन चीनी गणराज्य ने अपने आपको राजशाही से मुक्त कर साम्यवादी  शासन घोषित कर दिया। साम्यवादी की विचारधारा ने भले ही इंग्लैण्ड में जन्म लिया हो परन्तु विचारधरा फलित हुई चीन और रूस में। चीन ने 1949 में साम्यवादी शासन का प्रारभ किया। पूंजीवाद के विरोध में संसार का सबसे मुखर स्वर बन कर उभरा। साम्यवादी आक्रमकता ने सभी देशों में पुरानी परपरा और संस्कृति को नष्ट कर साम्यवादी के झण्डे के नीचे लाना अपना कर्त्तव्य माना। चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के माध्यम से पड़ोसी देशों पर बलपूर्वक अधिकार करना प्रारभ किया।

चीन ने 1947 के बाद अपना विस्तार करते हुए 7 अक्टूबर 1950 में 40 हजार चीनी सैनिकों के साथ तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण तीन ओर से किया गया। तिब्बत एक शान्तिपूर्ण देश था। जहाँ दलाई लामा सन्त का शासन था। छः हजार सैनिकों की छोटी-सी सेना  थी, जो की विशाल चीनी से परास्त हो गई और उसने चीनी सेना के सामने आत्म समर्पण कर दिया। 23 मई 1951 को तिबती सरकार ने बीजिंग में चीनी सरकार से शान्तिवार्ता की और 17 सूत्री अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिये और तिब्बत ने अपनी दासता का पट्टा लिख दिया। चीन ने इस को तिब्बत की शान्तिपूर्ण मुक्ति बताते हुए तिब्बत के चीन में विलय की घोषणा कर दी। इस प्रकार चीनी आक्रमणकारी तिब्बत के मार्ग से भारत की सीमा पर पहुँच गये।

यह समय भारत की स्वतन्त्रता का समय था। भारत की सरकार एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में थी, जिसमें एक साहित्यकार की योग्यता तो थी परन्तु राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ की दृष्टि का अभाव था। जो समझता था भारत ने अहिंसा के मार्ग से स्वतन्त्रता प्राप्त की है। जो सेना को व्यर्थ मानता था। संसार में शान्ति और सह अस्तित्व की बात करता था और चीन को अपना मानकर पंचशील के सिद्धान्त का पालन करने के लिये तत्पर था और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारों से देश गुंजा रहा था। तिब्बत में दमन हो रहा था, भारत में चाऊ एन लाई जिन्दाबाद का घोष गूंज रहा था। हमारी सरकार और प्रधानमन्त्री ने अपने पैरों पर स्वयं कुठाराघात करते हुए चीन के इस कदम को उचित बताया और तिब्बत को चीन का भाग स्वीकार किया। पं. नेहरू के इस कदम का गृहमन्त्री सरदार पटेल ने विरोध किया था। पटेल ने कहा था- यह चीन का कार्य अनुचित और एक देश की स्वतन्त्रता का अपहरण है परन्तु पं. नेहरू ने अपने को अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बनाने की धुन में पटेल की बात को अनसुना कर दिया। पटेल ने अपने जीवन के अन्तिम भाषण में भी इस भय की चर्चा की थी। तिब्बत पर चीन का समर्थन करना एक आत्मघाती कदम था। ऐसा करना न केवल तिब्बत के लिये हानिकर था अपितु एक शक्तिशाली शत्रु को अपने घर पर निमन्त्रण देने जैसा था, पटेल की भविष्यवाणी सच हुई। परिणामस्वरूप भारत को 1962 के युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा और हजारों वर्गमील भूमि भी गंवानी पड़ी।

इस युद्ध से पूर्व में अनेक राजनीतिक समझ रखने वाले नेताओं ने पं. नेहरू को समझाने का यत्न किया कि चीन की कुदृष्टि तिब्बत के बाद भारत पर है परन्तु पं. नेहरू ने इन बातों की उपेक्षा की समाजवादी नेता और प्रखर राजनीतिज्ञ राम मनोहर लोहिया ने अपने लेखों अपने और व्यक्तव्यों द्वारा भारत सरकार को चेताया था- चीन तिब्बत में जो कुछ कर रहा है, उससे तिब्बत की तो हानि है ही परन्तु भारत का भविष्य संकटमय हो रहा है। लोहिया ने तिब्बत में बनाई जा रही सड़कों, नदियों पर बन रहे, बांधों की चर्चा की थी परन्तु पं. नेहरू ने किसी की न सुनी और न मानी।

जब चीन ने भारत पर आक्रमण करके विशाल भारतीय भूमि पर आक्रमण कर दिया तब भारत की संसद में प्रश्न उठाया गया कि चीन ने भारत की सीमा में घुसकर भारत के विशाल भूभाग पर अधिकार कर लिया है तब प्रधानमन्त्री ने संसद में कहा था- वह भूमि तो बंजर है। वहाँ तिनका भी नहीं उगता, उस समय संसद सदस्य महावीर त्यागी ने पं. नेहरू को उत्तर देते हुए अपनी टोपी सिर से उतार कर कहा था- क्या मेरे सिर पर बाल नहीं उगते तो क्या इसे दूसरे को दे दूँ।

चीनी आक्रमण से पहले तिब्बत भारत के लिये घर आंगन जैसा था। लोहिया ने लिखा था- तिब्बत की डाक व्यवस्था भारत के पास थी। चीनी आक्रमण के बाद हमने अपने कर्मचारियों को वहाँ से बुला लिया। तिब्बत का भारतीय सबन्ध सृष्टि के आदिकाल से रहा है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि के प्रारभ में जल से जो भू भाग ऊपर आया वह तिब्बत ही था। प्राणी जगत् और मानव की सृष्टि का आदि स्थान तिब्बत ही है। तिब्बत को भारतीय ग्रन्थों में त्रिविष्टप् नाम से जाना जाता है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है, आर्य बाहर से नहीं आये हैं। सर्वप्रथम तिब्बत में सृष्टि का प्रारभ हुआ। वहाँ से प्रथम भारत में आकर बसने वाले आर्य मूल भारतीय हैं, विदेशी नहीं। तिब्बत संसार का सबसे ऊँचा पठार है, इसी कारण इसे संसार की छत कहा जाता है। तिब्बत में जहाँ हिमाच्छादित बड़े शिखर हैं, वहाँ पत्थरों के पहाड़ के साथ घने जंगल हैं। एशिया खण्ड की चार बड़ी नदियों का तिब्बत उद्गम स्थान है। इन चार प्रमुख नदियों के नाम हैं- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु। प्रथम दो नदियाँ भारत के पूर्व-पश्चिम में प्रवाहित होती हैं, जो भारत के जल संसाधन का बड़ा स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त सैंकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ तिब्बत से होकर भारत की ओर आती हैं। तिब्बत का विशाल मानसरोवर भारतीय संस्कृति की आस्था का केन्द्र है। हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का यह उद्गम स्थल है। भारत का प्राण कहे जाने वाले ये स्रोत तिब्बत की दासता के कारण भारत के शत्रु के हाथ में चल गये हैं। आज मोदी सरकार को मानसरोवर जाने के लिए चीन की सरकार से मार्ग की याचना करनी पड़ रही है। सारे तिब्बत के संसाधनों के साथ जल स्रोतों का दोहन चीन अपने पक्ष में कर रहा है। वर्षों से समाचार आ रहे हैं, ब्रह्मपुत्र नदी पर बड़े बांध बनाकर चीन ने नदी का स्रोत चीन की ओर कर लियाा है।

तिब्बत की दासता का परिणाम है-चीन और पाकिस्तान की मैत्री। इसी आक्रमण के कारण पाकिस्तान ने कश्मीर का भूभाग चीन को दे दिया और चीन ने बड़ी सड़कों का निर्माण करके पाकिस्तानी बन्दरगाह तक अपनी पहुँच बना ली। सीमा पर हमारी सेना का बड़ा भाग पाकिस्तान और चीन के आक्रमण को रोकने में लगता है, यह हमारी अदूरदर्शिता पूर्ण तिब्बत नीति का परिणाम है। रक्षामन्त्री जार्ज फर्नान्डीज ने भारतीय संसद में कहा था- पाकिस्तान से भी अधिक खतरा भारत को चीन से है। हम ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का समर्थन न किया होता तो न चीन हमारे दरवाजे पर होता न चीन को पाकिस्तान की निकटता का ऐसा अवसर मिलता।

चीन तिब्बत को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं है वह पूरे हिमालय क्षेत्र पर अपना अधिकार जताता है। चीन का कहना है- तिब्बत उसकी हथेली है, उससे लगे भारतीय भू-भाग हाथ की अंगुलियाँ हैं, हाथ मेरा है तो अंगुलिया भी मेरी ही हैं। वह भारत के सिक्किम को अपना भाग मानता है, वहाँ के लोगों को चीन में जाने के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं मानता। भारत सरकार के मन्त्री प्रधानमन्त्री की सिक्कम यात्रा पर वह आपत्ति करता है। सिक्किम में भारत सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों को अवैध और चीनी अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप बताता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने चीन को लेकर सीमा पर कठोर दृष्टिकोण अपनाया है जिससे कुछ सुधार की सभावना बनी है परन्तु हानि तो बहुत हो चुकी है।

तिब्बत पर चीनी आक्रमण और अधिकार वह भारत के लिये घातक है, वहीं मानवता के लिये तिब्बत की जनता के साथ घोर अन्याय है। दासता का भारत ने सैंकड़ों वर्षों तक अनुभव किया है। विगत साठ वर्षों से चीन तिब्बत में वे सब अत्याचार कर रहा है, जो एक क्रूर शासक अपने आधीन के साथ कर सकता है। चीन तिब्बत में विकास के नाम पर तिब्बत में सड़कों का जाल बिछा रहा है, दुर्गम पहाड़ियों पर रेल पहुँचाने का काम चल रहा है। यह कार्य कोई तिबती जनता के लिये नहीं किये जा रहे हैं अपितु भारत की सीमा पर सेना की पहुँच के लिये तथा विदेशों से व्यापार की सुविधा के लिये आवागमन को सरल बनाया जा रहा है। जैसे हमारे देश में अंग्रेज सरकार ने रेल व सड़क का निर्माण भारतीय जनता की सुविधा के लिए नहीं किया था, उसने भी सेना को युद्ध क्षेत्र तक पहुँचाने और सामान को बन्दरगाहों तक भेजने के लिए सड़क और रेल का जाल बिछाया था, भोली-भाली जनता समझती है, अंग्रेज सरकार ने भारत का बड़ा विकास किया है और भारतीयों का कितना उपकार किया है। जब कोई देश दूसरे देश पर अधिकार करता है तो वह वहाँ के चिह्न मिटाने का प्रयास करता है। उस देश के अस्तित्व को मिटाता है। इसमें वहाँ की भाषा, शिक्षा, वेशभूषा, भोजन, संस्कृति, परपरा इन सबको नष्ट करने का काम प्रत्येक शासक अपने आधीन देश के साथ करता है। जो तिब्बत तीन भागों में विभक्त था, उसे चीन ने प्रशासनिक सुविधा के लिये छः भागों में बाँट दिया और तिब्बत में वहाँ के धर्म को समाप्त किया, वहाँ चीनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। तिब्बत की प्राचीन भाषा, लिपि, शिक्षा, शिक्षण सबको प्रतिबन्धित कर दिया। अलगाववाद क्षेत्रवाद के संघर्ष का बीजारोपण किया। तिबतियों को तिब्बत में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया। वहाँ के छः हजार से अधिक मठ-मन्दिरों का विनाश कर दिया, सपत्ति लूट ली गई। मठ जला दिये गये। भिक्षु, भिक्षुणियों को मार दिया गया या बन्दी बना लिया गया। तिब्बत के भाग को परमाणु परीक्षण का स्थल बनाकर परमाणु कचरे का ढेर बना दिया। किसी भी देश को कितना भी पद दलित किया जाये परन्तु वहाँ की आत्मा प्रतिक्रिया करती है। तिबती जनता ने भी चीनी अत्याचारों के विरोध में आन्दोलन किये हैं। सामूहिक रूप से विरोध प्रदर्शन किया है। एक सौ के लगभग तिबतियों ने चीनी अत्याचारों के विरोध में आत्मदाह किया है, बलिदान हुए हैं। चीनी सरकार का विरोध तिबती जनता में निरन्तर चल रहा है। अभी तक साड़े बारह लाख तिबती चीनी अत्याचारों के कारण मृत्यु के ग्रास बन चुके हैं। आज तिबतियों से अधिक संया तिब्बत में चीनियों की है, जहाँ तिब्बत में साठ लाख तिबती हैं, वहाँ पिचहत्तर लाख चीनियों को चीन सरकार ने लाकर बसा दिया है और तिबती नागरिक अपने देश में अल्पसंयक होने के लिये विवश हैं।

यह एक दुर्योग है जब हम स्वतन्त्रता की वर्षगाँठ मनाते हैं तभी तिब्बत अपनी दासता की अवधि पर आँसू बहाता है।

आज इस तिब्बत के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीयों द्वारा समर्थन किया जाना चाहिए। यह एक राष्ट्रहित के साथ अन्तर्राष्ट्रीय और मानवीय कर्त्तव्य है।

जैसी स्वतन्त्रता की बात का समर्थन फिलीस्तीन आदि के लिए करते हैं, उसी प्रकार भारत सरकार को तिब्बत की स्वतन्त्रता का समर्थन करना चाहिए।

तिब्बत की निर्वासित सरकार का केन्द्र भारत में है। तिब्बत की सरकार और उसकी संसद के अधिवेशन हिमाचल प्रदेश के मेक्डोलगंज में होते हैं। यहाँ तिब्बत के वैध शासक दलाई लामा का स्थान है। जहाँ से वे निर्वासित सरकार का संचालन करते हैं। उनका स्वराज्य के लिये मन्त्र है-           यते महि स्वाराज्ये।

ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1

सभी आर्य व ईसाई मित्रो को नमस्ते।

प्रिय मित्रो, जैसे की हम सब जानते हैं – हमारे ईसाई मित्र – ईसा मसीह को परम उद्धारक और पापो का नाशक मानते हैं – इसी आधार पर वो अपने पापो के नाश के लिए ईसा को मसीह – यानी उद्धारक – खुदा का बेटा – मनुष्य का पुत्र – स्वर्ग का दाता – शांति दूत – अमन का राजकुमार – आदि आदि अनेक नामो से पुकारते हैं –

इसी आधार ईसा को पापो से मुक्त करने वाला और – स्वर्ग देने हारा – समझकर – अनेक हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाकर – उन्हें स्वर्ग की भेड़े बनने पर विवश करते हैं – ईसा का पिछलग्गू बना देते हैं – नतीजा – हिन्दू समाज धर्म को त्याग कर – मात्र स्वर्ग के झूठे लालच में ईसा के पीछे भटकता रहता है –

सोचने वाली बात है – ईसाई जो ऐसा षड्यंत्र रच रहे की ईसा से पाप मुक्ति होगी और ईसा को मानने वाला स्वर्ग में प्रवेश करेगा – क्या ये वास्तव में होगा ? क्या ये षड्यंत्र है अथवा सत्य ? क्या कभी धर्म को त्याग कर मनुष्य केवल एक भेड़ बन जाने से स्वर्ग पा सकता है ?

क्या कहती है बाइबिल ?

बाइबिल के अनुसार – सच्चे मसीह को पहिचानने के लिए बाइबिल में कुछ भविष्यवाणियां की गयी थी – जो उन भविष्यवाणियों पर खरा उतरेगा वो ही मसीह कहलायेगा – और जो भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरेगा वो झूठा मसीह होगा – ऐसे मसीह अनेक आएंगे – जो खुद को ईसा और पाप का नाशक कहेंगे – मगर लोगो को सावधान रहकर – सच्चे मसीह पर विश्वास करना होगा – जो झूठे मसीह पर विश्वास करेगा – वो पापी ही कहलायेगा – वो कभी स्वर्ग नहीं जा सकता – ये बाइबिल का कहना है।

आइये एक नजर डाले – जिस ईसा पर विश्वास करके हमारे ईसाई भाई – हिन्दुओ को बहका कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे – वो ईसा क्या सचमुच बाइबिल के आधार पर – मुक्तिदाता है ? क्या वाकई ये ईसा – कोई मसीह है ? क्या वाकई ईसा पर विश्वास करने से मनुष्य स्वर्ग जाएगा ? कहीं ये कोई ढकोसला, अन्धविश्वास या षड्यंत्र तो नहीं ?

आइये एक नजर इसपर भी की क्या ये ईसा वही मसीह है जो खुदा का बेटा है – ये वही मसीह है जो मनुष्यो को पाप मुक्त करके स्वर्ग और सुख शांति देगा ?

मुख्यरूप से तीन भविष्यवाणियां हैं – जिनके द्वारा सच्चे मसीह को पहिचाना जा सकता है – लेकिन “ईसा” इन मुख्य तीन भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरता – आइये देखे –

पहली भविष्यवाणी –

23 कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “ परमेश्वर हमारे साथ”। (मत्ती अध्याय १)

इस भविष्यवाणी में कहा गया की एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी – उसका नाम “इम्मानुएल” रखा जाएगा – लेकिन सच्चाई ये है की “ईसा” को पूरी बाइबिल में – कहीं भी – किसी ने भी – यहाँ तक की ईसा के माता पिता ने भी ईसा को “इम्मानुएल” नाम से नहीं पुकारा – न ही इस बच्चे का नाम “इम्मानुएल” रखा – देखिये –

25 और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा॥

जब भविष्यवाणी ही “इम्मानुएल” नाम की हुई तो क्यों “ईसा” नाम रखा गया ?

दूसरी भविष्यवाणी –

3 अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह के विषय में प्रतिज्ञा की थी, जो शरीर के भाव से तो दाउद के वंश से उत्पन्न हुआ। (रोमियो अध्याय १)

29 हे भाइयो, मैं उस कुलपति दाऊद के विषय में तुम से साहस के साथ कह सकता हूं कि वह तो मर गया और गाड़ा भी गया और उस की कब्र आज तक हमारे यहां वर्तमान है।
30 सो भविष्यद्वक्ता होकर और यह जानकर कि परमेश्वर ने मुझ से शपथ खाई है, कि मैं तेरे वंश में से एक व्यक्ति को तेरे सिंहासन पर बैठाऊंगा। (प्रेरितों के काम, अध्याय २)

यहाँ से साफ़ है – भविष्यवाणी हुई थी की दाऊद के वंश से – खासकर “शारीरिक वंशज” – यानी दाऊद के वंश में संतानोत्पत्ति (सेक्स) करके उत्पन्न होगा – वो मसीह होगा – लेकिन हमारे ईसाई मित्र तो कहते हैं की – मरियम – कुंवारी ही गर्भवती हुई ?

इसका मतलब – मरियम के साथ – सेक्स नहीं हुआ – फिर दाऊद का वंशज जो सिंघासन पर बैठना था – वो ईसा कैसे ?

तीसरी भविष्यवाणी –

16 क्योंकि उस से पहिले कि वह लड़का बुरे को त्यागना और भले को ग्रहण करना जाने, वह देश जिसके दोनों राजाओं से तू घबरा रहा है निर्जन हो जाएगा। (यशायाह, अध्याय 7)

यहाँ भविष्यवाणी में बताया जा रहा है – जब वो मसीह परिपक्वता, सिद्धि – प्राप्त कर लेगा – उससे पहली ही यहूदियों के दोनों देश तबाह और बर्बाद हो जाएंगे – बाइबिल के नए नियम में – इस भविष्यवाणी के बारे में कोई खबर नहीं है – यानी ईसा को जब सिद्धि हुई – तब यहूदियों के दोनों देश बर्बाद हुए – इस बारे में – नया नियम खामोश है –

इन सभी मुख्य तीन भविष्यवाणियों से सिद्ध होता है – की ईसाई समाज जिस ईसा को – खुदा का बेटा – पाप नाशक – और स्वर्ग का दाता – कहते और मानते हैं – वो ईसा तो बाइबिल के आधार पर ही – मसीह सिद्ध नहीं होता – फिर क्यों – हिन्दुओ को मुर्ख बनाकर – उनको धर्मभ्रष्ट कर के – स्वर्ग का लालच देते हैं ?

मेरे ईसाई मित्रो – ये इस कड़ी का पहला भाग है – इसका दूसरा भाग जल्दी ही मिलेगा – जिसमे – खंडन होगा ईसाइयो के उस षड्यंत्र का जिसमे जबरदस्ती ईसा को मसीह सिद्ध करने की चाल ईसाई मिशनरी – चल रही – और मनुष्य को ईश्वर की जगह शैतान की राह पर चलाने का षड्यंत्र कर रही हैं।

अभी भी समय है – मनुष्य जीवन का लाभ उठाओ – धर्म की और आओ – हिन्दुओ भेड़ बनने से अच्छा है – मनुष्य ही बने रहो – वेद की और लौटो – अपने आप ही ये धरती स्वर्ग बन जायेगी –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

  सूर्य नमस्कार- एक विवेचन -विद्यासागर वर्मा, पूर्व राजदूत

सूर्य नमस्कार आसन के विषय में सपूर्ण भारत में एक विवाद खड़ा हो गया है, जिसका देश के हित में समाधान ढूंढना आवश्यक है। अन्तरिम् रूप से भारत सरकार ने सूर्य नमस्कार आसन को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर भव्य सामूहिक कार्यक्रम से हटा दिया है।

सर्वप्रथम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि केवल योग-आसन, योग नहीं। योग एक विस्तृत आध्यात्मिक पद्धति है जिसका ध्येय आत्मा और परमात्मा का मिलन है। पतंजलि ऋषि के योगदर्शन में आसन सबन्धी केवल चार (4) सूत्र हैं। आसन की परिभाषा है ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुख पूर्वक स्थिरता से, बिना हिले-डुले, एक स्थिति में बैठना आसन है ताकि अधिक समय तक ध्यान की अवस्था में  बैठा जा सके। प्रचलित योग-आसन हठयोग की क्रियाएँ हैं। हठयोग के ग्रन्थों में पशु-पक्षी के आकार के 84 आसनों का वर्णन है, जैसे मयूरासन, भुजंगासन आदि। ये आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से लााप्रद हैं परन्तु ध्यान लगाने के लिए उपयुक्त नहीं।

Rev. Albert Mohler Jr. Prsident South Baptist Theosophical Society ने कितने स्पष्ट शदों में योग को परिभाषित किया है, यह सराहने योग्य है You may twidting yourself into pretzels or grasshoppers, but if there is no meditation or direction of consciousness, you are not practising Yoga.”   अर्थात् चाहे आप कितनी तरह से अपने शरीर को मरोड़कर एक वक्राकार की टिड्डा तरह बैठकर (गर्भासन) या एक शलभ के समान बनाकर बैठ जायें (शलभासन), यदि उस स्थिति में ध्यान की अवस्था नहीं है, चेतना की एकाग्रता नहीं है, उसे योग नहीं कह सकते।

सारांश में हम कह सकते हैं कि योग ध्यान की उस स्थिति का नाम है जहाँ आत्मा का परमात्मा से तादात्य हो जाता है। इस स्थिति का वर्णन सभी धर्मों के ग्रन्थों में पाया जाता है। उदाहरणार्थ कुरान शरीफ में कहा गया है- ‘‘व फि अन्फुसेकुम अ-फ-ल तुबसेरुन’’ अर्थात् मैं तुहारी आत्मा में हूँ, तुम मुझे क्यों नहीं देखते? मैं तुहारी हर श्वास में हूँ परन्तु तुम पवित्र नेत्र से विहीन हो, इसलिए देख नहीं पाते। यही तो योग विद्या का संदेश है। अहिंसा, सत्याचरण, चोरी न करना, दूसरों का हक न मारना, सभी शुभ कर्म ईश्वर की इबादत (ईश्वर प्रणिधान) भाव से करने से आत्मा पवित्र दृष्टि प्राप्त करता है और अपने अन्दर ईश्वर का साक्षात्कार करता है। अथर्ववेद (12.1.45)का कथन है ‘जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नाना धर्माणं पृथिवी यथौकसम्’ अर्थात् पृथ्वी भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले तथा देशकाल के अनुसार भिन्न-ािन्न विश्वासों ´ (Nation of Religion)  का अनुसरण करने वाले जन-समुदाय का भरण (पोषण) करती है। विश्व के सभी धर्म सत्य, अहिंसा, भातृभाव, सदाचार की शिक्षा देते हैं ताकि मनुष्य का जीवन उत्कृष्ट बन सके और वे अन्ततः उस परमशक्ति से जुड़ सकें। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर सभी धर्मस्थलों पर ईश्वर है क्योंकि वह सर्वव्यापक है परन्तु तुहारी आत्मा केवल तुहारे शरीर में हैं, वहाँ नहीं है। मिलन तो किसी दो का तभी हो सकता है जहाँ दोनों मौजूद हों। वह स्थान केवल आपका शरीर है, वहीं आत्मा और परमात्मा का मिलन हो सकता है तभी तो पवित्र बाईबल में लिखा है “ Your Body is the Temple of God”  अर्थात् आपका शरीर ही परमात्मा का पूजा स्थल है। यही योग विद्या का सार है।

आसन और प्राणायाम योग के बहिरंग ((Outer Shell)) माने गये हैं। ये योग साधना में सहायक होते हैं जैसे आसन शरीर को निरोग रखते हैं और प्राणायाम मन की एकाग्रता को बढ़ाते हैं। योग का सबन्ध शरीर, मन और आत्मा से है। प्रकृति ने मानवमात्र को एक जैसा पैदा किया है, सभी को शरीर, मन और आत्मा दी है। मनुष्य चाहे साईबीरिया में पैदा हो जहाँ तापमान (-) 50डिग्री सैल्सियस होता है चाहे सहारा के मरुस्थल में पैदा हो जहाँ तापमान (+)50 डिग्री सैल्सियस होता है, मानव शरीर का तापमान सभी स्थानों पर (+)37 डिग्री सैल्सियस ही होता है। इसी प्रकार मनुष्य चाहे अमेरिका का रहने वाला हो या अफ्रीका का, क्रोध के आवेश में उसका रक्तचाप बढ़ जाता है, हृदयगति तेज हो जाती है, नजाी तेजी से चलने लगती है और चेहरा लाल हो जाता है। जैसे कोई भी दवाई या बीमारी किसी के शरीर पर असर करने से पहले उसकी नागरिकता या धार्मिक आस्थाओं की जानकारी नहीं लेती, इसी प्रकार योग की क्रियाएँ मानवमात्र पर एक सा प्रभाव छोड़ती हैं। हाँ, जो अधिक निष्ठा से इन्हें करेगा, उसे अधिक लाभ होगा, जो टूटे मन से करेगा, उसे कम लाभ होगा । यह व्यवस्था सभी विद्याओं पर एक सी लागू होती है।

योग-पद्धति एक धर्म निरपेक्ष, मानवमात्र हितकारी पद्धति है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह बात इसी से सिद्ध हो जाती  है कि संयुक्त राष्ट्र की जनरल एसेबली में 21जून को अन्तर्राष्ट्रीय येाग दिवस घोषित करने सबन्धी प्रस्ताव न केवल सर्वसमति से पारित हुआ बल्कि 177 देशों द्वारा अनुमोदित किया गया जिसमें मुस्लिम देश संगठन (ह्रढ्ढष्ट) के भी अधिकतर देश समिलित थे। इससे पूर्व कैलीफोर्निया की एक अपील अदालत ने न्याय व्यवस्था दी कि सैनडीएगो काऊँटी के स्कूलों में सिखाए जा रहे योग से धार्मिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन नहीं हो रहा। दैनिक हिन्दी समाचार ‘हिन्दुस्तान’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 एवं अंग्रेजी समाचार पत्र ‘टाइस ऑफ इंडिया’ दिनांक 5 अप्रैल, 2015 में छपे समाचार के अनुसार तीन सदस्यीय अपील अदालत ने योग के कार्यक्रम को धर्मनिरपेक्ष्य घोषित किया । इससे भी पूर्व अमेरिका के एक राज्य ‘इलिनॉइस की संसद ने 24 मई, 1972 के दिन एक प्रस्ताव (संया-677) पारित किया जिसमें योग की ध्यान पद्धति का गुणगान करते हुए इसे राज्य की सभी शिक्षा संस्थाओं में सिखाने के लिए अनुरोध किया गया एवं इसकी परियोजनाओं के लिए हर सभव योगदान देने का निर्देश दिया गया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि अनुसंधानों से पाया गया कि ध्यान से मानसिक तनाव का कम होना, उच्च रक्तचाप का नीचे आना, श्वास रोग का ठीक होना, ध्यान लगाने वाले छात्रों का अध्ययन में प्रगति करना, अनगिनत रोगों में रोगियों का ध्यान लगाने से अन्यों की अपेक्षा शीघ्र ठीक होना, अफीम आदि के व्यसनियों (Drug Addicts) का ध्यान लगाने से व्यसन से छुटाकारा पाना आदि लाभ प्राप्त होते हैं।

योग पद्धति साधकों एवं सांसारिकों दोनों के लिए लाभप्रद है। योग दो प्रकार का है- लौकिक ((Worldly) और आध्यात्मिक (Spiritual))। जो लौकिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उन्हें लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे न्यूटन ने गिरते हुए सेब पर ध्यान लगाया, विश्व को गुरुत्वाकर्षण का ज्ञान दिया। इसी प्रकार जो आध्यात्मिक विषय पर ध्यान लगाते हैं उनहें आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि सूर्य नमस्कार को लेकर समस्त योग विद्या को त्याज्य समझना उचित नहीं। वस्तुतः सभी मुस्लिम भाई ऐसा समझते भी नहीं हैं। हाँ, जो सूर्य नमस्कार आसन को आपत्तिपूर्ण मानते हैं, उनकी आपत्ति वाजिब हो सकती है, उचित हो सकती है। इस्लाम में जड़ की उपासना एवं ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना धर्म-विरुद्ध है। इस विचारधारा का सभी को समान करना चाहिए। इसी के साथ-साथ समस्या का समाधान ढूंढ़ना चाहिए। भारत सरकार ने जो समाधान ढूंढ़ा है कि सूर्य नमस्कार को ही योगासनों से हटा दिया जाए, केवल क्षणिक, अल्पकालीन उपाय है, चिरस्थायी नहीं।

योग आसनों में तीन आसन स्वास्थ्य की दृष्टि से अतीव महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। वे हैं- शीर्षासन, सूर्य नमस्कार आसन और सर्वांगासन। इन तीनों से शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग सुचारु रूप से कार्य करते हैं और सुदृढ़ होते हैं। अतः सूर्य नमस्कार आसन को सदा के लिए बहिष्कृत करना उचित नहीं होगा।

सूर्य नमस्कार आसन पर विवाद इसलिए है कि इसमें जड़ पदार्थ सूर्य के सामने सिर झुकाया जाता है। मेरा मत है कि यहाँ सूर्य का अर्थ सूर्य है ही नहीं, यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। वेद में, संस्कृत भाषा में एवं अन्य भाषाओं में एक शद के एक से अधिक अर्थ होते हैं। वेदों में ईश्वर को सूर्य, अग्नि, इन्द्र, विष्णु आदि क ई नामों से वर्णित किया गया है। इसकी पुष्टि वेदों का जर्मन भाषा में अनुवाद करने वाले विश्ववियात दार्शनिक प्रो. एफ. मैक्समूलर भी करते हैं। अपनी पुस्तक India what It Can Teach Us? में वे कहते हैं “They ( the Names of Deities like Indra, Varuna, Surya) were all meant to express the Beyond, the Invisible behind the Visible, the Infinite within the Finite, the Supernatural above the Natural, the Divine, Omnipresent, Omnipotent.” अर्थात् वे (इन्द्र, वरुण, सूर्य आदि देवता वाचक शद) सभी परोक्ष के द्योतक थे, दृश्य के पीछे अदृश्य, सान्त के पीछे अनन्त, अपरा के पीछे परा, दिव्य, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् के द्योतक थे।

प्रो. एफ. मैक्समूलर की उपरोक्त घोषणा वेद के अन्तः साक्ष्य से भी सिद्ध होती है। यजुर्वेद (7.42) का कथन है सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च अर्थात् सूर्य इस चेतन जगत् एवं जंगम (स्थावर) जगत् की आत्मा है। सूर्य तो स्वयं जड़ है और इस समस्त स्थावर जगत् का एक तुच्छााग है। वह जड़ एवं चेतन जगत की आत्मा (चेतन सत्ता) कैसे हो सकता है? नक्षत्र विज्ञान बतलाता है कि सूर्य हमारी आकाश गंगा (Milky Way Galaxy) का एक सामान्य तारा ((Star) है, जिसमें अरबों तारे हैं। इतना ही नहीं, सारे ब्रह्माण्ड (Universe) में अरबों ऐसी और इससे भी कई गुना बड़ी आकाश गंगाएँ हैं। इतने विशाल ब्रह्माण्ड की आत्मा एक अधना-सा सूर्य नहीं हो सकता। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि यहाँ सूर्य का अर्थ ईश्वर है। इसके अतिरिक्त हमारे धर्म ग्रन्थों में यह भी कहा गया है कि वे सूर्य, तारे, अग्नि आदि सभी उसी ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं – ‘‘तस्यभासा सर्वमिदं विभाति’’ कठोपनिषद् (2.2.15) अर्थात् उस ईश्वर के  प्रकाश से यह सब कुछ प्रकाशित होरहा है।

ईश्वर ही ब्रह्माण्ड की आत्मा है, केवल वेद ही नहीं कहता, अन्य सभी धर्म भी ऐसा ही मानते हैं, बड़े-बड़े दार्शनिक एवं वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं। उदाहरणार्थ-

(1) हक जाने जहान अस्त व जहान जुमला बदन।

– सूफी शायर

ईश्वर विश्व की आत्मा है और यह समस्त विश्व उसका शरीर।

(2)  The Universe is one stuperndous Whole

Whose Body Nature is, and God the Soul.

-Alexander Pop

यह ब्रह्माण्ड एक विशाल पूर्ण-कृति है।

प्रकृति जिसका शरीर है और ईश्वर आत्मा।

– एलेक्जेंडर पोप

(3) अल्लाहो बे कुल्ले शमीन मुहित

अल्लाहो नूर उस समावाति वल अर्द। – कुरान शरीफ

अल्लाह समस्त संसार को घेरे हुए है और उसमें व्याप्त है।

उसका नूर द्यौलोक एवं पृथ्वी को प्रकाशित करता है।

(4) God said let there be light and there was light.                                       – The Holy Bible

ईश्वर ने कहा कि प्रकाश हो जाए और प्रकाश हो गया।         – पवित्र बाईबल

(5) सरब जोतिमहिं जाकी जोत।

– गुरु ग्रन्थ साहब

सारांश में, सूर्य नमस्कार आसन में सूर्य शद ईश्वर का द्योतक है। अथर्ववेद (2.2.1) की आज्ञा है। ‘एक एव नमस्योऽवीक्ष्वीड्यः’ अर्थात् सभी लोगों द्वारा केवल एक ईश्वर नमन और स्तुति के योग्य है। क्योंकि सूर्य शद के लाक्षणिक-अर्थ ईश्वर न लेकर रुढ़ि-अर्थ-तारा ले लिया गया है, इसलिए यह भ्रम की स्थिति पैदा हुई है। सूर्य को एक प्राकृतिक शक्ति के रूप में देवता कहा गया है यहाँ यह स्पष्ट कर देनााी प्रासंगिक है कि देव या देवता वह है जो देता है या चमकता है। प्रकृति पदार्थ जो हमें लाभ पहुंचाते हैं या चमकते हैं देवता कहलाते हैं। वे केवल उस ईश्वर की शक्तियों को परिलक्षित करते हैं। तभी वेद में कहा गया है ‘‘अस्मिन् सर्वेः देवाः एकवृत्तो भवन्ति’’ अर्थात् सभी देवता (प्राकृतिक शक्तियाँ) उसी ईश्वर में समा जाते हैं। कुरान शरीफ में भी कहा गया है ‘‘हे परवर दिगार। ये सूरज, चाँद, सितारे हमारे लिये (तुहारी खिलकत के लिए) तुहारे हुक्म में काम कर रहे हैं। कुदरत की इन निशानियों को देख कर, तुहारी ताकत, हिकमत और कारीगरी का अन्दाजा लगा सकते हैं।’’ यही यजुर्वेद (33.31) में कहा है : देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम्। अर्थात् सूर्य, चन्द्र आदि मानो परमदेव की पताकाएँ (केतवः= झण्डे, पताका) हैं उसके यश को संसार में फैलाती है और विश्व के लोगों को सूर्य के समान प्रकाशवान् ईश्वर को दर्शाती हैं। यहाँ भी सूर्य का अर्थ ईश्वर है।

अतः मेरा विनम्र सुझाव है कि सूर्य नमस्कार आसन का नाम ईश-नमस्कार आसन रख दिया जाए। मुझे आशा है कि हमारे मुस्लिम भाइयों को इसमें आपत्ति नहीं होगी क्योंकि ईश नमस्कार का अर्थ है अल्लाह को सजदा (Salutation to God) वैसे तो इसके साथ किसी प्रकर की प्रार्थना की आवश्यकता नहीं, अगर कोई करना भी चाहे तो निम्न प्रार्थना पर गौर किया जा सकता है- हे परमपिता। हमें शक्ति दो कि हम सूर्य और चाँद की भांति निरन्तर अपने कर्त्तव्य एवं परोपकार के कल्याणकारी मार्ग पर चलते रहें। (सूर्य नमस्कार का नाम बदलकर ईश-नमस्कार आसन करने से हम सहमत नहीं है। यह तो सीधा-सीधा मजहबी तुष्टिकरण होगा यह आसन उनके हित के लिए है। इसमें योग का प्रचार करने वालों का कोई स्वार्थ नहीं है-

सम्पादक ) लेखक भारतीय विदेश सेवा के सेवा निवृत्त सदस्य हैं। इन्होंने योगदर्शन पर काव्य व्याया लिखी है जिसका विमोचन मा. उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकान्त ने अप्रैल, 2002 में किया था। इन्होंने कजाखस्तान में भारतीय दूतावास में कजाख लोगों को एवं वहाँ के राजनयिकों को योग की निःशुल्क शिक्षा दी। योग पर दिये प्रपाठकों को द्विभाषी पुस्तक (अंग्रेजी, रूसी भाषा में) के रूप में छापा गया।

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1965 के भारत-पाक युद्ध की पृष्ठ भूमि तथा मेरे संस्मरण -मेजर रतनसिंह यादव

  1. 1. युद्ध की पृष्ठभूमि-विशाल भारत का विखण्डन आरभ हुआ तो बर्मा, श्रीलंका आदि स्वतन्त्र राष्ट्र बनते चले गये। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति, भारत विभाजन का दुर्भाग्य पूर्ण तथा रक्त रंजित अध्याय भी 1947 के आते-आते लिख दिया गया। इसकेपश्चात् कई नवोदित राष्ट्रों में प्रजातन्त्रीय व्यवस्था से चुनी गयी सरकारों का सैनिक तानाशाहों ने तता पलट दिया। बर्मा, श्री लंका तथा विशेषकर पाकिस्तान में तो प्रधानमन्त्री की हत्या तक कर दी गयी। ऐसे में प्रधानमन्त्री पद के लालच में भारत विभाजन तक का पाप करने वाले, महात्मा गाँधी के प्रिय जवाहरलाल नेहरु को लगा कि यह चारों ओर के पड़ोसियों के घर में लगी आग कहीं मेरी कुर्सी तक न आ पहुँचे। इससे भयभीत नेहरु जी ने भारतीय सेना को वर्ष प्रति वर्ष कमजोर करने का सिलसिला आरभ कर दिया। सेनाध्यक्ष जिसका स्थान वरीष्ठता क्रम में राष्ट्राध्यक्ष गवर्नर जनरल के बाद होता था, घटाकर मन्त्रीमण्डल के सदस्यों के भी नीेचे गिरा दिया गया। रक्षा-बजट प्रतिवर्ष कम से कमतर होता गया। इसका दुष्परिणाम 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध में हमारी शर्मनाक पराजय के रूप में राष्ट्र ने झेला। हमारे सैनिकों के पास द्वितीय विश्वयुद्ध कीपुरानी तकनीक की थ्री नॉट थ्री राइफलें एयूरेशन की घोर कमी, बर्फानी प्रदेश की हाड़कँपा देने वाली सर्दी से बचाव के कपड़ों का नितान्त अभाव यहाँ तक कि जूते तक न थे। ऐसे हालात में भी हमारी सेना की 13 कुमाऊँ रेजिमेंट की एक कपनी ने वीरता का जो इतिहास रचा, उसका उदाहरण विश्व के सैनिक इतिहास में दुर्लभ है। हमें गर्व है कि इस रेजांगला का स्वर्णिम इतिहास लिखने वाले हरियाणा के अहीरवाल क्षेत्र के वीर अहीर ही थे।
  2. चीनी आक्रमण के तुरन्त पश्चात् आपातकाल घोषित कर दिया अब सेना की ओर कुछ-कुछ ध्यान दिया जाने लगा। पर तीन वर्ष से भी कम समय में रक्षा बजट पर कंजूसी बरतने वाली परपरा की अयस्त सरकार अधिक कुछ न कर पायी। तब तक चीन के चेले पाकिस्तान ने सोचा, चीन की तरह हम भी भारत को पीट लेंगे, काश्मीर छीन लेंगे। पर पाकिस्तान के इरादे इसलिए सफल नही हो सके कि हमने 1962 के युद्ध से थोड़ा-बहुत सीख कर सेना को पहले से अधिक मजबूत कर लिया था। 1965 के युद्ध में हम अपनी विजय पर कितना भी गर्व करें, पर यह कोई पूरी तरह निर्णायक युद्ध न था। काश्मीर में हम भले ही लाभ की स्थिति में थे, पर सीमा के अन्य क्षेत्रों में हमें हानि भी उठानी पड़ी थी।
  3. पर काश्मीर में सेना के लहू ने जो क्षेत्र जीता लिया, उसे ताशकन्द में लिखे कागज की स्याही ने छीन लिया। जिस काश्मीर को हम भारत का अभिन्न अंग कह कर वर्षों से चिल्ला रहे थे, उस अभिन्न अंग को हमारे भीरु, दबू तथा समझौतावादी राजनैतिक नेतृत्व ने रूस के दबाव में वापिस शत्रु का अभिन्न अंग बना दिया। सेना के मनोबल पर इसका जो दुष्प्रभाव हुआ, उसे मेरे अग्रज कैप्टन नौरंग सिंह के शदों में जो उस युद्ध में सक्रिय भागीदार थे कहूँ ‘‘हम सब रोते हुए वापिस आ गये’’ अच्छा हुआ जो श्री लालबहादुर शास्त्री इस समझौते के आघात को न सह सके और अपने प्राण तक दे बैठे, वरना ताशकन्द से लौटने पर उनकी बहुत किरकिरी होती।
  4. हमारी यह अदूरदर्शी, आत्मघाती समझौतावादी परपरा सन् 1971 के शिमला समझौते में भी बनी रही। हमने तो पाकिस्तान के एक लाख के लगभग सैनिक कैदी लौटा दिये, पर अपने लगाग 50 सैनिक कैदियों को पाकिस्तान से छुड़ाना भूल गये। न जाने उनका क्या हुआ होगा। जो जुल्फिकार अलि भुट्टो शिमला में गिड़गिड़ा रहा था, वही अपनी गली में जाते ही शेर बनकर दहाड़ने लगा। ‘‘हम घास खायेंगे, पर एटमबब बनायेंगे। हिन्दुस्तान के हजार टुकड़े करेंगे, हजार वर्ष तक लड़ेंगे।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे विदेशमन्त्री सरदार स्वर्ण सिंह को ‘इण्डियन डॉग’ तक कहकर अपने पुरखों को भी अप्रत्यक्ष रूप से गाली दी। एटम बब तो भारत से ज्यादा नहीं तो बराबर के तो बना ही लिए। और भी बनाने में लगे हुए हैं। हजार वर्ष तक लड़ने का सिलसिला चालू ही है।
  5. मेरे सेना में आने का कारण- मेरे अग्रज सूबेदार नौरंगसिंह भारत विभाजन से पूर्व की मियाँमीर की छावनी लाहौर में सेना में भरती हो चुके थे। मेरी पूज्य भाभी जी सरती देवी को फिरोजपुर, मेरठ, अबाला आदि सैनिक छावनियों में काी-कभी उनके साथ रहने का अवसर मिला। गर्मियों में स्कूल की लबी छुट्टियाँ होने पर मैं भी उनके पास चला जाया करता। फौज का जीवन मुझे काफी पसन्द आता था। शिक्षा पूर्ण कर 1961 में अपने गाँव के निकट स्थायी रूप से शिक्षक नियुक्त हो गया। 1962 में चीन ने भारत पर धोखे से अचानक आक्रमण कर दिया। देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया।ााई नौरंगसिंह अपनी बटालियन 16 पंजाब के साथ मोर्चे पर चले गये। भाभीजी घर लौट आई। मुझ से कहने लगी, ‘‘रतन! जो तू ये मास्टरी वास्टरी की नौकरी कर रहा है, ये तो जिनानियों का काम है। देश पर आपत्ति आई है। तेरा भाई कम पढ़ा लिखा है, सूबेदार बन गया। तू तो बीस वर्ष का पढ़ा लिखा जवान है। फौज में ऑफिसराी बन सकता है।’’

तत्कालीन पंजाब सरकार ने (तब हरियाणा न बना था) अपने समस्त विभागों को सर्कू लर जारी कर सेना के लिए वालिण्टियर माँगे। मैंने अपने हैडमास्टर श्री सोमदत्त जी कौशिक को प्रार्थनापत्र देकर सेना के लिए मेरा नाम भेजने का अनुरोध किया। उनका उत्तर था ‘‘इतनी ही तनखा फौज में मिलेगी (तब एक सौ रूपये थी) घर के पास की आराम की नौकरी छोड़कर क्यों मरने के लिए फौज में जाना चाहता है?’’ मुझे मध्यकालीन वीर काव्य (आल्हा-उदल) के रचियता कवि जगनिक की पंक्तियाँ याद आ गई । मैंने कहा-

‘‘बारह बरस तक कुकर जिये, और तेरह तक जिये सियार।

बरस अठारह छत्री जिये, आगे जिये को धिक्कार।।’’

हम तो मरने के लिए ही बने हैं। मेरा नाम भर्ती कार्यालय महेन्द्रगढ़ में भेज दिया। मेरी योग्यतानुसार मुझे सेना-शिक्षा कोर में हवलदार के पद पर सीधे नियुक्ति मिली।

  1. युद्ध के संस्मरण– 1965 के युद्ध के समय मुझे जालन्धर कैण्ट स्थित सप्लाई डिपो केरियर की सुरक्षा तथा युद्ध के मोर्चे से घायल होकर आने वाले सैनिकों को सैनिक अस्पताल में भर्ती कराने की जिमेदारी सौंपी गयी। मेरी सहायता के लिए पाँच नये-नये सैनिक भी थे।

अमृतसर से लाहौर जाने वाले मार्ग पर पाकिस्तान की सीमा में इच्छोगिल नहर है। इस नहर पर पाकिस्तानी सेना पक्के सीमेण्टेड बैंकरों में अमेरीकी आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित हमारे मुकाबले के लिए पहले से ही तैयार थी। हमारे सेना की थर्ड जाट युनिट को नहर के पार पाकिस्तानी इलाके पर कजा करने का अत्यन्त दुस्साहसपूर्ण खतरे से भरपूर चुनौती पूर्ण टास्क सौंपा गया। बहादुर जाटों ने जान हथेली पर रखकर न जाने कितना रक्त बहाकर इच्छोगिल नहर के पानी को लाल कर दिया। सफलता मिली, पर मूल्य बहुत चुकाया। रात को घायलों से भरी ट्रेन अमृतसर से जालन्धर पहुँची। मैं एबुलेंस की अस्पताल की गाड़ी, स्टेचर तथा अपने साथी सैनिकों को लेकर घायल सैनिकों को स्टेचर पर रखने लगा तो एक बहादुर जाट सैनिक को अन्धेरे में ध्यान से देखा। उसके चेहरे में गोली धँसी हुई थी। सूजन से एक आँख बन्द हो चुकी थी। उसने हाथ उठाकर मुझे राम-राम कहने का प्रयास किया। मेरी आँखों में आँसू आ टपके। धन्य है वह वीर जवान, धन्य है वह सैनिक परपरा जिसने ऐसी शोचनीय शारीरिक स्थिति में भी अभिवादन की सैनिक परपरा को स्मरण रखा। वह मार्मिक दृश्य आज भी मेरी आँखों में सजीव है।

  1. जालन्धर कैण्ट में रामामण्डी के निकट जी.टी. रोड से जाते हुए सैनिकों की गाड़ियों को आग्रहपूर्वक रोककर भोजन सामग्री, फल-फ्रूट तथा मालाओं से लादकर सिक्ख भाईयों ने राष्ट्रभक्ति का जो जोश दिखाया, वह अभूतपूर्व था। इण्डियनआर्मी जिन्दाबाद भारत माता की जय से आसमान गूंजता था। आज भले ही कुछ गिने-चुने, पाकिस्तान द्वारा बरगलाये सिक्ख युवक तथा राष्ट्र प्रेमी सिक्ख जनता द्वारा बहिष्कृत, थके माँदे, नेतृत्व तथा पद लोलुप तथाकथित नेता भारत के विरुद्ध विषवमन करें पर पंजाब तथा देश के विभिन्न भागों में सिक्खों की देशभक्ति में किसी को शक नहीं होना चाहिए। ऐसे गुमराह सिक्ख युवकों को सिक्ख जाति केगौरवपूर्ण इतिहास को स्मरण करते हुए गुरु अर्जुन देव तथा जहाँगीर, गुरु तेगबहादुर तथा औरंगजेब, गुरु गोविन्द सिंह और उनके चारों साहिबजादों तथा औरंगजेब के साथ बन्दा बहादुर और फर्रुखशयर के नाम न भूलने चाहिए। दूर इतिहास की गहराई में न जायें तो देश विभाजन के समय पाकिस्तान से विस्थापित सिक्खों के साथ जो भयानक जुल्म किये गये, उनका आँखों देखा हाल बताने वाले कितने ही आज भी जिन्दा है। कितने ही राठौर, चौहान सिक्ख राजपूत, कितने ही सेठी, बाजवा, घुमन इस्लाम कीाूनी तलवार का या तो शिकार हो गये या फिर सनम सेठी या जफर इकबाल राठौर बन गये । कोई उदाहरण है क्या जब किसी इस्लाम के अनुयायी ने विभाजन के समय अपना महजब भयभीत होकर बदला हो।

वास्तविकता यह है कि पाकिस्तान 1971 के युद्ध की पराजय का बदला, बंग्लादेश का बदला लेकर खालिस्तान का दिवास्वप्न दिखाकर सिक्ख-हितैषी होने का राजनैतिक पाखण्ड कर रहा है। अरे ये तो वही पाकिस्तानी हैं जिन्होने साझे भारत के साझे शहीदेआजम भगतसिंह के नाम पर लाहौर के चौराहे का नाम तक नहीं करने दिया। तर्क है पाकिस्तान की भूमि पर किसी गैरमुस्लिम के नाम पर कोई सड़क या स्मारक नहीं होगा।

  1. सूर्यास्त होने को था। जालन्धर कैण्ट से कुछ दूरी पहले सतलुज नदी पर रेलवे पुल है। इसी रेल मार्ग से अमृतसर तक हमारी सेनाओं को रसद पहुँचायी जाती थी। पाकिस्तान के तीन छाताधारी सैनिक पास के गन्ने के खेतों में उतर गये। योजना रेल पुल को उड़ाने की थी। गाँववालों ने कैण्ट के हैडक्वाटर को सूचना दी। रियर में तो नाम चारे के सैनिक रहते हैं। उन्हें लेकर हमने गन्ने के खेतों को घेर लिया। पाकिस्तानी छाताधारियों को चेतावनी दी गयी कि जान बचाना चाहते हो तो हथियारों से मैगजीन अलगकर, गले में डालकर, हाथ ऊपर कर आत्म समर्पण कर दें। पहले दो चेतावनियाँ निष्फल रही। अन्त में तीसरी बार मशीनगनों से गन्ने के खेतों के छलनी करने का आर्डर सुनते ही एक लबा-चौड़ा पाकिस्तानी ऑफिसर निर्देश का पालन करते हुए बाहर आ गया। हमारे ऑफिसर ने उसके हथियार लेकर आँखों पर पट्टी तथा दोनों हाथ पीछे की ओर बाँध कर सड़क पर खड़ी जीप की ओर ले चले। कुछ तो मार्ग उबड़-खाबड़ था, कुछ आँखें बन्धी थी, तो कुछ बेचारा घबराया हुआ, धीरे-धीरे चल रहा था। हमारे मिलट्री-पुलिस के एक जवान ने उसे आगे धकेलते हुए पीठ पर एक घूंसा मार दिया। हमारे ऑफिसर ने उस मिलेट्री-पुलिस के जवान को बुरी तरह डाँटा कहा कि कैदी के साथ भी इन्सानियत का बर्ताव करना चाहिए। यह है हमारी संस्कृति और मानवता। दूसरी ओर हमारे कारगिल में कैद हुए कैप्टन सौरभ कालिया के साथ जिस दरिन्दगी और पाशविकता का बर्ताव किया, उसकी गूँज अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय तक गूँज रही है। कैप्टन कालिया का मृत शरीर जब लौटाया तो उसकी अगुंलियों के नाखून तक न थे। उस वीर के कान में गोली मारी गयी थी। जुल्म करने के निकृष्टतम तरीके तो शायद पाकिस्तानी सेना को ट्रेनिंग में सिखाये जाते हैं।
  2. युद्ध के कारण अचानक सेना को बहुत बड़ी संया में सीमा पर आना पड़ा था। सप्लाई डिपो जालन्धर से स्थान्तरित कर सीमा के कुछ निकट यास आ चुका था। खाद्य सामग्री भण्डारण के लिए फील्ड टैण्ट भी पर्याप्त न थे। ऐसे में हमारे कमाण्डिग ऑफिसर लेटिनेन्ट कर्नल ए.के.गुहा ने बाबा राधास्वामी जी से प्रार्थना की। बाबा जी ने कहा-‘‘सारा डेरा आपके आधीन है। डेरा देश से बड़ा नहीं है।’’ हमने डेरा के कमरों में फौज का राशन भर दिया। युद्ध की समाप्ति पर वापिस जालन्धर लौटने से पहले बाबा जी का आभार व्यक्त करने सभी आँफिसर तथा जवान गये। बाबा ने आशीर्वाद दिया।
  3. सितबर मास आ गया है। सरकार गर्व से 1965 के युद्ध के पचास वर्ष पूरे होने पर विजय समारोह आयोजन करने जा रही है। पूर्व सैनिकों ने इस आयोजन के बहिष्कार की घोषणा पहले ही कर दी है, तो आयोजन हमारे वीर शिरोमणि मन्त्री करेंगे। दूसरी ओर इतने वर्षों में उस युद्ध में प्राण गँवाने वाले कितने ही सैनिकों की वीरागनाएँ तो अपने शहीद पतियों के पास कभी की जा चुकी है। बची-खुची भी इस बहरी सरकार के कानों तक आवाज पहुँचने तक जानी ही है। वे आज के पेंशन प्राप्त कर्त्ताओं की तुलना में एक चौथाई पेंशन पर अपनी वृद्धावस्था ढो रही हैं। हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और खजाना मन्त्री श्री जेटली के पास जमू काश्मीर सरकार के लिए विशेष पैके ज के लिए एक लाख करोड़ रूपये तो हैं पर पूर्व सैनिकों तथा उनकी विरांगनाओं के लिए मात्र 9100 करोड़ ही हैं। हमारे आदरणीय प्रधान मन्त्री को जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमन्त्री पद का उमीदवार घोषित किया तो उनकी पहली रैली रेवाड़ी में पूर्व-सैनिकों तथा अर्द्धसैनिक बलों ने आयोजित की थी। ऐसी रैली न भूतो नाविष्यति। मोदी जी ने वचन दिया ‘एक रैंक एक पेंशन’ मिलेगी। हमारे आदरणीय जनरल वी.के.सिंह भी मंच पर विराजमान थे। आज डेढ वर्ष होने को आया- न तो मोदी जी को अपने वचन याद रहे, न जनरल वी.के.सिंह को उन्हें याद दिलाने की फुर्सत है- मन्त्री जो बन गये। इसका नाम तो है-राजनीति पर है यह राज कुनीति-कुरीति।

हमारे माननीय सांसद पाँच वर्ष में कितने दिन संसद में उपस्थित रहे? संसद में आये तो क्या राष्ट्र हित के बिलों पर बहस में कितनों ने भाग लिया? क्या कभी प्रश्न पूछा? अपने इलाके क ी भलाई की कितनों ने माँग उठाई् कई तो दूरदर्शन पर निद्रा लाभ लेते हुए दिखाये जाते हैं। संसद का कोई कर्तव्य पूरा किये बिना अच्छा भला वेतन, पेंशन तथा अन्य सुख-सुविधाऐं लेना न भूले। बात बिना बात संसद ठप्प करने वाले हमारे सांसद के वल एक बात को सर्वसमति से हाथ उठाकर एक मिनट में पास कर देते हैं- वह बिल है-सांसदों की वेतन वृद्धि तथा पेंशन वृद्धि।

सेना तो बहुत दूर की बात है संसद के दरवाजे पर प्राण देने वाले जवानों तक को कितना महत्व दिया, सब जानते हैं।

इंग्लैण्ड की महारानी का बेटा अफगानिस्तान के मोर्चे पर वर्षों से अपने देश के समान के लिए लड़ रहा है। है कोई हमारे 68 वर्ष के इतिहास में ऐसा उदाहरण जब किसी प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति, राज्यपाल, या मन्त्री का बेटा भारत माता की रक्षा हेतु युद्ध क्षेत्र में गया हो। सभाओं में नारा लगायेंगे-जय जवान जय किसान। पर काम होगा- मर जवान – मर किसान।

वैसे भी सेना का एक जवान सरहद पर मरता है तो अप्रत्यक्ष रूप से एक किसान भी मरता है, क्योंकि मरने वाला एक किसान का बेटा है किसी राजनेता का नहीं।

अन्त में मैं हमारे देश के सभी नेताओं को नीति शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित चाणक्य के शब्दों  को याद दिलाना चाहता हॅूँ जिसकी नीति ने एक साधारण बालक चन्द्रगुप्त को भारत का सम्राट बनाया था।

‘‘चन्द्रगुप्त! जिस दिन सेना तुम से अपने अधिकारों की माँग करने लग जाये, उस दिन तुहारे साम्राज्य का पतन आरभ हो जायेगा।’’

कोई सुन रहा है क्या?

शिक्षा – योगेन्द्र दमाणी

जब से मैंने क, ख, ग, घ, सीखा है तब से मैं यह सुनता आया हूँ कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह शायद ठीक ही  है। शायद शब्द का व्यवहार इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि मेरा यह सौभाग्य कम हो पाया कि उस प्रधानता को मैं देख सकूँ। इतने बड़े देश में सब तरह के कार्य होते हैं और किसी एक को कम या अधिक रूप में देखना उचित भी नहीं। हर एक से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है। जैसे कृषि को ही लें। खेतालिहानों में हम पाते हैं कि बच्चे अपने माता-पिता के साथ कृषि का कार्य करते हुए बड़े होते हैं उन्हें कृषि सिखाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। बहुत कम अक्षरी शिक्षा में भी ये लोग अपना जीवन-निर्वाह कर लेते थे, अब भी कर लेते हैं। कुछ ऐसा माहौल बनाया या बिगाड़ा गया कि अक्षरी शिक्षा का भूत इन पर भी सवार कराया जाने लगा और अब वो आत्महत्या करते हुए पाए जा रहे हैं। (कारण कुछ और भी हो सकते हैं।) हमारे यहाँ शिक्षा का अर्थ सिर्फ अक्षरी शिक्षा के ज्ञान को ही माना जाने लगा। शिक्षा का मतलब ए, बी, सी, डी, ही हो गया। लोहार के बेटे को यह बताने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी कि लोहे को पीटा कैसे जाता है, यह तो वह परिवार के साथ काम करते हुए स्वयं ही सीख जाता था। इसी तरह बुनकर, बढ़ई या और कोई भी अन्य हाथ से काम करने वाले के लिए भी यही बात लागू थी। भारत सोने का देश था क्योंकि सामान्य ज्ञान और शिल्पकला की वजह से लोग अपने सीमित दायरे में रहते हुए संचय क रते थे और जीवन खुशी से व्यतीत करते थे। आज सब तरफ त्राहि-त्राहि हो रही है। शिल्पविद्या की शिक्षा पर फिर से बल दिया जा रहा है। क्योंकि हम पहले गलत दिशा में चलते हैं और फिर सुधार के कार्यक्रम लागू करते हैं। जब बच्चे अपने या अपने आसपास के लोगों के साथ जीविकोपार्जन की शिक्षा लेते थे तब उनक ो हमारे तथा कथित सय समाज ने बाल मजदूरी का नाम दे दिया। इस दिशा में कार्य करने वालों की भावना अच्छी थी  कि नहीं, उनके पास ऐसे कार्यों को करने या करवाने के  पीछे किनका-किनका या किसका हाथ था, है यह तो इतिहास बतायेगा परन्तु यह सत्य है इसी एक मुद्दे ने इस देश से शिल्पकला रूपी स्वर्णिम भारत को हमसे छीन लिया। अक्षरी शिक्षा के नाम पर हजारों स्कूल और कॉलेज खोले गये। हर चीज से कुछ न कुछ लाभ होता ही होगा लेकिन इनकी हानि भी अब नजर आने लगी है और इस इन्टरनेट के जमाने में जब सब कुछ आन-लॉइन है तब तो अब के अध-पढ़े युवक-युवतियाँ तो अधर में ही है। सारा काम अब प्लास्टिक मनी कर देगी । किसी को किसी की आवश्यकता नहीं। सारे बाजार बन्द। घर से निकलना बन्द। यह आधुनिकता की हद है सुना है कि जापान का बच्चा, बचपन से ही छोटी-मोटी मोटर या अन्य यन्त्र बना लेता है क्योंकि वह बचपन से इन चीजों को करता है। (जिसे हम चाइल्ड-लेबर कहते हैं।) उसे अंग्रेजी सीखने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता वह तो अपना समय शिल्पविद्या विकसित करने में लगाता है। चीनी आज किसी का मुहताज नहीं क्योंकि हर आदमी की चाहत कम है हर हाथ शिल्पकला का हाथ है और इस कारण उन्हें कम लागत पर सामान विकसित करना आ गया और इसलिए वे पूरे विश्व में छाते जा रहे हैं।

मैं अभी कुछ दिन पहले अमेरिका में था। वहाँ के मूल लोगों को अपनी भाषा के अलावा कोई और भाषा आती ही नहीं। वह चाहे अंग्रेजी हो या स्पेनिश। वहाँ भी बचपन से बच्चे काम करते देखे जा सकते हैं। चाइल्ड-लेबर का वहाँ कोई ऐतराज नहीं। क्योंकि अल्प शिक्षा पर भी वो अपना जीवन बड़े आराम से व्यतीत कर लेते हैं। दुनिया के किसी अन्य कोने में क्या हो रहा है या नहीं यह जानकारी उन्हें हो या न हों किन्तु अपने कार्य में  वे दक्ष हैं और इसका एकमात्र कारण है कि बचपन से खेलते-खेलते हुए वे पा लेते हैं अपने जीवन यापन की जानकारी में प्रगाढ़ता। यह नहीं है कि भारत पहले ऐसा ही था। हमारा अध्यात्म तो उनसे कई गुना आगे है किन्तु ‘जब अपने ही घर को आग लग गई अपने चिराग से’ तो कोई क्या क रे । हमने आध्यात्म की शिक्षा बिल्कुल छोड़ दी। चार आश्रमों के  आधार पर 25 वर्षों तक शिक्षा तत्पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास। यहाँ शिक्षा का गूढ़ अर्थ था (शिक्षा, जिससे विद्या, सयता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और उनसे अविद्या आदि दोष छूटें। उसी को शिक्षा कहते हैं- महर्षि दयानन्द सरस्वती) अक्षरी शिक्षा के साथ-साथ जिनका जो कार्य था वह माता-पिता अपने बच्चों को वही ज्ञान, या उसके लगाव वाला ज्ञान देते-देते उसे इतना दक्ष  बना देते थे कि वह गृहस्थ का भार बड़े आराम से उठा सकता था। यदि इस 25 वर्ष की अवधि को सब अपनाते तो कोई बेरोजगारी नहीं होती। पचास वर्ष का होने पर व्यक्ति समाज सेवा में लगते और अन्तिम पच्चीस पूरे विश्व के साथ-साथ अध्यात्म के लिए समर्पित होता। गृहस्थ इसका (समस्त आश्रमियों का) पूरा भार उठाता था। आज रिटायर करना पड़ता है, होते नहीं हैं। यह नहीं सोचते कि अगर आप रिटायर नहीं होंगे तो एक युवक का भाग्य आप छीन रहे हैं और इसका प्रतिफल या तो रोगों में या अवसाद आदि में आखिर तो मिलेगा ही। यह पहला या आखिरी जीवन नहीं, इसका कारण ये अक्षरी शिक्षा का तांडव है जो कि जानबूझकर हमारे समाज को विघटित करने एवं कराने के उद्देश्य से विदेशी षडयन्त्रों के रूप में हमारे अपनों द्वारा कराया जाता है। आप कोई भी इस तरह के  कार्य में जिससे आपकी संस्कृति बिखरती है लग जाइए आप को कोई न कोई विदेशी पुरस्कार तो पुकार ही लेगा।

शिक्षा पद्धति को सही दिशा में ले जाना है तो इस मानसिकता से हमें हटना होगा कि चाइल्ड लेबर कुछ होता है। हम अगर लेबर से मुंह मोड़ने लगे तो सिर्फ  और सिर्फ बेरोजगार ही दिखेगा। हर अक्षरी शिक्षा के पण्डित को भी हाथ के  हुनर जानने वाले की आवश्यकता अवश्य पड़ती है। तो उसकी कीमत ज्यादा और हुनर वाले की कीमत कम क्यों? यदि इस कीमत के  फासले को कम कर दिया जाय तो फिर से लोग हस्तकला सीखने के लिए प्रेरित हो जाएंगे। शिक्षा वह भी है और यह भी -यह मूलमन्त्र है। सिर्फ स्कूलों, कॉलेजों की डिग्री काम करने का ठप्पा का ही महत्व तो नहीं होना चाहिए। इन डिग्री देने वालों को पहले तो किसी बिना डिग्री वाले ने ही दी होगी। इसमें जब कोई सन्देह नहीं तो फिर उसी से हम बैर क्यों कर बैठे। अंग्रेजी शिक्षा ने क्लर्क  तो बहुत उत्पन्न कर दिये जो नौकरिया करने के लिए तत्पर हैं। महीने का मेहनताना मिल जाय बस। कोई यह भी नहीं सोचता कि हम उतना नौकरी देने वाले को दे या पा रहे हैं कि नहीं। किसी क्लर्क को आप रख कर देखिए। वह काम ठीक से करे या न करे। तन्खाह तो उसे सही समय पर चाहिए ही। हमने भी ऐसे अनगिनत कानून बना डाले कि नौकरी देने वाला ही व्यावहारिक रूप में मानो सबसे बड़ा गुनाहगार हो। इस मानसिकता से हटे बिना हम विदेशी शिकन्जे में फँसे रहेंगे। हम कमजोर रहें, अपनी संस्कृति से दूर रहें-यही उनकी नीति रही है। आज व्यवसाय वाले के सामने अनगिनत व्यवधान डाले जाते हैं। जहाँ अक्षरी शिक्षा नीति के कारण हजारों लोग बेरोजगार हैं, (जिसमें उनका दोष नहीं) वहाँ इतने कानून कि कुछ शुरुआत के पहले आप उन कानूनों को कैसे पालन करेंगे यही दिमाग खराब कर देता है। इस शिक्षा नीति ने हमें या तो सिर्फ राईट या सिर्फ लेट कर दिया है। समन्वय का इसमें अवसर ही नहीं है। कारोबार करने वाले और उसमें काम करने वाले दोनों का सही समन्वय भी तो आवश्यक है। किसी कारखाने के बन्द होने में दोनों पक्ष कहीं न कहीं उत्तरदायी होते हैं। बंगाल तो इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। यहाँ काम करने वाला समय के बाद पहुँचता है और जल्दी जाने की चेष्टा करता है। पैसे देने वाला भी जितना देर से व जितना कम दे सके यही सोचता है। वह भी क्या करे उधार ने जीवन तबाह कर रखा है। सब कुछ इतना उलट-पुलट क्यों हो रहा है इसे विचारने की आवश्यकता है। गूढ़ता में खोजने पर गलत शिक्षा, आध्यात्म रहित शिक्षा, हस्तकला रहित शिक्षा, अत्यधिक भौतिकता, कानून की गलत धाराएँ चारों ओर यही सब नजर आएँगे। हुनर की शिक्षा के स्कूल खोलिए, प्रेक्टिकल काम करने का मौका विकसित कराइये बचपन से ही। बच्चों को बढ़ई, लोहार, कुहार राजमिस्त्री, वैद्य, मैकनिक, कृषि आदि की डिग्री भी दीजिए। जो अक्षर ज्ञान चाहे उनके लिए वो और जो ये सब चाहें उनको ये। बच्चे सही शिक्षा प्राप्त कर सकें इसके उपाय करने की नितान्त आवश्यकता है। सिर्फ हमारी आज की कथित अक्षरी शिक्षा से समन्वय नहीं होगा। अति सर्वत्र वर्जयेत।