आरक्षण के औचित्य और अनौचित्य को लेकर समय-समय पर विचार होता रहता है। विगत दिनों दो मुय व्यक्तियों की टिप्पणियाँ चर्चित रहीं, इनमें प्रथम- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी का अपना महत्त्व है। जब बिहार विधानसभा के चुनाव चल रहे थे, तब संघ चालक की टिप्पणी ने बिहार में भाजपा को और मोदी को जो लाभ पहुँचाया, उसे पार्टी और सरकार दोनों बहुत समय तक याद रखेंगे। तब सर संघ चालक ने कहा था- आरक्षण की निरन्तरता पर विचार होना चाहिये। लालू और नीतीश को ऐसा हथियार मिला कि पूरे चुनाव में इसे खूब चलाया, इतना चलाया कि लोगों ने बिहार में भाजपा की हार का इसे बड़ा कारण बताया। उस चुनाव के समय इस प्रकार की टिप्पणी अनावश्यक थी, परन्तु कुछ वक्तव्यों एवं घटनाओं का मूल्य घटित होने के पश्चात् पता लगता है। घटते समय या पूर्व उसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है और जो लोग घटित बातों के परिणाम का अनुमान लगा सकते हैं, वे इस प्रकार की घटनाओं को घटित ही नहीं होने देते।
अभी 17 दिसबर को एक समेलन में ‘सामाजिक समावेश’ के सन्दर्भ में बोलते हुए अपने पुराने विचारों के विपरीत, उन्होंने कहा, ‘‘आरक्षण प्रणाली को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यह व्यवस्था भारतीय समाज में भेदभाव मौजूद रहने की स्थिति तक बनी रहनी चाहिए। सामाजिक समावेश की शुरूआत खुद से कर उसे दूसरे परिवार और फिर समाज तक बढ़ानी चाहिए। इस सामाजिक विविधता को बरकरार रखते हुए अंजाम दिया जाना चाहिए। इसके अलावा हिन्दुत्व के पीछे की भावनाओं, मूल्यों और दर्शनों का अनुसरण करना चाहिए।’’ समाचार पत्र आगे लिखता है- ‘‘सामाजिक समरसता एवं अखण्डता के बारे में संघ प्रमुख ने कहा कि कोई भी धर्म, सप्रदाय, समाज-सुधारक या सन्त मानव समुदाय के बीच भेदभाव का समर्थन नहीं कर सकता।’’ (दैनिक जागरण कोलकाता, 18 दिसबर)
इसमें पहली टिप्पणी अवसर के विपरीत थी तो दूसरी सिद्धान्त के विपरीत। दूसरी टिप्पणी में आगे कहा गया है कि आरक्षण तब तक चलता रहना चाहिए जब तक आरक्षण प्राप्त लोग स्वयं ही इसको समाप्त करने की माँग न करें। पं. नेहरू ने भी हिन्दी को तब तक राष्ट्रभाषा न बनाने की बात कही थी, जब तक एक भी प्रदेश उसका विरोध करेगा। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे कथन का कहीं से भी समर्थन नहीं कर सकता। संघ प्रमुख की प्रथम टिप्पणी समयोचित नहीं तो दूसरी टिप्पणी सिद्धान्त के विपरीत और समाज के लिए लाभदायक नहीं है। ऐसी परिस्थिति पर लोक में कहावत है- किसी ने कहा कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। लोगों ने कहा- बुरा किया। कुछ दिनों बाद जब लोगों ने बुरा माना तो उसने फिर बताया- मेरे पिता ने दूसरी शादी छोड़ दी, तो लोगों ने कहा- यह उससे भी बुरा किया।
यह देश पिछले पाँच हजार साल से आरक्षण से ही पीड़ित है। यहाँ जन्म आरक्षित है, यहाँ कर्म आरक्षित है, यहाँ ज्ञान आरक्षित है, यहाँ अधिकार आरक्षित हैं, यहाँ साधन-सपत्ति आरक्षित है, यहाँ तो सभी कुछ आरक्षित है। इस आरक्षण के कारण ही यह देश दास बना। हजार साल तक दासता की बेड़ियों से निकला भी तो दूसरे आरक्षण के रूप में दासता का पट्टा गले में डालकर। मोहन भागवत कहते हैं- आरक्षण प्रणाली खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ तो जिन्होंने हजारों साल से आरक्षण का ठेका ले रखा था, उनकी दुकानें उठ रही हैं। यह नया आरक्षण ऐसी कौन-सी चीज है, जिसे खत्म करने का सवाल नहीं उठता? खत्म करने का सवाल तो पहले वक्तव्य में आपने ही उठा दिया, फिर दूसरा क्यों नहीं उठायेगा।
लोग कहते हैं- आरक्षण से समाज में समानता बढ़ेगी। पहले के आरक्षण से समाज में समानता नहीं आई, तो इसमें कौन रामबाण नुस्खा लगा है, जो समाज में समानता उत्पन्न कर देगा? आरक्षण अयोग्यता का और स्वार्थ का है। जिस दिन ब्राह्मण ने आरक्षण किया था, तब भी उसने सारे अधिकार जन्म के आधार पर अपने लिये आरक्षित कर लिये थे। जब ब्राह्मण के आरक्षण से समाज या देश का भला नहीं हुआ, तब दलित के आरक्षण से समाज का भला कैसे हो जायेगा? ब्राह्मण या सवर्ण व्यक्ति जन्म के आधार पर अपने पद, पैसे, सुरक्षा के अधिकार समाज में प्राप्त करता था, तब उसने समाज में किसके साथ न्याय किया था? संघ प्रमुख किस दर्शन, सप्रदाय और समाज सुधारक की बात कर रहे हैं? उनमें आचार्य शंकर तो आते ही होंगे और यदि आते हैं तो आरक्षण के विषय में शंकराचार्य के विचारों से भी मोहन भागवत परिचित होंगे ही। शंकराचार्य जो समस्त संसार में अद्वैत के प्रयात आचार्य हैं, जो संसार में ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते, जिनकी दृष्टि में जड़ पदार्थ, कुत्ता या विद्वान् सभी कुछ ब्रह्म है, जिनमें लिये भेद बुद्धि पाप से कम नहीं है, वे ही शंकराचार्य अपने वेदान्त-दर्शन के भाष्य में वेदाध्ययन के अधिकार में स्त्री और शूद्र को वेद सुनने पर कान में सीसा पिघला कर डालने की बात करते हैं। यदि वे मन्त्र बोलें तो उनकी जीभ काट लेने की वकालत करते हैं तथा स्त्री शूद्र के वेद मन्त्र याद करने पर मार देने की बात को स्मृति के प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं। (वेदान्त शांकर भाष्य- 1/3/38) इतना ही नहीं, शंकराचार्य अपने दर्शन, गीता, उपनिषद् भाष्यों में श्रुति के नाम पर वेदमन्त्र न देकर केवल उपनिषद् वाक्यों से काम चलाते हैं। क्या यह आरक्षण का परिणाम नहीं है?
जब मनुष्य साधन, सुविधा और अधिकार सहज जन्म के आधार पर पाता है, तो उसे कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं रहती और जिसको संघर्ष नहीं करना पड़ता, वह कभी योग्य और विद्वान् नहीं बन सकता। ब्राह्मण और तथाकथित द्विजों का यही हुआ। सारा समाज ब्राह्मण गुरुओं के कारण अज्ञानी, आलसी, स्वार्थी बनकर रह गया। दूसरों को मूर्ख रखा तो स्वयं भी मूर्ख बन गये और अपने आप दूसरों के घरों में भोजन बनाकर अपनी सन्तुष्टि करने लगे। क्या यही हाल आज के आरक्षण में नहीं है कि एक बालक अपने परिश्रम और बुद्धि से नबे-पचानवे प्रतिशत अंक पाकर शिक्षा और अवसर से वञ्चित हो जाता है और जन्म के आधार पर दो-पाँच अंक प्राप्त करने वाला, आज बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त कर उच्च पदों का अधिकारी बन बैठता है। अयोग्यता का संरक्षण करने से जहाँ योग्यता का दास होता है, वहाँ अयोग्य व्यक्ति अपनी-अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिये व्यर्थ के अहंकार में अपने सहकर्मियों को प्रताड़ित करता है। चिकित्सा, पठन-पाठन और तकनीक के कार्यों में जहाँ आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्ति पहुँच गये हैं, वे सारे अपने उत्तरदायित्व, अपने अधीन योग्य लोगों से करवाते हैं और उन्हें नीचा दिखाने का अवसर नहीं चूकते।
संघ प्रमुख की दूसरी बात का जहाँ तक प्रश्न है, वह भी मिथ्या है, क्योंकि मनुष्य और पशु का मौलिक स्वभाव समान है। दोनों स्वार्थ के प्रति स्वतः प्रेरित होते हैं। न्याय, परोपकार, धर्म, विद्या, विज्ञान विचार के परिणाम हैं। अज्ञानी तो जब भी बात करेगा, स्वार्थ की करेगा, दूसरे की हानि की बात करेगा। उससे किसी आदर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि आरक्षण- प्राप्त लोगों को तृप्ति होती तो तथाकथित सवर्ण समाज बहुत पहले पिछड़ों और दलितों के अधिकार लौटा चुका होता, परन्तु समाज ने तो ऐसा नहीं किया। समाज में व्यक्ति होते हैं, जो अपनी विचार संवेदनशीलता से अन्याय का विरोध करते हैं, परन्तु समूह का विवेकशील बनना सभव नहीं है। आज जो दलितों के पास आरक्षण अधिकार है, वह सवर्णों की कृपा से तो नहीं है। आज भारत में वयस्क मताधिकार का ये कमाल है कि उनके मत पाने के लिये आप उन्हें आरक्षण देने को बैठे हैं और आज संघ चालक को आरक्षण बनाये रखने की वकालत करनी पड़ रही है, यह प्रजातन्त्र के मताधिकार का सामर्थ्य है। यदि देश में प्रजातन्त्र नहीं होता या दलित मतदाता निर्णायक संया में नहीं होते, तो क्या तब भी आरक्षण चलता रहता?कभी नहीं।
दलितों की बात छोड़ें, मुसलमान और ईसाइयों के भी आरक्षण की माँग की जा रही है। क्या इसके लिये किसी के पास कोई न्यायसंगत आधार है परन्तु राजनेताओं को लगता है कि इनके मतों से हम सत्ता तक पहुँच सकते हैं तो उनके लिये भी आरक्षण की माँग होने लगी। मायावती ने आरक्षण के बल पर सत्ता प्राप्त की, मुलायमसिंह ने भी मुस्लिम-यादव गठजोड़ कर उन्हें आरक्षित कर लिया और सत्ता पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में दलित मतों के आधार पर जयललिता सत्ता में है तो बिहार में आरक्षण बचाओं के नेता सत्ता में है। आज आरक्षण राजनैतिक हथियार बन गया। जहाँ सवर्णों के मत खिसकने का भय सताता है, वहाँ सवर्णों के आरक्षण की बात की जाती है।
यह कहना तो उचित ही है कि समाज के अनेक वर्ग लबे समय से पीड़ित और प्रताड़ित किये जाते रहे हैं। जो लोग दलितों के उत्पीड़न की बात करते हैं, वे यह क्यों भूल जाते हैं कि जो ब्राह्मण दलितों को पीड़ित करता रहा है, वह घर की महिला का भी उसी प्रकार शोषण कर रहा है। परपरा से वेद पढ़ने वाले पण्डित की पत्नी को वह आज वेद पढ़ने और वेद सुनने का अधिकार देने के लिये तैयार नहीं। इसके पीछे केवल मनुष्य का स्वार्थ और अज्ञान कारण है। इसको दूर करना आवश्यक है और यह किसी भी प्रकार के सामाजिक आरक्षण से दूर नहीं हो सकता। मूल बात तक हम पहुँचना नहीं चाहते कि जब तक किसी को समान अवसर नहीं मिलते, तब तक वह अपनी योग्यता प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं हो सकता, आरक्षण की व्यवस्था समान अवसर की विरोधी और अयोग्य को संरक्षण प्रदान करती है।
संघ प्रमुख का मानना है कि समाज में दलितों-पिछड़ों का बहुत उत्पीड़न हुआ है, अतः उन्हें आरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है। यदि न्याय के सिद्धान्त में यह स्वीकार्य हो कि जिसने मेरे पिता को मारा है, उसके पिता को मारने का मुझे अधिकार है, तब यह तर्क उचित है कि जिन सवर्णों के पूर्वजों ने समाज के इन लोगों को प्रताड़ित किया है, वे लोग उन पीड़ित लोगों की सन्तानों का उसी प्रकार उत्पीड़न करें। समाज में हत्या करने के बदले हत्या करने वाले को न्यायालय दण्डित करता है, तो दूसरी ओर हत्यारे को भी फाँसी देता है। दण्ड अपराध करने वाले को मिलता है, अपराध किसी ने किया, बदले में किसी और को दण्डित करे, यह न्यायसंगत नहीं है।
हम उस बिन्दु को देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं, जो सारे पाप की जड़ है। वह है-हिन्दू समाज में व्याप्त जन्मना जाति व्यवस्था। पहला आरक्षण बना, जन्मना जाति को आधार मानकर आज भी हम जन्मना जाति को आरक्षण का आधार मान रहे हैं। जब जन्म पर आधारित एक व्यवस्था दोषपूर्ण है तो दूसरी जन्मगत जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? अन्तर इतना है कि पहले समाज सवर्ण को अधिकारी मानता था, अब सरकार दलित को अधिकारी मानती है। हमारे न्याय में एक विचित्रता इस आरक्षण के कारण उत्पन्न हो गई है। एक ओर आरक्षण पाने वाले को अपनी जाति की घोषणा करनी पड़ती है तथा जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त करना पड़ता है, वहीं कोई ऐसे व्यक्ति की जाति का उल्लेख करता है तो नियमानुसार दण्ड का भागी बनता है, क्योंकि समाज में जाति-सूचक शदों के साथ आज भी मान-अपमान के भाव जुड़े हुए हैं। एक सवर्ण व्यक्ति दलित को जातिसूचक शदों से पुकार कर मन में बड़ा सन्तोष अनुभव करता है, क्योंकि उसके मन में अपनी जाति के प्रति अहंकार का भाव रहता है।
आरक्षण को लेकर दूसरी घटना है गुजरात की, जहाँ हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की माँग को लेकर पटेल समुदाय आन्दोलन कर रहा है। वहाँ न्यायाधीश परदीवाला ने एक दिसबर को हार्दिक पटेल के वाद में टिप्पणी की थी। न्यायाधीश परदीवाला ने व्यवस्था दी कि दो चीजों ने इस देश को तबाह कर दिया है या इस देश की सही दिशा में प्रगति नहीं हुई- पहला आरक्षण व दूसरा भ्रष्टाचार। न्यायाधीश ने इस बात का भी उल्लेख किया कि जब हमारा संविधान बनाया गया तो यह समझा गया कि आरक्षण दस वर्ष की अवधि के लिये रहेगा, पर दुर्भाग्यवश यह आजादी के 65 वर्ष बाद भी जारी है। इस टिप्पणी पर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा न्यायाधीश पर महाअभियोग लगाने का नोटिस राज्यसभा के सभापति को दिया गया। न्यायाधीश ने, हो सकता है संविधान के अनुकूल काम न किया हो, परन्तु बात तो सच ही कही थी। आज हमने आरक्षण संविधान में स्वीकार किया है, इसलिये उसका मानना अनिवार्य भी है और कर्त्तव्य भी, परन्तु जब हमें लगा है, संविधान में सुधार की आवश्यकता है तो हमने सुधार किया है। संविधान में जो लिखा है वह एक नागरिक को मान्य है, यह तो ठीक है परन्तु ‘उसको उचित है’, यह स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। नियम कानून बहुमत से बनते हैं, सही या गलत होने से नहीं। इसलिये न्यायाधीश का कथन विधि के अनुकूल न हो, यह सभव है, परन्तु सत्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
अब विचारणीय इतना ही है कि संघ प्रमुख कहते हैं- ‘‘आरक्षण पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता’’, परन्तु न्यायाधीश का मानना है कि आज सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न ही यह है कि आरक्षण का क्या औचित्य है? प्राचीनाारत के सबन्ध में विचार करते हैं तो जो लोग जाति व्यवस्था को बुरा मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज अच्छा भी रहा होगा, उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज आज बुरा है। यह तो नहीं हो सकता कि प्रारभ बुराई से हुआ होगा। यदि प्रारभ बुराई से हुआ है तो यह बुराई कभी समाप्त नहीं हो सकती, यदि बुराई बाद में आई तो मौलिक बात अच्छाई है, जिसे फिर भी लाया जा सकता है। वह अच्छाई है कि जाति जन्म से होती है, परन्तु वह है मनुष्य और पशु की जाति, मनुष्यों में स्त्री-पुरुष, पशुओं में घोड़ा, गधा, बैल, ऊँट, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। जो जन्म की जाति को अपरिवर्तनीय मानते हैं, उन्हें ऋषि दयानन्द की एक बात याद रखनी चाहिये। एक जन्मना जाति मानने वाले ने ऋषि दयानन्द से पूछा- आप जन्म से जाति मानते हैं या कर्म से? तो स्वामी जी ने उसी से प्रश्न पूछा-तुम कैसा मानते हो? तो उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हम तो जन्म से जाति मानते हैं। तब स्वामी जी ने उस व्यक्ति से प्रतिप्रश्न किया- यदि कोई जन्म का ब्राह्मण व्यक्ति मुसलमान हो जाये तो उसकी जाति क्या होगी, क्या ब्राह्मण रहेगा? तो पूछने वाला निरुत्तर हो गया। जाति को आपने जन्म से मान रखा है, वह जन्म से होती नहीं है।
जहाँ तक कर्म का प्रश्न है, तो वे अच्छे-बुरे होते हैं और मनुष्य उन्हीं के अनुसार अच्छा-बुरा या यह या वह बनता है। वास्तविकता तो यह है कि कार्य से कोई ऊँचा-नीचा, अच्छा-बुरा नहीं होता। वह नाम उसकी योग्यता का सूचक है और योग्यता अनुसार वह नाम बदल जाता है, इसी का नाम वर्ण व्यवस्था है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति योग्यता के अनुसार अपने को कहीं भी स्थापित कर सकता है। शूद्र को ब्राह्मण बनने का अधिकार है तथा ब्राह्मण को अपने कर्म छोड़ने पर शूद्र बनने की बाध्यता, यही वर्ण व्यवस्था है, जो मनु के शदों में इस प्रकार है जो आरक्षण का विकल्प भी है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैयात् तथैव च।।
– डॉ. धर्मवीर