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संरक्षण औचित्य का, आरक्षण का नहीं: – डॉ. धर्मवीर

 

आरक्षण के औचित्य और अनौचित्य को लेकर समय-समय पर विचार होता रहता है। विगत दिनों दो मुय व्यक्तियों की टिप्पणियाँ चर्चित रहीं, इनमें प्रथम- राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी का अपना महत्त्व है। जब बिहार विधानसभा के चुनाव चल रहे थे, तब संघ चालक की टिप्पणी ने बिहार में भाजपा को और मोदी को जो लाभ पहुँचाया, उसे पार्टी और सरकार दोनों बहुत समय तक याद रखेंगे। तब सर संघ चालक ने कहा था- आरक्षण की निरन्तरता पर विचार होना चाहिये। लालू और नीतीश को ऐसा हथियार मिला कि पूरे चुनाव में इसे खूब चलाया, इतना चलाया कि लोगों ने बिहार में भाजपा की हार का इसे बड़ा कारण बताया। उस चुनाव के समय इस प्रकार की टिप्पणी अनावश्यक थी, परन्तु कुछ वक्तव्यों  एवं घटनाओं का मूल्य घटित होने के पश्चात् पता लगता है। घटते समय या पूर्व उसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है और जो लोग घटित बातों के परिणाम का अनुमान लगा सकते हैं, वे इस प्रकार की घटनाओं को घटित ही नहीं होने देते।

अभी 17 दिसबर को एक समेलन में ‘सामाजिक समावेश’ के सन्दर्भ में बोलते हुए अपने पुराने विचारों के विपरीत, उन्होंने कहा, ‘‘आरक्षण प्रणाली को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यह व्यवस्था भारतीय समाज में भेदभाव मौजूद रहने की स्थिति तक बनी रहनी चाहिए। सामाजिक समावेश की शुरूआत खुद से कर उसे दूसरे परिवार और फिर समाज तक बढ़ानी चाहिए। इस सामाजिक विविधता को बरकरार रखते हुए अंजाम दिया जाना चाहिए। इसके अलावा हिन्दुत्व के पीछे की भावनाओं, मूल्यों और दर्शनों का अनुसरण करना चाहिए।’’ समाचार पत्र आगे लिखता है- ‘‘सामाजिक समरसता एवं अखण्डता के बारे में संघ प्रमुख ने कहा कि कोई भी धर्म, सप्रदाय, समाज-सुधारक या सन्त मानव समुदाय के बीच भेदभाव का समर्थन नहीं कर सकता।’’ (दैनिक जागरण कोलकाता, 18 दिसबर)

इसमें पहली टिप्पणी अवसर के विपरीत थी तो दूसरी सिद्धान्त के विपरीत। दूसरी टिप्पणी में आगे कहा गया है कि आरक्षण तब तक चलता रहना चाहिए जब तक आरक्षण प्राप्त लोग स्वयं ही इसको समाप्त करने की माँग न करें। पं. नेहरू ने भी हिन्दी को तब तक राष्ट्रभाषा न बनाने की बात कही थी, जब तक एक भी प्रदेश उसका विरोध करेगा। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति ऐसे कथन का कहीं से भी समर्थन नहीं कर सकता। संघ प्रमुख की प्रथम टिप्पणी समयोचित नहीं तो दूसरी टिप्पणी सिद्धान्त के विपरीत और समाज के लिए लाभदायक नहीं है। ऐसी परिस्थिति पर लोक में कहावत है- किसी ने कहा कि मेरे पिता ने दूसरी शादी कर ली। लोगों ने कहा- बुरा किया। कुछ दिनों बाद जब लोगों ने बुरा माना तो उसने फिर बताया- मेरे पिता ने दूसरी शादी छोड़ दी, तो लोगों ने कहा- यह उससे भी बुरा किया।

यह देश पिछले पाँच हजार साल से आरक्षण से ही पीड़ित है। यहाँ जन्म आरक्षित है, यहाँ कर्म आरक्षित है, यहाँ ज्ञान आरक्षित है, यहाँ अधिकार आरक्षित हैं, यहाँ साधन-सपत्ति आरक्षित है, यहाँ तो सभी कुछ आरक्षित है। इस आरक्षण के कारण ही यह देश दास बना। हजार साल तक दासता की बेड़ियों से निकला भी तो दूसरे आरक्षण के रूप में दासता का पट्टा गले में डालकर। मोहन भागवत कहते हैं- आरक्षण प्रणाली खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ तो जिन्होंने हजारों साल से आरक्षण का ठेका ले रखा था, उनकी दुकानें उठ रही हैं। यह नया आरक्षण ऐसी कौन-सी चीज है, जिसे खत्म करने का सवाल नहीं उठता? खत्म करने का सवाल तो पहले वक्तव्य में आपने ही उठा दिया, फिर दूसरा क्यों नहीं उठायेगा।

लोग कहते हैं- आरक्षण से समाज में समानता बढ़ेगी। पहले के आरक्षण से समाज में समानता नहीं आई, तो इसमें कौन रामबाण नुस्खा लगा है, जो समाज में समानता उत्पन्न कर देगा? आरक्षण अयोग्यता का और स्वार्थ का है। जिस दिन ब्राह्मण ने आरक्षण किया था, तब भी उसने सारे अधिकार जन्म के आधार पर अपने लिये आरक्षित कर लिये थे। जब ब्राह्मण के आरक्षण से समाज या देश का भला नहीं हुआ, तब दलित के आरक्षण से समाज का भला कैसे हो जायेगा? ब्राह्मण या सवर्ण व्यक्ति जन्म के आधार पर अपने पद, पैसे, सुरक्षा के अधिकार समाज में प्राप्त करता था, तब उसने समाज में किसके साथ न्याय किया था? संघ प्रमुख किस दर्शन, सप्रदाय और समाज सुधारक की बात कर रहे हैं? उनमें आचार्य शंकर तो आते ही होंगे और यदि आते हैं तो आरक्षण के विषय में शंकराचार्य के विचारों से भी मोहन भागवत परिचित होंगे ही। शंकराचार्य जो समस्त संसार में अद्वैत के प्रयात आचार्य हैं, जो संसार में ब्रह्म के अतिरिक्त किसी की सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते, जिनकी दृष्टि में जड़ पदार्थ, कुत्ता या विद्वान् सभी कुछ ब्रह्म है, जिनमें लिये भेद बुद्धि पाप से कम नहीं है, वे ही शंकराचार्य अपने वेदान्त-दर्शन के भाष्य में वेदाध्ययन के अधिकार में स्त्री और शूद्र को वेद सुनने पर कान में सीसा पिघला कर डालने की बात करते हैं। यदि वे मन्त्र बोलें तो उनकी जीभ काट लेने की वकालत करते हैं तथा स्त्री शूद्र के वेद मन्त्र याद करने पर मार देने की बात को स्मृति के प्रमाण रूप में प्रस्तुत करते हैं। (वेदान्त शांकर भाष्य- 1/3/38) इतना ही नहीं, शंकराचार्य अपने दर्शन, गीता, उपनिषद् भाष्यों में श्रुति के नाम पर वेदमन्त्र न देकर केवल उपनिषद् वाक्यों से काम चलाते हैं। क्या यह आरक्षण का परिणाम नहीं है?

जब मनुष्य साधन, सुविधा और अधिकार सहज जन्म के आधार पर पाता है, तो उसे कुछ भी प्राप्त करने के लिये संघर्ष करने की आवश्यकता ही नहीं रहती और जिसको संघर्ष नहीं करना पड़ता, वह कभी योग्य और विद्वान् नहीं बन सकता। ब्राह्मण और तथाकथित द्विजों का यही हुआ। सारा समाज ब्राह्मण गुरुओं के कारण अज्ञानी, आलसी, स्वार्थी बनकर रह गया। दूसरों को मूर्ख रखा तो स्वयं भी मूर्ख बन गये और अपने आप दूसरों के घरों में भोजन बनाकर अपनी सन्तुष्टि करने लगे। क्या यही हाल आज के आरक्षण में नहीं है कि एक बालक अपने परिश्रम और बुद्धि से नबे-पचानवे प्रतिशत अंक पाकर शिक्षा और अवसर से वञ्चित हो जाता है और जन्म के आधार पर दो-पाँच अंक प्राप्त करने वाला, आज बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ प्राप्त कर उच्च पदों का अधिकारी बन बैठता है। अयोग्यता का संरक्षण करने से जहाँ योग्यता का दास होता है, वहाँ अयोग्य व्यक्ति अपनी-अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिये व्यर्थ के अहंकार में अपने सहकर्मियों को प्रताड़ित करता है। चिकित्सा, पठन-पाठन और तकनीक के कार्यों में जहाँ आरक्षण के कारण अयोग्य व्यक्ति पहुँच गये हैं, वे सारे अपने उत्तरदायित्व, अपने अधीन योग्य लोगों से करवाते हैं और उन्हें नीचा दिखाने का अवसर नहीं चूकते।

संघ प्रमुख की दूसरी बात का जहाँ तक प्रश्न है, वह भी मिथ्या है, क्योंकि मनुष्य और पशु का मौलिक स्वभाव समान है। दोनों स्वार्थ के प्रति स्वतः प्रेरित होते हैं। न्याय, परोपकार, धर्म, विद्या, विज्ञान विचार के परिणाम हैं। अज्ञानी तो जब भी बात करेगा, स्वार्थ की करेगा, दूसरे की हानि की बात करेगा। उससे किसी आदर्श की अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि आरक्षण- प्राप्त लोगों को तृप्ति होती तो तथाकथित सवर्ण समाज बहुत पहले पिछड़ों और दलितों के अधिकार लौटा चुका होता, परन्तु समाज ने तो ऐसा नहीं किया। समाज में व्यक्ति होते हैं, जो अपनी विचार संवेदनशीलता से अन्याय का विरोध करते हैं, परन्तु समूह का विवेकशील बनना सभव नहीं है। आज जो दलितों के पास आरक्षण अधिकार है, वह सवर्णों की कृपा से तो नहीं है। आज भारत में वयस्क मताधिकार का ये कमाल है कि उनके मत पाने के लिये आप उन्हें आरक्षण देने को बैठे हैं और आज संघ चालक को आरक्षण बनाये रखने की वकालत करनी पड़ रही है, यह प्रजातन्त्र के मताधिकार का सामर्थ्य है। यदि देश में प्रजातन्त्र नहीं होता या दलित मतदाता निर्णायक संया में नहीं होते, तो क्या तब भी आरक्षण चलता रहता?कभी नहीं।

दलितों की बात छोड़ें, मुसलमान और ईसाइयों के भी आरक्षण की माँग की जा रही है। क्या इसके लिये किसी के पास कोई न्यायसंगत आधार है परन्तु राजनेताओं को लगता है कि इनके मतों से हम सत्ता तक पहुँच सकते हैं तो उनके लिये भी आरक्षण की माँग होने लगी। मायावती ने आरक्षण के बल पर सत्ता प्राप्त की, मुलायमसिंह ने भी मुस्लिम-यादव गठजोड़ कर उन्हें आरक्षित कर लिया और सत्ता पर अधिकार कर लिया। दक्षिण में दलित मतों के आधार पर जयललिता सत्ता में है तो बिहार में आरक्षण बचाओं के नेता सत्ता में है। आज आरक्षण राजनैतिक हथियार बन गया। जहाँ सवर्णों के मत खिसकने का भय सताता है, वहाँ सवर्णों के आरक्षण की बात की जाती है।

यह कहना तो उचित ही है कि समाज के अनेक वर्ग लबे समय से पीड़ित और प्रताड़ित किये जाते रहे हैं। जो लोग दलितों के उत्पीड़न की बात करते हैं, वे यह क्यों भूल जाते हैं कि जो ब्राह्मण दलितों को पीड़ित करता रहा है, वह घर की महिला का भी उसी प्रकार शोषण कर रहा है। परपरा से वेद पढ़ने वाले पण्डित की पत्नी को वह आज वेद पढ़ने और वेद सुनने का अधिकार देने के लिये तैयार नहीं। इसके पीछे केवल मनुष्य का स्वार्थ और अज्ञान कारण है। इसको दूर करना आवश्यक है और यह किसी भी प्रकार के सामाजिक आरक्षण से दूर नहीं हो सकता। मूल बात तक हम पहुँचना नहीं चाहते कि जब तक किसी को समान अवसर नहीं मिलते, तब तक वह अपनी योग्यता प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं हो सकता, आरक्षण की व्यवस्था समान अवसर की विरोधी और अयोग्य को संरक्षण प्रदान करती है।

संघ प्रमुख का मानना है कि समाज में दलितों-पिछड़ों का बहुत उत्पीड़न हुआ है, अतः उन्हें आरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है। यदि न्याय के सिद्धान्त में यह स्वीकार्य हो कि जिसने मेरे पिता को मारा है, उसके पिता को मारने का मुझे अधिकार है, तब यह तर्क उचित है कि जिन सवर्णों के पूर्वजों ने समाज के इन लोगों को प्रताड़ित किया है, वे लोग उन पीड़ित लोगों की सन्तानों का उसी प्रकार उत्पीड़न करें। समाज में हत्या करने के बदले हत्या करने वाले को न्यायालय दण्डित करता है, तो दूसरी ओर हत्यारे को भी फाँसी देता है। दण्ड अपराध करने वाले को मिलता है, अपराध किसी ने किया, बदले में किसी और को दण्डित करे, यह न्यायसंगत नहीं है।

हम उस बिन्दु को देखकर भी अनदेखा करना चाहते हैं, जो सारे पाप की जड़ है। वह है-हिन्दू समाज में व्याप्त जन्मना जाति व्यवस्था। पहला आरक्षण बना, जन्मना जाति को आधार मानकर आज भी हम जन्मना जाति को आरक्षण का आधार मान रहे हैं। जब जन्म पर आधारित एक व्यवस्था दोषपूर्ण है तो दूसरी जन्मगत जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था श्रेष्ठ कैसे हो सकती है? अन्तर इतना है कि पहले समाज सवर्ण को अधिकारी मानता था, अब सरकार दलित को अधिकारी मानती है। हमारे न्याय में एक विचित्रता इस आरक्षण के कारण उत्पन्न हो गई है। एक ओर आरक्षण पाने वाले को अपनी जाति की घोषणा करनी पड़ती है तथा जाति प्रमाण-पत्र प्राप्त करना पड़ता है, वहीं कोई ऐसे व्यक्ति की जाति का उल्लेख करता है तो नियमानुसार दण्ड का भागी बनता है, क्योंकि समाज में जाति-सूचक शदों के साथ आज भी मान-अपमान के भाव जुड़े हुए हैं। एक सवर्ण व्यक्ति दलित को जातिसूचक शदों से पुकार कर मन में बड़ा सन्तोष अनुभव करता है, क्योंकि उसके मन में अपनी जाति के प्रति अहंकार का भाव रहता है।

आरक्षण को लेकर दूसरी घटना है गुजरात की, जहाँ हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की माँग को लेकर पटेल समुदाय आन्दोलन कर रहा है। वहाँ न्यायाधीश परदीवाला ने एक दिसबर को हार्दिक पटेल के वाद में टिप्पणी की थी। न्यायाधीश परदीवाला ने व्यवस्था दी कि दो चीजों ने इस देश को तबाह कर दिया है या इस देश की सही दिशा में प्रगति नहीं हुई- पहला आरक्षण व दूसरा भ्रष्टाचार। न्यायाधीश ने इस बात का भी उल्लेख किया कि जब हमारा संविधान बनाया गया तो यह समझा गया कि आरक्षण दस वर्ष की अवधि के लिये रहेगा, पर दुर्भाग्यवश यह आजादी के 65 वर्ष बाद भी जारी है। इस टिप्पणी पर राज्यसभा के सदस्यों द्वारा न्यायाधीश पर महाअभियोग लगाने का नोटिस राज्यसभा के सभापति को दिया गया। न्यायाधीश ने, हो सकता है संविधान के अनुकूल काम न किया हो, परन्तु बात तो सच ही कही थी। आज हमने आरक्षण संविधान में स्वीकार किया है, इसलिये उसका मानना अनिवार्य भी है और कर्त्तव्य भी, परन्तु जब हमें लगा है, संविधान में सुधार की आवश्यकता है तो हमने सुधार किया है। संविधान में जो लिखा है वह एक नागरिक को मान्य है, यह तो ठीक है परन्तु ‘उसको उचित है’, यह स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। नियम कानून बहुमत से बनते हैं, सही या गलत होने से नहीं। इसलिये न्यायाधीश का कथन विधि के अनुकूल न हो, यह सभव है, परन्तु सत्य है, इसमें कोई सन्देह नहीं।

अब विचारणीय इतना ही है कि संघ प्रमुख कहते हैं- ‘‘आरक्षण पर विचार करने का प्रश्न ही नहीं उठता’’, परन्तु न्यायाधीश का मानना है कि आज सबसे अधिक विचारणीय प्रश्न ही यह है कि आरक्षण का क्या औचित्य है? प्राचीनाारत के सबन्ध में विचार करते हैं तो जो लोग जाति व्यवस्था को बुरा मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज अच्छा भी रहा होगा, उन्हें यह भी मानना होगा कि यह समाज आज बुरा है। यह तो नहीं हो सकता कि प्रारभ बुराई से हुआ होगा। यदि प्रारभ बुराई से हुआ है तो यह बुराई कभी समाप्त नहीं हो सकती, यदि बुराई बाद में आई तो मौलिक बात अच्छाई है, जिसे फिर भी लाया जा सकता है। वह अच्छाई है कि जाति जन्म से होती है, परन्तु वह है मनुष्य और पशु की जाति, मनुष्यों में स्त्री-पुरुष, पशुओं में घोड़ा, गधा, बैल, ऊँट, जिन्हें बदला नहीं जा सकता। जो जन्म की जाति को अपरिवर्तनीय मानते हैं, उन्हें ऋषि दयानन्द की एक बात याद रखनी चाहिये। एक जन्मना जाति मानने वाले ने ऋषि दयानन्द से पूछा- आप जन्म से जाति मानते हैं या कर्म से? तो स्वामी जी ने उसी से प्रश्न पूछा-तुम कैसा मानते हो? तो उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- हम तो जन्म से जाति मानते हैं। तब स्वामी जी ने उस व्यक्ति से प्रतिप्रश्न किया- यदि कोई जन्म का ब्राह्मण व्यक्ति मुसलमान हो जाये तो उसकी जाति क्या होगी, क्या ब्राह्मण रहेगा? तो पूछने वाला निरुत्तर हो गया। जाति को आपने जन्म से मान रखा है, वह जन्म से होती नहीं है।

जहाँ तक कर्म का प्रश्न है, तो वे अच्छे-बुरे होते हैं और मनुष्य उन्हीं के अनुसार अच्छा-बुरा या यह या वह बनता है। वास्तविकता तो यह है कि कार्य से कोई ऊँचा-नीचा, अच्छा-बुरा नहीं होता। वह नाम उसकी योग्यता का सूचक है और योग्यता अनुसार वह नाम बदल जाता है, इसी का नाम वर्ण व्यवस्था है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति योग्यता के अनुसार अपने को कहीं भी स्थापित कर सकता है। शूद्र को ब्राह्मण बनने का अधिकार है तथा ब्राह्मण को अपने कर्म छोड़ने पर शूद्र बनने की बाध्यता, यही वर्ण व्यवस्था है, जो मनु के शदों में इस प्रकार है जो आरक्षण का विकल्प भी है-

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैयात् तथैव च।।

– डॉ. धर्मवीर

‘ब्रह्मचर्य का स्वरुप व उसके पालन से लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सभी मनुष्य सुख की ही कामना करते हैं, दुःख की कामना कोई मनुष्य नहीं करता। सुख प्राप्त हों और जीवन में दुःख न आयें, इसके लिए प्रयत्न करना होता है। सुख व दुःख का आधार शरीर है। यदि हमारा शरीर दुर्बल व रोगी है तो यह दुःख का धाम बन जाता है और यदि यह बलवान व निरोग है तो यह सुख का आधार होता है। दुर्बलता और रोगों से रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य एक ऐसा उपाय वा साधन है जिसे धारण करने से मनुष्य दुःखों से बच सकता है और सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। ब्रह्मचर्य क्या है? यह शरीरस्थ सभी इन्द्रियों यथा दर्शन, श्रवण, गन्ध, रस व स्पर्श पर पूर्ण नियन्त्रण को कहते हैं। यदि हमारी कर्म इन्द्रियों के यह पांचों अवयव पूर्णतयः पवित्र हों, इनमें किंचित मलिनता व विकार न हों, तो यही ब्रह्मचर्य वा इसका पालन है। जो मनुष्य अदर्शनीयों वस्तुओं का दर्शन, अश्रवणीय कथाओं का श्रवण, विपरीत व हानिकारक गन्ध, रस व स्पर्श का सेवन करता है तो उसका ब्रह्मचर्य खण्डित हो जाता है या यह बातें ब्रह्मचर्य को कुप्रभावित व खण्डित करती हैं। हम भोजन के रूप में जो कुछ ग्रहण करते हैं उससे शरीर में भिन्न-भिन्न पदार्थ व धातुएं बनती हैं जिनसे शरीर में शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी ही धातुओं में से पुरुष शरीर में एक धातु वीर्य होती है। इसका शरीर में अधिक मात्रा व उत्कृष्ट अवस्था में होना शरीर व प्राणों के बल, आरोग्यता व बौद्धिक व आत्मिक उन्नति का कारण व साधन होता है और इसका नाश व अपव्यय ही ब्रह्मचर्य का नाश व खण्डन होता है जो कि पंचकर्मेन्द्रियों की पवित्रता व नियंत्रण न होने के कारण उत्पन्न होता है। हमारी सभी इन्द्रियां मन की प्रेरणा से इच्छित विषयों में आकर्षित होती हैं। यदि मनुष्य को सत्य-असत्य वा उचित-अनुचित का ज्ञान है और मन में असत्य व अनुचित कार्यों को न करने का दृण संकल्प है तो मन इन्द्रियों के अपवित्र व हानिकारक कार्यों से बच जाता है और सुख का लाभ करता है। इस ब्रह्मचर्य की रक्षा व पालन के लिए मनुष्य को वायुसेवन, प्रभातवेला में भ्रमण सहित आसन, प्राणायाम व ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना भी आवश्यक होता है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में आयु के अनुसार ब्रह्मचर्य के तीन प्रकार लिखे हैं जिनके नाम हैं कनिष्ठ ब्रह्मचर्य, मध्यम ब्रह्मचर्य और उत्तम ब्रह्मचर्य। आज इस लेख में हम इन तीनों प्रकार के ब्रह्मचर्य का पाठकों के लाभार्थ इस हेतु से वर्णन कर रहे हैं कि वह इसे जान व समझ कर स्वयं लाभान्वित हों व इसका प्रचार कर धर्मलाभ प्राप्त करें।

 

ब्रह्मचर्य का मुख्य प्रयोजन न केवल शरीर व प्राणों को बलवान बनाना है अपितु इसका मुख्य प्रयोजन वेदादि शास्त्रों के ज्ञान व विज्ञान सहित समस्त विद्याओं का अर्जन भी है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में शास्त्रों के आधार पर लिखा है कि पांचवे वा आठवें वर्ष से लड़के लड़कों की पाठशाला तथा लड़कियां लड़कियों की पाठशालाओं में जावें और नियम-पूर्वक अध्ययन का आरम्भ करें। आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त अर्थात् एक-एक वेद के सांगोपांग पढ़ने में बारह-बारह वर्ष मिल के छत्तीस और आठ मिल के चवालीस अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिल के छब्बीस वा नौ वर्ष तथा जब तक विद्या पूरी ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे। छान्दोग्य उपनिषद के आधार पर ब्रह्मचर्य का वर्णन करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है। प्रथम कनिष्ठ जो पुरुष अन्न-रस-मय देह और देह में शयन करने वाला जीवात्मा, यज्ञ द्वारा अतीव शुभगुणों से संगत और सत्कर्तव्य है, इसको यह कर्तव्य अवश्य है कि 24 वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर वेदादि विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे और विवाह करके भी लम्पटता करें तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास कराने वाले होते हैं। इस प्रथम वय में जो अपना सारा समय विद्याभ्यास में तपस्या करता हुआ लगाये और वह आचार्य ब्रह्मचारी को वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रखे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीकठीक ब्रह्मचर्यपूर्वक रहूंगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्य बलवान् होके मेरे प्राण शुभगुणों को बसाने वाले होंगे। महर्षि दयानन्द गृहस्थियों को कहते है कि तुम इस प्रकार से अपने निजी भौतिक सुखों का विस्तार करो कि जिससे ब्रह्मचारी व विद्यार्थी ब्रह्मचर्य का लोप न करें अर्थात् वह भौतिक सुख-सुविधाओं की ओर आकर्षित व कुप्रभावित न हों और वह 24 वर्ष तक तो ब्रह्मचर्य का पालन कर सके। आचार्य ब्रह्मचारी को उपदेश करते हुए विश्वास दिलाता है कि यदि तू 24 वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करेगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित ररेगा और तेरी आयु भी 70 वा 80 वर्ष होगी।

 

दूसरा ब्रहमचर्य मध्यम ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो मनुष्य 44 वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करता है उसके प्राण, इन्द्रियां, अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होकर सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करने वाले होते हैं। यदि कोई ब्रह्मचारी प्रथम वय में जैसा स्वामीजी ने कहा है, कुछ तपश्चर्या करे तो उसका यह रुद्ररूप प्राणयुक्त मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। स्वामीजी कहते हैं कि हे ब्रह्मचारी लोगो ! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओं। जैसे इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके ब्रह्मचारी यज्ञस्वरूप होता है,  वह उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता है और जैसा यह ब्रह्चारी अच्छा काम करता है वैसा अन्य सभी को करना चाहिये।

 

उत्तम ब्रह्मचर्य 48 वर्ष पर्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे 48 अक्षर का जगती छन्द होता है, वैसे ही जो 48 वर्ष पर्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं। आचार्य और माता-पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिये तपस्वी कर और उन्हें तपस्वी होने का उपदेश करें और वे सन्तान आप ही आप अखंडित ब्रह्मचर्य सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार सौ वर्ष पर्यन्त आयु को बढ़ावे वैसे अन्य भी बढ़ायें क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर इसका लोप नहीं करते वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी ने ब्रह्मचर्य की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं का वर्णन करने के बाद शरीर की अवस्थाओं का वर्णन करते हुए सुश्रुत के आधार पर बताया है कि इस शरीर की चार अवस्थायें हैं। एक (वृद्धि) जो 16 वें वर्ष से लेके 25 वें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की वृद्धि होती है। दूसरा (यौवन) जो 25 वें वर्ष के अन्त और 26 वें वर्ष के आदि में युवावस्था का आरम्भ होता है। तीसरी (सम्पूर्णता) जो पच्चीसवें वर्ष से लेके चालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चैथी (किचिंत्परिहाणि) तब सब सांगोपांग शरीरस्थ सकल धातु पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है। यही 40 वां वर्ष विवाह का उत्तम समय है। अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना उत्तमोत्तम होता है।

 

महर्षि दयानन्द ने ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन, उसकी महत्ता व लाभों पर यह विचार सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में व्यक्त किये हैं। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कराने वाला ब्रह्मचर्ययुक्त जीवन वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार जीवन की श्रेष्ठतम् व्यवस्था है। इससे विद्या की प्राप्ति, शारीरिक व प्राण शक्ति को बल की प्राप्ति सहित सुखी व रोगरहित दीर्घायु की प्राप्ति होती है। इतिहास में रामभक्त वीर हनुमान और भीष्म पितामह का नाम ब्रह्मचर्य के व्रत पालन के कारण अमर है। इसके बाद अखण्ड ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द ही हुए हैं जिन्होंने ब्रह्मचर्य के सेवन से प्रशंसनीय शारीरिक व आत्मिक उन्नति प्राप्त की और देश व संसार का अपूर्व उपकार किया। उन्होंने जिस वैदिक विचारधारा को अपने उपदेशों, लेखों व ग्रन्थों के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वही विचारधारा समाज, देश व विश्व में सुख व शान्ति का आधार है। उनके बताये मार्ग पर चल कर ही मनुष्य अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ति कर सकते हैं। इन्हें प्राप्त करने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। उनका बताया वैदिक मार्ग सनातन व शाश्वत होने के साथ देश व काल से अबाधित व अप्रभावित है। सभी मनुष्यों को उनके विचारों व वैदिक व्यवस्थाओं को जीवन में धारण कर अपना जीवन सफल करना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘महर्षि दयानन्द का नवदम्पत्तियों व गृहस्थियों को वेदसम्मत कर्तव्योपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द महाभारतकाल के बाद संसार में वेदों के सर्वाधिक ज्ञानसम्पन्न विद्वान व ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों वा वेदों की संहिताओं की खोज कर उनका संरक्षण करने के साथ वेदों पर भाष्य भी किया। मनुष्य जाति मुख्यतः वेदप्रेमियों का यह दुर्भाग्य था कि कुछ पतित लोगों ने उनको विषपान करा कर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जिससे उनका वेदभाष्य पूरा न हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है, वह उपलब्ध वैदिक साहित्य में महत्वूपर्ण एवं वैदिक विद्वानों द्वारा सर्वत्र आदरणीय एवं सम्माननीय है। स्वामीजी ने वेदभाष्य से इतर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें उन्होंने वेद अर्थात् ईश्वर की आज्ञानुसार सभी स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। संस्कारविधि ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्यों के 16 संस्कारों पर प्रकाश डालने के साथ संस्कारों में प्रासंगिक वेदमन्त्रों का विनियोग कर संस्कार व उससे सम्बन्धित कर्तव्यों की विस्तृत व पूर्ण विधि पर भी प्रकाश डाला है। यह ज्ञातव्य है कि महर्षि दयाननन्द ने समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम संस्कारों में अनेक वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। यह सभी मन्त्र व उनके अर्थ उनके नवदम्पतियों को वेदोपदेश ही हैं। आईये, गृहस्थ आश्रम पर उनका सम्पादनयुक्त एक उपदेश सुनते हैं।

 

(हे स्त्री-पुरुषों) गृहाश्रमसंस्कार उसे कहते हैं कि जो ऐहिक और पारलौकिक सुखप्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करना, नियतकाल में यथाविधि ईश्वरउपासना, गृहकृत्य करना, सत्य धर्म में ही अपना तनमनधन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पति करना। इसके बाद वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उन्होंने उनके अर्थ किये हैं जिसमें वह कहते हैं कि सुकुमार, शुभगुणयुक्त, वधू की कामना करनेवाला पति तथा पति की कामना करनेवाली वधू और दोनों श्रेष्ठ, तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले होवें। ऐसी जो सूर्य की किरणवत् सौन्दर्य गुणयुक्त, पति के लिए मन से गुणकीर्तन करनेवाली वधू है, उसको पुरुष और इसी प्रकार के पुरुष को स्त्री सकल जगत् का उत्पादक परमात्मा देता है अर्थात् बड़े भाग्य से दोनों स्त्रीपुरुषों का जो कि तुल्य गुणकर्मस्वभाव वाले हों, जोड़ा मिलता है।

 

हे स्त्री और पुरुषों ! मैं परमेश्वर आज्ञा देता हूं कि तुम्हारे लिए विवाह में जो प्रतिज्ञा हो चुकी है, जिसे तुम दोनों ने स्वीकार किया है, इसी में तत्पर रहो, इस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ। ऋतुगामी होके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आयु जो सौ वर्षों से कम नहीं है, उसे प्राप्त होओ और वैदिक धर्म रीति से पुत्रों और नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उत्तम गृहवाले आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक निवास करो। वघू को सम्बोधित कर वह कहते है कि हे वरानने ! तू अच्छे मंगलाचरण करने तथा दोष और शोकादि से पृथक् रहनेवाली, गृहकार्यों में चतुर और तत्पर रहकर उत्तम सुखयुक्त होके पति, श्वशुर और सासु (देवर और ननद सहित) के लिए सुखकत्र्री और स्वयं प्रसन्न हुई इन घरों में सुखपूर्वक प्रवेश कर। हे वघू ! तू श्वशुरादि के लिए सुखदाता, पति के लिए सुखदाता, गृहस्थ सम्बन्धियों (देवर ननद आदि) के लिए सुखदायक हो और इस सब प्रजा के अर्थ सुखप्रद और इनके पोषण के अर्थ तत्पर हो। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा जवान स्त्रियां (यदि कोई हो) और जो इस स्थान में बू्ढ़ी-वृद्ध स्त्रियां हों, वे भी इस वधू को शीघ्र तेज अर्थात् शुभकामनायें व आर्शीवाद देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जायें और फिर इसके पास कभी न आवें। हे वरानने ! तू प्रसन्नचित होकर पलंग पर शयन कर और गृहाश्रम में स्थिर रहकर इस पति के लिए प्रजा को उत्पन्न कर। सुन्दर ज्ञानी उत्तम शिक्षा को प्राप्त सूर्य की कान्ति के समान तू उषःकाल से पहली ज्योति के तुल्य प्रत्यक्ष सब कामों में जागती रह (सजग व सावधान रह)।

 

हे सौभाग्यप्रदे नारी ! जैसे इस गृहाश्रम में प्रथम विद्वान लोग उत्तम स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तू विविध प्रकार से सुन्दररूप को धारण करनेहारी, सत्कार को प्राप्त होके सूर्य की कान्ति के समान अपने स्वामी के साथ मिलके प्रजा को प्राप्त होनेवाली अच्छे प्रकार हो। हे स्त्री-पुरुषों ! तुम बालकों के जनक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तानों को अच्छे प्रकार उत्पन्न करो। हे पुरुष वा पति ! इस अपनी स्त्री को सन्तानों से बढ़ा और दोनों परस्पर मिलकर इस गृहाश्रम में प्रजा को उत्पन्न करो, पालन-पोषण करो और पुरुषार्थ से धन को प्राप्त होओ। हे वृद्धिकारक पुरुष ! जिसमें मनुष्य लोग बीज को बोते हैं, उस अतिशय कल्याण करनेवाली स्त्री को सन्तानोत्पत्ति के लिए प्रेम से प्रेरणा कर। हे स्त्री और पुरुष ! जैसे सूर्य सुन्दर प्रकाशयुक्त प्रभातवेला को प्राप्त होता है, वैसे सुख से घर के मध्य में सन्तानोत्पत्ति आदि की क्रिया को अच्छे प्रकार जाननेवाले, सदा हास्य और आनन्दयुक्त, बड़े प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए, उत्तम चालचलन से धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छे प्रकार चलनेवाले, उत्तम पुत्रवाले, श्रेष्ठ गृहादि सामग्रीयुक्त उत्तम प्रकार की सत्नानों को धारण करते हुए गृहाश्रम के व्यवहारों को पूरा करो।

 

प्रवचन को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि हे परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् राजन् ! आप इस संसार में इन स्त्रीपुरुषों को समय पर विवाह करने की आज्ञा और ऐसी व्यवस्था दीजिए कि जिससे कोई स्त्रीपुरुष वैदिक रीति के विपरीत विवाह योग्य आयु से पूर्व वा अन्यथा विवाह कर सकें। वैसे सबको प्रसिद्धि से प्रेरणा कीजिए जिससे ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा को पाकर जाया और पति चकवाचकवी के समान एकदूसरे से प्रेमबद्ध रहें और गर्भाधानसंस्कारोक्त विधि से उत्पन्न हुई प्रजा से ये दोनों सुखयुक्त होके सम्पूर्णसौ वर्षपर्यन्त आयु को प्राप्त होवें। हे मनुष्यों! जैसे विद्यादि उत्तम गुणों का (उपदेश व प्रवचन द्वारा) दान करने वाले उत्तम स्त्री-पुरुष पुत्रोत्पत्ति करते और पुत्र की कामना करते हैं, वैसे हमारे भी सन्तान उत्तम होवें तथा बल, प्राण का नाश न करनेवाले होकर बड़े परोपकार के अर्थ विज्ञान और अन्न आदि के दान के लिए कटिबद्ध सदा रहें, जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम होवें। पति अपनी पत्नी को सम्बोधित कर शिक्षा देता है कि हे पत्नि ! तू शतवर्षपर्यन्त वा दीर्घकाल तक जीने के लिए उत्तम बुद्धियुक्त, सद्ज्ञानयुक्त होकर मेरे घरों को प्राप्त हो और मुझ घर के स्वामी की तुझ स्त्री, जैसे तेरा दीर्घकाल-पर्यन्त जीवन होवे, वैसे प्रकृष्ट ज्ञान और उत्तम व्यवहार को यथावत् जान। दम्पति की इस आशा को सब जगत् की उत्पत्ति और सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवेाला परमात्मा अपनी कृपा से सदा सिद्ध करे। जिससे वह दोनों सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें। ईश्वर गृहस्थों को उपदेश कर कहते है कि हे गृहस्थो ! मैं ईश्वर तुमको जैसी आज्ञा देता हूं, वैसा ही आचरण व व्यवहार करो, जिससे तुम्हें अक्षय सुख हो, अर्थात् जैसे तुम अपने लिए सुख की इच्छा करते और दुःख नहीं चाहते हो, वैसे ही तुम दोनों माता-पिता, सन्तान, स्त्री-पुरुष, भृत्य, मित्र, पड़ोसी और अन्य सबसे समान हृदय रहो। मन से सम्यक् प्रसन्नता और वैर-विरोधादिरहित व्यवहार को तुम्हारे लिए स्थिर करता हूं। तुम (अघ्नया) हनन न करने योग्य गाय जैसे अपने सद्योजात उत्पन्न हुए बछड़े पर वात्सल्यभाव से वर्तती है, वैसे एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कामना (सद्भावना) से वर्ता करो।

 

परमात्मा के गृहस्थियों को उपदेश को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि हे गृहस्थों ! जैसे तुम्हारा पुत्र माता के साथ प्रीतियुक्त मनवाला, अनुकूल आचारणयुक्त, और पिता के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रेमवाला होवे, वैसे तुम भी अपने पुत्रों के साथ सदा वर्ता करो। पुत्रों के समान व्यवहार ही पुत्रियों के प्रति भी करो। जैसे स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए माधुर्यगुणयुक्त वाणी को कहे, वैसे पति भी शान्त होकर अपनी पत्नी से सदा मधुर भाषण किया करे। हे गृहस्थो ! तुम में भाई भाई के साथ द्वेष कभी करे। और बहिन बहिन से द्वेष कभी करे तथा बहिनभाई भी परस्पर द्वेष मत करो, किन्तु सम्यक् प्रेमादि गुणों से युक्त समान गुणकर्मस्वभाववाले होकर मंगलकारक रीति से एकदूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करो। हे गृहस्थो !  जिस प्रकार के व्यवहार से विद्वान लोग परस्पर पृथक भाववाले नहीं होते और परस्पर में द्वेष कभी नहीं करते, वही कर्म, मैं ईश्वर, तुम्हारे लिए निश्चित करता हूं। पुरुषों को अच्छे प्रकार चिताता हूं कि तुम लोग परस्पर प्रीति से वर्तकर बड़े धनैश्वर्य को प्राप्त होओ। हे गृहस्थादि मनुष्यो ! तुम उत्तम विद्यादिगुणयुक्त, विद्वान, सद्ज्ञानी, धुरन्धर होकर विचरण करते हुए और परस्पर मिलकर धन-धान्य व राज्यसमृद्धि को प्राप्त होते हुए विरोधी वा पृथक्-पृथक् भाव परस्पर मत करो। एक दूसरे के लिए सत्य, मधुर भाषण करते हुए एक-दूसरे को प्राप्त होओ। इसीलिए समान लाभ व हानि में एक-दूसरे के सहायक तथा एक-मत (समान-मत) वाले तुमको करता हूं अर्थात् मैं ईश्वर तुमको जो आज्ञा देता हूं, इसको आलस्य छोड़कर किया करो (जिससे तुम सुखी, आनन्दित व सम्पन्न हों)।

 

स्वामी दयानन्द जी का गृहस्थियों को यह उपदेश जारी है। यदि हम इसे पूरा प्रस्तुत करें तो इस सामग्री की दुगुगी सामग्री अभी शेष है। अतः हम सभी पाठकों वा गृहस्थियों से निवेदन करते हैं कि वह संस्कारविधि का गृहस्थाश्रम प्रकरण पूरा पढ़े और महीने में एक या दो बार इसे दोहरा लिया करें जिससे इसके पाठ व आचरण से परिवार में प्रेम, सुख, शान्ति व समृद्धि विद्यमान रहे। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन उपदेश को पसन्द करंेगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘संन्यास आश्रम की महत्ता पर संन्यासी स्वामी दयानन्द का उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ संस्कारविधि है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वेदों पर आधारित 16 संस्कारों का व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में सभी संस्कारों के स्वरूप का वर्णन करने के साथ उनकी विधि वा पद्धति भी दी गई है। संस्कारविधि से ही हम उनके संन्यास आश्रम पर उपदेश को पाठकों के लाभ हेतु सम्पादन के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संन्याससंस्कार उसे कहते हैं कि जिसमें मोह आदि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण किया करते हैं। प्रथम वानप्रस्थ आश्रम के प्रसंग में जो बताया गया है कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे, यह क्रम संन्यास, अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करता-करता वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है, उसी को क्रमसंन्यास कहते हैं। संन्यास का दूसरा प्रकार यह है कि जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो, अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करें क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है। संन्यास आश्रम का तीसरा प्रकार यह है कि यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञानविज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्त की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपातरहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा होवे और जिसको दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरणप्र्यान्त यथावत् संन्यासधर्म का निर्वाह कर सकूंगा तो वह गृहाश्रम करे वानप्रस्थाश्रम, किन्तु ब्रह्मर्याश्रम को पूर्ण करके संन्याश्रम को ग्रहण कर लेवे।

 

वेदों में संन्यास आश्रम ग्रहण करने के प्रमाण उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारविधि में वेदों के 11 प्रमाण दिये हैं। लेख की सीमा के कारण हम यहां प्रथम दो प्रमाणों के ही उनके किये हुए हिन्दी अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह वेद मन्त्र का शब्दार्थ करते हुए कहते हैं कि मैं ईश्वर संन्यास लेनेवाले तुझ मनुष्य को उपदेश करता हूं कि जैसे मेघ का नाश करनेवाला सूर्य हिंसनीय पदार्थों से युक्त भूमितल में स्थित सोमरस को पीता है, वैसे संन्यास लेनेवाला पुरुष उत्तम मूल, फलों के रस को पीवे और अपने आत्मा में बड़े सामथ्र्य को उत्पन्न करूंगा, ऐसी इच्छा करता हुआ दिव्य बल को धारण करता हुआ परमैश्वर्य के लिए, हे चन्द्रमा के तुल्य सबको आनन्दित करनेहारे पूर्ण विद्वन् ! तू संन्यास लेके सब पर सत्योपदेश की वृष्टि कर। हे सोमगुण सम्पन्न सत्य से सबके अन्तःकरण को सींचनेवाले, सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देके पालन करनेवाले, शमादिगुणयुक्त संन्यासिन् ! यथार्थ बोलने, सत्यभाषण करने से सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और प्राणायाम, योगाभ्यास से, सरलता से निष्पन्न होता हुआ अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को पवित्र कर। परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए सब प्रकार से प्रयत्न कर।

 

वेदों के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के बाद महर्षि दयानन्द जी ने मनुस्मृति के 23 श्लोक प्रस्तुत कर उनके अर्थ दिये गये हैं जिनमें से 17 श्लोकों के अर्थ लेख की सीमा को ध्यान में रखकर प्रस्तुत हैं। यह अर्थ क्रमशः इस प्रकार कहे हैं। (वानप्रस्थ) काल में जंगलों में आयु का तीसरा भाग, अर्थात् अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष अथवा न्यून-से-न्यून बारह वर्ष तक विहार करके आयु के चैथे भाग, अर्थात् सत्तर वर्ष के पश्चात् सब मोह आदि संगों (परिवार आदि संबंधों) को छोड़कर संन्यासी हो जावे।।1।। विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम में सब वेदों को पढ़, गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थ में सामथ्र्य के अनुसार यज्ञ करके मोक्ष, अर्थात् संन्यासाश्रम में मन को लगाये।।2।। प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा को त्याग दिया जाता है, इनका त्याग कर आह्वनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके, ब्राह्मण विद्वान गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे।।3।। जो पुरुष सब प्राणियों को अभयदान, सत्योपदेश देकर गृहश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लेता है, उस ब्रह्मवादी, वेदोक्त  सत्योपदेशक संन्यासी को मोक्षलोक और सब लोक-लोकान्तर तेजोमय-ज्ञान से प्रकाशमय हो जाते हैं।।4।। जब सब कामों (इच्छाओं, कामनाओं आदि) को जीत लेवे और उनकी अपेक्षा न रहे, पवित्रात्मा और पवित्रान्तःकरण और मननशील हो जावे तभी गृहाश्रम से निकलकर संन्यासाश्रम का ग्रहण करे अथवा ब्रह्मचर्य ही से संन्यास का ग्रहण कर लेवे।।5।।

 

वह संन्यासी अनग्निः अर्थात् आह्वनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर (मठ, आश्रम आदि) भी न बांधे और अन्न-वस्त्रादि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे। बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करे और स्थिरबुद्धि व मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे।।6।।  न तो अपने जीवन में आनन्द और न अपने मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है, वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे।।7।। चलते समय आगे-आगे देख के पग धरे। सदा वस्त्र से छानकर जल पीवे। सबसे सत्य वाणी बोले अर्थात् सत्योपदेश ही किया करे। जो कुछ व्यवहार करे, वह सब मन की पवित्रता से आचरण करे।।8।। इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित, सर्वथा अपेक्षारहित, मांसमद्यादि का त्यागी, आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचरा करे और सबको सत्योपदेश करता रहे।।9।। सब शिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ और नखों का समय-समय पर छेदन कराता रहे। पात्री, दण्डी और कुसुंभ के रंगे हुए वस्त्रों को धारण किया करे। सब भूत-प्राणिमात्र को पीड़ा न देता हुआ दृढ़ात्मा होकर नित्य विचरण करे।।10।।

 

जो संन्यासी बुरे कामों से इन्द्रियों के निरोध, रागद्वेषादि दोषों के क्षय और निर्वैरता से सब प्राणियों का कल्याण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।।11।। चाहे संन्यासी को संसारी मूर्ख लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमानित भी करें, तथापि वह धर्म ही का आचरण करे। ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्य आश्रम आदि के मनुष्यों को करना उचित है। सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर समबुद्धि रक्खेइत्यादि उत्तम काम करने ही के लिए संन्यासाश्रम का विधान है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही संन्यास धर्म का कारण नहीं है।।12।। यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करनेवाला है तथापि उसके नामग्रहणमात्र से जल शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है। वैसे नाममात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता, किन्तु अपने-अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रमधारण सफल होता है, अन्यथा नहीं।।13।। इस पवित्र संन्यास आश्रम को सफल करने के लिए संन्यासी पुरुष विधिवत् योगशास्त्र की रीति से सात व्याहृतियों के पूर्व सात प्रणव लगा के  (अर्थात् ओं भूः। ओं भुवः ओं स्वः। ओं महः ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्। बोलकर्), उसे मन से जपता हुआ तीन प्राणायाम भी करे तो जानों अत्युत्कृष्ट तप करता है।।14।। जैसे अग्नि में तपाने से धातुओं के मल छूट जाते हैं वैसे ही प्राण के निग्रह से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं।।5।। इसलिए संन्यासी लोग प्राणायामों से मन व शरीरादि के दोषों को, धारणाओं से अन्तःकरण के मैल को, प्रत्याहार से संग से हुए दोषों और ध्यान से अविद्या, पक्षपात आदि अनीश्वरता (नास्तिकता) के दोषों को छुड़ाके पक्षपातरहित आदि ईश्वर के गुणों को धारण कर, सब दोषों को भस्म कर देवे।।16।। जो अन्तर्यामी परमात्मा बड़े-छोटे प्राणी और अप्राणियों में अशुद्ध आत्माओं से देखने के योग्य नहीं है, उस परमात्मा की गति व कार्यों को ध्यानयोग से ही संन्यासी देखा करे।।17।।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वयं संन्यासी थे। उन्होंने अपने जीवन में संन्यास के सभी कर्तव्यों व मर्यादाओं का प्राणपण से पालन किया। उन्होंने जो बातें वेद और मनुस्मृति के आधार पर अपने व्याख्यान में कही हैं, उन सब का आचरण उनके जीवन में परिलक्षित होता है। संन्यास आश्रम पर उनके द्वारा संस्कारविधि में दिये गये प्रमाणों और मनुस्मृति के अन्य उपदेशों को जानने के लिए पाठक महानपुभाव कृपया संस्कारविधि का अध्ययन करें। वैदिक आश्रम व्यवस्था ईश्वर से प्रेरित व स्थापित है और श्रेष्ठ समाज, समुन्नत देश व विश्व तथा मनुष्य की आत्मा की सर्वांगीण उन्नति व जीवन के चरम लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सफलता की दृष्टि से रची गई है। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक यह आश्रम व्यवस्था अपने यथार्थ रूप में प्रचलित रही। उसके बाद इसमें ह्रास की स्थिति उत्पन्न हुई जिसका कारण अज्ञान व अन्धविश्वासों का देश व समाज में प्रसार होना था। इसका परिणाम देश की पराधीनता व सभी मनुष्यादि प्राणियों को नानाविध दुःख के रूप में हुआ। यद्यपि संन्यास आश्रम का पालन कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है। सृष्टि के आरम्भ काल से असंख्य व कोटिशः लोगों ने इसका पालन किया है। आज इसका पर्याप्त संख्या व यथार्थ रूप में पालन न होने से ही विश्व में सर्वत्र अशान्ति व क्लेश का वातावरण है। आज भी आर्यसमाज में सहस्रों संन्यासी हैं जो संन्यास धर्म का पालन करते हुए समाज व देश से अन्धकार दूर करने का प्रयास कर रहे हैं जिसके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति जीवित है। लेख को विराम देने से पूर्व हम निवेदन करना चाहते हैं कि सभी बन्धुओं को संस्कारविधि का अध्ययन कर ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय, ग्रन्थ की आत्मा व गहराई को समझना चाहिये और अपने हित व अहित को ध्यान में रखकर जो उन्हें ग्राह्य लगे उसे आचरण में लाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर का स्वभाव जीवों के सुख वा फलोभोग के लिए सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना है। सृष्टि की रचना आदि का यह क्रम प्रवाह से अनादि है अर्थात् न तो कभी इसका आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा, अर्थात् यह हमेशा चलता रहेगा। अपने इस स्वभाव के अनुसार ही ईश्वर ने वर्तमान समग्र सृष्टि को रच कर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को भी रचा और माता-पिता व आचार्य की भांति उनको अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करने और जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए चार वेदों का ज्ञान भी दिया। इन बातों को समझने के लिए हमें ईश्वर के  सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा यह प्रक्रिया समझ में नहीं आ सकती। ईश्वर की सत्ता सत्य है और यह सत्ता चेतन है। चेतन सत्ता, ज्ञान व गुणों से युक्त किसी क्रियाशील सत्ता को, जो सोच समझ कर व उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कर्म वा क्रिया को करती है, कहते हैं। ईश्वर का प्रत्येक कार्य भी सत्य व न्याय पर आधारित होता है। ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव को जानना और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना अर्थात् ईश्वर के गुणों के अनुरुप ही कर्म, व्यवहार आचरण करने को धर्म, मानव धर्म वैदिक धर्म कहते हैं। इसके अलावा जितने भी मत, सम्प्रदाय, पन्थ, सेक्ट, रिलीजन आदि हैं वह पूर्ण व शुद्ध धर्म नहीं हैं यद्यपि उनमें किसी में कम व किसी में कुछ अधिक धर्म का भाग होता है परन्तु उनमें धर्म की पूर्णता नहीं है। ईश्वर सत्य व चेतन स्वरूप होने के साथ आनन्दस्वरूप भी है। वह अनादि काल से अब तक सदा-सर्वदा आनन्द की ही स्थिति में रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक आनन्दपूर्वक ही रहेगा। इसका कारण उसका निष्काम कर्मों को करना है जिससे वह फल के बन्धन, सुख व दुःख, में नहीं आता। मनुष्य को निद्रा, सुषुप्ति, ध्यान व समाधि की अवस्थाओं में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण ही होता है। जिस मात्रा में हमारी आत्मा का, मल, विक्षेप व आवरण की स्थिति के अनुसार, ईश्वर से सान्निध्य व सम्पर्क बनता है, उतनी ही मात्रा में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। समाधि में यह सम्पर्क सर्वाधिक होने से सर्वाधिक आनन्द की उपलब्धि होती है। ईश्वर के अन्य गुण, कर्म स्वभावों में उसका सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वांधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देना, कर्मों के सुखदुःखरुपी फल देना, आयु निर्धारित करना, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय करना आदि भी कर्म वा कार्य हैं। ईश्वर के इन गुणों पर चिन्तन-मनन करने सहित वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर से अधिकाधिक परिचित हुआ जा सकता है।

 

ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना पढ़ाना तथा सुनना सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।। में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।

 

ब्रह्मचर्याश्रम-आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षाप्राप्ति के लिए नियत है। शिक्षा जिसको अन्य भाषाओं में ‘‘तालीम और “Education” कहते हैं, आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा (तरबियत) = (Ins-truction) बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है (1) सत्य, (2) रजस् और (3) तमस्। इनमें से तम अन्धकार (Ignorance) को कहते हैं। मनुष्य श्रारीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं। ‘‘रजस् अनियमित कर्तव्य (indisciplined activity) कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं। सत्व प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए शिक्षाप्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है। इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान विज्ञान इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है। 

 

गृहस्थाश्रम-सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं। इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।

 

वानप्रस्थाश्रम-गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें। इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।

 

संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।

 

वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘हमारा गणतन्त्र और समाज’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

गणतन्त्र दिवस के अवसर पर

 

हम सब भारत के नागरिक हैं। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को विगत सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी दासता से मुक्ति से एक दिन पहले देश के एक तिहाई भाग से अधिक भाग को भारत से अलग कर दिया गया। जिन कारणों से भारत का विभाजन हुआ, उसके बाद भी प्रायः वैसी ही अनेक धार्मिक व सामाजिक समस्यायें आज भी विद्यमान हैं। आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और इससे पूर्व हमें मुसलमानों की दासता और भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। वैदिक व हिन्दू धर्म के धार्मिक अन्धविश्वासों व तदनुरूप सामाजिक व्यवस्था के कारण मुख्यतः यह पराधीनता व दुःख आये थे। मुसलमानों के देश के बड़े भूभाग पर आधिपत्य से पूर्व भारत में भारतीय आर्य-हिन्दू राजा राज्य करते थे। चाणक्य व विक्रमादित्य के काल में भारत संगठित था और इसकी सीमायें वर्तमान से भी अधिक दूरी तक फैलीं हुईं थीं। किसी समय में अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल व बर्मा या म्यमार आदि भी भारत के ही अंग हुआ करते थे। इन सब देशों में एक ही वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति हुआ करती थी। धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व विदेशी दासता का मुख्य कारण महाभारत का महायुद्ध और उसके प्रभाव से देश में अव्यवस्था का उत्पन्न होना था। महाभारत के युद्ध में बहुत से लोग मारे गये थे तथा जो बचे थे उन्हें आलस्यजनित अकर्मण्यता ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। महाभारत काल तक व उसके बाद चाणक्य व विक्रमादित्य के काल तक सुदूर पूर्व का भारत वैदिक धर्म और संस्कृति की छत्रछाया में उन्नत व विकसित था। वैदिक धर्म का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ काल, 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व हुआ था। तब से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक विश्व में एक ही धर्म व एक ही संस्कृति थी जिसका आधार वेद, वैदिक ग्रन्थों सहित हमारे पारदृष्टा ऋषि-मुनियों के वचन व मान्यतायें होती थी।

 

देश की आजादी में प्रमुख योगदान महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और इनके द्वारा किये गये धार्मिक और समाज सुधार के कार्यों को सर्वाधिक है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ही आजादी के प्रणेता थे। सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना हुई। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ। इस ग्रन्थ के आठवे समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता। सम्पूर्ण भारत के साहित्य में स्वराज्य का सर्वोपरि उत्तम होना सबसे पहले सत्यार्थप्रकाश ने ही देशवासियों को बताया। महर्षि दयानन्द के आर्याभिविनय व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के कुछ अन्य वाक्य भी इसी प्रकार से आजादी के आन्दोलन का मुख्य आधार कहे जा सकते हैं। स्वराज्य सर्वोपरि उत्तम होने का अर्थ है परराज्य या विदेशी राज्य निकृष्ट व बुरा होता है और इसका अनुभव अंग्रेजी राज्य और उससे पूर्व मुस्लिम राज्य में भारत के लोगों ने किया वा भोगा है जो कि इतिहास के पन्नों पर अंकित है। महर्षि दयानन्द जी की एक अन्य बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने मत-मतान्तरों किंवा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और वेद व वैदिक धर्म को सत्य की कसौटी पर सिद्ध पाया। उन्होंने इसी कारण वेदों का प्रचार किया और अन्य सभी मतों में विद्यमान असत्य व अविद्याजन्य विचार, मान्यताओं, सिद्धान्तों, आस्थाओं, कर्मकाण्डों, कुरीतियों आदि का दिग्दर्शन कराया और मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उनका खण्डन किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि विश्व में सुख व शान्ति धर्म व समाज संबंधी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के द्वारा और इसके पर्याय वैदिक धर्म की स्थापना से ही लाई जा सकती है। ऐसा होने पर ही सभी मनुष्यों में एक भाव व परस्पर एक सुख-दुःख की उत्पत्ति अर्थात् समाजिक समरसता होनी सम्भव है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों व विचारों ने स्वतन्त्रता की भावना को उद्बुध व प्रदीप्त किया। देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चला। कुछ देशवासियों का विचार था कि आजादी अंहिसक आन्दोलन से मिल सकती है और कुछ विद्वानों व चिन्तकों का विचार था कि क्रान्तिकारी कार्यों को अंजाम देकर ही विदेशी हुकमरानों को देश को स्वतन्त्र करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। दोनों ही आन्दोलन देश में चले। दोनों का अपना महत्व है। क्रान्तिकारियों को अधिक कुर्बानियां देनी पड़ी व असह्य कष्ट उठाने पड़े। क्रान्तिकारियों के कार्यों से अंग्रेज शासक अधिक विचलित, भयभीत व परेशान होते थे और उन्हें दण्ड के रूप में कठोर यातनायें व मृत्यु दण्ड आदि बहुत कड़े दण्ड देते थे। हमें लगता है कि केवल अहिंसात्मक आन्दोलन से ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश नहीं किया जा सका था। अतः क्रान्तिकारी आन्दोलन का अपना विशेष महत्व और योगदान है और इस आन्दोलन के सभी नेता व अनुयायी देशवासियों के पूज्य व आदर्श हैं। इन आन्दोलनों व अंग्रेजों की अपनी परिस्थितियों के कारण देश 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। एक दिन पूर्व देश का विभाजन इस आधार पर किया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और यह साथ मिलकर नहीं रह सकतीं। देश का विभाजन देशभक्तों के लिए दुःखद स्थिति थी। कुछ वरिष्ठ क्रान्तिकारी तो इस सदमे को सहन न कर सके और इस दुःख से पीडि़त होकर कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।

 

देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। अतः एक संविधान सभा का निर्माण किया गया। भारत के प्रथम कानून मंत्री डा. भीमराव रामजी अम्बेदकर संविधान आलेखन (drafting) सभा के सभापति बनाये गये। संसार के प्रमुख देशों के संविधानों का अध्ययन कर भारत का संविधान बनाया गया जिसे 26 जनवरी, 1952 से लागू किया गया। भारत के संविधान की अनेक विशेषतायें हैं। लोगों को समान अधिकारी दिए गये हैं तथा देशवासियों को किसी भी मत व धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसी के साथ नेताओं द्वारा कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा, कुछ मत व वर्गों को विशेष दर्जा या अधिकार व कुछ के लिए अपना कानून आदि का अधिकार दिया गया जो कि विचारणीय है। जैसा भारत में है, ऐसा शायद विश्व के अन्य किसी देश में नहीं होगा। हमारे देश में अनेक पूर्वाग्रहों से युक्त बुद्धिजीवी हैं। यह अपने-अपने प्रकार से विचार करते हैं। कुछ जो कह देते हैं, उनकी बात सुनी जाती है, कुछ की अनसुनी या सही बातों को भी दबा दिया जाता है। यह सब कुछ प्रायः सत्तारूढ़ दल के मुख्य नेताओं पर निर्भर करता है। हम सब नागरिकों के लिए एक समान रूप से स्वतन्त्रता की बात करते हैं परन्तु कई बार यह बहुत से मामलों में दिखाई नहीं देती। आज देश में एक धनिक और एक निर्धन वर्ग पैदा हो गया। निर्धन वर्ग भी ऐसा कि जिसके पास दो समय का भोजन, अपनी छत व अच्छे वस्त्र व शिक्षा के लिए आवश्यक न्यूनतम धन भी नहीं है और वहीं कुछ लोगों के पास इतना अधिक धन है कि वह उसका दुरुपयोग व कर चोरी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। कहा जाता है कि संविधान ने सबको समान अधिकार दिये हैं परन्तु समाज में यह देखने को कम ही मिलता है। शिक्षा व चिकित्सा निःशुल्क होनी चाहिये परन्तु यह आज करोड़ो लोगों की क्षमता से बहुत दूर है। सुरक्षा भी ईश्वर के भरोसे है। कई बार बड़े-बड़े हादसे हो जाते हैं, जनता विरोध करती है, कुछ कानूनों में परिवर्तन किया जाता है परन्तु अपराधों में रोक नहीं लगती। समस्याओं के हल करने में भी राजनीतिक दलों की वोट बैंक की नीति आड़े आती है। देश की आजादी को स्वतन्त्रता दिवस से 67 वर्ष से अधिक और गणतन्त्र बनने से 63 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज का समाज अनेक असमान मान्यताओं वाले मत-मतान्तरों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अशिक्षा, अज्ञान, शोषण, अन्याय, असुविधाओं, अपराधों, निर्धनता, असमानता व अनेक दुःखों से युक्त है। सभी देशवासी एक विचार, एक भाव, एक सुख दुःख, एक हानि-लाभ, परस्पर भाई बहिन के समान व्यवहार आदि गुणों से युक्त नहीं हो सके और शायद कभी हो भी नहीं सकेंगें।

 

हमें यह भी लगता है कि परिस्थितियोंवश हमारे संविधान का निर्माण करते समय वेदों, दर्शनों, मनुस्मृति व नीति ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी अच्छी बातों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया गया, यदि किया जाता तो अच्छा होता। अच्छे विचार व बातें तो कहीं से भी मिलें, ग्रहण की जानी चाहिये। वेदों और दर्शनों का सिद्धान्त है कि जिससे यह संसार बना और चल रहा है, वह एक सत्ता ईश्वर है जो निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, चेतन-तत्व, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है। इस शत प्रतिशत सही बात को भी न तो संविधान में स्थान प्राप्त हुआ और न ही देशवासी इसके अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं। वैदिक काल में शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य व एक समान होती थी। सबको समान सुविधायें दिये जाने का विधान था तथा किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। यह उच्च आदर्श व नियम मध्यकाल में भुला देने के कारण ही देश का पतन हुआ और पराधीनता का कारण बना। आज हमारे निर्धन देशवासी शिक्षा के अभाव से ग्रस्त है। ईश्वर ने उन्हें मनुष्य जीवन तो दिया परन्तु अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो देश व समाज की व्यवस्था के कारण पशुओं जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। बुन्देलखण्ड के आज भी निर्धन किसान व भूमिहीन साधनों के अभाव में घास की बनी रोटी बिना दाल व सब्जी तथा चावल के खाने के लिए मजबूर हैं। यह कैसा देश है जहां अरबपति व खरब पति लोग रहते हैं और अपने ही देश के बन्धुओं के प्रति उनमें दया, प्रेम, करूणा का भाव नहीं है। इसका अर्थ है कि वह स्वयंभू विचार वाले संवेदनाहीन मनुष्य हैं और अन्य मनुष्यों को अपना परिवार और ईश्वर की सन्तान नहीं मानते। अतः आज आवश्यकता है कि एक स्वस्थ, शिक्षित, शोषण व अन्याय मुक्त, सभी के लिए घर, वस्त्र, भोजन, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा व सत्य वैदिक ज्ञान से युक्त समाज व देश बनाने की दिशा में हमारे सभी श्रेष्ठ व अन्य बुद्धिजीवी विचार करें और एक आदर्श भारत के निर्माण की रचना व संगठन में अपना योगदान दें।

 

जनतन्त्र व लोकतन्त्र इसी लिए आदर्श माने जाते हैं कि इसमें वैचारिक व क्रियात्मक रूप से जनता को शिक्षा, ज्ञान, पक्षपात व अन्याय मुक्त वातावरण मिलता है। सभी को अपनी आजीविका मिलती है जिससे वह अपने जीवन को स्वस्थ व निरोग रखते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। इसे अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने में संलग्न जीवन भी कह सकते हैं। हम जितना भौतिकवादी बनेंगे, जो कि आज बन गये हैं, उतना ही हम जीवन के लक्ष्यों से दूर होते जायेंगे और हमारा यह मनुष्य जीवन उद्देश्य व लक्ष्य से भटका हुआ जीवन ही कहा व माना जायेगा। हम चाहते हैं कि गणतन्त्र दिवस पर समाज में निर्धनता दूर करने, सबको समान, निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा प्राप्त कराने तथा सबके लिए निःशुल्क चिकित्सा, न्याय व सुरक्षा की गारण्टी युक्त वातावरण के निर्माण का प्रयास होना चाहिये। इन विषयों पर बहस हो, योजनायें बनें और सभी देशवासी इस कार्य में जुट जायें। अमीरी व गरीबी की खाई कम होनी चाहिये। अधिक सम्पत्ति वालों पर अधिक कर लगाकर उसे निर्धन जनता के दुःख व दर्द दूर करने में, बिना भ्रष्टाचार किये, व्यय करना चाहिये। सरकार की ओर से ऐसी योजना बने जिससे वेदों और वैदिक साहित्य पर अनुसंधान व उसके मानव जीवन पर प्रभावों का अध्ययन कर उससे लाभ उठाने के लिए प्रभावशाली प्रयत्न किये जायें। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख पर सदभावपूर्ण रीति से विचार करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

भयानक षडयन्त्र – राजन स्वामी

 

यद्यपि महाभारत काल के पश्चात् वैदिक शैक्षणिक व्यवस्था के मूल स्वरूप में विकृति प्रारभ हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरूप वाम मार्ग का अयुदय होने से नैतिक मूल्यों और संस्कृत के प्रसार में ह्रास होता गया किन्तु मुगल शासन के प्रारभ होते ही द्वेषवश संस्कृत भाषा को मिटा देने का कुचक्र प्रारभ हो गया। इसी कड़ी में अनेक विश्वविद्यालय, पुस्तकालयों तथा पाठशालाओं को नष्ट कर दिया गया।

किन्तु आज स्थिति उससे भी अधिक भयावह है। भारत में मतान्तरण का सपना संजोये मुस्लिम एवं क्रिश्चियन मिशनरियों ने यह धारणा ही बना ली है कि जब तक संस्कृत भाषा रहेगी तबतक भारतीय संस्कृति को मिटाया नहीं जा सकता।

एक नियोजित षड़यन्त्र के अन्तर्गत संस्कृत को मृत भाषा घोषित करने का प्रयास किया जा रहा है। वैदिक (हिन्दू) धर्म के सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। यदि विश्व की प्राचीनतम एवं वैज्ञानिक भाषा का ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो हिन्दू धर्मग्रन्थों की स्थिति क्या होगी? इसे सहज ही समझा जा सकता है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान अखिलेश सरकार ने अरबी फारसी के विकास के लिए 556 करोड़ की राशि इस वर्ष के बजट में निर्धारित की है, जबकि संस्कृत भाषा के लिए एक रुपया भी बजट में नहीं रखा गया है। प्रश्न यह है कि क्या अरबी-फारसी भारत की मूल भाषा है या अरब ईरान (फारस) की भाषा है? संस्कृत भाषा को इतनी घृणा की दृष्टि से देखने का औचित्य क्या है? विगत 12 वर्षों में एक भी गुरुकुल या संस्कृत विद्यालय को मान्यता तक नहीं मिली है, जबकि इसी अन्तराल में सरकारी खजाने से लखनऊ-मलीहाबाद रोड पर भव्य अरबी फारसी विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ है। यह तब है जब देश में पहले से ही अरबी-फारसी के कई विश्वविद्यालय मौजूद हैं। अकेले सहारनपुर मण्डल में 42 मदरसे हैं। इन मदरसों में धार्मिक समभाव एवं विज्ञान की कैसी शिक्षा दी जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। अल्पसंयक तुष्टिकरण के लिये सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रथमा, मध्यमा तथा उत्तर मध्यमा को मिलने वाली मान्यता पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि इसके लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन किया जायेगा। मुलायम एवं मायावती सरकार में लगभग 8 वर्ष बीतने के पश्चात् कुछ माह पूर्व संस्कृत विद्यालयों के लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन अवश्य हुआ है, किन्तु गुरुकुलों को मान्यता देने की प्रवृत्ति अभी भी देखने में नहीं आ रही है। जब संस्कृत के लिये अखिलेश सरकार के पास एक रुपया भी नहीं है तो मान्यता ही कैसे मिल सकती है? जब सी.बी.एस.ई बोर्ड में उत्तर मध्यमा (इण्टर) से संस्कृत हटा दी गयी है तो स्नातक की परीक्षा कैसे दी जा सकती है? इस देश का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ लगभग सभी प्रान्तों में अंग्रेजी को किसी न किसी रूप में अनिवार्य बनाया गया है तथा फ्रेंच, जर्मन एवं अन्य भाषाओं के शिक्षण में काफी राजकीय सहायता दी जा रही है, किन्तु हिन्दी सहित भारत की सभी भाषाओं एवं विश्व की सभी भाषाओं की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत को ही समाप्त करने का जो दुष्प्रयास हो रहा है, वह अवांछनीय है तथा देश के बुद्धिजीवी वर्ग को इस विषय पर गहन-चिन्तन करने की आवश्यकता है कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा?

– सहारनपुर, उत्तर प्रदेश

‘व्रत, तप, तीर्थ व दान का वैदिक सत्य स्वरूप’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

भारत में सबसे अधिक पुरानी, आज भी प्रासंगिक, सर्वाधिक लाभप्रद व सत्य मूल्यों पर आधारित धर्म व संस्कृति ‘‘वैदिक धर्म संस्कृति ही है। महाभारत काल के बाद अज्ञान व अंधविश्वास उत्पन्न हुए और इसका नाम वैदिक धर्म से बदल कर हिन्दू धर्म हो गया। हम सभी हिन्दू परिवारों में उत्पन्न हुए और हमने महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज द्वारा प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग का अनुसरण कर वेदाध्ययन किया और वेदों से पुष्ट मान्यताओं को ही अपनाया है। व्रत-उपवास, तप, तीर्थ व दान आदि का वैदिक स्वरुप आज भी काफी विकृत है। इनका सत्यस्वरुप बताना ही इस लेख की विषय वस्तु है जिसका उल्लेख कर रहे हैं। पहले व्रत व उपवास क्या हैं, इसको जानने का प्रयत्न करते हैं। व्रत के विषय में यजुर्वेद में एक मन्त्र आता है-ओ३म् अग्ने व्रतपते चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि। मन्त्र का अर्थ है कि हे सत्य धर्म के उपदेशक, व्रतो के पालक प्रभु मैं असत्य को छोड़कर सत्य को ग्रहण करने का व्रत लेता हूं। आप मुझे ऐसा सामर्थ्य दो कि मेरा यह असत्य को छोड़ने और सत्य को ग्रहण जीवन में धारण करने का व्रत सिद्ध सफल हो अर्थात् मैं अपने इस व्रत को पूरा कर सकूं सत्य के पालन में खरा उतरूं। यही व्रत करने वा रखने का वैदिक स्वरूप है। किसी सांसारिक मनोकामना की पूर्ति के लिए किसी विशेष दिन अन्न, जल आदि के त्याग का नाम व्रत नहीं है। पति या पत्नी की प्रसन्नता के लिए उससे सद्व्यवहार करने का संकल्प लेना तथा उसे निभाना भी व्रत है। रोगग्रस्त का उचित उपचार करवाना भी व्रत है। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि के त्याग का संकल्प लेकर उनका पालन करना ही व्रत कहलाता है। व्रत एक प्रकार का संकल्प होता है। इसे सत्य गुणों की धारणा करना भी कह सकते हैं। यदि व्रत, संकल्प या धारणा कर ली है तो फिर उसे मन, वचन व कर्म से पूरा करने का यथाशक्ति प्रयास करना ही व्रत है।

 

तप का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ा हुआ है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि धर्म के आचरण करने में जो कठिनाईयां आती हैं उसे सहन करना, पीडि़त न होना और सत्य पालन में स्थिर रहना ही तप है। तप विद्या का पढ़ना व पढ़ाना, सज्जनों का संग करना, ईश्वर की उपासना, ब्रह्मचर्य का पालन तथा दीन दुःखियों की सेवा आदि परोपकार कर्म करते हुए जो-जो कष्ट आएं उन्हें सहते जाना परन्तु सत्कर्म से पीछे न हटना ही तप है। कुछ लोग तप के नाम पर अकारण ही अपने शरीर को अनेक कष्ट देते हैं। गर्म चिमटे से अपने शरीर को दागते हैं, महीनों खड़े रहते हैं जिससे टांगों में खून उतर आता है और वे सूजकर बहुत कष्ट देती हैं, शीतकाल में सिर पर सैकड़ों घड़े ठण्डे पानी के डलवाते हैं, सिर के बालों को कैंची से काटने की बजाए हाथ से नोचते हैं, इत्यादि। ये सब क्रियाएं न तप हैं, न धर्म।  अपितु यह पाप और हिंसा हैं। बहकावा और धोखाधड़ी हैं।

 

तीर्थ के बारे में भी हमारे लोगों में भ्रम हैं। सच्चा तीर्थ क्या होता है इसका सामान्य लोगों को तो क्या हमारे धर्म पुरोहितों तक को ज्ञान नहीं है। जो उपाय व कार्य मनुष्यों को दुःखसागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ करते हैं। विद्या-ग्रहण, सत्संग, सत्य भाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ गुण तीर्थ हैं क्योंकि इनको करके जीव दुःख के सागर से पार हो सकता है। ऐसा करके मनुष्य दुःखों से बचता भी है और इन गुणों के धारण करने से जीवन यशस्वी व सुखी बनता है। हर की पैड़ी आदि किसी जल या किसी प्रसिद्ध मन्दिर व स्थल आदि का नाम तीर्थ नहीं है। किसी समय हरिद्वार, काशी, प्रयाग, मथुरा, द्वारका आदि स्थानों पर अथवा गंगा के किनारे ऋषियों, मुनियों, योगियों और तपस्तियों के आश्रम रहे होंगे। गृहस्थी लोग उनके पास सत्संग के लिए जाया करते होंगे तथा उनके सद् उपदेशों व मार्गदर्शन के अनुसार आचरण करके अपने जीवनों को सुधारते व संवारते होगें। मांस, शराब, व्यभिचार, बेईमानी आदि बुराइयों का त्याग करते होंगे। इस कारण से इन स्थानों का नाम तीर्थ स्थान पड़ गया होगा। आजकल ऐसे स्थानों पर जाकर कोई लाभ नहीं होता अपितु समय व धन की बर्बादी के साथ कई प्रकार की हानियां ही होती है। अतः विवेकपूर्वक जल व स्थल को तीर्थ न मानकर वेदों के स्वाध्याय, सत्पुरूषों को दान, उनकी संगति, विद्या अध्ययन व प्रचार, असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन करना चाहिये। ऐसे कार्यों को करके ही मनुष्य जीवन उन्नत होता है। इसके विपरीत कर्म व कार्य करने से कोई लाभ नहीं होता। अतः मिथ्या कार्यों से बचना चाहिये।

 

दान का स्वरूप भी आजकल काफी बिगड़ गया है। दान अपने स्वामित्व की वस्तु व धन को दूसरे सुपात्रों को बिना अपनी किसी स्वार्थ भावना के दूसरों के हित के लिए देने को कहते हैं। कुपात्रों को धन व अन्य सामग्री का देना दान नहीं कहलाता। वेदों के अनुसार विद्या दान को सभी दानों में श्रेष्ठ माना गया है। गरीब, रोगी, अंगहीन (अपाहिज), अनाथ, कोढ़ी, विधवा या कोई भी जरूरतमन्द, विद्या और कला कौशल की वृद्धि, गोशाला, अनाथालय, हस्पताल आदि दान के लिए सुपात्र हैं। अथर्ववेद में कहा है पापत्वाय रासीय अर्थात् मैं पाप कर्म के लिए कभी दान दूं। महाभारत में युधिष्ठिर जी कहते हैं कि धनिने धनं मा प्रयच्छ। दरिद्रान्भर कौन्तेय अर्थात् हे युधिष्ठिर धनवानों को धन मत दो, दरिद्रों की पालना करो। वैदिक विद्वान श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी ने लिखा है कि भरे पेट को रोटी देना उतना ही गलत है जितना स्वस्थ को औषधि रोटी भूखे के लिए है और औषधि रोगी के लिए। समुद्र में हुई वर्षा व्यर्थ है। सृष्टि में ईश्वर का ऐसा नियम है कि जो कोई किसी को जितना सुख पहुंचाता है ईश्वर के न्याय से उतना ही सुख उसे भी मिलता है। इसलिए दान का उद्देश्य प्राणियों को अधिक से अधिक सुख पहुंचाना होता है। कठोपनिषद् में लिखा है कि ऐसा दान जिसके लेने से लेने वाले को सुख मिले, उस दान के देने से देने वाले को भी आनन्द नहीं मिलता। तैत्तिरीय उपनिषद में एक उपदेश में कहा गया है कि श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। सविदा देयम्। अर्थात् यदि दान देने में श्रद्धा है तो दान देना, यदि श्रद्धा नहीं भी है तो भी दान देते रहना। संसार में यश पाने के ख्याल से दान देना। दूसरे लोग दान दे रहे हैं उन्हें देखकर लज्जावश भी दान देना। इस भय से भी दान देना कि यदि नहीं दूंगा तो परलोक सुधरेगा, कमाया हुआ धन भी सार्थक होगा। इस विचार से भी दान देते रहना कि गुरु के सामने प्रतिज्ञा की थी कि दान दूंगा। दान विषयक मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है – सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते। वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकांचनसर्पिणाम्। यह श्लोक बताता है कि संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण, धृत आदि, इन सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। महर्षि दयानन्द के अनुसार बिना कुछ किए अपने निर्वाह अर्थ दूसरों से धन या पदार्थ लेना दान नहीं कहलाता, यह नीच कर्म है।

 

हमने इस लेख में श्री कृष्णचन्द्र गर्ग जी की आर्यमान्यतायें पुस्तक से सहायता ली है। इसके लिए उनका धन्यवाद करते हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक व्रत, तप, तीर्थ व दान के सत्यस्वरूप को जानकर लाभान्वित होंगे और इससे लाभ उठायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121  

‘सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग की भावना से सर्व मत-पन्थों का समन्वय ही मनुष्यों के सुखी जीवन एवं विश्व-शान्ति का आधार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के व्यवहार पर ध्यान दिया जाये तो यह सत्य व असत्य का मिश्रण हुआ करता है। जो मनुष्य सत्य व असत्य को जानता भी नहीं, वह भी सत्य व असत्य दोनों का मिला जुला व्यवहार ही करता है। शिक्षित मनुष्य कुछ-कुछ सत्य से परिचित होता है अतः जहां उसे सत्य से लाभ होता है वह सत्य का प्रयोग करता है और जहां उसे असत्य से लाभ होता है तो वह, अपनी कमजोरी के कारण, असत्य का व्यवहार भी कर लेता है। मनुष्य सत्य का ही व्यवहार करे, असत्य का व्यवहार जीवन में किंचित न हो, इसके लिए मनुष्य का ज्ञानी होना आवश्यक है। ज्ञान मनुष्य को कहां से प्राप्त होता है। इसके कई साधन व उपाय हैं जिनसे इसे प्राप्त किया जा सकता है। पहला उपाय तो सत्पुरुषों व अनुभवी विद्वानों की संगति कर सत्य ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता। संगति करने पर ज्ञानी, सत्पुरुष व अनुभवी मनुष्य अपने स्वभावानुसार अज्ञानी मनुष्यों को शिक्षा व उपदेश करते हैं जिसको स्मरण कर अभ्यास करने से मनुष्य को सत्य का ज्ञान हो जाता है। इसके साथ ही सत्य ग्रन्थों का पढ़ना भी इसमें सहायक होता है। वर्तमान आधुनिक युग की सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश व दुनियां के लोग यह निर्धारित नहीं कर पाये हैं कि सत्य विद्याओं का ग्रहण जिसमें मनुष्यों के आचरण को भी सम्मिलित किया गया है, वह कौन कौन से ग्रन्थ हैं जो पूर्णतया सत्य हैं और कौन-कौन से ग्रन्थ हैं जिन को मनुष्य मानते हैं परन्तु उनमें सत्य व असत्य दोनों ही प्रकार के विचार, मान्यतायें, सिद्धान्त व कथन आदि विद्यमान हैं। यदि मनुष्य सत्य व असत्य का स्वरुप निर्धारण कर लेने में सफल होते और सत्य को अपने लिए पूर्ण सुरक्षित तथा असत्य को वर्तमान व भविष्य के लिए हानिकारक जान लेते और सत्य का ही आचरण करते, तो आज विश्व में सर्वत्र शान्ति व सुख का वातावरण होता। परस्पर पे्रम और सौहार्द होता, सभी दुःखियों व पीडि़तों की सेवा में अग्रसर होते और कहीं कोई विपदाग्रस्त होने के बाद शेष जीवन अज्ञान, अभाव, अन्याय व अत्याचारों से पीडि़त न होता।

 

आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता यही है कि संसार के सभी मत-पन्थों-सम्प्रदायों आदि के विद्वान सभी मनुष्यों के लिए एक समान आचरण करने योग्य सत्य कर्मों व कर्तव्यों का निर्धारण करें। मत-मतान्तरों की जो शिक्षायें वर्तमान में एक दूसरे के विपरीत वा विरुद्ध हैं, उन पर गहन विचार होना चाहिये और ऐसे विचारों व मान्यताओं को त्याग देना चाहिये जिससे मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों में किसी प्रकार की असमानता, ऊंच-नीच, भेद-भाव, रंग-वर्ण-भेद आदि उत्पन्न होता हो। मनुष्य जीवन को स्वस्थ, सुखी तथा दीर्घायु बनाने में तथा धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति कराने में ब्रह्मचर्य का पालन किया जाना आवश्यक है। पांच ज्ञान व पांच कर्म इन्द्रियों पर सभी मनुष्यों का पूर्ण संयम वा नियन्त्रण होना चाहिये, इसे ही ब्रह्मचर्य कहा जाता है। ब्रह्मचर्य में ईश्वर को जानना और उसकी प्रेरणा को ग्रहण कर उसके अनुसार ही सत्य का आचरण करना भी ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता, स्वस्थ व सुखी होता है व उसकी आयु लम्बी होती है। अतः मत-मतान्तरों के विचारों व मान्यताओं से उपर ऊठकर सभी मत व पन्थों के मनुष्यों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य की अनिवार्य शिक्षा सहित हनुमान, भीष्म पितामह, भीम, महर्षि दयानन्द आदि के जीवन व आदर्शों की अनिवार्य शिक्षा भी दी जानी चाहिये और साथ हि साथ ब्रह्मचर्य का अभ्यास भी कराया जाना चाहिये। इस कारण से कि इसका पालन मनुष्य जीवन के लिए श्वांस लेने व छोड़ने के समान ही महत्वपूर्ण व उपयोगी है।

 

संसार को उत्पन्न हुए लम्बा समय हो चुका है। वेद और वैदिक धर्म संसार में सबसे अधिक प्राचीन हैं। उपलब्ध प्रमाणों के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ही परमात्मा ने संसार के सभी मनुष्यों के पूर्वजों, आदि मनुष्यों वा ऋषियों को वेदों का ज्ञान देकर वैदिक धर्म को प्रवृत्त किया था। वेदों की उत्पत्ति और वैदिक धर्म की अवधि सम्प्रति 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हाजर 115 वर्ष हो चुकी है।  इस लम्बी अवधि में भारत में सहस्रों उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे गये जिनमें से अधिकांश ग्रन्थ नालन्दा व तक्षशिला आदि वृहद् पुस्तकालयों में सत्य व धर्म के विद्वेषी विधर्मी लोगों द्वारा अग्नि से जला दिये जाने के कारण नष्ट हो गये। इसके बावजूद आज भी देश-विदेश के अनेक पुस्तकालयों में सह्राधिक पाण्डुलियां हैं जिनका अध्ययन, अनुवाद व प्रकाशन किया जाना चाहिये। इससे अनेक नये तथ्य समाज के सम्मुख आ सकते हैं जिससे समाज व देश-विदेश के लोगों को लाभ हो सकता है। सौभाग्य से कुछ प्राचीन प्रमुख संस्कृत ग्रन्थ उनके हिन्दी-अंग्रेजी अनुवाद सहित सम्प्रति उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों में वेदों व उनके भाष्यों के अतिरिक्त 4 ब्राह्मण ग्रन्थ, 11 प्रमुख उपनिषदें, 6 दर्शन ग्रन्थ, मनुस्मृति, आयुर्वेद के ग्रन्थ, ज्योतिष के ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त आदि, श्रौत सूत्र, गृह्य सूत्र, वाल्मीकि रामायण, महर्षि वेदव्यास कृत महाभारत, महर्षि दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों व अन्य सभी धार्मिक व मत-मतान्तरों के ग्रन्थों का अध्ययन कर सत्य का निर्धारण किया जा सकता है जिससे संसार के सभी मनुष्यों को सही दिशा मिल सकती है और असत्य मान्यताओं पर आधारित परस्पर के विरोध व झगड़े दूर होकर संसार के सभी लोग सुखी हो सकते हैं। ऐसा ही एक प्रयास महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में किया था और उनका ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश ऐसे ही प्रयत्नों का परिणाम है। यदि संसार के लोग सभी मतों के ग्रन्थों व वैदिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो उनको मनुष्य जीवन एवं व्यवहार-कर्तव्य-कर्म विषयक सत्य-ज्ञान अवश्य विदित हो जायेगा और ऐसा करके ही संसार के सभी मनुष्यों के जीवनों को उसके यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति में समर्थ बनाकर उसे क्रियात्मक रूप देने में समर्थ बनाया जा सकता है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो संसार में समस्यायें बढ़ती रहेंगीं, परस्पर वैमनस्य रहेगा, युद्ध आदि होते रहेंगे, निर्दोष लोग काल के गाल में समाते रहेंगे और इसके साथ वह मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य व लक्ष्य मोक्ष से दूर ही रहेंगे।

 

वेद, वैदिक साहित्य और संसार के सभी मत-मतान्तरों का निष्पक्ष अध्ययन करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सच्ची शिक्षा को ग्रहण कर ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व मनुष्य जीवन आदि को ठीक ठीक जानना व समझना है तथा ब्रह्मचर्य से संबंधित नियमों को जानकर उनका पालन करते हुए गृहस्थ आदि आश्रमों में रहकर सद्कर्मों को करके ईश्वर के साक्षात्कार के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करना है। हम नहीं समझते कि संसार में कोई भी मनुष्य सत्य के आचरण का विरोधी है तथापि सत्य को यथार्थ रूप से न जानने के कारण उनका व्यवहार व आचरण प्रायः सत्य के विपरीत हो जाता है। अतः विश्वस्तर पर सभी मत-मतान्तरों के ग्रन्थों के अध्ययन के साथ वेद और वैदिक साहित्य का निष्पक्ष और विवेकपूर्णक अध्ययन होना चाहिये। इस अध्ययन के परिणामस्वरुप जो उपयोगी ज्ञान व निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, उनका प्रचार, प्रसार होने के साथ मनुष्य जीवन में उनका आचरण भी होना चाहिये। यह भी हमें जानना है कि जीवन में हमारी जितनी भी उन्नति होती है वह सत्य व्यवहार व आचरण के कारण से ही होती है। असत्य व्यवहार से भी कुछ लोग कुछ भौतिक उन्नति कर सकते हैं परन्तु वह उन्नति अस्थाई व परिणाम में अत्यन्त दुःखदायी होती है। यदि कोई व्यक्ति असत्य का आचरण कर सरकारी कानूनों से बच भी जायेगा तो जन्म-जन्मान्तर में ईश्वर के न्याय से तो उन्हें अपने कर्मों का फल भोगना ही होगा। ईश्वर के न्याय, शुभाशुभ कर्मों के सुख-दुःख रूपी फलों से बचना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। कर्म फल का यह आदर्श सिद्धान्त है ‘‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य के महत्व पर सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में कुछ महत्वपूर्ण और उपयोगी बातें लिखी हैं। सबके लाभार्थ उन्हें प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि मेरा इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है, उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों (पूर्ण ज्ञानी प्राणीमात्र के हितैषी) का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयं अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। हमें लगता है कि संसार में सभी मनुष्यों को इस पर विचार ही नहीं करना चाहिये अपितु इसमें जो निर्विवाद बातें हैं उनको उसकी भावना के अनुरूप अपनाना भी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने आगे भी लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य असत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य (इच्छा वा भावना) है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्य असत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें (इसी से संसार के लोगों की समग्र उन्नति सम्भव है), क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। आशा है कि पाठक इस लेख में व्यक्त विचारों से लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘गोमाता, गोदुग्ध एवं गोरक्षा का महत्त्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

ज्ञान व विज्ञान की चरम उन्नति होने पर भी मनुष्य आज भी आधा व अधूरा है। आज भी उसे बहुत सी बातों का ज्ञान नहीं है और आधुनिक विज्ञान की उन्नति ने उसे इतना अधिक अभिमानी बना दिया है कि वह किसी सत्य बात को भी मानना तो दूर, उसे सुनना भी नहीं चाहता है। यह स्थिति अनेक विषयों में है परन्तु इस लेख में हम गाय और उसके दूध की महत्ता व उपयोगिता पर कुछ चर्चा कर रहे हैं। आज भी यूरोप व मुस्लिम देशों में गोहत्या होती है और इन देशों में गाय के मांस का भक्षण भी बड़ी मात्रा में होता है। दुर्भाग्य से ऋषियों व देवों की भारत भूमि में गोहत्या का होना और यहां यूरोप व अरब आदि अनेक देशों को गोमांस का निर्यात होना दुःखद व आर्य हिन्दुओं के लिए घोर अपमानजनक कृत्य है। देश में बेरोजगारी की समस्या का एक एक मुख्य कारण गोहत्या होने के साथ गोसंरक्षण व गोसवंर्धन का न होना भी है। गोहत्या एवं गोमांस भक्षण का एक कारण, विज्ञान की उन्नति से हमारे व विदेशी बन्धुओं में अभिमान का उत्पन्न होना है जिसने उन लोगों में मानवीय संवेदनाओं, प्रेम, दया, करूणा व अंहिसा आदि को दबा वा ढक दिया है। वेदों में गाय के लिए ‘‘अघ्न्या शब्द संज्ञा व विशेषण के रूप में प्रयोग में आया है। इसका अर्थ है कि गाय अवध्य है, इसकी हत्या नहीं की जा सकती तथा गोहत्या महापाप व बुरा एवं निषिद्ध कर्म है, जैसी भावनाओं के द्योतक मन्त्र व शब्दों का प्रयोग हुआ है। ऐसी स्थिति में यदि गो की हत्या की अनुमति देने वाले व गोहत्या करने वाले व गोमांस के भक्षक देश व मानवता के विरोधी इस कार्य को नहीं छोड़ते तो गाय को माता मानने वाले और गोहत्या को देश के लिए अहितकर मानने वाले भी अपनी तर्कसंगत बात को क्यों न बुद्धिजीवियों के समाने रखें, अर्थात् अवश्य रखना चाहिये। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह लेख प्रस्तुत हैं।

 

गोमाता के महत्व के कारण ही ईश्वर ने अपने ज्ञान वेद में गो को अघ्न्या अर्थात् अवध्य, हनन न करने योग्य कह कर सभी मनुष्यों को चेतावनी व सावधान किया था। हमारे सभी ऋषि, मुनि एवं वैदिक विद्वान सृष्टि के आरम्भ से ही गोरक्षा करते आये हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी के पूर्वज गोरक्षक थे ऐसा प्राचीन ऐतिहासिक ग्रन्थों से विदित होता है। योगेश्वर श्री कृष्ण का तो गोरक्षा व गोपालक होने के कारण एक नाम ही गोपाल पड़ गया है। उनके प्रायः सभी चित्रों में उन्हें गोमाता सहित ही दिखाया जाता है। महाभारत काल के बाद मुस्लिम व उसके बाद अंग्रेजों की गुलामी का काल रहा है। ईसा की उन्न्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द का आविर्भाव हुआ। उन्होंने भी गोरक्षा, गोपालन व गोसंवर्धन के महत्व को जानकर गोहत्या बन्द करने के लिए विशेष प्रयत्न व आन्दोलन किया था। गोहत्या रोकने और गोरक्षा के महत्व पर एक बहुत ही महत्वूपर्ण पुस्तक आर्यजगत के भूमण्डल प्रचारक प्रसिद्ध वैदिक विद्वान मेहता जैमिनी जी ने उर्दू में अनेक वर्षों पूर्व लिखी थी। पुस्तक महत्वपूर्ण थी परन्तु इसका हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। हमें इसके महत्व के विषय में ज्ञात हुआ तो हमने इसके लिए प्रयत्न किये। अब इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण प्रसिद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा अनुदित होकर आर्यसमाज के यशस्वी प्रकाशक श्री अजय कुमार द्वारा विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली उपलब्ध करा दिया गया है। यह पुस्तक गोमाता की रक्षा के महत्व पर गागर में सागर के समान है। प्रत्येक भारतीय, गोरक्षा के समर्थक व विरोधी, सभी को ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से इसे पढ़ना चाहिये। इसी पुस्तक के दूसरे अध्याय गऊ की महिमा पर विदेशी तथा मुस्लिम विद्वानों की पूर्वाग्रह मुक्त सम्मतियां से हम कुछ प्रमुख यूरोपीय विद्वानों की सम्मितियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे गो की महत्ता के अनेक पक्षों पर प्रकाश पड़ता है।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक में पहली सम्मति इसके लेखक मेहता जैमिनी ने जर्मनी के संस्कृत के एक विद्वान प्रोफेसर गेटी की दी है। प्रोफेसर गेटी ने अपनी पुस्तक प्राचीन काल के ब्राह्मणों की बुद्धिमत्ता में लिखा है कि क्या कारण है कि हम लोग तीनतीन वर्ष तक सस्कृत का अध्ययन करके प्राचीन काल के ब्राह्मणों जैसे ग्रन्थ लिखना तो दूर की बात रही उनके ग्रन्थों को समझने की भी हममें योग्यता नहीं होती? वेदान्त, योग तथा सांख्य दर्शन के समझने के लिए हमें काशी, नदिया तथा नवद्वीप के पण्डितों की शरण में जाना पड़ता है। प्रो. गेटी स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि इन विद्वानों ने वनों, गुफाओं तथा कंदराओं में एकान्त सेवन करके गऊ के दुग्ध तथा शाक फल पर निर्वाह करके ऐसे सूक्ष्म दार्शनिक आध्यात्मिक विषयों पर चिन्तनमनन किया। इससे ज्ञात होता है कि उनके मस्तिष्क स्वच्छ पवित्र थे। परन्तु हम मांस भक्षी होकर तामसिक वृत्ति वाले बन गये हैं। अतः वे अध्यात्म में, चिन्तन तथा कल्पना शक्ति में शिखर पर थे। हम तामसिक भोजन मदिरा का सेवन करने वाले आध्यात्मिकता में उनके सामने नहीं टिक सकते। श्री गेटी आगे लिखते हैं कि जब मैंने यह पढ़ा तो विचार आया कि यही कारण है कि हिन्दू लोग आज भी मृतक भोज और मृतक श्राद्धों में बाह्मणों को खीर खिलाते हैं तथा सुख में, शोक में भी ब्राह्मणों को गोदान करते हैं। अतः भारत ने गऊ को इस कारण महत्व दिया कि इस की देन दूध तथा उससे प्राप्त होने वाले मक्खन, घृत, मलाई, दही, छाछ, पनीर, खोया, रबड़ी मानव के जीवन, मस्तिष्क, स्वास्थ्य, अध्यात्म, आचार तथा सम्पन्नता के लिए अत्यधिक आवश्यक एवं उपयोगी हैं। इसलिए आज भी बोलचाल की भाषा में भारत में धनवानों को मालदार कहा जाता है। माल का एक मुख्य अर्थ गाय, बैल, घोड़ा, भैंस, बकरी, भेड़ के हैं अर्थात् ये पशु धन प्राचीन काल में मनुष्य की सम्पन्नता की कसौटी थे।

 

भारत सरकार के कृषि विभाग के परामर्शदाता यूरोपीय विद्वान डा. हैरिसन ने शिकागो अमरीका के कृषि विज्ञान विशेषज्ञ हीन महोदय का उल्लेख कर उन्हें उद्धृत कर लिखा है कि गाय मनुष्य के लिए एक बहुमूल्य ईश्वरीय देन है। कोई भी जाति गऊ के बिना सभ्य नहीं बन सकती। गाय धरती पर सर्वोत्तम तथा लाभप्रद भोजन उपलब्ध कराती है। वह घास तथा सूखे खुरदरे पत्तों से अत्यन्त बलवर्द्धक स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन (दूध) तैयार करती है। वह (गाय) दूध केवल अपने बच्चों तथा पालकों के लिए प्रत्युत अवशिष्ट दूध बिक्री के लिए प्रदान करती है। जहां गऊ की रक्षा तथा पालन भली प्रकार किया जाता है वहां संस्कृति विकसित होती है, भूमि उपजाऊ होती है। घरों में समृद्धि होती है तथा सिर पर ऋण नहीं चढ़ता।

 

अमरीका के सुविख्यात डाक्टर वेकफील्ड ने लिखा है कि सच पूछो तो गऊ समृद्धि और सम्पन्नता की जननी वा माता है। प्राचीन काल के हिन्दू दूध मक्खन का प्रचुर प्रयोग किया करते थे। इसलिए वे शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ थे। उनके मस्तिष्क बहुत उर्वरा थे। सहनशक्ति आश्चर्यजनक थी। उन्होंने संस्कृत सरीखी पूर्ण, उत्कृष्ट तथा व्यापक समृद्ध भाषा को जन्म दिया। पीढ़ी दर पीढ़ी (गुरु शिष्य परम्परा से) वेदों को कण्ठाग्र करना तथा इतने विस्तृत ज्ञान, साहित्य तथा अध्यात्मवाद का प्रसार केवल गऊदुग्ध के भोजन से ही सम्भव हो पाया। वे ज्ञान के प्रत्येक विभाग (शाखा) के मर्मज्ञ अधिकारी विद्वान् थे। विद्या ज्ञान, दर्शन, तथा अध्यात्म में, सैन्य कला तथा व्यापार में सुदक्ष थे। इन सब गुणों विशेषताओं का कारण गाय का दूध तथा फलों का प्रयोग था।

 

श्री डब्ल्यू स्मिथ सहायक निर्देशक, कृषि विभाग का कथन है कि पुराणों में जो वर्णन आलंकारिक रूप में आता है कि भूमि बैल के सींग पर खड़ी है, उसका अभिप्राय यही है कि क्योंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यह गाय बैल पर ही निर्भर है। यदि बैल न हों तो भारत की लहलहाती खेतियां उजड़ जायें क्योंकि हल जोतने के लिए बैल का होना आवश्यक है। इसके बिना भूमि वा खेतों की जोताई होना कठिन है। अतः गऊ को महत्व दिया गया है तथा इसके प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के लिए एक दिन नियत किया गया है जिसे गोपाष्टमी कहते हैं। उस दिन इसके गले में पुष्प माला पहनाई जाती है। इसके सींग सजाये जाते हैं। चावल व आटे के पेड़़ो से इसकी सेवा की जाती है। अतः परमात्मा ने भारत को गाय के रूप में सर्वोत्तम देन दी है इसलिए यहां के राजे-महाराजे, ऋषि-मुनि, जनसाधारण सब गऊ का सम्मान व पालन करते चले आये हैं तथा घर में गाय का रखना अपना धर्म समझते थे। इसके साथ वह अपने घरों को समृद्ध, स्वस्थ तथा सम्पदा से भरपूर रखते थे।

 

गऊ माता विश्व की प्राणदाता पुस्तक के लेखक ने इसके दूसरे अध्याय में 5 यूरोपीय विद्वानों, इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका से एक उद्धृण तथा 6 मुस्लिम विद्वानों के गोरक्षा के समर्थन में सबल युक्तियों से प्रस्तुत कथनों को उद्धृत किया है। लेख को अधिक विस्तार न देकर अब हम इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका का उद्धृण प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थ में लिखा है कि यदि संसार की सभ्य जातियां पशुओं की पूजा की ओर प्रवृत हो जायें तो गऊ सर्वाधिक पूजा के योग्य होगी। ओहो ! गऊ कैसा सौभाग्य का, कल्याण का स्रोत है। वह मक्खन, पनीर, दूध, दही ही नहीं देती प्रत्युत सींग, चमड़ा, मूत्र इत्यादि जैसे उत्तम, गुणकारी और उपयोगी पदार्थ देती है। हम उसके बच्चे को लूट लेते हैं जबकि उसके लिए बहुत स्वल्प दूध छोड़ते हैं। शोक ! महाशोक !! मनुष्य कितना स्वार्थी है। इसी का परिणाम है कि बैल निर्बल शरीर वाले उत्पन्न होते हैं तथा इनका वंश बलशाली नहीं होता।

 

मेहता जैमिनी जी लिखित गऊ माता पुस्तक सभी भारतीयों मुख्यतः सभी गोभक्त, गो प्रेमियों व ऐसे सभी लोगों को जो गाय का दूध पीते हैं व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में गाय के किसी भी उत्पाद व उत्पादों से लाभान्वित होते हैं, उन्हें इस पुस्तक को कर्तव्य रूप जानकर पढ़ना चाहिये। कृतघ्नता महापाप है। कृतघ्न मनुष्य, मनुष्यता का सबसे बड़ा शत्रु, दूषण और कलंक होता है। गाय अघ्न्या व अवध्य है और गोमांस अभक्ष्य पदार्थ है। हमारी जन्मदात्री माता और गो माता दोनों ही हमारा पालन व पोषण करती हैं। दोनों ही हमारे लिए पूज्य व सत्करणीय देवता हैं। हमें कर्तव्य को जानकर गोमाता का भी अपनी जननी माता के समान पालन व रक्षण करना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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